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जैन महाभारत
अपना
भी सौर
हो जाता
जाता, .
एक, एक पग पर वह अपने हृदय को न्योछावर करने को तत्पर रहता:, उस के लिए अब वह केवल उसकी बहन की दासी नई रह गई थी; उसके हृदय की रानी , उसके हृदय की एक एक-ध कन मे-मोरन्ध्री का नाम, बस गया था। वह प्रत्येक क्षण उसके अपनी कामवासना का शिकार बनाने की युक्तियां सोचता रहता वह जब भी सौरन्ध्री को देखता उसके रक्त का तापमान बर जाता, हृदय की गति तीन हो जाती और उस का मन उमको अप निकट खींच लेने के लिए उतावला हो जाता, पर सौरन्ध्री"कभ ऐसा अवसर ही नहीं आने देती, जब कि वह कोमान्ध एकान्त उमे पा सक। . .. . ... . . : परन्तु भेडिये की माद में रह कर भेडिए- का सामना नह यह भला कैसे सम्भव है ? एक दिन अनायास ही सौरन्ध्री व सामना हो गया। एक सौरन्ध्री थी और दूसरा था कीचक। इन अतिरिक्त वहा कोई न था ।
"सौरन्ध्री!"- कीचक ने पुकारा। " · सौरन्धी चौक पड़ो और कीचक को देखते ही उसका सा शरीर काप उठा। भय उस के मन पर छा गया। अपनी मन दगा छुपाने की उस ने लाख कोशिश की पर कीचक भाप गया।
"तुम कुछ भयभीत दिखाई देती हो। क्या बात है ?" "जी, कोई देव ... ."
- "अोह यह बात है ?' नही नहीं इस बात से भयभीत हा । की तुम्हे कोई आवश्यकता नही ।। तुम जानती हो यहाँ मेरा राग है, विराट तो नाम मात्र के लिए है।"
मौरन्ध्री ने वहा से खिसकने का प्रयत्न किया तो दुष्ट कात्र वोल ठा- "नागनी कहा हो? तनिक मेरी छाती पर तो ह घर कर देग्बो | तुम्हारे लिए मेरे हृदय की धडकनें क्यों कहती है सोरन्धी कदाचित नमार मेन्तुम ही एक मात्र मुन्दरी ही जिम मोदर्य-ने मेरी प्रांतो से नीद और हदय में चैन छीन लिया है