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________________ १.४.४ ... जैन महाभारत ने बन्दी बना लिया, और उसके शत्रु पाण्डवो के कारण उसकी मुनि हुई, बहुत ही दुख था। उसने कर्ण को लक्ष्य करके कहा - "क भाई । अव मेरा जीवन व्यर्थ है : इस से तो अच्छा था कि गध राज मुझे मार डालता या पाडवो द्वारा मुक्त होने से पहले, मैं युद्ध मे मारा जाता। मुझे जितने भय कर अपमान को सह करना पड़ रहा है, वह मेरे लिए असह्य है। नेरे शत्रु पाडवों मुझ पर एक अहमान कर दिया, वे कितने प्रसन्न होगे और इ घटना को ले कर मेरा कितना उपहास कर रहे होगे। मेरो । इच्छा है कि मै अब हस्तिनापुर हो न जाऊ, बल्कि यही अनश करके प्राण लगा हूँ।" दुर्योधन को इतना दुखी देख कर कर्ण ने उसे सान्त्वना दे हुए कहा-'दुर्योधन | आखिर इतनी सी बात को ले कर तुम इत निराश हो गए 'गिरने हैं शहमवार मैदाने' जग मे' इस मे कौन अपमान की बात है। पाडवो ने आकर , तुम्हे मुक्ति भी दिलादी तो क्या हुआ ? तुम स्वय थोडे ही उन से सहायता की याचना करने गए थे। मैं तो समझता हू कि यह सारा काण्ड पांडवो की इच्छा से ही हुअा। अपने ही फैलाए जाल मे उन्होने तुम्हे फासा और स्वय बड़े भारी दयावान बनने के स्वप्न, मे मुक्त करा बैठे। उनमे बुद्धि होती तो कही वे तुम्हे मुक्त कराते.? , तुम्हे तो उनकी इस मूर्खता से लाभ उठाना चाहिए।" दुर्योधन के मन मे वात नही बैठी, उस ने कहा- "नहीं, नहीं उनका विछाया जाल भी हो तो भी मेरी सारी शक्ति उनके सामने हेच हो गई, यह क्या कम अपमान हे। अभी से जव उन की इतनी शक्ति है, तो तेरह वर्ष पश्चात तो और भी बढ जायेगी। फिर वे अवश्य ही राज्य छीन लेंगे।" ___शकुनि ने उस समय धैर्य बन्धाते हुए कहा- "दुर्योधन तुम्हें . भो उलटी ही सूझा करती है। जव जैसे तैसे छल कपट से मन
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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