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________________ अर्जुन की प्रतिज्ञा जिम्मेदार है !" तब युधिष्ठिर बोले-"तुम्हारे सशप्तकों से युद्ध करने जाने के उपरान्त द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह ग्चा । हम में से कोई उस व्यूह को तोडना नही जानता था, हमारी सेना का संहार होने लगा मैं वहाही दुखी हमा। तभी उस वीर ने आकर बताया कि वह व्यूह मे प्रवेश करना जानता है। हमने सोचा कि हम भी उस के पाछे व्यूह मे चले जायेगे ताकि सकट के समय हम उस की रक्षा कर सक । यह सोच कर मैंने उसे व्यूह तोडने की आज्ञा देदी। और हम सव उस के पीछे पीछे चले। एक विशाल सेना हमारे साथ थी, परन्तु पापी जयद्रथ ने हमारा रास्ता रोक लिया और वीर अभिमन्यु तो व्यूह मे चला गया, जयद्रथ ने हमें न जाने दिया वह वीर अकेला ही शत्रुओ को तहस नहस करता हुआ आगे बढ़ता रहा। जहा से व्यूह टूटा था जयद्रथ ने अपने सैनिको से वह दगर तुरन्त भर दो और फिर दुष्ट कौरव महारथियो ने मिल कर चारो तरफ से घेर कर उसे मार डाला " ___ इतना सुन कर ही अर्जुन को भृकुटि धनुष के समान तन गई आखो में ज्वाला झाकने लगी और उस ने उसी समय प्रतिज्ञा की'मैं अपने गाण्डीव की सौगन्ध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि कल सूर्य अस्त होने से पहले ही दुष्ट जयद्रथ का जो मेरे पुत्र के वध का कारण बना सिर काट डालूंगा। अन्यथा मैं स्वय ही जीवित चिता मे प्रवेश करूगा।" . अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन कर वहां उपस्थित पाण्डव कांप उठे। बड़ी ही दढ़ प्रतिज्ञा थी। और सभी जानते थे कि अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्ण करेगा। श्री कृष्ण भी उस की प्रतिज्ञा मन कर विस्मित रह गए। उम के बाद युधिष्ठिर ने सारी कथा विस्तार सुनाई । जिसे सुन कर अर्जुन बिगड़ कर बोला-'द्रोणाचार्य को लज्जा न पाई। एक बालक को छ. महारथियो ने घेर कर मारा. इस अधर्म पर वे डूब न मरे। अच्छा कोई बात नहीं मैं इस युद्ध मे इन सबको मौत के घाट उतार दूंगा।' फिर उस ने अपनी दृढ प्रतिज्ञा को दोहराया और कहा कि
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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