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बाहरवां दिन
प्राचार्य कितने भी बलिष्ट और शास्त्र विद्या में पारगत सही, पर सहन करने की भी एक सीमा होती है। हमे ऐसे समय पर चलकर उनकी सहायता करनी चाहिए।" ।
" इतना कह कर कर्ण द्रोणाचार्य की सहायता को आगे बडा और उस के पीछे पीछे ही दुर्योधन का रथ चल पड़ा।
द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की कितनी हीचैप्टा की, पर द्रुपद, भीम, सात्यकि और विराट आदि उनके आड़े आये और वे लाख प्रयत्न करने पर भी युधिष्ठिर को न पकड पाये। तव दुर्योधन ने एक भारी गज-सेना भीम की ओर बढ़ा दी । भीम सेन ने रथ पर से ही हाथियो पर बाणो की ऐसी वर्षों की कि समस्त हाथी बिलबिला उठे। बाणो की बौछार से उन की बुरी दशा होगई। और हाथियों के शरीर रक्त-प्रपात वन गए ।
भीमसेन को ज्ञात था कि गज सेना को उसके सामने भेजने का उदण्डता किस धूर्त ने की है, अतः गजारोही सेना को निष्काम कर के उसने दुर्योधन के रथ को अपने बाणों का निशाना बनाया। उस के अद्ध-चन्द्र वाणों के प्रहार से दुर्योधन के रथ की ध्वजा काट कर गिर गई और धनुष भी टूट गया। दुर्योधन की यह दुर्दशा होते पख कर अग नामक एक नरेश साथी पर सवार होकर भीमसेन के भार्ग जा डटा। उस से कुपित होकर भीमसेन ने नाराच वाणों की कपा की। जिससे कृछ ही देरि में अग का हाथी रक्त से लथ पथ
गया और एक नभ स्पर्शी चिंघाड मार कर रण क्षेत्र से भाग पडा चारा अग वहुत प्रयत्न करने पर भी जव हाथी को न रोक पाया निराश होकर रण भूमि से जाने में ही अपना कल्याण समझ वठा । उसे रण क्षेत्र से भागता देख सारी कौरव सेना भाग पडी। जा शूरवीर अपने प्राण हथेली पर रख कर रण क्षेत्र में आये थे। इस प्रकार भाग रहे थे मानो भेड के झपड पर किसी भेडिये ने प्राक्रमण कर दिया है।
हाथियो की सेना का भागना था कि अश्व भी कांप गए और १ मा हाथियों का अनुसरण करते हए भागने लगे। फिर नम्वर मा का प्राया। इस भाग दौड़ मे पदाति सैनिक कूचले जाने लगे।