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________________ २० जैन महाभारत देता । अतः भ्रमण मे प्राय: मैं साथ रहने लगी और यथा सम्भव किसी मनुष्य को इसके चगुल मे न फसने देती थी । परन्तु प्राज अपने कारनामो की जो उचित सजा होनी चाहिये वह स्वयं ही यह प्राप्त कर बैठा । और यथा सम्भव सहायता करते हुए मैंने इसके ऋण से अपने को उऋण बनाया। मैं समझती हू मेरे सौभाग्य वश ही आपका इधर आना हो गया है। वरना इस श्रटवी मे प्रवेश करने का किसी को साहस ही नही हो पाता । हिडिम्बा ने अपना पूर्ण परिचय देते हुए कहा । इसके पश्चात् वह सुन्दरी पाडवों को अपने भवन मे साथ ले गई। जहां उसकी सहेलियों एव अनुचरों ने खूब अभ्यर्थना की । और विधि पूर्वक भीमसेन ने हिडिम्बा का पाणिग्रहण किया । अनुचरो के हाथ पीछे सकुशल का समाचार दे कर कुछ दिन पाडवो ने वही प्रकृतिछटा का आनन्द लेते हुए व्यतीत किये। और कौमुदी महोत्सव की समाप्ति पर इन्द्रप्रस्थ को गमन किया । भीमसेन को इसी पत्नि से घटोत्कच नामक महाप्राक्रमी पुत्र प्राप्त हुआ। जो कि अपनी माता एव नाना नानी की कृपा से विलक्षण विद्यानों को धारण करता था ।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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