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जैन महाभारत
कुल्लो से सीचे गए बकुल के वृक्ष उसको ओर अपने कर पसार देते। कभी कुसवक वृक्ष उस की दृष्टि हर लेते तो कभी मदोन्मत्त भ्रमरो के मधुर सगीत उसके चित्त को बाहु पाश मे आवद्ध करने की चेष्टा करते। और वह कोयल कुक रही है, कानो मे माधुर्य घोलतो हुई न प और माद्रो के शुभ गमन पर अभिनन्दन राग अलाप रही है । जल प्रपात अपने हिये को वाणा पर तरल तरगो का, कि भौरयो के मधुर कण्ठ को भा लज्जित , करने वाला राग नृप के हृदय को गुद गुदा रहा है और कही। विभिन्न एव विचित्र रगो के पक्षो किलोल करते हुए मन मे आ वसने के लिए लालायित दीखते है । सारी प्रकृति ही मद. भरी है । ऐसे मादक वातावरण मे भला कौन कायर अपने हृदय पर काबू रख सकता है । नृप कभी प्रकृति के शृङ्गार को देखता तो कभी माद्री की घोर काली केश लताओं में उलझ जाता। वह माद्री के साथ वन के स्वच्छन्द पशु पक्षियो की नाई क्रीडा करने लगा। उस ने चन्दन के रस से, अगरुद्रव के मर्दन से, सुगधित दवा के निक्षेप से, उस चित्ताकर्षक एव सुन्दर वन पशुओ के चचल कटाक्ष सहित निरक्षिण से इस प्रकार महाराजा. राजरानी माद्री के सहित, जिस समय प्रकृति नदी के मनोरम रूप सुधा का आस्वादन करने मे तल्लीन थे, उसी समय एक ऐसी अकल्पित घटना घटी कि जिसने उनका आमोदमयी जीवन-सरिता के प्रवाह को ही मोड दिया। उस मद भरे सरस सुन्दर वातावरण मे, जहाँ लता वितानो पर मुखरित पुप्पो की मनमोहक मुगन्ध पर भ्रमरगण अपनी राग रागिनिया ध्वनित कर रहे थे। सहसा एक हृदयद्रविक चीत्कार कर्ण कुहरो मे गूजने लगा। उस आर्तनाद से वह समस्त बन-प्रदेश मानो प्रकम्पित हो रहा हो। जिससे धर्मात्मा पाडुनरेश के दयालु हृदय को वडा आघात पहुचा और वह एक क्षण का भी व्याघात न करते हुए शब्दानुसरण करते हुए उस स्थल पर पहुचे जहा एक भोला मृग किसी लुब्धक के तीक्ष्णवाण से पाहत होकर कराहता हुआ छट पटा कर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर रहा था। और उसको प्रेयसी उसकी पोर व्यथित दृगो से अश्रुपूर्ण नेग्रो से खड़ी देख रही थी। पांडुनृप को उपस्थित पाकर मृगी का हृदय और भी चचल हो उठा। वह दैन्यभाव से एक बार नरेश की तरफ देखती, तो