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-जैन महाभारत
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तुम मे न वृद्धि है और न विवेक ही, और खड़े हो गए तर्क वितर्क करने को । अरे मूर्ख, जब युधिष्ठिर ने पहली बाजी मे अपनी सारी सम्पत्ति हार दी, तो फिर उसके पास बचा ही क्या ? द्रौपदी तों स्वयमेव ही हारी गई । युधिष्ठिर के शब्द नही सुने जो वह अपने भाईयो की बाजी लगाते हुए कह रहे थे । वह अपने भ्राताओं आदि को अपनी ही सम्पत्ति मानते है । इस लिए तुम्हारी शंकाएं पूरी तरह बकवास हैं, उन में कोई तथ्य नही। मेरी समझ मे तो यह नही आ रहा कि अभी तक पाण्डव अपने राज्योचित वस्त्रो मे क्यो है ? जब सारी सम्पत्ति हार गए तो पाण्डवो और द्रौपदी के सारे कपडे तक भी दुर्योधन के हो गए । यह तो दुर्योधन का प्रातृ प्रेम समझो कि वह इन मूल्यवान कपडों को पहनने की पाण्डवो और द्रोपदी को अभी तक छूट दे रहे हैं ।”
कर्ण की कठोर बातो से पाण्डवो पर तो वज्र टूट पड़ा। उन्हों ने उसी समय बहुमूल्य वस्त उतार दिए । दुर्योधन को तो एक नया उत्पात सूझ गया, जो कदाचित अभी तक उस के मस्तिष्क मे न आया था, उस ने दु शासन को लक्ष्य करते हुए कहा - "यह द्रौपदी कैसे अभी तक साड़ी पहने खडी है। दुशासन अभी ही, इसी समय
इसकी साडी उतार लो ।”
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सभा मे उपस्थित लोग दुर्योधन के इस आदेश को सुन कर कांप उठे । न्याय प्रिय लोगो के नेत्रो से अश्रुधार फूट पडी । वृद्ध जनो ने अपना मुह ढाप लिया | चारो ओर श्मशान की सी शांति छा गई ।
दुशासन आगे बढा और वह दुरात्मा द्रोपदी की साडी खीचने लगा । अब बेचारी द्रोपदी क्या करती। उसने मनुष्यो की प्रामा त्याग कर उस समय शासन देव को याद किया, जिन प्रभु की रद लगाई, उसने ग्रार्त्त स्वर मे शील सहायक देव की टेर लगाई - "प्रभु ! अव तुम्ही हो मुझ अवला की लाज के रखवारे । तुम्हारी शरण आती हूं। हे घासन देव ! यदि मैं वास्तव मे पतिव्रता और सती हू तो आओ मेरी लाज बचाओ। मेरे पति और मेरे मभी सहायक इस समय मेरा साथ छोड़ चुके है, पर आप तो मेरा साथ न छोड़ना । लो मैं ग्राप ही की शरण आती हूं'
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द्रौपदी कहती कहती प्रचेत हो गई। उस समय एक श्रदभुत
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