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द्रोणाचार्य का अन्त
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कट रहे थे । रहे सहे पाण्डव संनिक भी भयभीत हो गए थे।
पाण्डव महारथी चिन्तित हो उठे । श्री कृष्ण ने कहा"अर्जुन । आज द्रोणाचार्य से अपनी सेना की रक्षा करना आसान नहीं हैं । जब तक वे हैं, तुम्हे अपनी सफलता' की आशा ही नही करनी चाहिए। और जव तक उनके हाथो मे शस्त्र हैं, तब तक तुम्हे उनके परास्त होने की आशा नही होनी चाहिए।"
- "फिर क्या किया जाय, मधु सूदन ! कुछ तो उपाय वताईये।'-अर्जुन ने विनीत भाव से पूछा।
कृष्ण बोले-"एक ही उपाय है वह यह कि किसी प्रकार उन्हें हत प्रद कर दिया जाये । वे जव किसों अपने प्रिय के बध का समाचार सुनेगे, तो वे व्याकुल होकर रह जायेगे ' और उन से शस्त्र । चलेगा ही नही, बस उसी समय उन्हे मारा जा सकता है।"
"परन्तु पहले उनके किसी प्रिय जन का मृत्यु होनी चाहिए "-अर्जुन सोचते हुए बोला।
"नही, इसके लिए यह उपाय किया जा सकता है कि कोई उनके पास जाकर यह समाचार सुनाये कि अश्वस्थामा मारा गया, बस काम बन जायेगा।"--श्री कृष्ण बोले ! अर्जुन सुनकर सन्न रह गया। इस प्रकार असत्य मार्ग का अनुकरण करना उसे ठीक न जचा । ऐसा करने से उसने साफ इन्कार कर दिया । पाण्डव पक्ष के दूसरे वोरो ने भी इसे नापसन्द कर दिया । . .
तव श्री कृष्ण ने कहा-"सोच लो ! .. आज द्रोणाचार्य तुम्हारी सेना को तहस नहस कर देगे। कल तुम्हारे महारथियो को मार डालेगे और इस प्रकार तुम सब मारे जाओगे। यही नही, बल्कि तुम्हारे परिवार का भी एक प्रकार से नाश हो जायेगा, जो तुम्हे विजय दिलाने अथवा दुर्योधन के अन्याय को परास्त करने के लिए तुम्हारे साथ जीवन की आशा त्याग कर यहा पाये हैं।" ' कृष्ण की बातो का जादू की भाति प्रभाव हुमा । और युधिष्टिर सोचने लगे--- "मेरी भूल से मेरे भ्राता जी मेरे साथ वनो मे भटकते फिरे, और दास बनकर रहे और आज मेरे ही कारण सहस्रो शूरवीर द्रोण के हाथों मारे जायेंगे। सहन्नो ललनाए विधवा होगी, लाखो वालक अनाथ हो जायेगे। उसके बाद भी अन्याय का