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जैन महाभारत
प्रतापी मेघावी नरेश पाण्डु की वहू, पाचाल की राज कन्या के सतीत्व को राहू ग्रस जाना चाहता है। मैं जिसने कभी कुन्ती माता का भी भय नहीं माना आज वही द्रौपदी भयभीत हरिणी की भांति अपने को बचाने का प्रयत्न कर रही है। वीर पुरुषो के 'सग निर्भय होकर जीवन व्यतीत करने वाली नि सहाय अवला की भाति ठोकरे खा रही है। वोलो और क्या भयकर घटना होनी शेष रही है।" सिसकती हुई द्रौपदी बोली।
____ "क्या हुअा?" विस्फारित नेत्रो से देखते हुए भीममेन ने पूछा।
"यह पूछो कि क्या नही हुआ? क्या उस दिन को वात भूल गए जव भरी सभा मे पापी कीचक ने मुझे लात मारी थी ।द्रोपदी ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा- महाबली | आखिर मैं यह अपमान पूर्ण जीवन कब तक व्यतीत करती रहू ? मुझ से यह अपमान नही सहा जाता नीच दुरात्मा कोचक का तुम्हे इसी समय वध करना होगा। महारानी होकर भी यदि मैं विराट की रानियो के लिए चन्दन व उबटन पीसती रही, और दासी बनी, तो तुम लोगों की प्रतिज्ञा के लिए। तुम लोगो की खातिर ऐसे लोगो की सेवा चाकरी कर रही हू जो श्रादर के योग्य नही है। मै आज रनिवास मे थर थर कापती रहती हू! मेरे इन हाथो को तो देवो ।"
कह कर द्रौपदी ने अपने हाथ भीमसेन के आगे पसार दिये। भीमसेन ने देखा कि कोमलागनी द्रौपदी के हाथो मे काले काले दाग पड़ गए है। भीमसेन का मन रो पड़ा। आक्रोश मे आकर बोला-"कल्याणी | धिक्कार है मेरे बाह बल को, धिक्कार है अर्जुन की शूरता को। हमारे जैसे वलिप्टो के रहते तुम्हारी यह दशा हो हमारे लिए डूब मरने की बात है। अब मैं न तो युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा का पालन करूंगा, न अर्जुन की सलाह की ही चिन्ता करूंगा। जो तुम कहो गी वही करूगा इसी घडी जाकर कीचक का बध किए देता हूं।"-इतना कह कर भीमसेन उसी क्षण फुरती से उठ खड़ा हुआ। भीमसेन को इस प्रकार एक दम उठते हुए