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जैन महाभारत
धृतराष्ट्र के दर्शन करने के इच्छुक थे, वो सोचते थे हस्तिनापुर जा कर उन्हे विदुर चाचा और भीष्म पिता मह से भी भेंट करने का अवसर प्राप्त होगा और प्रेम भाव से दुर्योधनके मन मे धधक रही ईर्ष्या दावानल को शान्त करने का प्रयत्न भी कर सकेंगे, अतएव सभी चलने को तैयार हो गए।
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पाण्डव परिवार सहित हस्तिनापुर की ओर चल पडे। वे बड़े प्रसन्न थे, और हस्तिना पुर के नर नारियो, परिवार के प्रतिष्ठित वृद्ध जनों से भेंट करने की आशा से आनन्दित हो रहे थे, हस्तिना पुर पहुचने पर दुर्योधन शकुनि आदि ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। एक सुन्दर भवन मे. उन्हे ठहरा दिया गया दूसरे दिन स्नान आदि करके सभा ने मण्डप देखा वे. बडे प्रसन्न हुए और मुक्त कन्ठ से उसकी प्रशसा की। भवन का कोना कोना उन्हें दिखाया गया, जव मुख्य स्थान पर वे पहुचे तो शकुनि ने कहा"युधिष्ठर ! खेल के लिए चौपड बिछा हुआ है, चलिए दो हा लें।"
'राजन् ! यह खेल ठीक नहीं है। इस मे कोई साहस के तो बात होती नही, व्यर्थ ही समय जाता है और नये उत्पात खर हो जाते हैं। धर्म ग्रथो और सर्वज्ञ मुनियो का उपदेश है कि पारं का खेल खलना. धोखा देने के समान है, यह मनुष्य के नाश क कारण बनता है। क्षत्रियो के लिए तो रण का क्षेत्र जीत प्रौ हार के लिए होता है। पासा फेंक.कर भाग्यो का निर्णय करन अच्छी वात नही है।" -युधिष्ठिर ने शिष्टता पूर्ण उत्तर दिया।
यद्यपि यह सब बातें युधिष्ठर ने सहज भाव से कही थी पर उन के मन में जरा सा खेल लेने की भी इच्छा हो रही थी। शौकीन जो ठहरे। हा, उन्हे यह भी मान था कि यह खेल बुरा है, इस लिए इन्कार भी कर रहे थे। . . .
शकुनि ने तुरन्त कहा-"महाराज ! आप जैसा खिलाडी भी ऐसी बातें करे तो आश्चर्य की बात है। इस में तो कोई धोखे का बात ही नहीं है। शास्त्र पढे हुए पडित भी आपस में शास्त्राथ किया करते हैं, जो अधिक विद्वान को परास्त कर देता है। युद्ध