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अद्भुत महल
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नही किया जा सकेगा । कर्मचारियों का वेतन रुक जायेगा, इसलिए वे असन्तुष्ट हो जायेंगे । इस प्रकार राजा का सारा ढांचा ही अस्त व्यस्त हो जायेगा। यह सोच कर वह एक पैसे के स्थान पर चार पैसे व्यय कर रहा था, पर जब उसने देखा कि उसकी इस नीति से पाण्डवो के यश मे ही वृद्धि हुई तो वह अपने भाग्य को कोसने लगा।
शिशु का नाम अभिमन्यु रक्खा गया। ज्योतिपियो ने उस के वीर होने की भविष्यवाणी की। श्री कृष्ण ने शिशु को वहुमूल्य उपहार दिए। उन्हे अपार हर्ष हो रहा था, यह देखकर कि बालक का कातिवान मुख और उज्ज्वल ललाट बता रहा था कि वालक अद्भुत वीर योद्धा होगा।
उत्सव की समाप्ति पर समस्त नरेश, अतिथि एवं विद्वान गण विदा हो गए। पर दुर्योधन को युधिष्ठिर ने यह कर रोक लिया-"ऐसी क्या जल्दी है, कुछ दिन ठहर कर चले जाना, जैसा हस्तिनापुर वैसा ही आपके लिए इन्द्रप्रस्थ है।"
सभी पाण्डवो ने दुर्योधन से बहुत प्रेम दर्शाया, दुर्योधन मन ही मन उनसे कुढता था, पर प्रत्यक्ष रूप मे वह भी उन से प्रेम ही दर्शाता। भाईयो के कहने पर कुछ दिन उसने वही रुकना स्वीकार कर लिया।
जन्मोत्सव पर बना हुआ अदभुत महल उन दिनो इन्द्र प्रस्थ मे दर्शनीय भवन था, जो देखता वही प्रगसाए करता। परन्तु दुर्योधन ने अभी तक उमे जाकर नही देखा था, क्योकि ईर्ष्या के कारण उसे यह कदापि सहन नहीं हो सकता था कि पाण्डवो की किसी भी वस्तु की प्रगसा करनी पड़े।
परन्तु एक दिन भीम ने दुर्योधन से कहा-"भ्राता जी ! मणि चर द्वारा निर्मित भवन आप भी तो देखिए। लोग तो बढी प्रगमा करते हैं। पर कला की पहचान पाप मरीने कला प्रेमियो और अनुभवियो को ही होती है। लोग तो किसी को प्रसन्न करने यो लिए भी वैसे ही प्रगसा कर दिया करते हैं। चलिए शाप देन कर उस में जो कमि हो वताईये। महाराजाधिराज युधिष्टिर ने