Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। । चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक :१ जैन आराधन श्री महावी केन्द्र को कोबा. ॥ अमतं तु विद्या श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 - - - For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir a भैषज्य रत्नाकर भाग ३ रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आयुर्वेदीय साहित्य में फार्माकोपिया के अभाव को ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ को परिश्रमपूर्वक तैयार किया गया था और आज भी यह ग्रन्थ उतना ही उपयोगी है जितना तब था। इसमें क्वाथ, चूर्ण, अवलेह, गुटिका, घृत, तेल, रस इत्यादि प्रकरणों में विभक्त दस सहस्र से अधिक प्राचीन एवं श्रार्वाचीन प्रयोगों का संग्रह सैकड़ों ग्रन्थों का मन्थन करके किया गया है । इस ग्रन्थ में कोश- शैली का अनुसरण किया गया है, जिससे इष्ट प्रयोग बिना किसी कठिनाई के ढूंढा जा सकता है। एक और लाभ इस शैली का यह है कि भिन्न-भिन्न ग्रन्थों और पृथक्-पृथक् अधिकारों में एक नाम के जितने प्रयोग पाए जाते हैं वें सब इसमें एक ही स्थान में आ गए हैं। उद्धरण जिन ग्रन्थों से लिए गए हैं उनके नाम एवं अधिकार भी दे दिए गए हैं । रोगानुसारिणी सूची “चिकित्सापथ-प्रदर्शिनी” नाम से अन्त में दे दी गई है, जिससे ग्रन्थ की व्यावहारिक उपयोगिता बहुत बढ़ गई है । (सम्पूर्ण ५ भागों में) मूल्य : रु० ५०० For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर तृतीय भाग For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर तृतीय भाग संग्रहकर्ता रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह व्याख्याकार भिषग्रत्न गोपीनाथ गुप्त मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ©ऊँझा आयुर्वेदिक फार्मसी, ऊंझा (उत्तर गुजरात) मोती लाल बनारसी दास मुख्य कार्यालय : बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली ११० ००७ शाखाएं : चौक, वाराणसी २२१ ००१ अशोक राजपथ, पटना ८०० ००४ ६ अपर स्वामी कोइल स्ट्रीट, मैलापुर, मद्रास ६०० ००४ प्रथम संस्करण : ऊंझा (उत्तर गुजरात), १९२४-३७ पुनर्मुद्रण : दिल्ली, १९८५ मूल्य : रु० ५०० (पांच भागों में सम्पूर्ण) नरेन्द्र प्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ७ द्वारा प्रकाशित तथा शान्तिलाल जैन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५, फेज-१, नारायणा, नई दिल्ली २८ द्वारा मुद्रित। For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ ठ विषय अञ्जन १४३ कल्प १४४ o रस मिश्र १४६ १५० २४ कषाय १५२ कषाय चूर्ण गुटिका गुग्गुलु अवलेह घृत तेल आसवारिष्ट लेप चूर्ण गुटिका गुग्गुलु अवलेह पाक ८१ १७६ १७८ १८० १८२ धप 6 MM -. १८४ धूम्र घत तेल अंजन आसव नस्य लेप १०१ १०२ १६४ २०६ २०७ २१३ २१५ कल्प रस १०४ मिश्र ११६ २१५ धूम्र अंजन नस्य कल्प २२१ २२२ १२२ रस २२४ १२८ मिश्र २५० कषाय चूर्ण गुटिका अवलेह घृत कषाय १३० १३१ १३३ १३७ १४० १४१ तैल आसवारिष्ट चूर्ण गुटिका गुग्गुलु २५५ २८८ ३१४ ३१६ ३२२ लेप धूम्र अवलेह For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( vi ) ५७१ ३३८ ३६२ ३७६ ३८६ अवलेह घत तैल आसवारिष्ट घृत तेल आसवारिष्ट लेप धूप धूम्र अंजन नस्य लेप << < WWWWWW धूप अंजन नस्य ३६७ ३६७ ४०३ ४०५ ४०६ ५३२ ५८५ ५६२ ५९३ ५६७ ५६७ ५६६ ६०० ६०६ ६१० कल्प रस कल्प मिश्र मिश्र ५४० कषाय ६१३ ६२२ कषाय चर्ण गुटिका ५४१ चूर्ण ६३१ ५४२ ५४२ ५४५ गटिका लेह तेल ६३५ ६४२ ६४७ ६५३ ६५७ ५४७ अरिष्ट धप रस मिश्र पासव ५४७ ५४६ ६६० ब धप अंजन नस्य कल्प रस मिश्र चिकित्सा पथप्रदशिनी (रोगानुसारिणी सूची) कषाय ६६२ ६८२ चूर्ण ५५० ५६२ ५६६ ५७० m Wo xurur गुटिका गुग्गुलु ६८५ For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीय भाग For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ IPES * U भारत-भैषज्य-रत्नाकरः तृतीयो भागः ॥ श्री धन्वन्तरये नमः ॥ अथ मङ्गलाचरणम् परात्मानमेकं जगबीजमाद्यम् निरीहं निराकारमोकारवेधम् । यतो जायते पाल्यते येन विश्वम् तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम् । अथ दकारादिकषायप्रकरणम् (दृष्टव्य-कषाय प्रयोगों में जिन ओषधियोंको मात्रा न लिखी हो वह सब समान भाग मिलाकर २ तोले लीजिए और आधा सेर पानीमें पकाकर आध पाव शेष रहने पर छान लीजिए । विशेष व्याख्याके लिए भा. भै. र. प्रथम भाग पृ. १ अवलोकन कीजिए। For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [२] (२८१२) दण्डोत्पलास्वरस: ( रा. मा. । व्रणा. ) दण्डोत्पलायाः स्वरसेन पूर्णो रिक्तीकृतो यः परिपूरितश्च । पश्चानिबडो मृदुपट्टकेन क्षिप्रं स संरोहति शस्त्रघातः ॥ शस्त्रके घावमें दण्डोत्पला ( सहदेवी भेद ) का स्वरस भरकर उसे निकाल दीजिये और फिर दुबारा भरकर उसपर कोमल वस्त्रकी पट्टी बांध दीजिये । इससे घाव शीघ्र ही भर जाता है । (२८१३) दधिदुग्धकृति: ( १ ) (ग. नि. । ख. २ वाजी. ) लिप्ते कपित्थेन सुभाजने हि चित्रेण पक्वाम्ररसेन तत् । क्षुण्णा म्रकास्थना च पृथक् पृथग्वै न्यस्तं शृतं दुग्धवरं दधि स्यात् ॥ पात्रमें पानी में पिसे हुवे कैथके गूदेका या चीतेको पानी में पीस कर उसका अथवा पक्के आमके रसका लेप करें या आमकी गुठलीको पानी में पीसकर उसका लेप कर दें। इस बरतनमें पका हुवा दूध भर देनेसे उसकी दही बन जाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ दकारादि करके सुखा लीजिये । इस बरतनमें पका हुवा दूध भर देनेसे उसकी उत्तम दही बन जाती है । (२८१५) दधिदुग्धकृति: ( ३ ) (ग. नि. । ख. २ वा. अ. ) पकस्य मज्जा सुकपित्थकस्य वारं च वारं भृतदुग्धभाविता । शुष्काम्रचूर्णे रसस्य मध्ये क्षिप्तेक्षुजातं कुरुते सुदुग्धम् ॥ पके हुवे कैथके गूदे को बार बार गरम दूध में घोटकर सुखा लीजिए, फिर ईखके रस में थोड़ासा सूखे आमका चूर्ण डालकर उसमें यह चूर्ण डाल दीजिए। इससे उसका दूध बन जाता है । (२८१६) दधिदुग्धकृति: ( ४ ) ( ग. नि. । ख. २ वाजि. अ. ) पकस्य चूर्ण सुकपित्थकस्य दुग्धेन भाव्यं महिषीभवेन । शुष्कं क्षिपेतत्रयुते सुभाण्डे तत्कालिकं स्यादधि निर्जलं वै ॥ कैथके पक्के फलेक गूदेको भैंसके दूधकी भावना देकर सुखा लीजिए। इसे तकमें डालने से तुरन्त उसकी जल रहित दही बन जाती है । (२८१७) दध्यम्लप्रयोगः (२८१४) दधिदुग्धकृति: ( २ ) (ग. नि. । खं. २ वाजी. अ. ) सन्तिडीकैवंदराम्लदाडिमैः; श्रेष्ठ तथैवं सरसं दधि स्यात् । इमलीका पीसकर बरतन में उसका लेप कर दीजिए, अथवा बेर या खट्टे अनारके रसका लेप भोजनसे पहिले दहीके मस्तुमें बच और काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर पीनेसे अपतानक रोग नष्ट होता है। | (च. द. । वा. व्या. अ. २२ ) हन्ति माम्भोजनात्पीतं दध्यम्लं सवचोषणम् । अपतानकमन्योऽपि वातव्याधिक्रमो हितः ।। For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (२८१८) दन्त्यादिकल्कः ( १ ) ( वं. से. । विषूच्य. ) कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [+] भी करने चाहियें । अपतानक रोगमें अन्य वातनाशक उपाय | दन्तीद्रवन्ती सुरसासर्षपैश्चापि बुद्धिमान् । तर्कारीस्वरसं शिग्रुवचावत्सक निम्बः पत्रमूलफलैस्तोयैः शृतमुष्णच सेवनम् || दन्ती, द्रवन्ती ( वृहद्दन्ती), तुलसी, सरसों, अरणी, सहंजना, बच, कुड़ा और नीम । इनके पत्र, मूल और फलोंका स्वरस या कान बनाकर गरम गरम पिलाने से ऊरुस्तम्भ नष्ट होता है । (२८२२) दर्भमूलादिक्वाथः ( ट. नि. र. । ज्वर. ) हन्ति दन्त्यनिकentतु पिप्पली कल्कसंयुतः । पीतः कोष्णेन तोयेन क्षिप्रं हन्याद्विषूचिकाम् ।। www.kobatirth.org दन्ती, चीता, और पीपल समान भाग लेकर पत्थर पर पानी के साथ पीसकर मन्दोष्ण पानीके साथ पिलाने से विसूचिका शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। (२८१९) दन्त्यादिकल्कः ( २ ) ( च. द. । उदरा. ) दन्ती वचा गवाक्षी च शङ्खिनी तिल्वकं त्रिवृत् । गोमूत्रेण पिबेत्कल्कं जठरामधनाशनम् ॥ दन्ती, बच, इन्द्रायणकी जड़, शंखिनी, लोध और निसोत समान भाग लेकर गोमूत्रके साथ पत्थर पर पीसकर गोमूत्र के साथ पिलानेसे उदर रोग शान्त होते हैं । (२८२०) दन्त्यादिकाथः ( वं. से. । ज्व.) दन्तीं द्रवन्तीं वृहतीमेrण्डं बीजपूरकम् । श्यामां व्याघ्रीश्च निष्क्काथ्याभिन्यासे बहुवर्चसि अभिन्यास ज्वरमें मल अधिक हो तो दन्ती, द्रवन्ती ( बृहद्दन्ती ), बड़ी कटेली, अरण्डकी जड़, बिजौरेकी जड़, निसोत (काली) और छोटी कटेका काथ बनाकर पिलाना चाहिए । (२८२१) दन्त्यादियोगः ( वं. से. । ऊरुस्तम्भ . ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द बला गोक्षुरकं पचेत्पादावशेषितम् । शर्करा घृतसंयुक्तं पिबेद्वातज्वरापहम् ॥ दाभ, खरैटी और गोखरु बराबर बराबर मिलाकर २ तोले लें और ३२ तोले पानी में पकावें । जब ८ तोले पानी बाकी रह जाय तो छानकर उसमें खांड और घी मिलाकर पिलावें । इसके सेवन से वावर नष्ट होता है । (२८२३) दशमूलम् ( च. द. | अ. १; भा. प्र. म. ख. व.; ग. नि; र. र.; ध.; वृ. नि. र. । ज्व.; आयु. a. वि. (ज्वर यो... २०; यो. चि. । अ. ४) बिल्वश्योनाकखम्भारीपाटलागणिकारिकाः । दीपनं कफवातघ्नं पञ्चमूलमिदं महत् ॥ शालिपर्णी पृश्निपर्णी बृहतीद्वयगोक्षुरम | वातपित्तहरं हृष्यं कनीयं पञ्चमूलकम् ॥ उभयं दशमूलन्तु सन्निपातज्वरापहम् । कासे वासे च तन्द्रायां पार्श्वशुले च शस्यते ।। पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं कण्ठहृद्ग्रहनाशनम् । महान्ति यानि मूलानि काष्ठगर्भाणि यानिच ॥ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ ४ ] तेषान्तु वल्कल ग्राहस्वमूलानि कृत्स्नशः ॥ ( अत्र विश्वादोनां पञ्चानां मूलस्य वल्कलं | ग्राह्यम् ) बेलकी जड़की छाल, सोनापाठा ( अरलु ) की जड़की छाल, खम्भारीकी जड़ की छाल, पाढलकी जड़की छाल और अरणीकी जड़की छाल । इन पांच योगको वृहत् पञ्चमूल कहते हैं । यह दीपन और कफवात - नाशक है । शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी और बड़ी कटेरी तथा गोखरु । इन पांचों ओषधियोंके योगको लघु पञ्चमूल " कहते हैं । यह वातपित्त नाशक और वृष्य है । 66 बृहत् पश्चमूल और लघु पञ्चमूलके योगको दशमूल कहते हैं । दशमूल सन्निपातज्वर, खांसी, श्वास, तन्द्रा और पसलीके दर्दको नष्ट करता है । यदि इसके काथमें पीपलीका चूर्ण मिलाकर पिलाया जाय तो कण्ठग्रह और हृदग्रहमें लाभ होता है । जो बड़े वृक्ष हों और जिनके तने के भीतर सार भाग हो उनकी छाल और छोटे पौदांका कि जिनकी जड़ छोटी हो पञ्चाङ्ग ग्रहण करना चाहिए । इस परिभाषा के अनुसार बृहत् पञ्चमूल में उन वृक्ष की जड़ की छाल लेनी चाहिए । (२८२४) दशमूलक्काथ: ( १ ) (ग. नि. । सूतिका. ) पश्चमूलकार्य ततोहेन संगतम् । सूतिका रोगनाशाय पिवेद्वा तद्युतां सुराम् ॥ दशमूल काथमें लोहेको गरम करके बुझावें । [ दकारादि यह काथ या इसमें मदिरा मिलाकर पीनेसे सूतिका रोग (प्रसूतरोग) नष्ट होता है । (२८२५) दशमूलकाथ: ( २ ) (वं. से. । स्त्रीरो.) दशमूलकृतं तोयं कोष्ण हविषान्वितम् । पथ्याशिन्या द्रुत नार्या पीतं तीरुजं जयेत् ॥ दशमूलके मन्दोग काथमें घृत मिलाकर पीने और पथ्य पालन करनेसे सूतिका रोग ( प्रसूतरोग) शीघ्र ही शान्त हो जाता है । (२८२६) दशमूलक्षीरयोगः ( वृं. मा. । वा. र.; वा. भ. । चि. अ. २२; भा. प्र. । वा. र. ) . दशमूलीशतं क्षारं सद्यः शुलविनाशनम् । परिषेsts front तत्कोष्णेन सर्पिषा ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशमूलसे यथाविधि दूध पकाकर पिलानेसे वातरक्त सम्बन्धी पीड़ा तुरन्त नष्ट हो जाती है । इसी प्रकार वात प्रधानं वातरक्तमें मन्दोष्ण घृतसे परिषेक करनेसे भी पीड़ा शान्त होती है । (२८२७) दशमूलदुग्धप्रयोगः ( र. र. ! सूति. ) सिद्धं द्विपचाभ्यां पयः शार्करपादधृक् । सूतिकोपद्रव हन्ति पीतमात्रं न संशयः ॥ दशमूलले यथाविधि दूध पकाकर उसमें उसका चौथा भाग खांड मिलाकर पिलाने से सूतिकारोग (प्रसूतरोग) अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । (२८२८) दशमूलादिकषायः (१) (ग. नि. । कर्ण. ) १- दशमूल २ तोला, दूध १६ तो, पानी ६४ तोले। सबको एकत्र मिलाकर पकायें और पानी जल जाने पर दूधको छानलें । For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कषायप्रकरणम् ] दक्षमूली बरा भद्रा भार्गी चैषां मृतं जलम् । व्यायुतं पीतं वा तेन शाम्यति ॥ दशमूल, हर्डे, बहेड़ा, आमला, कायफल और भरंगी के काथमें त्रिकुटा और हींग मिलाकर पीने से बधिरता जाती रहती है । नोट- त्रिकुटे (सांठ, मिर्च, पीपल ) का चूर्ण १ माशा और हींग १ रत्ती मिलाना चाहिए । (२८२९) दशमूलादिकषायः (२) (वं. से. । वातत्र्या. ) दशमूली लामापकार्थ तैलाज्यमिश्रितम् । सायं वा पिबेनस्यं विश्वाच्यामपबाहुके || दशमूल, खरैटी, और उर्दके काथमें तैल और घी मिलाकर सायंकालके भोजनके बाद नाकसे पीनेसे विश्वाची और अपबाहुक नामक वातज रोग नष्ट होते हैं। (२८३०) दशमूलादिकषाय: ( ३ ) (ग. नि. । विस्फो. ) दिपमूली त्रिफला गुडूची किरातकं धन्वयवासकं च । तं मागधिकाविमिश्रं त्रिदोषविस्फोटहरं प्रदिष्टम् ॥ दशमूल, त्रिफला, गिलोय, चिरायता और धमासा । इनके काथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलानेसे त्रिदोषज विस्फोटकका नाश होता है । (२८३१) दशमूलादिकाथ: ( १ ) | ( वृ. नि. र. । सन्नि ; भा. प्र. । ज्व. ) दशमूळमत्स्यशकला चपला त्रिफला महौषधकिरातयुतम् । मुरिचं परिकथितमाशु बलादहन्ति कर्णकरुणः सकलाः ॥ तृतीयो भागः । [५] दशमूल, कुटकी, पीपल, त्रिफला, सेठ, चिरायता और स्याह मिर्चका काथ पीनेसे कर्णक सन्निपात अवश्य शीघ्रही शान्त हो जाता है । (२८३२) दशमूलादिकाथ: ( २ ) ( भा. प्र. म. ख. श्वास; वं. से. यो. र. । हिक्का.) दशमूलस्य वा क्वाथ पौष्करेणावचूर्णितः । श्वासका समशमनः पार्श्वशूलनिवारणः ॥ दशमूल काथमें पोखरमूलका चूर्ण मिलाकर पीने से श्वास, खांसी और पसलीका दर्द नष्ट होता है। (२८३३) दशमूलादिकाथ: ( ३ ) ( वृ. नि. र. । पाण्डु ग. नि.; वृं. मा.; व. से. यो. र. । पाण्डु ) द्विपश्वमूलीकथितं सविश्व कफात्मके पाण्डुगदे पिवेत्तत् । ज्वरेतिसारे श्वयथौ ग्रहण्यां arasvat surgदामयेषु ॥ कफज पाण्डु, ज्वर, अतिसार, शोथ, संग्रहणी, खांसी, अरुचि, कण्ठरोग तथा हृद्रोगमें दशमूलके काथमें सांठका चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिए । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२८३४) दशमूलादिकाथ: ( ४ ) (वै. म. र. । प. १३) दशमूलानि च नलिनं कुष्ठमुशीरं नतस्पृक्के । एरण्डशिफां च पिबेद् गर्भाशयशोधनाय गो पयसा ।। दशमूल, कमल, कूट, खस, तगर, स्पृक्का ( सेवती ) और अरण्डमूल के काथमें गायका दूध मिलाकर या इनसे गोदुग्ध पकाकर पीने से गर्भाशय शुद्ध होता है। For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्लाफर दकारादि (२८३५) दशमूलादिकाथः (५) (२८३८) दशमूलादिकाय: (८) (वृ. नि. र. । विस्फो.; यो. र. । मसू.; (वृ. नि. र. । मूत्रा.; यो. र. । मूत्रकृ.; यो. भा. प्र. ।खं.२ मसू.; र. र.; . मा. । मसू.; वं.से.। त.। त. १०१) विस्फो; वृ. यो. त. । त. १२५) दशमूलीतं पीत्वा सशिलाजतुशर्करम् । द्विपञ्चमूलं राना च दाय॒शीरं दुरालभम् । वातकुण्डलिकाष्ठीलावातबस्तेः प्रमुच्यते ॥ सास्ता धान्यकं मुस्तां काथयित्वा शतं पिबेत् ॥ दशमूलके काथमें शिलाजीत और खांड मिविस्फोटं वातसम्भूतं हन्त्येतनात्र संशयः॥ । लाकर पीनेसे वातकुण्डलिका, अष्टीला और वात दशमूल, रास्ना, दारुहल्दी, खस, धमासा, । वस्ति (वातज मूत्राघात रोग ) नष्ट होता है। गिलोय, धनिया और मोथा। इनका काथ पीनेसे (२८३९) दशमूलादिकायः (९) वातज विस्फोटक रोग अवश्य शान्त हो जाता है। (ग० नि० । उदर.) (२८३६) दशमूलादिकाथ: (६) दशमूलदारुनागरच्छिन्नरुहपुनर्नवाकाथः । (वृं. मा. । वाता.; च. द. । अ. २२) जयति जलोदरशोथालीपदगलगण्डवातिकान दशमूली बला रास्ना गुडूची विश्वमेषजम् । रोगान् ॥ पिबेदेरण्डतेलेन गृध्रसीखअपङ्गषु ॥ __ दशमूल, देवदारु, सेठ, गिलोय और पुनदशमूल, खरैटी, रास्ना, गिलोय और सेठ नवा ( साठी ) का काथ पीनेसे जलोदर, शोथ, के काथमें अरण्डीका तैल ( काष्ट्रायल) मिलाकर | श्लीपद और गलगण्ड तथा अन्य वातज रोग नष्ट पीनेसे गृध्रसी, खञ्जवात तथा पङ्गुत्व (लंगडा, होते हैं। लला हो जाना) का नाश होता है। (२८४०) दशमूलादिकाथ: (१०) (२८३७) दशमूलादिकाथ: (७) (यो. र.; वृ. मा.; वं. से. । हृद्रो.) (० से० । राजय. ) द्विपञ्चमूलीमगधाधान्यनागरजं जलम् । दशमूलकषायस्तु लवणक्षारसंयुतः। चातुर्जातकसंयुक्तं पिवेभित्य क्षयातुरः ॥ पीतो निहन्ति सहसा हुदामयमसंशयम ॥ कासज्वरादिशमनं बलपुष्टि विवर्धनम् ॥ ___ दशमूलके काथमें सेंधा नमक और जवाखार क्षय से पीड़ित रोगीको नित्य प्रति दशमूल, मिलाकर पीनेसे हृद्रोग अवश्य शीघ्र ही नष्ट हो पीपल, धनिया और सांठके काथमें चातुर्जात | जाता है। ( दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसर) । (२८४१) दशमूलादिकाय: (११) का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (भा. प्र.।म.ख. ज्व.; आ. वे. वि.। उत्त, अ. ४.) यह काथ खांसी और ज्वरादिको नष्ट करता श्रीफलः सर्वतोभद्रा कामदती च शोणकः । तथा बल और पुष्टि बढ़ाता है । 'तारी गोक्षुरः क्षुद्रा बहती कलशी स्थिरा। १ मूत्राघातका भेद जिसमें मूत्र थोड़ा थोड़ा करक कर पीड़ा के साथ भात है For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायपकरणम् ] तृतीयो भागः। [७] राना कणा कणामूलं कुष्ठ शुण्ठी किरातकः। । पेयं पाश्वासशिरोरुकमुस्ता बलामृता बालद्राक्षायासः शताहिका॥ क्षयकासादिशान्तये सलिलम् ॥ एषां काथो निहन्त्येव प्रमभनकृतं ज्वरम् ।। ___ दशमूल, खरैटी, रास्ना, पोखरमूल, देवदारु सोपद्रवश्च योगोऽयं सर्वयोगवरः स्मृतः । | और सेठिका काथ पीनेसे पसली, कंधे, और शि____दशमूल (बेल, कुम्हार, पाढल, सोना पाठा, | रकी पीड़ा तथा क्षय और खांसीका नाश होता है। अरणी, गोखरू, कटहली, कटहला, पृश्निपर्णी, (२८४४) दशमूलादिपञ्चदशाङ्गकाथ: शालपर्णी ) रासना, पीपल, पीपलामूल, कूठ, सांठ (वृ. मा. । ज्व.) चिरायता, नागरमोथा, खरैटी, गिलोय, किसमिस | दशमूलीशठीशीव्योषकायं पिवेधरः। जवासा और सतावर । इनका काथ बनाकर पीनेसे सभिपातज्वरं इन्ति इत्याह कपिलो मुनिः॥ उपद्रव सहित वातज्वर नष्ट होता है। ये प्रयोग कपिल मुनिका कथन है कि दशमूल, शठी सब योगामें उत्तम है। ( कचूर ), काकड़ासिंगी, सांठ, काली मिर्च और पीपलका काथ पीनेसे सन्निपातज्वर नष्ट होता है। दशमूलादिचतुर्दशाङ्गकाथ: (. मा.। ज्व.) | (२८४५) दशमूलादियवागूः (भा. भै. र. प्रथम भागमें “किरातादि काथ" (वं. से. । श्वास.) सं. ६४८ देखिये।) दशमूलीशठीरास्तापिप्पलीविश्वपौष्करैः। (२८४२) दशमूलादिजलम् शङ्गीतामलकीभाजीगुडूचीनागरादिभिः ॥ (व. मा. । हिक्का; वृ. नि. र. । हिक्का.) यवागूर्विधिना सिद्धं कषायं वा पिवेबरः। कृषितो दशमूलस्य काथं वा देवदारुणः । | सहृद्ग्रहपातिहिकाश्वासप्रशान्तये ।। , मदिरां वा पिवेधुक्त्या हिकायासपपीडितः॥ । दशमूल, कचूर, रास्ना, पीपल, सोंठ, पोखरमूल, हिचकी या श्वासके रोगीको यदि तृषा अ- | काकडासिंगी, भुई आमला, भारंगी, गिलोय और धिक हो तो यथोचित मात्रानसार दशमूलका काथ, नागरादिगण की ओषधियोंका काथ बनाकर पीने या देवदारुका काथ, या मदिरा पिलानी चाहिए। या उससे यवागू२ सिद्ध करके खानेसे हृद्ग्रह, पस(२८४३) दशमूलादिपञ्चदशाङ्ग लीकी पीड़ा, हिचकी और श्वास नष्ट होता है। (च. द.। अ. १०; ग.नि.। रा. य.; यो. र. (२८४६) दशमूलीयोगः, वं. से. । रा. य.; वृ. मा. । रा. य.) (यो.र.। उदर.) दशमूलबलाराना दशमूलकषायेण क्षीरवृत्तिः शिलाजतुः । पुष्कर सरदारुनागरैः कथितम् । सयो वातोदरी क्षीरमौष्टमाजं च केवलम् ॥ १ नागरादि गण सोंठ, देवदार, धनिया, कटेली, कटेला। २ सब ओषधियां समान भाग मिलाकर १ पाव (२० तोले) लें और १६० तोले पानीमें पकावें । जब ४० तोले पानी रहे तो उसमें ६-७ तोके चावल डालकर पकायें। For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [2] भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ दकारादि दूध पर रखकर दशमूलके काथमें शिलाजीत मिलाकर पिलाना चाहिए । वातोदरी रोगीको केवल ऊंटनी या बकरीके । दशमूलीरसः पेयः कणायुक्तः कफानिले । अविपाकेऽतिनिद्रायां पार्श्वरुकश्वासका सके ।। कफवातज ज्वर में अग्निमांद्य, अतिनिद्रा, पसलीका दर्द, श्वास और खांसी हो तो दशमूलके काथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिए । (२८५१) दशमूल्यादिकाथः । (बृ. यो. त. । त. ९० ) दशमूलस्य निर्यूहो हिङ्गुपुष्करचूर्णितः । शमयेत्परिपीतस्तु वातं मिम्मिणि संज्ञितम् || दशमूलके काथमें हींग और पोखरमूलका चूर्ण मिलाकर पीने से मिन्मिन रोग शान्त होता है । (२८५२) दशाङ्गकाथः । ( भै. र. । अम्ल .; ग. नि.; र. र. । अम्ल.; बृ. यो त । त. १२२; यो. चिं. म. । अ. ४ ) वासामृता पटकनिम्बभूनिम्बार्कवैः । त्रिफला कुलत्यैः कायः सक्षौद्रश्चाम्लपित्तहा ॥ बासा, गिलोय, पितपापड़ा, नीमकी छाल, चिरायता, भंगरा, हर्र, बहेड़ा, आमला और कुलथी । इनके काथमें शहद मिलाकर पीनेसे अम्लपित्तका नाश होता है । (२८४७) दशमूलावसेच नम् ( वं. से. । व्रणा. ) द्विपश्चमूलकल्केन कथितेनाम्भसाऽपि वा । सर्पिषा सह तैलेन कोष्णेन परिषेचयेत् ॥ दशमूलके कल्क या काथमें घी या तेल मिलाकर थोड़ा गरम रहने पर उससे धावको धोना चाहिये । (२८४८) दशमूलीकषायः ( भा. प्र. । ज्वर; वं. से.; र. र.; वृ. मा. । हिक्का ; वृ. यो. त. । त. ८० ) दशमूलीकषायन्तु पुष्कराहकणायुतम् । सन्निपातज्वरे देयं श्वासकासतृषान्विते ॥ | दशमूल, पोखरमूल और पीपरका काथ पि लाने अथवा दशमूलके काथमें पोखरमूल और पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलानेसे सन्निपातज्वर, श्वास, खांसी और तृष्णाका नाश होता है । (२८४९) दशमूलीयोग: (ग.नि. । आमवा. ) आमवाते कणायुक्तं दशमूलीजलं पिबेत् । पिबेद्वाऽप्यभया विश्वागुडूचीनागरैर्युतम् ॥ आमवात (गठिया) की शान्तिके लिए दशमूल, या दशमूल, हर्र, शतावर, गिलोय और सोंठ के काथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पीन्स चाहिये । (२८५०) दशमूलीरसप्रयोगः । ( च. द. | अ. १; वृ. नि. र. भा. प्र. वृ. मा.; भै. र. । ज्वर. ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२८५३) दशाष्टाङ्गक्काथः (बृ. यो. त. । त. ५९; यो. र.; वं. से. । ज्वर.; वृ. नि. र.; वै. र. । ज्वर. ) द्राक्षामृता शठी शृङ्गीमुस्तकं रक्तचन्दनम् । नागरं कटुकं पाठा भूनिम्बं सदुरालभम् || उशीर धान्यकं पद्मं बालकं कण्टकारिका । पुष्करं पिचुमन्दञ्च दशाष्टाङ्गमितिस्मृतम् ॥ जीर्णज्वरारुचिश्वासकासश्वयथुनाशनम् ॥ दाख (मुनक्का ), गिलोय, शठी ( कचूर ), For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [९] - काकड़ासिंगी, मोथा, लाल चन्दन, सांठ, पटोलपत्र, साथ पीसकर पीने और गीली चादरसे शरीरको पाठा, चिरायता, धमासा, खस, धनिया, . पद्माक, | ढकनेसे तृषा शान्त हो जाती है। सुगन्धबाला, कटेली, पोखरमूल और नीमकी छाल। । (२८५७) दाडिमरस: इन अठारह ओषधियोंके योगको दशाष्टाङ्ग काथ (वृ. नि. र. । अरुचि.) कहते हैं। इसके सेवनसे जीर्णज्वर, अरुचि, श्वास, विडाचूर्णसंयुक्तो रसो दाडिमसम्भवः । खांसी, और सूजनका नाश होता है । असाध्यमपि संहन्यादरुचिं वक्रधारितः ।। (२८५४) दाडिमत्वकाथः ____ अनार (दाडिम) के रसमें बायबिडङ्गका चूर्ण (यो. र. । कृ. चि.) | मिलाकर मुंहमें रखने से असाध्य अरुचि भी नष्ट दाडिमत्वककृतः कायस्तिलतैलेन संयुतः।। हो जाती है। त्रिदिनात्पातयत्येव कोष्ठतः कृमिजालकम् ॥ दाडिम ( अनार ) के वृक्षकी छालके काथमें | (२८५८) दाडिमरसादिकवलग्रहः तिलतैल मिलाकर ३ दिनतक पिलानेसे उदरके (ग. नि. । अरो. ) कृमि अवश्य निकल जाते हैं। दाडिमोत्यस्तु निर्यासस्त्वजाजीशर्करान्वितः। (२८५५) दाडिमपुटपाक: मधुतैलयुतो हन्यादरुचिं कवलीकृतः॥ (भै. र.; यो. र. । अति.) अनार (दाडिम) के स्वरस में जीरा, खांड पुटपाकेन विपचेत्सुपक्वं दाडिमीफलम् ।। शहद और तिलका तेल मिलाकर उसके कवल २ सदसो मधुसंयुक्तः सर्वातीसारनाशनः ॥ धारण करने से अरुचि नष्ट होती है। पके अनार (दाडिम) को पुटपाकी विधिसे (२८५९) दाडिमादिकल्कः (१) पकाकर उसका रस निकाल लीजिए । इसमें शहद (ग. नि. । अति.) मिलाकर सेवन करनेसे समस्त प्रकारके अतिसार | दाडिमीधातकीमूलकण्टकारीकुटजत्वचः । नष्ट होते हैं। रोधं तण्डुलतोयेन प्रपिष्टमतिसारजित् ॥ (२८५६) दाडिमबीजादिप्रयोगः अनारकी छाल, धायकी जड़, कटेली, कुड़े की (वं. से. । तृषा.) छाल और लोध; समान भाग लेकर चावलोंके पानीमें अम्लं दाडिमबी पीतं धात्रीफलश्च धान्याम्लैः पीसकर पिलानेसे अतिसार नष्ट होता है । आईपटास्तरणकृतप्रावृतगात्रस्तषां जयति ॥ . (चावलेका पानी-प्रथम भाग पृष्ठ ३५३ पर __ खट्टे अनारके बीज और आमलेको काजीके | तण्डुलोदक बनानेकी विधि देखिए । ) १ पुट-पाक-विधि प्रथम भागके पृष्ट ३५२ पर देखिये। २ अनारकारस, शहद और तेल बराबर बराबर मिले हुवे ५ तोले । जीरा और खांड ६-६ माशे मिलाकर मुखमें भरें और थोड़ी देर मुखको चलाते रहें जब आंख नाकसे पानी निकलने लगे तो कुल्ला करदें और फिर दुबारा नया रस मुंहमें भरें। इसी प्रकार बार बार करें। For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [१०] (२८६०) दाडिमादिकल्क: ( हा. सं. । अ० ३ स्था० ३ ) दाडिमं च कपित्थं च पथ्या जम्ब्वाम्रपल्लवान पिष्ट्वा देया मस्तुयुक्ता रक्तातीसारवारणाः ॥ अनार दाना, कैथका गूदा,हर्र, जामनके पत्ते और आमके पत्ते । सबको पीसकर मस्तुके साथ पिलानेसे रक्तातिसार नष्ट होता है । (२८६१) दाडिमादिकाथः ( ग. नि.; वं. से. । अति. ) कषायो मधुना पीतस्त्वचो दाडिमवत्सकात् । सद्यो जयेदतीसारं रक्तजं दुर्निवारकम् ॥ अनार और कुड़ेकी छालके काथमें शहद डालकर पीने से कष्टसाध्य रक्तातिसार भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । (२८६२) दाडिमाम्बुयोगः - भैषज्य रत्नाकरः । भारत ( वृ. मा. । मूत्राघात. ) दाडिमाम्बुयुतं मुख्य मेलाबीजं सनागरम । पीत्वा सुरां सलवणां मूत्राघाताद्विमुच्यते ॥ अनार के रस में छोटी (गुजराती) इलायची के बीज और सेठका चूर्ण मिलाकर पीनेसे अथवा मदिरा में नमक मिलाकर पीनेसे मूत्राघात नष्ट होता है । (२८६३) दार्वादिकल्कः (वं. से. । शोथ. ) I दारुगुग्गुलुशुण्डीनां कल्को मूत्रेण शोथजित् । वर्षाराभ्यां कल्को वा सर्वशोथजित् ॥ देवदार, गूगल और सेंठका कल्क या पुनर्नवा ( बिसखपरा - साठी) और सोंठका कल्क गोमूत्रके [ बकारादि साथ सेवन करने से सर्व प्रकारके शोथ नष्ट होते हैं । (२८६४) दार्वादिकाथ: ( १ ) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) दारु नागरकं वासा हिसौबलान्वितः । shirt वातकफे शूले आमे जीर्णे विबन्धके ॥ देवदार, सेठ और बासेके काथमें हींग तथा काला नमक (सञ्चल) मिलाकर पीनेसे वातकफज शूल, आमाजीर्ण और मलबन्ध नष्ट होता है । ( २८६५) दार्वादिकाथः ( वृ. नि. र. । ज्वर. ) दारूपर्पटभायैन्दव वाघान्यक कट्फलैः । सामया विश्वतिकैः काथो हिङ्गुमधूत्कटः ॥ कफवातज्वरे पीतो हिक्काशोषगलग्रहान् । श्वासकासमेrise हन्यात्तमिवाशनिः ॥ - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवदारु, पित्तपापड़ा, भरंगी, नागरमोथा, बच, धनिया, कायफल, हर्र, सोंठ और करञ्जकी छालके काथमें हींग और शहद मिलाकर पिलानेसे कफवातज ज्वर, हिचकी, शोष, गलग्रह, श्वास, खांसी और प्रमेहका नाश होता है । (२८६६) दार्वीसेकः (ग. नि. । नेत्ररोग ) षोडशभिः सलिलपलैः पलं तथैकं कटङ्कर्याः सिद्धम | सेकोऽष्टभागशिष्टः क्षौद्रयुतः सर्वदोषहरः ॥ ५ तोले दारुहलदीको ८० तोले पानी में पकावें जब १० तोले पानी शेष रहे तो छानलें । इसमें थोड़ा शहद डालकर बारीक धारसे आंख के १ मस्तु - दही में दो गुना पानी मिलाकर बनाया हुवा तक । For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [११] भीतर डालें ( आंख धोएं )। इससे आंखेोके समस्त पके हुवे पानीसे रोगीको स्नान कराना चाहिए तथा दोष दूर होते हैं। (दुखती हुई आंखों में हित- इन्हीं से तेल और घृत सिद्ध करके सेवन कराने चाहिएं। (२८६७) दाय॑म्बुदादिकाथ: (२८६९) दाादिकाथः (१) (वृ. नि. र. । ज्वर.; यो. चिं. । अ. ४; यो. (च. सं. । चि. स्था. अ. ५) ___ र. । उवर, ग. नि. । ज्वर. १) दार्वी सुराद त्रिफलां समुस्तां दाय॑म्वुदस्तिक्तफलत्रिक च कषायमुक्काथ्य पिबेत्यमेही । क्षुद्रा पटोली रजनी सनिम्बा। क्षौद्रेणयुक्तामथवा हरिद्रां कार्य विदध्याज्ज्वरसन्निपाते पिबेद्रसेनामलकीफलानाम् ॥ निश्चेतने पुंसि विवोधनार्थम् ॥ दारुहल्दी, देवदारु, त्रिफला और मोथेका दारुहलदी, नागरमोथा, चिरायता, त्रिफला, | काथ, या हल्दीके चूर्णको आमलेके रसमें मिलाकर कटेली, पटोलपत्र, हल्दी और नीमकी छालका काथ उसमें शहद डालकर पीनेसे प्रमेह नष्ट होता है । पिलानेसे सन्निपात ज्वरकी मूर्छा जाती रहती है। नोट:-हल्दीके चूर्ण को शहदके साथ चाट(२८६८) दाादिकषायाष्टकम् कर आमलेका रस अनुपानके रूपमें भी पी सकते हैं। (चं. सं. । चि. अ. ८) (२८७०) दाादिकाथ: (२) दाा रसाञ्जनस्य च निम्बपटोलस्य खदि- (यो. चिं. । अ. ४.; वृ. यो. त.। त. ३४; रसारस्य । | आ.वे. वि.; यो. र. । सूतिका; यो. त. । त. ७४) आरग्वधक्षकयोस्त्रिफलायाः सप्तपर्णस्य ॥ दार्षीरसाञ्जनं प्रस्तं भल्लातश्री:फर्क वृषा। इति षट् कषाययोगा निर्दिष्टाः सप्तमश्च तिनिशस्य । किरातश्च पिवेदेषां कार्य शीतं समाक्षिकम् ॥ स्नाने पाने च हितास्तथाष्टमश्चापमारस्य ॥ जयेत्सशूलं प्रदरं पीतश्वेतासितारुणम् ॥ आलेपन प्रघर्षणमवचूर्णनमेत एव च कषायाः। __रसौत, मोथा, शुद्ध भिलावा. ( अथवा तैलधुतपायोगे चेष्यन्ते कुष्ठशान्त्यर्थम् ॥ भिलावेके वृक्षकी छाल ), बेलगिरी, बासा (१) रसौत । (२) नीमकी छाल और और चिरायता । इनके काथको ठण्डा करके उसमें पटोल पत्र । (३) खैर सार । (४) । शहद मिलाकर पिलानेसे शूलयुक्त पीला, सफेद, अमलतास और कुड़ेकी छाल । (५) त्रिफला। काला और लाल प्रदर नष्ट होता है । (६) सतौना ( सप्तपर्ण) । (७) सांदन वृक्षकी | (२८७१) दाादिकाथः (३) छाल । और (८) कनेर । यह आठ योग कुष्ट को __ ( भा. प्र. । म. ख. ज्व.) नष्ट करनेके लिए उत्तम हैं। दारिसाञ्जनकिरातवृषाब्दबिल्वइनका काथ बनाकर पिलाना चाहिए । इनसे । सक्षौद्रचन्दनदिनेशभवप्रसूनैः। For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - । १२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ दकारादि कायः कृतो मधुयुतो विधिना निपीतो । पीतो हन्ति क्षयोद्भवं सततकं चातुर्थिकं भूतजम् रक्त सितश्च सरुजं प्रदरं निहन्ति । | योगोऽयं मुनिभिः पुराणगदिवो जीर्णज्वरे रसौत, चिरायता, बासा, नागरमोथा दुस्तरे ॥ बेलगिरी, लाल चन्दन और आकड़ेके फूलोंके ___कटसरैया, देवदारु, इन्द्रजौ, मजीठ, कालीकाथमें शहद डालकर पीनेसे पीडायुक्त श्वेतप्रदर सर,३ पाठा, शठी, सेठ, खस, चिरायता, गजपीऔर रक्तप्रदर नष्ट होता है। पल, त्रायमाणा, पद्माख, हरतीसंहार, धनिया, (२८७२) दााद्याश्च्योतनम् | मोथा, चीर (सरलकाष्ट), सहजनेकी छाल, सुग(ग. नि. । नेत्ररो.) न्धबाला, बड़ी कटेली, हर्र, छोटी कटेली, पित्तपापड़ा, दाहरिद्रा त्रिफलां समुस्तं | दाभकी जड, कुटकी, अनन्तमूल, गिलोय, पोखरसशर्करं माक्षिकसंप्रयुक्तम् । मूल । सब चीजें समान भाग लेकर अधकुटा आश्च्योतनं मानुषदुग्धमिश्र पित्तास्रवाते तु भिषग्विदध्यात् ॥ करालें। पित्तज, रक्तज और वातज नेत्राभिष्यन्दमें दारु और वातज नेवाभियन्त दाम इसमें से २ तोले काथ (चूर्ण) लेकर आधाहल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला और नागरमोथा के | सेर पानी में पकायें जब आध पाव रहजाय उतारकर काथमें खांड, शहद और स्त्रीका दूध मिलाकर उसकी छानले । बूंदें आंखमें डालनी चाहिये ।। यह काथ धातुगत, विषम, सन्निपातज, रोजा(२८७३) दास्यादि काथ: | ना, तिजारी, कामज, शोकजनित, और छर्दि युक्त (धन्व. । ज्वर.; भै. र. । ज्वर.; यो. चिं. । अ. ४: । तथा अन्य अनेक प्रकारके ज्वरोको नष्ट करता है। यो. त. । त. २०: वृ. यो. त. । त. ५९) । विशेषकर क्षयके ज्वर, सदा बना रहने वाले ज्वर दासी'दारुकलिलोहितलताश्यामाकपाठाशठो। (मयादी बुखार ), चौथिया ( चातुर्थिक ) ज्वर, शुण्ठयोशीरकिरातकुअरकणात्रायन्तिकापमः॥ भूतजन्य ज्वर और कष्ट साध्य जीर्णज्वरमें वजीधान्यकनागराब्दसरलैः शिवम्बुसिंहीशिवा: अत्यन्त गुणकारी है। ध्याघीपर्पटदर्भमूलकटुकानन्तामृतापुष्करैः ॥ (२८७४) दाहप्रशमनमहाकषायः धातुस्यं विषमं त्रिदोषजनितं चैकाहिक (च. सं. । सू. अ. ४) ____ द्वयाहिकम् । लाजाचन्दनकाश्मर्यफलमधुकशर्करानीलोत्पलो कामैः शोकसमुद्भवं च विविधं यं छर्दियुक्तं शीरसारिवागुडूचीहीवेराणीति दशेमानि दाह नृणाम् ॥ ' प्रशमनानि भवन्ति । १ दाादीति पाठभेदः । २ दावीति पाठान्तरम् । ३ 'श्यामाक' यहां पर 'श्यामा के स्थान में लिखा गया प्रतीत होता है; इसी लिये उसका अर्थ कालीसर किया है। For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [१३] - - धानकी खील (लाजा), लालचन्दन, खम्भा- पीपल, सोंठ और हर्रके चूर्णको गुड़में मिलारीके फल, मुलैठी, खांड, नीलोत्पल ( नीलकमल- कर उसमें थोडासा घी डालकर दूधके साथ पिलानीलोफर ), खस, सारिवा, गिलोय और सुगन्ध । नेसे दूध बढ़ता है। बाला । इन दश चीजों के समूहको “दाहप्रशमन | (२८७७) दुग्धामलकयोगः महाकषाय" कहते हैं । ( यह दसों ओषधियां (वृ. नि. र. । स्व. भ.) दाहनाशक द्रव्यों में अग्रगण्य हैं ।) दुग्धे प्रयुक्तामलकी नराणाम् (२८७५) दीपनीयमहाकषायः नष्टस्वराणां सुखमातनोति । (च. सं. । सू. अ. ४) यथा मृगाक्षी सुरकिनराणाम् पिप्पलीपिप्पलीमूलचन्यचित्रकाराम्लवेतस . "कन्दर्पर्दप प्रतिपीडनं च ॥ मरिचाजमोदाभल्लातकास्थिहिानिर्यासा इति | ___ आमलेके चूर्णको दूधके साथ पीनेसे स्वरभङ्ग दशेमानि दीपनीयानि भवन्ति ॥ नष्ट होता है । ( मात्रा ६ माशे-प्रातः, दोपहर, पीपल, पीपलामूल, चव, वीता, सेठ, अम्लबेत, काली मिर्च, अजमोद, भिलावेकी गिरी और सायम् ।) होंग । इन दश चीजों के समूहको “ दीपनीय | (२८७८) दुरालभादिकल्कः महा कषाय " कहते हैं । ( यह ओषधियां अग्नि ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) दीपक द्रव्यों में प्रधान हैं । ) दुरालभा पर्पटकं च विधा (२८७६) दुग्धशोधकतथा वर्धक प्रयोगाः | पटोलनिम्बाम्बुदतिन्तडीकम् । __ (हा. सं. । स्था. ३ अ. ५६) सशर्कर कल्कमिदं प्रयोज्यं पिप्पली पिप्पलीमूल नागरं घनबालकम् । सपित्तवातोद्भवशूलशान्त्यै ॥ इस्तम्बरूणि मनिष्ठां सह क्षीरेण कल्कयेत् ॥ वात पित्तज शूलकी शान्तिके लिए धमासा, पानं क्षीरविशुद्धयर्थ कल्कममातराशिते । । पित्तपापड़ा, सोंठ, पटोलपत्र, नीमकी छाल, नागरमरीचं पिप्पलीमूल क्षीर क्षीरविवृद्धये ॥ मोथा और तिन्तडीक के कल्क (पानीके साथ मागधी नागरं पथ्या गडेन सघृतं पयः।। पत्थर पर पिसी हुई चटनी) के साथ खांड मिलापान जनयते क्षीरं खीणां क्षीरक्षयादपि । कर सेवन कराना चाहिये । ( मात्रा-सब चीजें पीपल, पीपलामूल, सेठ, नागरमोथा, सुगन्ध- | समान भाग मिली हुई १ तोला और खांड सबके माला. कस्तम्बर और मजीठको दधके साथ पत्थर | बराबर लेनी चाहिए) पर पिट्ठी की तरह पीसकर प्रातःकाल दूध के साथ | (२८७९) दुरालभादिकषायः (१) पिलानेसे प्रसूता का दूध शुद्ध होता है। (ग. नि. । मूत्रकृ.) काली मिर्च और पीपलामूलके कल्कको दूधके | दुरालभाश्मभित्पथ्याव्याघ्रीमधुकधान्यकैः । साथ पिलाने से प्रसूता के स्तनोंमें दुग्धवृद्धि | कृतः काथो सितापीतो मूत्रकृच्छ्रविषन्धनुत॥ होती है। दाई शूलं निहन्त्याशु तमः सूर्योदये यथा ॥ For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि धभासा, पाषाण भेद, हर्र, कटेली, भुलैठी और दुरालमावालकतिक्तरोहिणी धनिया; इनके काथमें मिश्री मिलाकर पीनेसे मूत्र- पयोदविश्वौषधिकल्पितं जलम् । कृच्छ्, मूत्रावरोध, मूत्रकी दाह और शूल अत्यन्त प्रपीतगणं सकलज्वरापहं शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। प्रवर्षनं जाठरजातवेदसः ।। (मिश्री १० तोले काथमें ११ तोला मि- धमासा, सुगन्धबाला, कुटकी, नागरमोथा, लानी चाहिये ।) और सोंठ का उष्ण काथ पीनेसे समस्त प्रकारके (२८८०) दरालभादिकषायः (२) ज्वर नष्ट होते और जठराग्निकी वृद्धि होती है । (वृ. नि. र. । ज्वर.) | (२८८४) दुरालभादिकषायः (६) दुरालभामृताघनो जलं च रोहिणीरजो।। (यो. समु.। स.६) ज्वरं च वातपित्तन निहन्त्यसौ कषायकः ।। दुरालभावासकविश्वमुस्तै धमासा, गिलोय, नागरमोथा, सुगन्धवाला, भूतं जल स्यात् क्रमशो ज्वरघ्नम् ।। और कुटकी । इनका काथ पीनेसे वात-पित्तज्वर धमासा, बासा, सोंठ और नागर मोथे का नष्ट होता है। काथ पीनेसे धीरे धीरे ज्वर नष्ट हो जाता है। (२८८१) दरालभादिकषायः (३) (२८८५) दुरालभादिकषायः (७) (ग. नि. । ज्वर.) (ग.नि.; बृ. नि. र. नं. से.; वृ.भा.; यो.र; मूर्छा.; दुरालभामृताक्वाथस्तथा वातज्वरापहः । वै. जी. । वि. ४) धमासा और गिलोयका काथ वातज्वर को दुरालभाकषायस्य घृतयुक्तस्य सेवनात् । नष्ट करता है। भ्रमः शाम्यति गोविन्दचरणस्मरणादिव ॥ (२८८२) दुरालभादिकषायः (४) धमासेके काथमें घी मिलाकर पीनेसे मूर्छा (ग. नि.; यो. र. । विस.; वा. भ. । चि. अ. १९) रोग नष्ट होता है। दुरालभां पपेटकं गुडूचीविश्वभेषजम् । १० तोले काथमें १। तोला घी डालना निशापयुषितं दद्यात्तृष्णावीसनाशनम् ॥ चाहिए) ___धमासा, पित्तपापड़ा, गिलोय और साठ (हरेक | (२८८६) दुरालभादिकाथः (१) ६-६ माशे) लेकर रात्रिको (१२ तोले ) पानीमें (वृ. नि. र.; वं.से.; ग. नि.; वृ. मा. । ज्वर.; . मिट्टीके बरतनमें भिगोदें । प्रातः काल मल छान वृ. यो. त.। त. ५९) कर रोगीको पिला दें। इसके सेवनसे तृष्णा और वीसर्प रोग नष्ट | दुरालभापटकप्रियङ्गभूनिम्बवासाकटु होता है। - रोहिणीनाम् । (२८८३) दुरालभादिकषायः (५) क्वायं पिबेच्छर्करयावगाढं तृष्णास्रपित्तज्वर (ग. नि. । ज्वरा.) दाहयुक्तः ॥ For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। - धमासा, पित्त पापड़ा, फूल प्रियंगु, चिरायता, । (२८९०)दुःस्पशादिकाथः (यो. र. । ज्वर.) बासा और कुटकी के काथको खांडसे मीठा करके दुस्पर्शीशीरसिंहीयनमधुकशिवाजामिविश्वापीनेसे तृष्णा, रक्तपित्त, ज्वर और दाहका नाश | टरूपच्छिन्नारेणूकषायः समधुमगधको वापि होता है। तश्चाष्टमांशम् । (२८८७) दुरालभादिकाथः (२) दाह स्वेदं च शोष कृमिमथ रुधिरं शैत्यशुद्भा(वृ. नि. र. । श्वास.) | न्तचित्तं वासं शूलं च तृष्णामहरहरसम इन्ति दुरालभानागरतिक्तपाठासठीपरण्डजटाकषायः चातुर्थिकाधम् ॥ पीतः मशूलं शमयेज्ज्वरं च सपासकासं धमासा, खस, कटेली नागरमोथा, मुलैठी, पवनप्रसूतम् ॥ हर्र, जीरा, सोंठ, बासा, गिलोय, और रेणुका । इनके धमासा, सोंठ, चिरायता, पाठा, सठी (कचूर) काथमें शहद और पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलाबासा, और अरण्डकी जड़का काथ पीनेसे शूल | नेसे दाह, स्वेद, शोष, कृमि, रुधिरस्राव, शीत, मुक्त वातज ज्वर, खांसी और श्वास नष्ट होता है। चित्तकी भ्रान्ति, श्वास, शूल, तृष्णा और चातु(२८८८) दुरालभादिकाथ: (३) र्थिक (चौथिया) ज्वर नष्ट होता है । (वृ. यो. त. । त. १२६; यो. र.; बं. से. । नोट-शहद, १० तोले काथमें १। तोला मसूरि.) और पीपलका चूर्ण १ माशा मिलाना चाहिये। दुरालभा पर्पटक पटोलं कटुरोहिणी । । (२८९१) दुःस्पर्शादिस्वरसप्रयोगः पिबेन्मसूर्यामेतेषां क्वार्थ पित्तकफात्मनि ॥ (वं. से. । उदावत.) पित्त कफज मसूरिकामें धमासा, पित्तपापड़ा, दुःस्पर्शास्वरसं वापि कषाय ककुभस्य च । पटोल पत्र, और कुटकीका काथ पिलाना चाहिये। एरुिबीज तोयेन पिवेचा लवणीकृतम् ।। (२८८९) दुरालभादिकाथः (४) धमासेका स्वरस या अर्जुनकी छालका काथ (व. से.; Q. मा. । विस्फो .) पीनेसे अथवा ककडीके बीजोंको पानीमें पीसकर दुरालभां पपटक पटोले कटुकां तथा। (ठण्डाईसी बनाकर ) उसमें जरासा सेंधा नमक सोष्णं गुग्गुलुसंमिश्र पिवेद्वा खदिराष्टकम् ॥ मिलाकर पीनेसे; मूत्र रोकनेसे उत्पन्न हुवा उदावर्त धमासा, पित्तपापड़ा, पटोलपत्र, और कुटकीके रोग नष्ट होता है। काथमें कालीमिर्च तथा शुद्ध गूगल मिलाकर पीनेसे | (२८९२ ) दूर्वादिकाथ: या खदिराष्टक सेवन करनेसे विस्फोटक रोग नष्ट (वं. से.; ग. नि.; . मा.। प्रमे.) होता है। दुर्वाकसेरुपूतीककुम्भीकालवशेवलम् । (१० तोले काथमें १-१ माशा मिर्चका जलेन क्वथितं पीतं शुक्रमेहहरं परम् ॥ चूर्ण और गूगल मिलाना चाहिये । ) दूर्वा (दूब घास), कसेरु, करञ्ज (कञ्जा) For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि वृक्षकी छाल, जलपर्णी (सिरवाल), तथा कसेर ।। (२८९६) देवदादिकाथः (१) इनका काथ पीनेसे शुक्रप्रमेह नष्ट होता है। (वृ. नि. र.; वं. से. ।स्त्री; यो. र.; भा. प्र.। म. (२८९३) दूर्वादियोगः (ग. नि. । छय.) | सूति.; यो. त. । त. ७५) पित्तच्छर्दिवजेदुर्वातण्डुलोदकपानतः । देवदारु वचा कुष्ठं पिप्पली विश्वमेषजम् । धात्रीरसेन वा पीता सिता लाजा च हन्ति ताम् । कटफलमुस्तभूनिम्बतिक्ताधान्यहरीतकी ॥ दूर्वा (दूब) घासको तण्डुलोदक ( चावलोंके गजकृष्णा च दुःस्पर्शा गोक्षुरं धन्वयासकम् । पानी) के साथ पीसकर पीनेसे पित्तज छर्दि नष्ट वृहत्यतिविषा छिन्ना कर्कटें कृष्णजीरकम् ॥ होती है। ( मात्रा-६ माशे ) समभागान्वितैरेतैः सिन्धुरामठसंयुतम् । धानकी खील और मिश्रीके चूर्णको आमलेके क्वायमष्टावशेषन्तु प्रसूतां पाययेत्रियम्॥ रसमें मिलाकर चाटनेसे भी पित्तज छर्दि नष्ट हो शूळकासज्वरश्वासमृ कम्पशिरोऽतिनुत् । जाती है। युक्तं प्रलापतृड्दाहतन्द्रातीसारवान्तिभिः॥ ___ नोट---तण्डुलोदक बनानेकी विधि भा. भै. निहन्ति सूतिकारोगं वातपित्तकफोत्थितम् ॥ र. भाग १ में पृष्ट ३५३ पर देखिये । देवदारु, बच, कूट, पीपल, सेांठ, कायफल, | मोथा, चिरायता, कुटकी, धनिया, हर्र, गजपीपल, (२८५४) देवदारुक्षीरम् (यो. र. । शोफ.) धमामा, गोखरु, जवासा, कटेली, अतीस, गिलोय, क्षीरं शोफहरं दारुवर्षाभूनागरैः शतम् ।। पेयं वा चित्रकव्योपत्रिवृक्षारुप्रसाधितम् ।। | काकडासिंगी और कालाजीरा । सब चीजें समान | भाग लेकर एकत्र मिलाकर अधकुटी करलें। इसमें देवदारु, साठी (बिसखपरा--पुनर्नवा) और सोंठसे सिद्ध किया हुवा या चीता, सोंठ, मिर्च, से प्रतिदिन २ तोले लेकर ३२ तोले पानीमें पकाकर ४ तोले शेष रहने पर छानकर उसमें २ पीपल, निसोत और देवदारसे सिद्ध किया हुवा रत्ती हींग और १॥ माशा सेंधा नमक मिलाकर दूध पिलानेसे शोथ नष्ट होता है। पिलानेसे प्रसूता स्त्रीका शूल, खांसी, ज्वर, श्वास, (२८९५) देवदा दिकषायः मूर्छा, शरीर कांपना, शिरपीडा, प्रलाप, तृष्णा, (वै.जी. । वि.१) दाह, तन्द्रा, अतिसार और वमनयुक्त प्रसूत रोग मुरदारुशिवाशिवास्थिराविधैः कथितः (चाहे वह वायुसे उत्पन्न हुवा हो या पित्तसे अथवा कपायकः । मधुना सितया समन्वितः परिपीतः शमयेच्च- | कफसे ) नष्ट हो जाता है। तुर्थकम् ॥ (२८९७) देवदार्यादिकाथः (२) देवदारु, हर्र, आमला, शालपर्णी, बासा और (वृ. नि. र. । अति.; वै. जी.। विला. २) सेठिके काथमें शहद तथा मिश्री डालकर पीनेसे सदेवदारुः सबिषः सपाठः सजन्तुशत्रुः सघनः चातुर्थिक ज्वर नष्ट होता है। सतीक्ष्णः। For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१७] - - सवत्सक क्वाय उदाहृतोऽसौ शोकातिसारा. देवदारुवचाभागी विश्वपौष्करफट्फलैः। म्बुधिकुम्भजन्मा ॥ कृत्वा काथो जयत्याशु श्वासकासानशेषतः॥ देवदारु, अतीस, पाठा, बायबिडंग, नागर- देवदारु, बच, भरंगी, सेठ, पोखरमूल, और मोथा, कालीमिर्च, और इन्द्रजौका काथ पीनेसे कायफलका काथ पीनेसे श्वास, खांसी शीघ्र ही शोकातिसार नष्ट होता है। नष्ट हो जाते हैं। (२८९८) देवदा दिकाथः (३) । (२९०१) देवदा दिक्काथ: (६) (वं. से.; ग. नि.। ज्वर.) (वं. से.; यो. र. । अतिसा.) दारु पर्पटकं मुस्तमभया विश्वमेषजम् । देवदारुवचामुस्तं नागरातिविषाभयाः। प्रतीक कट्फलं भार्गी कुस्तुम्बरिवचे समम् ॥ सर्वाजीप्रशमनं पेयमेतैः शतं जलम् ।। पत्तवा क्वार्थ पिवेदिमधुयुक्तं ज्वरापहम् । देवदारु, बच, मोथा, सोंठ, अतीस और वातष्लेष्मणि कासे च कुष्ठरोगे गलग्रहे ॥ हर्रका काथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारके अजीर्ण देवदारु, पित्तपापड़ा, मोथा, हरे, साठ, कर- नष्ट होते हैं। अकी छाल, कायफल, भारंगी, कस्तुम्बरु और बच। (२९०२) देवदालीयोगः (वृ. नि. र.। अर्श.) इनके काथमें हींग और शहद मिलाकर पीनेसे | देवदालीकषायेण शौचमाचरतां नृणाम् ।। वातकफज ज्वर, खांसी, गलग्रह और कुष्ठरोग नष्ट ! किम्बामसेवाभिः कुतः स्यगंदजाङ्कराः ।। होता है। ' देवदालीके काथसे शौच करनेसे या देवदा(२८९९) देवदाादिक्वाथः (४) लीकी धूनी लेनेसे मस्से नष्ट हो जाते हैं। (वृ. नि. र. । सन्नि.; मा. प्र. । म. ख.) (२९०३) देवगुमादियोगः सुरदारुसठीसुधालतासुवहाशुण्ठ्यमृताः शृता (च. द.; ग. नि.; वृ. नि. र. । उद.; यो. र.। शोफ. जलेन । | देवद्रुमं शिग्रु मसूरकञ्च सपुराः शमयन्ति सेविताः सततं सन्धिगतं । ___ गोमूत्रपिष्टामथवाऽश्वगन्धाम् । .. सदागतिम् ॥ देवदारु, कचूर, रासना और सेठ १-१ पीत्वाऽऽशु हन्यादुदरं प्रद कृमीन्सशोफानुदरं च दृष्यम् ॥ भाग तथा गिलोय २ भाग लेकर यथाविधि काथ बनाकर उसमें गूगल मिलाकर पीनेसे सन्धिगत देवदारु, सहजनेकी छाल और मसूरको सतत ज्वर नष्ट होता है। समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर गोमूत्र में पीस(गूगल २ माशा मिलाना चाहिए ।) कर पिलानेसे अथवा असगन्धको गोमूत्रमें पीसकर (२९००) देवदा दिक्काथः (५) पिलानेसे शोथोदर और उदरके कृमि आदि नष्ट (वं. से. । श्वास.; वृ. यो. त. । त. ८०) होते हैं। १ कुष्टमिति पाठान्तरम् । २ मयूरकोदि पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [14] (२९०४) द्राक्षादिकल्कः (१) (बृ. नि. र. । ज्वर. ) www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । द्राक्षालकयोः कल्कं सघृतं वदने क्षिपेत् । तेन घृष्ट्वा मुखस्यान्तः कुर्वीत प्रतिसारणम् ॥ जिह्वावालुगलान्तस्थः संशोषस्तेन शाम्यति । सुरसं जायते वक्रं रुचिर्भवति भोजने ॥ दाख ( मुनक्का ) और आमलेको पत्थर पर पिट्टी की तरह पीसकर उसमें थोड़ा घी मिलाकर उसे जीभ तालु आदिपर मलें । इससे जीभ, तालु, और गलेका शोष नष्ट होकर मुखका स्वाद ठीक हो जाता है और भोजनमें रुचि बढ़ती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ दकारादि (२९०७) द्राक्षादिकषाय: (१) (ग. नि. । मुख.) द्राक्षागुडूची सुमनःमत्राला दाaarefत्रफलाकषायः । क्षौद्रेण युक्तः कवलग्रहोऽयं मुखस्य पार्कं शमयत्युदीर्णम् ॥ दाख ( मुनक्का ), गिलोय, चमेलीकी कपल, दारूहल्दी, जवासा और त्रिफलाके काथमें शहद डालकर उससे कुल्ले (गरारे) करनेसे मुखपाक नष्ट हो जाता है । (२९०८) द्राक्षादिकषाय: (२) (बृ. नि. र. । गुल्म. ) (२९०५) द्राक्षादिकल्कः (२) ( यो त । त. २० ) द्राक्षाभयारसं गुल्मे पैत्तिके सगुडं पिबेत् । शुष्कां च स्फुटितां जिह्वां द्राक्षया मधुपिष्टया । सशर्करं वा विलिहन् त्रिफला चूर्णमुत्तमम् ॥ प्रलेपयेत्सघृतया सनिपातज्वरे गये || यदि सन्निपात ज्वरमें जीभ शुष्क हो जाय और फट जाय तो उसपर मुनक्का ( दाख) को शहद के साथ पीसकर उसमें थोड़ासा घी मिलाकर उसका लेप करना चाहिए । (२९०६) द्राक्षादिकल्कः (३) (यो. र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ.) द्राक्षासितोपलाकरकं कृच्छ्रन्नं मस्तुना युतम् । पिवेद्वा कामतः क्षीरमुष्णं गुडसमन्वितम् ॥ मुनक्का ( दाख) और मिसरीको पत्थर पर चटनीकी तरह पीसकर मस्तु ( दही के तोड़) में मिलाकर पीनेसे अथवा उष्ण दूधमें गुड़ मिलाकर यथेच्छ परिमाण में पीनेसे मूत्र कृच्छ्र नष्ट होता है । ( मिसरी १ तोला, मुनक्का १ तोला, मस्तु ८ तोले ) पैत्तिक गुल्म में मुनक्का ( दाख) और हर्र के रस (शीतकाय) में गुड़ मिलाकर पिलाना या त्रिफलाके चूर्ण में खांड मिलाकर ( शहद के साथ ) चटाना चाहिये । (२९०९) द्राक्षादिकषायः (३) ( वैधामृत । वि. ४७ ) छिन्नाजाती पल्लवानां कषायः । द्राक्षादार्वी यासपध्याक्षघात्री क्षौद्रोदितो हन्ति गण्डूषयुक्तया पार्क वक्त्राम्भोजसंस्थं महान्तम् ॥ For Private And Personal Use Only दाख (मुनक्का), दारूहल्दी, धमासा, हर्र, बहेड़ा, आमला, गिलोय, और चमेली के पत्तों के काथमें शहद मिलाकर उसके कुल्ले करने से मुखपाक नष्ट होता है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१९] (२९१०) द्राक्षादिकाथ: (१) दश ओषधियोंका काथ लघु, दीपनपाचन और (वृ. नि. र. । वात.) वातपित्त-वर नाशक है। द्राक्षापटोलत्रिफलापिचुमन्दकृषैः कृतः । (२९१४) द्राक्षादिकाथ: (५) काय एकाहिकं हन्ति परार्थमिव दुर्जनः । (वं. से. । तृषा.) ___ दाख (मुनक्का), पटोल पत्र, त्रिफला, नौमकी द्राक्षाचन्दनखजूरीपीतं मधुयुतं जलम् । छाल और बासेका काथ पिलानेसे इकतरा (एकाहिक) तृष्णाहरं पिबेदापि मधुना तण्डुलोदकम् ॥ ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। मुनक्का, लालचन्दन और खजूरके काथमें (२९११) द्राक्षादिकाथः (२) शहद मिलाकर पीनेसे अथवा तण्डुलोदक (चाव(वै. जी. । वि. ४) लोंके धोवन) में शहद मिलाकर पीनेसे तृष्णा शान्त द्राक्षापथ्याकृतः काथः शर्करामधुमिश्रितः।। हो जाती है। श्वासकासहरो देयो रक्तपित्तपशान्तये ॥ (तण्डुलोदक बनानेकी विधि प्रथम भागके ___मुनक्का (दाख) और हरैके काथमें मिश्री और शहद मिलाकर पिलानेसे श्वास, खांसी और | पृष्ठ ३५३ पर देखिये।) रक्तपित्तका नाश होता है। (२९१५) द्राक्षादिकाथ: (६) (२९१२ ) द्राक्षादिकाथः (३) (वृ. नि. र.; वं. से. । पित्तज्वर.) (वृ. नि. र. । वा. पि. ज्वर.) | द्राक्षाशम्पाककटुकामुस्तं ग्रन्थिकधान्यकम् । द्राक्षाकिरातामृतावासासठी | पक्वं हन्यादुदावः शूलं पित्तकफज्वरम् ॥ काथं पिबेत्पित्तमरुज्ज्वर हरेत् ॥ ___मुनक्का (दाख), अमलतास, कुटकी, मोथा, दाख (मुनक्का), चिरायता, गिलोय, बासा पीपलामूल और धनियेका काथ पीनेसे उदावर्त, और सठी (कचूर) का काथ पिलानेसे वातपित्त | शूल और पित्त कफज ज्वर नष्ट होता है। ज्वर नष्ट होता है। ( २९१६) द्राक्षादिकाथ: (७) (२९१३) द्राक्षादिकाथः (४) (हा. सं.; वै. र.; भा. प्र.; वृ. नि. र.; ग. नि. (यो. र. । ज्वर.) ___. मा.; वं. से. । ज्वर.; यो. चि.। अ. ४) द्राक्षालवगशुण्ठीत्वग्धनिका च हरीतकी। द्राक्षाभयापर्पटकान्दतिक्ता मिसी गुस्ताऽमृता चैव कृतमालकषायकः ॥ काय: ससम्पाकफलो विदध्यात् । पातपित्तज्वर हन्ति पाचनो लघु दीपनः। प्रलापमू भ्रमदाहशोष दशभिश्चौषधेरेतेः सर्वज्वरविनाशनः॥ तृष्णान्विते पित्तभवे ज्वरे च ॥ ___ दाख (मुनक्का), लौंग, सोंठ, दालचीनी, धनिया मुनक्का (दाख), हर्र, पित्त पापड़ा, नागरमोथा, हर, सौंफ, मोथा, गिलोय और अमलतास; इन ! कुटकी, और अमलतासका काथ पीनेसे प्रलाप, For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - मूर्छा, भ्रम, दाह, शोष, और तृष्णायुक्त पित्त । (१० तोले काथमें ११ तोला गुड़ डालना ज्वर नष्ट होता है ।* चाहिये।) (२९१७ ) द्राक्षादिकाथः (८) (२९२०) द्राक्षादिकाथ: (११) (ग. नि. । ज्वर.) (वृ. नि. र. । पित्तज्व.) द्राक्षाशिवारम्वधरोहिणीनां द्राक्षाचन्दनपानि मुस्ता तिक्तामृतापि । यापटोशीरविमिश्रितानाम् । धात्रीबालमुशीरं च लोऽन्द्रयवपर्पटाः॥ फायपिवेस्पित्तसमुद्भवोऽस्य । परूषर्क मियाश्च यवासो वासकस्तथा। ज्वरः शमं याति सतृटसमूर्छः॥ मधुकं कुलकं चापि किरातो धान्यकस्तथा ॥ ____ मुनक्का, हरे, अमलतास, कुटकी, पित्तपापड़ा। एषां कायो निहन्त्येव ज्वरं पित्तसमुद्भवम् । और खसका काथ पीनेसे पिपासा तथा मूर्छा तृष्णां दाहालापं च रक्तपितं भ्रमं क्लमम् ॥ युक्त पित्तज्वर नष्ट होता है। मूच्छी छदि तथा शूलं मुखशोषमरोचकम् । (२९१८ ) द्राक्षादिकाथ: (९) कासं वार्स चल्लासं नाशयेनात्र संशयः ॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. २) दाख (मुनका), लाल चन्दन, पदमाक, नागरद्राक्षामृतावासकतिक्तकाच मोथा, कुटकी, गिलोय, आमला, सुगन्ध बाला, खस, भूनिम्बतिक्तेन्द्रयवापटोलम् । लोध, इन्द्रजौ, पित्तपापड़ा, फालसेकी छाल, फूल मुस्ता सभाी कथितः कषायः प्रियङ्गु, जवासा, बासा, मुलैठी, पटोल पत्र, चिरासपित्तश्लेष्मज्वरनाशनाय ॥ यता और धनिया। इनका काथ पीनेसे तृष्णा, दाह, दाख (मुनक्का), गिलोय, बासा, कुटकी, चिरा- प्रलाप, रक्तपित्त, भ्रम, क्लम, मूर्छा, छर्दी, शूल, यता, पित्तपापड़ा, इन्द्रयव, पटोलपत्र, नागरमोथा मुखशोष, अरुचि, खांसी, श्वास, हल्लास और और भारंगीका काथ पिलानेसे पित्तकफज ज्वर पित्तज्वर अवश्य ही नष्ट हो जाता है। नष्ट होता है। (२९२१) द्राक्षादिकाथ: (१२) (२९१९) द्राक्षादिक्काथ: (१०) (वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र.; भा. प्र. । ज्वर.) ___ (ग. नि. । ज्व.; वृ. नि. र. । ज्वर.) द्राक्षापटोलनिम्बाब्दशक्राहत्रिफलामृतम् । द्राक्षा किरातको धात्री कचूरोऽमृतवल्लरी।। जलं जन्तुः पिबेच्छीधं अन्येधुज्वरशान्तये ॥ एषां काथो गुडोपेतः पीतो द्वन्द्वजरोगजित् ॥ दाख (मुनक्का), पटोलपत्र, नीमकी छाल, द्राक्षा (मुनक्का), चिरायता, आमला, कचूर | नागरमोथा, इन्द्रजौ और त्रिफला (हरे, बहेड़ा, और गिलोयके काथमें गुड़ मिलाकर पीनेसे द्विदो- ! आमला ) का काथ पीनेसे इफतरा ज्वर जाता घज ज्वर नष्ट होता है। | रहता है। * हारीत संहिता, बैयरहस्य और भावप्रकाशमें पाठ भिन्न है परन्तु भोषधियां यही है। For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करायप्रकरणम् तृतीयो भागः। [२१] - (२९२२) द्राक्षादिकाथः (१३) । (२९२४) द्राक्षादिकाथः (१५) (यो. र.। विस्फो.; वृ. नि. र.। मसू.; वं. से.) । (वृ०नि०र० । शूल०; वृ०यो०तात०९४) द्राक्षाकाश्मर्यखजूरपटोलारिष्वासकैः। पित्तश्लेष्मोद्भवं शूलं विरेकवमनैर्जयेत । कटुकालाजदुःस्पर्शः काथः शकरया युतः॥ द्राक्षाटरूपयोः कायः पित्तश्लेष्मरुज जयेत् ॥ विस्फोटं पित्तनं हन्ति सोपद्रवमसंशयम् ॥ पित्तकफज शूलमें विरेचन और वमम करा ना चाहिए। दाख (मुनक्का) खम्भारीके फल, खजूर (फल), मुनक्का (दाख) और बासेका काथ पीनेसे पटोलपत्र, नीमकी छाल, बासा, कुटकी, खस | | पित्तकफज शूल शान्त हो जाता है। और धमासा । इनके काथमें खांड मिलाकर पीनेसे उपद्रव सहित पित्तज विस्फोटक अवश्य नष्ट हो (२९२५) द्राक्षादिक्षीरम् । (१) (यो० र० । रक्त पि०) जाता है। द्राक्षया फलिनीभिर्वा बलया नागरेण वा। (नोट---१० तोले काथमें २॥ तोले खांड श्चदंष्ट्रया शतावर्या रक्तजित्साधितं पयः॥ मिलानी चाहिये।) मुनक्का, फूलप्रियंगु, खरैटी, सौंठ, गोखरु (२९२३) द्राक्षादिकाथः (१४) और शतावरमें से किसी एकके साथ दूध पकाकर (वृ.नि. र.। मूर्छा.) | पिलाने से रक्तपित्त नष्ट होता है। द्रालासितादारिमलाजवन्ति ( ओषधि ५ तोले, बकरीका दूध ४० तोले, कहलारनीलोत्पलपलवन्ति । पानी १६० तोले मिलाकर पानी जलने तक पकावें।) पिवेत्कषायाणि च शीतलानि २९२६) द्राक्षादिक्षीरम् (२) पिसज्वरं यानि न यापयन्ति ॥ (ग. नि.; रा. मा. । ज्वरा.) - (१) दाख (मुनक्का); मिश्री, अनारकी छाल, द्राक्षाटरूषकृतमालयवासभूमिऔर खस । (२) लाल कमल, नीलकमल और | निम्बैः शतं मळयजेन युतं पयो यः। सफेद कमल। दोषत्रयेण अनितेऽपि पिबेज्ज्वरेऽसौ इन दोनो योगोमेंसे किसीका शीतकषाय तत्कालमाशु लमते बलमत्युदारम् ॥ पीनेसे मूर्छा नष्ट होती है। दाख (मुनक्का), बासा, अमलतास, जवासा, मूर्छामें पित्तज्वरनाशक शीतल कषाय पिला- चिरायता, और सफेद चन्दनके साथ दूध पकाकर ने चाहिये। पीनेसे त्रिदोषज्वर नष्ट होता है । (५ तोले ओषधिको ३० तोले पानीमें मिला- नोट-हरेक ओषधि ६ माशे; दूध २४ कर रातभर रक्खा रहने दें। प्रातःकाल छानकर तोले, पानी ९६ तोले। सबको एकत्र मिलाकर उसमेंसे १० तोले रोगीको पिलावें। पानी जलने तक पकावें !) For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि (२९२७) द्राक्षादिपाचनम् | द्राक्षा च पिचुमन्दं च मधुकं तिक्तरोहिणी । (ग. नि. । पाण्डु.) निशां कषायोऽध्युषितः पिसज्वरविनाशनः।। द्राक्षापटपान्याककैरातोशीरवालकैः।। दाख ( मुनक्का ), नीमकी छाल, मुलेठी और गुहनीकटकायुक्तैहारिद्रज्वरपाचनम् ॥ | कुटकी । इनका शीत कषाय पीनेसे पित्तज्वर शान्त दाख (मुनक्का ), पित्तपापड़ा, धनिया, चि- | होता है। रायता, खस, सुगन्धबाला, गिलोय और कुटकी | ( हरेक ओषधि १ तोला, पानी २४ तोले। का काथ. हारिद्र ज्वर में दोषोंको पचाता है।। सबको रातभर भीगनेदें। सुबह मलकर छानलें । (२९२८) द्राक्षादिप्रयोगः मात्रा १० तोले । ) (वैद्यामृत । वि. १५) (२९३१) द्राक्षादिशोधनयोगः द्राक्षामृतानागरपुष्कराणां (इं. मा.; ग. नि. । विस.) सग्रन्थिकानां कथितं सकृष्णम् । द्राक्षारग्वधकाश्मय त्रिफलाविड पीलुभिः । मदेषु मूर्छासहितं घृताढयं त्रिदरीतकीभिश्च विसर्प शोधनं हितम् ॥ दुरालगायाः कथित भ्रमे च ॥ विसर्प रोगमेंदाख ( मुनक्का ), गिलोय, सोंठ, पोखरमूल, दाख (मुनक्का), अमलतास, खम्भारीकी और पीपलामूल के काथमें काली मिर्च का चूर्ण मि- छाल, त्रिफला, बायबिडंग, पीलु, निसोत और लाकर पिलानेसे मद जाता रहता है । तथा धमा- हर्रका काथ पिलाकर विरेचन कराना हितकर है। सेके काथमें घी मिलाकर पिलानेसे भ्रम और मूर्छा | (२९३२) द्राक्षाद्याश्च्योतनम् जाती रहती है। (वं. से.; यो. र.; . मा.; ग. नि. । नेत्ररोग.) (२९२९) द्राक्षादियोगः द्राक्षामधुकमञ्जिष्ठाजीवनीयैः शतं पयः । (वृ. नि. र. । अर्श.) प्रातराश्च्योतनं पथ्यं शोथशूलाक्षिरोगनुत् ।। द्राक्षा हरिद्रा मधुकं मजिष्ठा नीलमुत्पलम् । दाख ( मुनक्का ), मुलैठी, मजीठ और जीवअजाक्षीरेण सम्पीतं रक्तजाओंविनाशनम् ॥ नीय गणकी ओषधियों से दूध पकाकर उससे दाख (मुनक्का ), हल्दी, मुलैठी, मजीठ, और | प्रातःकाल आश्च्योतन करने से (आंखोंमें उसकी नीलकमल । सब चीजें समान भाग मिलाकर (१ बूंदें टपकानेसे ) आंखोंकी खडक सूजन आदि तोला) लें और पत्थर पर पीस कर बकरीके दूधमें | नष्ट होती है । मिलाकर पियें । इससे रक्तार्श नष्ट होती है। (सब ओषधियां समान भाग मिली हुई (२९३०) द्राक्षादिशीतकषायः ५ तोले, गोदुग्ध ४० तोले, पानी १६० तोले । (ग. नि. । ज्वरा.) पानी जलने तक पकायें।) १ मण्डेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२३] नोट---'जीवनीय गण' भारत भै. र. द्वितीय | व्याघोसिंहीकलिखिफलसटियुतैः कल्पित भागमें देखिये ।) स्तुल्यभागैः॥ (२९३३) द्राक्षारसादियोगः । काथो द्वात्रिंशदाख्यध्यधिकदशमहासमि ( हारी. सं. । स्था. ३ अ. १०) पातान्निहन्याच्छूलं कामादिहिकाकसनगुदद्राक्षारसं वा घृतसराय रुजाध्मानविध्वंसकारी। जलं सितादयं च सरक्तपित्ते । | उरुस्तम्भान्त्रवृद्धिं गलगदमरुचिं सर्वसन्धि । पानेऽथवा चेक्षुरस सिताढय ग्रहार्तिम् क्षयं च कासं क्षसज निहन्ति ॥ | मातङ्गोंघान्निहन्यान्मृगरिपुरिवचेद्रोगजालंतथैव दाख ( अंगूर) के रसमें घी और खांड | भरंगी, चिरायता, नीमकी छाल, नागरमोथा, मिलाकर पिलानेसे या खांडका शर्बत पिलानेसे कुटकी, बच, सोंठ, मिर्च, पीपल, बासा, इन्द्रायरक्तपित्त शान्त होता है । तथा ईख (गन्ने ) के | नकी जड़, रास्ना, अनन्तमूल, पटोलपत्र, देवदारु, रसमें खांड मिलाकर पिलाने से क्षतज क्षय और हल्दी, पाढलकी छाल, अरल (स्योनाक)की छाल, खांसी नष्ट होती है। ब्राह्मी, दारुहल्दी, गिलोय, निसोत, अतीस, पोख(२९३४) द्राक्षाहरीतकीयोगः रमूल, त्रायमाणा, कटेली, कटेला, इन्द्रजौ, हरे, (ग. नि. । र. पि:) बहेड़ा, आमला, और शठी (कचूर) सब चीजें अपहरति रक्तपित्तकण्डू गुल्मं च पैतिक सयः। समान भाग । जीर्णज्वरं च जयति मृद्रीकासंयुता पथ्या ॥ इन ३२ चीजोंके योगको द्वात्रिंशद् या ब __मुनक्का (दाख ) और हर समान भाग लेकर त्तीसा काथ कहते हैं । यह १३ प्रकारके सन्निपानीके साथ पीसकर खिलानेसे रक्तपित्त, खुजली, पात, शूल, खांसी, हिचकी, बवासीर, अफारा, पैतिक गुल्म, और जीर्णज्वर नष्ट होता है ।। ऊरुस्तम्भ, अन्त्रवृद्धि, गलरोग, अरुचि और सन्धि( मात्रा-६ माशे। अनुपान--बकरीका दूध । ) ग्रह ( गठिया) को नष्ट करता है । (२९३५) द्वात्रिंशदाख्यकाथः | (२९३६) बादशाङ्गकाथः (१) (यो. र. । सन्नि.; वृ. नि. र. । ज्वर.; (. यो. त. । त. १२५) यो. त. । त. २० किरातत्तिक्तकारिष्टयष्टयाह्वाम्बुदपटैः। मार्गीभूनिम्बनिम्बैधनकटकावचाव्योषवासा- | पटोलवासकोशीरत्रिफलाकोटःशुतम् ॥ विशाला। द्वादशाङ्गं नरःपीत्वा विस्फोटेभ्यो विमुच्यते । रास्नानन्तापटोलीसुरतरुरजनीपाटलाटुण्टुकैश्च द्वंदजेभ्यस्त्रिदोषोत्थाद्रक्तजाचहिताशनः ॥ ब्रामीदा-गुडूची त्रिवृदतिविषापुष्करत्रायमाणैः चिरायता, नीमकी छाल, मुलैठी, नागरमोथा, * तिन्दुकैश्चेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [२४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि पित्तपापड़ा, पटोलपत्र, बासा, खस, हर्र, बहेड़ा, | छिपञ्चमूलादिकाथ: आमला और इन्द्रजौ । इस काथ को पीनेसे द्वि (३. यो. त. । त. १२५) दोषज, सन्निपातज और रक्तज विस्फोटक नष्ट । दशमूलादिकाथ सं. २८३५ देखिये। होता है। (२९३९) विपश्वमूल्यादिकल्क: (हा. सं. । स्था. ३ अ. २) (२९३७) बादशाङ्गकाथ: (२) द्विपश्चमूली सह नागरेण . (र. र. । ज्वर) - गुडूचिभूनिम्बयन समेताः । | कल्कःमशस्तः सगुडो मरुत्सु दद्यात्पाचनकं पूर्वमामे स्तब्धे सनागरैः ॥ . सपिचवातज्वरनाशहेतु ॥ दशमूल, पीपल और धनिये का क्वाथ पित्त- दशमूल, सेठ, गिलोय, चिरायता और नागर कफज ज्वरमें पहिले ही पाचनार्थ देना चाहिए। मोथा समान भाग लेकर पानीमें पीसकर गुडमें मिलासामज्वरमें शरीरके स्तब्ध होनेमें उसमें सोंठ और कर खानेसे वातज तथा वातपित्तज्वर नष्ट होता है। बढ़ा लेनी चाहिए। । (२९४०) द्विवार्ताकीफलरसादिप्रयोगः (२९३८) द्विनिशादिशीतकषायः (यो. त. । त. । ७७) (वृ. नि. र. । प्रमे.) द्विवार्ताकीफलरसं पञ्चकोलं च लेहयेत् । द्विनिशात्रिफलायुक्तं रात्री पर्युषितं जलम्।। एकत्रिीणि घस्राणि वातपित्तकफज्वरे ॥ प्रभाते मधुना पीत मेहशूलं निकृन्तति ।। दोनों प्रकारकी ( छोटी और बड़ी) कटेलीके ___ हल्दी, दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा और आमला फलेके रस में पञ्चकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, (हरेक ६ माशे) लेकर रातको (१५ तोले) पानीमें चीता और सांठ ) का चूर्ण मिलाकर चटानेसे एक भिगोदें । प्रातःकाल मलकर छानलें । इसमें शहद दिनमें वात ज्वर, दो दिनमें पित्तज्वर और तीन मिलाकर पीनेसे प्रमेह नष्ट होता है। दिनमें कफज्वर नष्ट हो जाता है। __इति दकारादिकषायप्रकरणम् अथ दकारादिचूर्णप्रकरणम् (२९४१) दन्तमसी ___ कसीस, हर्र, बहेड़ा, आमला, माजूफल, जंगी (यो. चि. । अ. २) हर्र ( काली हर्र ), कपूर, खैरसार, सोनामक्खी कासीसं त्रिफला माजुफलं जांगीहरीतकी। भस्म, लोहभस्म, मंगेका महीन चूर्ण ( या भस्म ), कर्पूर खदिरं ताप्यं लोहचणे च बिद्रयम् ॥ अनारकी छाल, मजीठ, लोध, फटकी, मस्तगी, बोल दाडिमत्त्वक् च मञ्जिष्ठा लोभ्रं तुल्यं सुराष्ट्रजा, गोंद, और सुपारी (पुरानी) । सब चीजें समान मस्तंगी च बोल पूगं सर्व सूक्ष्मविचूर्णितम् ॥ भाग लेकर महीन चूर्ण करें। दन्तशूलहरं चाम्लेंदन्तकृष्णीकर तथा । इसे दांतों पर मलनेसे दन्तशूल नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - (सेंड से चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२५] इसे मलकर ऊपरसे खटाई मल दी जाय तो दांत कसीस, बायबिडंग और इन्द्रजौ समान भाग लेकर काले हो जाते हैं। | चूर्ण बनावें । इस चूर्णको या आक और स्नुही (२९४२) दन्तरोगाशनिचूर्णम् (सेंड-सेहुण्ड) के दूधको कृमिवाले दान्तमें भरनेसे (भै. र. । मुख.) दांतके कृमि नष्ट हो जाते हैं। जातीपत्रपुनर्नवातिलकणाकोरण्टमुस्तावचाः। (नोट-आक और स्नुहीका दूध सावधानी शुण्ठीदीप्यहरीतकी च सघृतं चूर्ण मुखे धारयेत् । पूर्वक कृमिवाले दांतकी खोखरमें भरना चाहिये । वातघ्नं कृमिदन्तशूलदहनं सर्वामयध्वंसनम् । अन्य दांत या मसूढ़ेको न लगने देना चाहिये। दौगन्ध्यादिसमस्तदोषहरण दन्तस्य रोगाशनिः (२९४५) दन्त्यादिचूर्णम् (२) ___ चमेलीके पत्ते, बिसखपरा ( साठी ), तिल, (वं. से. । शूला.) पीपल, झिण्टो (पियाबांसा) के पत्ते, मोथा, बच, | दन्ती च प्रिवृता श्यामा कर्णिका कटुकाया। सांठ, अजवायन, और हर्र । सब चीजें समान नीलिका नागर चूर्ण वैलेनैरण्डजेन वा ॥ भाग लेकर चूर्ण करें और उसमें थोड़ासा घी डाल- | युक्तं विरेचनं सद्यः पक्तिशूलनिवारणम् ॥ कर अच्छी तरह मल दें। इसमें से थोड़ासा चूर्ण दन्ती, निसोत, काली निसोत, सेवतीके फूल, मुखमें रखनेसे दन्तकृमि, दांतांकी वातज पीड़ा, कुटकी, नीलका पंचांग, और सेठ । इनके चूर्णको दन्तशूल और मुखकी दुर्गन्धादि समस्त रोग नष्ट | अरण्डके तेलमें मिलाकर देनेसे विरेचन होकर परिहोते हैं। णाम शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है । (२९४३) दन्तशूलनाशकयोगः (मात्रा-बलवान पुरुषके लिए-तेल ४ तोले, (वृं. मा. । मुख.) चूर्ण ६ माशे ।) माक्षिकं पिप्पलीसर्पिमिश्रितं धारयेन्मुखे। (२९४६) दशनसंस्कारचूर्णम् दन्तशूलहरं प्रोक्तं प्रधानमिदमौषधम् ॥ | (धन्व.; भै. र. । मुख रोग.) पीपलके चूर्णमें शहद और घी मिलाकर मुखमें | शुण्ठी हरीतकी मुस्ता खदिरं घनसारकम् । ( दांतके नीचे ) रखने से दन्तशूल नष्ट होता है। गुवाकुभस्म मरिच देवपुष्प तथा त्वचम् ॥ दन्तशूलनाशक औषधोंमें यह एक प्रधान औ- एतेषां समभागेन चूर्णमेव विनिर्दिशेत् । षध है। | तत्समं प्रक्षिपेत्तत्र चूर्ण कठिनी सम्भवम् ॥ (२९४४) दन्त्यादिचूर्णम् (१) चूर्ण दशनसंस्कारं दन्तरोगविनाशनम् ॥ (वं. से. । दन्तरोगा.) सांठ, हरे, मोथा, खरसार, कपूर, सुपारीकी दन्तीसुवर्णदुग्धाकासीसविरश्वत्सकफलानाम्। राख, काली मिर्च, लैंौंग और दालचीनी। सब चूर्णैरकस्मुखोः पयोभिर्वा पुरणं श्रेष्ठम् ॥ चीजें समान भाग तथा साफ खिड़िया मिट्टी इन दन्ती, सत्यानासी ( स्वर्णक्षीरी) की जड़ ' सबके बराबर लेकर सबका महीन चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि इस चूर्णको मंजनकी भांति लगानेसे दांतोंके दशाष्टाचर्णम् समस्त रोग नष्ट होते और दांत साफ रहते हैं। ( यो. २. । ज्वर.) (खिड़िया और अन्य चीजेंाको अलग अलग (दशाष्टाङ्ग काथ देखिये ) पीसकर कपड़ छन करें। कपूर सबसे पीछे मिला।) । (२९४९) दाडिमकुसुमादियोगः (२९४७) दशमूलादिचूर्णम् (वं. से. । क्षुद्र.) (वै. म. र. । प. ११) दाडिमजकुसुमधन्वयासाभयाश्लक्ष्णचूर्णिता दशांघिकूष्माण्डलताकाणाम् शिक्षा। नखकोटिपूतिभागं शमयति च शूळ तत्क्षणतः॥ चूर्ण मधौ शोफजयाय लियात् । अनारके फूल, धमासा, और हर समान भाग दशमूल, पेठेकी बेल और अद्रक (सेठ) लेकर महीन चूर्ण करें। समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । ___ इसे नखमें भरनेसे उसके भीतरका सड़ा हुवा ____ इसे शहदमें मिलाकर चाटनेसे शोथ रोग नष्ट मांस और पीड़ा नष्ट हो जाती है। होता है। (२९५०) दाडिमचतुःसमपूर्णम् (२९४८) दशसारचूर्णम् (भै. र. । बा. रो.) (र. र. स. । उ. खं. अ. १८) जातिफलं त्रिदशपुष्पसमन्वितश्च । यष्टी द्राक्षाफलं धाच्या एलाचन्दनवासकम् । जीरञ्च टङ्कनयुतं चरकैः प्रयुक्तम् ॥ मधूकपुष्पं खजूरं दाडिमं पेषयेत्समम् ॥ एतद्रव्यचतुष्कश्चेद् दाडिमीफलमध्यगम् । सर्वतुल्या सिता योज्या पलार्ध भक्षयेत्सदा। पुटपक्वं पयापिष्टं तदाडिमचतुःसमम् ।। दशसारमिदं ख्यातं सर्वपित्तविकारजित् ॥ । (पयोऽत्रच्छाग्यास्तस्यातिसारहरत्वात् । पयः मेहतृष्णाऽरतीश्चैव दाहं मछौँ ज्वरं जयेत् ॥ शब्दोऽत्र जल वाचकमिति च केचित् ।) ___ मुलैठी, मुनक्का (दाख), आमला, इलायची, जायफल, लैंौंग, जीरा और सुहागा समान सफेदचन्दन, सुगन्धबाला, महुवेके फूल, खजूर भाग लेकर पीसलें; फिर एक अनारको खाली करके और अनारदाना एक एक भाग तथा खांड इन | (भीतरके बीज निकालकर) उसके भीतर यह चूर्ण सबके बराबर लेकर चूर्ण बनावें । भरदें और उसके मुंहको बन्द करके उसके ऊपर ____ इसमें से प्रतिदिन २॥ तोले की मात्रानुसार पानीमें भीगी हुई मिट्टीका आधा अंगल मोटा लेप सेवन करने से समस्त पित्त विकार (गरमीके रोग), करके भूबल ( कण्डों की मन्दाग्नि ) में दबा दें। प्रमेह, तृष्णा, बेचैनी, दाह, मूर्छा और पित्तज्वर | जब मिट्टीका रंग लाल हो जाय तो अनारको नि. नष्ट होता है। कालकर बकरीके दूध या पानीमें पीसलें । (व्यवहारिक मात्रा-१ तोला । अनुपान | इसके सेवनसे बालकांका अतिसार नष्ट होता शीतल जल या द्राक्षाका रस।) } है। ( मात्रा-१ रत्ती ). For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२७] (२९५१) दाडिमबीजादिप्रयोगः अपतन्त्रकहद्रोगश्वासघ्नं चूर्णमुत्तमम् ॥ (वं. से. । बालरो.) अनारदाना, कालानमक ( सञ्चल ), सांठ, दाडिमस्य तु बीजानि जीरकं नागकेसरम्।। हींग ( भुना हुवा ) और अमलबेत समान भाग घूर्णः सशराक्षौद्रो लेहस्तृष्णाविनाशनः ॥ लेकर चूर्ण बनावें। ___ अनारदाना, जीरा और नागकेशरका चूर्ण इसके सेवनसे अपतन्त्रक, श्वास और हृद्रोग समान भाग तथा खांड सबके बराबर लेकर एक- नष्ट होता है । त्र मिलावें । इसे शहदमें मिलाकर चटानेसे बच्चों- ( मात्रा २-३ माशे । अनुपान उष्णजल की तृष्णा शान्त होती है। या अदरकका रस ।) (मात्रा २ रत्ती । दिनमें ५-६ वार (२९.शामिानित (२९५४) दाडिमादिचर्णम् (३) चटावें।) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) (२९५२) दाडिमादिचूर्णम् (१) . विडालकं दाडिमपृतना च ( वृ. नि. र. । अरुचि.; भा. प्र. । व. २ धात्रीसमेतं विदधीत चूर्णम् । अरो.; ग. नि.। चूर्णा.; वं. से. । अरो.; ग. नि. । कासा.) तन्मातुलुङ्गस्य रसेन भावितं द्वे पले दाडिमादष्टौ खण्डाव्योषात्पलत्रयम् । सपित्तशूले शमनाय भक्षेत् ॥ त्रिमुगन्धिपलं चैकं चूर्णमेकत्र कारयेत् ॥ अनारदाना, हर्र और आमला हरेक ११-१॥ दीपनं रोचनं हृधं पीनसश्वासकासजित् ॥ । तोला लेकर चूर्ण बनावें; और उसे एक दिन अनारदाना १० तोले, खांड ४० तोले, बिजौरे नीबूके रसमें घोटें । इसके सेवनसे पित्तज सांठ, मिर्च, पीपल हरेक ५ तोले, और दालचीनी, शूल नष्ट होता है। तेजपात तथा इलायची तीनों मिलाकर ५ तोले ( मात्रा-३ माशे । अनुपान उष्णजल ।) ( अथवो सांठ, मिर्च, पीपलमेंसे हरेक १५ तोले | (२९५५) दाडिमादियोगः और दालचीनी आदि हरेक चीज ५ तोले ) ले (यो. र. । मूत्रकृ.) कर चूर्ण बनावें । दाडिमाम्लयुतां हृद्यां शुण्ठीजीरकसंयुताम् । __यह चूर्ण दीपन, रोचक, हृद्य और पीनस, पीत्वा मुरां सलवणां मूत्रकृच्छ्रात्प्रमुच्यते ॥ खांसी तथा श्वास नाशक है। ___अनारके रसमें सेठ और जीरेका चूर्ण मिला( मात्रा-२-३ माशे । शहदके साथ ।) | कर लवणयुक्त सुरा ( शराब ) के साथ पीने से (२९५३) दाडिमादिचूर्णम् (२) मूत्रकृच्छू नष्ट होता है । यह प्रयोग हृदयके लिए (बूं. मा. । हृद्रोग.) भी हितकारी है। दाडिम कृष्णलवणं शुण्ठी हिङ्गवम्लवेतसम् । । ( मात्रा १-२ माशा ।) For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - (२९५६) दाडिमाद्यं चूर्णम् (१) । मूल, काली मिर्च, तेजपात और बंसलोचन २॥(र. र. हिक्का.) २॥ तोले तथा मिश्री सबके बराबर लेकर यथादाडिमं नागरहिस पैन्धवपौष्कराः। विधि चूर्ण बनावें। रास्ना चात्र समं चूर्ण कर्ष घृतेन सम्पिवेद इसे भोजनसे पहिले खानेसे अग्निदीत होती कासवासहरं चूर्ण दाडिमाधं न संशयः॥ और गुल्म, बवासीर, ग्रहणी, अतिसार, प्रवाहिका ___ अनारदाना, सेांठ, हींग, राल, सेंधानमक, (पेचिश), पसलीका शूल, अफारा और प्रमेह पोखरमूल, और रास्ना । सब चीजें समान भाग | नष्ट होता है। लेकर चूर्ण बनावें। ( मात्रा-३ से ६ माशे । अनुपान जल या इसमें से प्रतिदिन १। तोला चूर्ण धीमें मि- बकरी का दूध ।) लाकर सेवन करनेसे खांसी और श्वास नष्ट होता (२९५८) दाडिमाष्टकचूर्णम् (१) (यो. चिं. । चूर्णा.) ( व्यवहारिक मात्रा २-३ माशे । ) दाडिमस्य पलान्यष्टौ शर्करायाः पलाष्टकम् । (२९५७) दाडिमाचं चूर्णम् (२) पिप्पली पिप्पलीमूलं यवानी मरिचं तथा ॥ (ग. नि. । परिशिष्ट चूर्णा.) धान्यकं जीरकं शुण्ठी प्रत्येकं पलसम्मितम् । दाडिमस्य पलान्यष्टौ शङ्गवेरपलत्रयम् । कर्षमात्रा तुगाक्षीरी त्वपत्रैलाश्च केसरम् ॥ पलद्वयं पिप्पली च कोलचूर्ण पलद्वयम् ॥ प्रत्येक कोलमात्राः स्युः सवर्ण दाडिमाष्टकम् । पवानी चाजमोदा च मिशिश्चैवाम्लवेतसम् । अतिसारक्षयं गुल्म ग्रहणी च गलग्रहम् ॥ वृक्षाम्लं चविका चात्र अभया च पलोन्मिता॥ मन्दाग्निं पीनसं कासं चूर्णमेतव्यपोहति ।। सौवर्चलं धान्यकं च सूक्ष्मैला त्वक् तथैव च । अनारदाना ८ पल, खांड ८ पल, पीपल, प्रन्थिकं मरिचं चात्र पत्रकं सतुगाड्यम् ॥ पीपलामूल, अजवायन, काली मिर्च, धनिया, जीरा एषामर्धपलान् भागान् सर्वैस्तुल्या सिता भवेत्। और सेठ प्रत्येक १-१ पल (५-५ तोले ) एतत्माक भोजनाच्चूर्णं दीपनं गुल्मनाशनम् ॥ बंसलोचन १। तोला तथा दालचीनी, तेजपात, अर्शीसि ग्राणीदोषमतीसारं प्रवाहिकाम् । इलायची, और नागकेसर प्रत्येक ७॥ माशे लेकर पाशूलमथानाहं प्रमेहांश्च प्रणाशयेत् ॥ यथाविधि चूर्ण बनावें। अनारदाना ४० तोले, सोंठ १५ तोले, यह — दाडिमाष्टक चूर्ण' अतिसार, क्षय, पीपल १० तोले, कंकोल १० तोले । अजवायन, । गुल्म, ग्रहणी, गलग्रह, मन्दाग्नि, पीनस और खांअजमोद, सौंफ, अमलबेत, वृक्षाम्ल ( इमली ), सीका नाश करता है। चव, और हर्र ५-५ तोले । सांचल ( काला- मात्रा-३ से ४ माशे तक । अनुपान उष्णनमक), धनिया, छोटी इलायची, दालचीनी, पीपला- जल । या शहदमें मिलाकर चटावें । ) For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो मागः। [२९] (२९५९) दाडिमाष्टकचूर्णम् (२) कोन्मिता तुगाक्षीरी चातुर्जात त्रिकार्षिकम्म (ग. नि. । चूर्णा.; वै. र.; वृ. नि. र. । संग्र.) यवानीधान्यकाजाजीग्रन्थिव्योष पलांशकम् ॥ दारिमस्य पलान्यष्टौ 'चातुतिं पलट्रयम् । पलानि दाडिमस्याष्टौ सितायाधैकतः कृतम्। अजाजीनां पलार्धन्तु पलाधै धान्यकस्य च ॥ गुणैःकपित्याष्टकवचूर्ण तहाडिमाष्टकम् ॥ पृथक पलशिकान् भागान् त्रिकटोग्रन्थिकस्य चा बनसलोचन ११ तोला, दालचीनी, तेजपात, स्वकक्षीरी बालकं चैव दद्यात्कर्षसमान् भिषक ।। इलायची, नागकेशर प्रत्येक ३॥ तोले; अजवाशर्करायाः पलान्यष्टौ तदेकस्य विचूर्णयेत्।। यन, धनिया, जीरा, पीपलामूल, सांठ, मिर्च, पीभामातीसारशमनं कासहपाचशूलनुत् ॥ पल, ५-५ तोले और खांड तथा अनार दाना हद्रोगमरुचिं गुल्मं ग्रहणीमग्निमार्दवम् । ४०-४० तोले लेकर चूर्ण बनावें । प्रयुक्तो नाशयत्येष चूर्णोऽयं दाडिमाष्टकः। इसके गुण कपित्थाष्टक चूर्णके समान हैं। अनारदाना ८ पल; दालचीनी, तेजपात, (अतिसार, क्षय, ग्रहणी, गुल्म, खांसी, श्वास, इलायची, नागकेसर, जीरा और धनिया, हरेक अरुचि, हिचकी आदिमें उपयोगी है । मात्राआधा पल, सोंठ, मिर्च, पीपल, और पीपलामूल हरेक ३ माशे १ पल ( ५ तोले ); बंसलोचन और सुगन्धबाला नोट-इसमें और दाडिमाष्टक नं. १ में १।-१। तोला तथा खांड ८ पल । सबका चूर्ण केवल इतना ही अन्तर है कि उसमें दालचीनी, बनाकर रखें। तेजपात, इलायची और नागकेसर में से हरेक यह 'दाडिमाष्टक चूर्ण' आमातिसार,खांसी ७॥ माशे है और इसमें हरेक ३॥ तोले । अगर हृदयकी पीड़ा, पसलीका दर्द, हृद्रोग, अरुचि, त्रिकार्षिकम्की जगह द्विकार्षिकम् पाठ रखकर गुल्म, ग्रहणीरोग और भग्निमान्यका नाश करता है। चारों चीजें मिलाकर २ कर्ष (२॥) तोले लें तो ( मात्रा ३ माशे । अनुपान तक या रोगो- | दोनों योग बिलकुल समान हो जाते हैं । चित अन्य पदार्थ ।) (२९६१) दाडिमाष्टकचूर्णम् (४) नोट---दाडिमाष्टक नं. १ और इसमें | । (वृ. नि. र. । संग्र.; वै. र. । संग्र.) ओषधियां लगभग समान ही पड़ती हैं कुछ पलद्वयं दाडिमस्य व्योषस्य च पलद्वयं । ओषधियोंके परिमाणमें अन्तर है और अजवायनको । त्रिगन्धस्य पलं चैकं खण्डस्याष्टपलानि च ॥ जगह सुगन्ध बाला पड़ता है। सर्वमेकीकृतं चूर्ण प्रशस्तं दाडिमाष्टकम् । (२९६०) दाडिमाष्टकचूर्णम् (३) दीपनं रुचिदं कण्ठयं संग्राह्यं ग्रहणीहरम् ॥ (यो. र.; वृं. नि. र. । अति. ग. नि. । अनारदाना २ पल, सेठि, मिर्च, पीपल तीनों चूर्णा.; च. द; . मा.; भै. र. । ग्रहणी) । अलग अलग २-२ पल, दालचीनी, इलायची, १-२ पलं सौगग्धिकस्य चेति पाठान्तरम् । ३--द्विकार्षिकमिति, कार्षिकमिति च पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैपज्य -२ [३०] तेजपात तीनों समान भाग मिलाकर ३ पल (१५ तोले) और खांड ८ पल लेकर चूर्ण बनावें । यह " दाडिमाष्टक चूर्ण ” दीपन, रोचक, कण्ठके लिए हितकारी और ग्रहणी रोग नाशक है। (२९६२) दार्वादिचूर्णम् ( यो. र. । अति. ) पीतदारु वचा लोधं कलिङ्गफलं नागरम् । दाडिमाम्बुयुतं दद्यात्पित्तवातातिसारिणे ॥ दारूहल्दी, बच, लोध, इन्द्रजौ और सेठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे अनारके स्वरस या काथ साथ देनेसे पित्तज तथा वातज ( या वातपित्तज ) अतिसार नष्ट होता है । ( मात्रा ३ माशे । ) (२९६३) दार्वादियोग: ( यो. र. । शोथ. ) पिबेदुष्णाम्बुना दारुपथ्याशुण्डी पुनर्नवाः । विडङ्गातिविषावासाविश्वदारूषणानि च ॥ वर्षाभ्यां ककं वा सर्वशोफनुत् ॥ (१) देवदारु, हर्र, सोंठ, और पुनर्नवा (साठी) (२) बायबिडंग, अतीस, बासा, सोंठ, देवदार और कालीमिर्च । इन दोनों योगों में से किसी एकका चूर्ण बनाकर या बिसखपरा ( साठी ) और सेका कल्क बनाकर गरम पानीके साथ पीनेसे समस्त प्रकारके शोथ नष्ट होते हैं। (२९६४) दार्वीचूर्णम् ( वृ. नि. र. । अण्डवृ . ) दावचूर्णे गवां त्रैर्निपीतं मुष्कद्धिजित् । दारुहल्दी चूर्णको गोमूत्र के साथ सेवन करने से अण्डवृद्धि रोग नष्ट हो जाता है । ( मात्रा - ३ माशे । ) - रत्नाकरः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ दकारादि (२९६५) दार्व्यादिचूर्णम् ( र. र. । बाल . ) दावयष्टयभया जातीपत्रक्षौद्रैस्तथापरम् । जातीपत्ररसः पूतः क्षौद्रयुक्तः प्रशस्यते । शिशोः कर्णव्रणस्रा मुखपाके च शस्यते ॥ दारूहल्दी, मुलैठी, हर्र और चमेली के पत्तोका चूर्ण शहद में मिलाकर या चमेलीके पत्तोंके रसको कपड़े में छानकर शहद में मिलाकर कान में डालने और मुखमें लेप करने से बालकेांके कानका घाव, कान बहना और मुखके छाले जाते रहते हैं । (२९६६) दीप्यकादिचूर्णम् (ग. नि.; वृ. नि. र. । शूला. ) arters सैन्धर्व पथ्या नागरच चतुः पलम् । चूर्ण शुकं जयत्येतत्सन्नष्टस्याग्नेश्च दीपनम् ॥ अजवायन, सेवा, हर्र और सोंठ का चूर्ण ५-५ तोले ले कर एकत्र मिलावें । यह चूर्ण शूलको नष्ट करता और मन्दाग्निको करता है । ( मात्रा - ३ माशे । अनुपान - गरम पानी या काञ्जी ) For Private And Personal Use Only (२९६७) दुरालभादिक्षारः (च. सं. । चि. अ. १९; वं. से. । ग्रह. ) दुरालभाकर द्वौ सप्तपर्ण सवत्सकम् । ग्रन्थों मदनं मूर्वी पाठामारग्वधं तथा ॥ गोमूत्रेण समांशानि कृत्वा चूर्णानि दापयेत् । दग्ध्वा च तं पिबेत् क्षारं बलवर्णानि वर्द्धनम् ॥ धमासा, दोनों प्रकारके करन की छाल, सतौनेकी छाल, कुड़ेकी छाल, बच, मैनफल (मेंडफल), मूर्वा, पाठा और अमलतासकी छाल समान भाग Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१] - - लेकर चूर्ण करें फिर उसमें सबके बराबर गोमूत्र । (२९७०) देवदार्वादिचूर्णम् (१) मिलाकर पकावें । जब गोमूत्र जल जाय तो उस (वृ. नि. र.; बं. से; यो. र. । कास.) चूर्णको हाण्डीमें बन्द करके या कढ़ाहीमें भस्म | देवदारुबलारास्नात्रिफलाव्योषपचकैः । करलें। सविडो सितातुल्यैस्तच्चूर्ण सर्वकासनुद्॥ ___ इस क्षारको सेवन करनेसे बल वर्ण और अग्नि | देवदार, खरैटी, रास्ना, हर्र, बहेड़ा, आमला, बढ़ते है । (मात्रा-१ माशा। अनुपान-तक्र।) सांठ, मिर्च, पीपल, पद्माक और बायबिडंग १-१ (२९६८) दुरालभायं चूर्णम् भाग तथा खांड सबके बराबर लेकर चूर्ण बनावें । (ग. नि. । कासा; ग. नि.। परिशिष्ट. 'चूर्णा. इसके सेवनसे हर प्रकारकी खांसी नष्ट हो जाती है। वा. भ. । चि. अ. ३; च. सं. । चि. अ. २२) (मात्रा ३-४ माशे। शहदमें चाटें।) दुरालभां शनवरं शठी द्राक्षां सितोपलाम् ।। (२९७१) देवदाादिचूर्णम् (२) लिखाकर्कटङ्गीं च कासे तैलेन वातजे ॥ (ग. नि. । श्वयथु.) धमासा, सोंठ, शटी (कचूर), मुनक्का (दाख) देवदारुढेषोऽशमन्तो विश्वा कृष्णा कुरण्टकः । काकड़ासींगी और मिश्री समान भाग लेकर चूर्ण | रिङ्गणी चूर्णमेतेषां दना पीतं च शोफत् ॥ बनावें । इसे तेलमें मिलाकर चाटनेसे वातज खांसी देवदार, बांसा, पत्थरचटा, सांठ, पीपल, नष्ट होती है। पियाबांसा और कटेली समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। ( मात्रा २-३ माशे । दिन भरमें ३-४ ___इसे दहीके साथ पीनेसे शोथ नष्ट होता है। बार चाटें ।) ( मात्रा-१ से ३ माशे तक) (२९६९) दुःस्पर्शादिचूर्णम् (२९७२) देवदार्वादिचूर्णम् (३) (च. सं. । चि. अ. २२) (ग. नि.; वं. से. । कासा.) दुःस्पी पिप्पली मुस्तै भार्गी कर्फटकी शठीम् । देवदारुशठीरास्नाशृङ्गीधन्वयवासकम् । पुराणगुडतैलाभ्यां चूर्णितं वापि लेहयेत् ॥ तैलक्षौद्रयुतं लिह्याच्लेष्मकासे सुदारुणे॥ धमासा, पीपल, नागरमोथा, भारंगी, काकड़ा देवदारु, कचूर, रास्ना, काकड़ासिंगी और सिंगी, और शठी (कचूर) समान भाग लेकर चूर्ण धमासा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। करें । इसे पुराने गुड़ और तेलमें मिलाकर चाटनेसे इसे तैल और शहदमें मिलाकर चाटनेसे भयवातज खांसी नष्ट होती है। कर कफज खांसी भी नष्ट हो जाती है। नोट-गुड़ सबके बराबर लेना चाहिए। (२९७३) देवदार्यादिचूर्णम् (४) मात्रा ३ माशे । ६ माशे तेलमें मिलाकर चाटें। (वा. भ. । चि. अ. ११) दिन भरमें २-३ मात्रा खानी चाहिये । । देवदारं घनं मूर्वी यष्टीमधुं हरीतकीम् । १-२ शिलातुत्थमिति पामन्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि मूत्राघातेषु सर्वेषु मुराक्षीरजलैः पिबेत् ॥ । वातरक्त, गुल्म, कुष्ठ, तिल्ली, भगन्दर, यकृद्दोष, देवदारु, नागरमोथा, मूर्वा, मुलैठी और हर्र जलोदर, वायु और कच्छपिका आदि रोगांका नाश समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । होता है। इसे मद्य, दूध या पानीके साथ सेवन कर- | (२९७५) देवदालीप्रयोगः (२) नेसे मूत्राघात नष्ट होता है। (र. चि. । स्त. ३]] (मात्रा ३--४ माशे ।) सूरणं देवदाली च समभागमिदं द्वयम् । (२९७४) देवदालीप्रयोगः (१) वेदमा प्रयोक्तव्यमीदोपहरं परम् । (र. चि. । स्तव. ३) जिमीकन्द (सूरण) और देवदाली ( बिंडाल समुद्रफेन भनिम्बं निम्बपञ्चाङ्गमेव च। डोढा) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । धात्रीफलं भृाराजो बाकुचीचूर्णमुत्तमम् ॥ इसे ४ माशेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्श हरीतकी विभीतं च बाजिगन्धा पुनर्नवा । | (बवासीर) का नाश होता है। सेफाली देवकाष्ठं च राडूची शक्रवारुणी ॥ (अनुपान-पानी।) मुण्डी सौभाजनं श्वेतं फलं कन्दं पकाशजम् । (२९७६) देवदालीप्रयोगः (३) एतानि समभागानि देवदाली च तत्समा ॥ (र. चि. । स्त. ३) पातव्यं शीततोयेन वेदमापमिदं भिषक् । लघु योग्यं च भोज्यं स्यादेतान्दोषान्विनाशयेत्।। मुरदालीभवं चूर्ण पिवेच्छीतेन वारिणा। बातरक्तं च गुल्मं च कुष्ठं प्लीहानमुल्वणम्।। ज्वरं विनाशयेद्गाढं प्रवृदमचिरेण हि ॥ देवदाली ( बिडाल डोढे ) के चूर्णको ठण्डे भगन्दरं यकद्दोषमुदरम्वारिसम्भवम् ॥ पानीके साथ सेवन करने से तीब्र ज्वर भी शीघ्र ही वायुक्षयकरं चैतद्धन्यात्कच्छपिका हवाम् ।। नष्ट हो जाता है। सर्वरोगाः प्रयान्त्याशु देवदालीप्रभावतः॥ (मात्रा-१ माषा।) समुद्रफेन, चिरायता, नीमका पश्चाङ्ग, आमला, भंगरा, बाबची, हरे, बहेड़ा, असगन्ध, बिसख | (२९७७) देवदालीप्रयोगः (४) परा (साठी), संभाल, देवदार, गिलोय, इन्द्रायणकी (र. चिं. म. । स्त. ३) जड़, गोरखमुण्डी, सफेद सहजनेकी छाल, ढाक, देवदालीभवं चूर्ण सूक्ष्ममष्णेन वारिणा। (पलाश) की जड़ और फल । सब चीजें समान | द्विमाष धर्मसेवी स्यादाढकुष्ठं विनाशयेत् ॥ भाग तथा देवदाली (बिंडाल) सबके बराबर लेकर देवदाली (बिंडाल डोढे) के बारीक चूर्णको चूर्ण बनावें। २ माशे की मात्रानुसार उष्ण जलके साथ सेवन ___ इसे ४ माशेकी मात्रानुसार शीतल जलके साथ | करने और रोज थोड़ीदेर धूपमें बैठनेसे कुष्ठ नष्ट सेवन कराने और उचित तथा हल्का भोजन देनेसे | हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] तृतीयो भागः। [३३] - (२९७८) देवदालीप्रयोगः (५) पिस्तल्लिनदेहस्तु दद्वपामाविचर्चिकाम् ।। (र. चिं. । स्तब. ३) | श्वित्राणि नाशयेत्सद्यः सिध्मकुष्ठानि यानि च ॥ पाकुचीत्रिफलाचूर्ण पञ्चाङ्गं निम्बज नयेत् । । पत्र, फल और मूल युक्त देवदालीको सुखाचित्रकरम तथा मूलं देवदाली समां क्षिपेत् ॥ कर चूर्ण करें और फिर उसे आक तथा सेहुण्ड अर्कसेहुण्डदुग्धेन भाम्यते दिनमात्रकम् । (सेंड ) के दूधकी सात सात भावना दें। मापकद्वित्तयं दद्यात्रिफलाकाथसंयुतम् ॥ इसमें से २ माशे चूर्ण प्रतिदिन खांडके निहन्ति सर्वकुष्ठानि मासेनैकेन निश्चितम् । | साथ खानेसे ३ मास में गलत्प्रायः कुष्ठ भी अवमपि वर्षसहस्रस्य दृढीभूतं विनाशयेत् ॥ श्य नष्ट हो जाते हैं। बाबची, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला), देवदाली के फलोंके रस में तिलका तैल नीमका पञ्चाङ्ग, और चीतामूल, एक एक भाग तथा मिलाकर प्रातःकाल शरीर पर मालिश करें और देवदाली सबके बराबर लेकर चूर्ण बनाकर उसे १ ३ पहर बाद पांछ डालें तथा इसी योग को पिया दिन सेहुण्ड (सेंड) और आकके दूधमें घोटें। भी करें । इससे दाद, खुजली, विचर्चिका, सफेद ___ इसे २ माशेकी मात्रानुसार त्रिफलाके काथके | कोढ़ और सिध्म ( छीप ) का नाश होता है साथ सेवन करानेसे बहुत पुराना कुष्ठ भी १ मासमें (नोट-यह योग तीव्र रेचक है । सावधानी नष्ट हो जाता है। पूर्वक सेवन कराना चाहिये। नोट---यह तीब्र रेचक है अत एव साव (२९८०) द्राक्षादिचूर्णम् (१) धानी पूर्वक सेवन कराना चाहिए । मात्रा आदि (. मा. । हिक्का; वं. से. । श्वास.) रोगीके बलाबलका विचार करके निश्चित करनी द्राक्षाहरीतकीकृष्णाकर्कटाख्यादुरालभाः । चाहिए। (२९७९) देवदालीप्रयोगः (६) विलिइन्मधुसर्पियो श्वासान्हन्ति सुदारुणान् ।। ___दाख (मुनक्का ), हर्र, पीपल, काकडासिंगी, (र. चिं. । स्त. ३) सपत्रां सफलां नीत्वा समूलां देवदालिकाम्। और धमासा । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । सेहुण्डापपोभिस्तां भावयेत्सप्तधा बुधः ॥ इसे शहद और घीके साथ चाटनेसे भयङ्कर श्वास माषद्वयमितं चूर्णे प्रत्यहं सह शर्करम् । भी नष्ट हो जाता है। त्रिमासादूर्ध्वतः कुष्ठमपहन्ति न संशयः॥ (२९८१) द्राक्षादिचूर्णम् (२) गलत्यायाणि यानि स्युः कुष्ठानि सानि (वं. से., यो. र. । मुख.) - नाशयेत । मृद्वीकाकटुकाव्योपदावर्तीत्वत्रिफलाघनम् । एकवेल मलिमयं त्रियामान्ते परित्यजेत ॥ पाठा रसाञ्जनं दूर्वा तेजोद्देति सुचूर्णितम् ।। तिलतलैन संयुक्तं देवदालीफल द्रवम् । क्षौद्रयुक्तं विधातव्यं गलरोगे महौषधम् ॥ १ मूर्वेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दफारादि - मुनक्का (दाख), कुटकी, सेोठ, मिर्च, मुनक्का ( दाख), धमासा, हरं, और चिकनी पीपल; दारुहल्दीकी छाल, हर्र, बहेडा, आमला, सुपारी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। इसे नागरमोथा, पाठा, रसौत, दूब घास, और चव । | गुड़के साथ मिलाकर सेवन करनेसे वातज ज्वर सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। | नष्ट होता है। इसे शहदमें मिलाकर मुखमें रखनेसे गलेके ( मात्रा २-३ माशा । गुड़ सबकें बराबर रोग नष्ट होते हैं। मिलाना चाहिये) (२९८२) द्राक्षादिचूर्णम् (३) (वै. र. । रक्तपि.) (२९८४) द्राक्षादिचूर्णम् (५) मृदीका चन्दनं लोधं प्रियकुश्चेति चूर्णयेत् । | (वृ. नि. र. । क्षयकर्म.) चूर्णमेप्तत्पिबेत्क्षौद्रवासारससमन्वितम् ॥ द्राक्षाखर्जुरसपिभिः पिप्पल्या च सह स्मृतम् । नासिकामुखपायुभ्यो योनिमेदादिवेगिनाम् । | सक्षौद्रं ज्वरकासनं श्वयथौ च प्रयोजयेत् । रक्तं पित्तं स्रबद्धन्ति सिद्ध एष प्रयोगराय॥ ___दाख ( मुनक्का ), खजूर और पीपलके चूर्णको घी और शहदके साथ मिलाकर खानेसे रक्तातिसारे प्रदरे रक्ताशासि चिकित्सितम् ।। ज्वर, खांसी और शोथ नष्ट होता है। अधोगे रक्तपित्ते च कार्यमुक्तं भिषग्वरैः ॥ बोलबद्धपर्पटीरसश्चात्रदेयामालिनीवसन्तश्च ।। | (२९८५) द्राक्षादिचूर्णम् (६) दाख ( मुनक्का ), सफेद चन्दन, लोध और (. मा.; ग. नि.; यो. र.; घृ. नि. र.; फूलप्रियङ्गु । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण वं. से. । कास.) बनावें । द्राक्षामधुक खजूरपिप्पली मरिचान्वितम् । इसे शहद और बासेके रसमें मिलाकर पि- पित्तकासहरं घेतल्लिखान्माक्षिकसर्पिषा ॥ 'लानेसे नाक, मुंह, गुदा, योनि और लिङ्ग आदि दाख (मुनक्का ), मुलैठी, खजूर, पीपल और से होने वाला रक्तस्राव ( रक्तपित्त ), रक्तातिसार, | काली मिरचके चूर्णको शहद और घीके साथ रक्तप्रदर, और रक्ताका रक्त बन्द होता है । यह / चाटनेसे पित्तज खांसी नष्ट होती है। एक सिद्ध प्रयोग है। अधोगत रक्तपित्तमें बोलबद्ध पर्पटी रस तथा (२९८६) द्राक्षादिचूर्णम् (७) । मालिनी वसन्तरस भी लाभ पहुंचाता है । (. मा.; ग. नि.; भा. प्र. । म. ख. बालदो.; यो. र. । कास. ) | (२९८३) द्राक्षादिचूर्णम् (४) (वृ. नि. र. । ज्वर.) द्राक्षावासा भयाकृष्णायूण क्षौद्रेण सर्पिषा । द्राक्षा दुरालमा पथ्या चिक्कणी समभागत। ली कार्स निहन्त्याशु वासश्च तमकं तथा ॥ एता गुडान्विता नूनं नाशयन्त्यनिलज्वरम् । दाख ( मुनक्का ), बासा, हर, और पीपलके मामलकेति पाठान्तरम् । २ विश्वति पाठान्तरम् For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्णमकरणम् ] चूर्णको शहद तथा घीके साथ चाटने से श्वास, खांसी और तमक श्वास शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। (२९८७) द्राक्षादिचूर्णम् (८) (वं. से. 1 बाल . ) तृतीयो मामः । द्राक्षादुरालभाचैव पिप्पल्योऽथ हरीतकी । एतानि कृत्वा चूर्णानि योजयेन्मधुसर्पिषा ॥ त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा चूर्णमेतनिषेवितम् । कासः श्वासश्व बालानां तमकश्वोपशाम्यति ॥ विदारिकाचन्दनवासकं च । तापटोले किरातकानां दाख ( मुनक्का धमासा, पीपल और हर्र - के चूर्णको शहद और घीके साथ मिलाकर तीन दिन या ५ दिन तक चटानेसे बालकांकी खांसी, श्वास और विशेषतः तमक श्वास नष्ट हो जाता है। (२९८८) द्राक्षादिचूर्णम् (९) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ६ ) द्राक्षाभयातिक्तकरोहिणी च कृष्ण बलामूसलिका विषाणाम् ॥ लालपद्मकं च योज्या च भृङ्गी धनिका समझा । चूर्ण सखर्जूर सितासमेतं घृतेन तं चापलप्रमाणम् ॥ भक्षेत् प्रभाते मनुजः पयश्च निःक्काथ्य पान सङ्घवं विधेयम् । करोति तीव्रासिमं प्रकृष्टं कृशस्य पुष्टिं तनुतेऽपि नूनम् ॥ क्लमभ्रमशोषविनाशनं स्यात् तृष्णाविलौल्यशमनं करोति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५] सरक्तपितं क्षयपाण्डुरोगं हलीम काममाशु नश्येत् ॥ मुनक्का ( दाख), हर्र, कुटकी, बिदारीकन्द, सफेद चन्दन, बासा, नागरमोथा, पटोलपत्र, चिरायता, पीपल, खरैटी, मूसली, अतीस, इलायची, लौंग, तेजपात, पद्माक, काकड़ासिंगी, धनिया, स्वजूर और मिश्री । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे २|| तोलेकी मात्रानुसार घीमें मिलाकर प्रातःकाल पके हुवे दूधमें घी डालकर उसके साथ सेवन करनेसे अग्नि तीव्र होती, कृश शरीर पुष्ट होता तथा क्लान्ति, भ्रम, शोष, तृष्णा, रक्तपित्त, क्षय, पाण्डु, हलीमक और कामला आदि रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । ( व्यवहारिक मात्रा ६ माशे । ) (२९८९) द्राक्षादिचूर्णम् (१०) ( ग. नि. । चूर्णा. यो. र. ) द्राक्षा लाजसितोत्पलं समधुकं खर्जूरगोपी लुगा । हीरा मलकान्दचन्दननत कक्कोलजातीफलम् ॥ चातुर्जातकणं सधान्यकमिदं चूर्ण समां शर्कराम् । दवा शीतजलेन भक्षितमिदं पित्तं सदाई जयेत् ॥ मूर्च्छा छर्दिमरोचकं च प्रदरं पाण्डुभ्रमं For Private And Personal Use Only कामलाम् । यक्ष्माणं समदात्ययं सतमकं तृष्णास्रपितं तथा । दाख (मुनक्का ), खस, सफेद कमल, मुलैठी, खजूर, अनन्त मूल, बंसलोचन, सुगन्धवाला, आमला, मोथा, सफेद चन्दन, तगर, कंक्रोल, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। . [ दकारादि जायफल, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, (२९९२) द्राक्षादिप्रयोगः (३) स्याह मिर्च और धनिया । सब चीजें एक एक (वै. म. । विषय २८) भाग लेकर चूर्ण करें तथा सबके बराबर खांड द्राक्षाचन्दनकुष्ठकेसरतुगांक्षीरी च जातीफलम्। मिलावें । कोलं च पुनर्नवा मुशल्या धान्याश्वगन्धाइसे शीतल जलके साथ सेवन करनेसे दाह, न्वितम् ।। पित्त, छर्दि, मूर्छा, अरुचि, प्रदर, पाण्डु, भ्रम, एतेषां समभागिकं समसितं सपियुतं खादयेकामला, यक्ष्मा, मदात्यय, तमकश्वास, तृष्णा और धातुक्षेण्यषलक्षयाश्मरिरुजा पिसावज भ्रामरक्तपित्त रोग नष्ट होता है। कम्॥ (२९९०) द्राक्षादिप्रयोगः (१) दाख ( मुनक्का ), सफेदचन्दन, कूठ, केसर, (वा. भ. । चि. स्था. अ. ४) | बंसलोचन, जायफल, कंकोल, बिसखपरा ( साठी), द्राक्षां पयस्यां मधुकं चन्दनं पनकं मधु।। मूसली, आमला और असगन्ध । एक एक भाग पिवेत्तण्डुलतोयेन पित्तगुल्मोपशान्तये ॥ | तथा मिश्री सबके बराबर लेकर चूर्ण बनायें। ___ दाख (मुनक्का), क्षीरकाकोली, मुलैठी, सफेद चन्दन और पभाक, समान भाग लेकर चूर्ण इसे घीमें मिलाकर सेवन करनेसे धातुबनावें । इसे शहदमें मिलाकर चावलोंके पानी क्षीणता, बलहास, पथरी, रक्तपित्त और भ्रम का (तण्डुलोदक) के साथ पीने से पित्तगुल्म नष्ट | नाश होता है । होता है। ___(मात्रा-३ से ६ माशे तक । घी १ तोला।) ( मात्रा-३ माशे । तण्डुलोदक बनानेकी (२९९३) द्राक्षादियोगः । विधि भारत भै. र. प्रथम भागके ३५३ पृष्ठ । (र. र.; बं. से. । बाल.) पर देखिये ।) (२९९१) द्राक्षादिप्रयोगः (२) द्राक्षापिप्पलिशुण्ठीनां चूर्ण मौद्रेण सर्पिषा । (वै. म. र. । प. ६) लीढं निवारयत्याशु कासं पत्रविध शिशोः । द्राक्षान्दयष्टीमधुकखजूरहिमकणाम्भोभिः। दाख (मुनक्का) पीपल, और सांठ के स्तन्यमधुघृतं सितेचस्वरसेनोन्मादनाशस्यात ॥ चूर्णको शहद और धीमें मिलाकर चटानेसे बालकां दाख (मुनक्का ), नागरमोथा, मुलैठी, खजूर, की खांसी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । खस, पीपल, मिश्री और सुगन्ध बाला १-१ (मात्रा-आधेसे १ मासे तक।) भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसमें १-१ भाग (२९९४) द्राक्षाय धूर्णम् स्त्रीका दूध, शहद और घृत मिलाकर रक्खें। (ग. नि.। चूर्णा.) ___ इसे ईखके रसके साथ सेवन करानेसे उन्माद | द्राक्षा हरिद्रा मञ्जिष्ठा त्रिफला देवदारु च। रोग नष्ट होता है। (मात्रा-आधेसे १ तोले तक) नागरं पश्चमले द्वे मुस्ता मधुरसा तया ॥ For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] ॥ सप्तपर्णी पामार्ग पिचुमन्दाररूषकौ । face faast दन्ती पिप्पल्यो मरिचानि च एतेषां समभागानां कुष्ठी चूर्णपलं पिबेत् । मासं गोमूत्रसंयुक्तं तथा कुष्ठात्प्रमुच्यते ॥ तृतीयो भागः । दाख (मुनक्का ), हल्दी, मजीठ, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, सोंठ, दशमूलकी हरेक चीज़, मोथा, मूर्वा, सतौना ( सतिवन ) की छाल, चिरचिटा, नीमकी छाल, बासा, बायबिडंग, चीता, दन्ती, पीपल, और काली मिर्च | सब समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । I इसे ५ तोलेकी मात्रानुसार गोमूत्र के साथ १ मास तक सेवन कराने से कुष्टरोग नष्ट हो जाता है । ( व्यवहारिक मात्रा ६ माशे । ) (२९९५) द्राक्षाषाडवः ( ग. नि. । अरोचका. ) अजायौ मरिचं द्राक्षा तिन्तडीकं सदाडिमम् । सौवर्चलं कारवी च गुडमाक्षिकसंयुतः ॥ द्राक्षाषाडव इत्येष ख्यातो मुखविशोधनः । अरोचकानां सर्वेषां प्रशस्तः षाडवोत्तमः ॥ अरना च शुक्तं च मृद्वीकमदिरासवौ । अनुपानान्तरे धार्यास्तथैव कवलग्रहाः ॥ सफेद जीरा, काला जीरा, काली मिर्च, मुनक्का ( दाख), तिन्तड़ीक, अनारदाना, सञ्चल ( काला नमक ), कलौंजी और गुड़ । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें, और उसे शहद में मिलाकर रक्खें । इसे आरनाल, शुक या मुनक्का से बनी हुई Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३७] मदिरा या द्राक्षासवके साथ पीनेसे हर प्रकारकी अरुचि नष्ट होती और मुख शुद्ध होता है । अरुचिमें आरनाल, शुक्त, मुनक्का से बनी हुई सुरा या द्राक्षासवके कुल्ले भी करने चाहियें । ( नोट- दोनों जीरे भूनकर डालने चाहियें । मात्रा ३-४ माशे. ) (२९९६) विक्षारचूर्णम् (वै. जी. | वि. २ ) द्विक्षारषट्कटुपटुत्रजहिङ्गुदीप्यैः स्यात्सारलुङ्गबदरैकरसेन युक्तम् । श्लेष्मा निलग्रहणिकागुदजे प्रशस्तं लोकत्रयैक्कमतिदीपन पाचनेऽलम् ॥ सज्जीखार, यवक्षार, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, काली मिर्च, पांचों नमक, हींग, अजवायन और अमलबेत बराबर बराबर लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे बिजौरे नीबू या खट्टे बेर के रसमें घोटें । यह चूर्ण कफवातज ग्रहणी - विकार और बवासीरको नष्ट करता है तथा अत्यन्त अग्निदीपक और पाचक है। ( मात्रा १ - २ माशा। अनुपान उष्णजल । ) (२९९७) विक्षारादिचूर्णम् (१) ( ग. नि. । हिक्काश्वास. ) द्वौ क्षारौ हरीतक्यौ भल्लातकफलानि च । घृतमृष्टमिदं सर्व हिकाश्वासनिवारणम् || सज्जीखार, यवक्षार, हर्र और शुद्ध भिलावा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसमें थोड़ासाघी डालकर अच्छी तरह मलें । ( घी इतना डालना चाहिये कि जिससे चूर्ण चिकना हो जाय । ) For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २८ ]] भारत भैषज्य रत्नाकरः । [ दकारादि यह चूर्ण हर प्रकारकी हिचकी और श्वासको छाल, पांचों नमक, कनूर, सोंठ, और सुगन्धनष्ट करता है । बाला समान भाग लेकर कपड़ छन चूर्ण बनावें । इसे घीके साथ पिलानेसे हर प्रकारकी खांसी ष्ट होती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( मात्रा - १ से ३ माशे तक्र । शहद में मिलाकर चटावें । ) मोट- मिलाने वाला प्रयोग सावधानी पूर्वक सेवन कराना चाहिये । (२९९८) विक्षारादिचूर्णम् (२) ( मात्रा - १ से ३ माशे तक । ) (२९९९) द्विरुत्तरचूर्णम्' (बृ. नि. र. । कास; यो. र. । कास. ) द्वौ क्षारौ पञ्चमूलानि पञ्च लवणानि च । सठीनागरकोदीच्यकल्कं वा वस्त्रगालितम् || पाययेच घृतोन्मिश्चं सर्वकासनिबर्हणम् ॥ ( यो. र. 1 उदावर्त; वृ. यो त । त. ९६ ) वचास्वर्जिfवर्ड चेति द्विरुतरम् । पीतं मद्येन तचूर्णमुदावर्त्तहरं परम् ॥ हींग १ तोला, कूठ २ तोले, बच ४ तोले, सज्जीखार ८ तोले, और बायबिडंग १६ तोले सज्जीखार, यवक्षार, बेलकी छाल, अरलुकी लेकर चूर्ण बनावें । इसे मद्यके साथ पीने से उदाछाल, स्वम्भारीकी छाल, पाढलकी छाल, अरणीकी वर्तका नाश होता है । ( मात्रा - ३ माशे ) इति दकारादिचूर्णप्रकरणम् । अथ दकारादिगुटिकाप्रकरणम् दन्तीमोदकः (सु. सं. । सू. अ. ४४ ) भारत भै. र. भाग २ के पृष्ठ ३५ पर बनावें; फिर उसे सेहुंड ( सेंड ) के दूधमें घोटकर १-१ कर्ष ( ११-१| तोले ) की गोलियां बना 1 इनके सेवन से रक्तगुल्म नष्ट होता और रुका हुवा मासिक धर्म खुलकर होने लगता है। ( व्यवहारिक मात्रा १ - १॥ माशा । ) (२००१) दशसारवटी ( रखें. सा. सं. 1 वा. व्या; र. रा. मु.; ) धन्वं. 1 वा. व्या. ) प्रयोग सं. १३१२ देखिये । (३०००) दन्त्यादिगुटिका ( यो. र. । गुल्म. ) दन्तीहियवक्षाराका बीजकणागुडाः । स्नुक्षीरेण गुटिका सर्वेषां कर्षमात्रिका ॥ भक्षिता रक्तसुल्मन्नी रुभिरस्तावकारिणी ॥ दन्तीमूल, हींग, यवक्षार, कड़वी तुम्बी के यष्टियात्री बला द्राक्षा पुला चन्दनबालकम् । बीज, पीपल और गुड़ समान भाग लेकर चूर्ण | मधूकपुष्पं खर्जूरं दाडिमं पेषयेत्समम् ॥ १ यह योग बंगसेज़ में गुल्माधिकारमें लिखा है । उसका पाठ भिन्न है योग यही है । For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुटिकामकरणम् ] हतीयो भागः। [३९] मर्वतुल्या सिता योज्या पगर्दै भक्षयेत्सदा।। पिष्टवा कल्क विधायाय गुटिकाः संप्रकल्पयेत् " दशसारवटी " ख्याता सर्ववातविकारनुको कर्कन्धुवत्यमाणेन तक्रेण सह दापयेत् ।। मुलेठी, आमला, स्खरैटी, दाख (मुनक्का ), | पकातीसारशमनी "दासिमीवटिका "स्मृता ।। इलायची, सफेद चन्दन, एलबालक, महुवेके फूल, सेठ, सोया (या सौंफ), मुलैठी, अफीम, खजूर और अनार दाना । सब चीजोंका चूर्ण खजूरके फल, बेलगिरी और मोचरस, १-१ भाग समान भाग तथा खांड सबके बराबर लेफर एकत्र तथा कच्चे अनारके बीज सबके बराबर लेकर मिलाकर चोटें और ( आवश्यकता हो तो) थोड़ा चूर्ण बनावें फिर कच्चे अनारको भीतरसे खाली सा पानी डालकर आधे आधे पल (२॥२॥ | करके उसके भीतर यह सब चूर्ण भरदें। उसपर तोले ) की गोलियां बना लें। चिकनी मिट्टीका आधा अंगुल मोटा लेप करके यह 'दशसारवटी' समस्त वातज रोगांका | कण्डोंकी मन्दाग्निमें दबा दें। जब मिट्टीका रंग नाश करती है । ( व्यवहारिक मात्रा-३ से ६ / लाल हो जाय तो अनारको बाहर निकाल कर माशे तक ।) उसके ऊपरकी मिट्टी छुड़ा दें और उसे ( अमार (३००२) दाडिमादिगुटिका समेत ही) पानी के साथ पीसकर बेरके बराबर (वा. भ. । चि. अ. ३) गोलियां बनावें। दे पले दाडिमादष्यै गुडायोषात्पलत्रयम् । । इन्हें तक्रके साथ खिलाने से पकातिसार रोचनं दीपनं स्वयं पीनसश्वासकासजित ॥ नष्ट होता है । ___ अनार दाना १० तोले, गुड़ ४० तोले । (३००४) दाडिमीवटी (२) तथा सेांठ, मिर्च और पीपल ५-५ तोले लेकर (वृ. नि. र.; वै. र. । अति.) सबका चूर्ण करके, एकत्र मिलाकर गोलियां बनावें। शुण्ठी जातीफलं चाहिफेनकं द्विगुणं भवेत् । यह गोलियां रोचक, दीपन, स्वरको सुधारने | अपक दाडिमीबीजं सर्वतुल्यं प्रदापयेत् ।। वाली, और पीनस खांसी तथा श्वास नाशक हैं। अपक्कदाडिमीवीजकोशे क्षिप्त्वा मृदा लिपेत् । (३००३) दाडिमीवटी (१) | पुटपाकविधानेन पक्त्वा कोशसमन्वितम् ॥ (वृ. नि. र.; वै. र. । अति.) | पिष्ट्वा फल्कं विधायाथ गुटिकाः सम्प्रकल्पयेत् । विश्वा च शतपुष्पा च यष्टया चाहिफेनकम् । बादरास्थिप्रमाणेन तक्रेण सह दापयेत् ॥ खजूरस्य फलं बिल्वं तथा मोचरसं स्मृतम् ॥ पकातिसारशमनी दाडिमीवटिका मता ॥ समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। सांठ १ भाग, जायफल १ भाग और अफीम अपकदाडिमीबीजं सर्वतुल्यं मदापयेत् ॥ ४ भाग तथा कच्चे अनारके बीज ६ माग अपक्कदाडिमीबीजकोशे क्षिप्त्वाखिलं हि तत् । लेकर चूर्ण बनावें और उसे कच्चे अनारको भीतपुटपाकविधानेन पत्त्वा कोशसमन्वितम् ॥ । रसे खाली करके उसके भीतर भर दें और उसके For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि ऊपर चिकनी मिट्टीका आध अंगुल मोटा लेप तिलका क्षार, अरण्डका क्षार, द्रवन्ती (महाकरके कण्डेांकी मन्दाग्नि में दबा दें । जब मि- दन्ती) का क्षार, शुद्ध भिलावा और पीपल का चूर्ण ट्टीका रंग लाल हो जाय तो ठण्डा करके अनार १-१ भाग तथा गुड़ इन सबके बराबर लेकर समेत पीसलें और बेरकी गुठली के बराबर गोलि- एकत्र मिलाकर गोलियां बनावें। यां बनावें । इन्हें अग्निबलोचित मात्रानुसार सेवन करने ___इन्हें तकके साथ देनेसे पक्कातिसार नष्ट | से अग्निकी वृद्धि होती और तिल्ली, यकृत् तथा होता है। गुल्मका नाश होता है। (३००५) दुर्नामकुठाररसः (मात्रा-३ माशे । अनुपान शीतल जल । (मोदक) . जिन्हें भिलावा अनुकूल न आता हो उन्हें यह (वै. रह. । अर्श.) गोलियां सेवन न करनी चाहिएं।) मरिचं पिप्पली कुष्ठं सैन्धवं जीरनागरम् । (३००७) द्राक्षादिगुटिका (१) बचाहिङ्गविडङ्गानि पथ्या वयजमोदकम् ॥ । (यो. र; वं. से.। विसर्प; वृ. यो. त.। त. १२२; एतेषां कारयेच्चूर्ण चूर्णस्य द्विगुणं गुडम् । ____ यो. चिं. । अ. ७; यो. त.। त. ६४ ) खादेत्कर्षमितं चापि पिबेदुष्णजलं ततः ॥ | द्राक्षापथ्ये समे कृत्वा तयोस्तुल्यां सिता सर्वाण्यीसि नश्यन्ति वातजानि विशेषतः।।। सङ्खट्याक्षद्वयमितां तत्पिण्डी कारयेद्भिषक् । काली मिर्च, पीपल, कूठ, सेंधानमक, जीरा, तां खादेदम्लपित्तात्तों हत्कण्ठदहनापहाम् । सेठ, बच, हींग, बायबिडंग, हर, चीता, और तृणमूभ्रिममन्दामिनाशिनीमामवातहाम् ॥ अजमोदका चूर्ण १-१ भाग और गुड़ इन सबके दाख और हर्रका चूर्ण १-१ भाग तथा बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर १-१ कर्षके खांड २ भाग लेकर एकत्र कूटकर २॥-२॥ मोदक बनावें। तोलेकी गोलियां बनावें । इन्हें गर्म जलके साथ सेवन करने से समस्त इन्हें सेवन करने से अम्लपित्त, कण्ठ और प्रकारकी बवासीर और विशेषतः वातज अर्थात् हृदयकी दाह, तृष्णा, मूर्छा, भ्रम, मन्दाग्नि और बादीकी बवासीर नष्ट होती है। आमवातका नाश होता है। (३००६) द्रवन्तीनागवटी . ( व्यवहारिक मात्रा-१ तोला । अनुपान ( यो. र. । गुल्म; वृ. यो. त.। त. १०५) शीतल जल ।) तिलैरण्डद्रवन्तीनां क्षारो भल्लातकं कणा।। (३००८) द्राक्षादिगुटिका (२) एषां भागं समं कृत्वा तत्तुल्यं तु गुडं मतम् ॥ | (वृ. नि. र.। ग्रह.) खादेढ निबलं ज्ञात्वा पावकस्य विवृदये। . द्राक्षा क्षीरेण संपाच्य यावदाव्युपलेपनम् । जयेत्लोहानमत्युग्रं यकृद्गुल्मं तथैव च ॥ पश्चाद्याद्भिषक माशो औषधानि पृथक् पृथकू।। क्षिपेत् । For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुग्गुलपकरणम् ] तृतीयो भागः। [१] - पर्पटातिविषा मूर्वा पटोळं घनवासकम् । सुगन्धबाला, हर्र एवं विदारीकन्दका चूर्ण समान तयाभयानां चूर्ण तु समशःरया युतम् ॥ भाग मिश्रित ५ तोले तथा खांड ५ तोले मिलावे तेन क्षीरेण संयोज्य विदार्या:कन्दमेव च । । और फिर थोडा सा नवनीत ( मक्खन ) डालकर घनेन नवनीतेन पिण्डं कृत्वा तु भक्षयेत् ॥ गोलियां बनालें। ग्रहणी पित्तजां पाण्डं कामलातितृषापहम् । यह गोलियां पित्तज ग्रहणी, पाण्डु, कामला, भ्रम मूर्छा तथा हिका तयोन्मादमपस्मृतिम्।। | | तृषा, भ्रम, मूर्छा, हिचकी, उन्माद, अपस्मार, मरुपितं च कुठं च नाशयस्याशु निश्चितम् ।। बातपित्तज रोग, और कुष्ठका अवश्य नाश २० तोले मुनक्काको ८० तोले दूधमें पकार्व | करती हैं। जब पकते पकते करछी से लगने लगे तो उसमें | (मात्रा-१ से २ तोले तक । अनुपानपित्तपापड़ा, अतीस, मूर्वा, पटोलपत्र, नागरमाथा, शीतल जल । ) इति दकारादिगुटिकाप्रकरणम् । अथ दकारादिगुग्गुलप्रकरणम्. (३००९) दन्तीगुग्गुलुः अमृतापटोलमूलत्रिफलात्रिकटुककृमिघ्नानाम् । (वं. से. । गुल्म.) सर्वसमो गुग्गुलुकः प्रतिवासरमेकपरिमाणम् ॥ गुग्गुलं त्रिवृतां दन्ती द्रवन्ती सैन्धवं वचाम् । जेतुं प्रणवातासग्गुल्पोदरश्चयथुपाण्डुरोगांश्च ॥ मूत्रमद्यपयोद्राक्षारसैर्वीक्ष्य यथावलम् ॥ गिलोय, पटोलकी जड़, हरे, बहेड़ा, आमला, __ शुद्ध गूगल, निसोत, दन्ती, द्रवन्ती ( वृह- | सेठ, मिर्च, पीपल, और बायबिडंगका चूर्ण समान इन्ती ), सेंधा और बचका चूर्ण समान भाग ले- भाग तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर लेकर सबको कर सबको एकत्र मिलाकर उसमें जरासा घी एकत्र मिलाकर उसमें ज़रासा घी डालकर कूटें । डालकर कूटें। __ यह गुग्गुल अण, वातरक्त, गुल्म, उदररोग, इसे दोष बलानुसार गोमूत्र, मद्य, दूध या सूजन और पाण्डुको नष्ट करता है। द्राक्षा (अंगूर) के रसके साथ सेवन कराने से ( मात्रा-१ से ३ माशे ।) गुल्म रोग नष्ट होता है। (३०११) दशाङ्गगुग्गुलुः ( मात्रा-१ से ३ माशे तक ) ( भा. प्र. । ख. २ मेदो.; वं. से. । मेदो.) (३०१०) दशकगुग्गुलु व्योषाग्नित्रिफलामुस्ताविडङ्गैर्गुग्गुलं समम् । (ग. नि. । ब्रणा.) खादन्सजियेद्याधीन्मेदाश्लेष्मामवातजान्।। For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४२ ] सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, और बायविडंग का चूर्ण समान भाग तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर और उसमें जरासा घी डालकर करें । भारत-भैषज्य रत्नाकरः । (३०१३) दधित्थरसादिलेहः ( वृं. नि. र. । छर्दि ) [ दकारादि | शोफं प्लीहानमत्युग्रकामलामपचीमपि । नाना द्वात्रिंशको ह्येष गुग्गुलुः कथितो महान् ।। धन्वन्तरिकृतो योगः सर्वरोगनिषूदनः ॥ यह गुग्गुलु मेदरोग, कफज व्याधि और आमवात (गठिया) को नष्ट करता है । (३०१२) द्वात्रिंशको गुग्गुलुः ( वृ. यो. त. । त. ९०; वृ. नि. र.; यो. र. । वाव्या. ग. नि. । गुटिका ; यो त । त. ४०) त्रिकटु त्रिफला मुस्तं विडङ्गं चव्यचित्रकौ । चैला पिप्पलीमूलं हपुषा सुरदारु च ॥ तुम्बुरु पौष्करं कुष्ठं विषा च रजनीद्वयम् । वाष्पिका जीरकं शुण्ठी पत्रं च सदुरालभम् ॥ सौवर्चलं विडं चैव क्षारौ द्विरद पिप्पली । सैन्धवं च समानेतान्कृत्वा तुल्यं च तैः पुरम् ॥ सrafear विधानेन कोलमात्रां वटीं चरेत् । घृतेन मधुना वापि भक्षयेत्ता महर्मुखे || आमं हन्यादुदावर्त्तन्त्रवृद्धिं कृमी रुजः । महाज्वरोपसृष्टानां भूतोपहतचेतसाम् ॥ आनाहोन्मादकुष्ठानि पार्श्वशूलहृदामयान् । गृध्रसीं व हनुस्तम्भं पक्षाघातापतानकान् ॥ इति दकारादिगुग्गुलुमकरणम् । दधित्थर संयुक्तं पिप्पली माक्षिकं तथा । मुहुर्मुहुर्नरो लिह्याच्छर्दिभ्यः प्रतिमुच्यते ॥ कैथके रस में पीपलका चूर्ण और शहद मिला कर बार बार चाटने से छर्दि (वमन) नष्ट हो जाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, मोथा, बायबिडंग, चव्य, चीता, बच, इलायची, पीपलामूल, हाऊबेर, देवदारु, तुम्बरु, पोखरमूल, कूठ, अतीस, हल्दी, दारूहल्दी, कालाजोरा, सफेद जीरा, सोंठ, तेजपात, धमासा, सञ्चल ( काला नमक) विडनोन, यवक्षार, सज्जीखार, गजपीपल और सेंधानमकका चूर्ण १ - १ भाग तथा सबके बराबर शुद्ध गूगल लेकर सबको एकत्र मिलाकर थोडासा घी डालकर अच्छी तरह कूटकर १-१ कोल ( लगभग ३ माशे ) की गोलियां बनालें । इनमेंसे १-१ गोली नित्य प्रति प्रातः काल घी या शहद में मिलाकर खानेसे आम, उदावर्त, अन्त्रवृद्धि, कृमिरोग, भयङ्कर ज्वर, भूतकृत चित्तविकृति (भूतोन्माद ), आनाह, उन्माद, कुष्ठ, पसलीका शूल, हृद्रोग, गृध्रसी, हनुस्तम्भ, पक्षाघात, अपतानक, शोथ, दुस्साध्य तिल्ली, कामला और अपची ( कण्ठमाला भेद ) आदि अनेकों रोग नष्ट होते हैं । इसके आविष्कारक महाराज धन्वन्तरि थे । अथ दकाराद्यवलेह प्रकरणम्. ( पीपल ३ माशे, कैथका रस १ तोला, शहद १ तोला | यह एक दिनकी मात्रा है । ) (३०१४) दन्तीहरीतक्यावलेहः ( वं. से.; भै. र; वृं. मा. धन्वं. र. र.; च.द. | गुल्म.; ग. नि. । लेहा.; वा. भ. । चि. अ. १४) जलद्रोणे विपक्तव्या विंशतिः पञ्चचाभयाः । दन्त्याः पलानि तावन्ति चित्रकस्य तथैव च ॥ " " For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [४३] अष्टमागावशेषन्तं रसं पूतमधिश्रयेत् । विरेचन हो जाता है। दन्तीसमं मुडं पूतं दद्यात्तत्राभयाश्च ताः॥ यह अवलेह गुल्म, सूजन, बवासीर, पाण्डु, तैलार्धकुडवं चैव त्रिवृतायाश्चतुष्पलम् । अरुचि, हृद्रोग, ग्रहणी, कामला, विषमज्वर, तिल्ली चूर्णितं चापलिकं पिप्पलीविश्वभेषजम् ॥ | और अफारा आदि रोगांको नष्ट करता है। तत्साध्यं लेहवच्छीते सस्मिस्तैळसमं मधु । (व्यवहारिक मात्रा १ से २ तोले तक।) क्षिपेचूर्ण पलञ्चैकं त्वगैलापत्रकेसरात् ।। (३०१५) दशमूलगुडः (१) सतो लेहपलं कीदा जग्ध्वा चैकां हरीतकीम् । ( भै. र. । ग्रहणी.) मुख विरिच्यते स्निग्धो दोषप्रस्थमनामयः॥ दशमूलीपल शतं जलद्रोणे विपाचयेत् । गुल्मं श्वयधुमीसि पाण्डरोगमरोचकम् । तेन पादावशेषेण पचेगुडतुलां भिषक् ।। हृद्रोगग्रहणीदोषान्कामलां विषमज्वरान् ॥ आर्द्रकस्वरसमस्यं दत्वा मृद्वग्निना ततः। गुल्मंप्लीहानमानाहमेतान्हन्त्युपसेविता ॥ लेहीभूते प्रदातव्यं चूर्णमेषां पलं पलम् ।। ___ एक द्रोण (.३२ सेर) पानीमें २५ पल पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं विश्वभेषजम् । दन्ती, और २५ पल चीता डालकर पकावे साथ हिङ्गभल्लातकश्चैव विडङ्गमजमोदकम् ॥ ही उसमें अच्छी बड़ी बड़ी २५ हरें भी द्वौ क्षारौ चित्रकं चव्यं पश्चैव लवणानि च । कपड़े में बांधकर डाल दें । जब ४ सेर पानी दवा मुमथितं कृत्वा स्निग्धे भाण्डे निधाशेष रह जाय तो उन हर्रोको निकाल कर पयेत् ॥ अलग रख दें और काथको छानलें । इसके पश्चात् कोलमा ततः खादत्मातः भातविचक्षणः । २ पल* तिलके तेलमें ४ पल निसोत और । हन्ति मन्दानलं शोथमामजां ग्रहणीमपि । आधा आधा पल पीपल तथा सेठिका चूर्ण तथा आम सर्वभवं शूलं प्लीहानमुदरं तथा।। वे हर्र भून लें और उपरोक्त काथमें यह चूर्ण, २५ मन्दानलभवं रोग विष्टम्भ गुदजानि च ॥ पल गुड़ और हर डाल कर पकावें । जब ज्वरं चिरन्तनं हन्ति तमिस्र भानुमानिव ॥ अवलेह तैयार हो जाय और करछीको लगने लगे १०० पल (६। सेर ) दशमूलको १ द्रोण तो उतारकर ठण्डा करें और फिर उसमें २ पल (३२ सेर) पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष शहद तथा दालचीनी, तेजपात, इलायची आर रह जाय तो छानकर उसमें १ तुला (६। सेर) नाग केसरका समानभाग मिश्रित १ पल (५ तोले) गुड़ और १ प्रस्थ (२ सेर ) अद्रकका रस मिलाचूर्ण मिला दें। कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय और इसमें से १ पल (५ तोले ) अवलेह और करछीको लगने लगे तो उसमें १-१ पल (५-५ १ हर्र खानेसे कोठा स्निग्ध होकर अच्छी तरह | तोले ) पीपल, पीपलामूल, काली मिरच, सेठ, हांग, * ४ पल पाठ भी मिलता है । For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि शुद्ध मिलावा, बायबिडंग, अजमोद, यवक्षार, सज्जी- | चूर्ण २५-२५ तोले तथा चीते का चूर्ण और यवखार, चीता, चव और पांचों नमक; इनका चूर्ण डाल- | क्षार १०-१० तोले मिला दें। कर अच्छी तरह मिला दें और स्निग्ध पात्र में भरकर यह गुड़ गुल्म, तिल्ली, बवासीर, कुष्ठ, प्रमेह रख दें। और अग्निमांधको नष्ट करता है। ___ इसमेंसे नित्य प्रातःकाल १ कोल (लगभग | ( मात्रा १ तोला । अनुपान उष्ण जल। ) ३ माशे) खानेसे मन्दाग्नि, सजन, साम प्रहणी, | (३०१७) दशमूलगुडः (३) आम, सर्वदोषज शूल, तिल्ली, उदर व्याधि, कब्ज, (भै. र. । अ#.) बवासीर, मन्दाग्निसे होने वाले रोग और पुराने दशमूलाग्निदन्तीनां प्रत्येक पलपश्चकम् । उबरका नाश होता है। जलद्रोणेन संकाथ्य पादशेष समुद्धरेत् ।। (३०१६) दशमूलगुडः (२) गुई पलशतश्चैव सिद्धेशीते विमिश्रयेत् । ( वा. भ. । चि. अ. ८) त्रिवृताया रजाप्रस्थं तदर्धे पिप्पलीरजः॥ एकैकशो दशंपलं दशमूलकुम्भ । घृतभाण्डे स्थितं खादेत तोलार्द्धक दिने दिने । पागद्वयार्क घुणवल्लभकट्फलानाम् । दशमूलगुडः ख्यातः शमयेदर्शआमयम् ॥ दग्धे प्रतेऽनु कलशेन जलेन पक्षे अजीर्ण पाण्डुरोगश्च सर्वरोगहरं परम् ॥ पादस्थिते गुडतुलां पलपश्चकश्च ॥ दशमूल, चीता और दन्ती । प्रत्येक ५-५ दद्यात्प्रत्येकं व्योषचव्याभयानां पल (२५-२५ तोले) लेकर ३२ सेर पानीमें पकावें। वर्मुष्टी द्वे यवक्षारतश्च । जब ८ सेर पानी बाकी रह जाय तो छानकर उसमें दीमालिम्पन्हन्ति लीटो गुडोऽयं १०० पल(६। सेर) गुड़ मिलाकर पुनः पका। जब गुल्मप्लीहाश कुष्ठमेहाग्निसादान ॥ पकते पकते करछीको लगने लगे तो उसे अग्निसे दशमूल, निसोत, पाठा, दोनों प्रकारका आक, नीचे उतार कर ठण्डा करें और उसमें १ प्रस्थ (१ अतीस और कायफल १०-१० पल (५०-५० सेर-८० तोले ) निसोत और आधा प्रस्थ पीपल तोले) लेकर जलाकर राख करलें और उसे ३२ का चूर्ण मिला कर चिकने पात्रमें सुरक्षित रक्खें । सेर पानीमें पकायें जब ८ सेर पानी बाकी रह जाय यह “ दशमूल गुड़" बवासीर, अजीर्ण और तो छानकर (रंगरेजोंकी रैनीकी तरह एक कपड़ेके पाण्डु रोग को नष्ट करता है। मात्रा-आधा तोला। चारों कोने किसी घडौंचीके चारों पार्यों में बांधकर (३०१८) दशमूलहरीतकी (१) उस कपड़े में वह पानी भरकर ७ बार टपका लें) (बा. भ. । चि. अ. ३) उसमें १ तुला ( ६ । सेर ) गुड़ मिलाकर | दशमूलं स्वयंगमा शंखपुष्पी शठी बळाम् । पुनः पका । जब पकते पकते करछीको लगने हस्तिपिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकान् । लगे तो उसमें सांठ, मिर्च, पीपल, चव्य और हर्रका ! भाजी पुष्करमूलं च द्विपलांशान्यवादकम् । For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवलेहमकरणम् ] दृतीयो भागः। [४५] - - - - - - - - शीतकीयतं चैकं जले पश्चाढके पचेत् ॥ (अवलेहकी मात्रा-१ तोला । अनुपान दूध । ) यवस्विने कार्य तं पूर्त तथाभयाशतम्। (३०१९) दशमूल हरीतकी (२) पचेद् गुडतुलां दवा कुदवं च पृथाघृतात् ॥ (वा. भ. । चि. अ. १७; वृं. मा.; यो. र.; वं. के.; तैलासपिप्पलीचूर्णात्सिद्धशीते च माक्षिकात्। च. द.; वू. नि. र. । शोथ; वृ. यो. त । त. १०६ छेई द्वे चाभये नित्यमतःखाद्रिसायनाद ॥ दशमूलकषायस्य कसे पथ्याश्तं गुडाव । तदलीपलितं हन्याद्वर्णायुषकवर्द्धनम् । | तुलां पचेद् घने तत्र व्योषक्षारचतुष्पलम् ।। पञ्चकासान् क्षयं वासं सहिध्यं विषमज्वरम् ॥ त्रिजातन्तु सुवर्णाशं प्रस्थाधै मधुनो दिये। मेहगुल्मग्रहण्यौहद्रोगारुचिपीनसान् । दशमूल हरीतक्यः शोफान् नन्ति मुदुस्तरान ॥ अगस्तिविहित धन्यमिदं श्रेष्ठं रसायनम् ॥ . दशमूलके ८ सेर काथमें १०० हर्र और १ दशमूल, कैंचके बीज (छिले हुवे ), शंख- तुला (६। सेर) गुड़ मिलाकर पकावें ।जब अवलेह पुष्पी, कचूर, खरैटी, गजपीपल, चिरचिटा, पीपला लगभग तैयार हो जाय तो उसमें सांठ, कालीमूल, चीता, भारंगी और पोखर मूल २-२ पल मिर्च, पीपल और यवक्षार का चूर्ण २०-२० तोले (१०-१० तोले), जो ४ सेर, और हर्र १०० और दालचीनी, इलायची तथा तेजपातका चूर्ण लेकर सबको ४० सेर पानीमें पकावें । जब जौ १६ तोला मिलादें और जब वह ठण्डा हो उसीज जायं तो हरों को अलग निकालकर रखदें जाय तो १ सेर (८० तोले ) शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें। और काथको छान लें फिर उसमें १ तुला (६॥ ____ यह दशमूल हरीतकी भयङ्कर शोथको भी सेर ) गुड़ और आधा आधा सेर घी तथा तेल एवं नष्ट कर देती है। उपरोक्त हरें मिलाकर पुनः पनावें जब अवलेह (३०२०) दाडिमावलेहः । तैयार हो जाय अर्थात् करछीको लगने लगे तो (पृ. नि. र.; यो. र. । अति.) उसमें २० तोले पीपलका चूर्ण मिलाकर अग्निसे दाडिमस्य फलपस्थं चतुः प्रस्थे जले पचेत् । नीचे उतारलें और ठण्डा होने पर ४० तोले शहद चतुर्भागकषायेऽस्मिन् शर्कराप्रस्थमेव च ॥ मिला दें। नागरं पिप्पलीमूलं कणाधान्यकदीप्यकम् । नित्य प्रति २ हर्र और यह अवलेह खानेसे, जातीफलं जातिपत्रं मरिच जीरकं तुगा ॥ बली (शरीरकी झुर्रा), पलित ( बाल पकना), विजयानिम्बपत्रञ्च समजा कूटशाल्मली। पांच प्रकारकी खांसी, क्षय, श्वास, हिचकी, विषम अरल्वतिविषा पाठा लवकं च पृथक्पलम् ॥ ज्वर प्रमेह, गुल्म, ग्रहणी विकार. बवासीर, हृद्रोग, | तस्य मधनः प्रस्थं सर्वले विपाचयेत । अरुचि और पीनस, आदि रोग नष्ट होते एवं दाडिम्बलेहकं नाम ज्वरातिसारनाशनम् ॥ आयु, बल तथा सौन्दर्य की वृद्धि होती है । इस आमरक्तं चामशूलं मांधशोफक्षयापहम् । का आविष्कार अगस्त्य मुनि ने किया था। पातुलीनं धातुगतमश्विभ्यां निर्मित पुरा ।। For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - अनारके १ प्रस्थ ( ८० तोले ) फलोंको ४ । बहेड़ा, आमला, हल्दी, दारुहल्दी, कुटकी और प्रस्थ (८ सेर) पानीमें पकावें । जब १ प्रस्थ (२ लोह भस्म के चूर्णको शहद और पीके साथ मिलासेर) पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें १ कर चटावें । यह सब प्रयोग कामला को नष्ट प्रस्थ (१ सेर) खांड और १ प्रस्थ (२ सेर) घी करते हैं।। मिलाकर पकावें । जब करछीको लगने लगे (३०२२) दाय॑वलेहः तो उसमें १-१ पल (५-५ तोले ) सेठ, (ग. नि. । लेहा.) पीपलामूल, पीपल, धनिया, अजवायन, जायफल, दाास्तु मूलाधतुला जलस्य जावित्री, काली मिर्च, जीरा, बंसलोचन, भांग, द्रोणे शृतां पूतचतुर्थशेषाम् । नीमके पत्ते, मजीठ, कूठ, मोचरस (या सेभलकी भूनिम्बदार्वी खदिरारिमेदे छाल), अरलुकी छाल, अतीस, पाठा, और लांगका पुनर्विपक्वं पलिफैश्चतुर्मिः॥ चूर्ण मिलाएं। और ठण्डा होने पर १ प्रस्थ (२ सेर)। पूतं ततो गैरिकचूर्णपादं शहद मिलाकर काच या चीनी आदिके पात्रमें । मन्दानले तच्च पुनर्विपकम् । भर कर रखदें। सनीय शीतं मधुशर्कराभ्यां यह लेह ज्वरातिसार, आमरक्त, आमशूल, सदा प्रयोज्यं घृतभाजनस्यम् ॥ अग्निमांद्य, शोथ, क्षय, और धातुगत ज्वरोका नाश नाना प्रकारेषु मुखामयेषु करता है। मुदारुणेषूप्ररुजेषु चैव । प्राचीन समयमें अश्विनि कुमारोंने इसकी प्रशीर्णजीर्णेष्वषद्विजेषु योजनाकी थी। (मात्रा १ तोला । ) कृच्छेषु दुष्टेषु व्रणेषु चैव ॥ (३०२१) दारूत्वकाचवलेहः । कल्पोऽयमिष्टो मधुकस्य चैव (च. सं. । चि. अ. २२) । प्रपौण्डरीकस्य वृषस्य चैव। दाऊत्वक् त्रिफला व्योषं विडङ्गमयसो रजः। जातीरिमेदत्रिफलासमा मधुसपियुतं लिह्याद् गुडक्षाद्रे च वाभयाम् ॥ रोधस्य जम्बोः खदिरस्य चैव ॥ त्रिफला द्वे हरिद्रे च कटुरोहिण्ययोरजः । दारु हल्दीकी जड़की छाल आधी तुला (३ सेर चूणितं क्षौद्रसपियों सलेहः कामलापहः ॥ १० तोले) लेकर, कूटकर १ द्रोण (३२ सेर) पानीमें दारु हल्दीकी छाल, त्रिफला ( हरै, बहेड़ा, पकावें जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान आमला ), सांठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग और कर उसमें २०-२० तोले चिरायता, दारु हल्दी, लोहचूर्ण (लोहभस्म लेना उत्तम है ) समान भाग खैरकी छाल, और, अरिमेद (दुर्गन्धित खैर )की लेकर घी और शहदमें मिलाकर चटावें । या हरके छालका अधकुटा चूर्ण मिलाकर पुनः पकावें। जब चूर्णको गुड़ और शहदमें मिलाकर चटावें या हर्र, २ सेर पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४७] आधा सेर गेरु मिट्टी का चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि पर पानी शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें उपपकाकर गाढ़ा करें और उसमें २ सेर खांड मिला रोक्त लोह भस्म मिलाकर पुनः पकावें और जब दें। जब ठण्डा हो जाय तो थोड़ा सा शहद । गाढ़ा हो जाय तो उसमें २॥-२॥ तोले सांठ, मिलाकर चिकने बरतनमें भरकर रखदें। मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चीता, बाय इसे अनेक प्रकारके दारुण मुख रोगोंमें, दांतों बिडंग, नागरमोथा, और ढाकके बीज (पलाशकी निर्बलता और उनके नष्ट होने में तथा दांतोंके पापड़ा ) का चूर्ण मिला दें। दुष्ट व्रणों ( पाइरिया ) में प्रयुक्त करना चाहिये। नागार्जुन कथित यह दासरसायन कफ___ इसी प्रकार मुलैठी, पुण्डरिया, बासा, चमेली, पित्तज ग्रहणीको नष्ट करता है। अरिमेद, त्रिफला मजीठ, लोध, जामन और खैरका (३०२४) दासरसायनलौहम् अवलेह बनाकर भी प्रयुक्त करना चाहिए। (वै. से. । रसायना.) (३०२३) दासलोहरसायनम् पारदं विधिना शुद्धं पलद्वितयसम्मितम् । (र. का. धे. । अधि. १४) चतुष्पलं लोहचूर्ण चतुर्विंशपलं सिता ॥ मूछितपुटितं शुद्धमयसः पलपञ्चकम् । मनोहागन्धपाषाणं हरितालश्च शुद्धकम् । शतावरीरसैः सम्यक्पुटितं पञ्चधा पुनः॥ कासीसं हिङ्गकुष्ठश्च वचोशीररसाधनम् ॥ अष्टौ पलानि गृणीयात् त्रिफलायाः पृथक् सारं खदिरवृक्षस्य जातीफलसमन्वितम् । पृथक । | द्विपलं सूक्ष्मचूर्णन्तु सर्वेषां परिकीर्तितम् ॥ सलिलात् दयामणे पक्त्वा चूर्णात्कर्षद्वयं गगनाद्विपलं कृष्णाल्लोहवत्पुटितात् क्षुतात् । पृथक् ॥ शास्त्रोक्तपृथगुद्दिष्टैः संयुज्य विधिनोचितम् ॥ त्रिकटु त्रिफला वनि विडॉ भद्रमुस्तकम्। त्रिंशश्च त्रैफले तोये प्रस्थेन सह सर्पिषा । पलाशस्य च बीजानि पक्त्वा कुर्याद्रसायनम्।। शृङ्गवेररसप्रस्थं निष्काध्यं वक्ष्यमाणकैः ॥ नागार्जुनेन कथितं दासाख्यं लोहमुत्तमम् । त्रिवर्णोदितं चित्रश्च चास्थिसंहारसूरणम् । पित्तश्लेष्माधिकचैव निहन्या ग्रहणीगदम् ॥ नामवर्षों सगोधूमभूमिकुष्माण्डतण्डुलाः ।। कफपित्तग्रहण्यान्तु कोहं दासरसायनम् ॥ सौभाअनं तालमूली मोरटे शपुष्पिका । २५ तोले शुद्ध लोह भरम को शतावरीके ! पृथगष्टपल पां वारिद्रोणे विपाचयेत् ।। रसमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखावें और उन्हें अष्टभागावशिष्टेन कषायं कारयेत्सुधीः। शरावसम्पुटमें बन्द करके गज पुटमें फूंक दें, मधुनो द्वात्रिंशत्पलं क्षिपेत्तत्र मुशीतले ॥ इसी तरह शतावरीके रसकी ५ पुट दें। फिर हर, त्रिकदुत्रिफलासिन्धुविडं सौवर्चलं तथा । बहेड़ा और आमला ४०-४० तोले लेकर सबको टङ्कणो यावशूकरच सुरदारु परं पराः॥ २ द्रोण ( ६४ सेर ) पानी में पकावे जब ८ सेर | अम्लवेतसमृद्धीकामहामधुयष्टिका । For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४४] भारत-भैषज्य-रत्माकरः। [दकारादि - - शशी दुरालभा मुस्तं विडङ्गं रक्तचन्दनम्॥ अदरक, मुलैठी, काकड़ासिंगी, धमासा, नागरमोंजीरकश्च सपन्याकं चूर्ण पलाद्धकं पृथक् । था, बायबिडंग, लालचन्दन, जीरा और धनिये का दासरसायम मोक्तं नराणां हितकाम्यया ॥ चूर्ण मिलाकर रक्खें । न पात्र परिहारोऽस्ति विहाराहारयन्त्रणे । यह “ दास रसायन" स्वस्थ और अस्वस्थ अपामानि सर्वाणि भक्ष्यभोज्यानि यानि च। दोनोंके लिए हितकारी, और सर्व रोग नाशक है। तानि प्रकृतिभेदज्ञो बुद्धिपूर्व प्रदापयेत् । सके सेवनकालमें किसी प्रकारके पण्डेजको सर्वव्यापिहरश्चतत् स्वस्थास्वस्थहितं सदा ॥ आवश्यकता नहीं है । प्रकृतिका विचार करके हर विधिपूर्वक शुद्ध पारा २ पल (१० तोले), प्रकास्का भोज्य, भक्ष्यादि आहार दिया जा लोह भस्म ४ पल, खांड २४ पल, शुद्ध मनसिल, सकता है। शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, शुद्ध कसीस, हांग, | (३०२५) दुरालभादिलेहः (१) कूठ, बच, खस, रसौत, खैरसार, और जायफल का चूर्ण १०-१० तोले तथा उपरोक्त लोहवाली (ग. नि. । कास.) विधिसे भस्म किया हुवा कृष्णाभ्रक १० तोले ले कर | दुरालभा शठी कृष्णा मधुकं सितशर्करा । प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर लीढं निहन्ति वातोत्थं कासं क्षौद्रेण योनिउसमें अन्य चीजोंका चूर्ण मिलाकर घोटें।। तम् ॥ तत्पश्चात् सांठ, मिर्च, पीपल, चीता, हडसं- धमासा, शठी (कचूर), पीपल, मुलैठी और हारी, जिमीकन्द, पुनर्नवा, गेहूं, विदारीकन्द, चावल, । सफेद खांड । सब चीजोंका पूर्ण समान भाग सहजनेकी छाल, तालमूली, मोरट लता, और शंख लेकर एकत्र मिलावें और उसे शहदमें मिलाकर पुष्पी ८-८ पल (४०-४० तोले) लेकर सबको रोगीको चटावें । यह अवलेह वातज खांसीको १ द्रोण ( ३२ सेर ) पानीमें पकावें जब ४ सेर नष्ट करता है। पानी शेष रहजाय तो उसे छानलें और फिर उसमें (३०२६) दुरालभादिलेहः (२) उपरोक्त चूर्ण, ३० पल (३०० तोले) त्रिफलेका (ग. नि. । कासा.) काथ, १ प्रस्थ (२ सेर ) घी और २ सेर अदरकका रस मिलाकर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय दुरालभां शृङ्गवेरं शठी द्राक्षां सितोपलाम् । तो अग्निसे उतारकर ठण्डा करलें और फिर उसमें लिहयात् ककेटशृङ्गीच कासे तैलेन वातजे ॥ ३२ पल ( ४ सेर ) शहद, तथा २॥-२॥ तोले धमासा, सांठ, कचूर, मुनक्का, काकड़ासिंगी सांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, सेंधानमक, : और मिश्रीका चूर्ण बरावर बराबर लेकर तेल में विड नमक, सश्चल (काला) नमक, सुहागेकी खील, मिलाकर रोगीको चटावें । इससे बातज खांसी जवाखार, देवदारुका चूर्ण, अम्लकेतस, मुनका, बन | नष्ट होती है । For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवलेहमकरणम् ] (३०२७) देवदावयवलेहः ( वा. भ. । चि. स्था. अ. ३ ) देवदारुझठी रास्ताकर्कटाख्या दुरालभाः । पिप्पली नागरं तं पथ्या धात्री सितोपला || काजा सितोपला सर्पिः शृङ्गी धात्रीफलो द्भवा । तृतीयो भागः । मधुतैलयुता लेहाखयो वातानुगे कफे ॥ (१) देवदारु, कचूर, रास्ना, काकड़ासिंगी और धमासा । (२) पीपल, सोंठ, नागरमोथा, हर्र, आमला, और मिश्री । (३) धानकी खील, मिश्री, घी, काकड़ासिंगी और आमला । यह तीनों अवलेह शहद और तेलमें मिलाकर सेवन कराए जावें तो बात कफज खांसी नष्ट हो जाती है । द्राक्षासितामा क्षिक संप्रयुक्ता (३०२८) द्राक्षादियोगः ( वृ. नि. र. । अजी. ) विदशते यस्य तु शुक्तमा दशन्ति हृत्कोष्ठ - गतामलाश्च । लाभ वास सुखं भेव || यदि आहार भली प्रकार न पचकर विदग्ध हो जाता हो और हृदय तथा उदर इत्यादि में दाह होती हो तो दाख और मिश्री को अथवा हरे को पीसकर शहदके साथ मिलाकर चाटना चाहिये । (३०२९) द्राक्षाद्यवलेह: (१) (बृ. नि. र. । सन्निपा.; वं. से. । मदात्यय. ) स्विममामले पिडा द्राक्षया सह मेळयेत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४९ ] विश्वभेषणसंयुक्तं मधुना सह लेहयेत् ॥ तेनास्य शाम्यति श्वास: कासो मूर्च्छारुचि स्तथा।। स्विन्न ( उसीजे हुवे ) आमलों को गुठली निकालकर पीस लीजिए और फिर उसमें उसके बराबर बीजरहित मुनक्काकी पिट्ठी और सोंठका चूर्ण मिला दीजिये | इसे शहद में मिलाकर चाटने से रोगीकी मूर्च्छा, श्वास, खांसी और अरुचि नष्ट होती है । (३०३०) द्राक्षाद्यवलेह : (२) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. १२ ) द्राक्षामलक्याः फलं पिप्पलीनां कोळं सखर्जूरयुतो च लेहः । सपित्तकासक्षयनाशकारी सकामलं पाण्डुहलीमकं च ॥ दाख ( मुनक्का ) आमला, पीपल, बेर और खजूर को पीसकर ( शहद में मिलाकर ) चटनी बना लीजिये । इसके सेवन से पित्तज खांसी, क्षय, कामला, पाण्डु और हलीमक रोग नष्ट होता है । (३०३१) द्राक्षाद्यवलेह : ( ३ ) ( वृ. नि. र. । अपस्मार. ) द्राक्षादारुनिशायुतं समधुकं कृष्णा विशाळा त्रिवृत् । पृथ्वीका त्रिफला asiटुका श्रीचन्दनं बालकम् || चातुर्जातकनिम्बकाञ्चनतुगाताळीसपत्रं घनम् । मेद्वे सुरदारुकुष्ठकमलं धात्री समङ्गा बळा ॥ भाङ्गकोलकदा डिमाम्ल सहितं काश्मर्यशृङ्गा रकम । For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [५०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि काचाहाभलघण्टिकालघुतराक्षुद्रा च रास्ना- युक्तथा वैधवरेण चूर्णमधुना देयं पलाय युतम् ॥ पृथक् ।। चूर्ण शर्करया समं मधुघृतं खजूरकैः संयुतम् । चातुर्जातकटुत्रयं मृगमदं लोहाभ्रक केशरम् । लिक्षात्कर्पमिदं समस्तबलवान् हन्यादपस्मा- पत्री जातिफलं मृगाकरजतं कुस्तुम्बरी चन्द. रकम् ॥ नम् ॥ उन्मादं च नुदारुणं क्षयमथो गुल्मं सपाण्डं तथा । सम्यक् जातरसं प्रभातसमये सेव्यं द्विकर्षोंकासश्वासमसझवाहमुदरं स्त्रीणां हितं शस्यते॥ मितम् । द्राक्षा (दाख), दारुहल्दी, मुलैठी, पीपल, इन्द्रा स्निग्धं शुक्रकरं प्रमेहशमनं पित्तामयध्वंसनम् ॥ यण, निसोत, इलायची, हर्र, बहेड़ा, आमला, बाय- मूत्राघातविषन्धकृच्छ्रशमनं रक्ताचिनेत्रातिहत् । बिडंग, कुटकी, सफेदचन्दन, सुगन्ध बाला, दाल- पादे पाणितले विदाहशमनं सौख्यमदं प्राणिचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, नीमकीछाल, नाम् ॥ कचनारकी छाल, बंसलोचन, तालीसपत्र, नागरमोथा, १ सेर बीज रहित द्राक्षा (मुनक्का ) लेकर मेदा, महामेदा, देवदारु, कूठ, कमल, आमला, मजीठ, पत्थर पर पिसवा लीजिये फिर एक कढ़ाई में खरैटी, भारंगी, कंकोल, दाडिम (अनारदाना), | १ सेर दूध और १ सेर खांड तथा यह मुनक्का खम्भारी, सिंघाड़ा सूखा हुवा), हल्दी, कपूर, डालकर पकाइये । जब अवलेह तैयार हो जाय शणपुष्पी, छोटीकटेली, खजूर और रास्ना । सब ( करछीको लगने लगे) तो उसमें २॥ २॥ तोले चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसमें इस दाल चीनी. तेजपात, इलायची, नागकेसर, सेठ, सब चूर्णके बराबर मिश्री मिलाकर उसमें शहद काली मिर्च, पीपल, कस्तूरी, लोहभस्म, अभ्रक और घी मिलाकर रक्खें। भस्म, केसर, जावित्री, जायफल, कपूर, चांदी भस्म, __इसे नित्य प्रति १॥ तोलेकी मात्रानुसार सेवन कुस्तुम्बरु और सफेद चन्दनका चूर्ण मिला दीजिये। करानेसे भयङ्कर अपस्मार, उन्माद, क्षय, गुल्म, इसमेंसे प्रतिदिन २॥ तोले अवलेह प्रातः पाण्डु, खांसी, श्वास, रक्तप्रदर और उदर रोग नष्ट होते हैं। काल सेवन करना चाहिये। (नोट-शहद समस्त चूर्णसे २ गुना और यह स्निग्ध, शुक्र वर्द्धक, प्रमेह, पित्तरोग, घी आधा मिलाना चाहिये ।) मूत्राघात, विबन्ध, मूत्रकृच्छ्, रक्तविकार, नेत्ररोग, (३०३२) द्राक्षापाकः | और हाथ पैरांकी दाहको शान्त करने वाला तथा (वृ. नि. र.; यो. र.; प्रमे.) सौख्यवर्द्धक है। दामादुग्धसिता पृथक परिमिता प्रस्थेन संपाचिता। (व्यवहारिक मात्रा-१ तोला । अनुपान–दूध) For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् तृतीयो भागः। - ---- - -- - - (३०३३) बिमेदादिलेहः ____ मेदा, महामेदा, बंसलोचन, पीपल और सफेद (ग. नि. । कासा.) खांड समान भाग लेकर चूर्ण करें और उसे घं उभे मेदे तुगाक्षीरी पिप्पली सितशर्करा। तथा शहद में मिलाकर अवलेह बनालें । घृतक्षौद्रं च लेहोऽयं कासं जयति पैचिकम् ॥ यह अवलेह पित्तज खांसीको नष्ट करता है। इति दकारादिलेहप्रकरणम् । अथ दकारादिघृतप्रकरणम् - 0 दृष्टव्य दन्तीमूल १ पल ( ५ तोले ), निसोत ५ १-घृत और तैलादिमें द्रव पदार्थी के लिये तोले, तथा हर्र, बहेड़ा, आमला, अतीस, चीता १६० तोलेका प्रस्थ मान कर द्रव्यांका परिमाण और बायबिडंग २॥२॥ तोले लेकर सबको लिखा गया है अत एव हिन्दी अर्थ में द्रव पदा- पानी के साथ पीसलें फिर १ कुडव (४० तोले) थीका जो परिमाण सेरों या तोलों आदि में लिखा घीमें यह कल्क और १६० तोले सेहुण्ड (सेंड) है परिभाषाके अनुसार उसका द्विगुण करने की का दूध मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाय तो आवश्यकता नहीं है। धृतको छान लें। २-जिन स्नेहांका पाक केवल काथ से लिखा इस धीमें से केवल एक बिन्दु रोगीको पिला | नेसे विरेचन होकर दुस्साध्य श्लीपद रोग भी नष्ट है और कल्कादिका परिमाण नहीं बतलाया गया हो जाता है। उनमें परिभाषानुसार कल्क स्नेहका छठा भाग लिखा (नोट---घी पकाते समय उसमें २ सेर पानी है, परन्तु जहां काथके साथ दूध इत्यादि भी लिखे हैं भी डालना चाहिये।) वहां साधारण नियमानुसार चौथा भाग कल्क (३०३५) दन्त्यादिवृतम् (१) 'लिखा है। (वा. भ. । चि. स्था. अ. १९) (३०३४) दन्तीघृतम् दन्त्याढकमपां द्रोणे पक्त्वा तेन घृतं पचेद । (वं. से. । विद्र.; र. र. । श्लीप.) धामार्गवपले पीतं तदुद्धाधोविशुद्धिवृत् ॥ दन्तीमूलपलं दद्यात्रिसन्मूलपलं सथा । ४ सेर दन्तीमूलको ३२ सेर पानी पका त्रिफलातिविषाचित्रविडङ्गार्धपलोन्मितम् ॥ जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे धन स्नुहीक्षीरसमायुक्तं घृतस्य कुडवं पचेत् ।। | उसमें २ सेर घी और १० तोले तुरई का काम विन्दुमात्रोपयोगेन वेगासमुपजायते ॥ मिलाकर पकाइये । जन सद पाना काय दुरि लीपदं इन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा। घृतको छान लीजिए। For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि यह घृत पीनेसे वमन विरेचन होकर कुष्ठ । पर छान लीजिये । तत्पश्चात् इसमें १ प्रस्थ नष्ट होता है। (१६० तोले) घी और दन्तीमूल तथा बेलगिरीका ( मात्रा-३-४ तोले ।) समान भाग मिश्रित १३ तो. ४ माशे कल्क मिला (३०३६) दन्त्यादिघृतम् (२) कर पकाइये । जब समस्त पानी जल जाय तो (वा. भ. । चि. स्था. अ. १९.) घृतको छान लीजिये। भावर्तकीतुलां द्रोणे पचेदष्टांशशेषितम् । यह घृत गुल्म, तिल्ली और पाण्डु रोगको तन्मूलैस्तत्र नि!हे घृतपस्थं विपापयेत् ॥ नष्ट करता है। पीत्वा तदेकदिवसान्तरितं सुजीर्णे। । नोट--पाककी उत्तमताके लिये ४ प्रस्थ मुनीत कोद्रवमुसंस्कृतकालिकेन ॥ (८ सेर ) पानी भी डालना चाहिये। कुष्ठं फिलासमपचीश्च विजेतुमिच्छ. (३०३८) दशमूलक्षीरषट्मलपृतम् निच्छन् प्रजाश्च विपुलां ग्रहणं स्मृति ॥ (वं. से.; च. द.; इं. मा. र. र. । ज्वरा.) १ तुला (६। सेर ) महादन्ती को १ द्रोण दशमूलीरसैः सपिः समीरैः पञ्चकोसकैः। (३२ सेर ) पानीमें पकाइये । जब ४ सेर पानी सक्षा न्ति तसिद्ध ज्वरकासाग्निमन्दताम् ॥ शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें २ सेर या वातपित्तकफव्यापीन्प्लीहानं पापकर्षति ॥ १६० तोले घी और.१३ तोले ४ माशे महा ४ सेर दशमूलको ३२ सेर पानीमें पकाइये दन्तीकी जड़का कल्क मिलाकर पकाइये । जब पानी | जब चौथा भाग पानी शेष रहे तो छान लीजिये। जल जाय तो घृतको छान लीजिये। इस घृतको तीसरे दिन पीने और घृत पचने । तत्पश्चात् यह काथ, २ सर था आर २ सेर दूध पर काजीसे बना हुवा कोदों का अन्न खानेसे कुष्ठ, तथा पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठ और किलास और अपची (गण्डमाला भेद ) नष्ट होती यवक्षारका समान भाग मिश्रित २० तो. कल्क तथा स्मरण शक्ति और सन्तानोत्पादन शक्ति की लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकाइये । जब दूध वृद्धि होती है। और काथ जल जाय तो घीको छान लीजिए। नोट-घृत पकाते समय उसमें ८ सेर पानी यह घी ज्वर, खांसी, अग्निमांद्य, वातज पित्तज भी डालना चाहिये। और कफज रोग तथा तिल्ली को नष्ट करता है। (३०३७) दन्त्यायं धृतम् (३०३९) दशमूलघृतम् (१) (च. सं. । चि. स्था. अ. २०; वं. से. । पाण्डु.) | (र. र. । शिरो; कृ. नि. र.; यो. र. । नेत्र.) दन्त्याश्चतुष्पलरसे पिष्टैदैन्तीशलाधिः। दशमूलाम्मुना पक्वं घृतं दुग्धशतुर्गुणम् । तद्वत् प्रस्थो धृताद् गुल्मप्लीहपाण्ड्वत्रिदोषनुत् ॥ त्रिफलाकल्कसंयुक्तं तिमिरे पातजे पिवेत् ॥ ४ पल (२० तोले ) दन्तीमूलको ३२० दशमूलका काथ ४ सेर, दूध ४ सेर, घी १ तोले पानीमें पकाकर चौथा भाग पानी शेष रहने । सेर, और त्रिफलेका कल्क १० तोले लेकर सबको For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org घृतप्रकरणम् ] एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृत मात्र शेष रह जाय तो उसे छान 1 तृतीयो भागः । दूध । ) (३०४०) दशमूलघृतम् (२) यह घृत वातज तिमिर को नष्ट करता है । ( मात्रा – १ से २ तोले तक । अनुपान | ( वृं. मा.; च. द. । वातव्या . ) दशमूलस्य निर्यूहे जीवनीयैः पलोन्मितैः । क्षीरेण च घृतं पक्वं तर्पणं पवनार्त्तिजित् ॥ दशमूलका काथ २४ सेर, दूध ६ सेर, घी ६ सेर तथा जीवनीयगण ( मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती, मुलैठी, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि और वृद्धि ) का कल्क १२ पल ( प्रत्येक ५ तोले) लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब घी मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। यह घृत वातव्याधि नाशक है । ( मात्रा --- १ से २ तोले तक । अनुपान गरम दूध या दशमूलका काथ | ) [ ५३ ] | करअं वारुणं मूलं पिप्पली च समं समम् । मतिदशपलं योज्यं कुलत्यबदरीयवाः || प्रत्येकं षोडशपलं सर्वमेकत्र पाचयेत् । तेषामष्टगुणे तोये पादशेषं समाहरेत् ॥ वस्त्रपूतं कषायन्तं पुनः पाच्यमिमैः सह । चव्यं द्विपिप्पली भार्गी वचा त्रिद्विकम् ॥ atri कम्पिल्वकम् शुण्ठी प्रत्येकं पळसम्मितम् । चूर्णितं योजयेत्तत्र घृतप्रस्थयुतं पचेत् ॥ घृतावशेषतार्य कर्षमात्रं प्रयोजयेत् । मेोपद्रवाणाञ्च शमनं पवनं हितम् ॥ fushraणगण्डानां सर्वोपद्रवशान्तिकृत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काथ- दशमूलकी हरेक वस्तु, राठी ( कचूर), दन्तीमूल, देवदार, पुनर्नवा (साठी), स्नुही (सेंड) और आककी जड़, हर्र, ज़िमिकन्द (शूरण), पोखर - मूल, करञ्ज, बरनेकी छाल, और पीपल; प्रत्येक १० पल (५० तोले ) तथा बेर, कुलथी और जौ १६- १६ पल लेकर सबको अधकुटा करके १६ गुने पानी में पकावें; जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो काथको छानलें । नोट- मेदा, महामेदाके अभाव में शतावर; जीवक, ऋषभक के अभाव में विदारीकंद, ऋद्धि, वृद्धि के अभाव में बाराहीकन्द और काकोली, क्षीर काकोलीके अभावमें असगंध लेना चाहिये । (३०४१) दशमूलघृतम् (३) ( र. र. । मेह; वा. भ. । चि. अ. १२ ) 'दशमूली शठो. दन्ती देवदारु पुनर्नवा | मूकं स्मुक्लर्कयोः पथ्या भूकन्दञ्च सपुष्करम् | तो घीको छान लें। कल्क—चव, पीपल, गजपीपल, भरंगी, बच, निसोत, बायबिडंग, लोध, कबीला और सोंठ; हरेक ५-५ तोले लेकर पानीके साथ पीस लें । २ सेर घी तथा उपरोक्त काथ और कल्क को एकत्र मिलाकर पकायें; जब काथ जल जाय For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि यह घृत प्रमेहपिडिका, गण्ड और घाव आदि । चीता, सेठ और यवक्षार का कल्क ६ पल (हरेक प्रमेहके समस्त उपद्रवोंको नष्ट करता है। ५ तोले) लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । ___ मात्रा--१। तोला । (त्रिफला काथ या मलि- | जब काथ जल जाय तो घी को छान लें। ष्ठादि काथ में डालकर पियें।) यह घी खांसी, पसलीका दर्द, हिचकी और (३०४२) दशमूलषट्रपलघृतम् (१) । श्वास को नष्ट करता है। (वृ. मा. । उदरा.) (मात्रा-१ से २ तोले तक । अनुपान-दूध पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। | या गर्म जल या दशमूलका काथ।) सक्षारैरपलिकै द्विः प्रस्थं सर्पिषः पचेत् ॥ नोट-प्रयोग संख्या ३०३८, ३०४२ और कल्कैपिञ्चमूलस्य तुलार्धस्य रसेन तु । | ३०४३ में बहुत थोड़ा अन्तर है । नं. ३०३८ दधिमण्डाढकं दत्त्वा तत्सर्जिठरापहम् ॥ | में दूध पड़ता है, नं. ३०४२ में दहीका पानी और श्वयधुं वातविष्टम्भं गुल्माशीसि च नाशयेत् ॥ नं. ३०४३ में केवल काथ ही पड़ता है। ओष पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सांठ और धियोंके परिमाणमें भी अन्तर है। यवक्षारका कल्क ३ पल ( हंग्क २।। तोले ), घो। (३०४४) दशमूलादिघृतम् (१) २ प्रस्थ. ( ४ सेर ), दशमूलका काथ ६। सेर, । (वृ. नि. र; यो. र. । अजी.) और दहीका पानी ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिला- मरीचं पिप्पलीमूलं नागरं पिप्पली तथा । कर पकार्वे । जब काथ और पानी जल जाय तो । भल्लातकं यवानी च विडङ्ग गजपिप्पली ॥ घीको छान लें। हिङ्गसौवर्चलं चैव त्वजानी विडधान्यकम् । इसके सेवनसे उदरव्याधि, सूजन, अपान सामुद्रं सैन्धवं क्षारं चित्रकं वचया सह ॥ वायुका रुकना, गुल्म और बवासीरका नाश होता है। एभिरर्धपलैर्भागैर्वृतप्रस्थं विपाचयेत् । (मात्रा-१ से २ तोले तक। अनुपान पीप- | दशमूलरसे सिद्ध पयसाष्टगुणेन वा ॥ लका काथ या गर्म जल । ) मन्दाग्नेश्च हितं सिद्धं ग्रहणीदोषनाशनम् । (३०४३) दशमूलषट्पलघृतम् (२) विष्टम्भमामं दौर्बल्यं प्लीहानमपकर्षयेत् ॥ (द्वं. मा.; च. द. । कास. चि.) कासं श्वासं क्षयं वापि दुर्नामसभगन्दरम् । दशमूलीचतुप्पस्थे रसे प्रस्थोन्मितं हविः। कफजान्हन्ति रोगांश्च वायुजान्कृमिसम्भवान॥ सक्षारैः पश्चकोलैस्तु कल्कितं साधुसाधितम् ॥ तान्सर्वान्नाशयत्याशु शुष्कं दार्वनको यथा ॥ कासहपाचशूलनं हिकावासनिबर्षणम् । कल्क-कालीमिर्च, पीपलामूल, सोंठ, पीपल, कल्क षट्पलमेवात्र ग्राहयन्ति भिषग्वराः ॥ शुद्ध भिलावा, अजवायन, बायबिडंग, गजपीपल. दशमूलका क्वाथ ? प्रस्थ ( ८ सेर ), घी १ । हींग, सश्चल ( काला नमक), जीरा, बिड लवण, प्रस्थ । २ सेर) तथा पीपल, पीपलामूल, चव, ' धनिया, समुद्रनमक, सेंधानमक, यवक्षार, चीता For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । घृतप्रकरणम् ] और बच । प्रत्येक आधा आधा पल ( २॥ -२॥ तोले) लेकर सबको पानीके साथ पत्थर पर पीस लें । द्रव पदार्थ - दशमूलका काथ १६ सेर, या गायका दूध १६ सेर । विधि - २ सेर घी और द्रवपदार्थ तथा कक द्रव्योंको एकत्र मिलाकर पकावें । जब द्रव पदार्थ जल जायं तो घीको छान लें। यह घृत अग्निमांद्य, ग्रहणीविकार, विष्टम्भ, आम, दुर्बलता, तिल्ली, खांसी, श्वास, क्षय, बवासीर, भगन्दर, कफज और वातज रोग तथा कृमिजन्य रोगोंको नष्ट करता है । ( मात्रा -- १ से २ तोले तक । दूध या गरम पानीके साथ पियें । ) (३०४५) दशमूलादिघुतम् (२) ( च. सं. । चि. अ. २८; ग. नि. । घृता.; वं. से. । वातव्या . ) द्रोणेऽम्भसः पचेद्भागान् दशमूलांश्चतुष्पलान् । rahtoकुलत्थानां भागैः प्रस्थोन्मितेः सह ॥ पादशेषेरसे पिष्टैर्जीवनीयैः सशर्करैः । तथा खर्जूरकाश्मर्यद्राक्षाबदरफल्गुभिः ॥ सक्षीरैः सर्पिषः प्रस्थं सिद्धं केवलवातनुत् । निरत्ययं प्रयोक्तव्यं पानाभ्यञ्जनवस्तिषु ॥ दशमूलकी हरेक चीज़ ४ पल ( २० तोले ) तथा जौ, कुलथी और बेर १-१ प्रस्थ ( ८० तोले ) लेकर सबको अधकुटा करके ? द्रोण ( ३२ सेर ) पानी में पकावें । जब चौथा भाग ( ८ सेर) पानी बाकी रह जाय तो काथको Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५५ ] छान लें। फिर यह क्राथ, २ सेर घी, २ सेर दूध और जीवनीय गण, खांड, खजूर, खम्भारोके फल, दाख (मुनक्का ), बेर, और कमर के फलों का समान भाग मिश्रित २० तोले कल्क लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें और पानी जल जाने पर घृतको छान लें | इसे पिलाने या अभ्यंग अथवा वस्ति द्वारा प्रयुक्त करने से वातव्याधि नष्ट होती है । नोट-यह वृत एकदोषज (केवल वातज ) व्याधि में हितकर है। (३०४६) दशमूलादिघृतम् (३) (च. सं. । चि. स्था. अ. २२.; ग. नि. । घृता.; र. र.; च. द. वृ. मा., .वं. से. । कासा.; ध. । राजय ) दशमूलाढके प्रस्थं घृतस्याक्षसमैः पचेत् । पुष्कराराठी बिल्युरन्यषङ्गिभिः ॥ पे पेयानुपानं तत् वातकफात् । श्वासरोगेषु सर्वेषु नाड च ॥ काथ— दशमूह २ र पानी ३२ सेर । शेप ८ सेर । कल्क-पोखरमूल, राठी ( कचूर), बेलछाल, तुलसी, सांठ, मिर्च, पीपल, और होरा । प्रत्येक ११ तोला लेकर पानी के साथ पीसलें । विधि-२ सेर बीमें उपरोक्त हाथ और कल्क मिलाकर कापावें । यह घोantar समी और वासको नष्ट करता है अनुशन - ऐया (पात्रा - १२ लोला तक 1 ) १ जीवन १९८२ । For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि (३०४७) दशमूलादिघृतम् (४) | काथ ८ सेर, घी २ सेर, कल्ककी सब चीजें स (वं. से. । अति.) | मान भाग मिश्रित १३ तोले ४ माशे।) विश्वौषधस्य गर्भण दशमूलजले शृतम् । । (३०५०) दशमूलाचं घृतम् (१) घृतं निहन्त्यतीसारं ग्रहणी पाण्डुकामलाम् ॥ ( वृ. नि. र. । क्षय; वृ. मा; वं. से. । राजयः; सांठका कल्क १३ तोले ४ माशे, घी २ ग. नि. । स्वरभे.) सेर, दशमूलका काथ ८ सेर ।(४ सेर दशमूलको दशमूली शृतात्क्षीरात्सपियदुदियान्नवम् । ३२ सेर पानीमें पकाकर ८ सेर शेष रक्खें।) सपिप्पलीकं सक्षौद्रं तत्परं स्वरशोधनम् ॥ ___ सबको एकत्र मिलाकर काथ जलने तक शिर:पाश्वणिशूलनं कासश्वासज्वरापहम् । पकावें। सिद्धं जगति विख्यातं शोषिणां परमौषधम् ॥ ___यह घी अतिसार, संग्रहणी, पाण्डु और दशमूल २० तोले, गायका दूध ४ सेर, कामलाको नष्ट करता है। पानी १६ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पकावें । (३०४८) दशमूलादिघृतम् (५) जब पानी जल जाय तो दूधको छानकर उसका (वं. से., वृ. नि. र.; यो. र. । नेत्ररोग.) । दही जमा दें। वातिके तिमिरे पक्वं दशमूलीरसे घृतम् । इस दहीसे निकाले हुवे नवनी .पी (मक्खन त्रिच्चूर्णसमायुक्तं विरेकार्थ प्रयोजयेत् ॥ । -नवनीत ) में पीपलका चूर्ण और शहद मिला वातज तिमिर रोगमें दशमूलके काथ से | कर सेवन करनेसे शिर, पसली, और शरीरकी पके हुवे घीमें निसोतका चूर्ण मिलाकर उससे | पीड़ा तथा खांसी, श्वास और ज्वर नष्ट होता है। विरेचन कराना चाहिए। यह अत्यन्त स्वर शोधक और शोष रोगि(दशमूलका काथ ४ सेर, घी १ सेर । मात्रा | योंके लिए परमौषध है। ३-४ तोले । निसोतका चूर्ण ३ से ६ ( मात्रा-घी १ से २ तोले तक, शहद ६ माशे तक ।) माशेसे १ तोले तक, पीपलका चूर्ण १ से २ (३०४९) दशमूलादिघृतम् (६) माशे तक ।) ( यो. र.; वं. से.; ग. नि. । उदररो.; वृ. । (३०५१) दशमूलाचं घृतम् (२) यो. त. । त. १०५; यो. चिं. । अ. ५) (वं. से. । हिक्का.; च. सं. । चि. अ. २१) दशमूलीकपायेण रास्नानागरदारुभिः । दशमूलीरसे सर्पिर्दधिमण्डेन साधयेत् । पुनर्नवाभ्यां च घृतं सिद्धं वातोदरापहम् ॥ ! कृष्णासौवर्चलक्षारवयस्थाहिजरोचकैः ॥ दशमूलके क्वाथ और रास्ना, सोंठ, देवदारु, कायस्थया च तत्पानाद्धिकाश्वासो नियच्छति॥ तथा सफेद और लाल पुनर्नवाके कल्कसे पकाया दशमूलका काथ ४ सेर, घी २ सेर, दहीका हुवा घृत वातोदरको नष्ट करता है । ( दशमूलका ' पानी ४ सेर, पीपल, सञ्चल ( काला नमक ), For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतीयो भागः। [५७] यवक्षार, आमला, हींग, बिजौरेकी छाल और हर्र/ पीसकर कल्क बनावें । तत्पश्चात् यह कल्क, २ का कल्क २० तोले (सब समान भाग मिश्रित) | सेर घी, ८ सेर दूध और ८ सेर पानी एकत्र लेकर सबको एकत्र मिलाकर घृत मात्र शेष रहने मिलाकर पकावें । जब घृत मात्र शेष रह जाय तक पकावें । तो उसे छानकर रक्खें ।। ___.यह घृत हिचकी और श्वासको नष्ट करता यह “दशाङ्ग घृत " वातगुल्म, कृमि, प्लीहा, ज्वर, खांसी, हिचकी और अरुचि, को नष्ट करता है। ( मात्रा-१ से २ तोले तक।) (मात्रा १ से २ तोले तक । ) (३०५२) दशमूलीघृतम् (३०५४) दाडिमार्च घृतम् (१) (च. सं. । चि. अ. ५) (ग. नि. । परिशिष्ट घृता.) सव्योषक्षारलवणं दशमूलीभृतं घृतम् ।। दारिमं तिन्तडीकश्च नागपुष्पं शतावरी । कफगुल्मञ्जयत्याशु सहिङ्ग:विडदाडिमम् ।। काकोली क्षीरकाकोली बिदारी यक्षहस्तकः ॥ ___दशमूलका काथ ८ सेर, घी २ सेर तथा बीजपूरकमूलं च राजक्षात्मगुप्तयोः। सांठ, मिर्च, पीपल, यवक्षार, सेंधानमक, हींग, | कुष्ठं चेति समैरेतेश्रुतपस्थं विपाचयेत् ॥ विडनमक और अनारदानेका कल्क १३ तोले चतुर्गुणेन पयसा जलेनाष्टगुणेन च । ४ माशे लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें। | तत्सपिः पिबतः सिद्ध कासश्वासापतानकाः॥ .यह घृत कफज गुल्मको अत्यन्त शीघ्र नष्ट हृद्रोगो रक्तपित्तश्च चिराधान्ति संक्षयम् ।। कर देता है। अनार दाना, तितडीक, नागकेसर, शतावरी, ( मात्रा-१ से २ तोले तक । गर्म पानीमें काकोली, क्षीर काकोली ( दोनेके अभावमें असडालकर पियें।) गन्ध ), विदारीकन्द, अरण्डकी जड़, बिजौरेकी (३०५३) दशाङ्गघृतम् जड़, अमलतासकी जड़, कौंचकी जड़, और कूठ; (ग. नि. । घृता० ) सब चीजें समान भाग मिलाकर २० तोले लें पावशूकं वचा व्योष विडॉ कटुरोहिणीम् । | और पानीके साथ पत्थरपर पीस लें । फिर यह सौवर्चलं हरीतक्यचित्रकं चाक्षसंमितैः॥ पिसी हुई ओषधियां और २ सेर घी, ८ सेर दूध पभिः पचेघृतं दत्त्वा क्षीरजलाटकम् ।। तथा १६ सेर पानी को एकत्र मिलाकर पकावें । तत्पकं वातगुल्मघ्नं कृमिप्लीहज्वरापहम् ॥ जब दूध और पानी जल जाय तो घीको छान लें। कासहिकारुचिहरं दशा नाम दीपनम् ॥ इसके सेवनसे खांसी, श्वास, अपतानक, __ जवाखार, बच, सेठ, मिर्च, पीपल, बाय- हृद्रोग और रक्तपित्त, अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो बिडंग, कुटकी, सञ्चल ( काला नमक ), हर्र, और जाते हैं। चीता हरेक ११-११ तोला लेकर पानीके साथ | ( मात्रा-१ से २ तोले तक।) For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । [ ५८ ] (३०५५) दाडिमाद्यं घृतम् (२) ( ग. नि. । घृता.; च. सं. । चि. अ. २०. ) दाडिमात्कुडव धान्यात्कुडवा पले पलम् । चित्राच्छ्रङ्गवेराश्च पिप्पल्यष्टमिका तथा ॥ कल्कैस्तै विंशतिपलं घृतस्य सलिलाढके । सिद्धं हत्पाण्डुगुल्मार्थः प्लीहवातार्त्तिशूलनुत् ॥ दीपनं श्वासकासनं मूढवातानुलोमनम् । दुःखमसविनीनां च वन्ध्यानां चैव पुत्रदम् ॥ २० पल (२॥ सेर) घी, ८ सेर पानी और २० तोले अनारकी छाल ( या अनारदाना ), १० तोले धनिया, तथा ५-५ तोले दन्ती और सांठ एवं २ ॥ तोले पीपलके कल्कको एकत्र मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें। भारत 1 यह घृत हृद्रोग, पाण्डु, गुल्म, अर्श, तिल्ली वातव्याधि, शूल, श्वास, खांसी, और मूढवात को नष्ट करता तथा अग्नि प्रदीप्त करता है । जिन स्त्रियोंके सन्तान न होती हो या जिनको प्रसवके समय अधिक कष्ट होता हो उनके लिए हितकारी है 1 ( मात्रा १ से २ तोले तक । ) (३०५६) दाडिमाद्यं घृतम् (३) ( भै. र.; वं. से.; र. र. । प्रमे.; वृ. यो. त. । त. १०३; भा. प्र. ख. २ । प्रमे. ) दाडिमस्य तु बीजानि कृमिघ्नस्य च तण्डुलाः । रजनी fastent त्रिफला नागरङ्कणा || Preventa बीजानि यमानी धान्यकन्तथा । वृक्षाम्लञ्चपलाको सिन्धूद्भवसमायुतम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ दकारादि कल्कैरक्षसमैरेभिर्धृतप्रस्थं विपाचयेत् । पाने भोज्ये च दातव्यं सर्वर्त्तषु च मात्रया ॥ प्रमेहान् विंशतिविधान् मूत्राघातांस्तथाश्मरीम् । कृच्छ्रं सुदारुणञ्चैव हन्यादेतन्न संशयः ॥ विबन्धानाहशूलघ्नं कामलाज्वरनाशनम् 1 दाडिमाद्यं घृतं नाम्ना अश्विभ्यां निर्मितं पुरारा ॥ ( अत्र चपला पिप्पलीमूलमिति छन्दः गजपिप्पलीति पद्मसेन त्रिपुरकवीन्द्रौ ।) १ अनारदाना, बायबिडंगके चावल, हल्दी, चव, जीरा, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, पीपल, गोखरू, अजवायन, धनिया, वृक्षाम्ल ( तितंडीक ), पीपलामूल (या गजपीपल), बेर और सेंधा नमक । हरेक चीज ११-१| तोला लेकर सबको पानीके साथ पत्थर पर पीसकर कल्क बनावें । तत्पश्चात् २ सेर घी में यह कल्क और ८ सेर पानी मिलाकर पकायें और पानीके जल जाने पर घीको छान लें । यह घी २० प्रकारके प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी, भयङ्कर मूत्रकृच्छ्र, विबन्ध, अफारा, शूल, काला और ज्वरको नष्ट करता है । इसे सभी ऋतुओं में भोजन के साथ खिला सकते हैं या वैसे ही पिला सकते हैं । ( मात्रा - १ से २ तोले तक । ) (३०५७) दाधिकं घृतम् (१) ( वा. भ. । चि. अ. १४. ग. नि. । परि. घृता. ) दशमूलं बलां कालां सुपवीं है। पुनर्नवौ । पौष्करैरण्डरास्नाश्वगन्धाभाङ्गर्यमृताशठीः ॥ १ - बायबिडंगको धानोंकी तरह कूटकर निकाली हुइ तुष रहित गिरी 1 For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५९] पचेद्गन्धपलाशीश्च द्रोणेऽपां द्विपलोन्मितम् । कल्क-भरंगी, तुम्बुरु, बच, पीपलामूल, यकैः कोलैः कुलत्यैश्च माषैश्च पास्थिफैः सह ॥ रास्ना, चीता, धनिया, अजवायन, खुरासानी अजकाथेऽस्मिन्दधिपात्रे च घृतप्रस्थं विपाचयेत् । वायन, अमलबेत, कालाजीरा, जीरा, हींग, हाऊस्वरसैर्दा डिमाम्रातमातुलुङ्गोद्भवेयुतम् ॥ बेर, कलौंजी, बासा, रेह मिट्टी, दन्तीमूल, निसोत, तथा तुषाम्बुधान्याम्लयुतैः श्लक्ष्णैश्च कल्कितैः। मूर्वा, गजपीपल, वायबिडंग, अनारकी छाल (या भाओतुम्बुरुषड्ग्रन्थाग्रन्थिरास्नानिधान्यकैः ।। अनारदाना ), गोखरु, खीरे और ककड़ीके बीज, यवानकयवान्यम्लवेतसासितजीरकैः।। कटेली, पत्थरचटा, सौंफ, सज्जीक्षार, यवक्षार, अजाजीहिन पुषाकारवीवृषकोषकैः ॥ तुलसी, सारिवा, नीलके फल, सोंठ, मिर्च, पीपल, निकुम्भकुम्भमभपिप्पलीबेलदाडिमैः । सेंधा नमक, काच लवण और विड लवण । सब श्वदंष्ट्रात्रपुसेवा रुवीज हिंस्राश्मभेदकैः ॥ चीजें समान भाग मिलाकर २० तोले लें और मिसिद्विक्षारसुरससारिवानीलिनीफलैः। पानीके साथ पत्थर पर पिसवा लें। त्रिकटुत्रिपटपेतैर्दाधिकं तद्वयपोहति ॥ विधि-क्काथ, अन्य द्रव पदार्थ और रोगानाशुतरान्पूर्वाकष्टानपि च शीलितम् । कल्क तथा २ सेर घीको एकत्र मिलाकर पकावें, अपस्मारगरोन्मादमूत्राघातानिलामयान् ॥ । जब द्रव पदार्थ जल कर घी मात्र शेष रह जाय काथ्य द्रव्य-दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, तो उसे छान लें। . बला (खरैटी ), नीलका पञ्चाङ्ग, कलौंजी, सफेद इस 'दाधिक घृत' के सेवनसे कष्ट साध्य और लाल पुनर्नवा ( साठी), पोखरमूल, अरण्डकी अपस्मार, विषविकार, उन्माद, मूत्राघात और वातजड़, रास्ना, असगन्ध, भरंगी, गिलोय, शठी | व्याधिका शीघ्र ही नाश हो जाता है। (कचूर) और कपूरकचरी । प्रत्येक २ पल (१०- ( मात्रा १ तोले से २ तोले तक।) १० तोले ) तथा जौ, कुलथी, बेर, और उर्द; नोट--उपरोक्त पाठ वागभट्ट से उद्धृत किया हरेक १ प्रस्थ (८० तोले ) पानी १ द्रोण गया है । गदनिग्रह के पाठानुसार इस प्रयोग में (३२ सेर)। निम्न लिखित अन्तर पड़ता हैसबको अधकुटाकरके पकावें । जब ८ सेर गद निग्रह में काथमें-लाल पुनर्नवा, पानी रह जाय तो ठण्डा करके छान लें। अरण्ड, भरंगी और गन्धपलाशी नहीं है तथा ___ अन्य द्रवपदार्थ-दही ४ प्रस्थ (८ | गोखर और देवदारु अधिक हैं। सेर), अनारका स्वरस ८ सेर, अम्बाडाका स्वरस ___कल्कमें-बच, कालाजीरा, सौंफ, सारिवा, ८ सेर, बिजौरे नीबूका रस ८ सेर, तुषाम्बु८ सेर | नील के फल, सोंठ और पीपल नहीं हैं तथा दोनों और काजी ८ सेर । । पुनर्नवा, खरैटी, पाठा और शतावर, अधिक हैं। 1 तुषाम्बु और काजी बनानेकी विधि भारत भै. र. भाग १ के पृष्ठ ३५४ पर देखिये । For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य - रत्नाकरः । [ ६० ] द्रव पदार्थोंमें—गदनिग्रह में शुक्त अधिक लिखा है । शेष प्रयोग दोनों में समान है । (३०५८) दाधिकं घृतम् (२) ( च. द. । शूला. ) furrat नागरं बिल्वं कारवी चव्यचित्रकम् । हिङ्गुदाडिमवृक्षाम्ल व चाक्षाराम्लवेतसम् ॥ वर्षाकृष्णलवणमजाजीबीजपूरकम् । दधित्रिगुणितं सर्पिस्तत्सिद्धं दाधिकं स्मृतम् || गुल्मार्शः प्लीहहत्पार्श्वशूलयोनिरुजापहम् । दोषसंशमनं श्रेष्ठं दाधिकं परमं स्मृतम् ॥ कल्क द्रव्य - पीपल, सेठ, बेल छाल, कलौंजी, चव, चीता, हींग, अनारदाना, तिन्तड़ीक, बच, यवक्षार, अम्लवेतस, पुनर्नवा, काला नमक ( सञ्चल ), जीरा और बिजौरे नीबूकी छाल; सब चीजें समान भाग मिलाकर २० तोले लें। कल्ककी चीज़ों को पानी के साथ पीसलें फिर उन्हें २ सेर घी में मिला दें और उसमें ६ सेर दही डालकर कावें । यह घृत गुल्म, अर्श, तिल्ली, हृदयका शूल, पसली -शूल और योनि-शूलको नष्ट तथा दोषोंको शमन करता है । नोट- पाककी उत्तमता के लिये ८ सेर पानी भी डालना चाहिये । (३०५९) दाधिकं घृतम् (३) (बृ. यो. त. । ९८ त.; ग. नि. । धृता.; यो, र. । गुल्म; वं. से. । गु.; सु. सं. । चि. अ. गुल्म. ) विदाडिम सिन्धूत्थहुतभुग्व्योषजीरकैः । हिक्सौवर्चल क्षारचुक्रक्षाळषेतसेः || [ दकारादि बीजपूररसोपेतैः सर्पिर्दधिचतुर्गुणम् । साधितं दाधिकं नाम्ना गुल्महत्लीहनुत्परम् ॥ विडलवण, अनारदाना, सेंधानमक, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल, जीरा, हींग, सञ्चल ( कालानमक ) यवक्षार, चूका, तिंतड़ीक, और अमलबेत के कल्क, चार गुने दही, और बिजौरे के रससे सिद्ध किया हुआ घृत हृद्रोग, गुल्म और प्लीहा है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( कल्ककी सब चीजें समान भाग मिली हुई २० तोले, घी २ सेर, दही ८ सेर, बिजौरेका रस २ सेर, पानी ८ सेर । ) (३०६०) दारुहरिद्रादिघृतम् ( चं. सं. । चि. अ. १० ) त्वक् च दारुहरिद्रायाः कुटजस्य फलानि च । पिप्पली शृङ्गवेरश्च द्राक्षा कटुकरोहिणी ॥ षडूभिरेतैर्धृतं सिद्धं पेयामण्डावचारितम् । अतीसारं जयेच्छीघ्रं त्रिदोषमपि दारुणम् ॥ दारूहल्दी की छाल, इन्द्रजौ, पीपल, सोंठ, दाख और कुटकीके कल्क तथा काथ से सिद्ध घृत पेया या मण्डके साथ पीनेसे त्रिदोषज अतिसार भी नष्ट हो जाता है । ( निर्माण विधि - काथके लिए सब चीजें मिलाकर २ सेर लें और १६ सेर पानी में पकाकर ४ सेर पानी शेष रक्खें फिर उसमें १ सेर घो और उपरोक्त चीज़ोंका समान भाग मिश्रित ६ तोले ८ माशे कल्क मिलाकर पानी जलने तक पकावें । ) (३०६१) दार्व्यादिघृतम् (ग.नि. 1 विसर्प. ) दार्वीत्वमधुकं रोधं केसरं चावचूर्णितम् । पटोलपत्रं त्रिफलां कुर्यादि पलोन्मितान् ॥ पक्कं यष्ट्याह्नकल्केन घृतं स्यादुत्रणरोपणम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम] तृतीयो भागः। [६१] दारुहल्दीकी छाल, मुलैठी, लोध, नागकेसर, | इन्द्रजौ, और सारिवा । हरेक चीज ११-१॥ तोला पटोलपत्र, हर्र, बहेडा और आमला । हरेक २॥- लेकर सबको पानीके साथ पत्थर पर पीसलें । २॥ तोले लेकर २ सेर पानीमें पकावें, जब आधा विधि-२ सेर घी, ४ सेर दूध, उपरोक्त सेर पानी रह जाय तो छान लें । इसमें १० तोले काथ और कल्क एकत्र मिलाकर पकावें । जब घी और १ तोले ८ माशे मुलैठीका कल्क मिलाकर घृत मात्र शेष रह जाय तो छान लें ॥ काथ जलने तक पुनः पकावें ।। ___यह घृत ज्वर, दाह, भ्रम, खांसी, कन्धोंकी इस घी के लगाने से अण भरजाते हैं। पीड़ा, पसलीका दर्द, शिरशूल, तृष्णा, छर्दि, और नोट-उपरोक्त सब चीजोंका काथ न बना अतिसारको नष्ट करता है। (मात्रा १ से २ तोले तक ।) कर कल्क डालने से अधिक गुणकारी होगा। उस दशामें २ सेर घी और ८ सेर पानी मिला ( पाककी उत्तमताके लिये ८ सेर पानी भी कर पकाना चाहिये। डालना चाहिये ।) (३०६२) दुरालभायं घृतम् | (३०६३) दूर्वादितम् (१) (च. सं. । चि. अ. ८) (ग. नि. । विसर्प.) दुराममा श्वदंष्टाश चतनः पणिनीलाम् । दस्विरससिद्धच घृतं स्याव्रणरोपणम् । भागान्पलोन्मितान् कृत्वा पलं पर्यटकस्य च ॥ पशगुणे तोये दशभागावशेषिते । दुबके स्वरसके साथ पका हुवा घृत लगाने से प्रण (घाव ) भर जाते हैं। रसे सपूते द्रव्याणामेषां कल्कान्समावपेत् ॥ अठचाः पुष्करमूलस्य पिप्पलीत्रायमाणयोः।। (दूबका स्वरस ४ सेर, पानी ४ सेर, धी तामलक्याः किरावानां तिक्तस्य कुटजस्य च ॥ १ ) फलानां शारिवायाच मुपिष्टान् कर्षसम्मिताना दूर्वादिघृतम् (२) ततस्तेन घृतमस्यं क्षीरद्विगुणितं पचेत् ॥ | ( . मा.; वं. से. । आगन्तुक व्रण; वृ. यो. त.। ज्वरं दाई भ्रम काममंसपार्श्वशिरोरुजम्। त. ११२; भै. र.; च. द. । व्रणशोथ ।) तृष्णां छर्दिमतीसारमेतान्सपिरपोहति ॥ दूर्वादि तैल सं. ३१०८ देखिये। काथ-धमासा, गोखरु, शालपर्णी, पृष्ट- (३०६४) दूर्वा दिघृतम् (३) पर्णी, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, पित्तपापड़ा और खरैटी। (वृ. नि. र.; यो. र. । विसर्प.) सब चीजे ५-५ तोले लेकर १० सेर पानी में दुर्वावटोदुम्बरजम्बुशाल पकावें और १ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। सप्तच्छदाश्वत्थकषायफल्कैः। कल्क-शठी (कचूर ), पोखरमूल, पीपल, सिद्धो विसर्पज्वरदाहपाक प्रायमाना, मुईआमला, चिरायता, पटोलपत्र, विस्फोटनोफान्विनिहन्ति सर्पिः॥ For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि दूर्वा ( दूब घास ), बड़ की छाल, गूलरकी छाल । सफेद चन्दन । हरेक चीज ११-१॥ तोला लेकर जामन की छाल, सालकी छाल, सतवन (सतौना) | सबको पानीके साथ पीस लें फिर २ सेर घीमें यह की छाल और पीपल वृक्षकी छालके काथ और कल्क और ८ सेर बकरीका दूध तथा ८ सेर तण्डुकल्क से सिद्ध घृत ज्वर, दाह, पाक, विस्फोटक | लोदक ( चावलोंका पानी ) मिलाकर पकावें । और शोफ युक्त विसर्पको नष्ट करता है। जब घृत मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। ( विधि-कषाय के लिए सब चीजें समान यह घृत हर प्रकार के रक्तपित्तको नष्ट भाग मिलाकर १।। सेर लें और १२ सेर पानीमें | करता है । यदि रक्त की उल्टी होती हो तो यह पफाकर ३ सेर शेष रक्खें । कल्कके लिए सब | घी पिलाना चाहिए; नाकसे रक्त निकलता हो तो चीजें समान भाग मिश्रित १० तोले लेकर पानी | इसे नाकमें डालना चाहिए, कानोंसे रक्त आता के साथ पीसलें । काथ, कल्क और ६० तोले हो तो इसे कानों में भरना चाहिये, यदि आंखों धीको एकत्र मिलाकर पकावें।) से रक्तस्राव होता हो तो आंखों में भरना चाहिये, (३०६५) दूर्वाधं घृतम् यदि गुदा या लिंगसे खून आता हो तो इससे बस्ति ( भै. र.; वं. से.; यो. र.; वृं. मा.; च. द.; भा. | और उत्तरबस्ति करानी चाहिये और यदि प्र. । रक्तपित्त.; वृ. यो. त. । त. ७५.; ग. | रोमकूपोंसे रक्त स्राव होता हो तो शरीरपर नि. । घृता.; यो. त. । त. २६; इसकी मालिश करानी चाहिए। दुर्वासोत्पलकिनकममिष्ठासलवालुकम् । (खाने के लिये मात्रा-२ तोले । बकरीके मूलोध्रमुशीरश्च मुस्तं चन्दनपनकम् ॥ - गर्म करके ठंडे किये हुवे दूधके साथ । ) द्राक्षामधुकपथ्याच काश्मरी चन्दनं सितम्। । (३०६६) देवदादिघृतम् एतैः पिष्टं कर्षमात्रैतमस्थं विपाचयेत् ॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४४) अजाक्षीरं तण्डुलाम्बु पृथक् दत्त्वा चतुर्गुणम् । देवदारु रजनीघनं सठी पुष्कर कुटजबीजमागधी तत्पानं वमतो रक्तं नावनं नासिकागते ॥ कुष्ठरोध्रचविकायवासकं कथितं च पुनरेव कर्णाभ्यां यस्य गच्छेत्तु तस्य कौँ प्रपूरयेत् । विस्रुतम् ॥ चक्षुः स्राविणी रक्ते च पूरपेत्तेन चक्षुषी ॥ तत्र गुग्गुलु विनिक्षिपेत् पुनः शुण्ठिसैन्धवमेढ़पायुपत्ते च तत्कर्मसु तद्धितम् । फलत्रिक हितम् । रोमकूपप्रवृत्ते च तदभ्यङ्गे प्रयोजयेत् ॥ चूर्णितं दधिपयोविमिश्रितं पाचितं च नवनीदूब घास, नीलोत्पल (नीलकमल),नागकेसर, तकंच तत् ॥ मजीठ, एलवाल, मूर्वा, लोध, खस, मोथा, लालचन्दन, सिद्धमेव विदधीत शीतलं शर्करायुतमिदं तु पनाक, दाख, मुलैठी, हर्र, खम्भारीके फल और नस्यकम्। तण्डुलोदक बनानेकी विधि भा. भै. र. प्रथम भाग पृष्ट ३५३ पर देखिये। For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] तृतीयो भागः। [६३] नस्यकर्मशिरसोरुजापहं भ्रललाटभुजशङ्खमू । पीपल, वृश्चिकाली (विछाटी), लोह चूर्ण, हल्दी, - लकम् ॥ । दारु हल्दी, चीता, भारंगी, दो प्रकारका पाठा, शीर्षरोगमपि चर्षिशीर्षकं तोदने च विहिते पुनर्नवा ( बिसखपरा ), बायबिडंग, पीपल और न केवलम् । । लोध । सब चीजें समान भाग मिलाकर २० तोले कर्णरोगमपि वारयत्यपि देवदारुजघृतंपरंस्मृतम् ॥ लें और पानीके साथ पीसकर कल्क बनावें तत्प काथ-देवदारु, हल्दी, नागरमोथा, सठी श्चात् इस कल्क और ८ सेर गोमूत्र के साथ २ (कचूर), पोखरमूल, इन्द्रजौ, पीपल, कठ, लोध, सेर घृत पकावें। यह घृत पाण्डु, हृद्रोग, ग्रहणी और अर्शादि चव, और जवासा। सब समान भाग मिलाकर गुदरोगों को नष्ट करता है। २ सेर लें और १६ सेर पानीमें पका जब ४ सेर (मात्रा-१ से २ तोलेतक । ) पानी शेष रहे तो छान लें। नोट-इसमें पाकके समय फेन अधिक कल्क-गूगल, सेठ, सेधा, हरे, बहड़ा आएंगे इसलिये बडे बरतनमें पकावें । और आमला सब समान भाग मिलाकर २० ताल (३०६८) द्राक्षाघतम् (१) लें और पानीके साथ पीसलें । (च. सं. । चि. अ. २०; च. द. । पाण्डुः ; विधि-कल्क, काथ, २ सेर नवनीत ग. नि. । घृता.) ( दहीका मक्खन), २ सेर दूध और ४ सेर दही पुराणसर्पिषःप्रस्थो द्राक्षाप्रस्थसाधितः । एकत्र मिलाकर पकावें। जब घृतमात्र शेष रह जाय कामलागुल्मपाण्ड्वतिज्वरमेहोदरापहः ॥ तो उसे छानकर ठण्डा करके उसमें (आधा सेर ) ___पुराना घी २ सेर, दाख (मुनक्का) का कल्क खांड मिलावें। (बीज रहित और पत्थर पर पिसा हुवा) आधा इसकी नस्य लेनेसे शिरपीडा, शिरके अन्य सेर (तथा पानी ८ सेर) लेकर सबको एकत्र मिलारोग, भ्र ललाट भुज और शङ्ख प्रदेशकी पीड़ा, कर पकावें।। आधासीसी, और कर्णरोग नष्ट होते हैं। ___ यह घृत कामला, गुल्म, पाण्डु, ज्वर, प्रमेह (३०६७) देवदाचं घृतम् और उदररोगोंको नष्ट करता है । (वं. से. । पाण्डु.) (मात्रा-३ से ६ माशे तक ।) देवत्रिफलाम्योपश्चिकालीबयोरजः। (३०६९) द्राक्षाघृतम् (२) हरिने चित्रकं भार्गी पाठे द्वे च पुनर्नवा ।। (वै. क. दु. । स्क. २ राजय.; यो. र.; वं. विड पिप्पली लोभ्रं पचेन्मूत्रचतुर्गुणे। से. । क्षत.; भा. प्र. । ख. २ उरःक्षत; ग. घृतं तत्पाण्डुहृद्रोगग्रहणीगुददोषनुत् ।। नि.। घृता.; वृ. यो. त. । त.७७; यो. त.। देवदारु, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, त. २८) १ गदनिप्रहमें इलोक भिन्न है, प्रयोग यही है। For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि द्राक्षायाः संमतं प्रस्थं मधुकस्य पलाष्टकम् । । त्रायन्तिकापकिरातधान्यैः कल्कैःपचेत्सर्पिरुपचेत्तोयाढके सिद्ध पादशेषेण तेन तु ॥ पेतमेभिः ॥ पलिके मधुकद्राक्षे पिष्टे 'कृष्णापलद्वयम् । भुब्जीत मात्रां सह. भोजनेन सर्वर्तुपानेप्रदाय सर्पिषः प्रस्थं पचेत्क्षीरे चतुर्गुणे ॥ मृतोपमं च । सिदे शीते पलान्यष्टौ शर्करायाः प्रदापयेत् । बलासपित्तं ग्रहणी प्रवृद्धा कासानिसाद ज्वरएतद्राक्षाघृतं सिद्ध क्षतक्षीणे सुखावहम् ॥ मम्लपित्तम् ॥ वातपित्तज्वरश्वासविस्फोटकहलीमकान् । सर्व निहन्याद् घृतमेतदाशु सम्यक् प्रयुक्तं खमप्रदरं रक्तपित्तं च हन्यान्मांसबलमदम् ॥ तोपमं च ॥ दाख १ प्रस्थ (१ सेर-८० तोले ) और | दाख (मुनक्का), हरं, इन्द्रजौ, पटोलपत्र, मुलैठी ८ पल (४० तोले ), लेकर दोनोंको ८ खस, आमला, जौ, सफेद चन्दन, त्रायमाना, सेर पानीमें पकावें । जब दो सेर पानी रह जाय | पद्माक (या कमल), चिरायता और धनिया समान तो छान लें । फिर यह काथ, २ सेर घी, ८ सेर | भाग मिलाकर २० तोले लें और पत्थर पर पानीको दूध और १-१ पल मुलैठी और दाखका, तथा २ सहायता से पीसकर फल्क बनावें । तत्पश्चात् २ पल (१० तोले) पीपलका कल्क एकत्र मिलाकर | सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर पानी मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान- पानी जलने तक पकावें । कर ठण्डा करके उसमें ८ पल खाण्ड मिलावें। इसे भोजनके साथ खिलानेसे ग्रहणी, खांसी यह द्राक्षाघृत क्षत और क्षीण मनुष्योंके लिए अग्निमांद्य, ज्वर, अम्लपित्त, और कफपित्तज रोग हितकारी तथा वात-पित्तज्वर, श्वास, विस्फोटक, / नष्ट होते हैं । यह सभी ऋतुओंमें सेवन किया जा हलीमक, प्रदर और रक्तपित्त नाशक एवं मांस | सकता है। और बल वर्द्धक है। (मात्रा-१ से २ तोले तक ।) (मात्रा-१ से २ तोले तक । अनुपान-दूध।) (३०७१) द्राक्षादिघृतम् (२) (३०७०) द्राक्षादिघृतम् (१) (च. सं. । चि. अ. ५; यो. र.; वृ. नि. र.; (र. र.; वृ. नि. र.; यो. र.; वं. से; ग. नि.; . ई. मा.; धन्व.; ग. नि.; र. र.; वा. भ.; वं. मा.; च. द. । अम्लपि.; यो. त. । त. १२२) से. । गुल्माधिकार.) द्राक्षाभयाशक्रपटोलपत्रैः सोशीरधात्रीयवचन्द- द्राक्षां मधुकं खरं विदारी सशतावरीम् । नैश्च । परूषकाणि त्रिफलां साधयेत् पलसम्मिताम् ।। १तोयर्मणेति पाठान्तरम् । १ रसरलाकरमें श्लोकमित्रहें तथा हरके स्थानमें गिलोय लिखी है । शेष प्रयोग समान है । १पनेतिपाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम्] तृतीयो भागः। [६५] - जलाढके पादशेषे रसमामलकस्य च । अभावमें शतावर ) और जीवक ( अभावमें विघृतमिथुरसं क्षीरमभयाकल्कपादिकम् ॥ दारीकन्द)। साधयेत्तं घृतं सिद्धं शर्कराक्षौद्रपादिकम् ।। ____ इन तीनों प्रयोगोंमें से किसी के कल्क और प्रयोगात् पिसगुल्मघ्नं सर्वपित्तविकारनुत् ॥ गायके दूधके साथ भैंसका धी पका लीजिये । यह दाख (मुनक्का), मुलैठी, खजूर, बिदारीकन्द, घृत पित्तज हृद्रोगको नष्ट करता है। शतावरी, फालसा (फल), हर्र, बहेड़ा तथा आमला (घी २ सेर, दूध ८ सेर, कल्क २० तोले ।) १-१ पल (५-५ तोले) लेकर सबको ८ सेर (३०७३) द्राक्षादिघृतम् (४) पानीमें पकावें। जब २ सेर पानी शेष रहे तो छान (हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) लें, फिर यह काथ, २ सेर आमलेका रस, २ सेर मृद्वाका मधुकं विदारि वसुधा नीली समझा ईखका रस और २ सेर दूध, तथा २ सेर घी और २० तोले हर्रका कल्फ लेकर सबको काकोल्यो वृहतीयुगं वृषसहामेदा सितं चन्दनम्।! एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जातीपल्लवनिम्बपल्लवशिवाश्यामामृता जीवको। जाय तो छानकर ठण्डा करलें और उसमें २०- | मेदे द्वे भृगु चन्दनं मधुरसा श्यामा समांशा२० तोले मिश्री तथा शहद मिलाकर रक्खें । स्त्वमी।। ___ यह घृत पित्तज गुल्म और अन्य समस्त पित्तज | पक्त्वा गोपयसा दधी च तुलितं चाज्यं चतुरोगोंको नष्ट करता है। थोशका ( मात्रा-१ से २ तोले तक । ) मत्स्यण्डीमधुरं च सिद्धमिति चेत् पानं प्रशस्त (३०७२) द्राक्षादिघृतम् (३) नृणाम् ।। (च. सं. । चि. अ. २६) स्त्रीणां चापि हितं निहन्ति रुधिरं पित्तं गुढे द्राक्षाबलाश्रेयसिशर्कराभिः मेढ़े चापि च रोमकूपकपथे वृतं निहन्त्यसनम् ।। खर्जूरवीरर्षभकोत्पलैश्च । काकोलिमेदायुगजीवकैश्च एतद् द्राक्षाभिधानं घृतमपि विहितं रक्तपित्ते परेरा क्षीरे च सिद्धं महिपीघृतं स्यात् ।। वातामुग्योनिशूले भ्रममदशिलान्मापरक्त(१) द्राक्षा ( मुनक्का ), खरैटी, गजपीपल और मिश्री। বিবালাব বন সংর (२) खजूर, काकोली ( अभावमें असगन्ध ), ऋषभक (अभावमें विदारीकन्द), और कमल। पाने वस्तौ च नस्य हितमपि भाव (३) काकोली, मेदा, महामेदा ( दोनेांके ! For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [६६) भारत-भैषज्य रत्नाकर।। [दकारादि मुनक्का, मुलैठी, बिदारीकन्द, खजूर, नील, । (३०७४) द्राक्षादिघृतम् (५) मजीठ, इन्द्रायन, काकोली, क्षीरकाकोली, बड़ी (च. सं. । चि. स्था. अ. २९; वा. भ. । कटेली; छोटी कटेली, बासा, पियाबांसा, मेदा, चि.. अ. २२ सफेद चन्दन, चमेलीके पत्ते, नीमके पत्ते, हर्र, द्राक्षा मधूकतोयाभ्यां सिद्धं वा ससितोपलम् । काला निसोत, गिलोय, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, भरंगी, लाल चन्दन, मुनक्का और नील घृतं पिबेत्तथा क्षीरं गुडूचीस्वरसे शृतम् ।। दूर्वा; सब चीजें समान भाग मिश्रित २० तोले ___ दाख और मुलैठी (या महुवेके फूलों ) के लेकर पानीके साथ पीसकर कल्क बनावें । फिर काथके साथ घृत पकाकर उसमें मिश्री मिलाकर यह कल्क, २ सेर गायका घी, ८ सेर गायका दूध सेवन करनेसे या गिलोयके स्वरसके साथ दूध पऔर ८ सेर गायका दही लेकर सबको एकत्र मिला काकर सेवन करनेसे वातरक्त नष्ट होता है। कर पकावें । जब दूध इत्यादि जल जाय तो (३०७५) द्राक्षाचं घृतम् कृतको छानलें। (वं. से. । नेत्र.; ग. नि. । परिशिष्ट घृता.। ___ इसे मिसरीसे मीठा करके पीना चाहिये । द्राक्षाचन्दनमञ्जिष्ठाकाकोलीद्वयजीरकैः । यह घृत स्त्री और पुरुष दोनेांकेलिये हित सिताशतावरीमेदापुण्ड्राक्षमधुकोत्पलैः ॥ कारी है। पचेजीर्ण घृतपस्थं समक्षीरं विचूर्णितैः । - इसके सेवनसे गुदा, भग, मेढू और रोम- हन्ति तच्छुक्रतिमिरं रक्तराजी शिरोरुजम् ॥ कूपेसेि निकलने वाला रक्तपित्त भी नष्ट हो जाता है। दाख, सफेद चन्दन, मजीठ, काकोली, क्षीरइसके अतिरिक्त यह धृत ज्वर, वातरक्त, । काकाली, जीरा, मिश्री शतावर, मेदा ( अभावमें योनिशूल, भ्रम, मद, उन्माद, रक्तप्रमेह, पित्तज शतावर ), कमलगट्टा, मुलैठी और कमल के कल्क और रक्तज कुष्ठ, क्षय, क्षत, राजयक्ष्मा और पाण्डु ! तथा समान भाग दूधके साथ पुराना घृत पकाकर को भी नष्ट करता है। सेवन करनेसे आँखांका फूला, तिमिर, लाल रेखाएं ___यह घृत रोगीको पिलानेके अतिरिक्त बस्ती और शिर पीडा नष्ट होती है। और नस्य में भी प्रयुक्त करना चाहिये। (विधि—कल्ककी सब चीजें समान भाग ( पाककी उत्तमताके लिये इसमें ८ सेर मिली हुई २० तोले, दूध २ सेर, पानी ८ सेर, पानी भी डालना चाहिये ।) । घी २ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पकावें । ( मात्रा-१ से २ तोले तक ।) (मात्रा--३ से ६ माशे तक।) १ गदनिग्रहमें श्लोक भिन्न है तथा चन्दन, शतावर और मेदा नहीं लिखीं तथा राजादन (खिरनी) अधिक लिखी है एवं पुण्डाक्ष की जगह पुण्डरीक और जीरककी जगह जीक्क पाठ है। For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] तृतीयो भागः। [६७] (३०७६) विपञ्चमूल्यादिघृतम् । शृते नागरदुःस्पर्शशठीपिप्पलीपोष्करैः। (च. सं. । चि. स्था. अ. १९; वं. से. । प्र.)। कल्कैः कर्कटशृजया च समैः सपिर्विपाचयेत् ।। द्वे पञ्चमूले सरलं देवदारु सनागरम् । सिद्धेऽस्मिन्चूर्णितो क्षारौ द्वौ पश्चलवणानि च । पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्पलीम् ॥ दत्त्वा युक्त्या पिबेन्मात्रां क्षयकासनिपीडितः।। शणबीजं यवान्कोलान् कुलत्यान् सुरभी तथा । काथ-दशमूलकी हरेक चीज, त्रिफला पाचयेदारनालेन दधा सौवीरकेण वा ॥ | (हर्र, बहेड़ा, आमला ), भारंगी, साठ, चीता, चतुर्भागावशेषेण पचेत्तेन घृताटकम् । कुलथ, पीपलामूल, पाठा, बेर और जौ; सब स्वर्जिकायावशूका ख्यौ क्षारौ दत्त्वा च युक्तितः।। चोजें समान भाग मिलाकर ४ सेर लें और ३२ सेर सैन्धवोद्भिदसामुद्रविडानां रोमकस्य च । पानीमें पकाकर ८ सेर शेष रक्खें । ससौवर्चलपाक्यानांभागान् द्विपलिकान् पृथक् कल्क-सेट, धमासा, कचूर, पीपल, पोविनीय चूर्णितान् सिद्धोतत्तो वे द्वे पले पिबेत् । खरमूल, और काकडासिंगी; सब चीजें समान करोत्यग्निं बलं वर्ण्य वातघ्नभुक्तपाचनम् ॥ भाग मिली हुई १३ तोले ४ माशे लेकर पत्थर दशमूल, चीर, देवदारु, साँठ, पीपल, पीपला पर पानीके साथ पीसलें । मूल, चीता, गजपीपल, सनके बीज, जौ, बेर, | विधि-काथ, कल्क और २ सेर घी कुलथ, और शल्लको वृक्ष (शाल विशेष) की छाल एकत्र मिलाकर पकावें जब काथ जल जाय तो समान भाग मिलाकर १६ सेर लें और सबको धीको छानलें और ठण्डा करके उसमें जवाखार, अधकुटा करके १२८ सेर आरनाल, सौवीरक या दही सज्जी खार और पांचां नमक का चूर्ण (२॥ तोले) में पकावें जब ३२ सेर शेष रह जाय तो छानले मिला दें। और उसमें ८ सेर घी तथा १०-१० तोले सजी खार, यवक्षार, सेंधा, उद्भिद् लवण, समुद्रलवण, यह घृत क्षयकी खांसीको नष्ट करता है । विडनमक, रोमकलवण, सञ्चलनमक और शोरा का (मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक ।) कल्क मिलाकर काथ जलने तक पकावें । (३०७८) द्विपञ्चमूलाधं घृतम् (२) इसे १० तोलेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे (ग. नि. । घृता.) अनि तीव्र होती है । यह बल वर्ण वर्द्धक और पाचक है। द्वे पञ्चमूल्यौ त्रिनिकुम्भे (व्यवहारिक मात्रा १ से २ तोले तक ।) ससप्तपलं चित्रकशिमूलम् । (३०७७) विपश्चमूलाचं घृतम् (१) कुरण्टबीजं त्रिफलां गुडूची__(वं. से. | कास.) मेरण्डमूलं मदयन्तिका च ॥ द्विपश्चमूलीत्रिफलाभार्गीशुण्ठीसचित्रकैः। पाठां सभार्गी सुषवीं सनीलां कुलित्यपिप्पलीमूलपाठाकोलयवैर्जले ॥ सरोहिषां पापकुचेलिकाश्च । For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६८] भारत-भैषज्य-रलाकरः। [दकारादि पृथक् पृथत पञ्चपलं जलस्य जब चौथा भाग शेष रहे तो छानले । तत्पश्चात् दोणे. पचेत्तचतुरंशशेषम् ॥ २ सेर धीमें यह काथ और इन्हीं चीजोंका १३ घृतं विपर्व सकषायकल्कं | तोले ४ माशे कल्क. मिलाकर पकावें । निन्ति पीतं सकलोदराणि ॥ यह घृत समस्त उदर रोगोंको नष्ट करता है। दशमूल, निसोत और दन्तीमूल ७-७ पल | नोट-१-पाठा दो जगह आया है इस( हरेक ३५ तोले ); चीता, सहजनेकी जड़की लिये दूना लेना चाहिये । छाल, इन्द्रनौ, हर, बहेड़ा, आमला, गिलोय, अर- २-दशमूलकी हरेक चीज अलग अलग ७ ण्डकी जड़, सेवती, पाठा, भारंगी, कलौंजी, नीलवृक्ष, पल लेनेसे क्याध्य द्रव्यांका परिमाण बहुत अधिक मिर्चियागन्ध, और पाठा; हरेक २५ तोले लेकर हो जाता है इसलिये दशों चीजें मिलाकर ७ पल सबको अधकटा करके ३२ सेर पानीमें पकायें। लेनी चाहिये। इति दकारादिघृतप्रकरणम् । अथ दकारादितैलप्रकरणम् सूचना-प्रयोगमें जहां केवल 'तैल' मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो शब्द लिखा हो वहां तिलतैल लेना चाहिये। छानलें। (३०७९) दध्यादितैलम् | यह तैल वातोदरको नष्ट करता है । (ग. नि. । उदर.) (३०८०) दन्त्याचं तैलम् दध्यारनालकोलाम्बुकुलत्ययवजैः रसैः। (वं. से. । अर्थी.) प्रत्येकमाइकमितैस्तिलतैलाढकं पचेत् ।।। दन्त्यश्वमारकासीसविडङ्गलाग्निसैन्धवैः। बलापुनर्नवायष्टीरास्नानागरदारुभिः।। | सार्कशीरैः पचेतैलमभ्यगात्पायुकीलनुत् ॥ साश्वगन्धः पलाधीशैस्तत्पिवेत्पवनोदरी ॥ __ दन्तीमूल, कनेरकी जड़, कसीस, बायबिडंग, ___ दही, काखी, बेरका काथ, कुलथका काथ | इलायची, चीता और सेंधा नमक समान भाग और जौ का काथ ८-८ सेर, तिलका तैल ८ मिलाकर २० तोले लें और पत्थरपर पानीके साथ सेर तथा खस्टी, पुनर्नवा, मुलैठी, रास्ना, सांठ, / पीसकर कल्क बनालें । फिर इस कल्क, २ सेर देवदार और असगन्धका २॥२॥तोले कल्क एकत्र | आकके दूध और ८ सेर पानी को २ सेर सरसेकि For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलमकरणम् ] तैलमें मिलाकर पकावें । जब सब पानी जल जाय तो तैलको छालें । इस तैलकी मालिशसे गुदाके मस्से नष्ट हो जाते हैं । ( नोट - कोई कोई वैद्य आकका दूध भी दन्तीमूलादिके बराबर लेते हैं । (३०८१) दशनफलादितैलम् (वै.म.र. | प. ११ ) दशनफलमवन्तिसोमके किञ्चिदुत्कथितशोधिते शृतम् । तीक्ष्णकल्कसहितं विनाशयेत्तै लमर्भककपाल जान् गदान् ॥ १ अनार के फलको जरा देर काञ्जी में पकाकर निकाल लीजिये और फिर उन्हें ८ गुने पानी में पकाकर छान लें | तत्पश्चात् उसमें उससे चौथाई | भाग तिलका तैल और तैलका चौथा भाग यवक्षार मिलाकर पकाइये । करञ्जशिग्रुकुटं च चिश्वा च वनशिम्बिका ॥ चित्रकं च पृथग्भागान् दत्त्वा चैषां पलोन्पितान् इलैष्मिकं सन्निपातोत्थं वातश्लेष्मभवं तथा ॥ कर्णशूलं शिरःशूलं नेत्रशूलं च दारुणम् । नष्ट होते हैं । (३०८२) दशपाकबलातैलम् पल-५० तोले), काथ ८ सेर । (२) ( वं. से.; वृ. मा.; वृ. नि. र.; च. द.; ग. नि । वातरता. ) बलाकषायकल्काभ्यां तैलं क्षीरचतुर्गुणम् । दशपाकं भवेत्तेन वाताग्वातपित्तनुत् ॥ धन्यं पुंसवनञ्चैव नराणां शुक्रवर्द्धनम् । रेतोयोनिवि कारघ्नमेतद्वातविकारनुत् ॥ इस तैलकी मालिशसे बच्चोंके शिरके रोग निहन्ति दशमूलाख्यं तैलमेतत्र संशयः ॥ काथ - (१) दशमूल १०० पल ( हरेक १० पानी ३२ सेर, शेष धतूरेका पञ्चाङ्ग १०० पल, पानी ३२ सेर, शेष का ८ सेर | (३) पुनर्नवा (साठी) २०० पल, पानी ३२ सेर, शेष काय ८ सेर । ( ४ ) संभालु १०० पल, पानी ३२ सेर, शेष काथ ८ सेर् । कल्क - बासा, बच, देवदारु, सठी ( कचूर ), रास्ना, मुलैठी, काली मिर्च, पीपल, सेठ, कलौंजी, कायफल करजबीज संहजनेकी १ लवलीति पाठान्तरम् । खरैटी का का ८ सेर, तैल २ सेर और दूध ८ सेर तथा खरैटीका कल्क २० तोले लेकर तृतीयो भागः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६९ ] सबको एकत्र मिलाकर पकायें । जब तैल मात्र शेष रह जाय तो उसको छान लें और फिर उसमें दुबारा उपरोक्त काथ, कल्क तथा दूध मिलाकर पकावें । इसी प्रकार इन्हीं चीजोंसे दश बार पकायें। यह तैल वातरक्त, वातपित्त, शुक्रदोष और योनिदोष नाशक तथा शुक्रवर्द्धक है । (३०८३) दशमूलतैलम् (बृहद्र) १. ( धन्व; भै. र. । शिरो. ) दशमूलीगतं ग्राह्यं तथा धत्तूरकस्य च । शतं पुनर्नवायाश्च निर्गुण्ड्याश्च शतं तथा ॥ एतैः कषायैर्विपचेत् कटुतैलाढकं भिषक् । वासा वचा देवदारु शटी रास्ना संयष्टिका ॥ मरिच पिप्पली गुण्टी कारवी कट्फलं तथा । For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - छाल, कूठ, इमलीकी छाल, बनसेम और । कल्क-पीपल, गिलोय, दारुहल्दी, सौंफ, पुनचीता; हरेक ५-५ तोले । नवा (बिसखपरा ), संहजनेकी छाल, पीपल, विधि-८ सेर सरसेकेि तैलमें उपरोक्त कुटकी, करञ्जबीज, कालाजीरा, सफेदसरसों, चारों काथ और यह कल्क मिलाकर काथ जलने बच, सांठ, पीपल, चीता, स्वठी ( कचूर), तक पकावें। देवदारु, खरैटी, रास्ना, हुलहुल, कायफल, यह तैल, कफज, सन्निपातज, और वात निर्गुण्डी (संभाल ), चव, कलियारी (लांकफज भयङ्कर शिरशूल, नेत्रशूल, और कर्णशूलको गली), पीपलामूल, सूखी मूली, मजवायन, अवश्य नष्ट कर देता है। जीरा, कूठ, अजमोद और बिधारेके बीज; (३०८४) दशमूलतैलम् (महा) (२) सब चीजें ५-५ तोले लेकर पानीके साथ (धन्व.; भै. र. । शिरो.) पत्थर पर पिसवा लीजिये। दशमूलपलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् । विधि-काथ, कल्क, समस्त द्रव पदार्थ और तेन पादावशेषेण कटुतैलाढकं पचेत् ॥ ८ सेर सरसेका तैल एकत्र मिलाकर पकायें जम्बीराईकचत्तूरस्वरसं तेलतुल्यतः।। जब तैल मात्र शेष रह जाय तो छान लें । कल्कः कणामृता दावीं शतपुष्पा पुनर्नवा ।।। इसकी मालिशसे कफ और इसे पीनेसे खांसी शिग्रु पिप्पलिका सिक्ता करनं कृष्णजीरकम् ।। नष्ट होतीहै। इसके अतिरिक्त यह कफवासिद्धार्थकं वचा शुण्ठी पिप्पली चित्रकं शठी॥ तज अनेकां रोग, शोथ, ब्रण और शिर तथा देवदारु बला रास्ना मूर्यावर्तककट्फलम् । मध्य शरीरके रोगोंको भी नष्ट करता है। निर्गुण्डी चविका गैरी ग्रन्थिकं शुष्कमूलकम् ॥ (३०८५) दशमूलतैलम् (स्वल्प) (३) यवानी जीरकं कुष्ठमजमोदा च ताडकम् । (न्वन्तरि; भै. र । शिरो.) एतेषां पलिकैर्भागैर्विपचेन्मतिमान् मिषक् ॥ दशमलकाथकस्काभ्यां कटुतैलं विपाचयेत् । हन्ति श्लेष्माणमभ्यगात् पानात्कासं व्यपोलति सभिपातज्वरश्वासकासं हन्ति सुदारुणम् ॥ निहन्ति विविधान् व्याधीन कफवातसमुद्भवान्।। दशमूलका काथ ८ सेर, दशमूलका कल्क शिरोमध्यगतान् रोमान् शोथान् हन्त्रि व्रणा- | नपि॥ लेकर एकत्र मिलाकर काथ जलने तक पकावें । काथ-१०० पल (६। सैर ) दशमूलको ३२ सेर पानीमें पकाकर ८ सेर पानी यह तैल सन्निपात ज्वर, श्वास और भयङ्कर शेष रक्खें। खांसीको नष्ट करता है। अन्य द्रव पदार्थ--जम्भीरी नीबूका रस ८ सूचना-काथ बनानेके लिए ४ सेर दश सेर, अदरकका रस ८ सेर तथा धतरेका मूलको ३२ सेर पानीमें पकाकर ८ सेर शेष स्वरस ८ सेर। रक्खें । १३ तोले माशे सर For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] (३०८६) दशमूलतैलम् (४) ( भै. र. । शिरो. ) दशमूलकाथकल्काभ्यां तैलप्रस्थं विपाचयेत् । चतुर्गुणं पयो दत्त्वा शनैर्मृद्वनिना पचेत् ॥ दशमूलमिति ख्यातं शोथं हन्ति सुदारुणम् ॥ ४ सेर दशमूलको ३२ सेर पानी में पकाकर ८ खेर शेष रहने पर छान लें । फिर २ सेर तैलमें यह काथ और ८ सेर दूध तथा २० तोले दशमूलका कल्क मिलाकर मन्दाभिपर पकावें । जब तैल मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। यह 'दशमूल तैल ' भयङ्कर शोथको भी नष्ट कर देता है । (३०८७) दशमूलतैलम् (५) (भै. र. । शिरो. ) तृतीयो भागः । दशमूलकाथकरुकाभ्यां निर्गुण्डी रससंयुतम् । कटुतैलं समादाय पचेत्प्रस्थं भिषग्वरः ॥ सत्रिपातं हरेदेवच्छिरोरोगं न संशयः ॥ २ सेर दशमूलको १६ सेर पानीमें पकायें और ४ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। तत्पश्चात् उसमें २० तोले दशमूलका कल्क तथा ४ सेर संभालुका रस और २ सेर सरसोंका तैल मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। यह तैल सन्निपातज शिरोरोगको अवस्य करता है ॥ (३०८८) दशमूलतैलम् (६) (मध्यम) ( धन्व.; भै. र. । शिरो. ) दशमूली करञ्जश्च निर्गुण्डी च जयन्त्रिका । धत्तूरः षट्पलान् भागान् जलद्राणे विपाचयेत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७१] पादशेषे रसे तैलं कदुप्रस्थं विपाचयेत् । तत्कल्कान् दापयेत्तत्र भागान् षट्तोलकान् पृथक् ॥ वातश्लेष्मसमुद्भूतं शिरोरोगं व्यपोहति कासं पञ्चविधं शोथं जीर्णज्वरमपोहति ॥ दशमूलमिदं तैलं शिरकर्णाक्षिरोगनुत् । मन्यास्तम्भमन्त्रदृद्धिं श्लीपदं च विनाशयेत् ॥ दशमूलमिदं तैलमश्विभ्यां निर्मितं पुरा ॥ काथ - दशमूल, करन - बीज, संभालु, जयन्ती और धतूरा ६ - ६ पल (३०-३० तोले ) लेकर ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। - दशमूल, करञ्जबीज, संभालु, जयन्ती और धतूरा । हरेक ६-६ तोले लेकर पानीके साथ पिसवा लें । विधि- - काथ, कल्क और २ सेर सरसोंके तेको एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो तैलको छान लें। यह तैल वातकफज शिरोरोग, पांच प्रकारकी खांसी, शोथ, जीर्णज्वर, मन्यास्तम्भ, अन्त्र वृद्धि, स्लीपद और कान, आंख तथा शिरके रोगोंको नष्ट करता है । (३०८९) दशमूलतैलम् (७) ( धन्वं. भै. र. र. र. । शिरो. ) दशमूलीकषायेण अष्टाङ्गकल्कसंयुतम् । क्षीरं च द्विगुणं दवा तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ शिरोतिं नाशयेदेतद्भास्करस्तिमिरं यथा । वातशूलं पित्तशूलं कफशूलं त्रिदोषजम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ७२] दशमूलमिदं तैलं शिरोरोगनिषूदनम् । सूर्यावर्त्तममिष्यन्दं जलदोषं च नाशयेत् ॥ - भैषज्य रत्नाकरः । भारत सरसोंका तैल २ सेर, दशमूलका काथ ८ सेर, दूध ४ सेर तथा अष्टवर्ग ( काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, ऋद्धि वृद्धि, जीवक और ऋषभक) का कल्क २० तोले (हरेक २|| तोले ) लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । यह तैल वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज शिरोशूल, सूर्यावर्त अभिष्यन्द और जलदोष से उत्पन्न शिरोरोगों को नष्ट करता है। (३०९०) दशमूलादितैलम् (१) (बृ. मा. यो. र. ग. नि.; धन्व; र. र.; च. द; भै. र. । . ) दशमूलीकषायेण तैलप्रस्थं विपाचयेत् । एतत्कर्णे प्रदातव्यं बाधिर्ये परमौषधम् ॥ २ सेर दशमूलको १६ सेर पानी में पकावें; जब ४ सेर पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें १ सेर तैल मिलाकर काथ जलने तक पकावें इसे कान में डालने से बधिरता जाती रहती है। इस रोगके लिये यह एक महौषध है । (३०९१) दशमूलादितैलम् (२) ( वृ. नि. र. । गुल्म. ) दशमूलकणा द्राक्षा श्यामा धात्री पलं पलम् । stries तैलस्य प्रस्थषट्कं गवां पयः ॥ पचेतैलाव शेषन्तु तत्तैलं कफगुल्मनुत् ॥ दशमूल, पीपल, मुनक्का, काली निसोत : और आमला ५-५ तोले लेकर सबको पिसवा कर कल्क बनावें फिर २ सेर अरण्डके तेलमें यह कल्क [ दकारादि और १२ सेर गायका दूध ( तथा ८ सेर पानी ) मिलाकर पकावें । जब दूध और पानी जल जाय तो तैलको छान लें । 1 यह तैल कफगुल्म को नष्ट करता है । ( मात्रा - २ से ४ तोले तक गरम दूध या दशमूलके अर्क में डालकर पियें । ) (३०९२) दशमूलादितैलम् (३) ( यो. र. । दन्त; वृ. यो त । त. १२८ ) दशमूली कषायेण तैलं वा घृतमेव वा । विपकं केवलं शस्तं सक्षौद्रं दन्तचालने ॥ कराले दन्तहर्षे च कापाल्यां सौषिरद्वये । गण्डूषधारणाले पात्पानान्नस्याच शस्यते Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ सेर दशमूलके काथके साथ २ सेर तैल या घी मिलाकर पकावें । इसमें आधासेर शहद मिलाकर, कुल्ले करने, नस्य लेने, पीने और लगासे दांतोका हिलना, कराल, दन्त हर्ष, कपाली, सौर आदि दन्त रोग नष्ट होते हैं । (३०९३) दशमूलादि तैलम् (४) ( यो. र. । वात; वृ. यो त । त. ९० ) दशमूलकपायविपक्कमथो पयसा च समेन बलाद्वनलैः । त्रुटि चन्दनदारुलतानलदैररुणाजतुकुष्ठवचाकुटिलैः ॥ इति पकमिदं तिलजं जयति प्रसभं पवनामयमाशु नृणाम् । बलशुक्रविभारुचिवह्निकरं नृपवृद्ध शिशुप्रमदाषु हितम् ॥ दशमूलका काथ ८ सेर, दूध २ सेर, तिलका तेल २ सेर और खरैटी, नागरमोथा, तालीसपत्र For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] छोटी इलायची, सफेद चन्दन, देवदारु, ज्योति - ष्मती लता ( मालकंगनी ), खस, अतीस, लाख, कूठ, बच और तगरके २० तोले कल्कको एकत्र मिलाकर पकावें । काथ और दूध जलने पर छान लें। तृतीयो भागः । यह तैल वात व्याधिको अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता और बल, वीर्य, सौन्दर्य, रुचि तथा जठरामिकी वृद्धि करता है । यह राजा, वृद्ध, बालक और स्त्रियोंके लिए हितकारी है । (३०९४) दशमूला तैलम् (१) (ग. नि. । तैला . ) दशाङ्किकेशरारिष्टब्राह्मीपाठाकटुत्रिकैः । शठीपुनर्नवा भार्गीसुरसाम्बुफलत्रिकैः ॥ शङ्गपुष्पीत्व गेलार्कमुनिपादपपल्लवैः । अङ्कोटवरुणास्फोत शिरीषकटभीफलैः ॥ कृमिघ्नमूलशम्पाक सर्वपामरदारुभिः । प्रियङ्गुहिङ्गुमञ्जिष्ठासुमुखातन्दुलीयकैः ॥ गिरिकर्णी व चाकुष्ठकङ्कष्ठरजनीद्वयैः । मधुकसा रसिन्धूत्थसितनीलोत्पलाम्बुदैः ॥ कटुतैलं समैरेमिः पर्क क्षीरे चतुर्गुणे । सोन्मादं हन्त्यपस्मारं पानाभ्यञ्जननावनैः ॥ डाकिनीभूतवेतालनैगमेषादिकान् ग्रहान् । कृत्याभिचाररक्षांसि नाशयत्यखिलान्यपि ॥ तैलमेतत्सुरेन्द्रेण नन्दस्य कथितं पुरा । बालस्य free रक्षार्थी विष्णोरमिततेजसः ॥ अभ्यज्य सर्वगात्राणि भोक्तव्यं रिपुवेश्मनि । तैलमभ्यञ्जनं श्रेष्ठं वसतोऽ रातिसङ्कटे ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७३] अथ विलिप्तभगा भगशालिनी यदि रमेत नरं दिवसे शुभे । मदनसायकजर्जरितो रसो भवति तस्य तयापहृतं मनः ॥ ताम्बूलमुखवासेषु व्यञ्जनाहारयोगतः । अनामिकाग्रसंयुक्तं वशीकरणमुत्तमम् ॥ दशमूल, नागकेसर, नीमकी छाल, ब्राह्मी,. पाठा, सांठ, मिर्च, पीपल, कचूर, पुनर्नवा (बिसखपरा ), भारंगी, तुलसी, सुगन्धवाला, हर्र, बहेड़ा, आमला, शंखपुष्पी, दालचीनी, इलायची, आक और अगथिया के पत्ते, अङ्कोटके फल, बरनेकी छाल, आस्फोता, सिरसकी छाल, मालकंगनी, बायबिडंगकी जड़, अमलतास, सरसों, देवदारु, फूलप्रियङ्गु, हींग, मजीठ, सुमुखा (काली तुलसी), चौलाई की जड़, अपराजिता, बच, कूठ, कंकुष्ठ, हल्दी, दारूहल्दी, महुवेके वृक्षका सार, सेंधानमक, सफेद कमल और नागरमोथा । सब चीजें समान भाग मिलाकर २० तोले लें और सबको पानी के साथ पिसवा कर कल्क बनावें; फिर २ सेर सरसोंके तेलमें यह कल्क और ८ सेर दूध ( तथा ८ सेर पानी ) मिलाकर पकावें । जब दूध और पानी जल जाय तो तैलको छान लें। इसे पीने और इसकी मालिश करने तथा नस्य लेनेसे उन्माद, अपस्मार और बालकोंके भूत, डाकिनी, बेताल, नैगमेषादि ग्रह शान्त होते हैं । Treath शरीरपर इसकी मालिश करते रहने से उन्हें राक्षस और अभिचार जनित व्याधियोंका भय नहीं रहता । इस तैल में अनामिका उंगली भिगोकर उससे १ बूंद पान या आहारादिके किसी पदार्थ पर For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - गिरा कर खाना अत्युत्तम वशीकरण है । यदि । (गन्धतृण), शतावर, पियार्वासा, और काकनासा। स्त्री इसे अपने गुह्याङ्ग में लगाकर पुरुष-सहवास हरेक ५-५ तोले । जौ, उड़द, अलसी, बेरे और करती है तो पुरुषका मन मुग्ध हो जाता है। कुलथ १०-१० तोले । सबको अधकुट करके (३०९५) दशमूलायं तैलम् (२) ४ द्रोण (१२८ सेर ) पानीमें पकावें और ३२ (वं. से. । वात व्या.) | सेर पानी शेष रहने पर छानलें, फिर यह काथ, दशमूलीरसक्षीरजीवनीयविपाचितम् । ८ सेर तिलका तैल, ८ सेर दुध और १ सेर तेलं हन्त्यर्दितं नस्यपानाम्यङ्गानुवासनैः ।। जीवनीय गण (जीवन्ती, मुलैठी, मुद्गपणी, माषपर्णी, दशमूलका काथ ८ सेर, दूध २ सेर, तिल काकोली, क्षीर काकोली, जीवक, ऋषभक, मेदा, का तेल २ सेर तथा जीवनीय गण ( जीवन्ती, मुलैठी, महामेदा, ऋद्धि और वृद्धि; हरेक ६ तोले ८ माशे) मुद्गपर्णी, माषपर्णा काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, के कल्कको एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें। महामेदा, जीवक, ऋषभक, ऋद्धि, वृद्धि ) का इस तैलको अनुवासन बस्ति देनेसे समस्त कल्क २० तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर वातज रोग नष्ट होते हैं। पकावें। (३०९७) दशाङ्गतैलम् (१) इसकी अनुवासन बस्ति लेने और मालिश (ग. नि । तैला.) करने तथा पीने और नस्य लेनेसे अर्दित (लकवा) तर्कारीभृङ्गशिगूणां निर्गुण्डीशणयोस्तथा । नष्ट होता है। वातघ्नवासाजातीनां निम्बभास्करयोरपि । (३०९६) दशमूलायं तैलम् (३) स्वरसं तु समादाय प्रत्येक प्रस्थमानतः । (वं. से. । वात व्या.) प्रस्थं तु तिलतैलस्य शनैर्मेद्वग्निना पचेत् ।। दशमूलं बला रास्ना चाश्वगन्धा पुनर्नवा । एरण्डमूलवर्षाभूहयगन्धाशतावरी। गुडूच्यैरण्डपूतीकभाषकरोहिषम् ।। रास्नागोक्षुरकाश्चैव शतपुष्पा च सैन्धवम् ।। शतावरी सहचरकाकनासा पलोन्मिता। | प्रत्येकं कर्षमादाय कांध त्रिकटोस्तथा। यवमाषातसीकोलकुलत्याः प्रसृतोन्मिताः॥ एलात्वपत्रमांसीनां कर्षार्दै च विनिक्षिपेत् ।। चतुर्दोणेऽम्भसः पक्का द्रोणशेषेण तेन तु। तैलेनानेन नश्यन्ति वातरोगाः सुदारुणाः । तैलाढकं समं क्षीरं जीवनीयैः पचेच्छनैः॥ | आक्षेपकं हनुस्तम्भमपतन्त्रकमर्दितम् ॥ अनुवासनमेतद्धि सर्ववातविकारनुत् ॥ अपबाहुकं विश्वाची पक्षाघातापतानकम् । दशमूलकी हरेक वस्तु, खरैटी, रास्ना, भस- स्नायुसन्धिगतं वात सप्तधातुगतं तथा ॥ गन्ध, पुनर्नवा ( साठी ), गिलोय, अरण्डकी जड़, | उरुस्तम्भं वातरक्तमामवातं सुदारुणम् । खडाशी (जुन्दबेदस्तर), भरंगी, बासा, मिरचियागन्ध, । दशाङ्गसंज्ञकं तैलं हन्यादन्यांश्च वाजान् । For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ७५ ] रास्ना, बासा, चमेली, नीम और आफ का स्वरस २-२ सेर और तिलका तेल २ सेर लें तथा अरण्डकी जड़, पुनर्नवा ( साठी ), असगन्ध, शतावरी, गोखरु, सोया, और सेंधा नमक १४ - १। तोला एवं सोंठ, मिर्च, पीपल, इलायची, दालचीनी, तेजपात और जटामांसी हरेक ७॥ माशे लेकर पानीके साथ पिसवा लें और फिर सब चीजोंको एकत्र मिलाकर पकावें । अरनी, भंगरा, सहंजना, संभालु, सन, अरण्ड | शतावरीदेवदारुकौन्तीत्व पत्रवारिजैः । कुष्ठागुरुवचायुक्तैस्तैलं सिद्धं प्रदापयेत् ॥ बस्तौ पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्ये च परिषेचने । सर्वरोगान् जयत्येतत्संसृष्टान् मातरिश्वना || विशेषतो ह्यपस्मारमुन्मादं वातशोणितम् । स्त्रीणामपत्यजननं पुंसां चातिबलप्रदम् ॥ नराणां गद्गदानां च मूकानां वाक्प्रवर्त्तनम् । मेधाजननमायुष्यं बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ सर्वग्रहघ्नं विषजित् सन्निपातहरं परम् । दशाङ्गमिति विख्यातमश्विभ्यां परिकीर्त्तितम् ।। यह तैल आक्षेपक, हनुस्तम्भ, अपतन्त्रक, अर्दित, अपबाहुक, विश्वाची, पक्षाघात, अपतानक, स्नायु और सन्धिगतवायु, सप्तधातुगत वात, ऊरुस्तम्भ, वातरक्त और आमवातादि भयङ्कर वातव्याधियोंको नष्ट करता है । ( आधेसे १ तोले तककी मात्रानुसार दूधमें डालकर पिलाना और शरीर पर इसकी मालिश करानी चाहिए । ) (३०९८) दशाङ्गतैलम् (२) (ग.नि. । तैला. ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पियाबासा, गिलोय, असगन्ध, शतावर, प्रसारणी ( खीप), नागबला ( गंगेरन ), गोखरु, पुनर्नवा ( बिसखपरा ), और खरैटी समान भाग मिलाकर ४ सेर लें और सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छानलें । इसी प्रकार ४ सेर रास्ना को ३२ सेर पानी में पकाकर ८ सेर शेष रहने पर छान लें। तत्पश्चात् यह दोनों काथ, निम्न लिखित चीजों का कल्क, ८ सेर तिलका तैल, तथा ८-८ सेर दही का पानी, ईखका रस, शुक्त और लाखका रस तथा ३२ सेर दूधको एकत्र मिला कर तैल मात्र शेष रहने तक पकावें । शैtestsमृतलता वाजिगन्धा शतावरी । प्रसारणी नागबला श्वदंष्ट्रा सपुनर्नवा ॥ बला चेति समान् भागान् रास्नारससमन्वितान् । कल्क – जटामांसी, सोया, मुलैठी, मजीठ, लाल - विज्ञाय दोषप्रकृतिं कषायमुपकल्पयेत् ॥ तेन पादावशेषेण तिलतैलाढकं पचेत् । दधिमस्त्विनिर्यासशुक्लाक्षोदकैः समैः ॥ चतुर्गुणेन पयसा कल्कैरेभिर्प लोन्मितैः । मांसीशताहामधुकमञ्जिष्ठारक्तचन्दनैः ॥ चन्दन, शतावर, देवदारु, रेणुका, दालचीनी, तेजपात, कमल, कूठ, अगर और बच । हरेक ५-५ तोले लेकर सबको पानीके साथ पिसवा लें I इस तैलको पिलाने तथा बस्ति, नस्य, परि लाक्षा १ - लाखको कपड़े में बांधकर ६ गुने पानीमें दोलायन्त्र विधिसे पकाकर २१ बार छान लें। यही " रस " है । 'शुक्त' बनाने की विधि मारत भै. र. प्रथम भाग पृष्ट ३५४ पर देखिये. For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - - षेचन, और अभ्यङ्गादि द्वारा प्रयुक्त करने से सम- एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । और तेल स्त वातज रोग विशेषतः अपस्मार, उन्माद, वातरक्त, मात्र शेष रहने पर छान लें। गद्गदता ( हकलाना ), गूंगापन, सर्व ग्रह, विष | कल्क–सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, और सन्निपात ज्वर आदि नष्ट होते और स्त्रियों में आमला, मोथा, चव, जीरा, सेंधा, तेजपात, इलापुत्रोत्पादनको शक्ति तथा पुरुषों में बल, वीर्य, | यची, दालचीनी, नागकेसर, सौंफ, जटामांसी, मेधा, आयुष्य वर्ण और जठराग्निकी वृद्धि होती है। लौंग, जावित्री, जायफल, धनिया, अजवायन, (३०९९) दाडिमाद्यं तैलम् (१) अजमोद, सुगन्धबाला, कञ्चटा (जल चौलाई), (भै. र. । संग्र.) अतीस, मण्डूकपर्णी, सिंघाड़ेके पत्ते, कटेली, कटेला, दाडिमत्वग्जलं धान्यं वत्सकस्य त्वचस्तथा । आम और जामनके पत्ते तथा छाल, मजीठ ( या प्रत्येकमाढकं ग्राह्यं जलद्रोणे पचेत्पृथक् ॥ लजाल ), इन्द्रजौ, शतावर, धायकी जड़, बेलगिरि, चतुर्भागावशिष्टन्तु तक्रमाढकसम्मितम् । मोचरस, मूसली, कुड़ेकी छाल, खरैटी, गोखरु, पचेत्तैलाढकं धीमान गर्भ दत्वा भिषग्वरः ।। लोध, पाठा, खैरकी लकड़ी, गिलोय और सेंभलकी त्रिकटुं त्रिफला मुस्तं चन्यजीरकसैन्धवम् ।। छाल; हरेक २॥--२॥ तोले लेकर सबको चातुर्जातं मधुरिका मांसी च देवपुष्पकम् ॥ चावलोंके पानी ( तण्डुलोदक ) के साथ पीस लें। जातीकोषफले धान्यं यमान्यौ बालकन्तथा । यह तैल भयङ्कर संग्रहणी, बीस प्रकारके कञ्चटातिविषा भेकी शृङ्गाटं वृहतीद्वयम् ॥ द्वयम् ॥ । प्रमेह और ६ प्रकारकी बवासीरको नष्ट करता है। आम्रजम्बुत्वचः पर्णी समजेन्द्रयवं वरी। । | (३१००) दाडिमाद्यं तेलम् (२) धातकी विल्वमोचञ्च मुषली वत्सकम्बला ॥ । (रा. मा.। स्तनरो.) श्वदंष्ट्रा लोध्रपाठाश्च काष्ठं खागिरमेव च ।। विपाचितं दाडिमकल्कयुक्तं अमृता शाल्मली त्वक् च सर्वमर्द्धपलोन्मितम् ॥ तैलं भवेत्सर्षपसम्भवं यत् । पिष्टवा तण्डुलतोयेन साधयेन्मृदुनाग्निना । ग्रहणी हन्ति दुरां प्रमेहानपि विशंतिम् ॥ अभ्यञ्जनात्तत्कुरुते नितान्तअशीसि षड्विधान्येव नाशयेन्नात्र संशयः ॥ मुच्चैः स्तनौ पृद्धियुतौ च कर्णौ ॥ ___ अनारकी छाल, सुगन्धबाला, धनिया और अनारकी छालका कल्क १३ तोले ४ माशे, कुडेकी छाल । हरेक ४-४ सेर लेकर हरेकको सरसोंका तेल २ सेर और पानी ८ सेर । सबको एकत्र अलग अलग ३२-३२ सेर पानीमें पकावें और | मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको ८-८ सेर पानी शेष रहने पर छानकर सब काथोंको छान लें। एकत्र मिलालें । तत्पश्चात् यह काथ, ८ सेर तक, | इसकी मालिशसे स्तन अत्यन्त उन्नत और ८ सेर तेल और नीचे लिखी चीजोंका कल्क | कान बड़े हो जाते हैं । For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] तृतीयो भागः। [७७] (३१०१) दाडिमा तैलम् (३) पका हुवा तैल लगानेसे उपदंश ( आतशक ) नष्ट (रा. मा. । कर्ण.) हो जाता है । संसाधितं दाडिमवल्कलैर्यत् (दारुहल्दीका .रस या काथ ८ सेर, तैल क्षुद्राफलारुष्करचूर्णयुक्तैः। २ सेर।) अभ्यञ्जनात्सर्षपसम्भवं तत् कल्क-स्वरसके साथ पकाना हो तो सन तैलं नृणां लिङ्गविवर्धनं स्यात् ॥ समान भाग मिला कर १० तोले, और काथके काय-अनारकी छाल २ सेर, पानी १६ सेर । | साथ पकाना हो तो १३ तोले ४ माशे लें।) शेष काथ ४ सेर । (३१०४) दााद्यं सूर्यपाकतैलम् कल्क-कटेलीके फल और शुद्ध भिलावा । हरेक ३ तोले ४ माशे । काथ और कल्कको १ (ग. नि. । तैला.) सेर सरसोंके तेलमें मिलाकर पकावें । दावर्षीगण्डीरसंयुक्तैः कासमर्दकसम्भवैः । इसकी मालिशसे लिङ्गवृद्धि होती है। मूलैर्महोटिकायास्तु स्वरसेन समन्वितैः ॥ (३१०२) दार्वादितैलम् स्नुहीक्षीरनिशामूर्वागृहधूमफणिज्जकैः। (वै. म. र. । पट. ११) रालाबिडगमगधागौरसर्षपनागरैः ।। तैलं दारुरुजासर्जयष्टीपाठावचूर्णितम् । | चक्रमर्दकनाडीकाबाकुचीनक्तमालकैः। शीतपित्तेऽमृताराजीकल्कं चाभ्यङ्गलेपनम् ॥ मूलकस्य तु बीजैस्तु सुरसारग्वधच्छदैः ॥ (सरसोंके) तेलमें देवदारु, कूठ, राल, मुलैठी, सक्षारलवणोपेतैर्गोमूत्रैः परिपेषितैः। और पाठाका चूर्ण मिला कर या इनके कल्क तथा | कटुतेलस्थितैः पकैः सम्यग्रविगभस्तिभिः॥ काथ से तेल पकाकर उसकी मालिश करने से अथवा | कृतमाशुनराणान्तु हन्यादेभिः प्रलेपनम् । गिलोय, और लाल सरसों ( या बाबची ) को | दर्दू विचर्चिकां कण्डूं पामां दुर्भक्तकं तथा ।। पानीके साथ खूब महीन पीसकर लेप करने और दारुहल्दी ओर मजीठका काथ तथा कसौंदी शरीरपर मलने से शीतपित्त (पित्ती) रोग नष्ट और बन भट्टेकी जड़का रस १-१ सेर, सरसोंका होता है। तैल १ सेर और निम्न लिखित चीजोंका कल्क (३१०३) दाादितैलम् | एकत्र मिलाकर धूपमें रक्खें, और रोज दो चार बार (धन्व.; भै. र.; वं. से. । शूकदो.; ग. नि.। उपदंश.) लकड़ी आदिसे हिला दिया करें। जब सब पानी दावीस्वरसयष्टयाहेहधूमनिशान्वितैः। | जलजाय तो तैलको छान लें। तैलमभ्यञ्जनात्पर्क मेरोग निवारयेत् ॥ कल्क-सेहुंड (सेंड ) का दूध, हल्दी, दारुहल्दी के स्वरस (अभावमें काथ ) और मूर्वा, घरका धुवां, मरुवा, राल, बायबिडंग, पीपल, मुलैठी, घरका धुंवा तथा हल्दीके कल्क के साथ ' सफेद सरसों, सोंठ, पंवाड़, नाडिका ( नालीका For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि शाक), बाबची, करञ्जबीज, मूलीके बीज, तुलसी । उल्टा लटकाये रहें। इससे जो तैल टपके और अमलतासके पत्ते, यवक्षार और सेंधानमक । | उसे कांच या चीनी आदिके पात्रमें जमा करते रहें। सब चीजें समान भाग मिली हुई ६ तोले ८ माशे इस तैलको ज़रा गरम करके कानमें डालनेसे लेकर गोमूत्रमें महीन पिसवालें। कर्णपीड़ा नष्ट होती है। इसे लगानेसे दाद, खुजली, विचर्चिका और इसी विधिसे देवदार, कूठ और चीरकी लकपामा अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है। ड़ियोंसे बनाया हुवा तैल भी कर्ण शूलको नष्ट (३१०५) दीपतैलाभ्यङ्गः करता है। (रा. मा. | विषा.) (३१०७) दूर्वातैलम् । अभ्यङ्ग दीपतैलेन देशे खर्जरकस्य यः। (भै. र.; वृं. मा.; ग. नि.; च. द.; करोति न करोत्यति तस्य तत्सम्भवं विषम्॥ यो. र. । कुष्ठ.) यदि कनखजूरेके काटे हुवे स्थान पर दीपक- स्वरसे चैव दुर्वायाः पचेत्तैलं चतुर्गुणे। के तैलकी मालिश की जाय तो विष नहीं चढ़ता। कच्छूविचचिकापामा अभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥ (३१०६) दीपिकातैलम् ८ सेर दूबके स्वरसमें २ सेर सरसोंका तेल (च. द.; यो. र.; वं. से.; भै. र.; . मा.; धन्व.; मिलाकर पकावें । इसकी मालिशसे कच्छू, विचवृ. नि. र.; ग. नि.; सु. सं. । कर्णरो.; वृ. र्चिका, और पामा ( खुजली ) नष्ट हो जाती है । यो. त. । त. १२९) (३१०८) दूर्वादितैलम् । (च. द. । व्रणशोथ.; वृ. यो. त. । त. ११२; महतः पञ्चमूलस्य काण्डान्यष्टालानि च । सोमेणावेष्य संसिच्य तैलेनादीपयेत्ततः॥ भै. र.; बूं. मा.; वं. से. । आगन्तुकत्रण ) यत्तैलं च्यवते तेभ्यः मुखोष्णं तत्प्रयोजयेत। । दूर्वा स्वरससंसिद्धं तैलं कम्पिल्लकेन च । ज्ञेयं तद्दीपिकातैलं सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ | दार्वीत्वचश्च कल्केन प्रधानं व्रणरोपणम् ॥ एवं कुर्याद भद्रकाष्ठे कुष्ठे काष्ठे च सारले। । येनैव विधिना तैलं घृतं तेनैव साधयेत् । मतिमान्दीपिकातैलं कर्णशूलनिवारणम् ॥ रक्तपित्तोत्तरं ज्ञात्वा सपिरेवावपाचयेत् ॥ बेल, सोनापाठा (अरलु); कुम्हार (खम्भारी), दूधके स्वरस और कबीले तथा दारुहल्दीके पाढल और अरणी की टहनियोंके ८-८ अंगुल कल्कके साथ पका हुवा तैल लगानेसे घाव भर लम्बे टुकड़े करके सबको एकत्र बांधकर या अलग जाते हैं। अलग रेशमी कपड़े में लपेट दें और फिर तैलमें तैलके समान ही इन्हीं चीजोंसे घृत भी पका अच्छी तरह तर करके उनके एक सिरेमें आग सकते हैं। यदि रक्त पित्तकी प्रधानता हो तो लगादें और दूसरे सिरेको चिमटे आदि से पकड़कर ! घृतही प्राक्त करना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलमकरणम्ः ] (३१०९) दूर्वाचं तैलम् ( वृ. नि. र.; वं. से. । रक्तपि. ) दूर्वामधुकमञ्जिष्ठाद्राक्षेक्षुरसचन्दनैः । शारिवाद्वयनक्तास्तैलमस्थं विपाचयेत् ॥ क्षीरं चतुर्गुणं दत्त्वा सिद्धमभ्यञ्जने हितम् । रक्तपित्तहरं ह्येतद्वयं वातघ्नमुत्तमम् ॥ दुवतैलमिति ख्यातं शशिवर्णकरं महत् ॥ दूब घास, लुलैठी, मजीठ, दाख ( मुनक्का ), सफेद चन्दन, दोनों प्रकार की सारिवा और करके कल्क तथा ईख रस और चार गुने दूधके साथ तैल पकाकर मालिश करनेसे रक्तपित्त तथा वायु नष्ट होता और बल तथा सौन्दर्यकी वृद्धि होती है। तृतीयो भागः । ( तिलका तैल २ सेर, कल्ककी हरेक वस्तु २|| तोले, ईखका रस २ सेर और दूध ८ खेर । ) देवदारुतैलम् (१) ( रा. मा. । कर्णरो. ) दीपिका तैल देखिये यद्यपि राजमार्तण्ड के इस प्रयोगका पाठ दीपिका तैल पाठसे सर्वथा भिन्न है परन्तु यह प्रयोग उसके अन्तर्गत भा जाता है । (३११०) देवदारुतैलम् (२) ( रा. मा. । मुखरो. ) अग्नौ सिद्धं देवदारोः फलानां मिश्रीभूतं वाजिनो वर्चसा यत् । तैलं तत्स्याच्छीर्षकण्ठामयानां नाशाया नस्यकर्मप्रयोमात् ॥ [ ७९] देवदारुके फलोंके तैलमें ४ गुना घोड़ेकी लीद (मल) का रस मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान 1 इसकी नस्य लेनेसे सिर और गलेके समस्त रोग नष्ट होते हैं । (३१११) देवदावदितैलम् ( च. सं. । चि. अ. २६; वं. से. । कर्ण. ) देवदारुवाण्ठशतादाकुष्ठसैन्धवैः । तैलं सिद्धं बस्तमूत्रे कर्णशूल निवारणम् ॥ देवदार, बच, सोंठ, सोया, कूठ और सेंधा । सब चीजें समान भाग मिली हुई २० तोले लेकर पानी के साथ पिसवा लें; फिर २ सेर तैल में यह कल्क और ८ सेर बकरेका मूत्र मिलाकर पकावें । यह तै कर्णशूलको नष्ट करता है । (३११२) द्रवन्त्यादितैलम् (सु. सं. । चि. अ. २ ) द्रवन्ती चिरबिल्वश्च दन्ती चित्रकमेव च । पृथ्वीका निम्बपत्राणि कासीसं तुत्थमेव च ॥ जिवती नीली हरिद्रे सैन्धवं तिलाः । नेपाली जालिनी चैव मदयन्ती मृगादनी । भूमीकदम्बः सुबहा शुकाख्या लाङ्गलाढया || सुधामूर्ककीटारिहरितालकरञ्जिकाः ॥ यथोपपत्तिकर्त्तव्यं तैलमे तस्तु शोधनम् ॥ द्रवन्ती ( वृहद्दन्ती ), करञ्जबीज, दन्ती, चीता, बड़ी इलायची, नीमके पत्ते, कसीस, नीलाथोथा, निसोत, बच, नीलकापञ्चाङ्ग, हल्दी, दारुहल्दी, सेंधा, तिल, भूमिकदम्ब या ( गोरखमुण्डी ), काला संभालु, सिरसकी छाल, कलियारी, मनसिल, देवदाली ( बिंडाल डोढा ), मदयन्ती, इन्द्रायन, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [८०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि सेंड (सेहुंड), मूर्वा, आक, दादमारि (दादमर्दन), | दशमूल, त्रिफला, कुलथ, निसोत, मूली और हरताल और कांटे वाले कराके फल । इनके कल्क | सहजनेकी छालका कल्क १३ तोले ४ माशे तथा तिल के साथ तैल पकाकर लगानेसे घाव शुद्ध होते हैं। और अरण्डीका तैल १-१ सेर और उक्त ( सब चीजें समान भाग मिली हुई २० चीजोंका काथ ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर तोले, सरसोंका तेल २ सेर, पानी ८ सेर।) पकावें। (३११३) द्विजीरका तैलम् ___यह तैल विधि, गुल्म और शूलको नष्ट (ग. नि. । वृद्ध्य.) करता है। अजाजीद्वयसिन्धूत्यहिङ्गतोऽ पलानि च। । (३११६) बिपञ्चमूल्याचं तैलम् तैलं च षोडशपलं पकं वृद्धिं व्यपोहति ॥ ( ग. नि.। परिसि. तैला.; भा. प्र.ख. २ । ऊरु.) सफेद और काला जीरा, सेंधा नमक, और द्वे पञ्चमूल्यौ त्रिफला चित्रको देवदारु च । हांग २॥२॥ तोले लेकर पानीके साथ पिसवा | एकाष्ठीला त्वपामार्गः श्रेयसी वायसी सुधा ॥ लीजिये फिर २ सेर तिलके तैलमें यह कल्क और | काला भार्गी पृथक्पर्णी सुवहा मदयन्तिका । ८ सेर पानी मिलाकर पानी जलने तक पकाइये । विशल्योशीरकाश्मय हिंस्रादाय॑स्तथाऽम्लिका। यह तैल अण्डवृद्धि रोगको नष्ट करता है। चिरबिल्वों विशोकश्च बला चांशुमती तथा। (३११४) विपञ्चमूलाचं तेलम् पयस्या पीलुपी च सगुडूची शतावरी ॥ __ ( भा. प्र.। आ. वा.; वं. से.| आमवा. ) । एषां पञ्चपलान् भागान् जलद्रोणेषु सप्तम् । द्विपञ्चमूलीनिर्यासफलदध्यम्लकाञ्जिकैः। अष्टभागावशेषेण पचेत्तैलं शनैःशनैः॥ तैलं कटयूरुपातिकफवाताभयान्गदान् ॥ कुष्ठं च सतपुष्पा च चित्रकस्यूषणं वचा। हन्ति वस्तिप्रदानेन करोत्यग्निवलं महत् ॥ देवदागरु श्रेष्ठ विडङ्ग मुस्तमेव च ॥ . ___ दशमूलके क्वाथ, जायफलके कल्क और दही | अश्वगन्धा स्थिरा पाठा मूर्वा श्योनाकमेव च । तथा काजीके साथ पकाए हुवे तैलकी बस्ती लेनेसे | पिप्पली शृङ्गवेरश्च दन्ती हिङ्गवम्लवेबसौ ॥ कमर, जंघा और पार्श्व की पीड़ा तथा कफवातज गर्भेणानेन भिषक्षायेण च साधयेत् । रोग नष्ट होते हैं । एवं अग्निकी वृद्धि होती है। | सिद्धं शीतं च पूतञ्च क्षौद्रेण सह संसृजेत् । (३११५) द्विपञ्चमूलीतैलम् तदस्य दद्यात्पानार्थ तदेवाभ्यञ्जने भवेत् ॥ (वं. से. । विद्र.) ऊरुस्तम्भश्चिरोत्पन्नस्तैलेनानेन शाम्यति । द्विपञ्चमूलीत्रिफलाकुलित्थ आढयवातं श्लीपदानि खुडवातांश्च नाशयेत् ॥ त्रिच्छनैर्मूलकशिग्रुयुक्तैः । काथ-दशमूलकी हरेक वस्तु, हरे, बहेड़ा, आतैलं तिलैरण्डजमेतदेभिः मला, चीता, देवदार, पाठा, अपामार्ग (चिरसिद्धं हितं विद्रधिगुल्मशूले ॥ चिटा), रास्ना, सफेद चौंटली, सेहुण्ड (सेंड) For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - आसवारिष्टपकरणम् ] तृतीयो भागः। [८१] की जड़, निसोत, भरंगी, पृष्ठपर्णी, संभालु, | जाने पर तैलको छानकर ठण्डा करके उसमें मदयन्तिका, कलियारी, खस, खम्भारी, उसका सोलहवां भाग शहद मिला दें। कटेली, दारुहल्दी, इमलीकी छाल, करञ्जबीज, इसे पीने और इसकी मालिश करनेसे पुराना अशोकछाल, खरैटी, शालपर्णी, स्वर्णक्षीरी ऊरुस्तम्भ, श्लीपद, वातरक्त और खुडवातादि ( सत्यानासी ), मूर्वा, गिलोय और शतावर । वात व्याधियां नष्ट होती हैं। हरेक चीज़ ५-५ पल ( २५-२५ तोले) (३११७) द्विहरिद्राय तैलम् लेकर सबको अधकुटा करके २२४ सेर पानीमें पकावें और २८ सेर पानी शेष रहने । (आ. घे: वि. । उत्तरा. अ. ८१; भै. र. । क्षुद्र.) पर छान लें। | हरिद्राद्वयभूनिम्बत्रिफलारिष्टचन्दनैः। कल्क---कूठ, सोया, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल, एतत्तैलमरूंषीणां सिद्धमभ्यञ्जने हितम् ।। बच, देवदार, अगर, बायबिडंग, मोथा, हल्दी, दारु हल्दी, चिरायता, हर्र, बहेड़ा, असगन्ध, शालपर्णी, पाठा, मूर्वा, अरलु | आमला, नीमकी छाल, और सफेद चन्दन के काथ ( श्योनाक ), पीपल, सोंठ, दन्तीमूल, हींग तथा कल्कसे बनाया हुवा तैल लगानेसे अरूंषि और अमलबेत; सब चीजें समान भाग मिला- (शिरकी छोटी छोटी कुंसियां ) नष्ट होती हैं। कर ४६ तोले ८ माशे लें और सबको (काथके लिए सब चीजें समान भाग मिली हुई पानीके साथ पिसवा लें। | २ सेर, पानी १६ सेर, शेष काथ ४ सेर । सरविधि-७ सेर तेल में यह काथ और कल्क मि- सोंका तेल १ सेर । कल्कके लिए सब चीजें समान लाकर मन्दाग्नि पर पकावें, और काथके जल | भाग मिश्रित ६ तोले ८ माशे ।) इति दकारादितैलप्रकरणम् । अथ दकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् (३११८) दन्त्यरिष्टः (१) । हर्र, बहेड़ा, आमला, दशमूल, और दन्तीमूल (वं. से.; वृं. मा. । अर्शी.) | १-१ पल (५-५ तोले । कुल मिलाकर त्रिफला दशमूलानि निकुम्भानां पल पलम् । ७० तोले ) लेकर सबको १ द्रोण (३२ सेर ) वारिद्रोणे शृतं पादशेषे गुडतुलायुतम् ॥ पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय आज्यभाण्डे स्थितं मासं दन्त्यरिष्टो निषेवितः। तो उसमें १०० पल गुड़ मिलाकर घृतसे चिकने गुदजकम्युदावर्त्तग्रहणीपाण्डुरोगनुत् ॥ | किये हुवे मटकेमें भरकर उसका मुख अच्छी तरह For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [८२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि बन्द करके रखदें, और १ मास पश्चात् निकालकर | (३१२०) दशमूलारिष्टः (१) छानलें। (नपुं.। त. ९; भै. र. । वाजी.; ग. नि.; शा. यह ‘दन्त्यरिष्ट' बवासीर, कृमि, उदावर्त, ध.। आसवा.) ग्रहणी रोग और पाण्डुको नष्ट करता है । ( मात्रा दशमूलानि कुर्वीत भागैः पञ्चपलैः पृथक् । २ तोले) | पञ्चविंशत्पलं कुर्याचित्रकं पौष्करं तया ॥ (३११९) दन्त्यरिष्टः (२) | कुर्याद्विशत्पलं लोधं गुडूची तत्समा भवेत् । (च. सं. । चि. अ. ९; ग. नि. । आसवा.; पलैःषोडशभिर्धात्री रविसंख्यैर्दुरालभाः॥ च. द. । अर्शो.) खदिरो बीजसारश्च पध्या चेति पृथक् पलैः अष्टाभिर्गुणितैः कुष्ठं मञ्जिष्ठा देवदारु च ॥ विडॉ मधुकं भागी कपित्योक्षः पुनर्नवा ।। भागान् पलांशानापोथ्य जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ चव्यं मांसी भियङ्गश्च सारिवा कृष्णजीरकम् ।। त्रिपलं त्रिफलायाश्च दलानां तत्र दापयेत् । रसे चतुर्थशेषे तु पूते शीते समावपेत् ॥ । | त्रिता रेणुका रास्ना पिप्पली क्रमुकः सटी। तुलां गुडस्य सतिष्ठेत् मासार्द्ध घृतभाजने। हरिद्रा शतपुष्पा च पद्मकं नागकेशरम् ॥ तन्मात्रया पिबेन्नित्यमर्शोभ्योऽपि प्रमुच्यते ॥ मुस्तमिन्द्रयवाः शृङ्गी जीवकर्षभको तथा। | मेदा चान्या महामेदा काकोल्यौ ऋद्धिद्धिके । ग्रहणीपाण्डुरोगघ्नं वातव!ऽनुलोमनम् । दीपनश्चारुचिन्नश्च दन्त्यारिष्टमिदं विदुः॥ कुर्यात्पृथक् द्विपलिकान्पचेदष्टगुणे जले। चतुर्थाशं शृतं नीत्वा मृद्भाण्डे सन्निधापयेत् ॥ दन्तीमूल, चीतामूल, दशमूलकी हरेक वस्तु, चतःषष्टिपलां द्राक्षां पचेन्नीरे चतुर्गुणे। हर, बहेड़ा और आमला १-१ पल (५-५ तोले) त्रिपादशेष शीतश्च पूर्वकाथे शृतं क्षिपेत् ।। लेकर सबको अधकुटी करके १ द्रोण ( ३२ सेर) द्वात्रिंशत्पलिकं क्षाद्रं गुडं दद्याच्चतुः शतम् । पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी रह जाय तो | त्रिंशत्पलानि धातक्याः कङ्कोलं जलचन्दने । छानकर और ठण्डा करके उसमें १ तुला (६। सेर) जातीफलं लवङ्गं च त्वगेलापत्रकेशरम् । गुड़ मिलाकर मिट्टीके चिकने बर्तनमें भरकर, उसका | पिप्पली चेति संचूर्ण्य भागैविपलिकैः पृथक् ॥ मुंह बन्द करके रख दें; और १५ दिन पश्चात् शाणमात्रां च कस्तूरी सर्वमेकत्र निक्षिपेत् । निकालकर छानले । भूमौ निखनयेद्भाण्डं ततो जाते रसे पिवेत् ॥ इसके सेवनसे बवासीर, ग्रहणी, पाण्डु, और क्तकस्य फलं लिप्त्वा रसं निर्मलतां नयेत् । अरुचि नष्ट होती है। इसके अतिरिक्त यह मल ग्रहणीमरुचिं शूलं श्वासकासभगन्दरान् ॥ और वायुको गतिको अनुलोम (यथोचितमार्गगामी) | वातव्याधि क्षयं छदि पाण्डुरोग सकामलम् । और अग्निको दीप्त करता है। कुष्टान्यीसि मेहांश्च मन्दाग्रिमादराणि च ॥ For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- -- - - - -- - - ---- ---- - - - - -- - ----- - - -- - - - आसवारिष्टमकरणम् ] तृतीयो भागः। [८३] शर्करामश्मरीं चैव मूत्रकृच्छू क्षयं जयेत् । । कस्तूरी मिलाकर बरतनका मुख अच्छी तरह बन्द कृशानां पुष्टिजननो वन्ध्यानां पुत्रदः परः॥ । करके भूमिमें गाढ़ दें। अरिष्टो दशमूलाख्यस्तेजः शुक्रबलपदः ॥ एक मास पश्चात् बरतनको निकालकर अरि____ दशमूलकी हरेक वस्तु ५-५ पल, चीता ष्टको छानलें और उसमें निर्मलीके फलेका पूर्ण तथा पोखरमूल २५-२५ पल, लोध और गिलोय मिलाकर रख दें एवं ४-५ दिन बाद जब अरिष्ट २०-२० पल, आमला १६ पल, धमासा १२ स्वच्छ हो जाय तो पुनः छानकर बोतलोंमें भरकर पल, खैरसार, बिजयसार, और हरे ८-८ पल, | मजबूत डाट लगा दें। कूठ, मजीठ, देवदार, बायबिडंग, मुलैठी, भारंगी, यह अरिष्ट ग्रहणी, अरुचि, शूल, श्वास, कैथका गूदा, बहेड़ा, पुनर्नवा ( साठी), चव्य, खांसी, भगन्दर, वातव्याधि, क्षय, छर्दी, पाण्ड, जटामांसी, फूल प्रियंगु, सारिवा, कालाजीरा, कामला, कुष्ठ, बवासीर, प्रमेह, मन्दाग्नि, उदररोग, निसोत, रेणुका, रास्ना, पीपल, सुपारी, सटी अश्मरी, शर्करा, और मूत्रकृच्छ्रको नष्ट करता तथा (कचूर) हल्दी, सोया, पाक, नागकेसर, नागर- तेज, बल और वीर्यकी वृद्धि करता है। दुषले मोथा, इन्द्रजौ, काकडासिंगी, जीवक, ऋषभक मनुष्योंको पुष्टि और बन्ध्या स्त्रीको पुत्र देता है। (अभावमें विदारीकन्द), भेदा, महामेदा ( अभावमें (मात्रा---१ से २ तोले तक ।) शतावर), काकोली, क्षीरकाकोली (अभावमें अस- (नोट-कस्तूरी आसव छाननेके बाद कपड़ेगन्ध) और ऋद्धि, वृद्धि ( अभावमें बाराहीकन्द); को पोटलीमें बांधकर या सुरा (रेक्टी फाइड इनमें से हरेक चीज़ २-२ पल (१०-१० तोले) स्प्रिट ) में घोलकर डालनी चाहिए।) लेकर सबको आठगुने (१६ गुने) पानीमें पकावें। (३१२१) दशमूलारिष्टः (२) जब चौथा भाग बाकी रह जाय तो उतारकर छानले। (सु. सं. । चि. अ. ६) इसके पश्चात् ६४ पल (४ सेर) मुनक्का को द्विपञ्चमूलीदन्तीचित्रकपथ्यानां तुलामाहत्य जल५ गुने ( ८ गुने ) पानीमें पकाकर तीन चौथाइ पानी चतुद्रीणे विपाचयेत् । ततःपादावशिष्टं कषायशेष रहने पर छानलें और इसे तथा उपरोक्त काथको मादाय सुशीतं गुडतुलया सहोन्मिश्रय घृतभाजने मिटीके अच्छे बड़े और घृतसे चिकने किये हुवे निक्षिप्य मासमुपेक्षेत यवपल्ले ततः पात: बरतनमें भर दें। साथ ही उसमें ३२ पल (६४ पल) पातमात्रांपाययेत, तेनाओग्रहणीदोषपाण्डुरोगोशहद, ४०० पल गुड, ३० पल धायके फूलोंका चूर्ण | दावारोचका न भवन्ति दीयोऽमिश्च भवति । और २-२ पल ( १०-१० तोले ) कंकोल, दशमूल, दन्तीमूल, चीतामूल और हर्र १००सुगन्धवाला, सफेद चन्दन, जायफल, लौंग, दार-१०० पल (६। सेर) लें और सबको अधकुटा चीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, और पीपलका करके ४ द्रोण (१२८ सेर) पानी में पकावें जब पूर्ण और ४ माशे (वर्तमान तोलसे ५ माशे ) १ द्रोण पानी शेष रहे तो उसे छानकर, ठण्डा For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [८४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि करके उसमें १ तुला (६। सेर) गुड़ मिलाकर घृत कनकदुपलं चूर्ण क्षिपेन्निर्मलता भवेत् । से चिकने किए हुवे मिट्टीके पात्रमें भरकर उसका पक्षाचे पिवेधस्तु मात्रया च यथाबलम् ॥ मुख बन्द करदें और उसे जौके ढेरमें दबा दें। धातुक्षयं जयत्येव कासं पञ्चविधं तथा। फिर एक मास पश्चात् निकालकर छानलें। अर्शीसि षट्प्रकाराणि तथाष्टावुदराणि च ॥ ____ इसे प्रातःकाल यथोचित मात्रानुसार सेवन प्रमेहश्च महाव्याधिमरुचिं पाण्डुरुक् तथा । करनेसे अर्श, ग्रहणी, पाण्डु, उदावर्त और अरुचि सर्व वातांस्तथा शूलं श्वास छदिममृग्दरम् ॥ नहीं रहती तथा अग्नि दीप्त हो जाती है। अष्टादशैव कुष्ठानि शोफ शूलं भगन्दरम् । (मात्रा-२ तोला ।) शर्कराध मूत्रकृच्छ्मश्मरीञ्च विनाशयेत् ॥ कृशस्य पुष्टिं कुरुते पुष्टस्य च महाबलम् । (३१२२) दशमूलासवः (१) महावेगो महातेजो महावीर्यो विलोक्यते ॥ ( वृ. नि. र. । क्षय; यो. चि. । अ. ७) कामपुष्टिकरो होष बन्ध्यानां पुत्रदो भवेत् ॥ दशमूलं तुलादै च पौष्करश्च तदर्धकम् । __ दशमूल ५० पल ( हर एक चीज ५ पल), हरीतकीनां प्रस्थाई धात्री प्रस्थद्वयं तथा ॥ पोखरमूल २५ पल, हर्र ८ पल, आमला ३२ चित्रकं पुष्करमितं चित्रकाध दुरालभा ।। पल, चीता २५ पल, धमासा १२॥ पल, गिलोय गुडूच्या वै शतपलं विशाला पलपश्चकम् ॥ १०० पल, इन्द्रायन ५ पल, खैरसार ८ पल, खदिरस्य पलान्यष्टौ तदर्धे बीजकं तथा। बिजयसार ४ पल, मजीठ, मुलैठी, कूठ, कैथ, देवमञ्जिष्ठा मधुकं कुष्ठं कपित्थं देवदारु च ॥ दारु, बायबिडंग, चव, लोध, भार्गी, मेदा, महाविड चविकं लोधं भाी चाष्टकवर्गकम् । मेदा, ऋद्धि, वृद्धि, जीवक, ऋषभक, काकोली कृष्णाजाजी पिप्पली च क्रमुकं पद्मक सठी ॥ क्षीरकाकोली, कालाजीरा, पीपल, सुपारी, पभाक, प्रियङ्ग सारिवा मांसी रेणुका नागकेशरम् ।। सटी ( कचूर ), फूल प्रियंगु, सारिवा, जटामांसी, त्रिवृता रजनी रास्ना मेषशृङ्गी पुनर्नवा ॥ रेणुका, नागकेसर, निसोत, हल्दी, रास्ना, मेदासिंगी, शतावरी चेन्द्रयवा मुस्ता द्विपलिकाञ्जले। | पुनर्नवा ( साठी ), शतावर, इन्द्रजौ और नागरचतुर्गुणे पादशेषे द्राक्षा पष्टिपलं क्षिपेत् ॥ मोथा । हरेक चीज़ २-२ पल (१०-१० तोले) त्रिंशत्पलानि धातक्या गुड पलचतुः शतम् । लेकर सबको अधकुंटा करके चार गुने पानीमें मधु द्वात्रिंशत्पलं चैव सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ पकावे; जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो भाण्डे पुराणे स्निग्धे च मांसीमरिचधुपिते ।। उसे छानकर घृतसे चिकने किये हुवे पुराने और पृथक् द्विपलिकानेतान् पिप्पली चन्दनं जलम् । स्याहमिर्च तथा जटामांसीसे धूपित मिट्टीके मटके जातीफलं लवणं च त्वगेलापत्रकेशरान् । में भरदें; साथ ही उसमें ६० पल मुनक्का, ३२ पल कर्षमात्रां च कस्तूरी दत्त्वा पक्षं निधापयेत् ॥ शहद,३० पल धायके फूलोंका चूर्ण, ४०० पल गुड़ For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। एवं २-२ पल पीपल, सफेद चन्दन, सुगन्ध बाला, दशमूलासवः सिद्धो दीपनो रक्तपित्तनुत् । जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, तेजपात, और आनाहकफहृद्रोगपाण्डुरोगाणसादनुत् ॥ नागकेसर का चूर्ण तथा १ तोला कस्तूरी मिलाकर दशमूल, हल्दी, जीवक, ऋषभक (दोनेांके उसका मुख बन्द कर दें; और १५ दिन पश्चात् अभावमें विदारो कन्द ) और चीता ५-५ पल निकालकर छानलें तथा उसमें ५ तोले धतूरेके लेकर अधकुटा करके ४ द्रोण (१२८ सेर) पानीमें फलोंका चूर्ण मिलादें । जब स्वच्छ हो जाय तो पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे बोतलोंमें भरकर रख दें। छानकर उसमें ४ पल गुड़, १ पल (५ तोले) इसे निकालनेके १५ दिन बाद यथोचित शहद, तथा १-१ पल फूलप्रियंगु, मजीठ, बायमात्रानुसार सेवन करनेसे धातुक्षय, खांसी, श्वास, | बिडंग, मुलैठी, पीपल, लोध और पठानी लोध का ६ प्रकारकी बवासीर, आठ प्रकारके उदररोग, चूर्ण मिलाकर चिकने मटकेमें भरकर उसका मुंह प्रमेह, अरुचि, पाण्डु, सर्व प्रकारकी वात व्याधियां, | बन्द करके भूमिमें दबादें; और १५ दिन पश्चात् शूल, श्वास, वमन, रक्तप्रदर, १८ प्रकारके कुष्ट, ! निकाल कर छान लें । शोथ, भगन्दर, शकेरा, मूत्रकृच्छू और अश्मरी यह 'दशमूलासव ' अग्निदीपक, रक्तपित्त आदि रोग नष्ट होते हैं । इसके सेवनसे कृश मनुष्य | नाशक तथा अफारा, कफ, हृद्रोग, पाण्डु और शरीपुष्टः पुष्ट मनुष्य अत्यन्त बलवान् वगवान् रकी पीड़ाको नष्ट करने वाला है। तेजयुक्त और वीर्ययुक्त हो जाता है तथा वन्ध्या (मात्रा-२ तोले । भोजनोपरान्त पानीमें स्त्री पुत्र उत्पन्न कर सकती है। (मात्रा १ तो.) नोट-कस्तूरी आसव छाननेके बाद कपड़ेकी डालकर पियें।) पोटलीमें बांध कर या मद्यसार (रेक्टीफाइडस्प्रिट) (३१२४) दुरालभारिष्टः (१) में मिलाकर डालनी चाहिये । (च. सं. । चि. अ. ९; ग. नि.; यो. र.) (३१२३) दशमूलासवः (२) | दुरालभायाः प्रस्थः स्याच्चित्रकस्य वृषस्य च । (वं. से. । ग्रह.) पथ्यामलकयोश्चैव पाठाया नागरस्य च ॥ द्विपञ्चमूलरजनीजीवकर्षभकचित्रकान् । दन्त्याश्च द्विपलान् भागान् जलद्रोणे विपाचयेत्। पृथक् पञ्चपलैर्भागैश्चतुर्दोणेम्भसःपचेत् ॥ पादावशेषे पूते च सुशीते शर्कराशतम् ।। द्रोणशेषे रसे पूते गुडस्य कुडवं क्षिपेत् ।। प्रक्षिप्य स्थापयेत् कुम्भे मासार्द्ध घृतभाजने । चूर्णितान्पलिकान्सन्दिद्याश्चात्र समाक्षिकान् । प्रलिप्ते पिप्पलीचव्यप्रियङ्गसौद्रसर्पिषा ॥ मियङ्गपुष्पं मञ्जिष्ठा विडॉ मधुकं कणाम् । तस्य मात्रां पिबेत्काले शार्करस्य यथावलम् । लोधं सावरकं चैव मासाई स्थापयेक्षितौ ॥ । अर्कोसि ग्रहणीदोषमुदावर्त्तमरोचकम् ॥ प्रयोग सं. ३१२० में और ३१२२ में औषधियां तो लगभग एक ही हैं परन्तु उनके परिमाणमें बहुत अन्तर है, निर्माण विधिमें भी थोड़ा अन्तर है इसी लिए इसे पृथक लिखा गया है। For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि शकन्यूनानिलोद्वारविबन्धाननिमाईवम् । धमासा १ प्रस्थ (१ सेर) और दन्तीमूल, होगं पाण्डुरोगश्च सर्वमेतेन साधयेत् ॥ पाठा, चीता, भंग, बासा, आमला और सांठ १० घमासा १ प्रस्थ ( ८० तोले ) और चीता, | १० तोले लेकर सबको अधकुटा करके १ द्रोण मासा, हर्र, आमला, पाठा, सेठ, और दन्तीमूल | (३२ सेर ) पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी २-२ पल (१०-१० तोले) लेकर सबको शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें १०० पल अधकुटा करके १ द्रोण (३२ सेर) पानीमें पकावे; । (६। सेर) खांड और १ सेर धायके फूलांका चूर्ण जब ८ सेर पानी बाकी रह जाय तोकाथको छान मिला और एक मटकेके भीतर फूलप्रियंगु, पीपल में और ठण्डा करके उसमें १०० पल (६। सेर) तथा चवके चूर्णको घी और शहदमें मिलाकर खांड मिलाकर उसे घृतसे चिकने किये हुवे मटकेमें | उसका लेप करदें और फिर उसमें उपरोक्त काथादि पीपल, चव और फूल प्रियंगुके चूर्णको घी और डालकर उसका मुख बन्द करके रखदें । १५ दिन शहद में मिलाकर लेप करके उसमें भर दें और | पश्चात् आसवको निकालकर छानकर बोतलेमें भरउसका मुंह बन्द करके १५ दिन तक रक्खा कर सुरक्षित रखें। रहने दें। ____ यह आसव अग्नि वर्द्धक, तथा अर्श, ग्रहणी, यह अरिष्ट अर्श, ग्रहणी दोष, उदावर्त, अरु- | पाण्ड, कुष्ठ, उदररोग, विष, ज्वर, सूजन, तिल्ली, चि, मलमूत्र अपान वायु और डकारका रुकना, । हृद्रोग और गुल्म नाशक है । भग्निमांध, हृद्रोग और पाण्डु रोगको नष्ट करता है। (मात्रा--२ तोले । पानीमें डालकर भोजनके (मात्रा-२ तोले।) बाद पियें।) नोट-गदनिग्रह और योगरत्नाकरमें इसका (३१२६) दुरालभासवः नाम 'शर्करासव' है। (च. सं. । चि. अ. १९; ग. नि. । आस.) (३१२५) दुरालभारिष्ठः (२) प्रस्थौ दुरालभाया द्वौ प्रस्थमामलकस्य च । (वा. भ.। चि. अ. ८) मुष्टीचित्रकदन्त्यो· प्रत्यग्रे चाभया शतम् ॥ क्वेरालभाषस्य द्रोणेऽषां पासूसैः सह। चतुर्दोणेऽम्भसः पक्त्वा शीतं द्रोणावशेषितम् । दन्तीपाठामिविजयावासामलकनागरैः॥ | गुडस्य द्विशतं पूतं मधुनः कुडवान्वितम् ॥ तस्मिन्सिता शतं दद्यात्पादस्थेऽन्यच पूर्ववत् । तद्वत्मियङ्गोः पिप्पल्या विडामाश्च चूर्णितः । लिम्पेत्कुम्भ तु फलिनीकृष्णाचव्याज्यमाक्षिकैः॥ कुडवैघृतकुम्भस्थ पक्षाज्जातं ततः पिबेत् ॥ दखा प्रस्थं च धातक्या स्थापयेद् घृतभाजने। ग्रहणीपाण्डुरोगार्शः कुष्ठवीसपेमेहनुत् । पक्षात्स शीलितोऽरिष्टः करोत्यनि निहन्ति च ॥ स्वरवर्णकरश्चैष रक्तपिसकफापहः॥ गुदजग्रहणीपाण्डुकृष्ठोदरगरज्वरान् । धमासा २ प्रस्थ ( २ सेर=१६० तोले ), श्वयथुप्लीहहद्रोगगुल्मयक्ष्मम्मीकृमीन् ॥ | आमला १ सेर, चीता और दन्तीमूल २-२ पल For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टमकरणम् ] सृतीयो भागः। [८७] (१०-१० तोले) और ६। सेर हर लेकर सबको | प्रमेहान्मूत्रकृच्छ्राश्च वातरोगान्सुदारुणान् ।। अधकुटा करके ४ द्रोण (१२८ सेर) पानीमें | ग्रहण्यर्चाविकारांश्च देवदासवो जयेत् ॥ पकावें । जब १ द्रोण पानी शेष रह जाय तो उसे देवदार ५० पल, बासा २० पल, इन्द्रजौ, छानकर ठण्डा करलें और उसमें २०० पल (१२॥ दन्तीमूल, मजीठ, तगर, हल्दी, दारु हल्दी, रास्ना, सेर) गुड़ और २०-२० तोले शहद, तथा फूल | मोथा, सिरसकी छाल, बायबिडंग, खैरसार और प्रियंगु, पीपल और बायबिडंगका चूर्ण मिलाकर | अर्जुनकी छाल, १०-१० पल; गिलोय, चीता, चिकने मटकेमें भरदें और उसका मुंह बन्द करके सफेद चन्दन, अजवायन, मांसरोहिणी और कुड़ेकी १५ दिन तक रक्खा रहने दें, पश्चात् निकालकर छाल ५-५ पल (२५-२५ तोले ) लेकर छानलें और बोतलेमें भरकर रख दें। सबको अधकुटा करके ८ द्रोण (२५६ सेर ) ___ यह आसव ग्रहणीविकार, पाण्डु, बवासीर, पानीमें पकावें; जब १ द्रोण ( ३२ सेर ) पानी कुष्ठ, वीसर्प, प्रमेह, रक्तपित्त और कफ नाशक तथा शेष रह जाय तो उसे छान कर ठण्डा करलें और स्वर और वर्णको ठीक करने वाला है। फिर उसमें १६ पल (१ सेर-८० तोले ) धा. (मात्रा २ तोले । भोजनके बाद पानीमें डाल- यके फूलोंका चूर्ण, १८॥ सेर शहद तथा ४ कर पीना चाहिए।) पल त्रिजातक ( दालचीनी, तेजपात, इलायची), (३१२७) देवदासवः २ पल त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल ), और २-२ (ग. नि.; शा. ध. । आसवा.; भै. र. । प्रमे.) पल ( १०-१० तोले ) नागकेशर तथा फूलदेवदारु तुलार्धे तु वासायाः पलविंशतिः। प्रियंगु का चूर्ण मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर शक्राहदन्तीमजिष्ठास्तगरं रजनीद्वयम् ॥ उसका मुख बन्द करके १ मास तक रक्खा रहने रास्ना मुस्तं शिरीषं च कृमिघ्नं खदिरार्जुनौ।। दें। तत्पश्चात् निकालकर छान लें। भागान्दशपलान्कृत्वा गुडूच्यश्चित्रकस्य च ॥ । यह " देवदासिव " प्रमेह, मूत्रकृच्छू, वातचन्दनस्य यवान्याश्च रोहिण्या वत्सकस्य च । व्याधि, ग्रहणीविकार, और अर्श को नष्ट करता है। भागान्पश्चपलानेतानष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत् ॥ ( मात्रा-२ तोले । पानीमें डालकर प्रातःद्रोणशेषे कषाये तु पूते शीते प्रदापयेत् । काल पीना चाहिये ।) धातक्या षोडशपलं माक्षिकस्य तुलात्रयम् ॥ । (३१२८) द्राक्षारिष्टः (द्राक्षासव:) (१) चतुःपलं त्रिजाताच व्योषस्य च पलद्वयम् । (३. यो. त. । त. ७६; यो. त. । त. २७) पलद्वयं केशरस्य प्रियङ्गोश्च पलद्वयम् ॥ शा. ध. । आसव.; भै. र.'; यो. र. । यक्ष्मा. घृतभाण्डे निदध्याच्च मासमेकं प्रयत्नतः। यो. चिं. । मिश्रा.) १-शा. ध.; मे. र. यो. चि. म.: तथा यो. त. में धायके फूल नहीं लिखे । यह योग भिन्न भिन्न प्रन्योंमें मृद्वीकासव, द्राक्षासव, मृवीकारिष्ट और द्राक्षारिटादि भिन्न भिन्न नामोंसे लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि मृद्वीकायास्तुलार्धन्तु द्विद्रोणेऽपां विपाचयेत् । । दत्त्वा गुडतुलां तत्र धातकीपस्थमेव च । पादशेषे कषाये च पूते शीते प्रदापयेत् ॥ निखात्य स्थापयेमौ यावतासौ वरो भवेत् ।। गुडस्य द्वितुलां मानीं धातक्या घृतभाजने। ततस्तत्सारमादधाद्वारुणीयन्त्रतः शनैः । विडङ्ग फलिनी कृष्णा त्वगेलापत्रकेशरम् ॥ । पुनस्तं वारुणीयन्त्रे समारोप्य तदाहरेत् ॥ मरीचं च भिषक् चूर्ण सम्यक् कृत्वाविचक्षणः। एवं तु दशधा सारं पौनः पुन्येन संहरेत् । क्षिपेच पालिकै गैः स्थापयेच्च कियद्दिनम् ॥ ततस्तस्मिंश्चतुर्जातं जातिकोशं लवकम् ॥ ततो यथावलं पीत्वा कासश्वासात्ममुच्यते। कर्पूरं कुङ्कुमं चापि यथालाभं नियोजयेत् । हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रमुरःसन्धि करोति च ।।। तं यथाग्निवलं मयः पिबेत्सर्वक्षयापहम् ॥ __ ५० पल ( ३ सेर १० तोले ) मुनक्काको स्निग्धेन भोजनेनैव आसवं विधिना पिबेत् २ द्रोण (६४ सेर ) पानीमें पकाइये । जब १६ नरो नवतिवर्षीयोप्यनेन दशकामिनीः। सेर पानी शेष रह जाय तो उसे छान कर ठण्डा | प्रत्यहं रमयत्येव पौरुषेण न हीयते ॥ कर लीजिए और फिर उसमें २ तुला (१२॥ १ तुला (६। सेर) मुनक्का को ४ द्रोण सेर) गुड़ तथा ४० तोले धायके फूल एवं १-१ (१२८ सेर ) पानीमें पकावें; जब ३२ सेर पानी पल (५-५ तोले ) बायबिडंग, फूलप्रियंगु, शेष रह जाय तो उसे अनकर उसमें १०० पल पीपल, दारचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर, । (६। सेर ) गुड़ और १ सेर (८० तोले) और कालीमिर्चका चूर्ण मिलाकर घृतसे चिकने धायके फूलोंका चूर्ण मिलाकर मिट्टीके चिकने मटकेकिये हुवे मटकेमें भरकर उसका मुख बन्द करके में भरदें और उसका मुख बन्द करके भूमि में रख दीजिए । और थोड़े दिनों (१५ दिन) दबा दें। जब आसव तैयार हो जाय (१५-२० पश्चात् निकालकर छान लीजिये । | दिन बाद ) उसको निकालकर भबके से खींच इसके सेवनसे खांसी, श्वास, राजयक्ष्मा और लें और फिर उस खिंचे हुवे अर्कको दुबारा खींचें, उरःक्षतका नाश होता है। इसी प्रकार दश बार भबकेसे खींच कर उसमें नोट-जिन ग्रन्थों में धायके फूल नहीं लिखे यथोचित परिमाणमें दालचीनी, इलायची, तेजउनमें प्रयोगके अन्तमें यह श्लोक अधिक मिलता है पात, नागकेसर, जावित्री, लौंग, कपूर, और केसरचतुर्थभागं द्राक्षाया धातकीमत्र केचन । का चूर्ण मिलाकर रक्खें । प्रयच्छन्ति ततो वीर्यमेतस्योच्चैः प्रजायते ॥ (३१२९) द्राक्षासवः (२) ___ इसे अग्निबलोचित मात्रानुसार पीने और (वै. र. । वाजी.; नपुं. । त. २) स्निग्ध भोजन करनेसे क्षय रोग नष्ट होता है। द्राक्षा तुलामुपादाय जलद्रोणचतुष्टये । तथा इसके सेवनसे ९० वर्षका वृद्ध भी युवाके पता चतुर्थेशेषन्तु तं कपायमुपाहरेत् ॥ समान स्त्री समागम कर सकता है। For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । आसवारिष्टप्रकरणम् ] (३१३०) द्राक्षासवः (मृडीकासव:) (३) ( शा. ध.; ग. नि. । आसवा.; यो. र.; वृ. नि. र. । संग्र. ) मृद्वीकायाः पलशतं चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत् । द्रोणशेषे सुशीते च पूते तस्मिन्प्रदापयेत् ॥ द्वे शते क्षौद्रखण्डाभ्यां धातक्याः प्रस्थमेव च । कङ्कलकलवङ्गे च जातीफलमयैव च ॥ पलांशकानि मरिचत्वगेलापत्र केसरम् । पिप्पली चित्रकं चव्यं पिप्पलीमूलं रेणुकम् ॥ घृतभाण्डे स्थितं चेदं चन्दनागुरुधूपिते । कर्पूरवासितो हयेष ग्रहण्यां दीपनः परः ॥ अर्शसां नाशनः श्रेष्ठः उदावर्त्तास्रपित्तनुत् । जठरकृमिकुष्ठानि व्रणांश्च विविधांस्तथा ।। अक्षिरोगशिरोरोगगलरोगविनाशनः । ज्वरं हन्ति महाव्याधिं पाण्डुरोगं सकामलम् || नाना द्राक्षासवो ह्येष बृंहणो वलवर्णकृत् ॥ १०० पल मुनक्का को ४ द्रोण (१२८ सेर ) पानीमें पकावें । जब १ द्रोण (३२ सेर) पानी शेष रह जाय तो उसे छानकर ठण्डा करके उसमें १००-१०० पल ( हरेक ६ । सेर) खांड और शहद तथा १ प्रस्थ ( ८० तोले ) धायके फूल एवं १-१ पल ( ५ - ५ तोले ) कंकोल, लौंग, जायफल, कालीमिर्च, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, पीपल, चीता, चव, पीपलामूल और रेणुकाका चूर्ण मिलाकर घृतसे चिकने किये हुवे तथा चन्दन और अगर से धूपित मटके में भर कर उसका मुख बन्द करके १५ दिन तक रक्खा रहने दीजिये । तत्पश्चात् छानकर उसमें सुगन्ध के लिये थोड़सा कर्पूर कपड़े की पोटली में Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ९ ] | बांधकर डाल दीजिये और सुगन्धित हो जाने पर बोतलों में भरकर रखिये । "C "" यह द्राक्षासव ग्रहणी, अर्श, उदावर्त, रक्तपित्त, उदरके कृमि, कुष्ठ, अनेक प्रकारके व्रण, नेत्ररोग, शिरोरोग, गलरोग, ज्वर, पाण्डु और कामलाको नष्ट करता तथा बल वर्ण वीर्य और अग्निको वृद्धि करता है । ( मात्रा - २ - ३ तोले । पानी में डालकर भोजनके बाद पीना चाहिये । ) (३१३१) द्राक्षासवः (४) (ग. नि. । आस. यो. र. । अर्श.; बृ.नि. र. । संग्र. ) द्राक्षापलशतं दत्त्वा चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत् । द्रोणशेषे रसे तस्मिन्पूते शीते प्रदापयेत् ॥ शर्करायास्तुलां दत्त्वा तत्तुल्यं मधुनस्तथा । पलानि सप्तधातक्याः स्थापयेदाज्यभाजने ॥ जातीलवङ्गकङ्कोललवलीफलचन्दनैः । कृष्णां त्रिगन्धसंयुक्तां भागैरर्धपलांशकैः ।। त्रिसप्ताहाद्भवेत्पेयं तत्र मात्रा यथाबलम् । नाम्ना द्राक्षासवो ह्येष नाशयेद्गुदकीलकान् ॥ शोफारोचकहृत्पाण्डुरक्तपित्तभगन्दरान् । गुल्मोदरकृमिग्रन्थिक्षतशोषज्वरान्तकृत् ॥ वातपित्तमशमनः शस्तश्च बलवर्णकृत् ॥ १०० पल (६। सेर) द्राक्षा ( मुनक्का ) को ४ द्रोण ( १२८ सेर ) पानी में पकावें जब ३२ सेर पानी शेष रहे तो उसे छानकर और ठण्डा करके उसमें १ तुला ( ६ । सेर) खांड और १ तुला शहद, ७ पल ( ३५ तोले ) धायके फूलोंका चूर्ण, तथा २॥ - २॥ तोले जावित्री, लौंग, For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [30] कंकोल, लवली फल (हरफारेवरी), सफेद चन्दन, पीपल, दालचीनी, इलायची और तेजपात का चूर्ण मिलाकर चिकने मटकेमें भरकर उसका मुख बन्द करके रख दीजिये । ३ सप्ताह पश्चात् आसव तैयार हो जायगा तब उसे निकालकर छान लीजिये । इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करने से अर्श, शोथ, अरुचि, हृदय रोग, पाण्डु, रक्तपित्त, भगन्दर, गुल्म, उदररोग, कृमि, ग्रन्थि, क्षत, शोष, ज्वर और वातपित्तज रोग नष्ट होते तथा बल वर्णकी वृद्धि होती है । ( मात्रा २ - ३ तोले । भोजनोपरान्त पानीमें मिलाकर पीना चाहिये । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ दकारादि मध्याहने द्विपलं ग्राह्यं सन्ध्याकाले चतुःपलम् । गरिष्ठं स्निग्धमाहारं भक्षयेदस्य सेवकः ॥ वीर्याभिवृद्धिः प्रभवेन्नराणां रामासु वयो भवतीह लोके । तएव धन्या मनुजा नरेन्द्राः द्राक्षासवं ये किल सेवयन्ति ॥ दाख ( मुनक्का ) १०० पल ( ६ । सेर), खांड ४०० पल, बेरीकी जड़ २०० पल, धायके फूल १०० पल, तथा सुपारी, लौंग, जावित्री, जायफल, दारचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, सोंठ, मिर्च, पीपल, रूमीमस्तगी, पद्मकन्द, अकरकरा और कूठ, १०-१० पल लेकर कूटने योग्य चीज़ोंको कूटकर मिट्टीके चिकने पात्रमें भरकर उसमें सबसे ४ गुना पानी डाल दें और उसका मुख बन्द करके भूमिमें दबा दें एवं १४ दिन पश्चात् उसमें से आसवको निकाल कर कच्छप यन्त्र ( मदिरा खींचनेके यन्त्र ) में डालकर उसका अर्क खींचें और फिर उस अर्क को दूसरी बार उसी प्रकार खींचें परन्तु अबकी बार एक पोटली में केसर और कस्तूरी बांधकर यन्त्रके मुंह पर ( जहां से अर्क टपकता है उस जगह ) लगा दें। अब इस अर्कको बोतलों में भरकर रख दें और तीन दिन पश्चात् सेवन करें । (३१३२) द्राक्षासव : (महा) (५) ( यो. चिं. । अ. ७ ) द्राक्षायाश्च पलशतं सितायास्तच्चतुर्गुणम् । कर्कन्धुमूलं तस्यार्द्ध मूलार्द्धं पुष्पधातुकी ॥ क्रमुकं च लवङ्गश्च जातिपुष्पफलानि च । चातुर्जातं त्रिकटुकं मस्तकीकरहाटकम् ॥ आकलकर कुष्ठं पलानि दशमाहरेत् । एभ्यश्चतुर्गुणं तोयं भाण्डे चैव विनिक्षिपेत् ॥ स्थापयेत् भूमिमध्ये तु चतुर्द्दशदिनानि च । ततो जातरसं शुद्धं क्षिपेत्कच्छपयन्त्रके ॥ मुद्रयित्वा च तस्याधो वह्नि प्रज्वालयेत्सुधी । तस्यांतश्च्यवितं सीधुं गृह्णीयात् सर्वमेव तत् || पुनरेव च तत्सीधुं क्षिपेत्कच्छपयन्त्रके । धाराधोनिक्षिपेत्तस्य मृगनाभिं सकुङ्कुमम् इसे सेवन करने से अत्यन्त वीर्य वृद्धि होती एतत्सिद्धं क्षिपेद्धीमान् काचभाण्डे निधापयेत् । है । वह लोग, जो इसे सेवन करते हैं धन्य हैं। त्रिदिनेषु व्यतीतेषु तत्पेयं पलसंख्यया ॥ ( व्यवहारिक मात्रा - २ से ४ तोले तक । ) 11 इसमें से मध्याह में २ पल (१० तोले ) और शामको ४ पल अर्क पीना और भारी तथा स्निग्ध आहार करना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [९१] ___ नोट-आसव किसी इतने बड़े बरतन में रहे । यदि इतना बड़ा मिट्टीका बरतन न मिल बनाना चाहिये कि जिसमें सब चीजें डालने के | सके तो लकड़ी की कोठीमें बनाया जा सकता है। बाद उसका कमसे कम १ चौथाई भाग खाली इति दकाराधासवारिष्टप्रकरणम् । अथ दकारादिलेपप्रकरणम् कान्ति (३१३३) दग्धयवादिलेपः बेरीके पत्तोंको दहीमें पीसकर या कपूर, स(भै. र. । सधोबणा.) | फेद चन्दन, और नीमके पत्तोंको तकमें पीसकर तिलतैलैर्यवान् दग्या समं कृत्वा तु लेपयेत । (शिरपर) लेप करनेसे सन्निपात ज्वरकी दाह तेनैव लेपनादाशु वहिदग्धः सुखी भवेत् ॥ ___ जौकी राखको तिलके तेलमें घोटकर लेप (३१३६) दन्तीमूलादिलेपः करनेसे अग्निदग्धव्रण शीघही नष्ट हो जाता है। । (वृ. नि. र.; यो. र । व्रणशोथ; वा. भ. । चि. (३१३४) दधित्थादिशिरोलेपः अ. १८; वृ. नि. र. । कर्णके; वं. से. । प्रन्थि.) (ग. नि. । ज्वरा.; वं. से. यो. र.; भा. प्र.।तृष्णा.) दन्तीचित्रकमूलत्वक्स्नु ह्यर्कपयसी गुडः। दधित्थं दाडिमं रोधं विदारी बीजपूरकम् । भल्लातकास्थिकाशीससैन्धवैरणः स्मृतः ॥ शिरःपदेहः श्रेष्ठोऽयं तृष्णादाहनिवारणः॥ दन्तीमूल, चीतेकी जड़की छाल, सेंड (सेहुंड) कैथकी छाल, अनारकी छाल, लोध, बिदारी का दूध, आकका दूध, गुड़, भिलावेकी गिरी, कन्द और बिजौरा नीबू समान भाग लेकर पानीके कसीस, और सेंधा नमक । सब चीजें समान साथ पीसकर शिरपर लेप करने से तृष्णा और भाग लेकर पानीके साथ पीसकर लेप करनेसे दाह नष्ट होती है। ग्रन्थि फट जाती है। नोट-बंगसेनादिमें विदारीकी जगह बदरी (३१३७) दन्त्यादिलेपः(१) (बेरीके पत्ते ) लिखा है। (वं. से. । विद्र.) (३१३५) दध्यादिलेपः दन्तीचित्रकगोदन्तचिरबिल्वाश्वमारकान् । (वृ. नि. र. । सन्नि.) आन्तरे वितरेद्विद्वान् पके शोथविधौ ॥ शमयति दाहमचिराधियुक्वर्कन्धुपल्लवैर्लेपः। दन्तीमूल, चीता, गायका दांत, करा बीज लेपो हिमकरमलयजनिम्बदलैस्तक्रपिष्टैर्वा ॥ | और कनेरकी जड़की छाल समान भाग लेकर For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [९२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि पानीके साथ पीस लें । पक्क और शोथयुक्त अन्त- हिंगुल (शंगरफ), गन्धक, पारा, पीपल, विद्रधि में इसका लेप करना हितकारक है । मीठातेलिया ( बछनाग), बायबिडंग, हल्दी, (३१३८) दन्त्यादिलेपः (२) चीता, काली मिर्च, हर्र, सेठ, नागरमोथा, समुद्र(रा. मा. । क्षुद्ररोगा.) | फेन, बाबची, कपूर, अमलतासके पत्ते, और पंवाड़ निकुम्भवातारिफलैर्जलेन के बीज समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी संपेषितैः कुरुते प्रलेपम् । कजली बनावें और फिर अन्य ओषधियों का तस्योपशान्ति पिटिकाः प्रयान्ति महीन चूर्ण मिलाकर घोटें । इसे नीमके रसमें समस्तदोषप्रभवाः क्षणेन ॥ मिलाकर लेप करने से दादकी खाज, विसर्प, लतादन्तीके बीज ( जमाल गोटा ) और अरण्ड- विष ( मकड़ीका जहर ), भगन्दर और मण्डल के बीजेांको पानीके साथ पीसकर लेप करनेसे | | कुष्ठ, अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है। सभी दोषांसे उत्पन्न पिटिकाएं (पुंसियां) (३१४१) दशाङ्गालेपः अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती हैं। (वृ. यो. त. । त. २३; शा. स.। उ. अ. ११; (३१३९) दन्त्यादिलेपः (३) वं. से.; वृ. नि. र.; यो. र.; ग. नि. । विसर्प; (रा. मा. । अ. १७; ग. नि. । भगन्दरा.) यो. त. । त. ६५) दन्तीनिशामलकलेपितमाशु नाशं शिरीषयटीनतचन्दनैला मांसीहरिद्राद्वयकुष्ठवालैः। पुंसां भगन्दरमुपैत्यपि दुर्निवारम् । लेपो दशा सघृतः प्रयोज्यो वीसर्पकुष्ठवणदन्तीमूल, हल्दी और आमलेको पानीके सा शोथहारी॥ थ पीसकर लेप करनेसे दुस्साध्य भगन्दर भी सिरसकी छाल, मुलैठी, तगर, लाल चन्दन, शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इलायची, जटामांसी, हल्दी, दारुहल्दी, कूठ, और (३१४०) दरदादिलेपः सुगन्ध बाला । सब चीज़ोंका समान भाग महीन (यो. र. । कुष्ठ; वृ. नि. र. । त्वग्दो .) चूर्ण लेकर एकत्र मिलावें । दरदगन्धकपारदपिप्पली ___इसे धीमें मिलाकर लगानेसे विसर्प, कुष्ठ, विषविडङ्गनिशाग्निमरीचकम् । | अण और शोथ नष्ट होता है । अभयशुण्ठिघनाब्धिकवाकुची (३१४२) दारुषटकादिलेपः कटुनृपद्रुममेडगजान्वितम् ॥ (सु. सं.; वृ. नि. र. । आनाह; भा. प्र. । शूल.; सममिदं खल निम्बरसैयुतं भा. प्र. ख. २ । वात.; वृ. नि. र. । वात.; रतिकण्डनिका वृ. यो. त. । त. ९०) हरति लुतभगन्दरमण्डलं देवदारु क्या कुष्ठं शताहा हि सैन्धवम् । तनुविलिप्तमहो क्षणतो नृणाम् ।। । पपिष्ट्वा काञ्जिके लेपादानाहं नाशयत्यपि ।। For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [९३] देवदार, बच, कूठ, सोया, हींग और सेंधा | (३१४६) दूर्वादिलेपः (२) नमकको काखीमें पीसकर लेप करनेसे आनाह (ग. नि.; वृं. मा.; यो. र.; वं. से. । व्रणरो.; नष्ट होता है। शा. सं. । लेपा.) (३१४३) दायांदिलेपः (१) दुर्वा च नलमूलश्च मधुकं चन्दनं तथा। (यो. र.; वृ. नि. र.; र. र. । उपदंश.) शीतलाश्च गणाः सर्वे प्रलेपः पित्तशोफहा ॥ त्वचो दारुहरिद्रायाः शङ्खनाभी रसाञ्जनम् । ___दूब घास, खस, मुलैठी, लाल चन्दन, और लाक्षागोमयनिर्यासस्तैलं क्षौद्रं घृतं पयः॥ अन्य शीतल गणोंके पदार्थोंका लेप करनेसे घावोंएभिः सुपिष्टैर्द्रव्यांशैरुपदशं प्रलेपयेत् ।। का पित्तज शोथ नष्ट होता है । ब्रणाश्च तेन शाम्यन्ति श्वयथुर्दाह एव च ॥ । (२१४७) दूवाद दार हल्दीकी छाल, शंखकी नाभि. रसौत. । (. मा.; वे. से.; ग. नि.। कुष्ठा.; वृ. नि. र.। लाख, गायके गोबरका रस, तैल, शहद, घी त्वग्दो.; शा. सं. । लेपा.) और दूध । सब चीजें समान भाग लेकर पीसने | द्वाभयासन्धवचक्रमर्द योग्य चीज़ोंको महीन पीसकर सबको एकत्र मिलावें। कुठेरकाः काञ्जिकतक्रपिष्टाः । इसे उपदंशके घावों पर लगाने से घाव और त्रिभिः प्रलेपैरपि बद्धमूलां उनको सूजन तथा दाह नष्ट हो जाती है। दुद्रं च कण्डं च विनाशयन्ति ॥ (३१४४) दाादिलेपः (२) __ दूब, हर्र, सेंधा, पंवाड़के बीज और तुलसी (यो. र.; वृ. नि. र. । शिरो.) को काजी या तकमें पीसकर केवल तीन बार ही दावहिरिद्रा मञ्जिष्ठा सनिम्बोशीरपद्यकम । । लेप करनेसे पुराना दाद और खुजली नष्ट हो एतत्पलेपनं कुर्याच्छवस्य प्रशान्तये ॥ | जाती है। दारुहल्दी, मजीठ, नीमकी छाल, खस | (३१४८) दूर्वारसादिलेपः और पद्माक समान भाग लेकर पानीके साथ पीस (च. द.; . मा. । नेत्ररो.) कर लेप करने से शङ्खक रोग शान्त होता है। कल्किताः सघृता दूर्वायवगैरिकशारिवाः। मुखलेपाः प्रयोक्तव्या रुजा रोगोपशान्तये॥ (३१४५) दूर्वादिलेपः (१) (वृ. मा.; ग. नि । शीतपि.; शा. सं. । लेपा.;: दूब घास, जौ, गेरु मिट्टी और सारिवाके महीन चूर्णको घीमें मिलाकर लेप करनेसे नेत्रोंकी र. चं. । शीतपित्ता.; रसें. चिं. । अ. ९) पीडा शान्त होती है। दानिशायुतो लेपः कच्छूपामाविनाशनः। (३१४९) देवदा दिलेपः (१) कृमिदद्रहरश्चैव शीतपित्तहरः स्मृतः ।। (वृ. नि. र.; ग. नि; q. मा. । शिरो.) ___दूब घास और हल्दी का लेप करनेसे कच्छू, देवदारु नतं विश्वं नलदं विश्वभेषजम् । पामा, कृमि, दाद और शीतपित्तका नाश होता है। लेपः काञ्जिकसम्पिष्टस्तैलयुक्तः शिरोतिनुत् ।। For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ९४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [दकारादि - - (३१ देवदारु, तगर, बोल, खस और सोंठ को 1 पुनर्नवा ( बिसखपरा ) देवदार, सोंठ, सफेद काजीके साथ पीसकर तैलमें मिलाकर लेप करनेसे सरसों और सहजनेकी छालको काखीके साथ शिरपीड़ा शान्त होती है। पीसकर लेप करनेसे हर प्रकारकी सूजन नष्ट हो (३१५०) देवदादिलेपः (२) जाती है। (. मा.; वं. से. । गलगण्डा.) । (३१५४) द्राक्षादिलेपः देवदारुविशाले च कफगण्डे प्रलेपनम् । (ग. नि. । मुख.) छईन शीर्षरेकश्च सर्वो रेचनिको हितः॥ द्राक्षा पटोलं मधुकं सनिम्बं कफज गलगण्ड रोगमें देवदारु और इन्द्रा त्रिवृद्धरिद्रा सुमनः प्रवालाः । यणकी जड़का लेप करना तथा वमन विरेचन | ससैन्धवं क्षौद्रयुतं वदन्ति और शिरो विरेचन कराना चाहिये । सुखोष्णकल्कं व्रणशोधनीयम् ॥ (३१५१) देवदादिलेपः (३) दाख, पटोलपत्र, मुलैठी, नीमकी छाल, निसोत, (वा. भ. । चि. अ. १५; च. सं. । चि. अ. हल्दी, चमेलीकी कोंपल, और सेंधा नमक के महीन १८; यो. र.; ग. नि. । उदररो.) चूर्णको शहदमें मिलाकर मन्दोष्ण करके लेप करने देवदारुपलाशार्कहस्तिपिप्पलिशिग्रभिः । (या व्रणपर बांधने) से ब्रण शुद्ध हो जाता है। साश्वगन्धैः सगोमूत्रैः प्रदिह्यादुदरं शनैः ॥ ___उदर व्याधिमें देवदार, ढाककी छाल, (वै. म. र. । प. १८) आककी छाल, गजपीपल, सहजनेकी छाल, और | द्विनिशातिलरुपाजीकल्कोद्वतितविग्रहः। असगन्धको गोमूत्रमें पीसकर पेटपर लेप करना यः स्नाति तस्य देहः स्यात् सुगन्धिर्भास्करचाहिये । च्छविः॥ (३१५२) देवदादिलेपः (४) ___ हल्दी, दारु हल्दी, तिल, कूठ, और लाल (वं. से. । क्षुद्र.) सरसों ( या बाबची ) को पानीमें पीसकर शरीर मुरदारुशिलाकुष्ठैः स्वेदयित्वा प्रलेपयेत् ।। पर उबटनकी भांति मलनेके पश्चात् स्नान करनेसे कफमारुतशोथनो लेपः पाषाणगर्दभे ॥ शरीर सुगन्धियुक्त और सुन्दर हो जाता है । _____ कफवातज पाषाणगर्दभ रोग (ठोडीकी (३१५६) दिनिशादिलेपः (१) सन्धिकी सूजन) में पसीना दिलाने के बाद देव- (शा. सं. । उ. अ. ११) दारु, मनसिल और कूठका लेप करना चाहिये। द्वेनिशे चन्दने द्वे च शिवा दूर्वा पुनर्नवा । (३१५३) दोषनलेपः | उशीरं पद्मकं लोधं गैरिकश्च रसाञ्जनम् ॥ ( शा. सं. । उ. अ. ११; भा. प्र. । प्र. ख. ) | आगन्तुके रक्तजे च शोथे कुर्यात्मलेपनम् ॥ पुनर्नवां दारु शुण्ठी सिद्धार्थ शिग्रुमेव च। हल्दी, दारु हल्दी, सफेद चन्दन, लाल पिष्ट्वा चैवारनालेन प्रलेपः सर्वशोथजित् ॥ 'चन्दन, हर्र, दूर्वा, पुनर्नवा, खस, पनाक, लोध, For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org धूपप्रकरणम् ] गेरु और रसौत । सब मिश्रित चूर्णको पानी में आगन्तुक और रक्तज शोथ नष्ट होता है । (३१५७) द्विनिशादिलेप: (२) ( वं. से. । विषरो. ) द्विनिशा गैरिकं लेपो नखदन्तविषापहः । तृतीयो भागः । [ ९५ ] चीज़ों के समान भाग | गोजिह्वामधुना लेपो नखदन्तविषप्रणुत् || पीसकर लेप करनेसे - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इति दकारादिलेपप्रकरणम् । अथ दकारादिधूपप्रकरणम् पै. रह. । फिरंगवा. ) (३१५८) दरदादिप्रयोगः (वै. शाणं हिङ्गुलकं शाणं कुनट्या यवचूर्णकम् । शाणद्वादशकं बद्धा वटीं बदरसन्निभाम् ॥ दमूलशिखिना प्रक्षिप्यैकां वटीं प्रमे । सायं धूमं गुदे दद्याद्धन्तिमाम फिरङ्गकम् ॥ वातं न चात्र सन्देहो नुर्निर्वात स्थितस्य च । परित्यक्त पटोः सप्त दिनाद्वा द्विगुणावधेः ॥ हिंगुल ( शिंगरफ) ५ माशे, मनसिल ५ माशे और जौका आटा ५ तोले लेकर सबको एकत्र घोटकर पानीकी सहायतासे बेरके बराबर गोलियां बनावें । हल्दी, दारु हल्दी और गेरु अथवा गोजिह्वा के चूर्ण को शहद में मिलाकर लेप करनेसे दन्त और नख जनित विष नष्ट होता है । रहना चाहिये तथा सात दिन अथवा १४ दिन तक नमक न खाना चाहिये । (धूनी चारपाई, बेतसे बुनी हुई कुरसी या छिद्रयुक्त मूढे पर बैठकर ऊपरसे चादर ओढ़कर लेनी चाहिये | ) ( पथ्य - बेसनकी रोटी और घृत । ) (३१५९) दशाङ्गधूप: (१) ( वा. भ. । उ. अ. ३ ) वचाहिङ्गानि सैन्धवं गजपिप्पली । पाठा प्रतिविषा व्योषं दशाङ्गः कश्यपोदितः ।। बच, हींग, बायबिडंग, सैंधा, गजपीपल, पाठा, अतीस, सोंठ, मिर्च और पीपल । सबका चूर्ण समान भाग लेकर मिलावें । १ गोली प्रातः काल और १ सायंकाल बेरीके कोयले की आग पर डालकर गुदाको उसका धुवां देना चाहिये । (३१६०) दशाङ्गधूप: (२) इस प्रयोगसे फिरंगरोग (आतशक ) अवश्य नष्ट हो जाता है । ( वं. से; धन्वन्तरि । विषरो. ) बिल्वपुष्पत्वच मांसी फलिनी नागकेसरम् । इस प्रयोग में रोगीको वात रहित स्थान में शिरीषं तगरं कुष्ठं हरितालं मनःशिला || ( इसकी धूप देने से बालकों के ग्रहदोष नष्ट होते हैं । ) For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि एतानि समभागानि पेषयेत्सलिलेन तु । । बेलके फूल और छाल, बालछड़, फूलप्रियंगु, समभ्यङ्गय ततो गात्रं सर्पदष्टार्तिदारणः॥ | नागकेसर, सिरसकी छाल, तगर, कूठ, हरताल और विषान्वा भक्षयेदुग्रानगरांश्च विविधान् हरेत् । मनसिल; सबका समान भाग चूर्ण लेकर पानीके कन्यासंवरणं गच्छेद्युद्धे देवासुरोपमः॥ साथ पीसलें । राजद्वारेषु सर्वेषु धूपैश्चैवापराजितः। वृहस्पतिरिति प्रोक्तो ब्रह्मणा निर्मितः स्वयम् ॥ इसे शरीरपर लगानेसे सर्प विष अथवा विष नाग्निदेहति तद्वेश्म प्रभवन्ति न राक्षसाः। | भक्षणका असर नहीं होता। न म्रियन्ते तथा बाला दशाङ्गो यत्र तिष्ठति ।। इति दकारादिधूपप्रकरणम् । अथ दकारादिधूम्रप्रकरणम् (३१६१) दन्तीधूमः हिंगुल (शंगरफ़) ५ माशे, जौका चूर्ण ३ (वृ. नि. र.। कास.) | तोला और सुहागा १। तोला लेकर तीनोंको पानीके दन्तिमूलस्य धृमं वा निर्गुण्डीं चापि योजयेत् । साथ पीसकर बेरके बराबर गोलियां बनावें। श्लेष्मकासं न सन्देहो धूमपानेन तत्क्षणात् ॥ इसमें से एक गोली प्रातः काल चिलममें रक्खें दन्तीमूल या निर्गुण्डी ( संभालु ) का धूम्रपान | और उसपर बेरीकी अग्नि रखकर उसका धूम्रपान करनेसे कफज खांसी अवश्य तुरन्त ही नष्ट हो | करें। शामको गायका दूध और भात खावें । तथा जाती है। शरीरपर कपड़ा ओढ़े रहें और कत्था लगे पानका (३१६२) दरदादिप्रयोगः सेवन करें। इससे १४ दिनमें फिरंग रोग नष्ट हो जाता है। (वै. र. । फिरङ्गवात ) दरदं टङ्कमात्रं स्याधावचूर्ण त्रितोलकम् ।। | (३१६३) देवदादिधूम्रप्रयोगः (भा. प्र. । ख. २ श्वा.) टङ्कणं कर्षमेकं च घृष्यैतत्रितयं क्षणात् ॥ | देवदारुबलामांसीः पिष्ठा वत्ति प्रकल्पयेत् । आबद्धयवटिकां वारा बदरीप्रमितां बुधः।। तां घृताक्तां पिबेद्धमं श्वासं हन्ति सुदारुणम् ॥ तस्या धूमं प्रगे दधात्पातुं कोलाग्निनास्य तु ॥ आच्छादिताङ्गिनः सायं गोदुग्धौदनसेविनः।। देवदारु, खरैटी, और बालछड़ समान भाग लेकर महीन चूर्ण करें और उसे पानीके साथ घोट चतुर्दशदिनाज्जन्तोस्ताम्बूलखदिराशिनः॥ कर बत्तियां बनालें । इनको घृतमें भिगोकर धूम्र सोपि मुक्तो भवेद्रोगाफिरङ्गानिलतो द्रुतम् ॥ पान करनेसे भयङ्कर श्वास भी नष्ट हो जाता है। इति दकारादिधूम्रप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनपकरणम् ] हतीयो भागः। [९७] - अथ दकाराद्यजनप्रकरणम् (३१६४) दक्षाण्डत्वकायञ्जनम् । (३१६६) दारिसक्रिया (ग. नि. । नेत्ररो.) (वं. से. । नेत्ररोगा.) दावीपटोलं मधुकं सनिम्बं पद्मकोत्पलम् । दक्षाण्डत्वग्विशालाशकाचचन्दनगैरिकैः। प्रपोण्डरीक चतानि पचेत्तोये चतर्गुणे ॥ तुल्यैरञ्जनयोगोऽयं पुष्पार्मादिविलेखनः ॥ विपाच्य पादशेषन्तु तत्पुनः कुडवं पचेत् । मुरगीके अण्डेके छिलके, मनसिल, शंख, काच, शीते तस्मिन्मधुसिते दद्यात्पादांशिके ततः ।। लाल चन्दन और गेरु समान भाग लेकर सुरमेकी रसक्रियैषा दाहाश्रुरोगरक्तरुजापहा ॥ भांति महीन पीसें। . दारु हल्दी, पटोल, मुलैटो, नीमकीछाल, पनाक, ___इसे आंख में लगानेसे नेत्रफूला और अर्मादि । कमल, और पुण्डरिया प्रपौण्डरीक ) । सब चीजें नष्ट होता है। समान भाग लेकर अधकुटा करके आठ गुने पानीमें पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो (३१६५) दन्ततिः उसे छानकर पुनः पका और गाढ़ा होने पर ठण्डा (भै. र; वं. से; च. द.; ग. नि; धन्व; र. का. धे. । करके उसमें उसका चौथा भाग शहद और मिश्री नेत्ररो.; वा. भ. । उ. अ. १०) (हरेक आठवां भाग ) मिलादें। दन्तैर्दन्तिवराहोष्टगवाश्वाजखरोद्भवैः। इसे आंखमें आंजनेसे दाह, आंसु बहना सशङ्गमौक्तिकाम्भोधिफेनैर्मरिचपादिकैः॥ और पित्तज नेत्र रोग नष्ट होते हैं । क्षतशुक्रमपि व्याधि दन्तवर्तिनिवर्तयेत् ॥ (३१६७) दाांद्यअनम् ____ हाथी, सुवर, ऊंट, गाय, घोड़ा, बकरा और | (यो. र. । नेत्र.) गधेका दांत तथा शंख, मोती और समुद्रफेन १-१ दारूवरामधुकमम्भसि नारिकेले भाग और इन सबके चूर्णसे चतुर्थाश काली मिर्चका पक्त्वाऽभागपरिशिष्टरसं पुनस्तम् । चूर्ण लेकर सबको पानीके साथ घोटकर बत्तियां सान्द्रं विपाच्य शशिसैन्धवमाक्षिकाढयम् बनावें। युश्यादणातितिमिरार्तिषु पित्तजेषु ॥ यह 'दन्तवर्ति' अणशुक्र को भी नष्ट कर देती है। दारुहल्दी, हरे, बहेड़ा, आमला और मुलैठी। ___नोट-सब चीज़ोंको अलग अलग महीन पीस- सब चीजोंका चूर्ण १-१ भाग लेकर आठ गुने कर तोलना चाहिए। | नारयलके पानीमें पकायें और जब आठवां भाग For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [९८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि पानी शेष रहे तो उसे छानकर पुनः पकावें । जब | भाग पानी शेष रहने पर छानकर उसे पुनः पकावें । गाढ़ा हो जाय तो उसमें १-१ भाग सेंधानमक, जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें १। तोला श्वेत कपूर और सोनामक्खी भस्म मिलाकर घोटें। मरिच (सहंजनेके बीजों) का और ५ तोले चमेलीके इसे आंखमें आंजनेसे पित्तज तिमिर और | नवीन पुष्पोंका चूर्ण मिलाकर वत्तियां बनावें । नेत्र व्रण नष्ट होता है। इन्हें आंखमें लगानेसे नेत्रोंके समस्त रोग नष्ट (३१६८) दिव्यदृष्टिकरो रसः होते और दृष्टि स्वच्छ होती है । (र. सं. क. । उल्ला. ४) (३१७०) दृष्टिप्रदमञ्जनम् रसं नागाञ्जनं चन्द्रमेकैकं द्वयर्धभागिकम् । (र. का. धे. । अधि. ५६ ) सूक्ष्मचूर्णीकृत नेत्रस्याञ्जनादिव्यदृष्टिकृत् ॥ सौवीरं सीसकं ताम्रभस्म वंगं च मौक्तिकम् । शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध सीसा १ भाग, काचं च रसकं शंतनाभिस्यन्दं कुलिथिका ॥ सुरमा २ भाग और कपूर आधा भाग लेकर अत्यन्त मेहदीबीजकस्तूरीकर्पूरं च समं समम् । महीन पीसकर अञ्जन बनावें। अञ्जनं नेत्ररोगेषु दृष्टिरोगेषु सर्वशः ॥ इसे आंखमें लगानेसे दिव्य दृष्टि हो जाती है। सौवीराञ्जन, सीसा, ताम्रभस्म, बंग भस्म, ( विधि-प्रथम सीसेको पिघलाकर उसमें मोती, काच, शुद्ध खपरिया, शंखनाभि, कुलथी, पारेको धार बांध कर डालें और घोटकर एक जीव मेंहदीके बीज, कस्तूरी और कपूर समान भाग लेकर करें तत्पश्चात् उसमें सुरमा और कपूर मिलावें ।) अञ्जन बनावें । (३१६९) दृक्प्रसादनी वर्तिः ___ इसे आंखमें आंजनेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट (च. सं. । चि. अ. २६ त्रिमर्म. चि. ) | हो जाते हैं। अमृताहा बिसं बिल्वं पटोलं छगलं शकृत् ।। प्रपौण्डरीकं यष्टया दावी कालानुसारिवा ॥ (३१७१) दृष्टिप्रदा वत्तिः (१) सुधौतं जर्जरी कृत्य कृत्वा चापलांशिकान् । (र. का. धे. । अ. ५५-५६; वं. से.; च. द.; ग. जले पक्त्वा रसे प्रते पुनः पक्के घने रसे॥ नि; रा.मा.; भै. र. । नेत्र; च.सं. । चि. अ. २६.) कर्ष च श्वेतमरिचाजातीपुष्पानवात्पलम् । त्रिफला कुक्कुटाण्डत्वक् कासीसमयसोरजः । चूर्ण क्षिप्त्वा कृता वर्तिः सर्वन्नी दृकप्रसादनी ॥ नीलोत्पलं विडङ्गानि फेनश्च सरितां पतेः॥ गिलोय, मृणाल (कमलनाल), बेलछाल, पटोल, ! आजेन पयसा पिष्ट्वा भावयेत्ताम्रभाजने । बकरीकी मांगन ( मल ), प्रपौण्डरीक (पुंडरिया ), सप्तरात्रस्थितं भूयः पिष्ट्वा क्षीरेण वर्तयेत् ।। मलैठी. दारु हल्दी और कृष्ण सारिवा आधा आधा एषा दृष्टिप्रदा वतिरन्धस्याभिन्नचक्षुषः ॥ पल (२॥-२॥ तोले ) लेकर सबको अच्छी तरह हर, बहेड़ा, आमला, मुरगीके अण्डेके छिलके, धोकर, कूटकर आठ गुने पानीमें पकायें और चौथा । कसीस, लोहभस्म, नील कमल, बायबिडंग और For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनमकरणम् ] सृतीयो भागः। [९९] समुद्रफेन । सबका महीन चूर्ण १-१ भाग लेकर ! बायबिडंग, समुद्रफेन, छोटी इलायची, शंखकी नाभि सबको बकरीके दूधमें घोटकर तांबेके पात्रमें लेप और रसौतका समान भाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र करदें और सातदिन पश्चात् छुड़ा कर फिर बकरीके मिलाकर खूब घोटें और पानीकी सहायतासे दूधमें घोटकर बत्तियां बना लें। बत्तियां बना लें। __ यदि अन्धे की आंखका तारा नष्ट न हुवा हो इस " दृष्टिप्रदा वर्ति ” को नित्य प्रति तो इसके लगानेसे उसे भी दीखने लगता है। | आंखोंमें आंजनेसे पटल, तिमिर, अजकाजात, फूला, (३१७२) दृष्टिप्रदा पतिः (२) | और अन्य नेत्र रोग नष्ट होते हैं । (ग. नि.; वृ. मा; भै. र. । नेत्ररो.) (३१७४) दृष्टिप्रसादनाजनम् (१) हरीतकी हरिद्रा च पिप्पल्यो मरिचानि च । (सु. सं. । उत्त. अ. १७) कण्डूतिमिरजितिन कचित्मतिहन्यते ।। दृष्टेरतः प्रसादार्थमञ्जने शृणु मे शुभे । हर, हल्दी, पीपल, और काली मिर्चके समान मेषशृङ्गस्य पुष्पाणि शिरीषधवयोरपि ॥ सुमनायाश्च पुष्पाणि मुक्तावैदूर्यमेव च । भाग चूर्णको पानीके साथ घोटकर बत्तियां बनावें । अजाक्षीरेण सम्पिष्य ताने सप्ताहमावपेत् ।। इन्हें आंखों में आंजनेसे आंखोंकी खाज, और प्रविधाय च तद्वतिर्योजयेचाञ्जने भिषक् ॥ तिमिरका नाश होता है। मेढासिंगीके फूल, सिरसके फूल, धवके फूल, (३१७३) दृष्टिप्रदा वतिः (३) चमेलीके फूल, मोती और वैदूर्य मणि का चूर्ण समान (र. का. धे.। अधि. ५६) भाग लेकर सबको बकरीके दूध में घोटकर ताम्रकनकं चन्दनं लाक्षा मधुकं चन्दनोत्पलम् ।। पात्रमें रख और सात दिन बाद उसकी बत्तियां रुद्राक्षामलकीबीजं मधृकश्च मनःशिला ॥ बना लें। विडङ्गोदधिफेनैलां शंतनाभिरसाञ्जनम् ।। ! यह वर्ति नेत्रांको स्वच्छ करती है । पषा दृष्टिपदा वतिर्नाम्ना वैदेहनिर्मिता ॥ (३१७५) दृष्टिप्रसादनाञ्जनम् (२) नित्योपयोगात्पटलं तिमिरं शुक्लिकाऽजिका। (सु. सं. । उ. अ. १७) शुक्रं शुक्राक्षिरोगांश्च विवद्धं चर्म चैव हि ॥ स्रोतोजं विद्रमं फेनं सागरस्य मनःशिला। निहन्ति रोगानेतान्हि त्रिदोषानपि दुस्तरान् ॥ मरिचानि च तद्वर्तीः कारयेच्चापि पूर्ववत् ॥ सोनेके वर्क, लाल चन्दन, लाख, मुलैठी, दृष्टिस्थैर्यार्थमेतत्तु विदध्यादजने हितम् ॥ सफेद चन्दन, नीलकमल, रुद्राक्ष, आमलेकी गुठली सुरमा, मूंगा, समुद्रफेन, मनसिल और को मज्जा (भीतरकी गिरि), महुवेके फूल, मनसिल, ! काली मिर्चका चूर्ण समान भाग लेकर सबको १ लवणानीति पाठान्तरम्. For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि बकरीके दूधमें घोटकर तांबे के पात्रमें रख दें और देवदारके चूर्णको २१ बार बकरीके मूत्रमें सात दिन पश्चात् बत्तियां बना लें। घोटकर बारीक सुरमा बनावें। इसे आंखमें इन्हें आंखों में आंजनेसे दृष्टि स्थिर होती है । । आंजनेसे पटल, और रात्र्यन्धता ( रतौंधा ) अवश्य (३१७६) देवदारुरसक्रिया जाता रहता है। ( वै. म. र. । पट. ६) (३१७८) बादशामृतावनम् दाविल्कलसैन्धवाञ्जनकणा (रसे. मं. । अ. ३ सर्व नेत्ररोगे ) तुत्याब्धिफेनोषणैः। व्योष त्रीण्यञ्जनान्येव शुल्वं कुनटि सैन्धवम् । यष्टीताम्रसमन्वितैः सुमसणं विमला शीतलं सूतमजाक्षीरेण पेषयेत् ॥ ___क्षौद्रेण पिष्टैः कृता । सर्वनेत्रामयहरं द्वादशाख्यामृताञ्जनम् ।। एषा हन्ति रसक्रिया नय सोंठ, मिर्च, पीपल, काला सुरमा, रसौत, नयोः पिल्लादिवमियान् । स्रोतोऽअन, ताम्रभस्म, मनसिल, सेंधा, विमला शोदसावनिशान्ध्यशुक्लतिमिरा भस्म, कपूर और पारा समान भाग लेकर सबको ___ण्यन्यांश्च नेत्रामयान् ॥ एकत्र मिलाकर घोटें जब सब चीजें मिल जाय दारु हल्दीकी छाल, सेंधा, सुरमा, पीपल, तो एक दिन बकरी के दूधमें घोटकर रक्खें। नीलाथोथा, समन्दरझाग, स्याहमिर्च, मुलैठी और यह " द्वादशामृताञ्जन" समस्त नेत्ररोगों ताम्रका चूर्ण; सब चीज़ोंका अत्यन्त महीन चूर्ण | को नष्ट करता है। समान भाग लेकर सबको शहदमें घोट लें। (३१७९) दिनिशादिवत्तिः यह रसक्रिया आंखों के पिल्लादि रोग, (वा. भ. । उ. अ. ९) अश्रुस्राव, रतौंधा, फूला और तिमिरादि रोगों को द्विनिशारोध्रयष्टयाहरोहिणीनिम्बपल्लवैः। नष्ट करती है। कुकूणके हिता वत्तिः पिष्टस्ताम्ररजोन्वितैः ।। (३१७७) देवदार्वञ्जनम् (१) हल्दी, दारु हल्दी, लोध, मुलैठी, हरी, नीमके (धन्वन्तरि । चक्षु.) पत्ते और ताम्रके अत्यन्त महीन चूर्णको पानीके देवदारोश्च वै चूर्ण अजामत्रेण भावयेत । | साथ पीसकर बत्तियां बनावें । एकविंशति वै वारमक्षिणी तेन चाञ्जयेत् ॥ इन्हें आंखों में आंजने से कुकूणक रोग नष्ट रात्र्यन्धता पटलता नश्येदिति विनिश्चयः॥ । होता है । इति दकाराघञ्जनपकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [ १०१ - - अथ दकारादिनस्यप्रकरणम् (३१८०) दन्त्यादिनस्यम् | (३१८३) दाडिमादिनस्यम् (१) (च. सं. । चि. अ. ५ कुष्ठ. ) __(वं. से. । शिरो.) दन्तीमधूकसैन्धवफणिज्झकाः संक्षुन्नाः शर्करा शा दाडिमीकलिकाः शुभाः। पिप्पली करञ्जफलम् ।। | नश्यन्ति योजिताः सधः शिरःशूलहराः पराः ॥ नस्यं स्यात् सविड ___ अनारकी कली २ भाग और खांड एक कृमिकुष्ठकफमदोषघ्रम् ॥ भाग लेकर दोनोंको पीसकर रक्खें ।। दन्तीमूल, मुलैठी, सेंधानमक, तुलसी (मरु इसकी नस्य लेनेसे शिरशूल शीघ्र ही नष्ट वा), पीपल, बायबिडंग और करा फलका समान | भाग चूर्ण लेकर एकत्र मिलावें। हो जाता है। ___इसकी नस्य लेनेसे कृमि, कुष्ठ और कफ- | (३१८४) दाडिमादिनस्यम् (२) विकार नष्ट होते हैं। (वं. से.; यो. र. । रक्तपित्ता.) (३१८१) दशमूल्यादिनस्यम् रसो दाडिमपुष्पोत्थो रसोभिवोऽथवा। (वृ, नि. र.; वं. से. । शिरो.) आम्रास्थिजपलाण्डोर्वा नासिकास्तरक्तजित् ॥ दशमूलीकषायन्तु सर्पिःसैन्धवसंयुतम् ।। __अनारके फूलोंका रस या दूब घास अथवा नस्यमर्धावभेदघ्नं सूर्यावर्तशिरोतिनुव ॥ आमकी गुठली या प्याज (पलाण्डु) का रस दशमूलके काथमें सेंधानमक और घी मिलाकर | नाकमें डालनेसे नकसीर बन्द हो जाती है । उसकी नस्य लेनेसे आधासीसी, सूर्यावर्त और शिरशूल नष्ट होता है । (३१८५) दाडिमादिनस्यम् (३) (३१८२) दाडिमकुसुमरसप्रयोगः ( वं. से.; ग. नि. । रक्त पित्त.) (वै. म. र. । पट. १) रसो दाडिमपुष्पस्य दूर्वारससमन्वितः । दाडिमकुसुमस्वरसः स्तन्यं वा चूतकुसुमस सालक्तकरसोपेतः पथ्यारससमन्वितः॥ लिलं वा । | योजितो नासयोः क्षिप्रं त्रिदोषमपि दारुणम् । म्भो वा नस्यानासारतति जयति ॥ नासारक्तं प्रवृत्तन्तु हन्यादिति किमद्भुतम् ॥ अनार ( दाडिम ) के फूलों के रस, स्त्रीके अनारके फूलोंका रस, दूब घासका रस, दूध, आमके फूल ( बौर ) के रस और दूर्वा लाखका रस, और हर्रका रस, समान भाग लेकर घासके रसमेंसे किसी एककी नस्य लेनेसे नाकसे | सबको एकत्र मिला कर उसकी नस्य लेनेसे होनेवाला रक्तस्राव ( नकसीर ) रुक जाता है। त्रिदोषज नकसीर भी तुरन्त बन्द हो जाती है। For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ १०२] (३१८६) देवदालीफलरसनस्यम् (वै. जी. | वि. ३ ) देवदालीफलरसो नस्यतो हन्ति कामलाम् । सन्देहो नात्र संफुल्लनीलोत्पलविलोचने ॥ (३१८७) देवदालीयोग: ( यो. स. । स. ६) सुरदालिशुष्कफलचूर्णमयो www.kobatirth.org देवदालीके फलके रसकी नस्य लेनेसे कामला अवश्य नष्ट हो जाती है । भारत - भैषज्य रत्नाकरः । चिरकालागदहरं भवति । सलिलं निपीतमय नासिकया || नस्यतो नयनरोगचयं [ दकारादि देवदालीके सूखे फलोंके चूर्णकी नस्य लेनेसे पुरानी कामला नष्ट हो जाती है और नासिका द्वारा जल पीनेसे आंखेकि बहुतसे रोग नष्ट हो जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | नोट-कल्प प्रयोग अनुभवी चिकित्सक के परामर्श के बिना सेवन करनेकी हिम्मत भूलकर भी न करनी चाहिये । वैद्योंको भी बहुत सोच समझ कर मात्रा आदिका निर्णय करना चाहिये । (३१८९) देवदालीकल्प: (१) (३१८८) द्राक्षादिनस्यम् ( वृ. नि. र. । तृष्णा ) गोस्तनीक्षुरसक्षीरयष्टीमधुमधूत्पलैः । नियतं नस्यतो पीतैस्तृष्णाशाम्यति तत्क्षणात् । मुनक्का, ईखका रस, दूध, मुलैठी, शहद और नीलोत्पलकी नस्य लेनेसे तृष्णा तुरन्त ही शान्त 11 इति दकारादिनस्यप्रकरणम् । अथ दकारादिकल्पप्रकरणम् रसायनी देवमाताऽनिमिषा मृतजीविनी । गन्धारी सर्वपूज्या सा विधात्री कायबन्धनी ॥ श्वेता पीता कचित्प्राप्ता पुष्पभेदेन गृह्यते । गृहीत्वा तत्फलं शुभ्रं सुगाढमथ चूर्ण्यते ॥ क्रियते गुटिका तस्य शोष्यतेऽय खरातपे । भक्ष्यते प्रत्यहं चैकां वेष्टयित्वा गुडेन सा ।। आतपे च खरे तिष्ठेदतिमात्र महोदिने । तैलाक्तस्तावदेवासौ यावत्तापो भवेत्तनौ ॥ यामेकं द्वियामं वा तावत्स्थेयं निरन्तरम् । उत्कृष्टं वमनं पश्चात्किञ्चित्कालं भविष्यति ॥ ( र. चि. । स्तब. ३ ) देवदालीमहाकल्पं प्रवक्ष्यामि यथा मया । तं दृष्टं कृतं पश्चात्सर्वव्याधिनिकृन्तनम् ॥ अमृता देवदालीति देवी देवैर्विनिर्मिता । स्वर्गवल्ली महासोमा श्वेतपुष्पाऽमरी स्मृता ॥ | रेचनं च पुनर्भूयो भविष्यति न संशयः । For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१०३] - - एवं द्विसप्तकाचं श्वित्रे स्फोटा भवन्ति च ॥ इस प्रकार २ सप्ताह तक औषध सेवन करश्वेतारुणास्तदा ते च विलीयन्ते दिनत्रयात् । नेसे श्वेतकुष्ठके स्थान पर छाले पड़ जायंगे, तन्मध्यात्सकला दोषाः निपतन्ति शरीरतः ॥ | जिनका रंग सफेद या लाल होगा। यह छाले ३ पश्चात्त्वचासमं भावमल्पकालेन चाप्नुयात् । दिन बाद फूट जायंगे और उनसे मवाद निकल माषानं भुज्यते नित्यं कुलत्थान विशेषतः॥ कर शरीर शुद्ध हो जायगा । इसके थोड़े दिन तिलतैलेन तच्छाकं वटकानि च भक्षयेत् । बाद ही त्वचाका रंग ठीक हो जाता है। मापानमेव कर्त्तव्यं प्रत्यहं गुरुपूजनम् ॥ इस प्रयोगसे सात सप्ताह में श्वेतकुष्ठ अव श्य ही नष्ट हो जाता है। रीत्याऽनया सदा स्थेयं यथा शुद्धो भवेन्नरः। पथ्य-उड़द, कुलत्थ और तिलके तैल में श्वित्रनाशो भवेचून सप्तसप्तकवासरैः॥ | बना हुवा कुलथीका शाक तथा बटक । नात्र कोऽपि हि संदेहो विपश्चिद्भिर्विधीयते । | (३१९०) देवदालीकल्पः (२) अवश्यं वाप्यवश्यं वा योगः श्वित्रहरोत्ययम् ॥ (र. र. रसा. । उपदेश. ४) देवदालीके सर्व व्याधि नाशक जिस कल्पको छायाशुष्कं देवदालीपश्चाङ्गं चूर्णयेत्ततः । मैंने सुना, देखा और स्वयं आजमाया है उसका मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्ष वर्षान्मृत्युजरां जयेत् ।। वर्णन करता हूं। जीवेत्कल्पसहस्रन्तु रुद्रतुल्यो भवेन्नरः। __ अमृता, देवदाली, देवी, देवनिमिता, स्वगतचूर्ण कर्षमात्रन्तु नित्यं पेयं शिवाम्बुना ॥ वल्ली, महासोमा, श्वेतपुष्पा, अमरी, रसायनी, देव- पूर्ववज्जायते सिद्धिर्वत्सरानात्र संशयः । माता, अनिमिषा, मृतजीविनी, गन्धारी, सर्वपूज्या, I - तचूर्ण बाकुचीवहिसाक्षीभृङ्गराटसमम् ॥ m m mm विधात्री और कायबन्धनी, यह सब देवदाली के चूणितं कर्षमात्रन्तु नित्यं पेयं शिवाम्बुना । नाम हैं। वर्षान्मृत्युं जरां हन्ति छिद्रां पश्यति मेदिनीम्।। देवदाली कहीं कहीं सफेद फूलकी और ! पुनर्नवादेवदाल्योनीरैर्नित्यं पिबेन्नरः। कहीं कहीं पीले फूलकी पाई जाती है। देवदाल्पाश्च साक्ष्याः पलैकं वा शिवाम्बुना॥ __ उसके उत्तम फलाका पासकर (१-१ पिबेत्स्यात्पूर्ववत्सिद्धिर्वत्सरानात्र संशयः । माशेकी ) गोलियां बनाकर तेज़ धूपमें सुखा लें। देवदाली च निर्गुण्डी पिबेत्कर्षा शिवाम्बुना ॥ इनमें से १ गोली प्रतिदिन गुड़में लपेटकर रोगी | वकेन जरां हन्ति जीवेदाचन्द्रतारकम् ॥ को खिलावें और उसके शरीर पर तेलकी मालिश (१) देवदालीके पञ्चाङ्गको छायामें सुखा कर कराके १ या २ पहर तक तेज़ धूप में बिठाएं, चूर्ण करलें । इसमें से नित्य प्रति ११ तोला यहां तक कि उसका शरीर तपने लगे । इसके चूर्ण शहद और धीमें मिलाकर सेवन करें। थोड़ी देर बाद उसे खूब अच्छी तरहसे वमन (२) देवदालीके उपरोक्त चूर्णको हरेके काथके विरेचन होंगे। साथ सेवन करें। For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१०४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि (३) देवदालीका चूर्ण, बाबची, चीता, साक्षी मिश्रित चूर्ण ५ तोलेकी मात्रानुसार हरके और भंगरा । सबका समान भाग चूर्ण ले- पानीके साथ सेवन करें। कर एकत्र मिला, इसमें से नित्य प्रति १।। (६) देवदाली और संभालके समान भाग मिश्रित तोला चूर्ण हर्र के काथके साथ सेवन करें। चूर्णको हरे के काथके साथ ११ तोलेकी (३) देवदाली और पुनर्नवा के समान भाग मात्रानुसार सेवन करें। चूर्णको एकत्र मिलाकर पानीके साथ सेवन उपरोक्त प्रयोगों में से किसीको भी एक वर्ष करें। तक सेवन करने से वृद्धावस्था नहीं आती और (५) देवदाली और साक्षीका समान भाग दीर्घायु प्राप्त होती है। इति दकारादिकल्पप्रकरणम् । अथ दकारादिरसप्रकरणम् दद्रकुष्ठविद्रावणरसः बायबिडंग, इलायची, नागकेसर, नागरमोथा, कचूर, (र. र. स. । उ. ख. अ. २०) काकड़ासिंगी, बिड नमक, अभ्रकभस्म, शङ्क नागार्जुन वटी ( रस) देखिये । भस्म, लोहभस्म और सोनामक्खी भस्म । सबका (३१९१) दन्तोद्भेदगदान्तकरसः अत्यन्त महीन चूर्ण समान भाग लेकर सबको (भै. र.; र. चं. । बाल.) दूधमें घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लीजिए। पिप्पलीपिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः। ___इन्हें ( पानी या दूधमें घिसकर ) बालक के अजमोदायमानीभ्यां निशया मधुकेन च ॥ । मसूढ़ों पर मलनेसे दांत निकलनेके समय होने दादा:विडङ्गैलानागकेशरनीरदैः। वाले रोग, ज्वर, आक्षेपक और अतिसारादि नष्ट शटीशृङ्गीविडैोम्ना शङ्खऽयोहेममासिकैः ॥ होते तथा दांत शीघ्र निकल आते हैं। विधाय पयसा पिष्टैटिका बल्लसम्मिता। (३१९२) दरदगुटिका दन्तघर्षेऽभ्यवहृतौ योजयेञ्च प्रयोगवित ॥ (धन्च. । व्रण.) प्रयोगादस्य दन्तानां त्वरयोगमनं भवेत् । दरदः पार्वतीपुष्पं कुनटी पुरुषो रसः। ज्वराक्षेपातिसाराद्या निवर्त्तन्ते न संशयः ॥ शोणितं गन्धको दैत्यः सैन्धवातिविषा चवी ॥ ___ पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, अज- शरपुडा विडङ्गश्च यवानी गजपिप्पली। में, अजवायन, हल्दी, मुलैठी, देवदारु, दारुहल्दी, मरिचार्क च वरुणा धनकं च हरीतकी॥ For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। १०५] मर्दितं कटुतैलेन गुटिका कारयेदिह। ।१॥ भाग, और सुहागे की खील आधा भाग लेकर नाडीव्रणप्रवाहश्च गण्डमालां विचर्चिकाम् ॥ | सबको पीसकर पिट्टी बनावें और फिर उसे जायचिरव्रणं दद्रुकुष्ठं पूतिकं तु शिरोगदम् ।। फलके भीतर भरकर उसके ऊपर गेहूंके पादस्फोट तथा हस्तं विचर्चीबहुकीटकम् ॥ | आटेका अच्छा मोटा लेप करदें और उसे ___शुद्ध हिंगुल (शंगरफ), धायके फूल, मन- उपलों ( कण्डों ) की निर्धूम अग्नि में दबा दें। सिल, गूगल, शुद्ध पारा, केसर, शुद्ध गन्धक, लोह- जब आटेका रंग अच्छी तरह लाल हो जाय तो भस्म, सेंधानमक, अतीस, चव, सरफोंका, बाय- | जायफलको निकालकर पीस कर मूंगके बराबर बिडंग, अजवायन, गजपीपल, काली मिर्च, आक- गोलियां बनावें । की जड़, बरनेकी छाल, राल और हरै । सब चीजें इन्हें गायके दूधसे खिलानेसे ज्वरातिसार, समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी | अग्निमांद्य, निद्रानाश और अरुचि का नाश होता कजली बनावें और फिर उसमें अन्य चीजोंका तथा बल पुष्टिकी वृद्धि होती है। अत्यन्त महीन चूर्ण मिलाकर सरसोंके तैलमें घोटकर गोलियां बना लें। ( मात्रा-२-३ गोली) __ यह गोलियां नाडीव्रण ( नासूर ), पावसे | (३१९४) दरदादिवटी रक्त या मवादका निकलना, गण्डमाला, विचर्चिका, (सि. भे. म. मा. । कास.) पुराना घाव, दाद, कुष्ठ, शिरोव्याधि, हाथ पैरोंका | दरदं शृङ्गिक मुस्ता पिप्पली मरिचं सुंमम् । फटना आदि रोगोंको नष्ट करती हैं। यदि घावमें | निम्बुनीरैस्त्र्यहं पिष्ट्वा मुद्गामाः कारयेटीः॥ कृमि पड़ गए हों तो वह भी इनके सेवनसे नष्ट | द्विसन्ध्यं द्वे गिलेद्गुटयौ कासवेगनिवृत्तये । हो जाते हैं। कत्रयं वद्वयं तैलं खण्डश्चापि विवर्जयेत् ॥ (मात्रा १ माशा) शुद्ध हिंगुल ( शिंगरफ), शुद्ध मीठा तेलिया (३१९३)दरदादिपुटपाकः (वटी) (वछनाग), नागरमोथा, पीपल, काली मिर्च और (वृ. नि. र. । ज्वरातिसार) लैांगका चूर्ण समान भाग लेकर सबको ३ दिन दरदश्चैकभागो हि सार्धभागोऽहिफेनकः ।। तक नीबूके रसमें घोटकर मूंगके बराबर गोलियां अर्धभागो भवेट्टङ्कः पिष्टिकाञ्च प्रपेषयेत् ॥ बनावें। जातीफले च विन्यस्य सर्वे च पुटपाचितम् । मुगमात्र मिलेनित्यं पयसा च गवां हितत् ॥ | इनमें से २-२ गोली प्रातः सायं खानेसे ज्वरातिसारे मान्दो च निदानाओमजी खांसी का वेग शान्त हो जाता है। योजयेद्भेषजं नित्यं बलपुष्टिकरं परम् ॥ करेला, कुष्माण्ड, केला और सेम (दो प्रकारका) शुद्धहिंगुल ( शिंगरफ़ ) १ भाग, अफीम | तथा तैल और खांड से परहेज़ करें । For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१०६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - (३१९५) दरदादिवटी डालकर मन्दाग्नि पर पिघलावें । तत्पश्चात् अग्निसे (र. रा. सु. । वा. व्या.) नीचे उतारकर अच्छी तरह घोटें, यहां तक कि वह म्लेच्छं साईपलं प्रोक्तं गुडं स्यात् द्वादशं पलम्। कज्जलके समान हो जाय । अब इसमें ५ तोले मृत्पात्रे निम्बदण्डेन ताम्रपत्रयुतेन च ॥ शुद्ध हरताल मिलाकर ३ दिन तक घोटें और फिर घर्षणं दिवसं प्रकुर्यात्तु प्रयत्नतः। उसे कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरकर ततो द्विषाणमानेन वटिकां भक्षयेभरः॥ उसका मुंह बन्द करके ६ दिन तक बालकायन्त्रमें सर्ववातप्रशान्त्यर्थे दरदादिवटी त्वियम् ॥ पकावें । इसके बाद जब शीशी स्वांग शीतल हो शुद्ध शिंगरफ १॥ पल और पुराना गुड़ १२ जाय तो उसमें से औषधको निकालकर रक्खें । जा पल लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर मिट्टीकी खूब ___ यह रस क्षय और खांसी आदि बहुतसे पक्की कूडी में तांबेका पत्र लगे हुवे नीमके सोठेसे | रोगोंको नष्ट करता है। १ दिन तक घोटें । (मात्रा--१-१॥ रत्ती) इसे ८ माशे की मात्रानुसार सेवन करनेसे समस्त वात व्याधियां नष्ट होती हैं । | (३१९७) दर्दुररसः ( व्यवहारिक मात्रा २-३ माशे। ) (र. र. स. । उ. ख. अ. १६) (३१९६) दरदेश्वरो रसः सुश्लक्ष्णतीक्ष्णचूर्णन्तु रसेन्द्रसमभागिकम् । (र. का. धे. । अधि. ३२; वृ. यो. त. । त. ४३) | काश्चनाररसैघृष्टं दिनमेकं प्रयत्नतः॥ दरदं पञ्चपलिकं पलमेकं बलेस्तथा। | पुनस्तदेकं दिवसं जम्बीराम्बुषिमर्दितम् । मृदुवहिगतां कुर्यात्कज्जलीमञ्जनाकृतिम् ॥ | पुटपकोऽतिसारघ्नः सूतोऽयं ददुराहयः ॥ वलिमान शुद्धताल निक्षिपेत्तत्र बुद्धिमान् । अत्यन्त बारीक शुद्ध तीक्ष्ण लोह (फौलाद) पश्चात्खल्वे विनिक्षिप्य त्रिदिनं मर्दयेत्तया॥ का चूर्ण और शुद्ध पारा समान भाग लेकर दोनोंको नियोज्य काचकूप्यान्तु लिप्सायां मृत्तिकाम्बरैः। एक दिन कचनारकी छालके रसमें और एक दिन सिकतासु पचेद्दहनैः षडहं जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर टिकिया बनावें और ___ तदनु स्वत एव हिमं दहनात् ।। उन्हें सुखाकर सम्पुटमें बन्द करके गजपुट में दरदेश इति क्षयकासहरो भवतीह रसः सकलामयजित् ।। ५ पल शुद्ध शिंगरफ़ ( हिंगुल) और १ पल इसके सेवनसे अतिसार नष्ट होता है। (५ तोले ) शुद्ध गन्धक लेकर दोनोंको घोटकर | ( मात्रा-१॥-२ रत्ती । अनुपानकजली बनावें और फिर उसे लोहेके खरल में ! जायफलका पानी।) For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [१०७] - (३१९८) दशसारसूतरसः । मण्डूरं द्विगुणं चूर्ण शुद्धमञ्जनसन्निभम् । (र. र. स. । उ. खं. अ. २०) मूत्रे चाष्टगुणे पक्त्त्वा तस्मिंस्तत्मक्षिपेभरः ॥ पालिकं व्योषस्तानिगन्धकं सफलत्रयम् । उदुम्बरसमान्कृत्वा वटकांस्तान्ययानि च । काकोदुम्बरिकाक्षीरैमर्दित गुटिकीकृतम् ॥ उपयुञ्जीत तक्रेण जीणे सात्म्यं च भोजनम् ।। माषप्रमाणं सक्षौद्रं कुष्ठाशःश्वासकासजित ॥ मण्डूरवटका घेते प्राणदा पाण्डुरोगिणः। ___ सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, हरे, बहेडा और कुष्ठानि प्रवरं शोथमूरुस्तम्भ कफामयान् ॥ आमलेका चूर्ण तथा शुद्ध पारा और गन्धक ५-५ अशोसि कामलां मेहं प्लीहानं शमयन्ति च ॥ तोले लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कजली दारुहल्दीकी छाल, सोनामक्खी भस्म, बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण | पीपला मूल और देवदारुका चूर्ण २-२ पल मिलाकर सबको एक दिन काकोदुम्बर (कठूमर) (१०-१० तोले ) तथा शुद्ध अञ्जनके समान के दूधमें घोटकर १-१ माशेकी गोलियां बनावें। | काला मण्डूरका चूर्ण सब से दो गुना लेकर प्रथम इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे कुष्ठ, अर्श, मण्डूरको उससे आठ गुने गोमूत्रमें पकावें; जब श्वास और खांसी नष्ट हो जाती है । गाढ़ा हो जाय तो उसमें उपरोक्त चीज़ोंका चूर्ण मिलाकर गूलरके फलके समान मोदक बना लें। (३१९९) दारुभस्म ___इन्हें यथोचित मात्रानुसार तक्रके साथ सेवन (र. सा. सं. । प्ली.; रसें. चि. । अ. ९) करनेसे कुष्ठ, शोथ, ऊरुस्तम्भ, कफरोग, बवासीर, दास्सैन्धवगन्धश्च भस्मीकृत्य प्रयत्नतः। कामला, प्रमेह ओर तिल्लीका नाश हो जाता है। प्लीहानमग्रमांसं च याकृतं च विनाशयेत् ॥ | यह वटक पाण्डुरोगी के लिए अत्यन्त ही ___ देवदारु, सेंधा नमक, और शुद्ध आमलासार | उपयोगी हैं। गन्धक समान भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर औषधके पच जाने पर सात्म्य ( अनुकूल) सम्पुट में बन्द करके पुट में फूंकें । भोजन करना चाहिए। इसे यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे । (३२०१) दाादिलोहम्। तिल्ली, अग्रमांस और यकृत् विकार नष्ट होते हैं। (वृ. नि. र.; र. र.; र. रा. सुं.; च. सं.; च. द.; ( मात्रा–२-३ माशा) वृं. मा.; र. सा. सं; यो. र. । कामला; (३२००) दाया दिमण्डूरवटक: ___ ग. नि. । पाण्डु.) (वृ. नि. र. । पाण्डु) दावीसत्रिफलाव्योषविडङ्गान्ययसो रजः। दावर्तीत्वङ्माक्षिको धातु ग्रन्थिको देवदारु च । मधुसर्पिर्युतं लियात्कामलापाण्डुरोगवान् ॥ एषां द्विपलिकान्भागान्कृत्वा चूर्ण पृथक् पृथक्।। दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । १०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - - - पीपल, और बायबिडंग का चूर्ण १-१ भाग तथा । (३२०३) दाहज्वरनवटी लोहभस्म इन सबके बराबर लेकर सबको एकत्र (रसायनसार । दाहे ) मिलाकर घोटें। सेवन्त्युशीरयष्टीनां कषायोडावित ज्वरी। इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे | स्वर्णसिन्दूरमम्भोऽपि तासां सेवेत दाहयुत् ॥ कामला और पापड रोग नष्ट होता है। दाहज्वरकी गोली (मात्रा-२-३ माशे । घी ६ माशे, शहद अर्थ:-यदि रोगी दाहसे और ज्वरसे अत्यन्त २ तोले।) पीडित हो तो गुलाब के फूल, खस, मुलहटी, इनके काढ़े में भावना देकर स्वर्ण सिन्दूर को बताशे, (३२०२) दाव्या दिवटिका पान, और मधु प्रभृति के साथ सेवन करे और ( वृ. नि. र. । ज्वर.) जब प्यास लगे तब उसी कादेको या उनके फाण्ट दारुनिशा शिखिग्रीवा रसकं च पृथक् पृथक् । को पीवे । ( रसायनसारसे उद्धृत ) टङ्कप्रयानुमानेन गृहीत्वा कनकद्रवैः । (३२०४) दाहान्तको रसः मईयेत्रिदिनं कार्या वटी चणकमात्रया । (र. रा. सुं; रसचं.; धन्वन्तरि । दाह.) मरीचैरेकविंशत्या सप्तभिस्तुलसीदलैः॥ सूतात्पश्चार्कतश्चैकं कृत्वा पिण्डं सुशोभनम् । खादेवटीद्वयं पथ्य दुग्धभक्तं सशर्करम् । जम्बीरस्वरसमर्थ सूततुल्यं च गन्धकम् ॥ तरुणं विषमं जीणे हन्यात्सर्वज्वरं ध्रुवम् ॥ नागवल्लीदलैः पिष्ट्वा ताम्रपात्री प्रलेपयेत् । दारुहल्दी, शुद्ध तूतिया, और शुद्ध खपरिया प्रपुटेद्भूधरे यन्त्रे यावद्भस्मत्वमाप्नुयात् ॥ (अभावमें यशद भस्म ) बराबर बराबर लेकर ३ | द्विगुञ्जमाईकद्रावस्त्र्यूषणेन च योजयेत । दिन तक धतूरेके रसमें घोटकर चनेके बराबर निहन्ति दाहसन्तापं मूछो पित्तसमुद्भवाम् ॥ गोलियां बनावें। शुद्ध पारा ५ भाग और शुद्ध ताम्रका महीन इनमें से २ गोली २१ काली मिर्च और चूर्ण १ भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर नींबूके तुलसीके सात पत्तोंके साथ खानेसे तरुणज्वर, विषम- रसमें घोटें । जब अच्छी तरह मिल जाये तो उसमें ज्वर और जीर्ण ज्वरादि सब प्रकारके ज्वर नष्ट हो पारे के बराबर शुद्ध गन्धक मिलाकर पानके रसमें जाते हैं । पथ्य-खांड युक्त दूध भात । घोटकर (५ भाग) शुद्ध तांबेकी कटोरी में उसका (नोट-गोली खानेके बाद काली मिर्च और | लेप करदें और उसे सम्पुट में बन्द करके भूधरयन्त्रमें तुलसीदल पानीके साथ घोट कर पीना चाहिए । इतना पका कि तांबेकी भस्म हो जाय । समय-ज्वर आनेसे ३-४ घण्टे पहिले ।) इसमें से ३ रत्ती भस्म अद्रकके रस और For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसप्रकरणम् ] 1 त्रिकुटेके चूर्ण के साथ देने से पित्तज दाह, सन्ताप और मूर्च्छाका नाश होता है (३२०५) दिनज्वरप्रशमनीवटी ( र. का. घे. 1 अ. १ ) सूतः शुद्धबलिः स्रुतो हुतभुजोनागो द्विभागा मताः । प्रत्येकं त्रिकभागिकाः समगधाविश्वौषधं ब | लिजम् ॥ । । कायस्थामलकं ग्रुपककुलकं तज्जीर्णशुद्धं शुभम् दन्तीबीजमकल्मषं च सकलं सवर्ण्य भद्रं कृतम् ।। आर्द्रस्य स्वरसेन मर्दितमिदं पिष्टीसमं सुत्तमम् । कार्या मुगसमारहः सुगुटिका ध्यायन्हरिं शान्तिदम् ॥ सन्तापं च दिनज्वरप्रशमनी क्षुद्रोधसंदायिनी श्रीधन्वन्तरिणा हिताय जगतां ब्रह्माज्ञया निर्मिता ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, स्वर्ण भस्म, और सीसा भस्म, २–२ भाग तथा पीपल, सोंठ, काली मिर्च, हर्र, आमला, पका हुवा पुराना शुद्ध कुचला, और शुद्ध जमालगोटा ३-३ भाग लेकर, प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बनायें और मिलाकर सबको १ दिन अदरकके रसमें घोटकर मूंगके बराबर गोलियां बनावें। यह गोलियां सन्ताप और दिनके समय आने वाले ज्वरको नष्ट करती और क्षुधावृद्धि करती हैं । [ १०९] ( मात्रा - १ - २ गोली । अनुपान - शीतल जल ।) (३२०६) दिव्यखेचरी गुटिका ( र. र. र. । उपदे. ३.) हेम्ना यद्वन्द्वितं वज्रं कुर्यात्तत्सूक्ष्म चूर्णितम् । एतदेयं गुह्यसूते मूषायामधरोत्तरम् ॥ पादमात्रं प्रयत्नेन रुद्ध सन्धि विशोषयेत् । भूधराख्ये दिनं पच्यात्समुद्धृत्याथ मर्दयेत् ॥ दिव्यौषधफल' द्रावैस्तप्तखल्वै दिनावधि । रुद्धाथ भूधरे पच्याद्दिनं लघुपुटैः पुटेत् ॥ समुद्धृत्य पुनस्तद्वन्म रुद्ध्वा दिनत्रयम् । तुषाग्मिना शनैः स्वेद्यमूर्ध्वाधः परिवर्त्तयन् ॥ जायते भस्मभूतोऽयं सर्वयोगेषु योजयेत् । द्रुतसूतस्य भागैकं भागैकं पूर्वभस्मकम् ।। शुद्धनागस्य भागैकं सर्वमम्लेन मर्दयेत् । अन्धमूषागतं ध्मेयं खोटो भवति तद्रसः ॥ धमेत्मकटभूषायां यावन्नागक्षयो भवेत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारेण द्रावयित्वा त्विमं रसम् ॥ निक्षिपेत्कच्छपे यन्त्रे विडं दत्त्वा दशांशतः । प्रत्येकं षड्गुणं पश्चाद्वद्वन्द्वश्च जारयेत् । स्वर्णादिसर्व लोहानि क्रमेणैव च जारयेत् ॥ त्रिगुणं तु भवेद्यावत्तत्तो रत्नानि वै 'क्रमात् ॥ जारयेद्रावितान्येव प्रत्येकं त्रिगुणं शनैः । म रुद्धा धमेद्गाढं जायते गुटिका शुभा । ततो यन्त्रात्समुद्धृत्य दिव्यौषधद्रवैर्दिनम् ॥ पूजयेदङ्कुशीमन्त्रैर्नाम्नेयं दिव्यखेचरी ॥ यस्य वक्त्रे स्थिता ह्येषा स भवेद्भैरवोपमः । दिव्यतेजा महाकायः खेचरत्वेन गच्छति ॥ १ 'दलहावे...' इति पाठान्तरम् For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि यत्रेच्छा तत्र तत्रैव क्रीडते ह्यङ्गनादिभिः। तत्पश्चात् समस्त रत्नोंकी द्रुति बनाकर ३-३ गुनी महाकल्पान्तपर्यन्तं तिष्ठत्येव न संशयः॥ जारण करें। इसके पश्चात् उसे यन्त्रमें से निकालतस्य मूत्रपुरीषाभ्यां तानं भवति काश्चनम् । कर १ दिन दिव्यौषधियोंके रसमें घोटकर मूषामें पलाशपुष्पचूर्णन्तु तिलाः कृष्णाः सर्शकराः ॥ बन्द करके तेज़ अग्नि में धमावें तो उसकी दिव्य सर्व पलत्रयं खादेन्नित्यं स्यात् क्रामणे हितम् ॥ गुटिका तैयार हो जायगी । इसका नाम “दिव्य स्वर्ण पत्र और हीरका चूर्ण समान भाग लेकर खेचरी गुटिका " है। उन्हें अन्धमूषामें इन दोनोंसे चार गुना पारा इनके जो मनुष्य अङ्कुशी मन्त्र से इसका पूजन करके बीचमें रखकर बन्द करें और मूषाको बन्द करके इसे मुंहमें रखता है वह भैरव के समान हो जाता सुखाकर एक दिन भूधर यन्त्रमें पकार्वे । जब यन्त्र है। उसका शरीर विशाल और दिव्य तेजयुक्त स्वांगशीतल हो जाय तो औषधको निकालकर दिव्यौ- हो जाता है। वह जहां चाहे वहीं आकाशमार्गसे षधियों के फलोंके रसमें १ दिन पर्यन्त तप्तखल्वमें जा सकता है । इसके अधिक समयके अभ्याससे जा सकता है । इसके अघि डालकर घोटें। तत्पश्चात् १ दिन भूधर यन्त्रमें लघुपुट- ! महाकल्पान्त तक आयु प्राप्त हो सकती है । इसके की अग्नि दें और फिर निकालकर उसी प्रकार दिव्यौ अभ्यासीके मूत्र और मलसे तांबेका सोना बन षधियोंके फलोंके रसमें १ दिन घोटकर मूषामें जाता है। बन्द करके उसे ३ दिन तक तुषाग्निमें पकावें और पकते समय मूषाको बार बार उलटते पलटते रहें । इस गुटिका को मुंह में रखनेका अभ्यास इस क्रियासे पारद की भस्म बन जायगी। | करनेके दिनों में ढाकके फूल, काले तिल और खांडका ५-५ तोले चूर्ण एकत्र मिलाकर नित्य प्रति ___ अब १ भाग द्रुत पारद, १ भाग यह पारद । खाना चाहिये। भस्म, और १ भाग शुद्ध सीसा लेकर सबको एक दिन जम्बीरी नीबूके रस या अन्य अम्ल पदार्थ में (३२०७) दिव्यखेचरी वटिका घोटकर अन्ध मूषामें बन्द करके १ दिन पर्यन्त (२. र. र. । उप. ३.) धमावें । इससे उसका 'खोट' बन जायगा । इस स्वर्ण कृष्णाभ्रसत्वं च तारं तानं सुचूर्णितम् । 