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________________ ४५६ जैन महाभारत ने मुख पर चिन्ता के लक्षण थे और न हास्य के हो । परन्तु इन शब्दों ने वह काम किया जो कदाचित धर्मराज के बाण भी न कर पाते । बोले: - * राजन् ! ऐसी बात मुह से निकालते समय यह सोच लेते तो अच्छा था कि मैं आपको सफलता की कामना कर चुका हू और श्राप जैसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को परास्त करने की शक्ति स्वय देवराज इन्द्र में भी नही हैं ।" "पितामह ! जब तक प्राप है तब तक हम विजय का स्वप्न भी नही देख सकते । फिर में श्राप की कामना मे परिणत होने की आशा करू तो क्यो कर ?" ने पूछा । "यह बात मैं स्वीकार करता हू पर में अजय तो नही, न अमर ही हू " - पितामह बोले । को क्रियात्मक रूप धर्मराज युधिष्ठिर "तो फिर पितामह । आप हमे यह तो बताने की कृपा करे कि आप जो हमारे रास्ते मे मेरू पर्वत के समान प्रा खडे हुए है, किस प्रकार रास्ते से हटाए जा सकते हैं ? ग्राप को याद होगा कि ने युद्ध ग्रारम्भ होने से पूर्व मुझे इस प्रश्न को समय आने पर पूछने की प्राज्ञा दो थी ।" आप युधिष्ठिर की बात सुनकर भी पितामह के मुख पर कोई चिन्ता या विषाद के भाव न प्राये । वे उसी प्रकार बोले- "हा, मैंने कहा था । तो क्या वह समय आगया ?" . "हा, पितामह ! अव गौर नही महा जाता ।' पितामह चुप हो गए। इस चुप्पी से युधिष्ठिर के नेत्र चंचल हो उठे। उनके मुह पर चिन्ता पुत गई। पितामह कुछ क्षण मौन रहे और फिर बोले "बेटा ! मेरी मृत्यु तुम्हारे पक्ष में विद्यमान है । द्रुपद की प्रतिज्ञा याद है ना ! शिखण्डी तो है ही । में उस के ऊपर कभी ग्रस्त्र शस्त्र प्रयोग नहीं कर सकता । बस उसी की आड लेकर घनजय मुझे जीवन मुक्त कर सकता है। इस उपाय के प्रतिरिक्त और कोई उपाय ही नही है कि मुझे रण क्षेत्र से हटा सको । कोई शक्ति ऐसी नही कि मेरे हाथों के चलते रहने पर मुझे परास्त कर सके ।" ।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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