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________________ पाण्डव बच गएँ १५३ रोये। वे बार बार सोचते कि ऐसा कौन शत्रु हो सकता है. जिसमे इन चारों का वध करने की सामर्थ्य थी? वे अपनी भूल को ही भ्राताओ के वध का कारण समझ कर पश्चाताप करने लगे- "हाय ! मै हो यदि अधर्म पर पग न बढाता जुया न खेलता तो दिग्विजय की सामर्थ्य रखने वाले मेरे इन भ्रांताओ का वध न होता। शास्त्रो मैं ठीक ही कहा है कि जुआ नाशकारी खेल है। मैं ही इन की अकाल मृत्यु का कारण बना। परन्तु यदि वास्तव मे मेरी भूल ही. के कारण मुझ पर यह विपदा पडी, तो मुझे ही उस आजेय शक्ति ने उस का दण्ड क्यों न दिया ? क्यो मेरे प्रिय भ्राताओ को उसका दण्ड भोगना पडा।" - करुण कुन्दन करते करते युधिष्ठिर को कितना ही समय व्यतीत हो गया। और वे प्यास से व्याकुल होकर जलाशय की ओर अग्रसर हुए। उन्होने ज्यो ही पानी पीना चाहा। फिर वही आवाज आई। साथ ही यह भी आवाज आई कि-"युधिष्ठिर महाराज | पानी न पियो। तुम ने भी यदि अपने भ्राताओ जैसी ही भूल की, मेरे चेतावनी देने के उपरान्त भी पानी पिया, तो तुम्हारी भी वही दशा होगी, जो तुम्हारे भ्रातानो की हुई है " १२ ९ ' .:-. __ आवाज़ सुनते ही महाराज युधिष्ठिर रुक गएँ और वह समझ गए कि यह किसी यक्ष की माया है। फिर भी वे यह सोच कर पानी पीने लगे कि-"जब मेरे भ्राता ही संसार मे नहीं रहे तो मैं जी कर क्या करूगा।" दुखित युधिष्ठिर ज्यों ही जल पोकर बाहर आए तो अपने भ्राताओ के पास आते ही अचेत होकर गिर पडे । दूसरी ओर कनकध्वजे ने कृत्या-विद्या सिद्ध करली। कृत्या उसके सामने पहुंची और प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण करने का वचन दिया। '. वह बोला-"यदि तुम मे अतुल्ल शक्ति है, तो जाकर अभी ही पाण्डवो का काम तमाम करदो।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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