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________________ १६२ जैन महाभारत को हम समझते हैं। परन्तु विपत्तिया किस पर नही पडती। जो विश्व विभूतिया होती हैं, उन पर सकट आते ही हैं, सकटो मे ही उनकी परीक्षा होती है। विश्वास रक्खें कि आप शत्रुओ पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे." , विद्वानी और अन्य मित्रों को इस वार्तालाप के पश्चात महाराज युधिष्ठिर ने विदा दी। व सभी हस्तिनापुर की ओर चले गए और वहां जाकर लोगो में यह बात फैला दी कि. पाण्डव आधी रात को हमे सोता छोड़कर कहीं चले गए। यह बात सुनकर उन लोगों में भान्ति भान्ति की शंकाए उत्पन्न हो गई जो पाण्डवो के प्रशंसक अथवा भक्त थे। कुछ लोग तो इस समाचार से बहुत ही दुखित हो गए। - . . . . . . . : : विद्वानों तथा अन्य साथियो के चले जाने के उपरान्त पाण्डव एकान्त में बैठ कर भावी कार्य क्रम पर विचार करने लगे। युधिष्ठिर ने अर्जुन को सम्बोधित करके कहा- "अर्जुन! तुम लौकिक व्यवहार में निपुण हो। तुम्हीं बतायो कि यह तेरहवा वर्ष , किस देश मे और कैसे बिताया जाय ?" , अर्जुन बोला-"महाराज ! 'स्वय धर्म देव ने आप को घर दान दिया है, इस लिए मुझे पूर्ण आशा है कि हमारा तेरहवा बप भी मुगमता से कट जाये गा और दुर्योधन हमारा पता न लगा सके गा चारों ओर पांचाल, 'मत्सय, शाल्व, वैदेह. वालिहक, दशाण, शूरसेन, मगव आदि कितने ही देश हैं। उस मे से आप जिसे पसन्द करे वहीं चलकर रहे। हां, मेरी राय यह है कि हम सभी की साथ ही रहना चाहिए। ज्वेप चाहे भिन्न भिन्न हो। - "फिर भी तुम इन सभी देशों में से किसे पसन्द करते हो !" युधिष्ठिर ने पूछा। "महाराज | मेरी राय तो यह है कि मत्सय देश मे जाकर रहा जाय । वहा का अधि पति महाराज विराट है, उसकी धानी बड़ी ही सुन्दर और स्मृद्ध है। योगे आपकी जैसी मजी। -अर्जन बोला। -THM .."
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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