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जैन महाभारत
से घबराकर यदि तुम अपने कर्तव्य से गिर जाते हो तो वह भी एक महा पाप हो जाता है। तुम यहा न्याय प्रतीक हो कर अन्याय की रोक थाम के लिए पाए हो और तुम्हारा सामना करने आये लोग चाहे वह 'तुम्हारे कोई भी हो, इस समय अन्याय और अधर्म के पक्ष पाती है। धर्म कहता है कि तुम अन्याय को सहन न करो। अन्याय को सहन कर लेना भी अन्यायियो को सहयोग देने के समान ही है। क्षत्रिय का कर्तन्य है कि वह अपने देश, न्याय, धर्म, मान मर्यादा आदि की रक्षा के लिए अन्यायी का सामना करे और या तो वीर गति को प्राप्त हो अथवा विजय पताका फहरो कर न्याय का बोल बाला करे। यदि आज तुम ने अन्यायियो को अपने परिवार के कारण अन्याय करते रहने को छोड दिया तो सोचो कि यह मोह, यह पक्षपात, अन्याय की बृद्धि मे सह्योगी नही होगा ?' क्या तुम भी उसी पाप के भागीदार नही होगे जो आज कौरव कर रहे है ?" - .
. अर्जुन ने कहा-"आप की बात ठीक भी हो तो भी मैं कैसे रण भूमि मे अपने वाणो से भोष्म पितामह और गुरुदेव - द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़गा?" ... . .
. "पार्थ ! तुम भूलते हो,- श्री कृष्ण बोले-जो लोग यह जानते हुए भी कि तुम उनके अपने हो। उन के साथ तुम उचित व्यवहार करते हो। तुम ने कभी शिष्टाचार अथवा धर्म के प्रतिकूल कार्य नही किया, यह जानते हुए भी तुम्हारे गुरुदेव तथा पितामह तुम्हारे विरुद्ध अन्यायी के पक्षपाती होकर आये है, तो स्वजन के प्रति चलने वाले शिष्टाचार तथा कर्तव्य को तो उन्हो न ही भग कर दिया। इन लोगो का यहा तुम्हारे विरुद्ध पानी इनकी . अशुभ प्रकृति का द्योतक है। अब तुम्हे उन के विरुद्ध धनुष उठाने मे कोई आपत्ति होनी ही नहीं चाहिए। यदि पितामह और गुरुदेव . तुम्हारे विरुद्ध शस्त्र प्रयोग कर सकते हैं तो फिर तुम्हे. शस्त्र प्रयोग करने में कोई हिचक नही होनी चाहिए। जैसी किसी की प्रकृति होती है उस के सामने वैसी ही प्रकृति आ जाती है।
. "हे गिरधारी । मैं उसी पाप को करने को क्यो तैयार हो