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________________ २२० जैन महाभारत. - P ८ तो इस मे आश्चर्य की क्या बात है ? क्या में बीर विराट की सन्तान नही हूं ।” 1^ “भैया ! मुझे प्राज तुम्हारे मुख से यह बात सुनकर कितना हर्ष हो रहा है, बस मैं ही जानती हूं। तुम विजयी होकर लौटो मेरी यही हार्दिक कामना है ।" ९ उत्तरे ! विजय तो मेरी निश्चित हैं पर मैं जाऊ तो कैसेकोई · सारथी तो है ही नही ।" T "भैया ! मैं तुम्हे यही शुभ सवाद सुनाने आई थी "क्या ?" }, "} 59 "सारथी मिल गया और वह भी अर्जुन का " आश्चर्यपूर्वक उत्तर ने पूछा - " कौन है वह ?" कहा है 1 ,} "यह हमारी वृहन्नला है ना । यह अर्जुन का रथ हावा करती थी । इमे अर्जुन ने धनुर्विद्या भी सिखाई है | तुम्हारे सारथी का काम देगी ।" बस यह अपनी बनी बनाई धाक को चोट पहुचने के भय से राजकुमार उत्तर ने कहा - " उत्तरे । तुम भी कैसी मूर्खता की बात करती हो। कहा बृहन्नला नपुंसक और कहाँ युद्ध रथ का मारथी । अरे तुम ने भाग तो नही खा ली तनिक सोचो तो कि क्या अर्जुन को यही मिली थी रथ हाकने को ?" "नही भैया । मौरन्ध्री कहती है अर्जुन इसे बहुत स्नेह करते थे। तुम युद्ध मे जाना चाहो तो बृहन्नलों को अपना मारी बना लो। न जाना चाहो तो दूसरी बात है ।" उत्तरा की उस बात मे राजकुमार उत्तर ने अपनी बात बनाए उसने के लिए कहा- "नही ! मुझे तो कोई आपत्ति नहीं बृहन्नला यदि वास्तव मे रथ हाक सके । तो मेरे साथ चले ।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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