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जैन महाभारत
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"नही, मैं याचक के रूप मे भले ही हू पर हूँ देवता ही । "नही, नही, इन्द्र तो मैं हू, जो तुम्हे दान दे रहा हू । तुम इन्द्र कैसे ? तुम तो मेरे सामने हाथ फैला रहे हो ।"
इन्द्र लज्जित हो गए और मन ही मन कहा - "हां, कर्ण तुम वास्तव मे इन्द्र से भी महान हो ।"
इन्द्र ने तब सोचा कि ऐसे महापुरुष के साथ मुझे अन्याय नही करना चाहिए। और उन्होने कहा - "कर्ण ! तुम चाहो तो मुझ से कुछ मांग सकते हो ।"
कर्ण ने हस कर कहा - "तुम भला मुझे क्या दे सकते हो । मैं याचक से कुछ मांगू यह मुझे शोभा नही देता । मैं देना जानता हू, मागना नही !"
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इन्द्र ने बहुत चाहा कि कर्ण कुछ मांगे, पर उसने स्वोकार न किया, तब वे स्वयं ही वोले- "लो मैं तुम्हें एक शक्ति देता हूं, जो युद्ध मे किसी भी महान योद्धा को मार सकती हैं । पर एक ही योद्धा का वध इस से हो सकेगा । तुम चाहो तो किसी पर भी इसे प्रयोग कर सकते हो
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कर्ण ने हस कर कहा - "मुझे तुम कुछ न दो तो ही अच्छा है । क्या पता तुम पुनः याचक रूप धारण करके आओ और इस शक्ति को भी वापिस ले जाओ "
"नही, ऐसा नही होगा ।"
यह कहकर इन्द्र ने वह शक्ति वही फेक दो और वहा मे चल पडे । जाकर कवच कुण्डल श्री कृष्ण को दिए और कहा" वासुदेव ! मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि उस महापुरुष के साथ मेरे द्वारा ग्रन्याय हुआ है । वास्तव मे कर्ण बहुत ही महान पुरुष है। उसकी समता करने वाला संसार मे कोई नही "
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इधर दोनो ग्रोर की सेनाए रण क्षेत्र मे पहुंच गई। सेनापतियो ने अपनी अपनी सेना को क्रम मे खडा किया और ग्रावश्यक हिदायतें करके शस्त्र बजाए । कल जो घायल हुए थे, उन मे से भी अधिकतर आज रण क्षेत्र में खड़े थे। कौरवो की थोर से युद्ध आरम्भ होते हो मशप्तकों (भिगतं देशीय वीरो) ने आज पुनः अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा । दक्षिण दिशा की ओर खड़े सशप्तको की चुनौती अर्जुन ने स्वीकार की और अपना रथ वढाते हुए उधर चल पड़ा ।