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जैन महाभारत
खेलने का बुलावा वे भेज देंगे । दुर्योधन और शकुनि वहुत प्रसन्न हुए। दोनो ने मिल कर इन्द्रप्रस्थ मे देखे भवन जैसा ही एक सभा मण्डप तैयार कराया और फिर बुलावा भेजने को कह दिया।
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एक दिन धृतराष्ट्र ने विदुर जी को बुला कर चुपके से इस सम्बन्ध मे उन से भी राय ली । विदुर जी ने इस बात का विरोध किया । पर धृतराष्ट्र ने अन्त में यह कह कर बात समाप्त कर दी कि- " जो हो मुझे भी ऐसा लगता है कि प्रारब्ध हमें नचा रही है । नाग होना है, तो होगा ही । उस से हम कैसे बच सकते है | अव तो मैंने निर्णय कर ही लिया, इस लिए तुम जाकर युधिष्ठिर को सभामण्डप देखने और खेलने का निमंत्रण दे आओ ।"
"मुझे ऐसा लगता है कि हमारे कुल का नाश होना अब आरम्भ होने वाला है । आपकी ग्राजा मानेकर मैं चला भी जाऊ तो मेरी ग्रात्मा मुझे बारम्वार धिक्कारती । शास्त्रो मे जो सात दुर्व्यसन गिनाए गए हैं, जुआ उन में से प्रथम है । आप स्वयं उसे खिलाये वह बड़े दुख की बात है ।" विदुर जी ने कहा ।
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धृतराष्ट्र ने कहा - " विदुर जी । तुम्हारी बात युक्ति संगत होते हुए भी ग्राज मैं उसे अस्वीकार करने पर विवश हूँ। क्योकि मैं दुर्योधन से वायदा कर चुका है। यदि तुम्हारी आत्मा इन्द्रप्रस्थ जाने को स्वीकार नही करती, तो तुम्हारा जाना उचित नही है । में किसी दूसरे को भेज दूंगा ।"
विदुर जी धृतराष्ट्र के इस निश्चय को सुन कर क्षुब्ध होकर वहाँ से चले गए । ग्रन्त मे जयद्रथ को भेजना तय पाया । जयद्रथ के प्रस्थान करने से पूर्व दुर्योधन और शकुनि ने उसे बहुत कुछ
समझाया पढाया ।
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