'खोट' को खुली मूषामें रखकर इतना धमावे कि समांश द्वन्द्वलिप्तायां मूषायां चान्धितं धमेत् ।। उसमें मिला हुवा सीसा नष्ट हो जाय । तत्वोटभागाश्वत्वारा भागैकं मृतवज्रकम् । ____ अब इस रसको द्रुत पारदकी तरह द्रुत करके माक्षिकं तीक्ष्णकान्तं च भागैकैकं मुचूर्णितम् ।। कच्छप यन्त्रमें रक्खें और उसका दशवां भाग विड समस्तं द्वन्द्वलिप्तायां मूषायां चान्धितं धमेत् । देकर उसमें स्वर्णादि समस्त धातुओंका क्रमशः तत्खोटं सूक्ष्मचूर्णन्तु चूणांशं द्रुतसूतकम् ॥ जारण करें । हरेक धातु ६-६ गुनी जारण करनेके त्रिदिनं तप्तखल्वे तु मर्घ दिव्यौषधिद्रवैः । पश्चात् ३-३ गुना स्वर्ण और हीरा जारण करें । रुद्भवाथ भूधरे पच्यादहोरात्रात्समुद्धरेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१११] द्रुतस्तं पुनस्तुल्यं दत्त्वा मधु पुटेत्तथा। उसमें से औषधको निकालकर उसमें उसके बराबर इत्येवं सप्तवारांस्तु द्रुतं मूतं समं समम् ॥ द्रुत पारद मिलाकर उपरोक्त विधिसे घोटकर उसी प्रकार २४ घण्टे भूधर यन्त्रमें पकावें । इसी प्रकार दत्वा मधु पुटे पच्याजायते भस्मसूतकः । ७ बार पाक करें । हर बार समान भाग पारद भस्मस्तसमं गन्धं दत्त्वा रुद्धवा धमेदृढम् ॥ मिलाते रहना चाहिये । इस कियासे पारद भस्म जायते गुटिका दिव्या विख्याता दिव्यखेचरी। तैयार हो जायगी । इस भस्ममें समान भाग शुद्ध वर्षकं धारयेद्वक्त्रे जीवेत्कल्पसहस्रकम् ॥ गन्धक मिलाकर घोटकर अन्धमूषामें बन्द करके तस्य मूत्रपुरीषाभ्यां सर्वलोहस्य लेपनात् । १ दिन अग्निमें धमानेसे उसकी गुटिका तैयार हो जायते कनकं दिव्यं समावर्ते न संशयः॥ जायगी। पलद्वयं भृङ्गराजद्रवं चानुपिबेत्सदा । इस " खेचरी गुटिका" को एक वर्ष तक पूर्वोक्तं भस्मसूतं वा गुञ्जामात्रं सदा लिहेत् ॥ मुखमें धारण किये रहनेसे अत्यन्त दीर्घायु प्राप्त वर्षकं मधुनाऽऽज्येन लक्षायुर्जायते नरः। होती है । इसके अभ्यासीके मल मूत्र का लोह, वलीपलितनिर्मुक्तो महाबलपराक्रमः॥ ताम्रादि किसी भी लोह पर लेप करके अग्निमें शुद्ध स्वर्ण, कृष्णाभ्रक सत्व, शुद्ध चांदी, और तपानेसे उसका दिव्य स्वर्ण बन जाता है । शुद्ध ताम्रका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एक | __ यदि गुटिका न बनाकर उपरोक्त भस्म ही १ ऐसी अन्ध मूषामें बन्द करें कि जिसके भीतर | रत्तीकी मात्रानुसार घी और शहदमें मिलाकर १ वर्ष नाग और बंगका लेप किया हुवा हो और उसे १ तक निरन्तर २ पल भंगरेके रसके साथ सेवन की दिन तक अग्निमें धमाचें। इससे उपरोक्त औषधोंका जाय तो शरीर बलिपलित रहित और महापराक्रम खोट बन जायगा । अब ४ भाग यह खोट, १ । तथा बलयुक्त होकर १ लाख वर्षकी आयु प्राप्त भाग हीरा भस्म, तथा १-१ भाग शुद्ध स्वर्ण होती है। माक्षिक, शुद्ध तीक्ष्णलोह और शुद्ध कान्त लोहका दिव्यदृष्टिकरो रसः चूर्ण एकत्र मिलाकर सबको नाग और बंगसे लिप्त मृषामें बन्द करके १ दिन तक धमावें और फिर (र. सं. क. । उल्ला. ४ ) उसके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे औषधको ____ अञ्जनप्रकरणमें देखिये । निकालकर अत्यन्त बारीक पीसकर उसमें उसके । (३२०८) दिव्यामृत रस:(१)(महाकल्क:) बराबर द्रुत पारद मिलाकर सबको ३ दिन तक तप्त (र. र. स.। उ. ख. अ. २७) खल्वमें दिव्यौषधियों के रसके साथ खरल करें और धान्याभ्रक विनिक्षिप्य मुशलीरसमर्दितम् । मूषामें बन्द करके २४ घण्टे तक भूधरयन्त्रमें स्थाल्यां लिप्त्वा निरुध्याऽथ पिधान्या मध्यपकावें । जब यन्त्र स्वांग शीतल हो जाय तो। रन्ध्रया ॥ For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [११२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि स्थास्पषो ज्वालयेद्वहिं यामपर्यन्तमुद्धतम् । । संसारमुखमिच्छद्भिः सुखं जीवितुमिच्छुभिः । ततः सिपेपिधान्यां हि व्योम्नस्त्वष्टगुणं पयः ॥ नित्यं रसो निषेव्योऽयं दिव्यामृतसमो गुणैः ।। जीणे पयसि पिष्ट्वा तत्तालमूलीरसैः पुनः।। धान्याभ्रकको मूसलीके रसमें घोटकर कपड़ इत्यं हि साधयेद् व्योम त्रिवारमतियत्नतः ॥ मिट्टी की हुई हांडीमें भरदें और उसके मुख पर अजादुग्धैः पुटेत्पश्चाद्वाराणि खलु विंशतिम् । एक ऐसा शराव कि जिसके बीचमें छिद्रहो ढककर कम्पिल्लकरसेनापि विष्णुकान्तारसेन च ॥ सन्धिको अच्छी तरह बन्द करदें और उसे सुखाकर कदलीकन्दतोयेन तालमूलीरसेन च । चूल्हे पर चढ़ाकर उसके नीचे १ पहर तक तीब्राग्नि शतवारं पुटेदेवं भवेद्वयोमरसायनम् ॥ जलावें । इसके पश्चात् ऊपर वाले शराव के छिद्र तद्वयोमभसितं ताप्यभस्म तारस्य भस्म च । से हाण्डीमें अभ्रकसे आठ गुना दूध डालदें । जब शुल्वभस्म च तत्सर्वं समांशं परिकल्पयेत् ।। समस्त दूध जल जाय और हाण्डी स्वांगशीतल हो भावयेत्सप्तधा निम्बरसैलौंध्ररसेन च । जाय तो इसमें से अभ्रक को निकालकर पुनः त्रिफलायाः कदल्याश्च कतक्या माकेवस्य च॥ मूसलीके रसमें घोटें और उपरोक्त विधिसे दूध केतकस्यापि सारेण तावद्वाराणि यत्नतः। डालकर पकावें । इसी प्रकार ३ बार पाक करनेके इति निष्पनकल्केऽस्मिस्तत्समां त्रिफलां क्षिपेत्।। पश्चात् बकरीके दूधमें घोटकर टिकिया बनाकर भस्मसूतं सिता व्योष चित्रकं च पृथक् पृथक् । सुखा लें और शराव-सम्पुटमें बन्द करके गज पुटकी मधुना गुटिकाः कार्याः शाणेन प्रमिताः खल ॥ अग्निमें फूंकदें। इसी प्रकार बकरी के दूधकी २० पुट दें महाकल्क इति ख्यातो दस्राभ्यां परिकीर्तितः । और २०-२० पुट कबीला, विष्णुकान्ता, केलेकी एकां गोली समारभ्य तथैकैकां विवर्धयेत् ॥ जड़ और मूसली के रसको दें। इस प्रकार १०० चतुर्गोलकपर्यन्तं मण्डले मण्डले खलु । पुट देनेसे अभ्रक रसायन तैयार हो जाता है। सेवितो द्वादशाब्दन्तु जरामृत्युविवर्जितः॥ __अब यह अभ्रक भस्म, स्वर्ण मक्षिक भस्म, सर्वव्याधिविनिर्मुक्तो दृढदीपनपाचनः । चांदी भस्म, और ताम्र भस्म बराबर बराबर लेकर भीमतुल्यबलः श्रीमान्पुत्रसंततिसंयुतः ॥ सबको नीम, लोध, त्रिफला, केलेकी जड़, केतकी, सर्वारोग्यमयो भीमसमानभुजविक्रमः । भंगरा और कमलनालके रसकी सात सात भावना सर्वायाससहिष्णुश्च शीतातपसहस्तथा । दें और फिर उसमें हर्र, बहेड़ा, आमला, पारदअमन्दसमदोपेतः पौढस्त्रीरतिरञ्जनः। दृढसर्वेन्द्रियो भूत्वा जीवेद्वर्षशतत्रयम् ।। भस्म (अभावमें रससिन्दूर), खांड, सोंठ, मिर्च, श्वासं कासं क्षयं पाण्डं तथैवाष्टौ महागदान् । पीपल, और चीते में से हरेकका चूर्ण उस तैयार मण्डलार्धेन शमयेज्ज्वरादीनां तु का कथा॥ औषधके बराबर मिलाकर शहदमें घोट कर ४-४ सर्वगोरससंयुक्त पथ्य कार्य रसायने । माशेकी गोलियां बना लें। रोगोचितमयान्यच्च ददीत खलु रोगिणे ॥ । इनमेसे पहिले दिन १ गोली, दूसरे दिन For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसमकरणम् ] २ गोली, तीसरे दिन ३ गोली और चौथे दिन ४ गोली सेवन करनी चाहियें तथा इसके बाद ४० दिन तक रोज ४-४ गोली और फिर ४० दिन तक रोज़ एक एक गोली घटाकर सेवन करनी चाहिये। इसी प्रकार १२ वर्ष तक सेवन करने से मनुष्य जराव्याधि-रहित, भीमके समान बलवान्, सुन्दर, पुत्रादि सन्तति युक्त; शीत, ताप तथा कष्टके सहन करने में समर्थ, और दृढेन्द्रिय हो जाता है । उसे प्रौढा स्त्रियोंके साथ यथेच्छ समागम करनेकी शक्ति और ३०० वर्ष की आयु प्राप्त होती है । तृतीयो भागः । यह रसायन श्वास, खांसी, क्षय, पाण्डु, महान्याधि, इत्यादि भयङ्कर रोगोंको १ मण्डलमें ही नष्ट कर देता है, फिर ज्वरादिकी तो बात है । (३२०९) दिव्यामृतरस: (२) | यदि इसे रसायनकी विधिसे सेवन किया जाय तो पथ्यमें गोदुग्धादि गोरस युक्त पदार्थ देने चाहियें, और यदि किसी रोगको नष्ट करनेके लिए सेवन किया जाय तो उस रोगके विचारसे यथोचित पथ्य देना चाहिये । [११३] सबको एकत्र मिलावें । इसे घी और शहदके साथ सेवन करनेसे मनुष्य जरामरण रहित और सत्पुत्रोत्पादनमें समर्थ होता है । प्राचीन कालमें श्रीशिवजीने कालयव के पिताको यही प्रयोग बतलाया था कि जिसके प्रभाव से उसका जन्म हुवा था । मात्रा - ४ माशे । ( व्यवहारिक मात्रा १ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माशा (३२१०) दीपिकारस: (र. रा. सु. । ज्वर; र. र. स. । उ. खं. अ. १२) सन्तप्तसीसभागश्च पारदं गन्धकं कणाम् । समभागं पृथक् तत्र मेलयेच्च यथाविधि ॥ जम्बीरस्य रसे सर्व मर्दच दिनत्रयम् । मेघनादकुमार्योश्च रसे चापि दिनत्रयम् ।। दिनद्वयमजामूत्रे गवां मूत्रे दिनत्रयम् । भावयेच्च यथायेोग्यं तस्मिन्नेतानि दापयेत् ॥ सैन्धवं चित्रकं भागं सौवर्चलवणं तथा । तेन सम्मेलनं कृत्वा भावयेच्च पुनः क्रमात् ॥ अनेन विधिना सम्यक् सिद्धो भवति स रसः। शर्कराघृतसंयुक्तं दद्याद्वलत्रयं रसम् ॥ गोधूमचौदनं पथ्यं मापसूपं सवास्तुकम् । धात्रीफलसमायुक्तं सर्वज्वरविनाशनम् ॥ दीपिकारस इत्येषः तंत्रज्ञैः परिकीर्त्तितः ( र. र. स. । उ. ख. अ. २६ ) एतत्स्यादपुनर्भवं हि भसितं कान्तस्य दिव्या - मृतम् । सम्यक्सिद्धरसायनं त्रिकटुकीचेल्लाज्यमध्वन्वितम् हन्यान्निष्कमितं जरामरणजव्याधींश्च सत्पुत्रदम् । प्रोक्तं श्रीगिरीशेन कालयवनोद्भूत्यै पुरा तत्पितुः ।। कान्त लोहकी निरुत्थ भस्म, सोंठ, मिर्च, १ भाग सीसेको पिघलाकर उसमें १ भाग शुद्ध पारदको डालकर घोटें जब दोनों एक जीव हो जायं तो उसमें १ भाग शुद्ध गन्धक और १ भाग पीपलका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटें । पीपल, और बायबिडंगका समान भाग चूर्ण लेकर | जब कज्जली तैयार हो जाय तो उसे जम्बीरी For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि - नीबूके रसमें ३ दिन, कांटे वाली चौलाई के रसमें इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार धीमें मिलाकर ३ दिन, घी कुमारके रसमें ३ दिन, बकरीके | खानेसे पित्तगुल्म नष्ट होता है । मूत्रमें २ दिन और गोमूत्रमें ३ दिन पर्यन्त अनुपान-दाख ( मुनक्का) और हर्रका निरन्तर घोट कर उसमें १-१ भाग सेंधा नमक | काथ। चीता, और सश्चल (काला ) नमकका चूर्ण मिला | (३२१२) दुग्धवटी (१) कर पुनः उपरोक्त ओषधियोंके रसोंमें उतने ही . ( मै. र. । शोथ. ) उतने दिन घोटें। अमृतं धूर्त्तवीजश्च हिङ्गलश्च समं समम्। इसमेंसे ९ रत्ती रस खांड और घीके साथ धूर्तपत्ररसेनव मईयेद्याममात्रकम् ॥ खिलानेसे समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट हो जाते हैं। मुद्गोपमा वटीं कृत्वा दुग्धेन सह पाययेत् । पथ्य-गेहूं, चावल, उड़दकी दाल, बथुवे दुग्धेन भोजयेदमं वर्जयेल्लवणं जलम् ॥ का शाक तथा आमला। शोथं नाना विधं हन्ति पाण्डुरोगं सकामलम् । ( व्यवहारिक मात्रा-४ रस्ती ।) सेयं दुग्धवटी नाम्ना गोपनीया प्रयवतः॥ (३२११) दीप्तामररसः (र. र. स. । उ. ख. अ. १८) शुद्ध मीठा तेलिया (बछनाग ), शुद्ध धतूरे के बीज, और शुद्ध शंगरफ (हिंगुल ) समान शुद्धं मूतं समं गन्धं मूतांशं मृतताम्रकम् । | भाग लेकर तीनोंको १ पहर तक धतरेके पत्तेकि शाकक्षोत्यपश्चाजद्रवैर्मधे दिनत्रयम् ॥ । रसमें घोटकर मूंगके बराबर गोलियां बनावें । दिनं साक्षिजैवै रुध्वा गजपुटे पचेत् । पञ्चधा भूधरे चाथ चूणे जेपालतुल्यकम् ॥ । इन्हें दूधके साथ सेवन करानेसे अनेक प्रकाद्विगुञ्ज भक्षयेच्चाज्यैः पित्तगुल्मप्रशान्तये । रफा शोथ, पाण्डु और कामला रोग नष्ट होता है। रसो दीप्तामरो नाम पित्तगुल्मं नियच्छति ॥ पथ्य-दूध भात अथवा दूधसे बना हुवा द्राक्षाहरीतकीकाथमनुपानं प्रकल्पयेत् ।। अन्य आहार यथा दलिया आदि । परहेज-लवण ____ शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक तथा ताम्र भस्म, और जल विल्कुल छोड़ देना चाहिये । प्यासमें समान भाग लेकर तीनोंकी कज्जली करके उसे | भी दूध ही देना चाहिये । सागोन वृक्षके पञ्चाङ्ग के रस या काथमें ३ दिन । (३२१३) दुग्धवटी (२) और साक्षीके रसमें १ दिन घोटकर सम्पुटमें (भै. र.; धन्व. । शोथ. ) बन्द कर गजपुटमें फूंक दें फिर इन्हीं दोनों चीजों अमृतं सूर्यगुञ्ज स्यादहिफेनं तथैव च । के रसमें घोट-घोटकर ५ बार भूधर यन्त्रमें पकावें। पञ्चरक्तिकं लौहं च षष्टिरक्तिकमभ्रकम् ॥ तत्पश्चात् उसमें समान भाग शुद्ध जमालगोटेका दुग्धर्गुञ्जाद्वयमिता वटी कार्या भिषग्विदा। चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर रक्खें । दुग्धानुपानं दुग्धैश्च भोजनं सर्वथा हितम् ।। ५० For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] सृतीयो भागः। [११५] शोथं नानाविधं हन्ति ग्रहणीं विषमज्वरम् । सबके महीन चूर्णको १ दिन भांगके रसमें घोटमन्दाग्निं पाण्डुरोगश्च नाना दुग्धवटी परा ॥ कर मूंगके बराबर गोलियां बनावें । वर्जयेल्लवणं वारि व्याधिनिःशेषतावधिः ।। इन्हें शोथमें दूधके और संग्रहणीमें भांगके शुद्ध वछनाग (मीठातेलिया) और अफीम काथ के साथ देना चाहिये । पथ्यमें केवल दूध १२-१२ रत्ती, लोहभस्म ५ रत्ती, तथा अभ्रक या दूधभात देना चाहिये और लवण तथा जल भस्म ६० रत्ती लेकर सबको दूधमें घोटकर २-२ | बिल्कुल बन्द करके प्यासमें भी दूध ही देना रत्तीकी गोलियां बनवावें। चाहिये । अगर अत्यधिक पिपासा हो और दूधसे __इन्हें दूधके साथ खिलानेसे अनेक प्रकारका काम न चले तो नारियलका पानी दे सकते हैं। शोथ, संग्रहणी, विषमज्वर, मन्दाग्नि और पाण्डुका इनके सेवनसे शोथ, संग्रहणी, अतिसार नाश होता है। और जीर्णज्वर नष्ट होता है । पथ्य-केवल दूध या दूध भात ।। परहेज़-रोग नष्ट होने तक लवण और (३२१५) दुर्जलजेतारसः जल बिल्कुल न देना चाहिए । (अगर जल बिना ( वृ. यो. त. । त. ६२; र. चं.; वै. रह.; यो. र.: न रहा जा सके तो थोड़ा थोड़ा नारियलका पानी वृ. नि. र. । ज्वर.) दे सकते हैं । ) विषं भागद्वयं दग्धकपर्दः पञ्चभागिकः । (३२१४) दुग्धवटी (३) मरिचं नवभागश्च चूर्ण वस्त्रेण शोधयेत् ॥ (भै. र. । शोथा.) आर्द्रकस्य रसेनास्य कुर्यान्मुद्गनिभा वटीम् । गृहीत्वा दरदात्कर्ष तदर्द देवपुष्पकम् । वारिणा वटिकायुग्मं प्रातः सायं च भक्षयेत् ॥ फणिफेनं विषं जातीफलं धुस्तूरबीजकम् ॥ | अयं रसो ज्वरे योज्यस्तस्मिन्दुर्जलजेऽपि च । सम्मर्थ विजयाद्रावैर्मुद्गमात्रां वटीश्चरेत् । अजीर्णाध्मानविष्टम्भशूलेषु श्वासकासयोः॥ अनुपानं प्रदातव्यं शोथे क्षीरं भिषग्वरैः ॥ भोजनादौ नरैर्भुक्तं शुण्ठीराज्यभयोत्थितम् । ग्रहण्यां विजयाकाथः पथ्यं दुग्धानमेव हि। | कल्कं तु सहते नित्यं नाना देशोद्भवं जलम् ।। जलश्च लवणचापि वर्जनीयं विशेषतः ॥ महाकयवक्षारौ पीत्वा चोष्णेन वारिणा। प्रबलायामुदन्यायां सलिलं नारिकेलजम् । | नानादेशसमुद्भूतं वारिदोषमपोहति ।। पासन्यं वटिका चैषा शोथं हन्ति न संशयः॥ शुद्ध बछनाग ( मीठा तेलिया ) २ भाग, ग्रहणीमतिसारश्च ज्वरं जीणे निहन्ति च ॥ कौड़ी भस्म ५ भाग, और काली मिर्चका चूर्ण ९ शुद्ध शिंगरफ (हिंगुल ) १ कर्ष तथा लौंग, भाग लेकर सबको अत्यन्त महीन खरल करके शुद्ध अफीम, शुद्ध बछनाग ( मीठातेलिया ), जाय- कपड़ेसे छान लें फिर उसे अद्रकके रसमें घोटकर फल, और शुद्ध धतूरे के बीज आधा आधा कर्ष लेकर मूंगके बराबर गोलियां बनावें । For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११६] भारत-भैरज्य-रत्नाकरः। [दकारादि . इनमेंसे २-२ गोली प्रातः सायं पानीके। इसे सेवन करनेसे फिरंग ( आतशक ) रोग साथ सेवन करनेसे दुष्ट जलके विकारसे उत्पन्न | नष्ट होता है। हुवा ज्वर तथा अजीर्ण, अफारा, कब्ज, शूल, (सब औषधेको गुलाबके अर्क में खरल श्वास और खांसी जादि रोग नष्ट हो जाते हैं। करके २-२ रत्ती की गोलियां बनावें और प्रातः___ भोजनके पहिले सांठ, राई और हरकी चटनी काल १ गोली मुनकामें रखकर रोगीको इस तरह खानेसे अथवा बन अद्रक और जवाखारका निगलवा दें कि दांतों को न लगे । पथ्यमें केवल चूर्ण गर्म पानीके साथ खानेसे भिन्न भिन्न देशों बेसनकी रोटी और घी दें । लवण, खटाई, मिर्चके पानीका असर नहीं होता । अर्थात् परदेशका | आदि बिल्कुल न दें। प्रायः २१ दिनमें रोग पानी नहीं लगता। जाता रहता है।) (३२१६) दुर्लभो रसः (३२१८) देवभूतिरसः __(र. रा. सु. । मसूरि.) (र. चि. । स्त. ४) तत्तानं च पुनर्षीमान्भावयेत्रिफलाम्पुभिः । अयं शुदस्य सूतस्य मूञ्छितस्य मृतस्य च । काकमाच्या रसेनापि भावनीय अयं प्रयम् ॥ द्विवल्लो पिप्पली धात्री खासघृतमाशिकः ॥ धसूरस्य रसेनापि भृाराजरसेन च । पापरोगान्तको योग पृथिव्यामेव दुर्लभः ॥ बीजपूररसस्यापि तिस्रो देयाः पृथक् पृथक् ॥ २ वल्ल (६ रती) पारद भस्म, पीपल, | आईकस्य रसेनाय नववार विभाव्य च । आमला और रुद्राक्षके चूर्णको शहद और धीमें नववार पुटेत्पश्चात्क्रमशो बुद्धिमानरः॥ मिलाकर उसके साथ खिलानेसे मसूरिका शान्त | शुदलोहं समं तेन तावस्म रसस्य च । हो जाती है। निक्षिप्य मर्दयेत्खल्वे चतुर्गजामितं ददेत् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ रत्ती तक।) | | त्रिकटु त्रिफला जातीफलं चेव लवाकम् । (३२१७) कुसुमादिगुटिका समभागं कृतं चूर्ण पर्णखण्डेन दापयेत् ॥ ( अनु. त. ।) मुखशुद्धयर्थमप्येव पुनस्ताम्बूलचर्वणम् । समिपातेऽपि सजाते ज्वरे घोरेऽमिसादने । कस्तूरिका चन्दनदेवाष्ये कुष्ठे दुष्टे प्रदातव्य उन्मादे वाप्यपस्मृतौ । सबहुमेरम्नविलोचने यः। | सामे निरामे सयवा कासे श्वासे विशेषतः ॥ कर्पूरक पारदसम्भवं ना पाण्डुरोगे तथा देयश्चोदरे भृशदारुणे ।। निवपन्समयते फिरणम् ॥ वलीपस्तिक हन्यात्खालिल विशेषतः ॥ कस्तूरी, सफेद चन्दन, लौंग, केसर, और वज्रकायो भवत्येव निरपायो विशेषतः । शुद्ध रस कपूर समान भाग लेकर एकत्र खरल करें। दीर्घायुः कामरूप: स्यात्स्त्रीणामत्यन्तवल्लभः ॥ For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] हतीयो भागः। 1 ११७ ] उत्साही स्मृतिमान्मायो मेधावी खेचरः परः। यह योगवाही रस है और इसका अभ्यासी ब्रह्मास्त्रं चाप्यसिदं सादरिचक्रं च निष्फलम्।। कालवश नहीं होता। शिवशूलं वृया याति शक्रशर्स निवर्तते । (३२१९) हृतिसाररसः स्वयं स्वयम्भूर्भगवान्यदि वेति न वेत्ति बा।। (र. र. स. । उ. ख. अ. २२) नामरो नापरः कश्चित्सूतस्यास्य महन्महः। य एनं सेवते नित्यं न स कालवर्श व्रजेत् ॥ युक्तं हि व्योमजदुत्या तुल्यांशं स्वर्णयुगसम्।। योगवाही रसः मोक्तो देवभूतिरिति स्मृतः ॥ पिष्टीकृतं चिरं पिष्ट्वा मल्लसम्पुटके लिपेत् ॥ ( भारत भैषज्य रत्नाकर भाग २ प्रयोग निष्कमात्रं बलिं दत्वा शतबार पुटेततः । सं. २५७४ में कथित विधिसे बनी हुई ) ताम्र सम्यनिष्षिष्य समाल्य करण्डान्तर्विनिक्षिपेत्।। भस्मको त्रिफला, मकोय, धतूरा, भंगरा और बिजौरे इत्युक्तो द्रुतिसारनामकरसो वन्ध्यामयध्वंसनः । नीबूके रसकी ३-३ भावना दें और फिर उसे पुत्रीयः खलु सूतिकामयहरो दृष्यश्चिरायुः करः।। अद्रकके रसकी एक भावना देकर सम्पुटमें बन्द सम्यक् सिद्धवलिद्रुतिपकलितो गुआमितासेवितः करके फूंक दें; एवं इसी प्रकार अद्रकके रस में ९ पुट लगावें । तत्पश्चात् यह ताम्र भस्म, लोह कुर्यात्तीव्रतरांशुषं त्वव महारोगादिरोगाजयेत् ।। भस्म और पारद भस्म समान भाग लेकर सबको मतः सर्वामयध्वंसी रसोय नन्दिनोदितः। एकत्र मिलाकर घोटें। जीवत्पुत्रपदः स्त्रीणां यौवनस्थैर्यदायकः॥ __इसमें से चार रत्ती रस खिलाकर ऊपरसे भूतप्रेतपिशाचानां भयेभ्योऽभयदायकः । सोंठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, जायफल | जडानां दोहदानां मन्दबुदिमतामपि ॥ और लौंगका समान भाग मिश्रित ( १ माशा) मण्डूकीरससंयुक्तो दातव्यो वचया सह । चूर्ण पानमें रखकर खिलावें एवं इसके बाद जन्मवन्ध्या काकवन्ध्या मृत्वत्साश्च याः स्त्रियः। मुखकी शुद्धिके लिए दूसरा पान खिलावें। तासां पुत्रोदयार्थाय शम्भुना सूचितः पुरा ॥ ___ यह रस भयङ्कर सन्निपात ज्वर, मन्दाग्नि, अभ्रकद्रुती, शुद्ध पारा और शुद्ध स्वर्ण १-१ कुष्ठ, उन्माद, अपस्मार, खांसी, श्वास, पाण्डुरोग, निष्क लेकर प्रथम पारे और स्वर्णको एकत्र मिलादुस्साध्य उदर व्याधि, बलि, पलित और खालित्य कर घोटें । जब दोनों मिल जाय तो उसमें अभ्रकआदि अनेकों रोगोंको नष्ट करता है । इसके द्रुति मिलाकर खूब घोटें। फिर उसे १ निष्क सेवनसे बल, पौरुष, शरीरकी कान्ति और आयु | गन्धकके बीचमें रखकर सम्पुटमें बन्द करके लघुबढ़ती है तथा मनुष्य उत्साही, मेधावान् और | पुटमें फूंकदें । इसी प्रकार गन्धकके साथ १०० स्त्रियांका प्रिय हो जाता है। पुट दें तत्पश्चात् पीसकर कपड़छन करके रक्खें। १-पलिना रसमिति पाअन्तरम् । २...२-"लक्ष्मणारखतः पिष्ट" इति पामन्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि __ इसका नाम "द्रतिसार रस" है, और | गन्धक, ताम्र-भस्म, अभ्रकभस्म, अफीम, गेरु, यह बन्ध्यत्वको नष्ट करता है। इसके अतिरिक्त स्वर्णभस्म, सीसाभस्म, चीतेकीजड़, हींग, सोंठ, इसके सेवनसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है तथा सूतिका मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, सहजनेके बीज, रोग नष्ट होते और आयुवृद्धि होती है। अजमोद, अजवायन, पीपलामूल, भरंगी, लहसन, ___ यदि इसे विधिवत् बनी हुई “गन्धक द्रति"१ कालाजीरा और सफेद जीरा । सबके समान भाग के साथ १ रत्तीकी मात्रासे सेवन किया जाय तो | | चूर्णको एकत्र मिलाकर अदरकके रसमें घोटकर अत्यन्त क्षुधावृद्धि होती है। (२-२ रत्तीकी ) गोलियां बनावें । इनके सेवनसे वातरक्त, गलित्कुष्ठ, सन्निपायह रस अष्ट महान्याधि-नाशक, यौवनको तज महाकुष्ठ, शोथ, कण्डू, मन्दाग्नि, आमवात स्थिर रखनेवाला, भूतप्रेत और पिशाचोंके भयसे कफज जलोदर और नाक, कान तथा जिह्वाके मुक्त करनेवाला, तथा जन्म बन्ध्या, काक बन्ध्या और मृत्वत्सा आदि स्त्रियोंको भी पुत्र देनेवाला है। समस्त रोग नष्ट होते हैं। ____ इसे ब्राह्मीके रस और बचके चूर्णके साथ विगुणाख्यी रस: खिलानेसे बुद्धि तीव्र होती है। (र. रा. सुं.; र. चं.; रसे. सा. सं.; धन्वन्त. । (३२२०) बादशायसः वातव्याधि ) (भै. र, । वातरक्ता.) __“ त्रिगुणाख्य रस" अवलोकन कीजिए । गरुत्मान दरदस्तीभ्यां गर्वाग्यो वस्तुतः इस रसका नाम उक्त ग्रन्थों में द्विगशुल्वश्च गगनं फेनं ३ रुधिरश्च त्रिनेत्रकम् ॥ ' णाख्य' प्रमादवश लिखा गया प्रतीत होता है। पातालनृपतिश्चैव वह्निमूलं सरामठम् । | (३२२१) बिजरोपिणी वटी त्रिकटु त्रिफला शि| चाजमोदा यमानिका ॥ (र. का. धे. । मुखरो.; रसें. चि. । अ. ९) पिप्लीमूलं भार्गी च लशुनं जीरकद्वयम् । नागस्य त्रिफलाकाथे रसे भृङ्गस्य गोघृते । आईकस्य रसेनव वटिकां कारयेद्भिषक ॥ अजादुग्धे च गोमूत्रे शुण्ठीकाणे मधुन्यपि ॥ वातरक्तं महाकुष्ठं गलिताङ्गं त्रिदोषजम् । | पुटान्सप्तपृथग्दत्त्वा तत्सम ग्राहयेद्रसम् । शोथं कण्डूश्च रुधिरं सर्वमेतद्वयपोहति ॥ लौहपात्रे द्रावयित्वा युक्त्या तां गुटिकां चरेत् ।। मन्दानलामवातञ्च श्लेष्माणश्च जलोदरम् । सा मुखे धारिता हन्ति दन्तरोगानशेषतः। घ्राणाक्षिकर्णजिह्वानां सर्वान् रोगान्विनाशयेत् ॥ दृढीकरोति दशनान्बद्धमूलानशेषतः॥ सोनामक्खी-भस्म, शुद्ध शंगरफ (हिंगुल ), सीसेको पिघला पिघलाकर त्रिफलाके काथ, तीक्ष्ण लोह-भस्म, शुद्ध पारद, बंग-भस्म, शुद्ध । भांगरेके रस, गायके घी, बकरीके दूध, गोमूत्र, 1--प्रयोग सं. १५२३ देखिये । २ शुक्तिके इति पाठान्तरम् । ३ 'हेम इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [११९] सोंठके काथ और शहदमें क्रमशः सात सात बार | अदरकके रसमें घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बुझावें । फिर उसे लोहपात्रमें पिघलाकर उसमें | उसके बराबर पारा मिलाकर गोली बनालें इनके सेवनसे नवीन ज्वर नष्ट होता है। ( अनुपान-अदरकका रस ।) इसे मुंहमें रखनेसे दांतोंके समस्त रोग नष्ट | (३२२३) द्विहरिद्राचं लौहम् होते और दांत मजबूत होते हैं। ( रसें. चिं. । अ. ९; र. का. धे.) (३२२२) बिभुजो रसः लौहचूर्ण निशायुग्मं त्रिफलां कटुरोहिणीम् । (र. रा. सु. । ज्वर.) पलिह्य मधुसर्पिो कामलात सुखी भवेत् ।। म्लेच्छादद्विगुणजैपालं माग्वदरोग निवारयेत लोहभस्म, हल्दी, दारुहल्दी, हरे, बहेड़ा, | आमला, और कुटकीका चूर्ण समान भाग लेकर शुद्ध हिंगुल (शंगरफ़) १ भाग और शुद्ध सबको एकत्र मिलाकर घी और शहदके साथ जमालगोटा २ भाग लेकर दोनोंको नीबूके रस या | चाटने से कामला रोग नष्ट होता है। इति दकारादिरसप्रकरणम् । + अथ दकारादिमिश्रप्रकरणम् (३२२४) दन्तधावनयोगः पूर्व दिशामें उगे हुवे सफेद संभालुकी जड़(ग. नि.; रा. मा. । मुख.) | को बालकके गले में बांधनेसे दांत निकलनेके दौर्गन्ध्यमुखरोगघ्नं कटुतिक्तकषायकम् ।। समय होने वाले समस्त रोग अवश्य ही नष्ट हो अभ्यस्यमानं तैलाक्तमन्वहं दन्तधावनम् ॥ जाते हैं। ___कटु ( चरपरे ), तिक्त (कड़वे) और । (३२२६) दन्तो दगदान्तकक्रिया कसैले वृक्षांकी दातौनको तेल लगाकर उससे नित्य (धन्वन्तरि । बालरोग.) प्रति दांत साफ़ करनेसे मुखकी दुर्गन्ध और मुख- | दन्तपाली तु मधुना चूर्णेन प्रतिसारयेत् । रोग नष्ट होते हैं। धातकीपुष्पपिप्पलीधात्रीफलरसेन वा ॥ (३२२५) दन्तोद्भेदकः दन्तोत्यानभवा रोगाः पीडयन्ति न बालकम् । ( यो. त. । त. ७७ ) जाते दन्ते हि शाम्यन्ति यतस्तद्धेतुकागदाः ।। प्राचीगतं पाण्डुरसिन्दुवारमूलं जब बालकके दांत निकलने वाले हो तो शिशूनां गलके निबद्धम् । मसूढ़ों पर चूनेको शहदमें मिलाकर मलें या धायके 'करोति दन्तोद्भववेदनायाः फूल, और पीपलके पूर्णको आमलेके रसमें मिलानिःसंशयं नाशमकाण्ड एव ॥ J कर मलें। १॥ हन्न्याशु दन्तोद्भववेदनां च निःशेषमेकाण्डकुरण्डमेव इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । १२०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [दकारादि दांत निकलनेके समय होने वाले रोग बाल- | मिलाकर आस्थापन बस्ति करानेसे कफ, पाण्डु, कोंको कोई विशेष हानि नहीं पहुंचाते क्यों कि मद, आलस्य, मूत्रावरोध, आम, आटोप, अपची, बे, दांत निकल आनेके पश्चात् स्वयं ही शान्त | कफजगुल्म, और कृमि विकार नष्ट होते हैं । हो जाते हैं। (३२२९) दशाङ्गागदः (३२२७) दन्त्यादिवर्ती (आ. वे. वि. । चि. ख. अ. ८२; (वृ. नि. र. । आना.) वं. से. । बाल.) विपाच्य मूत्राम्लरसेन दन्ती वचाहिङ्गविडङ्गानि सैन्धवं गजपिप्पली । ... पिण्डीतकृष्णाविडकुष्ठधूमान् । पाठा प्रतिविषा व्योषं काश्यपेन विनिम्मितम्॥ वर्ति कराङ्गुष्ठनिभा घृताक्तां दशामगदं पीत्वा सर्वकीटविर्ष जयेत् ।। गुदे रुजानाहहरी विदध्यात् ॥ बच, हींग, बायबिडंग, सेंधा, गजपीपल, पाठा, दन्तीमूल, तगर, पीपल, विडनमक, कूठ और अतीस, सांठ, मिर्च, और पीपल । सब समान घरका धुवां समान भाग लेकर चूर्ण करके सबको | भाग लेकर चूर्ण करें। गोमूत्र और नीबूके रस या काजी आदि किसी इस दशाङ्ग अगदको पीनेसे हर प्रकारका अन्य अम्लद्रवमें पकाकर गाढ़ा करें और उसकी | कीटविष नष्ट होता है। हाथके अंगूठे के बराबर बत्तियां बनावें। (३२३०) दार्वीरसक्रिया। इनमेंसे एक बत्ती को घी लगाकर गुदामें (भा. प्र.। ख. २ मु. रो.) रखनेसे उदरशूल और अफारा नष्ट होता है। मुखपाके प्रयोक्तव्यः सक्षौद्रो मुखधावने। (३२२८) दशमूलबस्तिः स्वरसः कथितो दाा घनीभूतो रसक्रिया ॥ (सु. सं. । चि.) सक्षौद्रा मुखरोगासग्दोषनाडीव्रणापहा ॥ दशमूलीनिशाबिल्वपटोलत्रिफलामरैः । मुख पाकमें, दारु हल्दीके स्वरसमें शहद फयितैः कल्कपिष्टैस्तु मुस्तसैन्धवदारुभिः॥ मिलाकर उसके कुल्ले करने चाहिये और दारुहल्दी . पाठामागधिकेन्द्रावैस्तैलक्षारमधुप्लुतैः ।। के काथको पुनः पकाकर गाढ़ा करके उसमें कुर्यादास्थापनं सम्यग्भूत्राम्लफलयोजितम् ॥ | शहद मिला कर उसका लेप करना चाहिये । कफपाण्डुमदालस्यमूत्रमारुतसंझिनाम् । | इससे मुखरोग, रक्तविकार और मुखका नाडीव्रण आमाटोपापचीश्लेष्मगुल्मकृमिविकारिणाम् ॥ ( नासूर ) नष्ट होता है। दशमूल, हल्दी, बेलगिरी, पटोल, त्रिफला । (३२३१) दाादिगण्डूषः और देवदार के काथमें नागर मोथा, सेंधानमक, । (यो. र. । मुख.) देवदार, पाठा, पीपल और इन्द्रजौका कल्क तथा | दार्वीयष्टयऽभयाजातीपत्रसौदैस्तु धावनम् । तैल, यवक्षार, शहद गोमूत्र, कांजी और मैनफल । अश्वत्यत्वग्दलौद्रेर्मुखपाके प्रलेपनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रमकरणम् तृतीयो भागः। [१२१] मुख पाकमें दारुहल्दी, मुलैठी, हर, और देवदाली (बिंडाल), चीता और इन्द्रायण चमेलीके पत्तोंके काथमें शहद मिलाकर उसके की जड़ समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकुल्ले करने और पीपलकी छाल तथा पत्तोंके चूर्ण कर गुटिका ( अंगुठे के समान वर्ति) बनावें । को शहद में मिलाकर उसका लेप करना चाहिये। या इन्द्रायण के फलोंकी वर्ति बनावें। इसे गुदामें (३२३२) दाादिघन: रखनेसे बवासीरके मस्से नष्ट हो जाते हैं। (वा. भ. । उ. स्था. अ. २२) (३२३४) द्राक्षाचगदः स्वरसः कथितो दाा घनीभूतः सगैरिकः। (व. से. । विषा.) आस्यस्थः समधुर्वापाकनाडीव्रणापहः॥ द्राक्षाश्वगन्धानगवृत्तिका च दारुहल्दीके स्वरसको पकाकर गाढ़ा करलें श्वेता च पिष्टा सदृशैः स्वभागैः। और फिर उसमें गेरुका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित देयो विभागः सुरसाछदस्य कपित्थबिल्वादपि दाडिमाश्च ॥ रक्खें। एषोऽगद क्षौद्रयुतो निहन्ति इसमें से. जरासा शहदमें मिलाकर मुंहमें विशेषतो मण्डलिनां विषाणि ॥ रखनेसे मुखपाक और मुखका नाड़ीत्रण (नासूर) । दाख ( मुनक्का ), असगन्ध, सल्लकी वृक्षका नष्ट होता है। गोंद, दूधिया बच ( या सफेद कोयल), तुलसीके (३२३३) देवदाल्याचा गुटिका पत्ते, कैथके पत्ते, बेलके पत्ते और अनारके पत्ते (ग. नि. । अर्श.) समान भाग लेकर चूर्ण करें। गुटिका कृता गुदे सा सुरदाल्यग्नीन्द्रवारुणीमूलैः इसे शहदके साथ खिलानेसे समस्त प्रकारके अशेः शातनमन्तःफलमथवा शक्रवारुण्या॥ विष विशेषतः माडली सर्पका विष नष्ट होता है। इति दकारादिमिश्रप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [धकारादि अथ धकारादिकषायप्रकरणम् (३२३५) धत्तूरयोगः धव, अर्जुन, कदम्ब, जामन और आमकी (रा. मा. । विष.) छाल तथा मनसिल, और कसीसके काथमें सेंधा उन्मत्तकस्य स्वरसं पयश्च नमक, गुड़ और घी मिलाकर पीनेसे क्षतज खांसी नष्ट होती है। सर्पिगुडश्चेति विमिश्रितानि । पिबेत्पलद्वन्द्वमितानि यत्ना (३२३८) धवादिकाथः (३) दुन्मत्तकौलेयकदष्टगात्रः॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१) धवार्जुनकदम्बानां बदरी खदिरशिंशपे । धतूरेका स्वरस, दूध, घी और गुड़ २-२ पल (१०-१० तोले ) लेकर सबको एकत्र पारिभद्रकमेतेषां मेहनस्य प्रधावनम् ॥ मिला कर पिलाने से उन्मत्त कुत्तेका विष नष्ट | अर्जुनस्य कदम्बस्य टिण्टुकी वान्तरत्वचा। होता है। पाके पूयविशोधार्थ मेहनस्य प्रशस्यते ॥ धव, अर्जुन, कदम्ब, बेरी, खैर, सीसम और (३२३६) धवादिकाथः (१) (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४) पारिभद्र ( नीम या फरहद ) की छालके काथसे या अर्जुन, कदम्ब और टेंटुकी अन्तर्जाल के क्वाथसे धवार्जुनकदम्बानां शिरीषबदरीसह । निकाथ्य पानमामघ्नं विषूच्याः शूलवारणम् ।।। धोनेसे लिङ्गका घाव शुद्ध होता है । धव, अर्जुन, कदम्ब, सिरस और बेरीकी (३२३९) धातक्यादिक्काथ: (१) छालका काथ पीनेसे आम और विसूचिका का (वै. जी. । वि. १) विषममपि हरत्यसौ कषायो शूल शान्त होता है। मधुमधुरो मदिरामृताशिवानाम् । (३२३७) धवादिक्काथः (२) | अहमिव सततं तत्र प्रकोपं (हा. सं. । स्था. ३ अध्या. १२) चरणसरोरुहयो ठन्हठेन ।। धवार्जुनकदम्बानां जम्ब्बाम्रत्वक् च तत्समम् । धायके फूल, गिलोय और आमलेके काथको मनःशिला सकासीसं कायं कृत्वा ससैन्धवम्॥ शहदसे मीठा करके पीनेसे विषम ज्वर अवश्य नष्ट गुडेन सर्पिषा युक्तं हन्ति कासं क्षतोद्भवम् ।। | हो जाता है । For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१२३] (३२४०) धातक्यादिकाथः (२) धात्रीफलं निम्बकपित्थपत्रं ( शा. ध. । म. ख. अ. २.; वृ. नि.र. । अतिसर.) यष्टयाहलोधं खदिरं तिलाश्च । धातकीबिल्वलोध्राणि बालकं गजपिप्पली। काथः सुशीतो नयनेऽभिषिक्तः एभिःकृतं शृतं शीतं शिशुभ्यः क्षौद्रसंयुतम् ॥ सर्वप्रकारं विनिहन्ति शुक्रम् ॥ प्रदधादवलेहं वा सर्वातीसारशान्तये ।। ___ आमला (फल), नीम और कैथके पत्ते, मुलैठी, ___धायके फूल, बेलगिरी, लोध, सुगन्धबाला लोध, खैरसार और तिल के काथको ठण्डा और गजपीपलके काथको शीतल करके उसमें शहद करके आंखमें उसकी बूंदें डालनेसे नेत्रशुक्र नष्ट डालकर पिलाने या इनके चूर्णको शहदमें मिला- होता है। कर चटानेसे बालकोंका हर प्रकारका अतिसार नष्ट । (३२४४) धात्रीरसप्रयोग: होता है। (धन्वं. [ सोम.) (३२४१) धातक्यादिकाथ: (३) धात्रीफलस्य स्वरसं मधुना च पिबेत्सदा। __ (यो. र. । प्रदर.; वृ. नि. र. । स्त्री.) बहुमूत्रक्षयं कुर्यात् क्षीरेण वासकस्य च ॥ धातक्याश्च तथा पूगीकुसुमानां पिबेच्छृतम् । आमलेके फलोंके रसमें शहद मिलाकर पीनेनाशयेत्पदरं सद्यस्त्रिदिनाघोषितां ध्रुवम् ॥ से या बासेके रसको दूधमें मिलाकर पीनेसे बहु ३ दिन तक, धाय और सुपारीके फूलोंका मूत्र रोग नष्ट होता है। काथ पीनेसे स्त्रियांका प्रदर रोग अवश्य नष्ट हो । (३२४५) धात्रीरसयोगः जाता है। (वृ. मा. । गुल्मा.) (३२४२) धातक्यादियोगः पीतो धात्रीरसो युक्त्या किंशुकक्षारसाधितः । (वृ. नि. र.; वं. से; वं. मा.; भा. प्र. ख. २ । क्षारत्र्यूषणसंयुक्ता मदिरा चास्रगुल्मनुत् ॥ अतिसार.) पलाश ( ढाक) की राख (भस्म ) को ६ धातकीबदरीपत्रं कपित्थरसमाक्षिकं । गुने आमलेके रसमें मिलाकर, २१ बार कपड़ेसे सलोध्रमेकतो दन्ना पिबेनिर्वाहिकार्दितः ॥ छानकर पिलानेसे या मदिरामें यवक्षार और सोंठ, धायके फूल, बेरीके पत्ते और लोध के कल्क मिर्च, पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलानेसे रक्तगुल्म को कैथके स्वरस और शहदमें मिलाकर दहीके साथ | नष्ट होता है। पीनेसे प्रवाहिका (पेचिश) नष्ट होती है। । (३२४६) धात्रीरसादिप्रयोगः (३२४३) धात्रीफलादिसेचनकषायः । ( यो. र. । योनिरो.) (वृ. नि. र.; ग. नि.; यो. र.; । नेत्ररो.; वृ. ! धात्रीरसं सितायुक्तं योनिदाहे पिबेत्सदा । यो. त. । त. १३१; यो. त. । त. ७१) | मूर्यक्रान्ताभवं मूलं पिबेदा तण्डुलाम्बुना ॥ For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१२४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [धकारादि - आमलेके रसमें मिश्री मिलाकर पीनेसे या । आमला, नागरमोथा, और हल्दी का काथ सूर्यकान्ताकी जड़को चावलों के पानीके साथ | पीने या काकोली और गिलोयके काथमें पीपल पीसकर पीनेसे योनिकी दाह नष्ट होती है । । का चूर्ण मिलाकर बलोचित मात्रानुसार पीने (३२४७) घात्र्यादिकाथः ( लघु ) (१) और पथ्य पालन करनेसे २१ दिन में कफ प्रधान (भै. र.; धन्वं. । मूत्रकृ.) | वातरक्त रोग नष्ट हो जाता है। धात्री द्राक्षा विदारीच यष्टयाहा गोक्षुरं तथा। | (३२५०) धात्र्यादिकाय: (४) एभिःकषायं विपचेत् पिबेत् शीतं सशर्करम् ॥ (. मा.; च. द.; ग. नि. । कुष्ठ.) अपि योगशतासाध्यं मूत्रकृच्छ्रे जयेल्लघु ॥ धात्रीखदिरयोः काथं पीत्वाऽवल्गुजसंयुतम् । ___ आमला, दाख (मुनक्का), विदारीकन्द, मुलैठी शन्दुधवलं श्वित्रं तुर्ण हन्ति न संशयः॥ और गोखरु के काथको ठण्डा करके उसमें 'आमला और खैरसारके काथमें बाबचीका खांड मिलाकर पीनेसे सैकड़ों योगेांसे आराम न चूर्ण मिलाकर पीनेसे शंखके समान सफ़ेद श्वेत होने वाला मूत्रकृच्छू भी नष्ट हो जाता है। कुष्ठ भी शीघ्र ही अवश्य नष्ट हो जाता है । (खांड काथका ८ वां भाग मिलावें।) (३२५१) धात्र्यादिकाथः (५) (३२४८) धात्र्यादिकाथा (बृहद् ) (२) (वं. से. । शिरोरो.) (भै. र. । मू. कृ.) . धात्री द्राक्षा च यष्टयाहं विदारी सत्रिकण्टका। धात्र्यक्षपथ्यासनिशागुडूची दर्भेक्षुमूलमभया काथयित्वा जलं पिबेत ॥ भूनिम्बनिम्बैः कथितः पडा। ससितं मूत्रकृच्छ्रनं रुजादाहहरं परम् ।। भ्रूशलकर्णाक्षिशिरोर्दशूले ____ आमला, दाख (मुनक्का), मुलैठी, बिदारी सूर्योदये शङ्खकमर्द्धभेदे ।। कन्द, गोखरु, दाबकी जड़, ईखकी जड़, और नक्तान्ध्यकाचे पटले सशुक्रे हस्के काथको ठण्डा करके उसमें खांड मिलाकर पाकेऽश्रुपाते तिमिरेऽसिरोगे। पीनेसे मूत्रकृच्छ, पेशाबकी जलन और पीड़ा शान्त | पक्ष्मप्रकोपे विनिहन्ति चैष होती है। सद्यो गदं वायुरिवाभ्रवन्दम् ।। (खांड काथका ८ वां भाग मिलावें।) आमला, बहेड़ा, हर्र, हल्दी, गिलोय, चिरा(३२४९) धात्र्यादिकाथः (३) | यता और नीमकी छाल । सब समान भाग मिला(वृं. मा. । वातर.) | कर २॥ तोले लें और ४० तोले पानीमें पकाधात्रीमुस्ताहरिद्राणां कषायं वा कफाधिके। | कर १० तोले शेष रक्खें । कोकिलाख्याऽमृताका पिवेत्कृष्णां यथा वलम्॥ इसे पीनेसे भौं, शंख (कनपटी) कान, आंख पथ्यमोजी त्रिसप्ताहान्मुच्यते वातशोणितात् ।। और आधे शिरमें होने वाला शूल; सूर्यावर्त, रात्र्य For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायमकरणम् ] तृतीयो भागः। [१२५] न्धता ( रतौंधा), कांच, पटल, नेत्रशुक्र, नेत्रपाक, | (३२५५) घाच्यादियोगः (१) अश्रुनाव, तिमिर, और पक्ष्मप्रकोपादि शिर तथा (ग. नि. । छर्घ.) नेत्रोंके रोग नष्ट हो जाते हैं । पिष्ट्वा धात्रीफलं लाक्षाशर्करां च पलोन्मिताम् (३२५२) धाच्यादिकाथः (६) दत्त्वा मधुपलं चात्र कुडवं सलिलस्य च ॥ (वैद्यामृत । वि. २७) वाससा गालित पीतं हन्ति छर्दैि त्रिदोषजम् । धात्र्याः कषायं मधुरात्रियुक्तं __ आमला, लाख और खांड एक एक पल __ वटाकुराणां समधु कषायम् । लेकर पानीके साथ महीन पीसें फिर उसमें १ पल पाषाणभेदं मधुमिश्रमेतत् (५ तोले ) शहद और २० तोले पानी मिलाकर त्रयं प्रमेहापहमामनन्ति ॥ कपड़े से छान लें। इसके पीनेसे त्रिदोषज छर्दि आमले के काथमें शहद और हल्दीका चूर्ण नष्ट होती है। मिला कर, या बड़के अंकुरेकेि अथवा पाषाण भेद (३२५६) धात्र्यादियोगः (२) (पखान भेद ) के काथमें शहद डालकर पीनेसे (ग. नि. रसा.; वा. भ. । उ. अ. ३९) प्रमेह नष्ट होता है। धात्रीरसक्षौद्रसिताघृतानि हिताशनानां लिहतां नाराणाम् । (३२५३) धाब्यादिकायः (७) प्राणाशमायान्ति जराविकारा (बृ. नि. र.; यो. र. । हिक्का.) __ ग्रन्या विशाला इव दुर्ग्रहीता ॥ पात्री च मागधी शुण्ठी काथश्चैषां सितायुतः।। आमलेका रस, शहद, मिश्री और घी समान हिनस्ति हृदयोद्भूतां हिक्कां प्राणपनोदिनीम्॥ भाग मिलाकर पथ्य पालन पूर्वक सेवन करनेसे ___ आमला, पीपल, और सोंठ के काथमें खांड वृद्धावस्थाजनित समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं। मिलाकर पीनेसे हृदयसे उठने वाली तथा प्राणोंको (३२५७) धान्यादिस्वरसः सङ्कट में डाल देनेवाली हिचकी भी नष्ट हो जाती है। (ग. नि.; शा. सं. । कुष्ठ.) (३२५४) धात्र्यादिप्रयोगः रसं हि धात्र्यक्षहरीतकीनां __ (. मा.; ग. नि. । शूला.) पृथक् पृथक् यन्त्रनिपीडितानाम् । धान्या रसं विदार्या वा त्रायन्तीयोस्तनाम्बुना । क्षौद्रान्वितं चैव पिबेत्तु पक्षं पिषेत्सशर्करं मधं पित्तशूलनिघूदनम् ॥ पथ्यान्न कुष्ठनिवर्हणाय ॥ त्रायमाणा और मुनक्का के काथमें अथवा । आमला, हर्र और बहेड़े से किसी एकके आमले या बिदारीकन्दके स्वरसमें खांड और शराब स्वरसमें शहद मिलाकर १५ दिन तक पीने और मिला कर पिलानेसे पित्तज शूल नष्ट होता है। पथ्य पालन करनेसे कुष्ठ रोग नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [१२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [धकारादि (३२५८) घान्यकहिमः । (३२६१) धान्यकादिकाथः (२) (वै. जी. । विला. १; ग. नि.; भा. प्र.; यो. र. (वृं. मा.; ग. नि. । ज्वरा.; आ. वे. वि. । __ वृ. नि. र.; वं. से.; . मा.; यो. र.;.. चि. अ. ४) भै. र. । ज्वर.) दीपनं कफविच्छेदि पित्तवातानुलोमनम् । पर्युषितं धान्यजलं प्रातः पीतं सशर्करं साम ।। ज्वरघ्नं पाचनं भेदि शृतं धान्यपटोलयोः॥ अन्तदाई शमयति मद्धमपि तत्क्षणादेव ॥ धनिया और पटोलपत्रका काथ दीपन, (२ तोले) धनियेको अधकुटा करके रातको | कफ नाशक, पित्त तथा वायुको अनुलोम करने (१२ तोले ) पानीमें मिट्टीके बरतनमें भिगो दें; बाला, ज्वरनाशक, पाचन और भेदक है। प्रातःकाल छानकर उसमें खांड मिलाकर पीने से । (३२६२) धान्यकादिकाथः (३) अत्यन्त प्रवृद्ध अन्तर्दाह भी तुरन्त शान्त हो (भै. र. । ज्वराति.) जाती है। धान्यकं विश्वसंयुक्तमामघ्नं वह्निदीपनम् । (३२५९) धान्यकादिकषायः वातश्लेष्मज्वरहरं शूलातिसारनाशनम् ।। (ग. नि. । ग्रह.) धनिया और सोंठका काथ पीनेसे आम, धान्यबिल्ववलाशुण्ठीशालिपर्णीभृतं जलम् । वात-कफज्वर, शूल और अतिसार नष्ट होता है । स्याद्वातग्रहणीदोषे पानाहारपरिग्रहे ॥ (३२६३) धान्यकादिहिमः धनिया, बेलगिरी, खरैटी, सोंठ और शाल- ( भा. प्र. । रक्तपित्ता.; वै. र. । रक्तपित्ता.) पर्णी के काथ से आहार बनाकर देने और प्यास | धान्याकधात्रीवासानां द्राक्षापर्पटयोहिमः। में वह जल पिलानेसे वातज ग्रहणी नष्ट होती है। रक्तपित्तं उचरं दाहं तृष्णां शोषश्च नाशयेत् ॥ (सब चीजें मिली हुई १। तोला, पानी २ धनिया, आमला, बासा, दाख ( मुनक्का ) सेर, शेष १ सेर ।) और पित्तपापड़ा समान भाग मिश्रित २ तोले (३२६०) धान्यकादिकायः (१) लेकर अधकुटा करके रातको १२ तोले पानी में (यो. र. । क्षय.) मिट्टीके बरतनमें भिगो दें और प्रातःकाल छानधान्यकं पिप्पलीविश्वदशमूलीजलं पिबेत् ।। कर पियें । पार्श्वशूलज्वरश्वासपीनसादिनिवृत्तये ॥ इसके सेवनसे रक्तपित्त, पित्तजज्वर, दाह, धनिया, पीपल, सोंठ और दशमूलका काथ | | तृष्णा और शोष रोग नष्ट होता है । पीनेसे पसलीकी पीड़ा, ज्वर, श्वास और पीनसादि धान्यचतुष्कम् रोग नष्ट होते हैं। धान्यपश्चकम् देखिये For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१२७] - - (३२६४) धान्यपश्वकम् धनिया, अतीस, सुगन्धबाला, अजवायन, (भै. र.; वं. से.; वै. रह.; ग. नि.; र. र.; च. मोथा, सोंठ, खरैटी, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी और बेलद.; वृं. नि. र.; वृं. मा.; भा. प्र.। अतिसार; यो. चि.। अधि. ४; वृ. यो. त. । त. | गिरी का काथ दीपन पाचन है । ( इसे अतिसार ६४, शा. सं. । म. अ. २) और संग्रहणीमें देना चाहिये । ) । धान्यकं नागरं मुस्तं बालकं बिल्वमेव च । आमशूलविबन्धघ्नं पाचनं वहिदीपनम् ॥ (३२६७) धान्यादिजलम् इदं धान्यचतुष्कं स्यात्पत्ते शुण्ठी विना पुनः॥ (वं. से.; यो. र. । अति.) __धनिया, सोंठ, नागरमोथा, सुगन्धबाला, और बेलगिरी । इन पांचों के योगको धान्य पञ्चक धान्योदीच्यशृतं तोयं कहते हैं । यह काथ आम, शूल और विबन्धयुक्त तृष्णादाहतिसारवान् । अतिसार नाशक तथा दीपन और पाचन है ।। ताभ्यामेव सपाठाभ्यां यदि इसमें से सोंठ कम कर दी जाय तो सिद्धमाहारमाचरेत् ॥ इसका नाम 'धान्यचतुष्क' हो जाता है। यह तृष्णा और दाह युक्त अतिसारमें धनिये और काथ पित्तातिसारको नष्ट करता है । सुगन्धबालेका पानी पिलाना चाहिये तथा धनिया, (३२६५) धान्यादिक्काथः (१) सुगन्ध बाला और पाठा के पानीसे आहार बना(यो. र. । अति.) धान्यकातिविषामुस्तागुडूचीबिल्वनागरैः।। कर देना चाहिए । दत्तः कषायः शमयेदतिसारं चिरोत्थितम् ॥ ( समान भाग मिली हुई औषधे १। तोला अरोचकामशूलास्रज्वरघ्नः पाचनः स्मृतः॥ पानी २ सेर । शेष काथ १ सेर । ) ___ धनिया, अतीस, नागरमोथा, गिलोय, बेलगिरि और सोंठका कोथ पीनेसे पुराना अतिसार, (३२६८) धान्यादियोगः अरुचि, आम, शूल, रक्तातिसार और ज्वर नष्ट ( भा. प्र. । म. ख. बाल.) होता है। यह काथ पाचन भी है। धान्यं च शर्करायुक्तं तण्डुलोदकसंयुतम् । (३२६६) धान्यादिकाथः (२) पानमेतत्मदातव्यं कासश्वासापहं शिशोः ।। (वं. से.; वं. मा.; यो. र.; ग. नि. । ग्रहण्य.; ___वं. से । अति.) धनिये को चावलों के पानीमें पीसकर उस धान्यकातिविषोदीच्ययवानीमुस्तनागरम। में खांड मिलाकर पिलानेसे बालकोंकी खांसी और बला द्विपर्णी बिल्वं च दद्यादीपनपाचनम् ॥ । श्वास नष्ट होते हैं । इति धकारादिकषायप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१२८] भारत-भेषज्य-रत्नाकरः। [धकारादि अथ धकारादिचूर्णप्रकरणम् (३२६९) धत्तूरादिचूर्णम् इसे गुड़मिश्रित तक्रके साथ पीनेसे प्रबल (वृं. नि. र. । अर्श.) अतिसार नष्ट होता है । (मात्रा-~१॥-२ माशा) धतूरस्य फल पकं पिप्पलीनागराभया। (३२७२) धातक्यादिप्रयोगः बालकं गुडसंयुक्तं भक्ष्यं गुञ्जाष्टकं निशि ॥ (यो. र. । बाल.) सितामध्वाज्यककं पिबेत्पित्तार्शसाञ्जयेत् ॥ | दन्तपाली तु मधुना चूर्णेन प्रतिसारयेत् । धतूरेका पक्काफल, पीपल, सोंठ, हरं, नेत्र- धातकीपुष्पपिप्पल्योर्धात्रीफलरसेन वा ॥ बाला, और गुड़ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। जब बालकके दांत निकल रहे हों, तब धा इसमें से नित्य प्रति रात्रिको ८ रत्ती चूर्ण | यके फूल और पीपलके समभाग मिश्रित चूर्णको १।-शतोला मिश्री, शहद और धीमें मिलाकर | शहद या आमलेके रसमें मिलाकर उसके ससूढ़ों पीनेसे पित्तज अर्श, नष्ट होती है। पर मलने से दांत शीघ्र निकल आते हैं। (३२७०) धातकीपुष्पादियोगः (३२७३) धात्रीचूर्णम् (ग. नि. । वन्ध्याधि.) (ग. नि.; वृ. नि. र.; यो. र । शूला.) घातकीकुममैयुक्त नारी नीलोत्पलं पिबेत् । पलियात्पित्तशूलघ्नं ऋतौ मधुयुतं प्रातः सिमं गर्मेण युज्यते ॥ . धात्रीचूर्ण समाक्षिकम् । धायके फूल और नील कमलके समान भाग मिश्रित चूर्णको ऋतुकालमें शहदके साथ मिलाकर भक्षयेद्वा हरीतकीम् ॥ पीनेसे स्त्री शीघ्र ही गर्भ धारण कर लेती है। आमलेके चूर्णको शहदमें मिलाकर या हरे के (३२७१) घातक्यादिचूर्णम् चूर्णको गुड़ और घीमें मिलाकर सेवन करनेसे (वृ. नि. र. । अति. ) | पित्तज शूल नष्ट होता है। श्रीधातकीमोचरसाब्दलोध्र (चूर्णकी मात्रा-१ से ३ माशे तक ।) . कालिङ्गविश्वौषधचूर्णमेतत् । (३२७४) धात्रीयोगः पेयं गुणाढयं तु गुडतक्रयुक्तं (वै. म. र. । पट. २) गाढं त्वतीसारकनाशका। | धात्र्यस्थितण्डुलजलैः पीतं हन्यादसृग्दरम् । बेलगिरी, धायके फूल, मोचरस, नागरमोथा, | पीता शीताम्बुना पिष्टा धात्री वोदुम्बराम्बुना ॥ लोष, इन्द्रजौ, और सोंठ । समान भाग लेकर आमलेकी गुठली के भीतरकी मज्जा (गिरी) चूर्ण बनावें। को चावलों के पानीके साथ पीनेसे या आमलेको For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१४५] - - - - सुराका है। आक, चिरचिटा और मुलैठी में से किसी एकके | एक भेद) में से किसी एकके मलके रसके साथ काथके साथ खिलाना चाहिये । उपरोक्त गुटिका खिलावें । ___ जीमूतकी भांति धामार्गवके पुष्पादि से सिद्ध जीवक, ऋषभक, क्षीरकाकोली, कौंचके बीज, दुग्ध' के भी चार प्रयोग हैं और पांचवां प्रयोग शतावर, काकोली, मुण्डी, मेदा, महामेदा और मुलैठी में से किसी एकका चूर्ण धामार्गवके चूर्णके | साथ मिलाकर उसे खांड और शहदमें मिलाकर धामार्गवके पक्के और सूखे फलों के बीज चाटना चाहिये। अलग करके रातको उसमें गुड़ मिश्रित मुलैठीका यह प्रयोग हृदयकी दाह और खांसीमें उपकाथ भर दें और प्रातःकाल छानकर पिलावें । योगी है। यह प्रयोग गुल्म और अन्य कफज रोगोंमें हित ___यदि कफके साथ पित्त भी हो तो अनुपान कारी है। में मन्दाष्ण पानी देना चाहिये । ____ मुलैठी की भांति ही कोविदारादि आठों धनिये और तुम्बुरुके यूषके साथ धामार्गवद्रव्यों में से किसीका भी काथ पर्युषित करके का कल्क देनेसे विष नष्ट होता है। प्रयुक्त किया जा सकता है । चमेलीके फूल, हल्दी, चोरक, पुनर्ववा, यदि छर्दि और हृदोगमें प्रयुक्त करना हो । कसौंदी, कन्दूरी, बच, महासहा, क्षुद्रसहा, और तो धामार्गवसे अन्न सिद्ध करके देना चाहिये। वृश्चीर ( लाल पुनर्नवा ) में से किसी एकके काथमें | धामार्गवके १ या २ फलोंको भिगोकर, मल छान___ उत्पलादि पुष्पोंको धामार्गवके चूर्णसे अच्छी | कर पिलाना चाहिये । इससे भलीभांति वमन तरह बसाकर यवाग्वादि पिलाकर तृप्त किये हुवे होकर मनोविकार ( उन्मादादि ) नष्ट होते हैं। रोगीको वह पुष्प सुंघाये जायं तो उसे अच्छी धामार्गवसे दूध पकाकर उसका दही बनाकर तरह वमन हो जाती है। घी निकालें और फिर उस घीको धामार्गवके ही धामार्गवके चूर्णको ( उसीके रस या पानी | फलादिके कल्कसे सिद्ध करके सेवन करावें । में ) घोटकर बेरके समान गुटिका बना लें। इसे (दूध पकानेके लिए --धामार्गव १ सेर, गायके गोबर या घोड़ेकी लीदके २० तोले रसके । दूध १६ सेर, पानी ६४ सेर । मिलाकर पकावें । साथ रोगीको खिलावें। दूध मात्र शेष रहने पर छान लें। ___ अथवा पृषत् ( हरिन भेद ), ऋष्य (रोरु- । घृतसिद्ध करनेके लिए-उपरोक्त दूधसे मृग), कुरङ्ग (छोटा हरिन) घोड़ा, हाथी, ऊंट, ! निकाला हुवा घी १ सेर, धामार्गवका कल्क १० खिच्चर, भेड़, श्वदंष्ट्री, गधा और खग (घोड़ेका तोले; पानी ४ सेर । ) ____ इति धकारादिकल्पपकरणम् । १-पुष्पसिद्ध दुग्ध, फल सिद्ध दुग्ध, भामार्गवसिद्ध दूध की मलाई और धामार्गव सिद्ध दूधका दही। २-धामार्गवके फलोंको सुरामें भिगोकर मल छानकर प्रयुक्त करें । ३-धामार्गवके चूर्णको फूलोंपर छिड़क कर रात भर रक्खा रहने दें और दूसरे दिन फिर नया चूर्ण छिड़कें इसी प्रकार निरन्तर कई दिन करें, और फिर फलों को पीस लें। For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१४६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [धकारादि अथ धकारादिरसप्रकरणम् ->Reore(३३२५) धन्वन्तरिरसः ___ लोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध पारा, (र. र. स. । उ, खं. अ. २.) शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनागविष ( मीठा तेलिया), सूतगन्धार्कसौभाग्यं ककुष्ठं रक्तचन्दनम् ।। सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, और कूठ। कणा चैतानि तुल्यानि मर्दयेल्लुङ्गवारिणा ॥ | सब चीजें समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धक एकाइमथ संशोष्य स्थापयेदतियनतः। की कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य रसो निःशेषकुष्ठनो धन्वन्तरिरिति स्मृतः ।। ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर ३-३ दिन निर्दिष्टः शम्भुना सर्वरोगभीतिविनाशनः। भंगरा, अदरक और संभालुके रसमें घोटकर मूंगके पथ्याघृतयुतो वायुं सिन्धुविश्वान्वितोऽपि वा ॥ बराबर गोलियां बनावें । __शुद्धपारा, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, सुहागेकी इन्हें यथोचित अनुपानके साथ देनेसे अजीर्ण, खील, कङ्गुष्ठ, लालचन्दन और पीपल समान भाग वातज खांसी, और सर्व धातुगत ज्वर आदि समस्त लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें फिर रोग नष्ट होते तथा जठराग्नि और रुचिकी वृद्धि उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर १ दिन | होती है। जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर (३-४ रत्तीकी) धातुपाकरसः (वै. र.) गोलियां बनालें। ज्वराङ्कुश रस ९ वां सं. २१६५ देखिये । इसके सेवनसे सब प्रकारके कुष्ट नष्ट होते । (३३२७) धातुबद्धरसः हैं। अनुपान-हर्र का चूर्ण और घी या सोंट और (र. र.; धन्वं. । रसाय.) सेंधा नमक तथा घी। गन्धकेन शिला वापि सीसको माक्षिकेण वा। (३३२६) धातुज्वराङ्कुशरसः | अभ्रं लौहेन वा तद्वत् समभागेन पारदः ॥ (नि. र.; वृ. नि. र. । ज्वर.) सुभृष्टटङ्कणेनापि रसपादेन संयुतः । लोहाभ्रक ताम्रभस्म पारदं गन्धकं विषम् । | रसेन पारिजातस्य कारवेल्या रसेन वा ॥ व्योष फलत्रिकं कुष्ठं समभागेन मर्दयेत् ॥ द्रवन्त्यास्तण्डुलीयोत्थैरेकाहं मर्दयेद्रसम् । भृङ्गनीरेण चार्द्रस्य वारा निर्गुण्डिकारसैः। अर्ध सञ्चर्य मण्डूरं दिनान्तं परिमर्दयेत् ॥ त्रिदिनं मर्दयित्वा तु मुद्गमाना वटी कृता ॥ तज्जलं भाजने क्षिप्त्वा मूर्यतापे निधापयेत् । यथारोगानुपानेन सर्वव्याधिविनाशिनी। जलादुत्सृज्य मृत्स्नाश्च पथ्यया सह मर्दयेत् ।। अजीर्णवातकासनी दीपनी रुचिवर्धनी ॥ पूर्वसूतस्य तं कल्कं मृत्स्नया परिलेपयेत् । सर्वधातुज्वरान्हन्ति सोयं धातुज्वराङ्कुशः॥ अङ्गलोत्सेधमानेन ततः सम्वेष्टय मृत्पटैः ।। For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [१४७] विशोष्य तं धमेत्गाद साधैकं घटिकावधि। रसेन वा दाडिममातुलुङ्गयातस्मादुद्धृत्य तं भित्वा शीतलाङ्गाश्च मूपिकाम्।। श्चूर्ण सिलाढयं च सपिनशूले । धातुबद्धरसस्सोऽयं सर्वरोगनिकृन्तनः।। आमला, लोह भम्म, हर्र, सेठि, मिर्च और शुद्ध गन्धक, शुद्ध मनसिल या सीसाभस्म, पीपलका चूर्ण समान भाग लेकर सबको १ दिन सोना मक्खी भस्म या लोह भम्म और अभ्रक | अनार या बिजौरे के रसमें घोटें। भस्म १-१ भाग तथा शुद्ध पारा इन सबके बराबर इसे ( समान भाग) खांडमें मिलाकर खानेते लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और ! पित्तज शूल नष्ट होता है। उसमें उपरोक्त औषधे तथा पारेका चौथा भाग ! ( मात्रा--१--१॥ माशा । अनुपान जल।) सुहागेकी खील मिलाकर १-१ दिन हारसिंगार। या करेलेके रस तथा द्रवन्ती और चौलाईके रसमें। (३३२९) धात्रीलोहम् (१) घोटें । फिर इसमें इसका आधा भाग मण्डूर भस्म । (र.र. रसा. । उपदे. ६; धन्व.; र. र. । वाजीक.) मिलाकर एक दिन घोटें । तत्पश्चात् इसमें उप- धात्रीफलस्य चूर्णन्तु भावयेत्तत्फलद्रवैः । रोक्त ओषधियोंका रस मिलाकर धूपमें रखदें। एकविंशतिवारान् वै शोष्यं पेष्यं पुनः पुनः ।। (रस इतना डालना चाहिये कि औषधके २-३ तत्पादांशं मृत लोहं मध्वाज्यशर्करान्वितम् । अंगल ऊपर आ जाय । ) अब इस समस्त औष- पलैकं भक्षयेन्नित्यं सिताक्षीरं पिबेदनु । धका गोला बनाकर सुखालें और ( उसे बटादिके धात्रीलोहप्रभावेण रमयेत्कामिनीशतम् ॥ पत्तोंमें लपेटकर ) उसपर समान भाग मिश्रित हर्र ___आमलेके चूर्ण को उसीके रसमें घोटकर सुखावें, और मिट्टीको पानीमें पीसकर लेप करदें, फिर उस- और इसी प्रकार २१ भावना देकर उसमें उसप्ते पर एक अंगल मोटी कपर मिट्टी करके सुखालें । चौथाई लोह भस्म मिला। इसे शहद, घी और इसे मूषामें बन्द करके १॥ घड़ी तक तीब्राग्निमें ! खांड समानभाग मिश्रित ५ तोलेके साथ मिलाकर पका और स्वांगशीतल होनेपर रसको निकालकर सेवन करनेसे १०० स्त्रियांसे रमण करनेकी शक्ति पीस लें। प्राप्त होती है। यह रस समस्त रोगोंको नष्ट करता है। ( मात्रा-आधेसे १ माशे तक) (मात्रा १ रत्ती।) (३३२८) धात्रीफलादिचूर्णम् (३३३०) धात्रीलोहम् (२) (हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) (भै. र.; रसे. सा. पं.; र. रा. सु.; धन्वं. । शूला.) धात्रीफलं लोहरजश्च पथ्या १कुडवं शुद्धमण्डूरं यवञ्च कुडवन्तथा । व्योषं समांशेन विभाव्य तन्तु । पाकार्थश्च जलं प्रस्थं चतुर्भागावशेषितम् ॥ १॥ त्रिफलाद्वैः" इति पाठान्तरम्. १ षटपलभिति पाठान्तरम् । जी . For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१४८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [धकारादि - शतावरीरसस्याष्टावामलक्या रसस्य च । इसमें से १-१ तोला औषध भोजनके आदि, तथा दधिपयोभूमिकूष्माण्डस्य चतुः पलम् ॥ मध्य और अन्तमें दूधके साथ सेवन करनेसे वातज, चतुःपलमिक्षुरसं दद्यात्तत्र विचक्षणः।। पित्तज, कफज, द्वन्द्वज, सन्निपातज और परिणामशूल प्रक्षिपेज्जीरकं धान्यं त्रिजातं करिपिप्पलीम् ।। तथा अन्नद्रवशूल एवं भयंकर अम्लपित्त का नाश मुस्तं हरीतकीश्चैवमभ्रं लौहं कटुत्रयम् । होता है। रेणुका त्रिफला चैव तालीशं स्वर्णकेशरम् ॥ (व्यवहारिक मात्रा १-१॥ माशा ।) कटुका मधुकं रास्ना चाश्वगन्धा च चन्दनम्। (३३३१) धात्रीलोहम् (३) एतेषां कार्षिकं भागं चूर्णयित्वा विनिःक्षिपेत्।। भोजनाधवसाने च मध्ये चैव समाहितः। (र. का. धे.; . मा.; च. द.; ग. नि. । शूला.; तोलैकं भक्षयेनित्यमनुपानं पयस्तथा ॥ वृ. यो. त. । त. १२२; भै. र.; र. र. । शूल; शूलमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा।। र. चं.; र. सा. स.; र. रा. मुं. । पित्तरो. ) वातिकं पैत्तिकश्चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् ॥ धात्रीचूर्णस्याष्टौ पलानि चत्वारि लोहचूर्णस्य । परिणामसमुत्थश्च हयन्नद्रवभवन्तथा। यष्टीमधुकरजश्च द्विपलं दद्यात्पटे घृष्टम् ॥ द्वन्द्वजान्यपि शूलानि हयम्लपित्तं सुदारुणम् ॥ अमृताकाथेनैतच्चूर्ण भाव्यं तु सप्ताहम् । सर्वशूलहरं श्रेष्ठं धात्रीलोहमिदं शुभम् ॥ चण्डातपे विशुष्कं भूयः पिष्ट्वा नवे घटे नोट-भैषज्य रत्नावलीमें ४ पल घृत अधिक स्थाप्यम् ॥ है तथा प्रक्षेप द्रव्योंमें कुटकी, मुलैठी, रास्ना, घतमधना संयुक्तं भक्तस्यादौ भक्तमध्येऽन्ते च असगन्ध और चन्दनका अभाव है। त्रीन्वारानपि खादेत्पथ्यं दोषानुबन्धेन ॥ शुद्ध मण्डूर और जौ ४-४ पल ( हरेक २० भक्तस्यादौ नाशयति दोषान्पित्तानिलोद्भूतान् । तोले) लेकर सबको २ सेर (१६० तोले ) पानीमें मध्येऽने विष्टम्भं जयति च नृणां विदह्यते नामम्।। पकावें । जब आधा सेर पानी शेष रह जाय तो पानान्नकृतान्दोषान्भक्तान्ते शीलितो जयति । छानकर उसमें ८-८ पल शतावर और आमलेका एवं जीर्यति चाने शूलं नृणां मुकष्टमपि ॥ रस, तथा ४-४ पल दही, दूध बिदारीकन्दका हरति च सहसा युक्तो योगश्चायं जरत्पित्तम् । रस और ईखका रस मिलाकर पुनः पकावें । जब चक्षुष्यः पलितघ्नः कफपित्तभवाञ्जयेद्रोगान् ॥ लेह तैयार हो जाय तो उसमें जीरा, धनिया, दाल प्रसादयति च रक्तं पाण्डुत्वं कामलां जयति ।। चीनी, तेजपात, इलायचो, गजपीपल, नागरमोथा, हर, अभ्रकभस्म, लौहभस्म, सेठ, मिर्च, पीपल, आमलेका चूर्ण ८ पल, लोह भस्म ४ पल, रेणुका, हरे, बहेड़ा, आमला, तालीसपत्र, नागकेसर, | और मुलैठीका चूर्ण २ पल (१० ताले) लेकर कुटकी, मुलैठी, रास्ना, असगन्ध, और सफेद चन्दन | सबको सात दिन तक गिलोयके काथकी भावना का महीन चूर्ण ११-११ तोला मिलाकर रक्खें। । देकर तेज़ धूपमें सुखावें। For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [१४९] इसे घी और शहद में मिलाकर भोजनके आदि, (३३३३) धात्र्यादिप्रयोगः मध्य और अन्तमें सेवन करना तथा दोषानुरूप (वा. भ. । उ. स्था. अ. ३९) पथ्य पालन करना चाहिये। धात्रीकृमिघ्नासनसारचूर्ण भोजनके आदिमें सेवन करनेसे पित्तज और सतैलसर्पिर्मधुलोहरेणुः। वातज रोग, और मध्यमें सेवन करनेसे विष्टम्भ निषेवमाणस्य भवेन्नरस्य नष्ट होता है तथा भाहार विदग्ध होकर दाह नहीं तारुण्यलावण्यमविप्रणष्टम् ॥ करता। यदि इसे भोजनके अन्तमें सेवन किया - आमला, बायबिडंग, असन वृक्षका सार, जाय तो अन्नपानकृत् विकार नष्ट होते हैं। और लोह चूर्ण ( भस्म ) समान भाग लेकर सबको | एकत्र मिलाकर तैल, घी और शहदके साथ सेवन यह 'धात्रीलोह ' कष्टसाध्य शूल, अम्लपित्त | करनेसे यौवन और सौन्दर्य स्थिर रहता है। और कफपित्तज रोगांको नष्ट करने वाला, आंखेांके लिये हितकारी, पलित और पाण्डु नाशक तथा (३३३ ४) धान्याभ्रकम् रक्त शोधक है। (यो. र. । धातुशोधन.) पादांशशालिसंयुक्तमभ्रं वद्ध्वाऽथ कम्बले । (मात्रा १ माशा ।) त्रिरात्र स्थापयेन्नीरे तत्लिन्नं मर्दयेत्करैः ।। (३३३२) धात्रीलोहम् (४) कम्बलाद्गलितं सूक्ष्मं बालुकासदृशं च यत् । तद्धान्याभ्रमिति प्रोक्तमय मारणसिद्धये ।। (वं. से. । कामला; र. का. धे.; र. रा. सु.; रसे. वज्राभ्रकके चूर्णमें उससे चौथाई भाग शालि सा. स.; वृ. मा.; र. र. । पाण्डु; रसे. चि.। धान मिलाकर कम्बलमें बांधकर ३ दिन तक पानीमें स्त. ९; च. द.; यो. र.; वृ. नि. र. । कामला; भीगने दें तत्पश्चात् कम्बल को हाथ या पैरोंसे __ यो. त. । त. २५; ग. नि. । पाण्डु) मसलें । इस प्रकार अभ्रकका जो बारीक चूर्ण कम्बल धात्रीलोहरजोव्योपनिशाक्षौद्राज्यशर्कराः।। के बाहर निकलेगा उसीका नाम “धान्याभ्रक" लीद्वा निवारत्याशु कामलामुद्धतामपि ।। है । भस्म बनानेमें यही प्रयुक्त होता है। आमले का चूर्ण, लोह भस्म, सांठ, मिर्च, । (३३३५) धूम्रकेतुरस: पीपल और हल्दी का चूर्ण समान भाग लेकर सबको (र. रा. सुं. । ज्वर.) एकत्र मिलाकर रक्खें । दधात्समं सूतसमुद्रफेनं इसे शहद, घी और खांडके साथ सेवन करने । हिङ्गलगन्धं परिमर्च यामम् । से कष्टसाध्य कामला भी नष्ट हो जाती है। | नवज्वरे वल्लयुगं त्रिघत्र(मात्रा १ से १॥ माशे तक।) मार्दाम्बुनायं ज्वरधूमकेतु ॥ For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [धकारादि शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल, और इसमें से ४ रत्ती औषध अदरकके रसके साथ समुद्र फेन समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धक मिलाकर देनेसे नवीन ज्वर नष्ट होता है। की कम्जली बनावें तत्पश्चात् उसमें अन्य चीजें मिलाकर १ पहर तक घोटें। इति धकारादिरसप्रकरणम् । अथ धकारादिमिश्रप्रकणरम् (३३३६) धत्तूरबीजशुद्धिः शूलयुक्त ज्वरातिसारमें धायके फूलेके क्वाथ ( यो. र. । वृ. यो. त. । त. ४३) और सेठिके कल्कसे बनी हुई पेयामें अनारका रस मिलाकर पिलाना चाहिये । धत्तूरवीजं गोमूत्रे चतुर्यामोषितं पुनः । (३३३९) धात्रीपिण्डी कण्डितं निस्तुषं कृत्वा शुद्धं योगेषु योजयेत् ॥ ( यो. र. । नेत्र.) धतूरेके बीजेांको ४ पहर तक गोमूत्रमें भिगो- पित्ताभिष्यन्दनाशाय धात्रीपिण्डीसुखावहा । कर कूट कर निस्तुष कर लिया जाय तो वह शुद्धः। महानिम्वदलोद्भता पिण्डिका पित्तनाशिनी हो जाते हैं। आमले या महानिम्ब (बकायन) के पत्तोंको (३३३७) धत्तुरमूलयोगः पीसकर उसकी पोटली बनाकर आंखपर फेरनेसे ___ (यो. त. । त. ७५; रा. मा. । स्त्रीरो.) आंखकी पित्तज पीड़ा शान्त होती है । । (३३४०) धात्रीयोगः (रसायनः) धत्तूरमूलिका पुष्ये गृहीता कटिसंस्थिता । (ग. नि.; वृ. मा. । रसाय.) गर्भनिवारयत्येव रण्डावेश्यादियोषिताम् ॥ धात्रीचूर्णस्य कंसं स्वरसपरिगतं यदि पुष्य नक्षत्रमें धतूरेकी जड़को उखाड़कर क्षौद्रसर्पिःसमांशम् । स्त्रीको कमरमें बांध दिया जाय तो उसके साथ कृष्णा मानी सिताष्टप्रमृति सम्भोग करनेसे गर्भ नहीं रहता । ___समयुतं स्थापितं धान्यराशौ । (३३३८) धातक्यादिपेया वर्षान्ते तत्समश्नन् भवति विललितो (व. से.; यो. र. । अति.) ___ रूपवर्णप्रभावैधातकीकाथसंसिद्धा विश्वभेपजसंस्कृता। निर्व्याधिबुद्धिमेधास्मृतिवचनबलः दाडिमाम्लयुता पेया ज्वरातीसारशूलिनाम् ।। स्थैर्यसत्वैरुपेतः ॥ For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मिश्रप्रकरणम् ] आमलेके ४ सेर चूर्णको आमले ही के रसकी अनेक भावनांए देकर उसमें ४-४ सेर शहद और घी तथा ४० तोले पीपलका चूर्ण और १ सेर खांड मिलाकर चिकने बरतन में भरकर उसका सुख बन्द करके अनाजके ढेरमें दबा दें और १ वर्ष पूरा होने पर निकालें । तृतीयो भागः । इसके सेवन से रूप, वर्ण, बुद्धि, मेधा, स्मृति, वाक्शक्ति और बलादिको वृद्धि होती तथा समस्त व्याधियां नष्ट हो जाती हैं । (३३४१) धात्रीरसक्रिया (१) ( यो. र. । नेत्र. ) धात्रीरसाञ्जनक्षौद्रसर्पिभिस्तु रसक्रिया । पित्तानिलाक्षिरोगघ्नी तैमिर्यपटलापहा ॥ आमले के स्वरसमें रसौत, शहद, और घी मिलाकर उसे गाढ़ा करके आंखमें डालने से आंखों के पित्तज वातज रोग तथा तिमिर और पटल नष्ट होते हैं 1 १ द्राक्षामिति पाठान्तरम् (३३४२) धात्रोरसक्रिया (२) (वं. से. । नेत्र. ) धात्रीसैन्धवकृष्णाभिस्तुल्याभिर्मरिचं समम् । क्षौद्रयुक्तं निहन्त्याशु पटलञ्च रसक्रिया ।। आमला, सेंधा और पीपल समान भाग तथा काली मिर्च सबके बराबर लेकर सबको अधकुटा करके आठ गुने पानी में पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो उसे छानकर फिर पकावें । जब अवलेह के समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें शहद मिलाकर रक्खें । [ १५१] इसे आंख में डालनेसे पटल रोग नष्ट होता है । (३३४३) धात्र्यादिगण्डूषः (बृ. नि. र. | मसूरि.) धात्रीफलं समधुकं कथितं मधुसंयुतम् । मुखे कण्ठे व्रणे जाते गण्डूषार्थ प्रयोजयेत् ॥ यदि मसूरिकामें मुख और कण्ठमें घाव हो गये हों तो आमले और मुलैठीके काथमें शहद मिलाकर उससे कुल्ले कराने चाहियें । (३३४४.) धात्र्यादिप्रयोगः (बृ. यो. त. । त. ८३; भा. प्र. । ख. २ छर्दि . ) पिष्ट्वा धात्रीफलं लाजाञ्छर्कराश्च पलोन्मि ताम् । दत्त्वा मधुपलञ्चापि कुडवं सलिलस्य च ॥ वाससा गालितं पीतं हन्ति छर्दि त्रिदोषजम् ॥ आमला, धानकी खील और खांड सम भाग मिश्रित ५ तोले लेकर सबको पानीके साथ पीसकर २० तोले पानी में मिलावें और उसमें ५ तोले शहद डालकर कपड़े से छानलें। इस पानीको पीने से त्रिदोषज छर्दि नष्ट हो जाती है (३३४५) धान्याम्लसेक: ( वै. म. र. । पट. ७ ) नाभेरधस्ताद्धान्याम्लसेको जयति निश्चितम् । मूत्रकृच्छ्रं शरीरेषु सेकस्तेनाङ्गदाहहा ।। 1 नाभीके नीचे काञ्जीकी धार छोड़नेसे मूत्रकृच्छ्र निस्सन्देह नष्ट होता है । यदि शरीर पर काञ्जीका अवसेचन किया जाय तो अङ्गदाह शान्त है । इति धकारादिमिश्रप्रकरणम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। (नकारादि - अथ नकारादिकषायप्रकरणम् (३३४६) नलदादिकाथ: (३३४९) नवकार्षिककाथ: (ग. नि. । ज्वर.) । (र. र.; . मा.; च. द.; वं. से.; यो. र.; भा. प्र.; ग. पित्तोद्भवे नलदपर्पटकाम्बुशुण्ठी नि. । वातरक्ता.; यो. त. । त. ४१) ___ श्रीखण्डनिःकथितमेतदुशन्ति वैद्याः ॥ त्रिफलानिम्बमञ्जिष्ठावचाकटुकरोहिणी। खस, पित्तपापड़ा, सुगन्ध बाला, सांठ, और । वत्सादनीदारुनिशाकषायो नवकार्षिकः ।। सफेद चन्दनका काथ पित्तज्वरको नष्ट करता है। वातरक्तं तथा कुष्ठं पामान रक्तमण्डलम् । (३३४७) नलमूलादिकषायः कुष्ठं कपालिकाकुठं पानादेवापकर्षति ।। (ग. नि.; रा. मा. । ज्वरा.) | हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, मजीठ, नलवेतसयोर्मुलं मूर्वा च सुरदारु च । बच, कुटकी, गिलोय, और दारु हल्दी । हरेक कषायं विधिवत्कृत्वा पेयं सर्वज्वरापहम् ॥ १-१ कर्ष (१। तोला ) लेकर अधकुटा करके ___नल और बेतकी जड़, मूर्वा और देवदारु सबको ८ गुने पानी में पकावे जब चौथा भाग का काथ समस्त ज्वरोंको नष्ट करता है। पानी शेष रह जाय तो छानकर रोगीको पिलावें । (३३४८) नलादिकाथः यह "नवकार्षिक कषाय " वातरक्त, कुष्ठ, (यो. र.; वंसे. । मूत्रा.; वृ. यो.त. । त. १०१) पामा, रक्तमण्डल और कपाल कुष्ठको नष्ट करता है । नलकुशकाशेक्षुशिफाकथितं नोट-योगरत्नाकर, वृन्दमाधवादि में अन्यत्र प्रातः सुशीतलं ससितम् । इसी काथमें गिलोय के स्थान में पटोलका योग है। पिवतः प्रयाति नियतं (३३५०) नवाङ्गकषायः मूत्राघातः सवेदनः पुंसः ॥ _(भै. र.; च. द. । ज्वर.) नल, कुश, कांस और ईखकी जड़के काथको विश्वामृताब्दभूनिम्बैः पञ्चमूलीसमन्वितैः । ठण्डा करके उसमें मिश्री मिलाकर प्रातः काल | कृतः कषायो हन्त्याशु वातपित्तोद्भवं ज्वरम् ।। पिलानेसे वेदनायुक्त मूत्राघात अवश्य नष्ट हो । सेठ, गिलोय, नागरमोथा, चिरायता, शालजाता है। पर्णी, पृश्निपर्णा, केटली, कटेला और गोखरु । इनका (मिश्री काथका आठवां भाग मिलानी चाहिये ।) काथ वातपित्तज ज्वरको नष्ट करता है। For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् तृतीयो भागः। [१५३] (३३५१) नागरकायः सेठ, पीपल, बेलगिरी, बायबिडंग, दन्तीमूल, (वृ. नि. र. । हृद्रोगा. ।) | कचूर, हर्र और निसोत । सब चीजें समान भाग नागरस्य पिबेदुष्णं कषायं चाग्निवर्द्धनम् ।। लेकर पीसकर कल्क बना और उसे सबके बराबर कासश्वासानिलहरं शूलहृद्रोगनाशनम् ॥ गुड़में मिलावें। सांठका उष्ण काथ पीनेसे अग्निकी वृद्धि होती इसके सेवनसे अर्श नष्ट होती है। और खांसी, श्वास, वायु, शूल तथा हृद्रोगका नाश (मात्रा ६ माशे। अनुपान उष्ण जल।) होता है। (३३५५) नागरादिक्काथ: (१) (३३५२) नागरससकः (यो. स. । समु. ४) ( भा. प्र. । ख. २ बालरो.; यो. र.; वं. से.; वृं. नागरमलयजपर्पटघनसलिलोशीरवासककथितम्। मा. । वालरो.; वृ. यो. त. । त. १४४ ) य पिबति शीतलीकृतमस्य न पित्तज्वात्तिस्यात् ।। नागरातिविषामुस्ताबालकेन्द्रयवैः शृतम् । सांठ, सफेद चन्दन, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, | कुमारं पाययेत्प्रातः सर्वातीसारनाशनम् ।। सुगन्धबाला, खस और बासा । इनके काथको सोंठ, अतीस, नागरमोथा, सुगन्धबाला और ठण्डा करके सेवन करनेसे पित्तज्वर नष्ट होता है। इन्द्रजौ का काथ प्रातःकाल पिलाने से बालकोंका (३३५३) नागरादिकल्कः (१) हर प्रकारका अतिसार नष्ट हो जाता है । (वं. से.; . मो.; यो. र.; च. द.; ग. नि.। । (३३५६) नागरादिकाथः (२) __ शूला.; वृ. यो. त. । त. ९५ ) (वा. भ. । चि. अ. १) नागरतिलगुडकल्कं पयसा संसाध्य यः | नागरं पौष्करं मूलं गुडूची कण्टकारिका । पुमानधात् । सकासश्वासपात्तिौ वातश्लेष्मोत्तरे ज्वरे ॥ उग्रं परिणामशूलं तस्यापैति सप्तरात्रेण ॥ सोंठ, पोखरमूल, गिलोय और कटेलीका काथ सांठ, तिल और गुड़के कल्क को दूधके साथ खांसी, श्वास और पार्श्वशूल युक्त वातकफज ज्वरपकाकर सेवन करनेसे सात दिनमें भयङ्कर परिणाम को नष्ट करता है। शूल नष्ट हो जाता है। (३३५७) नागरादिकाथः (३) (३३५४) नागरादिकल्कः (२) (वं. से.; वृं. मा. । अतिसा. ) - (हा. सं. । स्था ३ अ. ११) नागरातिषामुस्तैरथवा धान्यनागरैः । नागरपिप्पलिबिल्वविडङ्गं तृष्णाशूलातिसारघ्नं रोचनं दीपनं लघुः॥ दन्ती च सत्यभया त्रिता च । सोंठ, अतीस और मोथेका अथवा धनिये कल्कमिदं सगुडं प्रतिपाने और सोंठका काथ रोचक, दीपन, लघु और तृष्णा, चार्शसां नाशनकारि नराणाम् ॥ । शूल तथा अतिसार नाशक है । १ त्रिरात्रेणेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि (३३५८) नागरादिकाथः (४) । मुनितरुवल्ककायस्तद्वत् (ग. नि. । अश्मर्य.) पटुरामठपतीवापः ॥ नागरवरुणकगोक्षुरपाषाणभेद सोंठ और सहजनेकी छालके या श्योनाक कपोतवङ्कजः काथः। (अरल) की छालके काथमें हींग और सेंधानमक गुडयावशूकमिश्रः पीतो मिलाकर निरन्तर तीन दिन तक पिलाने से शूल हन्त्यश्मरीमुग्राम् ॥ नष्ट हो जाता है। सोंठ, बरनेकी छाल, गोखरु, पखान भेद (३३६२) नागरादिकाथ: (८) (पाषाण भेद ) और ब्राह्मी के क्वाथमें जवाखार (वृ. नि. र.; वं. से. । ज्वर.) तथा गुड़ मिलाकर पीनेसे दुस्साध्य पथरी भी नष्ट नागरेन्द्रयवं मुस्तं चन्दनं कटुरोहिणी । हो जाती है। पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं कषायं तु पिबेन्नरः॥ (गुड़ १। तोला, और जवाखार ३ माषा भ्रममूर्छारुचिछर्दिपित्तश्लेष्मज्वरापहम् ।। मिलाना चाहिये ।) सोंठ, इन्द्रजौ, नागरमोथा, लाल चन्दन और (३३५९) नागरादिकाथ: (५) कुटफीके काथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलानेसे (वं. से. । अति.) भ्रम, मूर्छा, अरुचि, छर्दि, और पित्तकफज ज्वर नागरामृतभूनिम्बबिल्वामलकवत्सकैः ।। नष्ट होता है। समुस्तातिविषोशीरैर्वरातिसारहज्जलम् ॥ (३३६३) नागरादिकाथः (९) सोंठ, गिलोय, चिरायता, बेलगिरी, आमला, (वृ. यो. त. । त. १२६; यो. र. । मसू.) इन्द्रजौ, नागरमोथा, अतीस और खसका काथ नागरमुस्तगुडूचीधान्यकभार्गीद्वषैः कृतः काथः। ज्वरातिसारको नष्ट करता है। वातश्लेष्मममूरीदुरी कुरुतेऽनुपानतः सत्यम् ॥ (३३६०) नागरादिकाथ: (६) सोंठ, नागरमोथा, गिलोय, धनिया, भरंगी (वं. से. । अति.) और बासेका काथ वातकफज मसूरिका ( माता ) नागरातिविषामुस्तागुडूचीविश्ववत्सकैः ।। को शान्त करता है। कषायः पाचनः शोथज्वरातीसारवारणः॥ सोंठ, अतीस, नागरमोथा, गिलोय, बोल गोंद | (३३६४) नागरादिकाथः (१०) और इन्द्रजौका काथ शोथ ज्वर और अतिसार (वै. रह. । ज्वर.; भा. प्र. । ज्वर.) नाशक तथा पाचक है। | नागरोशीरबिल्वाब्दधान्यमोचरसाम्बुभिः । (३३६१) नागरादिकाथ: (७) कृतः काथो भवेद् ग्राही पित्तश्लेष्मज्वरापहः।। (वै. म. र. । पटल ९) सोंठ, खस, बेलगिरी, नागरमोथा, धनिया, नागरशोभाञ्जनयोः काथः मोचरस और सुगन्धवाला । इनका काथ ग्राही शूलं विनाशयेत्रिदिनात् । और पित्तकफज्वर नाशक है । For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१५५] (३३६५) नागरादिकाथ: (११) इलायची। इनका काथ भयङ्कर सन्निपात ज्वरको भी (यो. र. । शूला.) | नष्ट कर देता है। नागरैरण्डयोः काय काय इन्द्रयवस्य वा । (३३६८) नागरादिक्काथः (१४) हिसौवचेलोपेतो वातशूलनिवारणः॥ १. नि. र.; वृं. मा.; यो. र.; च. द. । ज्वरा.; सोंठ और अरण्ड मूलके या इन्द्रजोके काथ! वं. से. । अति.; धन्व. । ज्वर; भा. प्र. । में हींग और सञ्चल (कालानमक ) मिलाकर । ख. २ ज्वरा.; यो. चिं. । काथा.; वृ. यो. पीनेसे वातज शूल नष्ट होता है। त. । त. ६५) (२३६६) नागरादिकाथः (१२) (ग. नि. । ज्वर.) नागरातिविषामुस्ताभूनिम्बामृतवत्सकैः । सनागरोशीरघनः सधान्यः सर्वज्वरहरः काथः सर्वातीसारनाशनः ॥ सपिप्पलीकश्च सचन्दनश्च । सोंठ, अतीस, नागरमोथा, चिरायता, गिलोय तृतीयकं हन्ति कृतः कषायः | और इन्द्रजौका काथ सर्व प्रकारके ज्वर और अतिसमाक्षिकश्चापि सशर्कराश्च ।। सारेको नष्ट करता है। साठ, खस, नागरमाथा, धानया, पापल आर (३३६९) नागरादिगण्डूष: लाल चन्दन । इनके काथमें शहद और खांड (भा. प्र. खं. २ । दन्त.) मिलाकर पिलानेसे तृतीयक ( तिजारी ) ज्वर नष्ट | शीतादे हृतरक्ते तु तोये नागरसर्षपान् । होता है। (३३६७) नागरादिकाथः (१३) निष्काथ्य त्रिफलाश्चापि कुर्याद्गण्डूषधारणम्॥ (वृ. नि. र. । सन्नि.) ___ शीताद नामक दन्त-रोगमें मसूढोंसे रक्त नागरं धान्यकं भार्गी पद्मकं रक्तचन्दनम् । निकलवानेके पश्चात् सेठ और सरसोंके यां पटोलपिचुमन्दश्च त्रिफलामधुकं बला ॥ त्रिफलाके काथके गण्डूप धारण करने चाहिये। शर्करा कटुका मुस्ता गजाहा व्याधिघातकः । (३३७०) नागरादिपाचनकषायः किराततिक्तममृता दशमूली निदिग्धिका ॥ ( वृ. नि. र.; वृं. मा. । ज्वर.) योगराजो निहन्त्येषः सन्निपातज्वरापहः । नागरं देवकाष्ठश्च धान्यकं वृहतीद्वयम् । सनिपातं समुत्थानं मृत्युमप्यागतं जयेत् ॥ सोंठ, धनिया, भरंगी, पनाक, लाल चन्दन, | दद्यात्पाचनकं पूर्व ज्वरितानां ज्वरापहम् ॥ पटोल, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, मुलैठी, ज्वरके आरम्भमें सोंठ, देवदारु, धनिया खरैटी, खांड, कुटकी, नागरमोथा, गजपीपल, कटेली और कटेला ( बड़ी कटेली ) का काथ देनेसे अमलतास, चिरायता, गिलोय, दशमूल, और । दोषोंका पाचन होकर ज्वर उतर जाता है। For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि - (३३७१) नागरादिपाचनकाय: कटेली, त्रायमाणा, गिलोय, सारिवा, खरैटी (हा. सं. । स्था. ३ अ. २) और मसूरकी दालका काथ वातपित्त-ञ्चरको नष्ट नागरं भद्रतुस्ता वा गुडूच्यामलकाहयम् । करता है। पाठामृणालोदीच्याश्च कायः पित्तज्वरे कफे॥ पाचनो दीपनीयः स्याद्रक्तशोषनिवारणः॥ । (३३७५) निदिग्धिकादिकायः (१) सोंठ, नागरमोथा, गिलोय, आमला, पाठा, (बृ. यो. त.। त ५९; भै. र.; वं. मा.; धन्वं.; कमलनाल और सुगन्धबाला; इनका काथ पित्त र. र.; ग. नि.; च. द. । ज्वरा.; शा. ध.। कफज ज्वर, और रक्तशोषको नष्ट और अग्निको दीप्त ___म. अ. २; हा. सं. । स्था., ३ अ. २; करता तथा दोषोंको पचाता है। भा. प्र. । ख. २ ज्व.; वै. र. । ज्व. ) (३३७२) नागराधाश्च्योतनम् निदिग्धिकानागरकामतानां (वा. भ. । उ. स्था. अ. १६) काथं पिबेन्मिश्रितपिप्पलीकम् । नागरत्रिफलानिम्बवासारोधरसं कफे। जीर्णज्वरारोचककासशूलकोष्णमाश्च्योतनं मित्रैर्भेषजैः सान्निपातिके ॥ श्वासाग्निमान्यादितपीनसेषु ॥ कफज नेत्राभिष्यन्द रोगमें सेठ, त्रिफला, कटेली, सेठ, और गिलोयके काथमें पीपलका नीमके पत्ते, बासा और लोधके मन्दोष्ण काथसे चूर्ण मिलाकर पीनेसे जीर्णज्वर, अरुचि, खांसी, और सन्निपातज अभिष्यन्दमें तीनों दोषांको नष्ट शूल, श्वास, अग्निमांद्य, अर्दित और पीनसका नाश करनेवाली ओषधियां मिलाकर उनके काथसे आश्च्यो- होता है। तन करना चाहिये । (काथकी बूंदें आंखोंमें। (३३७६) निदग्धिकादिकाय: (२) टपकानी चाहियें ।) (ग. नि. । शूला.) (३३७३) नारिकेलपुष्पादिकाय: निदिग्धिकायुगलपुष्करमातुलुङ्ग (वै. म. र. । पट. १३) बिल्वामूलसहितोपलभेदयुक्तम् । तरुणैर्नारिकेलस्य पुष्पैरौदुम्बरैः फलैः । कायं च गोक्षुरयुतं सकलिङ्गमूलं अब्दैश्च कल्पितः काथो गर्भद्रावं निवर्तयेत् ॥ सेवेत्तया यवजहिङ्गमयं प्रपकम् ॥ .. नारयलके नवीन पुष्प और गूलरके फल तथा नागरमोथेका काथ पीनेसे गर्भस्राव रुक जाता है। छोटी कटेली, बड़ी कटेली, पोखरमूल, बिजौर (३३७४) निदिग्धिकादिकषायः की जड़, बेलकी जड़की ताजी छाल, पखानबेद (ग. नि. । ज्वर.) (पाषाण भेद ), गोखरु, और कुड़ेकी जड़की छाल; निदिग्धकात्रायमाणागुडूचीसारिवाबला ।। इनके काथमें जवाखार और हींग मिलाकर पीनेसे मसूरविदलैर्युक्तो वातपित्तज्वरे हितः । । शूल नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१५७] (३३७७) निदिग्धिकादिकाथः (३) (३३८०) निदिग्धिकादिस्वरस: (ग. नि.; रा. मा. । ज्वरा.) (वं. से. । मूत्रकृच्छ्) निदिग्धिकावारिददेवदारु निदिग्धिकायाः स्वरसं कुडवं मधुसंयुतम् । मृतं जलं हन्ति रुजो ज्वरोत्थाः। मुत्रदोषहरं पीत्वा नरः सम्पद्यते सुखम् ।। मृणालमुस्तासहितं कदाचि __ कटेलीके २० तोले स्वरसमें शहद मिलाकर तदेव इन्ति कथितं ज्वरात्तिम् ॥ पीनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट होता है। कटेली, नागरमोथा और देवदारुका काथ (व्यवहारिक मात्रा ४-५ तोले । ) या कमलनाल और नागरमोथेका काथ ज्वरको (३३८१) निदिग्धिकास्वरसप्रयोगः नष्ट करता है। (वं. से.; यो. र. । मूत्राघाता.) निदिग्धिकायाः स्वरसं पिबेदा तक्रसंयुतम् । (३३७८) निदिग्धिकादिकाथः (४) जले कुङ्कुमकल्कं वा सक्षौद्रमुषितं निशि ॥ (ग. नि. । ज्वरा.) मृतशीतपयोमाशी चन्दनं तण्डुलाम्बुना। निदिग्धिकामृताशुण्ठीपुष्कराहैः कृतं पिबेत् । पिबेत्सशर्करां श्रेष्ठामुष्णवाते सशोणिते ॥ कायं कासारुचिश्वासकफवातज्वरापहम् ॥ । कटेलीके स्वरसमें समान भाग तक मिलाकर . कटेली, गिलोय, सांठ और पोखरमूलका काथ पियें अथवा रातको केसर पानीके साथ पीसकर खांसी, अरुचि, श्वास और कफवातज ज्वरको नष्ट शहदमें मिलाकर रखदें और उसे प्रातः काल चारें करता है। या सफेद चन्दन को तण्डुलोदक ( चावलेके (३३७९)निदिग्धिकादिप्रयोगः धोवन ) के साथ पियें अथवा त्रिफला और खांड समान भाग मिलाकर सेवन करें । यह सब प्रयोग (ग. नि. । स्वरभङ्ग.) रक्तयुक्त उष्णवात (सोज़ाक ) को नष्ट करते हैं। निदिग्धकापणवालबिल्व (पथ्य-गरम करके ठण्डा किया हुवा दूध कल्कं च लिखान्मधुना समेतम् । और भात) फलत्रिकत्र्यूषणयावशूक (३३८२) निम्बस्वरसपानम् चूर्णश लियात्स्वरभेदहन्त ॥ (यो. चि. । मिश्र.) कटेली, सोंठ, मिर्च, पीपल और बेलगिरी को रसोनिम्बस्य मञ्जर्याः पीतश्चैत्रे हितावहः । पानीके साथ पत्थर पर पीसकर शहदमें मिलाकर | हन्ति रक्तविकारांश्च वातपित्तं कर्फ तथा ॥ चाटनेसे या हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल चैतके महीनेमें नीमके फूलोंका स्वरस पीनेसे और जवाखारका चूर्ण शहदके साथ चाटने से वातज, पित्तज और कफज रक्तविकार नष्ट स्वरभङ्ग नष्ट होता है। होते हैं। For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१५८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि (३३८३) निम्बस्वरसप्रयोग: कषायं पाययेदाशु वातश्लेष्मज्वरापहम् ॥ (वं. से. । कुष्ठ.) पर्वभेदशिरःशूलं कासारोचकपीडितम् ।। निम्बस्य स्वरसं वापि सेव्यमानो यथावलम् । नीम, गिलोय, सांठ, देवदारु, कायफल, जीर्णे घृतानं भुञ्जीत स्वल्पयूषोदकेन च ॥ कुटकी और बचका काथ वातकफज्वर, पर्वभेद, अपि क्षीणशरीरोऽपि दिव्यरूपीभवेन्नरः॥ शिरशूल, खांसी और अरुचिको नष्ट करता है । बलोचित मात्रानुसार नीमका स्वरस पीकर उसके पचने पर थोड़ेसे यूषके साथ घृतमिश्रित (३३८७) निम्बादिकाथ: (३) भात खानेसे कुष्ठ नष्ट होकर क्षीण मनुष्यका शरीर (वृ. यो. त. । त. १२६; च. द.; ग. नि.; भी दिव्यरूप-युक्त हो जाता है। वं. से.; भा. प्र.; यो. र.; . मा.; र. र.; वृ. (३३८४) निम्बादिकल्क: नि. र. । मसू.) (यो. र. । कुष्ट.) निम्बः पर्पटकः पाठा पटोल चन्दनद्वयम् । निम्बपत्रशतं पिष्ट्वा निम्बामलकमेव च । विडङ्गबाकुचीकल्कं पिबेदाकुष्ठनाशनम् ॥ वासा दुरालभा धात्री सेव्यं कटुकरोहिणी। एतेषां कथितं शीतं सितया मधुरीकृतम् । नीमके १०० पत्तोंका कल्क प्रतिदिन सेवन करने या नीमके पत्ते और आमला अथवा बाय मसूरिकां पित्तकृतां हन्ति रक्तोत्तरामपि ॥ बिडंग और बाबचीका कल्क सेवन करनेसे कुष्ठ नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, पाठा, पटोलपत्र, नष्ट हो जाता है। लालचन्दन, सफेद चन्दन, बासा, धमासा, आमला, (मात्रा--आमला इत्यादि हरेक ६ माशे) खस, और, कुटकी । इनके काथको ठण्डा करके (३३८५) निम्बादिकाथ: (१) मिश्रीसे मीठा करके पीनेसे पित्त तथा रक्त प्रधान (वं. से. । मरि.) मगरिका नष्ट हो जाती है। निम्नवर्वरकाशोकं बिम्बीवेतसबल्कलम् । (३३८८) निम्बादिकाथ: (४) शृतशीतं प्रयोक्तव्यम् स्रावभक्षालने सदा ॥ (ग. नि. । ज्वर.) - यदि मसूरिका में पीप पड़कर बहने लगे तो उसे नीम, बबूल, अशोक, कन्दूरी और बेतकी छालके : निम्बशुण्ठीकणामूलपथ्याः कटुकरोहिणी । ठण्डे काथसे धोना चाहिये। व्याधिघातसमं कायः पीतः श्लेष्मज्वरविनाशनः।। (३३८६) निम्बादिकाथ: (२) नीमकी छाल, सांठ, पीपलामूल, हर्र, कुटकी (वृ. नि. र.; वं. से. । ज्वर.) और अमलतासका काथ कफज ज्वरको नष्ट निम्बामृताविश्वदारुकट्फलं कटुका वचा। करता है। - ग. नि. में इसे 'निम्बद्वादशक' नामसे लिखा है। प्राक्षेति पाठान्तरम् । २ उशीरमिति पायान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कषायप्रकरणम् ] (३३८९) निम्बादिकाथ: (५) ( ग. नि. । ज्वर. ) www.kobatirth.org तृतीयो भागः । निम्बनागर पिप्पल्यो देवदारु किरातकः । गुडूची पौष्करं मूलं हितः काथः कफज्वरे ॥ नीमकी छाल, सोंठ, पीपल, देवदारु, चिरायता, गिलोय और पोखरमूलका काथ कफजज्वरको नष्ट करता है । (३३९०) निम्बादिकाथः (६) (वं. से.; वृ. नि. र.; भै. र. । ज्वरा . ) निम्बविश्वामृताभीरु शठी 'भूनिम्बपौष्करम् । पिप्पलीटहतीचेति काथो हन्ति कफज्वरम् ॥ नीमको छाल, सांठ, गिलोय, शतावर, कचूर, चिरायता, पोखरमूल, पीपल और कटेली; इनका काथ कफ ज्वरको नष्ट करता है । (३३९१) निम्बादिकाथः (७) (ग. नि. । विस्फो. ) निम्बामृताब्दकटुकानृषधन्वयासभूनिम्बपर्पटपटोलफलत्रयाणाम् । काथो नृणामिह भवेदगतेषु पार्क विस्फोटकेष्वतिहितः कथितो भिषग्भिः ॥ नीमकी छाल, गिलोय, नागरमोथा, कुटकी, बासा, धमासा, चिरायता, पित्तपापड़ा, पटोल, हर्र, बहेड़ा और आमला । इनका काथ अपक विस्फोकमें अत्यन्त हितकारी है । १ यासेति पाठभेदः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १५९ ] (३३९२) निम्बादिकाथः (८) ( वृ. नि. र. यो. र.; । विस्फो. ) निम्बत्वकखादिरः सारो गुडूची शक्रजोऽथवा । काथो माक्षिकसंयुक्तो विस्फोटादिज्वरापहः || नीम की छाल, खदिरसार, गिलोय और इन्द्रजौ के काथमें शहद मिलाकर पीने से विस्फोटकज्वर नष्ट होता है । (३३९३) निम्बादिकाथ: ( ९ ) ( यो त 1 त २०; वृ. यो त । त. ५९; ग. नि. । ज्वर. ) निम्बाब्ददारुकटुकात्रिफलाहरिद्रा क्षुद्रापटोलदलनिः कथितः कषायः । पेयस्त्रिदोषजनितज्वरनाशनाय काथः समं मगधया दशमूलजो वा ॥ नीमकी छाल, नागरमोथा, देवदारु, कुटकी, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी, कटेली और पटोलपत्र ET का सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है । दशमूलके काथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे भी सन्निपात वर नष्ट हो जाता है । (३३९४) निम्बादिप्रयोगः (१) ( यो. र. 1 प्रदर. ) मधैर्निम्बगुडूच्योश्च रोहितस्याथ वा रसम् । कफमदरनाशाय पिबेद्वा मलयूरसम् ॥ नीम और गिलोय का अथवा रोहितक ( रुहेड़े ) या कठूमरका रस मधके साथ पीने से कफज प्रदर नष्ट होता है । ( मात्रा - रस २ से ४ तोले तक । मद्य समान भाग ) For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१६०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [ नकारादि (३३९५) निम्बादिप्रयोगः (२) कण्डूदुम्बरपुण्डरीकालसकाः कुष्ठामयाः पापजाः। (वं. से. । स्त्रीरोगा.) . नश्यन्ति द्रुतमेव दारुणतराः प्रोद्यमानाऽनलः । निम्बवल्कलकल्कस्तु सर्पिषा काञ्जिकेन तु । ज्वालादग्धमतप्तकाश्चनसमान्यङ्गानि राजन्ति च पीतः प्रशान्तयेन्नूनमचिरात्मृतिकागदम् ॥ काथोऽयं मुनिभिर्दयाम निपुणैरुक्तो नृणां हेतवे।। नीमकी छालको पानीके साथ पीसकर घीमें नीमकी छाल, अरण्डमूल, धमासा सुगन्धवाला, मिलाकर काञ्जीके साथ पीनेसे सूतिका रोग बच, मूर्वा, हल्दी, दारुहल्दी, त्रायमाणा, हरे, (प्रसूत ) शीघ्र ही अवश्य शान्त हो जाता है । बहेड़ा, आमला, पटोल, चीता, बकायनकी छाल, ( मात्रा-छाल आधा तोला, घी २ तोले ।) गिलोय, भरंगी, काकोदुम्बरिका ( कठूमर ) की (३३९६) निम्बादिप्रयोगः (३) छाल, करञ्ज बीज, खैरसार, शाखोटक (सिहोड़ा) (वं. से. । छर्दि.) की छाल, सतौना ( सप्तच्छद ) की छाल, कटेली, निम्बाम्रपल्लवगवेधुकधान्यमेव कटेला, सिरसकी छाल, बेत, पीपल, चिरायता, हीवेरवारि मधुना पिवतोऽल्पमल्पम् । इन्द्रजौ, पवांड़के बीज, बाबची, कुशकी जड़, गजछर्दिप्रयाति शमनं त्रिसुगन्धियुक्ता पीपल, नल, पाठा, पित्तपापड़ा, इन्द्रायण, बासा, लीढा निहन्ति मधुना सदुरालभा वा॥ दन्ती, निसोत, लालचन्दन, मजीठ, कूठ, जवासा, नीम और आमके पत्ते, नागबला ( गंगेरन ), तेजपात, कुटकी अमलतास, और पीपलामूल । धनिया और सुगन्ध बालाके काथमें शहद डाल सब चीजें समान भाग लेकर अधकुटा करके रक्खें । कर थोड़ा थोड़ा पीनेसे या दालचीनी, इलायची, तेजपात और धमासेका चूर्ण शहदमें मिलाकर इनमें से नित्य प्रति २ तोले लेकर ३२ चाटने से छर्दि नष्ट होती है । तोले गोमूत्र में पकावें और ८ तोले शेष रहने (३३९७) निम्बादिमहाकषायः पर छान कर पियें। (वं. से. । कुष्ठ.) इसके सेवनसे खुजली, उदम्बर कुष्ठ, पुण्डनिम्बरण्डदरालभार्भकवचामहरिद्राद्वयम। रीक कुष्ट, अलसक ( खारवा ) आदि समस्त त्रायन्तीत्रिफलापटोलदहनद्रेकामृताभार्जिभिः॥ कुष्ठ शीघ्र ही नष्ट होकर देह तप्त काश्चनके समान काकोदुम्बरिकाकरञ्जखदिरैःशाखोटसप्तच्छदैः। शुद्ध हो जाती है । व्याघीसिंहिशिरीषवेतसकणाभूनिम्बशक्राहयैः॥ (३३९८) निम्बुरसादिप्रयोग: मपुन्नाटकबाकुचीकुशजटामातङ्गकृष्णानलैः। (यो. र. । विशू.) पाठापर्पटकेन्द्रवारुणीषादन्तीत्रिच्चन्दनैः॥ निम्बूरसश्चिश्चिणिकासमेतो मञ्जिष्ठाऽऽभययासवासकटुकाराजद्रमग्रन्थिकैः। विचिकाशोषहरः प्रदिष्ट । तुल्यांशैः सुरभीजलेन पिबतां सिद्धं कषायं दुग्धेन पीतो यदि टङ्कणोऽसौ नृणाम् ।। प्रशामयेद्वै वमनं निरूध्यात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायमकरणम् ] हतीयो भागः। [ १६१] नीबूके रसमें तिन्तडीक पीसकर पिलानेसे | पीतो निहन्ति कफमारुतकोपजातं विचिका की तृषा शान्त होती है । तथा मूत्यामयं सकलमेव सुदुस्तरश्च ॥ सुहागेकी खील दूधके साथ देनेसे पिपासा और | संभाल, ल्हसन और सोंठ के मन्दाष्ण काथबमन रुक जाती है। में पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलानेसे कफवातज (३३९९) निर्गुण्डीस्वरसप्रयोगः कष्टसाध्य सूतिका रोग (प्रसूत) नष्ट होता है । (4. से. । स्नायु.) (३४०२) निशादि कायः मन्य सर्पिरल्या पीत्वा निर्गुण्डीस्वरसं त्र्यहम् ।। ( वृ. नि. र. । मसुरिका.) पिवेत्स्नायुफमा इन्त्यवश्यं न संशयः॥ प्रथम ३ दिन तक गायका घृत पीने के निशाद्वयोशीरशिरीषलुस्तैः परमात् ३ दिन तक संभालुका रस पीनेसे कष्ट __ सलोध्रभद्रश्रियनागकेसरैः। साध्य स्नायुक भी अवश्य नष्ट हो जाता है। पटोलमूलारुणतन्दुलीयकैः पिद्धरिदामलकल्कसंयुतम् ॥ (३४००) निर्गुण्डयादिकषाय: मसूरिविस्फोटविसर्पशान्तये (ग. नि. । कृमि.) निर्गुडिशिबुयुतकफट्लजः कषायः । तथा सरोमान्त्यवमिज्वरापहः॥ हल्दी, दारुहल्दी, खस, सिरसकी छाल, कृष्णाकृमिघ्रफलकल्कयुतः प्रपीतः।। कायात कृमीनपहरेत् क्रिमिजांश्च रोगान । नागरमोथा, लोध, सफेदचन्दन, नागकेसर, पटोलफायः क्रिमिनसुरसाजेकजोऽथ पीतः ॥ की जड़, अतीस और चौलाई के काथमें हल्दी तथा आमलेका कल्क मिलाकर पिलानेसे मसूरिका, ___ संभाल, सहजनेकी छाल, और कायफल के कायमें पीपल, वायविडंग तथा मैनफलका कल्क विस्फोटक, विसर्प और वमन तथा ज्वर युक्त रोमान्तिका नष्ट होती है । मिलाकर पीनेसे शरीरसे कृमि निकल कर कृमिजन्य रोग नष्ट हो जाते हैं। (३४०३) नीरदादिकाथ: वायविडंग, बावई ( छोटी तुलसी ), और (वृ. नि. र. । ज्वर.) तुलसी का काम भी कृमिजन्य रोगोंको नष्ट नीरदविश्वदुरालभावासा साधितमम्मु हि पाचनमेष । (३४०१) निर्गुण्मयादिकाय: पेयमिदं ज्वर एव कफाख्ये (यो. र. । सूतिका; वृ. यो. त. । त. १४२; श्वासकासघनशूलहरन । बो. त. । त. ७५ ) नागरमोथा, सोंठ, धमासा और बासा। इनका संपोषितो दलितया कणया कबोष्णो काथ पाचन तथा कफजज्वर, श्वास, खांसी और मिमिकामशुमनागरजः कषायः। शूल नाशक है। For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि (३४०४) नीलिनीमूलकल्कः । नीलकमल, अर्जुनकी छाल, इन्द्रजौ, वध, (ग. नि; रा. मा. । सर्पविष.) इमलीकी छाल, आमला, और नीमके पत्तों के तन्दुलजलेन पिष्ट नीलिन्या मलमाशु नाशयति। काथमें खांड मिलाकर पीनेसे पित्तप्रमेह नष्ट पानेन मण्डलिविषं यदि वा लज्जावतीमूलम् ।। । नीलिनी ( नीलवृक्ष ) या लज्जालकी जडको (३४०७) नीलोत्पलादिकाथः (२) तण्डुलोदक ( चावलोंके धोवन ) के साथ पीसकर (हा. सं. । स्था ३ अ. ३१) पीनेसे मण्डली सर्पका विष तुरन्त नष्ट हो नीलोत्पलमुशीरं च पथ्यामलकमुस्तकम् । नाता है। पिबेत्पित्तप्रमेहातः काथं मधुविमिश्रितम् ।। (३४०५) नीलोत्पलादिकषायः नीलकमल, खस, हरे, आमला और नागर(वृ. नि. र.; वं. से.; ग. नि. । ज्वर.) मोथेके काथमें शहद मिलाकर पीनेसे पित्तप्रमेह नष्ट होता है। नीलोत्पलमुशीराणि पद्मकामलकानि च । (३४०८) नीलोत्पलादिहिमः काश्मीरमधुकद्राक्षामधूकानि परूषकान् ॥ | ( वृ. नि. र. । ज्वर; शा. सं. । म. ख. अ. ४) पिवेच्छीतं कषायं च वातपित्तज्वरापहम् ।। नीलोत्पलं बला द्राक्षा मधुकं मधूकं तथा । सम्पलापं च सम्मोहं शमयेत्पैत्तिकं ज्वरम् ॥ उशीरं पद्मकं चैव काश्मरी च परूषकम् ।। नीलकमल, खस, पाक, आमला, खम्भारोके । एतच्छीतकषायश्च वातपित्तज्वरं हरेत् । फल, मुलैठी, द्राक्षा ( मुनक्का), महुवा और फालसे विमलापभ्रमच्छर्दीमोहतृष्णानिवारकः॥ के फल समान भाग मिश्रित २ तोले लेकर ___नीलकमल, खरैटी, मुनक्का (दाख ), मुलैठी, रातको १२ तोले पानी में मिट्टी के बरतनमें महुवा, खस, पाक, खम्भारी और फालसे के फल भिगोकर रख दें और प्रातःकाल मल छानकर समान भाग मिश्रित २ तोले लेकर रातको १२ रोगीको पिलावें। तोले पानीमें भिगो दें और प्रातःकाल मल छानयह कषाय वातपित्तज तथा पित्तज ज्वर, कर रोगीको पिलावें। प्रलाप और मोहको नष्ट करता है। यह कषाय वातपित्तज्वर, प्रलाप, भ्रम, छर्दि, (३४०६) नीलोत्पलादिक्वाथः (१) | मूर्छा और तृष्णाको नष्ट करता है। ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१) (३४०९) न्यग्रोधादिगणः नीलोत्पलार्जुनकलिङ्धवाम्लिकानाम् । __(वा. भ. । सू. अ. ३५; सु. सं. । सूत्र. धात्रीफलानि पिचुमन्ददलानि तोये ॥ अ. ३८) निकाध्य शर्करयुतोमनुजस्य पानात् । न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षमधूफकपीतनककुभाम्रपित्तप्रमेहशमनाय वदन्ति धीराः॥ कोशाम्रचोरकपत्रजम्बूद्वयमियालमधुकरोहिणी For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [१६३] बञ्जुलकदम्बवदरीतिन्दुकीसल्लकीरोधसावररो- | मुलैठी, कायफल, जलवेत, कदम, बेरी, तिन्दुक (तेंदु ), सल्लकी, लोध, सावरलोघ, भिलावा, ढाक, और तुन वृक्ष । इनके समूहको न्यग्रोधादि गण कहते हैं । भल्लातकपलाशानन्दीदृक्षश्चेति । न्यग्रोधादिर्गणो ण्यः संग्राही भगसाधकः । रक्तपित्तहरो दाहमेदोनो योनिदोषहृत् ॥ बड़, गूलर, पीपल वृक्ष, पिलखन, महुवा, अम्बाड़ा, अर्जुन, आम, बनआम, चोरकपत्र, दो प्रकारके जामनवृक्ष, प्रियाल ( चिरौंजीका वृक्ष ), न्यग्रोधादि गण ब्रणनाशक, संग्राही, मन सन्धानकं, रक्तपित्त नाशक, दाह और मेदको नष्ट करने वाला तथा योनिशोधक है । इति नकारादिकषायप्रकरणम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ नकारादिचूर्णप्रकरणम् (३४१०) नवक्षारकं चूर्णम् ( ग. नि. । परिशि. चूर्णा . ) सुवरीटकूणव्योषसामुद्रं सैन्धवं विडम् । काचं सौवर्चलं चव्यं क्षारश्चेक्षुरकोद्भवः ॥ एतानि समभागानि चूर्णीकृत्य प्रयोजयेत् । रक्तवातारुचिप्लीहोदररोगापनुत्तये ॥ फटकी की खील, सुहागेकी खील, त्रिकुटा, समुद्र लवण, सैंधा नमक, विड नमक, कचलौना ( काचलवण ), सञ्चल ( काला नमक ), चव्यू और ताल मखाने के पौदेका क्षार समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण वातरक्त, अरुचि और प्लीहा (तिल्ली ) को नष्ट करता है । (३४११) नवसादरप्रयोगः ( र. का. धे. 1 अ. २२ ) चूर्णस्य पञ्च भागास्तु हण्डिकायां विनिक्षिपेत्। तन्मध्ये नवसारस्य भागैकं दापयेत्सतः || चूर्णस्य पञ्च भागांश्चोपरि तस्य पुनः क्षिपेत् । विमुद्याधः कृते छिद्रे तदधस्थितभाजने ॥ मृत्तिका वस्त्रलिप्तेऽस्मिन्छुष्के गर्ने निधापयेत् । वहिं दद्यात्तदुपरि यामपोडशमानतः ।। शीतं तद्भस्म गृहणीयादधः पात्रे द्रुतं द्रवम् । भृष्टहिङ्गुत्र्यूषणयुतं माषयुग्मप्रमाणतः ॥ सर्वगुल्मोदरध्वंसि वह्निमान्धविनाशनम् ॥ | ( मात्रा --- १ माशा । अनुपान उष्णजल ) नोट - इस प्रयोगमें त्रिकुटा और चीते का भी क्षार ही डालना चाहिये, तभी ९ क्षार हो सकते हैं । एक हाण्डी की तली में एक छोटासा छिद्र करें और फिर उस पर ३-४ कपड़ोटी ( कपड़मिट्टी ) करके उसमें ५ भाग चूना बिछाकर उसके ऊपर भाग नौसादर रक्खें और फिर उसके ऊपर ५ भाग चूना और बिछा दें और हण्डीका For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१६४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि .या जायंगी। जायगा। मुख बन्द करके उसपर भी ३-४ कपड़ मिट्टी | तद्भस्मलेपिताः सर्वे धातवस्तु सटङ्कणाः । कर दें । तदनन्तर एक ऐसा गढ़ा खुदवावें कि जो | वह्नितापाद् द्रताः स्युश्च तेऽपि गुल्मादिनाशनाः नीचे से तंग और ऊपरसे चौड़ा हो; इस गढ़े में नीचे एक पात्र रखकर उसके ऊपर हाण्डी रख दें। घृतकुमारी, रसौत, हल्दी, कबीला, खपरिया, हण्डीका गला गढ़ेके किनारे के लगभग बराबर यवक्षार, सज्जीखार, सुहागा, सोरा, फटकी, और मा नाना चाहिये । अब इस हाण्डीके ऊपर १६ पांचों नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और पहर तक अग्नि जलावें तत्पश्चात् हाण्डी के स्वांग उसमें उससे छ गुना मनुष्य, हाथी, घोड़ा, गधा, पीतल होने पर उसके भीतरसे नवसादरकी भस्म ऊंट और सुवरका मूत्र ( हरेकका चूर्णके बराबर तथा गढ़े वाले पात्रसे द्रव को निकालकर सुर अर्थात् सबका मिलाकर चूर्णसे छ: गुना ) तथा क्षित रक्खें। चूर्ण के बराबर गुड़ और काञ्जी मिलाकर मिट्टी के दृढ़ पात्रमें भरकर उसका मुख बन्द करके भूमिमें इस भस्ममें भुना हुवा हीग और साठ, मिर्च दबा दें और एक वर्ष पश्चात् निकालें । इतने तथा पीपल का समान भाग मिश्रित चूर्ण इसके | समय में उपरोक्त समस्त चीजें द्रव हो कर एकबराबर मिलाकर २ माशे की मात्रानुसार सेवन | करनेसे गुल्म और अग्निमांद्य का नाश होता है। (नोट-सैल भी ५ से १० बूंद तक पानी में इस रसमें दिन भर नवसादर को घोटें और | फिर उसे सम्पुट में बन्द करके रात्रिको गजपुट में डालकर पीने से यही लाभ पहुचायेगा)। | फूंक दें। इसी प्रकार ४९ पुट दें और फिर उस (३४१२) नवसारभस्म नवसादर भस्मको पीसकर सुरक्षित रखें । (र. का. धे. । अ. २२) ___यह भस्म हर प्रकारके गुल्म और अन्य कन्यारसाजननिशाकम्पिल्लानि च खर्परी। समस्त उदर रोगोंको नष्ट करती है । मात्रा २ भारअयं सोरका स्फटिका पटुपत्रकम् ॥ रत्ती। पतेभ्यः पटगुण मूत्रमेतेषां च ततः क्षिपेत् । नृगजाश्वखरोष्ट्राणां शूकरस्य पुनस्तथा ॥ इस भस्म में समान भाग सुहागा मिलाकर गुहस्य काजितु शिप्त्वा मुद्रितभाजने। पानीके साथ पीसकर उसका लेप करके अग्नि में वर्ष स्थापयेद गर्ने तेन सम्पर्दयेदहदम ॥ तपाने से समस्त धातुर्वे द्रुत (पतली) हो जाती नवसार दिवा रात्रौ दाहयेत्कृतमुद्रिकम् । | हैं और वह भी गुल्मादिको नष्ट करती हैं। एवं संमर्दन दार जनपश्चाशदेव तु॥ सहस्म नवसारस्य रक्तिकाद्वितयं मतम् । नवायसचूर्णम् 'सर्वमुल्मोदरध्वंसी सबेरोगान्विनाशयेत् ।। रसप्रकरणमें देखिये। For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्णपकरणम् ] तृतीयो भागः। [१५] - (३४१३) नागकेशरयोगः (१) । (३४१६) नागवलाचूर्णम् (यो. त. । त. ७५; ग. नि. । वन्ध्या; (,. मा.; च. द. । द्रो.) रा. मा. । स्त्रीरा.) मूलं नागबलायास्तु चूणे दुग्धेन पाययेत् । गोघृतेन सह नागकेसरं हृद्रोगकासश्वासघ्नं ककुभस्य च वल्कलम् ॥ श्लक्ष्णचूर्णितमृतौ नितम्बिनी। रसायनं परं बल्यं वातजिन्मासयोजितम् । गव्यदुग्धनिरता पिवेधदा संवत्सरप्रयोगेण जीवेद्वर्षेशतं ध्रुवम् ॥ सा तदा नियतमेव वीरम् ॥ नागबला (गंगेरन ) की जड़ अथवा अर्जुन यदि स्त्री ऋतुकाल में केवल गायके दूध पर की छालका चूर्ण दूधके साथ सेवन करनेसे हृद्रोग ही रहे और गायके घीके साथ नागकेसरके महीन खांसी और श्वास नष्ट होता है। चूर्णको सेवन करे तो वह अवश्य वीर पुत्रको जन्म यह योग रसायन और अत्यन्त बल वर्द्धक है; यदि एक मास तक सेवन किया जाय तो (३४१४) नागकेशरयोगः (२) समस्त वातज रोग नष्ट हो जाते हैं और एक वर्ष (वृ. नि. र.; वं. से. । स्त्री; यो. र.; पर्यन्त सेवन किया जाय तो अवश्य ही १०० भा. प्र. । सोमरोग) वर्षकी आयु प्राप्त होती है। तक्रोदनाहाररता सम्पिबेनागकेशरम् । (३४१७) नागबलायोगः त्र्यहन्तक्रेण सम्पिष्टं श्वेतप्रदरनाशनम् ।। (ग. नि.; रा. मा. । राजय.) यदि तीन दिन तक नित्य प्रति नागकेशर चूणे नागबलायास्तु घृतमाक्षिकमिश्रितम् । को को पीसकर पिया जाय और तक तथा ! पलिह्यात्मातरुत्याय क्षयव्याधिनिवारणम् ।। भात खाया जाय तो श्वेत प्रदर नष्ट हो जाता है। | घृतमाक्षिकसंमिश्रो वाट्यालकरसस्तथा ॥ ( मात्रा-३ माशे ।) नागबला ( गंगेरन ) का चूर्ण या बला (३४१५) नागकेशरादियोगः । (खरैटी) का स्वरस घी और शहदमें मिलाकर । प्रातःकाल सेवन करनेसे क्षय रोग नष्ट होता है। (वं. से. । स्त्रीरो.) नागकेशरपूगास्थिचूर्ण वा गर्भदं परम् ।। ( मात्रा-चूर्ण १॥ से ३ माशे तक । स्वरस नाशा और सपारीका समान भामिश्रित १ स २ ताल तक ।) चूर्ण सेवन करने से गर्भ प्राप्ति होती है। (३४१८) नागवल्लयाचे चूर्णम् ( मात्रा-२-३ माशे । अनुपान गोघृत । ( भै. र. । वीर्यस्त.) ऋतुकालसे आरम्भ करके २ सप्ताह सेवन करना | नागवल्ली बला मूर्वा जातीकोषफले मुरा। चाहिये ।) अपामार्गस्य बीजश्च काकोलीयुगलं तथा ॥ For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - [१६६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। (नकारादि कहोलोजीरयापाडायचाश्चैतानि मर्दयेत् । । सोंठका १ कर्ष (१॥ तोला ) चूर्ण नित्य वीर्यस्तम्भकर वृष्यं चूर्णमेतदसायनम् ॥ प्रति कामीके साथ सेवन करने से आमवात पान, बला (खरैटी) की जड़, मूर्वा, जाय- (गठिया) और कफवातज रोग नष्ट होते है । फल, जावित्री, मुरामांसी, अपामार्ग ( चिरचिटे) (व्यवहारिक मात्रा-३ माशे । ) के बीज, काकोली, क्षीर काकोली, ककोल, खस, | (३४२१) नागरादिचूर्णम् (१) मुलैठी, और रचका चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र (हा. सं. । स्था. ३ अ. २३) मिलावें। नागरं च हरिद्रा च कणाजाज्यजमोदिका। यह पूर्ण वीर्य स्तम्भक, वीर्य वर्द्धक और | वचा सैन्धवं रास्ना च मधुकं सममागिकम् ।। रसायन है । ( मात्रा-१॥ से ३ माशे तक। | लक्ष्णचूर्ण पिबेचैव सर्पिषा प्रत्यहं नरः । लक्ष्णचूर्णप दूषके साथ खा कर ऊपर से पान खाएं।) एकविंशदिनैर्वातरोगान् हन्ति न संशयः॥ नोट-अपामार्ग के बीज साफ़ ( तुपरहित) भवेच्छूतिधरश्रीमान् मेघदुन्दुभिनिस्वनः। ___ करके डालने चाहियें। हन्ति वातामयान् सर्वान् लेहो यश्च सुखावहः।। (३४१९) नागराफलादिचूर्णम् सांठ, हल्दी, पीपल, जीरा, अजमोद, बच, (वं. से. जलदोषा.) सेंधा, रास्ना, और मुलैठी समान भाग लेकर चूर्ण नागरफलयोचमातपे शोषितं बनावें । सदनु चूर्णितमेकम् । इसे घीके साथ २१ दिन तक सेवन करनेसे कमानुपयुअथ गुडेन वारिकर्म समस्त वातज रोग नष्ट हो जाते हैं। कुरुते न कदापि ॥ इसके अभ्याससे मनुष्य श्रुतिधर, सुन्दर और मेघ सदृश गम्भीर स्वर वाला हो जाता है। नारंगीका फल और चोचको धूपमें सुखाकर | समान भाग लेकर चूर्ण करें। । (३४२२) नागरादिचूर्णम् (२) (३. मा. । हिक्का.) इसमें से नित्य प्रति ११ तोला चूर्ण गुड़में सनागरामया तुल्या कासश्वासौ व्यपोइति ॥ मिलाकर सेवन करनेसे परदेशका पानी बिकार सोंठ और हर्रका समान भाग मिश्रित चूर्ण नहीं करता। सेवन करनेसे खांसी और श्वास नष्ट होते हैं । (३४२०) नागरचूर्णम् (मात्रा-३ माशे; अनुपान-शहद) (वं. से.; यो. र. । आमवा.; भा. प्र. । म. ख. (३४२३) नागरादिचूर्णम् (३) आमवाता.) __(रसें. सा. सं. । ज्वराति.) कर्ष नागरचूर्णस्य काञ्जिकेन पिबेत्सदा। नागरातिविषा मुस्तं देवदारु कणा वचा । आमवातमशमनं कफवातहरं परम् ॥ यमानी बालकं धान्यं कुटजत्वक हरीतकी ।। For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१६७] धातकीन्द्रयवौ बिल्वं पाठा मोचरसं समम् । । समुद्रलवण, और विडलवण । सबके समान भाग चूर्णितं मधुना लेह्यमनुपानं सुखावहम् ॥ मिश्रित चूर्णको सुरा, मण्ड, दही, मन्दोष्णजल सांठ, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, पीपल, अथवा काजीके साथ पीनेसे अनि दीप्त और कोष्टकी बच, अजवायन, सुगन्धबाला, धनिया, कुडेकी / वायु नष्ट होती है। छाल, हरी, धायकेफूल, इन्द्र जौ, बेलगिरी, पाठा और (मात्रा-२ से ३ माशेतक) मोचरस । सबका समान भाग चूर्ण लेकर एकत्र । (३४२६) नागरादिचूर्णम् (६) मिलावें। (यो. र । पाण्डु.) इसे शहदके साथ चाटनेसे ज्वरातिसार नष्ट नागरं लोहचूर्ण वा कृष्णां पथ्यामथाश्मजम् । होता है। | गुग्गुलं वाऽथ मूत्रेण कफपाण्ड्वामयी पियेत् ॥ सांठ, पीपल, हर्र, शिलाजीत, गूगल और (मात्रा-२-३ माशे । दिनमें २-३ बार) लोहभस्म । इनमेंसे किसी एकके चूर्णको गोमूत्रके (३४२४) नागरादिचूर्णम् (४) साथ सेवन करनेसे कफज पाण्डु नष्ट होता है। ___ (वृ. नि. र.। बाल.) (मात्रा-गूगल-१ माशा । लोह १ से २ रत्ती नागरं मुस्तकं बिल्वं चित्रकं ग्रन्थिकं शिवाम्। तक। अन्य औषधांका चूर्ण १ से ३ माशेतक) चूर्णमेतन्मधुयुतं कफजां ग्रहणीं जयेत् ॥ (३४२७) नागरादिप्रयोगः (१) सेठ, नागरमोथा, बेलगिरी, चीता, पीपला (वं. से.। गुल्मरोगा.; च. सं. । चि. अ. ५) मूल और हर्रके समान भाग मिश्रित चूर्णको शह- नागराईपलं पिष्टं द्वे पले चित्रकस्य च । दके साथ चटानेसे बच्चांकी कफज ग्रहणी नष्ट तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरेणोष्णेन पापयेत् ॥ होती है। वातगुल्ममुदावते योनिशूलच नाशयेत् ॥ (मात्रा-आधेसे १ माशे तक।) सांठका चूर्ण आधापल, चीतेका चूर्ण २ पल, (३४२५) नागरादिचूर्णम् (५) पिसे हुवे तिल १ पल (५ तोले) और गुड़ १ पल (वं. से. । प्र. अ.) लेकर सबको एकत्र मिलाकर कूटें । नागरं कौटनं बीजं पिप्पली वृहतीद्वयम् । इसे उष्ण दूधके साथ सेवन करनेसे वातज चित्रकं शारिवा पाठा क्षारं लवणपश्चकम् ॥ गुल्म, उदावर्त, और योनि शूल नष्ट होता है। चूर्णयित्वा सुरामण्डं दधिकोष्णाम्बुकाजिकैः। (मात्रा–२ से ४ माशेतक।) पिबेदनिविष्टद्धयर्थ कोष्ठवातहरं परम् ॥ (३४२८) नागरादिप्रयोगः (२) ___ सेठ, इन्द्रजौ, पीपल, छोटी कटेली, बड़ी (वं. से.। अति.) कटेली, चीता, सारिया, पाठा, यवक्षार, सेंधानमक, एरण्डरससम्पिष्टं पकमामश्च नागरम् । सश्चल (काला नमक), काचलवण (कचलौना), ' आमातिसारशूलग्नं दीपनं पाचन तथा ॥ For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ १६८ ] सोंठको तवे पर भून कर पीसलें, फिर उसमें उसके बराबर कच्ची (बिन भुनी) सांठका चूर्ण पिलाकर अरण्डके रसके साथ पीसकर सेवन करें । www.kobatirth.org भारत - विपन्य- रत्नाकरः । इससे आमातिसार और शूल नष्ट होता है यह दीपन और पाचन भी है । (मात्रा - १ से ३ माशेतक । ) (३४२९) नागराचं चूर्णम् यो. (च. सं. । चि. अ. १९; वं. से.; नि. र.; भै. र.; वृ. मा.; च. द.; धन्व.। वृ. यो. त. । त. ६७ ) ( मात्रा - १ || से ३ माशेतक । ) नागार्जुनचूर्णम् मागरातिविषे मुस्तं धानकीं सरसाञ्जनम् । वत्संकत्व फलं बिल्वं पाठां कटुकरोहिणीम् ॥ पिबेत्समांशं तच्चूर्ण सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना । पैत्तिके ग्रहणीदोषे रक्तं यच्चोपवेश्यते ॥ अर्शांसि च गुदे शूलं जयेच्चैव प्रवाहिकाम् । नागराद्यमिदं चूर्ण कृष्णात्रेयेन पूजितम् ॥ रसप्रकरण में देखिये । र.; वृ. ग्रहणी; सोंठ, अतीस, नागरमोथा धायकेफूल, रसौत, कुड़की छाल, इन्द्रजौ, बेलगिरी, पाठा, और कुटकी के समान भाग मिश्रित चूर्णको शहदके साथ मिलाकर तण्डुलोदक (चावलोंके धोवन ) के साथ सेवन करने से पित्तज ग्रहणी, रक्तस्राव, अर्श, गुदशूल और प्रवाहिका का नाश होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ नकारादि (३४३०) नादेयीक्षारः ( यो त । त. ४६; ग. नि.; वृं. मा. । गुल्मा.; बृ. यो. त । त. ९८ ) नादेयीकुटजातिस्तुम्बिल्ब भल्लातकव्याघ्री किंशुकपारिभद्रकजटाऽपामार्गनीपाधिकान् वासामुष्ककपाटलान्सलवणान्दग्ध्वा जले पाचिताम् । हिंग्वादिप्रतिवापमेतदुदितं गुल्मोदराष्ठीलिषु ॥ अरण्ड, कुड़ेकी छाल, अर्क, सहजनेकी छाल, बड़ी कटेली, थोहर ( सेंड - सेंहुड), बेलछाल, भिलावा, छोटी कटेली, पलाशकी छाल, पारिभद ( फरहद ) की जड़की छाल, अपामार्ग, कदम, चीता, बासा, मुष्कक, पाटला और पांचों लवण ( सेंधा, समुद्र नमक, विड़नमक, सचल नमक, और कालवण ) समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर जलावें, तत्पश्चात् इनकी राख ( भस्म ) और उस नितरे हुवे स्वच्छ पानीको पुनः पकायें, को ६ गुने पानी में मिलाकर २१ बार टपकावें जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें उसका चौथा भाग हिंग्वादि चूर्ण मिलावें । जब जलांश बिल्कुल शुष्क हो जाय तो क्षारको निकालकर सुरक्षित रक्खें । यह क्षार गुल्म और अष्ठीला को नष्ट करता है । For Private And Personal Use Only ( मात्रा - १ माशा ) १ - हिंग्वादि चूर्ण- हींग, पोखरमूल, तुम्बह, हर्र, निसोत, बिडलवण, सेंघा, बबासार और बांठ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्णपकरणम् ] सृतीयो भागः। [१६९] नायिकाचूर्णम् शतावरका चूर्ण १ प्रस्थ (१ सेर-८० रसप्रकरण में देखिये । तोले ), गोखरु का चूर्ण १ प्रस्थ, बाराहीकन्द ( अभावमें चर्मकारालु) का चूर्ण २० पल (३४३१) नारसिंहचूर्णम् (१०० तोले ), गिलोयका चूर्ण २५ पल, शुद्ध (ग. नि. । चूर्णा., मै. र.; र. र.; च. द. भिलावे का चूर्ण ३२ पल (२ सेर), चीतेका __ वाजीकरण.; नपुं. भ. । त. ३ ) चूर्ण १० पल, छिलके रहित (धुले हुवे) तिलोंका प्रस्थं शतावरीचूर्ण प्रस्थं गोक्षुरकस्य च ।। चूर्ण १ प्रस्थ, सोंठ, मिर्च और पीपलका चूर्ण बाराखा विंशतिपलं गहच्याः पञ्चविंशतिः॥ ८-८ पल, खांड ७० पल, शहद ३५ पल, घी भल्लातकानां द्वात्रिंशचित्रकस्य दशैव तु ।। १७|| पल, और विदारीकन्दका चूर्ण १ प्रस्थ । तिलानां लुधितानां च प्रस्थं दद्यात्सुचूर्णितम् ॥ इन सबको एकत्र मिलाकर चिकने पात्रमें सुरत्र्यूषणस्य पलान्यष्टौ शर्करायाश्च सप्ततिः। | क्षित रक्खें। मासिकं शर्करार्धेन तदर्धेन च वै घृतम् ।। मात्रा २॥ तोले ( व्यवहारिक मात्रा ३ से पतापरीसमं देय विदारीकन्दचूर्णकम् ।। ६ माशे तक )। आहारादि इच्छानुसार करना एतानि सूक्ष्मचूर्णानि स्निग्वे भाण्डे निधापयेत्॥ चाहिये। पलार्षमुपयुञ्जीत यथेष्टं चात्र भोजनम् । इसे १ मास तक सेवन करनेसे जरा, व्याधि, एष मासोपयोगेन जरां हन्ति रुजामपि ॥ | बली, पलित, खालित्य ( गञ्ज ), प्लीह (तिल्ली) बलीपलितखालित्यप्लीहव्याधींश्च पीनसान् । पीनस, भगन्दर मूत्रकृच्छू, अश्मरी, १८ प्रकारके भगन्दर मूत्रकृच्छमश्मरींश्च भिनत्यपि ॥ कुष्ठ, आठ प्रकारके उदररोग, प्रमेह, कष्टसाध्य अष्टादशेव कुष्ठानि तथाष्टावुदराणि च ।। ममेहं च महाव्याधि पञ्चकासान् सुदुस्तरान् ॥ पांच प्रकारकी खांसी, ८० प्रकार के वातज रोग, अधीतिर्वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच पैतिकान् ।। ४० प्रकार के पित्तज रोग, २० प्रकारके कफज रोग, द्वन्द्वज रोग, समस्त सन्निपातज रोग और विंशति श्लैष्मिकांश्चैव संसृष्टान् सान्निपातिकान् अर्श इत्यादि समस्त व्याधियां नष्ट हो जाती हैं। सर्वानशौगदान् हन्ति वृक्षमिन्द्राशनियेथा सकाञ्चनाभो मृगराजविक्रम इसे सेवन करने वाला मनुष्य काश्चन के स्तुरगवेगो जलदौघनिःस्वनः ।। समान दीप्तिमान्, सिंहसदृश पराक्रमी, घोड़ेके स्त्रीणां शतं गच्छति सोऽतिरम्यः समान वेगगामी और गम्भीर स्वरवाला हो जाता मुरूपवान् सत्ववतां वरिष्ठः॥ है। वह अनेकों स्त्रियों से रमण कर सकता है तथा पुमान् संजनयेदीमान् नरसिंहनिभांस्तथा । नरसिंह सदृश वीर और बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न नारसिंहेति विख्यातश्चूणों रोगगणापहः॥ । करता है। For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१७०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि (३४३२) नाराचकं चूर्णम् (१) । (३४३४) नाराचचूर्णम् (ग. नि. । चूर्णा.) ( वृ. यो. त. । त. ९६; भै. र.; च. द.; वं. से.; हिङ्गु कुष्ठं वचा चैव स्वर्जिका विडमेव च । यो. र.; ग. नि.; वृं. मा.; धन्च.; र. र. । एको द्वावय चत्वारस्तथाष्टौ षोडशैव च ॥ ___ उदावत.; यो. त. । त. ४५; भा. प्र. ख. २ । उदा.) यथाक्रमकृतान् भागांश्चूर्णमानाहभेदनम् । एष नाराचवितो योगो नाराचको मतः ॥ खण्डपलं त्रिता सममुपकुल्या कर्षसम्मित उदावर्तेषु शूलेषु गुल्मेष्वय भगन्दरे । श्लक्ष्णम् । हृद्रोगे च प्रमेहे च योगोऽयं शमनः परः ।। माग्भोजनस्य समधु विडालपदकं लिहेत्माज्ञः।। एतद्गाढपुरीषे पित्ते कफे च विनियोज्यम् । हींग ( भुना हुवा ) १ भाग, कूठ २ भाग, स्वादुपयोग्योऽयं चूर्णे नाराचको नाम्ना ।। बच ४ भाग, सज्जीखार ८ भाग और विडलवण | खांड १ पल ( ५ तोले ), निसोत १ पल १६ भाग लेकर सबका चूर्ण बनावें। और पीपल १। तोला लेकर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण आनाह, उदावर्त, शूल, गुल्म, ___इसमें से १। तोला चूर्ण शहदमें मिलाकर भगन्दर, हृद्रोग और प्रमेहको नष्ट करता है। भोजन के पहिले चाटना चाहिये । इसके सेवन ( मात्रा १ से २ माशे तक । अनुपान | से मलकी कठिनता, पित्तकफज रोग और उदावर्त उष्ण जल) नष्ट होता है । यह चूर्ण स्वादु और नृपतियोंको (३४३३) नाराचकं चूर्णम् (२) सेवन कराने योग्य है। ( ग. नि. । चूर्णा.) । (३४३५) नारायणं चूर्णम् (१) सिन्धूत्यपथ्याकणादीप्यकानां ( वृ. यो. त. । त. १०५, वं. से.; यो. र.; चूर्णानितोयैः पिबतां कवोष्णैः। र. र.; . मा; च.द. । उदरा.; आयुर्वे. वि. । अ. १०; भा. प्र. । ख. २ उदरा. ग. प्रयाति नाशं कफवातजन्मा नि. । चूर्णा.; यो. त. । त. ५३; वा. नाराचनिर्भिन्न इवामयौघः॥ भ.। चि. अ. १५; शा. ध.। सेन्धा नमक, हर्र, पीपल और अजवायन के म. अ. २) समान भाग मिश्रित चूर्णको मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करने से कफ वातज समस्त रोग (उदररोग) यवानी हपुषा धान्यं त्रिफला सोपश्चिका। कारवी पिप्पलीमूलमजगन्धा सठी वचा ॥ नष्ट होते हैं। शताहा जीरकं व्योषं स्वर्णक्षीरी सचित्रकम् । ( मात्रा-१ से ३ माशे तक ।) द्वौ क्षारौ पौष्करं मूलं कुष्ठं लवणपश्चकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [ १७१ ] विडङ्गश्च समांशानि दन्तीभागत्रयं तथा । । अतिरिक्त इसे भगन्दर, पाण्डु, खांसी, श्वास, गलत्रिद्विशाले द्विगुणे सातला स्याच्चतुर्गुणा ॥ ग्रह, हृद्रोग, ग्रहणी, कुष्ठ, अग्निमांद्य, ज्वर, दंष्ट्राएतन्नारायणं नाम चूर्ण रोगगणापहम् । विष, मूलविष और गरविषादि में भी उचित अनुएनत्माप्य निवर्तन्ते रोगा विष्णुमिवासुराः ॥ | पानके साथ देना चाहिये । तक्रेणोदरिभिः पेयो गुल्मिभिर्बदराम्बुना । प्रथम रोगीको स्निग्ध करके यह चूर्ण सेवन आनद्धवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया ॥ | कराया जाय तो भली भांति विरेचन हो जाता है। दधिमण्डेन विटसङ्गे दाडिमाम्बुभिरर्शसि । परिकर्तेषु वृक्षाम्लैरुष्णाम्बुभिरजीर्णके ॥ (३४३६) नारायणचूर्णम् (२) भगन्दरे पाण्डुरोगे कासे श्वासे गलग्रहे। ( भै. र.; धन्व. । अति.; वृ. नि. र. । संग्र.) हृद्रोगे ग्रहणीरोगे कुष्ठे मन्दानले ज्वरे ॥ गुडूची वृद्धदारश्च कुटजस्य फलन्तथा। दंष्टाविषे मूलविषे सगरे कृत्रिमे विषे। बिल्वञ्चातिविषाश्चैव भृङ्गराजश्च नागरम् ॥ यथाई स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम् ॥ | शक्राशनस्य चूर्णश्च सर्वमेकत्र मेलयेत् । अजवायन, हाऊबेर, धनिया, हर्र, बहेड़ा, चूर्णमेतत्समं ग्राह्यं कुटजस्य त्वचोपि च ॥ आमला, कलांजी, कालाजीरा, पीपलामूल, अजमोद गुडेन मधुना वापि लेहयेद्भिषजां वरः। सठी ( कचूर ), बच, सोया, जीरा, सोंठ, मिर्च, । शोथं रक्तमतीसारं चिरजं दुर्जयन्तथा ॥ पीपल, स्वर्णक्षीरी* (सत्यानाशीकी जड़-चोक), ज्वरं तृष्णाश्च कासश्च पाण्डुरोगं हलीमकम् । चीता, यवक्षार, सज्जीक्षार, पोखरमूल, कूठ, पांचो मन्दानलप्रमेहश्च गुदजश्च विनाशयेत् ॥ नमक और बायबिडंग १-१ भाग तथा दन्तीमूल एतन्नारायणं चूर्ण श्रीनारायणभाषितम् ॥ ३ भाग, निसोत+ और इन्द्रायन २-२ भाग | गिलोय, विधारा, इन्द्रजौ, बेलगिरि, अतीस, और सातला ४ भाग लेकर चूर्ण बनावें । भंगरा, सेठ, और भंगका चूर्ण १-१ भाग तथा ____ इसे उदर रोगों में तक्रके साथ, गुल्म में कुड़ेकी छालका चूर्ण सबके बराबर लेकर सबको बेरके काथके साथ, वायुके निरोध में सुराके साथ, एकत्र मिलावें । इसे गुड़ या शहद में मिलाकर वातव्याधिमें प्रसन्ना ( सुराभेद ) के साथ, मलकी सेवन करनेसे शोथ रक्तातिसार, कष्टसाध्य पुराना कठिनता में दहीके तोड़के साथ, अर्श में अनारके अतिसार, ज्वर, तृष्णा, खांसी, पाण्डु, हलीमक, रसके साथ, परिकर्तिका (कैंचीसे काटनेके समान अग्निमांद्य, प्रमेह और अर्श का नाश होता है पीड़ा ) में इमलीके पानीके साथ, तथा अजीर्णमें उष्ण जलके साथ सेवन करना चाहिये । इनके ( मात्रा १ से ३ माशे तक । ) * यो. चि. म. में स्वर्णक्षीरोकी जगह कंकुष्ठ लिखा है । + शाधर में निसोत ३ भाग लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१७२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [ नकारादि (३४३७) निदिग्धिकादियोगः नीमके पत्तोंका चूर्ण शहदमें मिलाकर चाट(ग. नि. । हिक्का.) नेसे शरत्कालीन ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । निदिग्धिकां चामलकममाणां । ( मात्रा-३ माशेसे आधा तोला तक ) हिवर्धयुक्तां मधुना विमिश्राम् ॥ । (३४४०) निम्बयोगः । लिहेमरावासनिपीडितोऽपि । (बृ. नि. र.; ग. नि.; . मा.; यो. र. । शीतपि.) ___ श्वासं जयत्येष बलात्श्यहेण ॥ निम्बस्य पत्राणि सदा घृतेन धात्रीविमिश्राण्यथवा प्रयुश्यात् । कटेली, और आमला १-१ भाग तथा हींग विस्फोटकोठक्षतशीतपित्तं आधा भाग लेकर चूर्ण बनावें । कण्डस्रपित्तं सकलानि हन्यात् ।। इसे शहदके साथ चाटनेसे ३ दिनमें श्वास घृतके साथ नीमके पत्तोंका या नीमके पत्ते नष्ट हो जाता है। और आमले का समभाग मिश्रित चूर्ण सेवन (३४३८) निम्बपञ्चकचूर्णम् (वृहद्) करने से विस्फोटक, कोठ, क्षत, शीतपित्त, कण्डु (ग. नि. । चूर्णा.) (खुजली ) और रक्तपित्त नष्ट होता है । काले त्वक्छदसारबीजकुसुमेनिम्बस्य तुल्यांशकैः ( मात्रा–३ माशेसे आधे तोले तक) कृत्वा चूर्णमदः कटुपिकनिशाधान्यक्षपध्यायुतैः ।। पञ्चारिष्टमिदं पयोमधुघृतैरुष्णाम्बुना वा पुमान् । (३४४१) निम्बादिचूर्णम् (१) पीत्वा कासगरममेहपिटिकाकुष्ठादिभिर्मच्यते॥ (भा. प्र. । म. ज्वरा.; वै. रह.; वृ. नि. र. । ज्वर.) यथा समय नीमकी छाल, पत्ते, सार, बीज और निम्बपत्रवराव्योषयवानीलवणत्रयम् । फूल १-१ भाग लेकर सुखाकर चूर्ण बनावें, और फिर | क्षारो दिग्वहिरामेषुत्रिनेत्रक्रमशोऽशकान् ॥ उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, हल्दी. आमला. बहेडा सर्वमेकीकृतं चूर्ण प्रत्यूषे भक्षयेभरः। और हर्र में से हर एकका चूर्ण १-१ भाग मिलावें। एकाहिक द्वयाहिकञ्च तथा त्रिदिवसज्वरम् ॥ ___ इसे दूध, शहद, घी या उष्ण जलके साथ | चातुर्थिकं महाघोरं सततं सन्ततं दिवा।। सेवन करनेसे खांसी, विष, प्रमेहपिडिका, और धातुस्थ च त्रिदापात्य ज्वर हान्त न सर्शयः॥ कुष्ठादि रोग नष्ट होते हैं। ___नीमके पत्ते १० भाग, हर्र १ भाग, बहेड़ा ( मात्रा-२ से ३ माशे तक) | १ भाग, आमला १ भाग, सोंठ १ भाग, मिर्च (३४३९) निम्बपल्लवरजः १ भाग, पीपल १ भाग, अजवायन ५ भाग, ( यो. स. । समु. ३) - सश्चल नमक, सैंधव लवण और विडलवण, १-१ शारदं ज्वरमपोहति शीघं भाग और यवक्षार २ भाग लेकर चूर्ण बनावें । निम्बपल्लवरजः समाशिकम् ॥' इसे प्रातःकाल सेवन करनेसे दैनिक, तिजारी, For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम] तृतीयो भागः। [१७३] चौथिया, सन्तत, सतत, धातुगत और सन्निपातज | मासमात्रप्रयोगेण भवेत्काञ्चनसभिभः॥ ज्वर नष्ट होते हैं। वातशोणितमत्युग्रं श्वित्रमौदुम्बरं तथा। ( मात्रा-२-३ माशे । अनुपान-उष्ण जल) | कोठं चर्मदलाख्यश्च सिध्मपामा च विप्लुता ॥ (३४४२) निम्बादिचूर्णम् (२) कण्डूविचर्चिकाकारुदद्रुमण्डलकिटिभम् । (वा. भ. । चि. अ. १९) सर्वाण्येव निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ निम्बं हरिद्रे सुरसं पटोलं आमवातकृतं शोथमुदरं सर्वरूपिणम् । कुष्ठाश्वगन्धे सुरदारु शिग्रुः । प्लीहानं गुल्मरोगश्च पाण्डुरोगं सकामलम् ॥ ससर्षपं तुम्बरु धान्यवन्यं सर्वान्कण्डूव्रणांश्चैव हरते नात्र संशयः। चण्डावचूर्णानि समानि कुर्यात् ।। एतनिम्बादिकं चूर्ण प्राह नागार्जुनो मुनिः ॥ तैस्तक्रपिष्टैः प्रथमं शरीरं नीमको छाल, गिलोय, हर्र, आमला, और तैलाक्तमुद्वर्तयितुं येतत । बाबची १-१ पल (५-५ तोले ), सोंठ, बायतेनास्य कण्डूपिटिकाः सकोठाः बिडंग, पवांड, पीपल, अजवायन, बच, जीरा, कुष्ठानि शोफाश्च शमं व्रजन्ति ।। काली मिर्च, खैरसार, सेंधा नमक, यवक्षार, हल्दी, नीमकी छाल, हल्दी, दारुहल्दी, तुलसी, दारुहल्दी, नागरमोथा, देवदारु और कूठ । हरेक पटोल, कूठ, असगन्ध, देवदारु, सहजनेकी छाल, १-१ कर्ष (११-१। तोला ) लेकर महीन चूर्ण सरसों, तुम्बरु, धनिया, केवटीमोथा, और चोर- करके बारीक कपड़ेसे छानकर रक्खें । पुष्पी। सबका समान भाम चूर्ण लेकर एकत्र मिलावें । इसे नित्य प्रति १ मास तक ४ माशेकी प्रथम शरीर पर तैलकी मालिश करके पश्चात् | मानानमार गिलोय | मात्रानुसार गिलोयके काथके साथ सेवन करनेसे इसे तक्रमें मिलाकर मलनेसे कण्ड, पिडिका, कोठ, भयङ्कर वातरक्त, श्वित्र (सफेद कोढ़), उदुम्बर कुष्ठ, और शोफ नष्ट हो जाता है। कुष्ठ, कोठ, चर्मदल, सिम ( छीप ), पामा, कण्ड (३४४३) निम्बादिचूर्णम् (३) (खुजली ) विचर्चिका, दाद, मण्डल, किटिभ (भै. र.; धन्व. । वातरक्ता.) कुष्ठ, आमवातजनित शोथ, हर प्रकारकी उदर निम्बामृताभयाधात्री प्रत्येक पलोन्मितम् । व्याधि, तिल्ली, गुल्म, पाण्डु, कामला, और व्रणादि सोमराजी पलं शुण्ठी विडोडगजाः कणाः ॥ नष्ट होकर शरीर काश्चनके समान कान्तिमान् हो यमानी चोग्रगन्धा च जीरकं कटुकं तथा। जाता है । खदिरं सैन्धवं क्षारं द्वे हरिद्रे च मुस्तकम् ॥ (३४४४) निर्गुण्ड्याचं वमनम् देवदारु तथा कुष्ठं कर्ष कर्ष प्रदापयेत् । (ग. नि. । ग्रन्थ्या .) सर्व सणितं कृत्वा सूक्ष्मवस्त्रेण छानयेत् ॥ निर्गुण्डीजातीदलदेवदारशाणमात्रन्तु भोक्तव्यं छिमाका पिवेदतु ।। जीमूतक मालिकसैन्धवाट्यम् । For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१७४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [ नकारादि अद्भिः प्रतप्तं वमनं प्रधान गर्भपात होनेके कारण होने वाली पीड़ामें कुष्ठापचीपूत्तममादिशन्ति ॥ खांड और नीलकमलकी जड़के चूर्णको शहदमें संभालु, चमेलीके पत्ते, देवदारु और बिंडाल- मिलाकर पिलाना और शीतल ओषधियोंके काथसे डोढा । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसे योनिको धोना चाहिये। गर्म पानी में मिलाकर उसमें शहद और सेंधा नमक (३४४७) नीलिन्यादिचूर्णम् मिलाकर रोगीको पिलावें। (च. सं. । चि. अ. १८; वा. भ.। चि. अ. १५) कुष्ठ और अपचीमें इससे वमन कराना नीलिनी निचुलं व्योषं द्वौक्षारौ लवणानि च । हितकर है। (मात्रा-चूर्ण ३ से ६ माशे तक । शहद चित्रकश्च पिबचूणे सपिषोदरगुल्मनुत् ॥ ४ तोले । पानी-~-रोगी अधिकसे अधिक जितना नीली (नीलवृक्ष ), हिज्जल, सांठ, मिर्च, पी सके । नमक-जितनेसे पानी खूब नमकीन पीपल, जवाखार, सज्जीखार, सेंधा, सञ्चल (काला नमक), विडनमक, काचलवण (कचलोना ), हो जाय ।) | समुद्र लवण और चीता सब चीजें समान भाग (३४४५) निशादिचूर्णम् लेकर चूर्ण बनावें । ( रा. मा. । प्रमे.) इसे धीमें मिलाकर चाटनेसे गुल्म रोग नष्ट चूर्ण निशायाः मधुना समेतं | होता है। धात्रीफलानां स्वरसेन मिश्रम् । (मात्रा--१ से ३ माशे तक ।) पलीढमल्पैश्च दिनैनिहन्ति (३४४८) नीलोत्पलादिचूर्णम् प्रमेहसंज्ञानखिलान् विकारान् । (वं. से. । स्त्रीरोगा.) हल्दीके चूर्णको आमलेके रस और शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे थोड़े दिनांही समस्त असितोत्पलशालूकं निस्तुपा रक्तशालयः । यवानी गैरिकं यासाः समभागेन चूर्णिताः।। प्रकारके प्रमेह नष्ट हो जाते हैं। क्षौद्रेण तांश्च संयोज्य लिद्यात्मदरपीडिता ॥ (मात्रा---३ माशे।) नीलकमलकी जड़, लाल चावल, अजवायन, (३४४६) नीलाब्जकन्दयोगः गेरु और जवासा; सबका समान भाग चूर्ण लेकर __ (रा. मा. । स्त्रीरो.) एकत्र मिलावें। सशर्करं नीलसरोजकन्द. चूर्ण निपीतं सह माक्षिकेण । इसे शहदके साथ चरानेसे प्रदर रोग नष्ट गर्भस्य पाते शमनं व्यथायाः होता है। शीतैश्च तोयैः परिषेचनानि ॥ ( मात्रा-३ माशे) For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१७५] (३४४९) नीलोत्पलादियोगः । मकं मधुकं लो, वरुणं पारिभद्रकम् । (ग. नि. । रक्तपित्ता.) पटोलं मेषशृङ्गी च दन्ती चित्रकमानकम् ॥ नीलोत्पलं शर्करा च पञ्चकं पदकेसरम् ।। करजं त्रिफला शक्रं भल्लातकफलानि च । तण्डुलोदकसंयुक्तं प्रशस्तं रक्तपित्तिनाम् ॥ एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ नीलकमल, खांड, पनाक और कमलकेसरके न्यग्रोधाधमिदं चूर्ण मधुना सह योजयेत् । समान भाग मिश्रित चूर्णको तण्डुलोदक ( चावलों | फलत्रयश्चानुपिबेत्तेन मूत्रं विशुद्धयति ॥ के पानी ) के साथ पिलानेसे रक्तपित्त नष्ट होता है। | एतेन विंशतिर्महा मूत्रकृच्छ्राणि यानि च । (मात्रा–३-४ माशे) प्रशमं यान्ति योगेन पिडिका न च जायते ॥ (३४५०) नील्यादिप्रयोगः बड़, गूलर, अश्वत्थ (पीपल वृक्ष ), अरलु, (भा. प्र. । म. ख. दन्त.) | अमलतास, असना, आम, कैथ, जामन, प्रियाल (चिरौंजीका वृक्ष ), अर्जुन, धव, और महुवा । नीलीवायसनवाकटुतुम्बीमूलमेकैकम् । इनकी छाल तथा मुलैठी, लोध, बरनेकी छाल, सर्घ्य दशनं विधृतं दशनकृमिनाशनं माहुः॥ पारिभद्र (फरहद या नीम ) की छाल, पटोल, नीली, काकजंघा, और कड़वी तूंबी से मेढासिंगी, दन्तीमूल, चीता, मानकन्द, करअफल, किसी एक की जड़के चूर्ण को दांतमें भरनेसे उसके | हर्र, बहेड़ा, आमला, इन्द्रजौ, और शुद्ध भिलावा । कृमि नष्ट हो जाते हैं। सबका समान भाग चूर्ण लेकर एकत्र मिलावें। (३४५१) न्यग्रोधादिचूर्णम् । इसे शहदके साथ चाटकर ऊपरसे त्रिफलेका (वं. से.; भा. प्र.; . मा.; ग. नि; च. द.; र. काथ पीना चाहिए । र.; यो. र. । प्रमेह; वृ. यो. त. । त. १०३; इसके सेवनसे मूत्रदोष, बीस प्रकारके प्रमेह हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१) | और मूत्र कृच्छूका नाश होता तथा प्रमेह पिडिका न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थस्योनाकारग्वधासनम्।। नहीं निकलती। आनं कपित्थं जम्यूश्च पियालं ककुभं धवम् ॥' ( मात्रा-१ से ३ माशे तक । ) इति नकारादिचूर्णप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १७६] [नकारादि - भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। अथ नकारादियटिकाप्रकरणम् नक्तान्ध्यहरीवतिः मूत्रपिष्टान्समानेतान्वटकानासम्मितान् । अञ्जनप्रकरणमें देखिये। छायाशुष्कांस्तु तान् ज्ञात्वा नयनसुखावतिः दयापातितारिणे ॥ अञ्जनप्रकरणमें देखिये। कृमिश्वययुपाण्डातिष्ठीहगुल्मोदरापहान् । नयनामृतवटी अननप्रकरणमें देखिये । ग्रहण्यर्थोविकारमानभिसन्दीपमानियेत् ॥ नवज्वरहरीवटी सेठ, अतीस, नागरमोथा, अजवायन, वाचा, रसप्रकरणमें देखिये। बच, सांठ, पोखरमूल, पाठा, कुटकी, मिकी नवनेत्रदावतिः गिरी, हर्र, धायले फूल, इन्द्रजौ, होग, समा अञ्जनप्रकरणमें देखिये। ( काला नमक ), यवक्षार, वायपिइंग, बिडनमक, और सेंधा नमक । इन सबके सम माग मिमिव नवाङ्गोवतिः अञ्जनप्रकरणमें देखिये। चूर्णको गोमूत्रमें घोटकर १-२ कर्ष (१।१। तोले ) के मोदक बनाकर छायामें सुखावें । (न्यव(३४५२) नागरादिगुटिका हारिक मात्रा ३-४ माशे) (वं. से. । नेत्र.) इनके सेवनसे कफज अतिसार, कृमि, शोष, भृष्टा घृतेन नागरतिरीटधात्रीमनःशिला गुटिका। उपर्युपरिमार्जनेन क्षपयति शूलं क्षणेनाक्ष्णोः ।। पाण्डु, प्लीहा, गुल्म, उदररोग, ग्रहणीदोष और अर्शका नाश होता तथा अग्नि दीप्त होती है। सोंठ, लोध, आमला और मनसिलके चूर्णको | | (३४५४) नागरायो मोदकः (२) धीमें भूनकर उसकी गुटिका बनाकर आंखके ऊपर | ( भै. र. । अर्श.; यो. चिं. । अ. ३) फिराने से नेत्रपीड़ा (खड़क) तुरन्त नष्ट हो | सनागरारुष्करददारक जाती है। गुरेन यो मोदकमत्सुदारकम् । (३१५३) नागरायो मोदकः (१) अशेषदर्नामकरोगदारक (वं. से. । अति.) करोति बुद्धं सहसैव दारकम् ॥ नागरातिविषा मुस्तं यवानी चित्रकं वचा। (चूर्णे चूर्णसमो देयो मोदके रिगुणो गुरुः।) शुण्ठी पुष्करमूलश्च पाठा कटुकरोहिणी ॥ सांठ, शुद्ध भिलावा और विधाराम्स का पूर्ण भल्लातकास्थिन्यभया धातकी कोटजं फलम् । । १-१ भाग तथा गुड़ ६ भाग लेकर सबको एकत्र हिक सौवर्चल क्षार विडॉ विडसैन्धवम् ॥ मिलाकर या गुडकी चाशनी बनाकर मोदक बनावें। For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकापफरणम् ] तृतीयो भागः। [१७७] यह मोदक हर प्रकारके अर्श रोगको नष्ट (३४५५) निकुम्भाचा गुटिका करते हैं। इनके सेवनसे वृद्ध पुरुषमें भी बल (ग. नि. । गुरि.) आ जाता है। निकुम्भरजनीपाठात्रिकटुत्रिफलामिकाः। ( मात्रा-~~-आधा तोला । अनुपान-उष्ण जल) | बाला वृक्षकवीजं च चूर्ण स्यादनवो गुडः ॥ नोट-चूर्ण बनाना हो तो उसमें अन्य सब पथ्याभिसहितं चूर्ण गवां मूत्रयुतं पचेत् । चीजोंके समान गुड डालना चाहिये और मोदक घनीभूतं तु गुटिकां कृत्वा खादेदभुक्तवान् ।। बनानेके लिये चूर्णसे दोगुना गुड़ मिलाना चाहिये। गुल्मप्लीहाग्निसादास्ता नाशयेयुरशेषतः । नागादिवटिका हृद्रोग ग्रहणीदोष पाण्डुरोगं च दारुणम् ।। रसप्रकरणमें देखिये। दन्तीमूल, हल्दी, पाठा, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागार्जुनयोगः हरे, बहेड़ा, आमला, चीता, सुगाध बाला, इन्द्रजौ, (च. द.; वै. र. । अर्श.) और हर्रका चूर्ण तथा पुराना गुड़ समान भाग (प्र. सं. २४०३ त्रिफलादिगुटिका देखिये) लेकर ( चार गुने ) गोमूत्र में पकावें जब गोलियां नागार्जुनवटी बनाने योग्य हो जाय तो गोलियां बनाकर सुखा(र. र. सं.) कर सुरक्षित रक्खें । रसप्रकरणमें देखिये। इन्हें प्रातःकाल खाली पेट सेवन करनेसे नागार्जुनी गुटिका गुल्म, प्लीहा, अग्निमांद्य, हृद्रोग, पाण्डु और ग्रहणी (र. स. क.; र. का. धे.) विकार नष्ट होते हैं । रसप्रकरणमें देखिये। ( मात्रा-३ माशे । अनुपान-उष्णजल ।) नागार्जुमी गुटिका (३४५६) निम्बादिगुटिका (ग. नि. । नेत्रा.) अञ्जनप्रकरणमें देखिये (र. का. धे. । पाण्डु.) नागार्जुनी वर्तिः | निम्बं पटोलं कुटजं त्रिफला मुस्तनागरम् । रसप्रकरणमें देखिये। पचेजलाढके शेषे दद्यादेतत्सुशीतले ॥ नागेन्द्रगुटिका शिलाजतु पलान्यष्टौ मासं च स्थापयेच्च तत् । रसप्रकरणमें देखिये। उद्धृत्य तं शिलातुल्यमेतांश्चापि पलोन्मितान् ।। नेत्रवर्तिः मोचा धात्रीफलतुगाकर्कटश्च निदिग्धिका । अञ्जनप्रकरणमें देखिये। त्रिता पादसंयुतं क्षौद्रं त्रिपसम्मितम् ।। नेपालादिवतिः पयोऽनुपानां गुटिकां कृत्वा खादेघथा बलम् । अञ्जनप्रकरणमें देखिये। कामलापाण्डुरोगेण शोषितों वरपीडितः ॥ For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि - नीमकी छाल, पटोल, इन्द्रजौ, हर्र, बहेड़ा, (मात्रा-३-४ रत्ती।) आमला, नागरमोथा और सोंठ १-१ पल (५-५ निम्बादिवतिः तोले ) लेकर सबको ८ सेर पानीमें पकावें। जब १ मिश्रप्रकरणमें देखिये। सेर पानी शेष रहे तो उसे छानकर उसमें ८ पल शिलाजीत मिलाकर मिट्टीके पात्रमें भरकर, उसका निशादिवटी मुंह बन्द करके रखदें, और १ मास पश्चात् उसमें रसप्रकरणमें देखिये। से औषधको निकालकर उसमें उसके बराबर शुद्ध निशादिवतिः मनसिल, और १-१ पल मोचरस, आमला, बन- मिश्रप्रकरणमें देखिये। सलोचन, काकड़ासिंगी, और कटेली तथा इन सबका चौथा भाग निसोतका चूर्ण और ३ पल शहद (३४५७) नीलाब्जाधा गुटिका मिलाकर गोलियां बनावें। ( ग. नि. । तृष्णा.; रा. मा. । छर्दितृषा.) इनके सेवनसे कामला, पाण्डु, और ज्वर | (प्रयोग संख्या २३९३ " तृष्णाप्ती गुटी" नष्ट होता है। अनुपान-दूध । | अवलोकन कीजिए ।) इति नकारादिगुटिकाप्रकरणम् । अथ नकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (३४५८) नवकगुग्गुलु इसके सेवनसे आमवात और कफज तथा ( यो. र.; वृ. नि. र.; ग. नि.; भै. र. । मेदा. मेदज रोग नष्ट होते हैं। च. द. । स्थौल्या.; वृ. यो. त. । त. १०४) । ( मात्रा-२ माशे । अनुपान-उष्ण जल) म्योपानिमुस्तात्रिफलाविडङ्गैर्गुग्गुलु समम् । (३४५९) नवकषांयगुग्गुल: खादन्सञ्जियेद्व्याधीन्मेदाश्लेष्यामवासजान्।। (च. द.। विसर्प.) ___ सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, नागरमोथा, हर्र, अमृतविषपटोल निम्बकल्कैरुपेतम् । बहेड़ा, आमला और बायबिडंगका चूर्ण १-१ त्रिफला खदिरसारं व्याषिघातं च तुल्यम् ॥ भाग तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर लेकर सबको कथितमिदमशेष गुग्गुलोआंगयुक्तं । एकत्र मिलाकर करें। जयति विषविसन्हिष्ठमष्टादशाल्यम् ।। For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । मकरणम्.] गिलोय, शुद्ध मीठा तेलिया ( वछनाग ), पटोल, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, खैरसार और अमलतास एक एक भाग लेकर कूटकर सबको चार गुने पानी में पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें १ भाग शुद्ध गूगल मिला कर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो र चिकने पात्रमें भरकर रक्खे । [ १७९] ( मात्रा - १ से २ मासे तक । अनुपान - उष्णजल ) इनके सेवन से कुष्ट, भगन्दर और दुष्ट नाड़ीमण ( नासूर ) नष्ट होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४६१) निम्बादिगुग्गुलुः ( वृ. नि. र. । शिरो रोग. ) निम्बत्वक त्रिफलावासाचूर्ण कटुपटोलिका । तोयैश्चतुर्गुणे काये पादांश वस्त्रगालितम् ।। आदाय गुग्गुलं तुल्यं क्षिप्त्वा तस्मिन्पुनः पचेत् । पिण्डितं भक्षयेत्कर्षे स्निग्धमुष्णं च भोजयेत् ॥ यह गुग्गुलु विष, विसर्प, और अठारह वातश्लेष्मोत्थितां पीडां दुःसहां च शिरोरुजम् ।। प्रकारके कुष्ठोंको नष्ट करता है । नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, बासा और कड़वा पटोल, १-१ भाग लेकर सबको कूटकर चार गुने पानी में पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रहे तो उसे छानकर उसमें ६ भाग शुद्ध गूगल मिलाकर पुन: पकावें । जब गाढ़ा हो (१४६०) नवकार्षिकगुग्गुलुः ( यो त । त. ६१.; बृ. यो. त. । त. ११६; मो. २.१ भै. र.; वं. से.; वै. रह.; भा. प्र. स्व. २; ग.नि.; वृं. मा. र. र. । भगन्दर . ) त्रिफलापुरुकृष्णानां त्रिपञ्चकभागयोजितागुटिका जाय तो उतारकर गोलियां बना लें 1 कुभगन्दरनाडीदुष्टत्रण विशोधिनी कथिता ॥ हर्र, बहेड़ा, आमला, और पीपलका चूर्ण १ - १ भाग तथा शुद्ध गूगल ५ भाग लेकर test एकत्र कूटकर गोलियां बनावें । इसमें से नित्य प्रति १ कर्ष ( ११ तोला ) प्रतिदिन सेवन करनेसे वातकफज भयङ्कर शिरपीड़ा नष्ट होती है । पथ्य - उष्ण और स्निग्ध पदार्थ ( व्यवहारिक मात्रा - २ - ३ माशे । अनुपान - उष्णजल ) इति नकारादिगुग्गुलुमकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [१८० ] www.kobatirth.org भारत - भैषज्य- - रत्नाकरः । अथ नकाराद्यवलेहप्रकरणम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४६२) नवनीतावलेह : (१) ( ग. नि. । राजय . ) शर्करामधुसंयुक्तं नवनीतं लिहन् क्षयी | क्षीराशी लभते पुष्टिमतुल्ये चाज्यमाक्षिके ॥ खांड, शहद और नवनी घी ( नवनीतमक्खन ) समान भाग मिलाकर या घी और शहद असमान मात्रा में मिलाकर चाटने और आहारमें केवल दूध पीनेसे क्षयका रोगी पुष्ट हो जाता है । (३४६३) नवनीतावलेह : (२) ( वृ. यो. त. । त. ६४; भा. प्र म । अति. ) होती है । गोदुग्धं नवनीतं च मधुना सितया सह । लीढं रक्तातिसारे तु ग्राहकं परमं मतम् ॥ नवनीत (नौनी घी), शहद और खांड समान भाग मिलाकर चाटकर ऊपरसे गायका दूध पीने से रक्तातिसार बन्द हो जाता है । ( मात्रा -- नवनीतादि हरेक २ तोले । ) (३४६४) नागकेसराद्यवलेहिका ( वृ. यो त । त. ६९ ) नागकेसर भल्लातनवनीततिलैः कृतः । her: शुक्तिमितो लीढो रक्ताशः कुलकण्डनः ॥ नागकेसर, शुद्ध भिलावा और तिल । सब चीजें समान भाग लेकर पीसकर नवनीत ( नौनी घी) में मिलाकर चाटने से अर्श नष्ट होती है । मात्रा - २॥ तोले । व्यवहारिक मात्रा --- ६ माशे ) नोट- जिन्हें भिलावा अनुकूल न आता हो उन्हें यह प्रयोग सेवन न करना चाहिये । (३४६५) नागरादिलेह: ( वं. से. । बालरोग. ) नागरं पिप्पली पाठा भाङ्ग च मरिचानि च । लेहोयं मधुना कासश्लेष्मछर्दिनिसूदनः ॥ सोंठ, पीपल, पाठा, भरंगी और काली मिर्च का समभाग मिश्रित चूर्ण शहद में मिलाकर चटाने से बालकों की खांसी और कफज छर्दि नष्ट (३४६६) नागरायोsवलेह: (ग. नि. । लेहा. ) [ नकारादि For Private And Personal Use Only नागरस्य पलान्यष्टौ घृतस्य पलविंशतिः । क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तं खण्डस्यार्धशतं तथा ॥ व्योषं त्रिजातकं चैव पलांशमुपकल्पयेत् । बल्यञ्च वर्ण्यमायुष्यं वलीपलितनाशनम् ॥ आमवातप्रशमनं सौभाग्यकरमुत्तममम् ॥ ८ पल सोंठ के चूर्णको २ सेर ( १२० तोले ) दूध में पकावें । जब मावा तैयार हो जाय तो उसमें २० पल ( २ ॥ सेर ) घी डालकर भूनें फिर ५० पल ( ३ सेर १० तोले ) खांड की चाशनी करके उसमें यह मावा तथा १ -१ पल ( ५-५ तोले ) सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, तेजपात और इलायचीका चूर्ण मिलाकर चिकने पात्र में सुरक्षित रक्खें । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहमकरणम्] तृतीयो भागः। [१८१] यह अवलेह बलकारक, वर्णशोधक, आयु- । पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छानकर वर्द्धक तथा बली पलित और आमवात नाशक है। उसमें २ सेर पुराना गुड़ मिलाकर पकावें । जब ( मात्रा-१ से २ तोले तक।) करछी को लगने लगे तो उसमें ८ पल पीपल और १-१ पल (५-५ तोले ) दालचीनी, तेज(३४६७) निदिग्धिकाद्योऽवलेहः पात इलायची तथा कालीमिर्चका चूर्ण मिलावें ( ग. नि. । लेहा.; भा. प्र. ख. २.; वृ. नि. र.; | और ठण्डा होने पर उसमें ४० तोले शहद डाल वं. से. । स्वरभे.; ३. यो. त. । त. ८१ ) कर सुरक्षित रक्खें । निदिग्धिका पलशतं तदर्ध ग्रन्धिकस्य च । | यह स्वर और बुद्धि वर्द्धक तथा प्रतिश्याय, चित्रकस्य तदर्धश्च दशमूलं च तत्समम् ॥ खांसी, श्वास, अग्निमांद्य, अर्श, गुल्म, प्रमेह, गलद्रोणद्वये ऽम्भसः काथ्यमष्टभागावशेषितम् । रोग, आनाह, मूत्रकृच्छ्, ग्रन्थि और अर्बुद पूते क्षिपेत्तदर्धे तु पुराणस्य गुडस्य च ।।। नाशक है । सर्वमेकत्र कृत्वा तु लेहवत्साधु साधयेत् । ( मात्रा १ से २ तोले तक । ) अष्टौ पलानि पिप्पल्यस्त्रिजातत्रिपलं तथा ॥ मरिचानां पलं चैकं सर्वमेकत्र चूर्णयेत । (३४६८) निशाधवलेहः मधुनः कुडवं दत्त्वा भक्षयेत यथा बलम् ॥ (वं. से. । बाल. ) स्वरबुद्धिकरं चैव प्रतिश्यायहरं परम् । निशा कृष्णाअनं लाजा शृङ्गीमरिचमाक्षिकैः । कासश्वासाग्निमान्यार्थीगुल्ममेहगलामयान् ॥ लेहः शिशोविंधातव्यश्छर्दिकासरुजापहः ॥ आनाहमूत्रकृच्छ्रांश्च हन्याद्ग्रन्थ्यर्बुदानि च ॥ हल्दी, पीपल, सुरमा, धानकी खील, काकड़ा कटेली १०० पल (६। सेर ), पीपलामूल सिंगी, और कालीमिर्चके समान भाग मिश्रित ५० पल, चीता २५ पल, और दशमूल २५ पल चूर्णको शहदमें मिलाकर चटाने से बालकांकी लेकर सबको अधकुटा करके ६४ सेर पानीमें । छर्दि और खांसी नष्ट होती है। इति नकाराधवलेहप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१२] [ नकारादि भारत-भैषज्य रत्नाकर।। अथ नकारादिपाकप्रकरणम् (३४६९) नारिकेलखण्डः । (३४७०) नारिकेलखण्डपाक: (च. द.; भै. र. । परि. शू.: यो. र.; ग. नि. (वृ. यो. त.। त. १२२; वं. से.; वै. र. । अम्लशूला.; यो. त. ।त. ६३; वृ. यो.। त. १२२) पित्त.; र. र. । शूला.; भा. प्र. । ख. २ अम्लपि.) कुडवमितमिह स्यान्नारिकेलं म्रपिटम कुडवं नारिकेलस्य सूक्ष्म दृषदि पेषितम् । पलपरिमितसर्पिः पाचितं खण्डतुल्यम् । शुभ्रखण्डस्य कुडवं सबेमेतचतुर्गुणम् ॥ निजपयसि तदेतत्मस्थमात्र विपकम् आलोच्य नारिकेलस्य जले मृदग्निना पचेत् । गुडवदथसुशीते शाणभागान्क्षिपेछ । | नारिकेलजलालाभे गव्ये पयसि सत्पचेत् ।। धन्याकपिप्पलिपयोदतुगाद्विजीरैः। | पलमात्रस्तदर्थोऽपि भक्षितः प्रत्यहं नरैः। साकं त्रिजातमिभकेशरवद्विचूर्ण्य । | नारिकेलकखण्डोऽयं पुंस्त्वनिद्रावलपदः ।। हन्त्यम्लपित्तमरुचि क्षयमस्रपित्तम् अम्लपित्तं रक्तपित्तं शूल परिणामजम् । शूलं वर्मि सकलपौरुषकारि पुंसाम् । क्षय क्षपयति क्षिप्रं शुष्कं दानिलो यथा ॥ ४० तोले नारयलकी गिरी (गोले ) को (पलमात्रगन्यघृतेन नारिकेलस्य भर्जन पत्थर पर अत्यन्त महीन पीसकर १० तोले धीमें | कर्तव्यमिति सम्पदायः) भून लें। फिर २ सेर नारयलके दूध में यह गोला ४० तोले नारयलकी गिरी (गोले) को पत्थर और २० तोले खांड मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। पर अत्यन्त महीन पीसकर (१० तोले घीमें भूनले जब गुड़के समान गाढ़ा हो जाय तो ठण्डा करके फिर) इसे ६ सेर नारयलके पानी (अभावमें गोउसमें ५.-५ माशे धनिया, पीपल, नागरमोथा, दुग्ध) में मिलावें और उसमें २० तोले खांड मिलाबसलोचन, सफेद जीरा, काला जीरा, और चातु कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो र्जात (दालचीनी, इलायची तेजपात, और नाग | ठण्डा करके चिकने बरतनमें भरकर रखदें। केसर समान भाग मिश्रित) का चूर्ण मिला।। इसमेंसे नित्यप्रति ५ तोले या २॥ तोले यह अम्लपित्त, अरुचि, रक्तपित्त, क्षय, शूल, खानेसे पुरुषत्व, निद्रा और बलकी वृद्धि होती तथा भौर वमनको नष्ट करता तथा पौरुषको बढ़ता है। | अम्लपित्त, रक्तपित्त, परिणाम शूल, और क्षयका (मात्रा-१ से २ तोलेतक । अनुपान–दूध ) । शीवही नाश हो जाता है । For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पाकमकरणम् ] तृतीयो भागः। [१८३] (३४७१) नारिकेलपाका मुलैठी और उटिंगणके बीजोंका चूर्ण मिला दीजिये __ (नपुं. अ. । त. ४) | और ठण्डा होनेपर ४० तोले शहद मिलाकर गोलकं नारिकेलस्य पाटयेच्च विधानतः। रखिये । पलाईमिक्षुरवीजानिस्तस्मिन्दत्वा विभावयेत्।। इसे दूधके साथ सेवन करनेसे नपुंस्कता दूर बटदुग्धेन सम्पूर्य दुम्चे वसुगुणे पचेत् । होती और वीर्य वृद्धि होती है। यह अत्यन्त चतुर्पले घृते भृष्ट्वा सिते प्रस्थे च मेलयेत् ॥ बाजीकर है। मात्रा ५ तोले । अथवा अग्निबलानुसार। संस्कृत्य विधिवत्पार्क चूर्णानेतान् क्षिपेत्ततः । (३४७२) नारिकेलामृतम् जातिपत्र लवङ्गश्च व जातिफलं तथा॥ | (भै. र.; धन्व. शूला.; वं. से.; र. र. । अम्लपित्ता.) गोक्षराकी शुण्ठी कपिफच्छु बलां त्वचम् । नारिकेलफलप्रस्थं सुपिष्टं भर्जितं घृते । मधुयष्टी चोचटां च चूर्ण कृत्वा च प्रक्षिपेत् ॥ | प्रस्थे प्रस्थं समादाय शुण्ठीचूर्णन्तु तत्समम् ॥ शीते मधुमदातव्यं कुडवैकप्रमाणतः। द्विपात्रं नारिकेलाम्बु तत्समं क्षीरमेव च स्निग्वे भाण्डे निधायाय मात्रा पलमिता भवेत्॥ धान्याश्च स्वरसप्रस्थं खण्डस्यापि तुलां न्यसेत्।। अथवामिबलं दृष्ट्वा ऽनुपानं पयसश्चरेत् ।। एकीकृत्य पचेत्सर्वं शनैर्मद्वग्निना भिषक् । वयिद्धिकर चैव षण्ढादिदोषनाशनम् ॥ सिद्धशीते प्रदातव्यं चूर्णमेपां मुशोभनम् ॥ नारिकेलस्य पाकोऽयं वाजीकरणमुत्तमम् ॥ | कटुत्रयश्चतुर्जातं प्रत्येकञ्च पलोन्मितम् । एक साबित नारयलका गोला लेकर उसमें से धात्री जीरकयुग्मश्च धान्यकं ग्रन्थिपर्णकम् ।। एक ओरसे जरासा टुकड़ा इस प्रकार काट लीजिये | तुगापयोदचूर्णानि त्रिकर्षाणि पृथक पृथक् । कि जिससे वह कटा हुवा टुकड़ा पुनः उसी जगह चतुःपलानि मधुनः स्निग्ये भाण्डे निधापयेत् ॥ ढकनेकी भांति लगाया जा सके । अब इस गोलेमें | शिवं प्रणम्य सगणं धन्वन्तरिमथापरम् । २॥ तोले तालमखानेके बीज भरकर उसे बड़के | कर्षप्रमाणं कर्त्तव्यं मुद्गपं पिबेदनु !! दूधसे मुंह तक भर दीजिये और मुंहको उक्त कटे | अम्लपित्तं निहन्त्युग्रं शूलश्चैव सुदारुणम् । हु टुकड़ेसे बन्द करके रख दीजिये । जब सब परिणामभवं शूलं पृष्ठशूलश्च नाशयेत् ।। दूध सूख जाय तो गोलेको ताल मखाने सहित अन्नद्रवभवं शूलं पार्श्वशूलं सुदुस्तरम् । पीसकर उससे ८ गुने गोदुग्धमें पकाइये और मावा अमिसन्दीपनकरं रसायनमिदं शुभम् ।। हो जाने पर उसे ४ पल (४० तोले) घीमें भून मूत्राघातानशेषांश्च रक्तपित्तं विशेषतः। लीजिये । अब १ प्रस्थ (८० तोले ) खांडकी पीनसश्च प्रतिश्यायं नाशयेनित्यसेवनात् ॥ चाशनीमें इस मावे को मिलाकर उसमें २॥२॥तोले रोगानीकविनाशाय लोकानुग्रहहेतवे । जावित्री, लौंग, बंग भस्म, जायफल, गोखरु, अकर- अश्विभ्यां निर्मितं श्रेष्ठं नारिकेलामृतं शुभम् ॥ करा, सेठ, कौचके बीज, खरैटी, दालचीनी, नारियलकी गिरी (खोपरा) १ प्रस्थ (८०तो.) For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त-भैषज्य रत्नाकरः । [ १८४ ] लेकर उसे पत्थर पर पीसकर २ सेर (१६० | तोले ) धीमें मन्दाभि पर भूनें, जब इसका रंग लाल हो जाय तो उसमें १ प्रस्थ सांठका चूर्ण, १६ सेर नायलका पानी; १६ सेर दूध और २ सेर आमलेका रस तथा ०० पल (६ । सेर) खांड मिलाकर पुनः मन्दाग्नि पर प्रकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतारकर ठण्डा करके उसमें १-१ पल (५-५ तोळे) सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसर तथा ३ - ३ कर्ष (३|| तोले) आमला, जीरा, काला जीरा, धनिया, भारत इति नकारादिपाकप्रकरणम् । (३४७३) नवनीतादियोगः ( वृ. नि. र.; वृं. मा. । अर्शो. ) नवनीततिलाभ्यासात्केसरनवनीतशर्कराभ्यासात् दधिसरमथिताभ्यासाद् गुदजाः शाम्यन्ति रक्त वहाः ।। [ नकारादि गठिवन, बंसलोचन और नागरमोथेका अत्यन्त महीन चूर्ण तथा ४ पल (४० तोले) शहद मिलाकर चिकने पात्र में भरकर रक्खें । नवनीत ( नौनीघृत - मक्खन) और तिल; अथवा नागकेसर, नवनीत और खांड को एकत्र मिलाकर या दहीके ऊपरकी मलाई को मथकर सेवन करने से रक्तज अर्श नष्ट होती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिदिन शिव, धन्वन्तरि आदिको प्रणाम करके इसमें से १ कर्ष (१| तोला) पाक मूंगके यूषके साथ सेवन करनेसे अम्लपित्त, भयङ्कर शूल, परिणामशूल, अन्नद्रवशूल, भयङ्कर पार्श्वशूल, अग्निमांद्य, मूत्राघात, विशेषतः रक्तपित्त प्रतिश्याय और पीनसादि रोग नष्ट होते हैं । इसके आविष्कारक श्री अश्विनीकुमार हैं । अथ नकारादिघृतप्रकरणम् (३४७४) नागदन्त्याद्यं घृतम् ( वं. से.; धन्व. । विषा. ) नागदन्ती ती नुपयः पलिकैः समैः । गवां मूत्राढके सिद्धं सर्पिः सर्वविषापहम् ॥ सर्पकीटविषार्त्तानां गरार्तानाञ्च शस्यते ॥ नागदन्ती, निसोत और दन्ती ५-५ तोळे तथा सेहुंड ( सेंड - थोहर ) का दूध १० तोले, गोमूत्र ८ सेर और घी २ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मूत्र जलने तक पकावें । तत्पश्चात् छानकर रक्खें । For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] सृतीयो भागः। [१८५] यह घी कीटविष, मूलविष, और गरविषादि । यह धृत आमवात ( गठिया) नाशक और हर प्रकारके विषको नष्ट करता है । | अग्निवर्द्धक है । ( मात्रा-१ से २ तोले तक ) (३४७५) नागरघृतम् (१) (३ ४७७) नागरादिघृतम् (वृं. मा. । आमाधिकार) (च. सं. । चि. अ. ८) नागरकाथकल्काभ्यां घृतपस्थं विपाचयेत् । नागरं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली । चतुर्गुणेन तेनाथ केवलेनोदकेन वा ॥ | श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वपाठायमानिकाः।। वातश्लेष्मप्रशमनमनिसन्दीपनं परम् । | चाङ्गेरीस्वरसे सर्पिः कल्कैरेतैर्विपाचयेत् । नागरं घृतमित्युक्तं कटग्रामशूलनाशनम् ॥ चतुर्गुणेन दध्ना च तद्धृतं कफवातनुत् ॥ सोंठका कल्क १३ तोले ४ माशे, घी २ सेर, अशीसि ग्रहणीदोपं मूत्रकृच्छू प्रवाहिकाम् । सोंठका काथ या पानी ८ सेर । सबको एकत्र गुदभ्रंशातिमानाहं घृतमेतद् व्यपोहति ॥ मिलाकर पानी जलने तक पकावें । तत्पश्चात् सोंट, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, गोखरु, घृतको छानकर रखलें। पीपल, धनिया, बेलगिरी, पाठा और अजवायन । यह धृत वातकफ, फटिशूल और आमशूल सब चीजें समान भाग मिश्रित तथा पानीके साथ नाशक तथा अग्निवर्द्धक है। ( मात्रा १ से २ पिसी हुई २० तोले, घी २ सेर, चारी (चूके) तोले तक) का स्वरस २ सेर, और दही ८ सेर । सबको नोट-काथके लिये-सोंठ ४ सर, पानी ३२ एकत्र मिलाकर जलांश जलने तक पकावें । तत्पसेर, शेष काथ ८ सेर । यदि पानी के श्चात् घृतको छानकर सुरक्षित रक्खें । साथ धृत पाक करना हो तो कल्क २० यह घृत कफ, वायु, अर्श, ग्रहणीदोष, मूत्रतोले डालना चाहिये। कृच्छ, प्रवाहिका (पेचिश), गुदभ्रंश (कांच निकलना) और आनाह को नष्ट करता है। (३४७६) नागरघृतम् (२) (q. मा. । आमा.) ( मात्रा १ से २ तोले तक । ) सपिर्नागरकल्केन सौवीरकचतुर्गुणम् । । (३४७८) नागराचं घृतम् सिद्धममिकरं श्रेष्ठमामवातहरं परम् ॥ (वं. से. । बालरो.) पानीके साथ पिसी हुई सोंठ २० तोले, नागरं सुवहा भाङ्गी नैचुलानि फलानि च । घी २ सेर, सौवीर काञ्जी (जौ से बनी हुई काञ्जी) कल्कैरक्षसमैरेतैः प्रस्थाधै सर्पिषः पचेत् ॥ ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर काञ्जी जलने द्विगुणेन जलेनैव जीर्णाहारः पिबेन्नरः । तक पकावें । तत्पश्चात् छानकर रक्खें । घृतमेतन्निहन्त्याशु कासश्वासापतन्त्रकान् । For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१८६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि - सोंठ, निसोत, भरंगी और हिजलके फल । पात्रे लोहमये त्र्यहं रविकरैरालोडयन्पाचयेत् । ११-१। तोला लेकर पानीके साथ पीस लें फिर अनी चानु मृदौसलोहशकलं पादस्थितं तत्पवेत्।। यह कल्क; १ सेर घी और २ सेर पानी एकत्र | पूतस्यांशः क्षीरतोंशस्तयांशोमिला कर पानी जलने तक पकावें। भार्गानिर्यासाद् द्वौ वरायास्त्रयोशाः। ___इसे भोजन पचने पर खिलानेसे बालकोंकी अंशाश्चत्वारश्चेह हैयंगवीनाखांसी, श्वास और अपतन्त्रक रोग नष्ट हो देकीकृत्यै तत्साधयेत्कृष्णलोहैः॥ जाता है। विमलखण्डसितामधुभिः पृथक ( मात्रा-३ से ६ माशे तक ।) युतमयुक्तमिदं यदि वा घृतम् । (३४७९) नागराचं यमकम् । | स्वरुचिभोजनपानविचेष्टितो भवति ना पलशः परिशीलयन् ॥ (वं. से. । उदररोगा.; च. सं. । अ. १८.; वृ. श्रीमान्निधूतपाप्मा वनमहिषषलो वाजिवेगः यो. त. । त. १०५) स्थिरा। नागरं त्रिफला प्रस्थं घृततैलं तथाढकम्। केशैभृकाल्नीलैमधुसुरभिमुखो नैकयोषिभिषेवी।। मस्तुना साधयित्वा तु पिवेत्सर्वोदरापहम् ।। वाङ्मेधाधीसमृद्धःसपटुहुतवहोमासमारोपयोगात् कफमारुतसम्भूते गुल्मे चैव प्रशस्यते । धत्तेऽसौ नारसिंह वपुरनलशिखातप्तचामीकसोंठ और त्रिफलाका समान भाग मिश्रित रामम् ॥ कल्क १ सेर, घी ४ सेर, और तिलका तेल ४ सेर अत्तारं नारसिंहस्य व्याधयो न स्पृशन्त्यपि । तथा मस्तु ( दहीका तोड़ अर्थात् २ गुना पानी चक्रोज्ज्वलभुजं भौता नारसिंहमिवासुराः ।। मिलाकर बनाया हुवा तक) ३२ सेर लेकर सबको । खैरसार, चीता, सीसम, असन, हरे, बायएकत्र मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो बिडंग, बहेड़ा, और शुद्ध भिलावा, समान भाग स्नेहको छान लें। मिलाकर १ सेर लें और सबको पीसकर १८ सेर ___ यह यमक कफवातज गुल्म और सर्व प्रकार पानीमें लोह पात्रमें भिगोदें एवं साथ ही उसमें के उदर रोगोंको नष्ट करता है। थोड़ेसे लोहेके टुकड़े भी डाल दें । इसे ३ दिन ( मात्रा--१ से २ तोले तक । ) तक धूप में रक्खा रहने दें और रोज़ २-४ बार (३४८०) नारसिंहघृतम् (१) अच्छी तरह चला दिया करें । तत्पश्चात् उसे (वा. भ. । उ. अ. ३९) लोहेके टुकड़ों समेत मन्दाग्नि पर पकावें । जब ४॥ गायत्रीशिखिशिंशपासनशिवावेल्लाक्षकारुष्करान् सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें । तत्पश्चात् पिष्ट्वाऽष्टादशसंगुणेऽम्भसि धृतान्रखण्डैः सहा- इसमें ४।। सेर दूध, ९ सेर भंगरेका काथ, १३॥ योमयैः ॥ । सेर त्रिफलेका रस और १८ सेर नवनीत (नौनी) For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतीयो भागः। [१८७] घी मिलाकर लोहपात्रमें पकावें । जब घृत मात्र अनेन च भवत्याशु नरः सिंहपराक्रमः । शेष रह जाय तो उसमें स्वच्छ खांड, मिश्री भवत्यश्व जवश्चैव हेमवर्णश्च जायते ॥ या शहद ४॥ सेर मिलाकर अथवा बिना किसी नारसिंहमिति ख्यातं घृतं बलविवर्धनम् ॥ चीज़के मिलाये ही सेवन करें। मात्रा ५ तोले । चीता, शुद्ध भिलावा, शीसमका चूर्ण, खैर___ इसके सेवनसे मनुष्य शोभायुक्त, कालुष्य सार, हर्र, बायबिडंग, जीवक और बहेड़ा १०-१० रहित, बनैले भैसेके समान बलवान् , घोड़ेके । पल ( हरेक ५० तोले ) लेकर सबको ३२ सेर समान वेगवान् और स्थिराङ्ग हो जाता है। पानीमें लोहपात्रमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष इसे केवल एक मास तक ही सेवन करने से केश । रह जाय तो उसे छानकर उसमें थोड़ेसे लोहेके भ्रमरके समान काले, मुख सुगन्धि युक्त सुन्दर, टुकड़े डालकर रखदें और फिर ३ दिन पश्चात् और वाक्शक्ति, मेधा, बुद्धि तथा जठराग्नि तीब्र हो उसमें २४ सेर शतावरका रस, २४ सेर आमले जाती है । इसके अभ्यासी के शरीर पर व्याधियां | का रस, २४ सेर भंगरेका रस और २४ सेर अपना प्रभाव नहीं जमा सकती । बकरीका दूध तथा ८ सेर घी मिलाकर पकावें । (३४८१) नारसिंहघृतम् (२) जब घृत मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। इसमें से नित्य प्रति ५ तोले घी में १। (ग. नि. । घृता.) तोला शहद, खांड या गुड़ मिलाकर अथवा बहिर्भल्लातकं चैव शिशपा खदिरं तथा । बिना कुछ मिलाये ही सेवन करने से स्त्री सम्भोगहरीतकीविडङ्गानि जीवकञ्च तथाऽक्षकम् ॥ रत मनुष्योंको अन्धता, अग्निमांद्य, और बलि एषामाहत्य भागांस्तु सम्यग्दशपलोन्मितान् । पलितादि रोग नहीं होते। इसके सेवनसे मनुष्य जलद्रोणे युतं कृत्वा लोहभाण्डे निधापयेत् ॥ शीघ्र ही सिंह सदृश पराक्रमी, घोड़ेके समान वेगलोहभाण्डे पवेत्तावधावत्पादावशेषितम् ।। | वान् और स्वर्ण सदृश कान्तिमान् हो जाता है । कार्थ लोहयुतं कृत्वा स्थापयेदिवसत्रयम् ॥ ___इसके सेवनकालमें वायु, आतप इत्यादि त्रिगुणं तु शतावर्या रसं धाश्याश्च निक्षिपेत् । किसी चीजसे परहेज़ करनेकी आवश्यकता नहीं है। निक्षिपेत्रिगुणं चात्र भृगराजरसं शुभम् ॥ छागक्षीरं च तत्रैव त्रिगुणं च नियोजयेत् ।। ( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ तोले तक) पक्त्वा घृताढकं तेन मधुना सितयाऽथवा ॥ (३४८२) नाराचकं घृतम् गुडेन वा पिबेत्साध केवलं वा पलोन्मितम । (ग. नि. । घृता.; वृ. यो. त. । त. १०५; न किश्चित्परिहार्य स्याद्वातातपनिषेवणम् ॥ वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र.; भै. र.; अजीर्णे पिवतश्चापि वनितासेविनस्तथा।। धन्वं. । गुल्मा.) नान्धता नामिहानिश्च न वलीपलितं भवेत् ॥ चित्रकं त्रिफला दन्ती त्रिता कण्टकारिका। For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - -- [१८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि स्नुहीक्षीरविडङ्गानि घृतं दशममुच्यते ॥ शशिन्यतिविषाव्योपमजमोदा निशाद्वयम् ।। एकैकस्य च कर्षण घृतस्य कुडवं पचेत् । दन्ती च कार्षिक सर्व गोमूत्रस्य पलाष्टकम् । चतुर्गुणेन तोयेन सम्यगेतत्सुखाग्निना ॥ चतुःपलं स्नुहीक्षीरं राजवृक्षफलं तथा ॥ अस्य मात्रां पिबेत्काले पलार्द्धन च सम्मिताम् । एतैश्चतुर्गणे तोये घृतप्रस्थं विपाचयेत् । उष्णोदकश्चानु पिबेद्विरेकार्थ पिबेन्नरः॥ उदरं चामवातश्च प्लीहगुल्मभगन्दरान् । पिबेद् यवागू हविषा पेयां वा क्षीरसाधिताम् । निहन्त्यचिरयोगेन गृध्रसी स्तम्भमूरुजम् । वातगुल्ममुदावते प्लीहाझे बध्नकुण्डलम् ॥ | वृहन्नाराचकन्नाम घृतमेतद्यथामृतम् ॥ ग्रहणीं दीपयेन्मन्दा कुष्ठदोषांश्च नाशयेत् ।। लोध, चीता, चव, बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा नाराचकमिदं सर्पिः ख्यातं नाराचसन्निभम् ॥ आमला, निसोत, शङ्खिनी, अतीस, सोंठ, मिर्च, चीता, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्ती, निसोत, | पीपल, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी और दन्तीमूल; कटेली, और बायबिडंग; हरेक वस्तु १।-१। तोला | प्रत्येक १। तोला । तथा सेंड (सेंहुण्ड, थोहर) तथा सेंड (सेहुंड--थोहर) का दूध २॥ तोले लेकर | का दूध ४० तोले और अमलतासका गूदा २० सबको पानीके साथ पीसकर कल्क बनावें । फिर ४० ! तोले लेकर पानीके साथ पीस लें । तत्पश्चात् तोले घीमें यह कल्क और २ सेर पानी मिलाकर २ सेर धीमें ८ सेर पानी, १ सेर गोमूत्र और मन्दाग्नि पर पकार्वे । जब पानी जल जाय तो यह कल्क मिलाकर घृत मात्र शेष रहने तक घी को छान लें। पकावें । पश्चात् छानकर सुरक्षित रक्खें । इसे २॥ तोलेकी मात्रानुसार पीने से विरे- इससे विरेचन होकर उदररोग, आमवात, चन हो जाता है । विरेचन होनेके बाद घृत- | प्लीहा, गुल्म, भगन्दर गृध्रसी और ऊरुस्तम्भादि युक्त यवागु या दूधसे बनी हुई पेया पीनी रोग नष्ट होते हैं । ( मात्रा-१ तोला तक) चाहिये। (३४८४) नारायणघृतम् ___ इसके सेवन से वात, गुल्म, उदावर्त, प्लीहा, अर्श, अन, वातकुण्डलिका, और कुष्ठ नष्ट होता ( मै. र.; यो. र.; वृ. नि. र.; । अम्लपित्त.) तथा ग्रहणी दीप्त होती है । जलैर्दशगुणैः काथ्यं पिप्पलीपलषोडश । ___ अनुपान-उष्ण जल । ( व्यवहारिक मात्रा। पादशेषं हरेत्काथं कायतुल्यं घृतं पचेत् ॥ १ तोला तक) रसप्रस्थं गुड्डूच्याश्च धात्र्याः षष्टिपलं रसम् । द्राक्षाधात्रीपटोलश्च विश्वश्च कटुका वचा ॥ (३४८३) नाराचघृतम् ( वृहद् ) पलप्रमाणं कल्कञ्च दत्त्वा सर्पिः समुद्धरेत् । (भै. र.; र. र. । उदर.) अम्लपित्तं हरं खादेद्दाहच्छर्दिनिवारणम् ॥ लोधचित्रकचव्यानि विडङ्गं त्रिफला त्रिवत् । । असाध्यं साधयेत्सद्यो नाम्ना नारायणं घृतम् ।। For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतीयो भागः। । १८९ ] १ सेर पीपलको २० सेर पानी में पकायें। संचूर्णितं क्षीरदधिसमेतं और ५ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । घृतं विपकं परिषेचने च । तत्पश्चात् इसमें ५ सेर घी, २ सेर गिलोयका हितं च कुष्ठक्षतदद्रुरक्त रस, ७॥ सेर आमलेका रस तथा ५-५ तोले पामाविचर्चिविनिहन्ति कण्डम् ॥ दाख ( मुनक्का), आमला, पटोल, सोंठ, कुटकी नीम, पटोल, चिरायता, चमेलाके पत्ते, इन्द्राऔर बचका कल्क मिलाकर पकार्वे । जब पानी यन, पुनर्नवा और नागरमोथा समान भाग मिश्रित जल जाय तो घीको छान लें।। २ सेर लेकर १६ सेर पानीमें पकावें, जब ४ सेर यह घी कष्टसाध्य अम्लपित्त, दाह और पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें ४ सेर दूध, छर्दि को शीघ्र नष्ट कर देता है । ४ सेर दही, ४ सेर घी, ४ सेर लाक्षारस और (मात्रा-१ से २ तोले तक ।) । बासा, त्रायमाणा, बेलछाल, कूठ और मुलैठीका (३४८५) नारीक्षीराचं घृतम् समभाग मिश्रित २० तोले चूर्ण मिलाकर पकावें । ___ यह घृत लगानेसे कुष्ठ, क्षत, दाद, रक्तदोष, (वं. से. । हिक्का.) पामा, विचर्चिका और कण्डूका नाश होता है। नारीक्षीरेण वा सिद्धं सर्पिर्मधुरकैरपि। नोट-लाक्षा रस बनानेकी विधि भा. भै. र. नासा निषिक्त पति वासघा हिका नियच्छति।। प्रथम भागके ३५३ पृष्ठ पर देखिये । स्त्रीके दूध और मधुरादिगण के कल्कके (३४८७) निम्बादितम् (२) साथ सिद्ध घृत पीने यो उसकी नस्य लेनेसे हिचकी (भा. प्र. । ख. २. मसू.) शीघ्रही बन्द हो जाती है। ( मात्रा-१ से २ तोले तक ।) चतुर्गुणेन निम्बोत्थपत्रकाथेन गोघृतम् । (३४८६) निम्बादिघृतम् (१) पचेत्ततस्तु निम्बस्य कृतमालस्य पत्रजैः ॥ कल्कैर्भूयः पचेत्सिद्धं तत्पिबेत्पलसम्मितम् । (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४२) पधिनीकण्टकाद्रोगान्मुक्तो भवति नान्यथा ॥ निम्बं पटोलं च किरातकश्च नीमके पत्तोंका काथ ४ सेर, गोघृत १ सेर, जाती विशाला सपुनर्नवा च । और नीम तथा छोटे अमलतासके पत्तोंका कल्क ६ पयोदलाक्षारसमेव वासा तोले ८ माशे लेकर एकत्र मिलाकर पकावें । जब त्रायन्तिका बिल्वककुष्ठयष्टिः॥ समस्त काथ जल जाय तो घीको छानकर उसमें १. मधुरादि गण-काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, उपरोक्त काथ और कल्क मिलाकर पुनः पकावें । ऋषभक, ऋद्धि,वृद्धि, मेदा, महामेवा, गिलोय, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, पद्माक, बंसलोचन, काकड़ासिंगी, पुण्डरिया, इसे ५ तोलेकी मात्रानुसार पीनेसे पभिनीजीवन्ती, मुलेठी, और दाख (मुनका)। कण्टक रोग दूर होता है। For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [१९०] (३४८८) निम्बादिघृतम् (३) ( वा. भ. । चि. अ. २१ ) निम्बामृतावृषपटोलनिदिग्धिकानाम् भागान्पृथग्दशपलान्विपचेद् घटेऽपाम् | अष्टांशशेषितरसेन पुनश्च तेन प्रस्थं घृतस्य विपचेत्पिचुभागकल्कैः ॥ पाठाविडङ्गसुरदारुगोपकुल्या - भैषज्य-र भारत द्विक्षारनागरनिशामिशिचव्यकुष्ठैः । तेजोवतीमरिचवत्सकदीप्यकानिरोहिण्यरुष्करबचाकणमूलयुक्तैः ॥ मञ्जिष्ठयातिविषया विषया यवान्या संशुद्धगुग्गुलुपलैरपि पञ्चसंख्यैः । तत्सेवितं प्रधमति प्रबलं समीरम् सन्ध्यस्थिमज्जगतमप्यथकुष्ठमीदृक् ॥ नाडीव्रणार्बुदभगन्दरगण्डमाला जनूर्ध्वसर्वगदगुल्मगुदोत्थमेहान् । यक्ष्मारुचिश्वसनपीनसकासशोफ हृत्पाण्डुरोगमदविद्रधिवातरक्तम् || नीमकी छाल, गिलोय, बासा, पटोल और कटेली । १०-१० पल ( हरेक ५० तोले ) लेकर सबको ३२ सेर पानी में पकावें जत्र ४ सेर पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें २ सेर घी और निम्न लिखित चीजोंका कल्क मिलाकर पकावें । कल्क द्रव्य-पाठा, बायबिडंग, देवदारु, गजपीपल, यवक्षार, सज्जीखार, सांट, हल्दी, सौंफ, चव, कूठ, मालकंगनी, काली मिर्च, इन्द्रजौ, अजमोद, चीता, कुटकी, शुद्धभिलावा, बच, पीपलामूल, मजीठ, अतीस, कलिहारीकी जड़ और अजवा -- रत्नाकरः । [ नकारादि यन । हरेकका चूर्ण १| तोला । तथा शुद्ध गूगल २५ तोले । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सबको एकत्र मिलाकर पकायें। जब काथ जल जाय तो घीको छानलें । इसके सेवन से अग्निदीप्त होती; और सन्धि, अस्थि तथा मज्जागत कुष्ठ, नाडीव्रण ( नासूर ), अर्बुद, भगन्दर, गण्डमाला, ऊर्ध्वजत्रुगत (गंलेले ऊपरके) समस्त रोग, गुल्म, अर्श, प्रमेह, यदमा, अरुचि, श्वास, पीनस खांसी, शोभ, हृद्रोग, पाण्डु, मद, विधि और वातरक्तका नाश होता है । ( मात्रा --- १ से २ तोले तक । ) (३४८९) निर्गुण्डीघृतम् (१) (वं. से. । कासा. ) निर्गुण्डीपत्रस्वरसेन सिद्धं सर्पिः कफोत्थं विनिहन्ति कासम् ॥ संभालुके पत्तों का स्वरस ४ सेर और १ सेर मिलाकर पकावें और घृतमात्र शेष रहने पर छान लें। इसके सेवन से कफज खांसी नष्ट होती है। ( मात्रा - १ से २ तोले तक ) (३४९० ) निर्गुण्डीघृतम् (२) ( ग. नि.; च. द. । राजयक्ष्मा. ) समूलपत्रनिर्गुण्डीरसपकं घृतं पिबेत् । क्षतक्षीणो भवेच्छोषी सर्वातकविवर्जितः ॥ मूल और पत्र सहित संभालुको कूटकर ४ For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] तृतीयो भागः। [१९१] सेर रस निकालें अथवा ४ सेर संभालको १६ सेर | कल्कैरिन्द्रयवव्योषत्वग्दारुचतुरङ्गलैः । पानीमें पकाकर ४ सेर शेष रहने पर छान लें। पारावतपदीदन्तीवाकुचीकेशराहयैः ॥ तत्पश्चात् इस स्वरस या काथमें १ सेर घी मिला- कण्टकार्या च तत्पकं घृतं कुष्ठिषु योजयेत् । कर घृतमात्र शेष रहने तक पकाकर छान लें। दोषधात्वाश्रितं पानादभ्यङ्गात्त्वग्गतं तथा ॥ इसके सेवनसे क्षत, क्षीण और शोषी रोगमुक्त अप्यसाध्यं नृणां कुष्ठं नाम्ना नील नियच्छति ॥ हो जाता है। मकोय, कठूमर, और कुटकी, १००-१०० (३४९१) निशादिघृतम् पल (हरेक ६। सेर), लोह चूर्ण २ सेर तथा त्रिफला १२ सेर ( हरेक ४ सेर ) लेकर सबको (वृ. नि. र.; वं. से. । उन्माद.) कूटकर ९६ सेर पानी में पकावें; जब ४८ सेर निशायुकत्रिफलाश्यामावचासिद्धार्थहिङ्गमिः। । पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें १२ सेर शिरीषकटमिश्वेतामञ्जिष्ठाव्योपदारुभिः॥ घी और निम्न लिखित ओषधियों का कल्क मिलासमै कृतं घृतं मूत्रे सिद्धमुन्मादनाशनम् ॥ | कर पकावे । जब सब पानी जल कर पकावें । जब सब पानी जल जाय तो घीको हल्दी, दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, छान लें। निसोत, बच, सफेद सरसों, हींग, सिरसकी छाल, कल्क-इन्द्रजौ, सोंठ, मिर्च, पीपल, दालमालकंगनी, श्वेतापराजिता, मजीठ, सांठ, मिर्च, चीनी, देवदारु, अमलतास, मालकंगनी, दन्ती, पीपल, और देवदारु का समान भाग मिश्रित चूर्ण बाबची, नागकेसर और कटैली । हरेक ६ तोले ८ १० तोले तथा १ सेर घी और ४ सेर गोमूत्र माशे लेकर पानीकी सहायतासे खूब बारीक पीसलें। लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब मूत्र इसके पीनेसे धातुगत और मालिश करनेसे जल जाय तो घृतको छान लें । त्वचागत कुष्ठ नष्ट होता है। इसके सेवनसे उन्माद नष्ट होता है। (३४९३) नीलिन्यादिघृतम् ( मात्रा-१ से २ तोले तक।) (च. सं. । चि. अ. ५; वा. भ. चि. अ. १४) (३४९२) नीलघृतम् नीलिनी त्रिवृतां रास्नां बलां कटुकरोहिणीम् । (सु. सं. । चि. कुष्ठा.) पचेद्विडा व्याघ्रीच पालिकानि जलाढके ।। वायसीफल्गुतिक्तानां शतं दत्त्वा पृथक् पृथक् । तेन पादावशेषेण घृतपस्थं विपाचयेत् । हे लोहरजसः प्रस्थे त्रिफला व्याढकन्तथा ॥ दनः प्रस्वेन संयोज्य सुधाक्षीरपलेन च ॥ विद्रोणेऽपा पचेचावद्भागौ द्वावसानादपि। ततो घृतपलं दद्याधवागूमण्डमिश्रितम् ।। शिष्टा विपचेद्भूय एतैः श्लक्ष्णप्रपेषितैः॥ । जीणे सम्यग्विरिक्तश्च भोजयेद्रसभोजनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १९२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि गुल्मकुष्ठोदरव्यङ्गशोफपाण्ड्वामयज्वरान् । त्रिफला ४ सेर,लोहचूर्ण २ सेर, सफेद चौंटली, श्वित्रं प्लीहानमुन्माद घृतमेतद्वयपोहति ॥ काकमाची (मकोय) और शहिनी (श्वेत अपराजिता) नीलकीजड़, निसोत, रास्ना, खरैटी, कुटकी, हरेक ६। सेर लेकर सबको ६४ सेर पानीमें पकावें बायबिडंग और कटैली ५-५ तोले लेकर सबको जब १६ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। इसमें २ ८ सेर पानीमें पकावें । जब २ सेर पानी शेष रह सेर घी और निम्न लिखित चीजोंका कल्क मिलाजाय तो छानकर उसमें २ सेर घी, २ सेर दही, कर काथ जलने तक पकावें। तथा १० तोले सेंड (सेहुंड-थोहर) का दूध कल्कद्रव्य-बरनेकी छाल, इन्द्रजौ, सांठ, मिलाकर पुनः पकावें । जब पानी जल जाय तो | मिर्च, पीपल, देवदारु, कटेली, भंगरा, और माल धीको छानलें। कंगनी । सब समान भाग मिश्रित १३ तोले इसमें से ५ तोले घृत यवागू या मण्डमें ४ माशे । मिलाकर पिलावें और विरेचन होनेके बाद पथ्य इसे पिलाने और इसकी मालिश करानेसे भोजन करावें। श्वेतकुष्ठ, पामा, विचर्चिका, सिध्म ( छीप) और इसके सेवनसे गुल्म, कुष्ट, उदररोग, व्यङ्ग, किटिभादि कुष्ठ नष्ट होते हैं । शोथ, पाण्डु, ज्वर, श्वेतकुष्ठ, प्लीहा और उन्मादादि (३४९५) नीलोत्पलादिघृतम् रोग नष्ट होते हैं। (वृं. मा.; च. द. । योनि.) (व्यवहारिक मात्रा-१ तोला ) नीलोत्पलोशीरमधूकयष्टी (३४९४) नीलीघृतम् द्राक्षाविदारीकुशपञ्चमूलैः। (वं. से. । कुष्ठ.; ग. नि. । घृता.) स्याज्जीवनीयैश्च घृतं विपकं त्रिफलाढकं तथा प्रस्थावयसोरजसो मतौ। शतावरीकारसदुग्धमिश्रम् ॥ वायसीकाकमाचीभ्यां द्वे तुले शङ्खिनी तुला ॥ | तच्छर्करापादयुतं प्रशस्तद्वि द्रोणेऽपां पचेदेतत्पादभागावशेषितम् । मसग्दरे मारुतरक्तपित्तजे । घृतप्रस्थं तु विपचेद्गर्भे चैतत्समाचरेत् ॥ | क्षीणे बले रेतसि च प्रणष्टे वरुणं वत्सकफलं त्र्यूषणं देवदारु च । कृच्छ्रे च पित्तप्रभवे च गुल्मे ॥ निदग्धिकां भृङ्गराजं पारावतपदीमपि ॥ नील कमल, खस, मुलैठी, द्राक्षा ( मुनक्का), नीलकं नामविख्यातं घृतं कुष्ठविनाशनम् । बिदारीकन्द, कुशकी जड़, काशकी जड़, शरकी जड़, श्वित्राणि रञ्जयेच्चैतत्पानाभ्यञ्जनयोजितम् ॥ दाभकी जड़ और ईखकी जड़, जीवन्ती, काकोली, पामाविचर्चिकासिमकिटभानि च नाशयेत् ॥ क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, जीवक, For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृतमकरणम् तृतीयो भागः। [१९] - ऋषभक, मुदग्पर्णी, माषपणी और मुलैठी । सब । शाली चावलेोके भातमें यह घी डालकर खिलाना चीजें समान भाग मिश्रित १० तोले लेकर सबको हितकारक है। पानीके साथ पीसकर कल्क बनावें । तत्पश्चात् १ (३४९७) न्यग्रोधाचं घृतम् सेर घी में यह कल्क, ४ सेर शतावरका रस और १ सेर दूध मिलाकर पकावें । जब घृत मात्र शेष (भै. र.; धन्व. । स्त्री.) रह जाय तो उसमें २० तोले खांड मिलाकर न्यग्रोधाश्वत्यपार्थामृतवृषसुरक्षित रक्खें । कटुकाप्टक्षजम्वृमियालाः । इसे सेवन करनेसे रक्त प्रदर, वात प्रधान रक्त- श्योनाकोदुम्बराख्या मधुकपित्त, मूत्र कृच्छू और पित्तज गुल्म नष्ट होता है। ___ तरुबलावेतसं केन्दनीपौ। जिनका मल वीर्य नष्ट हो गया है उनके रोहीतं पीतसारं विधिविहि तहतं सर्वमेषां तरूणाम् । लिये यह घृत हितकारी है। प्रत्येकं बल्कलं तधुगपल(३४९६) न्यग्रोधादिघृतम् मखिलं क्षोदयित्वामिषग्भिः ॥ (ग. नि. । कासा.) कार्य द्रोणाम्भसातदृढविमल कटाहेऽपि पादावशेषम् । न्पोधोदुम्बराश्चत्यप्लक्षशालप्रियङ्गुभिः।। | सर्पिः प्रस्थन्तु पाच्यं पचनतालमस्तकजम्बृत्वकप्रियालैश्च सपद्मकैः ।। कुशलिना मन्दमन्दानलेन ।। साश्वगन्धैः मृतात्तीरादधाञ्जातेन सर्पिषा । प्रस्थं धात्रीरसानां विधिविहिशास्योदन क्षतोरस्कक्षीणशुक्रश्चमानवः ।। तजलप्रस्थमेका शालेबड़, गूलर, पीपल वृक्ष, पिलखन, और शाल दत्त्वा व्यक्षन्तु कल्क मधुकवृक्ष । इन सबकी छाल तथा फूल प्रियङ्गु, ताल- मपि मधोः पुष्पखर्जूरदावीमस्तक, जामनकी छाल, प्रियाल ( चिरौंजीके वृक्ष) | जीवन्तीकाश्मरीणां फलमपि की छाल, पभाक, और असगन्ध । सब चीजें समान युगल क्षीरकाकोलियुग्मम् । भाग मिश्रित १ सेर लेकर अधकुटा करके सबको | रक्ताख्यं चन्दनं यत्तदपर-- १६ सेर दूध और ६४ सेर पानीमें एकत्र मिला ममलं काश्चन शारिवा च कर पानी जलने तक मन्दाग्नि पर पकावें । तत्पश्चात् न्यग्रोधाचं घृतं ह्येतद्देहं प्राप्यामृतायते । दूधको छानकर उसका दही जमादें और उससे दुस्तरं प्रदरं हन्ति नील रक्तं सितासितम् ।। घृत निकालें। । योनिशुलकुक्षिशूलवस्तिशूलं सुदुस्सहम् ।। उरःक्षत और शुक्रकी क्षीणता वाले गेगीको १-चाजनमिति पाठ भेदः For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१९४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि - आदाई योनिदाहमक्षिकुक्षिभवञ्च यम् ॥ लोंका धोवन) तथा निम्न लिखित चीजोका कल्क मन्ददृष्टिमश्रुपातं तिमिरं वातसम्भवम् । एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब समस्त आध्मानानाहशूलघ्नं वातपित्तप्रकोपजित् ॥ | पानी जल जाय तो घीको छान लें । अम्लपित्तश्च पित्तश्च योनिरोगं विनाशयेत् । ___कल्कद्रव्य-मुलैठी, महुवेके फूल, खजूर, दृष्टिप्रसादजननं बलवर्णाग्निकारकम् ॥ | दारुहल्दी, जीवन्ती और खम्भारीके फल, काकोली, बड़की छाल, पीपल वृक्षकी छाल, अर्जुनकी क्षीरकाकोली, लाल चन्दन, सफेद चन्दन, नागछाल, गिलोय, बासेकी जड़की छाल, कुटकी, केसर और सारिवा । हरेक ३ कर्ष (३॥ तोले) पिलखनकी छाल, जामनकी छाल, प्रियाल (चिरौं- लेकर पानीके साथ पीस लें। जीके वृक्ष ) की छाल, श्योनाक (अरलु ) की छाल, गूलरकी छाल, महुवेकी छाल, बला (खरैटी) ___ इसके सेवन से नीला, लाल, श्वेत और काला की जड़की छाल, बेतस, तेंदूकी छाल, कदम्ब की / इत्यादि हर प्रकारका कष्टसाध्य प्रदर, योनिशूल, छाल, रहेढे (रोहितक) की छाल, और अङ्कोल ! कुक्षिशूल, भयङ्कर बस्तिशूल, अङ्गदाह, योनिदाह, की छाल २-२ पल (१०-१० तोले) लेकर आंखोकी जलन, कुक्षिदाह, दृष्टिकी मन्दता, अश्रुसबको कूट कर ३२ सेर पानीमें स्वच्छ कढ़ावमें | पात, वातज तिमिर रोग, आध्मान, आनाह, शूल, पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो वातपित्त प्रकोप, अम्लपित्त और योनिरोग नष्ट उसे छान लें। हो कर बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती तथा तत्पश्चात् यह काथ, २ सेर घी, २ सेर दृष्टि स्वच्छ हो जाती है । आमलेका रस, और २ से तण्डुलोदक ( चाव- ( मात्रा-१ से २ तोले तक ।) इति नकारादिघृतपकरणम् । -onto-- अथ नकारादितैलप्रकरणम् (३४९८) नताचं तैलम् तगर, बनभंट्टा (बड़ी कटैली), कूठ, सेंधा (वं. से. । स्त्रीरो.; . मा.; भा. प्र.: ग. नि. I और देवदारु का समान भाग मिश्रित कल्क १३ योनि. ) तोले ४ माशे । तिलका तैल २ सेर तथा उपरोक्त नतवार्ताकिनीकुष्ठसैन्धवामरदारुभिः। चीजोंका काथ ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलातैलमसाधितो धार्यः पिचुर्योनौ रुजापहः ॥ कर पकावें और पानी जल जाने पर तैलको छानले। १-तण्डलोदक बनानेकी विधि भारत भै. र. भा. १ के पृष्ठ ३५३ पर देखिये । For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैलमकरणम् ] तृतीयो भागः। [१९५] इसमें फाया भिगोकर योनिमें रखनेसे योनि- अर्कसुपकपलाशरसेन शूल नष्ट होता है। कर्णरुजं वधिरं विनिहन्ति ॥ ( यह योग विप्लुता योनिमें हितकर है।) सोंठ, सेंधा नमक, पीपल, नागरमोथा, हींग, (३४९९) नागबलातैलम् | बच और ल्हसन समान भाग मिश्रित १० तोले (वृ. नि. र.; भा. प्र.; वं. से.; ग. नि.; वृं. मा.; लेकर पीसकर कल्क बनावें फिर २ सेर तिलके च. द. । वातरक्ता.) तैलमें ४-४ सेर आक और ढाक (पलाश ) के पत्तांका रस तथा यह कल्क मिलाकर समस्त रस शुद्धां पचेभागवलां तुलान्तु जलने तक पकावें । तत्पश्चात् छान कर सुरजलार्मणे पादकषायशेषे । क्षित रक्खें। विसाव्य तैलाढकमत्र दद्यादजापयस्तैलविमिश्रितन्तु ॥ इसे कानमें डालनेसे कर्णपीड़ा और बधिरता नतस्य यष्टीमधुकस्य कल्क नष्ट होती है। पृथक्पचेत्पश्चपलं विपकम् । नोट--यदि आक और पलाशका स्वरस न मिले तद्वातरक्तं शमयत्युदीर्ण तो इनका काथ डालना चाहिये और उस बस्तिपदानेन हि सप्तरात्रात् ॥ दशामें कल्क १३ तोले ४ माशे लेना पीतं दशाहेन करोत्यरोगं चाहिये । तैलं स्मृतं नागबलाहमेतत् ॥ नागराद्यं यमकम् १ सुला ( ६। सेर ) नागबला ( गंगेरन ) (. मा.; वृ. नि. र. । उदर.) को ३२ सेर पानीमें पकावें जब ८ सेर पानी शेष । रह जाय तो छानकर उसमें ८ सेर तैल, ८ सेर घृतप्रकरणमें देखिये। बकरीका दूध और ५-५ पल (२५-२५ तोले) (३५०१) नारायणतैलम् (१) तगर तथा मुलैठीका कल्क मिलाकर पुनः पकावें। (हा. सं. । स्था. ३ अ. २३) जब समस्त पानी जल जाय तो तैलको छान लें। इसकी बस्ति देनेसे ७ दिनमें और इसे पिला स्योनाकः पाटला बिल्वं तर्कारी पारिभद्रकम् । नेसे १० दिनमें वातरक्त रोग नष्ट होता है । | अश्वगन्धा कण्टकारी प्रसारिणी पुनर्नवा ॥ श्वदंष्ट्रातिबला चैव बला च समभागिकी। (३५००) नागरादितैलम् पादशेष जलद्रोणे कथितं परिस्रावयेत् ॥ (वृ. नि. र.; यो. र. । कर्ण. ) ततश्चेमानि योज्यानि भेषजानि भिषग्वरैः । नागरसैन्धवमागधिमुस्ता शतपुष्पा वचा मांसी दारु शैलेयक बला॥ हिङ्गवचालशुनं तिलतैलम् । पतङ्गं चन्दनं कुष्ठं तथान्य रक्तचन्दनम् । For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि - - करञ्जबीजांशुमती त्रिसुगन्धिपुनर्नवा ॥ यह तैल वातव्याधि, अपस्मार, ग्रहदोष, रास्ना तुरजगन्धा च सैन्धवं च दुरालभा। | शिरोरोग, कर्णरोग और १८ प्रकारके कुष्टांको मजिष्ठा सुरसा चैतत् प्रत्येकन्तु पलद्वयम् ॥ | नष्ट करता है। चूर्ण कृत्वा क्षिपेत्तत्र क्षिपेल्लाक्षारसाढकम्। इसके सेवनसे वन्ध्या स्त्री को पुत्र प्राप्त होता शतावरीरसं चैव अजाक्षीरं चतुर्गुणम् ