SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 614
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन महाभारत वहाना और पश्चाताप करना व्यर्थ ही है । अत अब आप विलाप समाप्त करके पाण्डवो को ही अपना पुत्र समझिए । युद्ध मे, एक न एक पक्ष की हार तो होतो हो है और जब इतना भयकर युद्ध ठना था तो एक न एक पक्ष के वीरो की तो यह गति होती ही है । इसलिए आपका विलाप वेकार है । पाण्डव आपके भाई की हो सन्तान हैं। उन्हे आपना आत्मज जान कर आप सन्तोप करेंगे तो आपको शाति मिलेगी । वरना इस व्याकुलता से आप का स्वास्थ्य विगड जायेगा और खोये हुए पुत्रो की आत्मा को भी आप कोई लाभ नहीं पहुचा सकेगे।" इस प्रकार कई बार विदुर जी ने घृतराष्ट्र को सान्त्वना दी। उन्हे अनेक प्रकार से समझाया । किसी प्रकार उनके प्रासू रुके। तव रोती विलखती स्त्रियो के झुण्ड को पार करते हुए पाण्डव श्री कृष्ण के साथ धृतराष्ट्र के पास आये और नम्रता पूर्वक हाथ जोडे हुए उनके सामने जाकर खडे हो गए। विदुर जी ने कहा-"महाराज ! आपके पुत्रवत् भतीजे अापके सामने हाथ जोडे खडे हैं।" __ धृतराष्ट्र की आखो से पुन आसू बह निकले । उन्होने अवरुद्ध कण्ठ से कहा-''वेटा युधिष्ठिर ! तुम सव सकुगल तो हो।" युधिष्ठिर वोले-'पाप की कृपा से हम जीवित हैं और अव आपके चरणो मे आज्ञाकारी पुत्रो के समान स्थान पाना चाहते हैं। हमारे कारण यदि आपको कुछ कष्ट पहुचा हो तो आप क्षमा करदे । हम नहीं चाहते थे कि युद्ध हो, वह हमारे लाख प्रयत्न करने पर भी युद्ध टला नही मुझे अपने भाईयों के लिए वडा शोक है । अब मैं स्वय दुर्योधन को कमो, जो कदाचित आपको खटके, पूरी करने का प्रयत्न करू गा। पिता जी के मुनिव्रत धारण करने के उपरान्त से हम ने आप ही को अपना पिता माना है। पिता उद्दण्ड बालकं को भी स्नेह करता है। इसी प्रकार आप हमे अपना स्नेह प्रदान करें।" धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को छातो से लगा लिया । पर वह आलिंगन स्नेह पूर्ण न था। इतिहास कारो का कथन है कि उसके पश्चात धृतराष्ट्र ने भीमसेन को अपने पास बुलाया। पर धतराष्ट्र के हाव भाव से श्री कृष्ण भोम के प्रति उनके मनोभाव जान गए और उन्होने भीम के !
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy