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जरासिन्ध वध
मंत्री की बात से जरासिन्ध के अहकार को ठस पहुची थी अत. उस ने कडक कर पूछा-"उन मे कौन ऐसा है, जो मेरी सेना मेरे सहयोगियो और मुझ से जीत सके ?"
- मंत्री ने हाथ जोड़ कर कहा-"महाराज । रोहिणी के स्वयवर मे आप वसुदेव से परास्त हो चुके है। और अब तो वसुदेव के दो वीर पुत्र भी हैं, कृष्ण और वलराम, दोनों ही बलवान एव विद्यावान है, उन के साथ पाण्डव भी हैं, द्रौपदी के स्वयवर मे आप अर्जुन के कौशल को देख ही चुके हैं। उन के साथ नेमि नाथ जी भी है, जिन की दिव्य शक्ति की घर घर में चर्चा है। हे मगधेश्वर | उन वीरो का सामना करना दुर्लभ है। शिशुपाल रुक्मणि के हरण के समय श्री कृष्ण से मुह की खा ही चुका है। फिर आप किस वीर पर गर्व कर सकते है। श्रीकृष्ण के देव
अधिष्ठायक है, जिन्हो ने काली कुवर के प्राण लिए थे। अतएव ' अच्छा यही है कि आप लौट चलिए। युद्ध का विचार त्याग दी :: जिए।" । मत्री की बातें सुन कर जरामिन्य को बहुत क्रोध आया । । कहने लगा-"रे धूर्त ! कायर ! यदि शत्रुयो से इतना हो भयभीत । है तो यहां से भाग क्यो नहीं जाता? क्यो दूसरो को भी भयभीत
कर रहा है। या साफ साफ कह कि तू यादवो के बहकाए मे या । गया है।"
मत्री जरासिन्ध की बात सुन कर कांपने लगा, और यह समझ कर कि यदि कुछ और समझाने की चेष्टा करू गा तो व्यर्थ ' ही प्राण गंवाने पड़ेंगे । उसने जरासिन्ध की चापलूसी करना ही __ अपने लिए हितकर समझा। उसने कहा- "महाराज । पाप तो । बेकार ही रुष्ट हो गए, मेरे कहने का अर्थ तो यह है कि पुरानो १४ सारी वातो को याद करके और शत्रुनो की शक्ति को उचित प्रकार
से जानकर युद्ध करे । वैसे प्रापका रण क्षेत्र में नामना करना (रिसके वर की बात है, फिर भी चाह रचा गार युद्ध करना ।। शहिए। शत्रु भी पाप ने भयभीत है। आपकी तलवार की शक्ति,
को कौन नहीं जानता? मैं तो प्रापयो नुमो के मन की बात बता रहा था।"