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* चौहदवां परिच्छेद *
पाण्डव दास रूप में
तेरहवां वर्ष
वनवास को अवधि पूर्ण होने पर युधिष्ठिर अपने ग्राश्रम मे रहने वाले विद्वानो से बोले '
हे विद्वानो ! धृतराष्ट्र और उनके पुत्रो के जाल मे फस कर हमे अपने राज्य से हाथ धोने पडे । और महाराज पाण्डु की सन्तान होकर भी बनो मे दीन-दरिद्रो की भाति जीवन व्यतीत करना पडा । यद्यपि हम बडी कठनाई से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे, परन्तु आप लोगो की कृपा व समय समय पर मुनि राजो के सतसग से यह दरिद्रय पूर्ण जीवन भी हमने बहुत आनन्दं पूर्वक व्यतीत किया। परन्तु ग्रव हमारा वनवास काल समाप्त हो गया और अब हमे शर्त के अनुसार एक वर्ष तक अज्ञात वास मे रहना होगा । और कितनी कठोर शर्त है यह आप को ज्ञात ही है, अत हमारे साथ आप लोगो का रहना ठीक नही है । आप के रहते हम अज्ञात वास मे नही रह सकते । हमे प्रत्येक उस व्यक्ति से छुप कर रहना होगा जो भय से अथवा प्रलोभ मे ग्राकर दुर्योधन को हमारा पता बतलादे । अतः आप से विदा चाहते है । आप हमे आशीष देकर विदा करे ।"
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कहते.. कहते युधिष्ठर की याखे डब डबा आई । विद्वानो ने कहा- "महाराज ! प्राप के स्वभाव, दया भाव और प्रेम के कारण ही हम वन मे श्राप के साथ रहे । श्राप के मन की व्यथा
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