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________________ २३४ . जैन महाभारत ...... उन अस्त्रो की जगमगाहट देखकर उत्तर की प्रांखें फैली को. फैली रह गई । जगमगाहट की चकाचौंध से अधा सा होकर कुछ देर वह यूही देखता रहा। फिर सम्भल कर वोला-"वृहानला। यह तो बडे विचित्र अस्त्र है।" . “इसी लिए तो इनकी मुझे आवश्यकता थी।" .. राजकुमार ने इन दिव्यास्त्रो को एक एक करके बड़े कौतूहले के साथ स्पर्श किया। इन दिव्यास्त्रो के स्पर्श मात्र से. राजकुमार उत्तर का भय जाता रहा और उसमे वीरता की विजली सी दौड़ . गई। उत्साहित होकर पूछा- "बृहन्नला सचमुच क्या यह - घनुष वाण और खडग पाण्डवो के है ? मैंने तो सुना था कि वे राज्य से वचित होकर जगलो मे चले गए थे और फिर १२ वर्ष बाद उनका कुछ पता न चला कि मर गए या जीते हैं। क्या तुम पाण्डवो को जानती हो? कहा है वे ?" तव वृहन्तला ने कहा-"राजा विराट की सेवा करने वाले कक ही युधिष्ठिर हैं ।" गजकुमार को असीम आश्चर्य हुआ। पूछा-"क्या सत्र ।' "हा, हा महाराज युधिष्ठिर वही हैं।" "अरे ?" "और रसोइया वल्लभ वास्तव मे भीमसेन है। और जिम का अपमान करने के कारण कीचक को मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा वही रन्ध्री पांचाल नरेश की यशस्वनी राजकुमारी द्रोपदा है' अश्वपाल ग्रंथिक, और ग्वाले का कार्य करने वाला तंतिपाल पार पोई नही, नकुल तथा महदेव ही हैं।"-बृहन्नला ने कहा, जित सुनकर जहाँ राजकुमार को आश्चर्य हुआ, वहा हर्प भी। वह पूछ बैठा-"तो फिर वीर अर्जुन कहां है ?" . "अर्जुन तुम्हारे सामने उपस्थित है।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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