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कणं का दान
व्याकुलता केसे हरेगा ? यही सोचकर मैं वापिस लौट रहा है।"
"नही, मुझे ऐसी कोई बात नही है। मेरी व्याकुलता का कारण तुम्हारा ही भविष्य है । मैं तुम्हारे ही वारे मे सोच रहा था। वोलो, तुम क्यों व्याकुल हो?" - श्री कृष्ण ने पूछा।
"रहने दीजिए, मधुसूदन | अप्प जव निश्चित होगे, तभी पूछूगा।"-यह कह कर अर्जुन ने जाने का उपक्रम किया।
"अर्जन | तुम यो चले जानोगे, तो मुझे एक और चिन्ता आ घेरेगी । बोलो क्या बात हैं ?'-मधुसूदन ने आग्रह करते हुए . अर्जुन को रुकना पड़ा। वह श्री कृष्ण के पास बैठ गया, वोला-"आज मुझे नीद ही नही पाती, बार-बार मेरे सामने यही प्रश्न या खडा होता है कि द्रोणाचार्य को कैसे मारा जाये। वे जब तक जीवित हैं, तव तक हमारी सेना के लिए कालरूप धारण किए रहेगे। हमारी सफलता के लिए उनका बध होना आवश्यक है। पर हम मे से कोई ऐसा नही दीख पडता, जो उन्हें मार सके । आप से यही जानना चाहता ह कि द्रोण को मारने का क्या उपाय है ?"
श्री कृष्ण के अधरो पर मुस्कान खेल गई वे बोले-"पाथ ! द्रोणाचार्य को मैदान से हटाना कोई बड़ी बात नही है परन्तु मैं साच रहा हूँ कि करण का क्या होगा? उसे कैसे मारा जायेगा?"
"अोह । बस कर्ण के बारे मे आप चिन्तित हैं ?--अर्जन ने उतावलेपन से कहा-वह तो मेरे एक बाण का भक्षण है। आप व्यर्थ ही चिन्ता कर रहे है।"
"धनजय ! कर्ण न तेरे वाण का भक्षण है न मेरे। उसे न तुम मार सकोगे न मैं । वह वास्तव मे विकट वीर है, हमारे लिए वही विकट समस्या है।"- श्री कृष्ण ने कहा।
अर्जुन को बडा आश्चर्म हया उसने कहा-"मधुसूदन! आप नजाने कर्ण को क्या समझ वंठे हैं ? मेरे विचार से तो उसका वध करना साधारण सी बात है।"
"नही, कणं जहाँ महावली है, वहीं इस युग मे सब से श्रेष्ठ निवार है। उसके पूर्व सचित पूण्य के प्रभाव से उसे मार डालना
।। के बस की बात नही , वह अपनी शुभ प्रकृति के कारण अजेय ९। भार उस समय तक वह अजेय है, जब तक उसके पास देवी
। है। और उस समय तक १६