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पाण्डब प्रकट हुए
"क्यो नही ? परन्तु क्या यह भीमसेन है ?" "जी हा।"
भीमसेन ने कक की ओर सकेत करके कहा--"और यह है महाराज युधिष्ठिर ।"
फिर तो महाराज युधिष्ठिर ने अपने सभी भ्राताओ का परिचय दिया और यह भी बता दिया कि इतने दिनो सेवको के रूप मे वे सब क्यो रहे -
अर्जन ने फिर सारी सभा को अपना परिचय दिया। जब । लोगो को पता चला कि सेवको के रूप मे पाण्डव हैं तो सारी सभा
मे कोलाहल मच गया। सभी के चेहरे खिल उठे। चारो ओर आनन्द एव उल्लास छा गया। पाण्डवो की जय जयकार मनाई गई।
राजा विराट का हृदय कृतज्ञता, आनन्द तथा प्राश्चर्य से तरगित हो गया वे सोचने लगे, पाचो पाण्डव और राजा द्रुपद की पूत्री मेरे यहा सेवा टहल करते हए अज्ञात होकर रहे, इन्हो ने मेरे तथा मेरे पूत्र के प्राणो की रक्षा की, मैंने उन्हे साधारण सेवको की भाति रक्खा, फिर भी कभी भी उन्हो ने मेरी अवज्ञा न की मैं कैसे इन सबका बदला चुकाऊ? मैंने महाराज युधिष्ठिर के मुह पर पासा फेक कर मारा, फिर भी वे आज्ञाकारी सेवक की भाति सहन कर गए; द्रौपदी के साथ कीचक तथा उपकीचको · ने . अन्याय किया, पर मैंने उस की सहायता न की और फिर भी पाण्डव सब कुछ सहन कर के आज्ञाकारी सेवक बने रहे, इन सव वातो के लिए कैसे उन के प्रति कृतज्ञता प्रकट करू? यह सोच
कर राजा विराट का जी भर आया। वे युधिष्ठिर से वार वार ', गले मिले और गद गद होकर कहा- मैं आप का ऋण कसे
चुकाऊ ? मेरा यह सारा राज्य आपका है। मैं आपका अनुचर उई वन कर कार्य करूगा। यदि मुझ से कोई भूल होगई हो तो क्षमा
करें।
युधिष्ठिर ने प्रेम पूर्वक कहा--"राजन् । मैं आपका बहुत