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जैन महाभारत
एक ओर
क्षत्रियो का राष्ट्र धर्म है तो एक ओर दुर्योजन को हठ के
को तैयार हो जायेंगे ? दूसरी ओर युद्ध की विभीषिका है । कारण क्रोध है तो दूसरी ओर कुल के नष्ट हो जाने का भय। जब वश का ही नाश हो जायेगा तो फिर इस राज्य का क्या लाभ तबाही के परिणाम स्वरूप कही लाभ होता है ? कुन्ती सोच मे पड गई - " हा देव ! यह भी कैसी दुविधा है ? इस से बचू तो कैसे ?"
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माता कुन्ती के मन में ममता एवं वीरता के बीच खेचातानी हो रही थी । मन मे एक हूक सी उठती । वह अपने पुत्रो के भविष्य के सम्बन्ध मे सोचने लगी- "भीष्म द्रोण और कर्ण जैसे अजेय महारथियों को मेरे पुत्र कैसे परास्त कर पायेंगे ? इन तीनो महावलियो का विचार करते ही मन सिहर उठता है । यह तीन ही दुर्योधन के पक्ष मे ऐसे महारथी हैं जो पाण्डवों के प्राण हारी बन सकते है । हां, द्रोण अर्जुन को अपने पुत्र प्रश्वस्थामा मे भी अधिक चाहते है । सम्भव है रणांगण में अर्जुन के प्रति उनका स्नेह अर्जुन को मारने से रोक दे । भीष्म के सम्बन्ध मे भी यही बात है । " वे भी युधिष्ठिर और अर्जुन आदि को चाहते हैं। सम्भव है उनके बाणों की चार स्नेह के कारण कुण्ठित 'हो जाये । पर कर्ण तो रण में पहुच कर पाण्डवों के प्राण लेने से भी कभी न चूकेगा। वह दुर्योधन के मोह के कारण और अर्जुन द्वारा भरी सभा में अपमानित हो चुकने की वजह से, अर्जुन और उस के भाइयो पर बुरी तरह खार खाये बैठा है। पाण्डव उसे फूटी प्राखों नही भाते। साथ ही वह दानवीर है । उस में उस के सचित
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. पुण्य कर्मों के कारण महान शक्ति है। वह अपनी दानवीरता के कारण अजेय है । इस लिए वह पाण्डवो के लिए प्राण हारी सिद्ध होगा । मेरा ज्येष्ठ पुत्र ही मेरे पुत्रों के प्राणो का प्यासा बना है, पर मेरे हो पाप का तो फल है। यदि मे उस के जन्म की बात को छिपा कर रखती तो क्यो आज कर्ण अपने ही भाइयों का बं बनता ? मोह ! अब क्या हो ? क्या कर्ण अपने भाइयों का वध किए विना न छोडेगा ?"
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• यह विचार मन में श्राते ही वह बहुत परेशान हुई। सोचन