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________________ जैन महाभारत वह नाश को प्राप्त होते है । यह ऐसा दावानल है जो मनुष्यत्व को भूप्म कर डालता है । १७८ मदान्ध कीचक पर सौरन्ध्री के दृढता पूर्वक कहे गए कटु वचनों का भी कोई प्रभाव न हुआ । सती द्रौपदी के धमकी व चेतावनी भरे वाक्यों से भी उसकी वासना का नशा हिरेने न हुआ। वह स्वयं ही बेचैन रहा और अपनी इच्छा पूर्ति के लिए विभिन्न उपाय करने पर विचार करने लगा " एक दिन कामदेव का दास कीचक अपनी बहन रानी सुदेष्णा के पास गया। बाल उलझे हुए । नेत्रों में लाली ऐसी लाली जो इस बात का प्रतीक थी कि वह कई दिन से सोया नही है। कपडे भी कई दिन से नही बदले गए थे। ऐसी अवस्था में गया वह अपनी वहन के सामने | - सुदेष्णा उसकी इस दशा को देखते ही विस्मित रह गई । सुदेष्णा ने पूछा - "भैया ! यह कैसी दशा बना रक्खी है. कुशल तो है ।" "कुशल तो तुम्हारे हाथ मे है ।" "क्यो क्या वात है ?" “बहन ! चारो ओर से निराश होकर तुम्हारे पास आया हूं अव तुम्ही हो जो मुझे जीवन दान दे सको ।" か सुदेष्णा का हृदय कांप उठा, एक अजीव श्रशका उस के म में जागृत हो गई । वोली - "क्या मेरे बस की बात है ? त फिर तुम्हें काहे की चिन्ता है । जो बात है निस्संकोच कहो | अपने भैया के लिए अपने प्राण तक दे सकती हूँ ।" i " “वहन ! मुझे तुम्हारे प्राण नही चाहिएं, मुझे अपने प्रा चाहिए ।" A 7 कौन है ऐसा शत्रु जिसके कारण तुम्हारे प्राणो १ ,
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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