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जैन महाभारत
चटा दूंगा। मैं उनके समस्त अन्यायो का बदला लेने की क्षमता रखता हूं। मैं द्रोपदी के आसुप्रो की लाज रखगा। मैं दुष्टों की सेना में विद्युत की भाति टूटूगा। मैं जिधर से निकलुगा, गाजर मूलियो की भाति उनके वीरो का सफाया करता हुग्रा निकल जाऊगा। मैं अपने को कायर कहलाने के लिए कदापि तैयार नही है। पर हा, इतना अवश्य कहूगा कि इस संसार से मुझे घृणा होती जाती है। इस युद्ध के समाप्त होने पर मैं तीर्थड्कारो द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करके प्रायश्चित करू गा और अपनी आत्मा के कल्याण के लिए तपस्या करूगा ।"
अर्जुन ने पुनः गाण्डीव सम्भाल लिया। यह देखकर श्री कृष्ण ने उन्लासातिरेक मे पाच जन्य की ध्वनि की और उनकी ध्वनि का अनुसरण करते हुए पाण्डवो की सेना के सभी मुख्य सेना नायको ने शख ध्वनि की। जिस से सारा वातावरण गूंज उठा।
अभी अभी जिस वीर ने राज्य के प्रति विरक्ति प्रगट करके स्वजनो पर बाण न चलाने की बात सोचो थो, उसकी धमनियी मे गरम गरम लोहू ठाठे मारने लगा और वह एक विजयी सिंह की भाति छाती ताने गर्व से दोनो ओर की सेना पर दृष्टि डालने लगा। अबकी बार उसने चारो ओर देखकर अपने मन ही मन मे कहा"विजय हमारी होगी। अन्यायियो का पक्ष दुर्वल है।" . दूसरी ओर से शख ध्वनियो के उत्तर मे तीन शख ध्वनिया की गई। भीष्म पितामह ने कौरवो की सेना को उत्साहित करने के लिए कहा-वीरो! तुम सब क्षत्रिय कुलो की सन्तान हो। क्षत्रियो का कर्त्तव्य है रण स्थल में जाकर अपनी वीरता दिखाना । विजय पाना अथवा वीर गति को प्राप्त होना। तुम ने यदि वीर गति पाई तो स्वर्ग के द्वार तुम्हारे लिए खुल जायेगे और विजय पाई तो धरा पर ही स्वर्ग के सुख तुम्हे प्राप्त होगे। इस लिए पूरी शक्ति से मुकाबला करना। स्मरण रक्खो तुम यशस्वी क्षत्रिय हो । रण भूमि तुम्हारे जौहर के प्रदर्शन का मैदान है। साहस तुम्हारा अनन्य सहयोगी है।"