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-'* त्रेपनवाँ परिच्छेद *
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अश्वत्थामा
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दुर्योधन पर जो कुछ बीतो उसका वृतात सुनकर अश्वस्थामा बहुत क्षब्ध हो उठा। उसे इस बात का वडा दु.ख हुया कि भोम सेन ने दुर्योधन की जाघ पर गदा प्रहार किया और इस प्रकार युद्ध के नियमों का उल्लघन करके अधर्म तथा पाप .. किया । साथ ही उसे अपने पिता द्रोणाचार्य के मरने के लिए जो कुछ कुचक्र रचा गया था, वह भी अभी भूला नही था । वह मारे क्रोध के आपे से बाहर हो गया । उसकी मुठ्ठिया वार वार वन्ध जातो और दात पीसने लगता। उसके जी मे पाया कि वह कही भोम को अकेला पाये तो उसे अपने क्रोध की ज्वाला मे भस्म करके रखदे । वह तुरन्त दुर्योधन के वचे खुचे सैनिको को लेकर उस स्थान की ओर चल पडा, जहा दुर्योधन पड़ा हुआ मृत्यु की प्रताक्षा कर रहा था।
जाते ही उसने दुर्योधन के सामने प्रतिज्ञा की कि आज ही रात्रि को मैं पाण्डवो का वीज़ नप्ट करके ,रहूगा मृत्यु की प्रतीक्षा करते दुर्योधन के मन मे पुन पाण्डवो के प्रति विद्वेष की ज्वाला भडक उठी। उसने पड़े पड़े ही आस पास खडे लोगो के सामने विधिवत अश्वस्थामा को अपनी सेना का सेनापति बना दिया और बोला-'प्यारे अश्वस्थामा ! अव तुम्ही मुझे शाँति दिला सकते " हो। तुम्हे सेनापति बनाना कदाचित मेरे जीवन का अन्तिम काय है। मैं बडी आशा से तुम्हारी वाट जोहता रहूगा । मत भूलना कि