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जैन महाभारत
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सगे सम्बन्धी सब मारे जा चुके हैं । बस मैं अकेला- ही बचा हू । राज्य सुख का मुझे लोभ नही। यह सारा राज्य अब तुम्हारा ही है । जानो और निश्चित होकर राज्य काज सम्भालो ।'-दुर्योधन ने क्षुब्ध होकर कहा । ... ।
- "दुर्योधन ! कदाचित तुम्हे याद होगा कि एक दिन तुम्ही ने कहाँ था कि सुई की नोक जितनी भी भूमि नहीं दूंगा । शाति प्रस्ताव जब हमने तुम्हारे पास भेजा, तुमने उसे ठुकरा दिया । श्री कृष्ण को भी तुमने निराश लौटाया। हमे पाच गाव देना भी तुम्हे स्वीकार न हुआ । अब कहते हो कि सारा राज्य तुम्हारा 'ही है । शायद तुम्हे अपने सारे पाप याद नही रहे। तुमने हमे जो यातनाए पहुचाई और द्रौपदी का जो अपमान किया था, वे सब तुम्हारे महा पाप तुम्हारे प्राणो की वाल माग रहे हैं । अब तुम बच, मही पायोगे।' युधिष्ठिर ने गरजते हुए कहा । । ।
युधिष्ठिर के मुख से जव दुर्योधन ने यह कठोर वाते सुनी तो उसने गदा उठा ली और आगे आकर बोला-'अच्छा, यही सही, बिना युद्ध किए तुम्हे चैन नही पड़ने वाला, तो फिर आजानो। मैं अकेला हू, थका हुआ हू । मेरे पास कवच भी नहीं है । और तुम पांच हो, तथा तरो ताजा हो । इसलिए एक एक करके निबट ला। चलो।"
यह सुन युधिष्ठिर वोले- "यदि अकेले पर कईयो का आक्रमण करना धर्म नही है, तो इसका ध्यान तुम्हे बालक अभिमन्यु को मारत समय क्यो नही आया था ? तुम्ही ने तो, घिरवाकर अभिमन्यु की मरवाया था । सात सात महारथीं एक बालक को इकठ्ठ मिल कर मारे तो धर्म है, और जब हम पाच हो और तम अकल हो तो अधम है । अव तुम्हे धर्म के उपदेश सूझ है। सारे जीवन भर अधर्म किये और अब अन्त समय मे धर्म का प्रार्ड लेते हो ? चलो, हम तुम्हारी ही बान मान लेते हैं, चुन लो हम में से किसी एक का । जिसे तुम चाहो वही तुम से युद्ध करेगा। यदि द्वन्द्व युद्ध मे तुमन हम में स किसी को, जिससे तुम लडोगे, हरा दिया तो सारा राज्य तुम्हारा ही होगा, तुम्हारी विजय हो जायेगी और यदि मारे गए, तो अपन पापो का बदला नरक मे पायोगे।"