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अभिमन्यु का बध
वस्था मे सभी भूल गए ? युद्ध धर्म को तिलांजलि देदी है तो कुछ कर के भी दिखाओ ।"
बात ठीक थी । उस स्थिति मे उसे यही कहना भी चाहिए था । वह अकेला ही छ महारथियो से टक्कर ले रहा था. फिर भी किसी के वाण उस पर असर न कर रहे थे। शत्रुग्रो से घिरा होने पर भी उस के मुख पर चिन्ना का कोई लक्षण दिखाई न देना था । वह पहले को ही भांति निश्चिंत हो कर युद्ध कर रहा था । द्रोणाचार्य मन ही मन लज्जित थे, पर लडने पर विवश थे । कर्ण बहुतेरा निशाना वाघ कर बाण चलाता पर अभिमन्यु तो क्षण क्षण मे मंतरे वेदल रहा था । श्रपने निशाने खाली जाने से वह भी घबरा गया, लज्जित भी हुआ और अन्त मे क्रोध भी आया, न जाने अपने पर या अभिमन्यु पर । फिर भी वह लड़ता रहा । कदाचित श्रक्रेला उस स्थिति मे लडता तो अब तक अभिमन्यु के बाणो से विघ गया होता आकाश मे अपने विमानो पर चढ़े जो देवता इस महा समर को देख रहे थे श्रभिमन्यु के पराक्रम, वीरता तथा साहस पर मुग्ध हो गए । उनका मन हुग्रा कि दौड़ कर इस वीर बालक को छाती से लगा ले -1
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तभी कर्ण ने धीरे से द्रोणाचार्य से कहा - "गुरूदेव ! यह बालक है या मायामयी योद्धा । किसी तरह मार ही नही खाता / कुछ कीजिए गुरूदेव ! वरना दुर्योधन हमे अपने वाग्वाणों से बीध डालेगा ।"
द्रोण ने कर्ण को उत्तर देते हुए कहा - " बात यह है कि इस ने जो कवच पहन रक्खा है, वह भैदा नही जा सकता। ठीक से निशाना वाघ कर इस के घोडो को रास काट डालो और पीछे की ओर से इस पर प्रस्त्र चलाश्रो ।'
कर्ण ने श्राचार्य के परामर्श के अनुसार कार्य किया । पीछे की घोर से ग्रस्त्र चलाए । अभिमन्यु का धनुष कट गया । तव क्रुद्ध हो कर अभिमन्यु ने ललकारा - "अधर्मियो ! पीछे से अस्त्र चलाते तुम्हें लज्जा नही आई। इसी विरते पर वीर बनते हो । एक वालक के ऊपर यह अन्याय । धिक्कार हे तुम्हारे बाहुबल पर ।"
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'कर्ण रुका नही, वह अस्त्र चलाता ही रहा और शीघ्र ही समरत महारथियो ने मिल कर अभिमन्यु के सारथि घोर उस के