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जैन महाभारत
कर दिया । हमारे शाति-दूत श्री कृष्ण की अपने ही दरवार में उसई : हत्या करनी चाही हमारे मामा को उसने धोखा देकर अपने पद हार मे लिया। युद्ध मे बालक अभिमन्यु को अनीति से मरवाया । योनि कितनी ही ऐसी बातें थी कि मेरे हृदय को छलनी कर गई थी। उसी की अनीतियो के फल स्वरूप मुझ से यह दुष्कर्म हुआ । इसलिए मा मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं जीवन भर आपकी ऐसी सेवा करूंगा निक आपको पुत्र हीना होने का खेद ही नहीं रहेगा। मैं दुर्योधन को प्राक को नही दे सका तो इसके बदले, अपने आप को देता हूं।" बाव सर्वज्ञ देव का कथन है कि यह सामुदांणी कर्म होते हैं जो प्राणि के कई कारणो से सहार होते है
यह सुन गाधारी करुण स्वर मे वोली-"वेटा ! मुझे दुः इस बात का है कि तुम लोगों ने मेरे सौ के सौ पुत्र मार डाले, एवं तो छोड ही दिया होता, जिस पर हम सन्तोष कर लेते।"
फिर उस देवी ने युधिष्टिर को अपने पास बुलाया। यधिष्टिरी काँपते हुए उसके सामने गए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए । वे बहुत ही भय विह्वल हो रहे थे। बडे ही नम शब्दो में वोले-"देवी! जिस अत्याचारी ने आप के पुत्रो की हत्या कराई, वह यदि आप के शाप के योग्य हो तो शाप दे दीजिये। सचमुच में बडा कृतघ्न हूं। मैंने बडा पाप किया। श्राप से क्षमा मागू तो किस मुंह से?
आखिर सामुदाणी कम ही होते है जो किसी समय, जीव अशु, भावना से बाधते हैं- गाधारी को क्रोध आ रहा था, पर वह कुछ बोली नहीं । युधिप्टिर की, बार्तों से वह नम हो गई । इतने में ही द्रौपदी रोतो. हुई गांधारी के पास गई। उसे रोता देख गांधारी बोली-"बेटी ।। मेरी ही भांति तु भी दुखी है। पर विलाप करने से क्या होता है। तू मुझे इसके लिए दोषी समझ कर क्षमा कर दे".
। ... पाण्डव वहाँ से चले गए। गाधारी द्रौपदी को धैर्य बंघाती "रही। कितना करुण दृश्य था वह, एक शोक विह्वल नारी' दूसरी नारी को धैर्य बंधा रही थी, उस नारी को जो उसकी पत्नी थी। 'जिंस के प्रति गाधारी कुपित थी। '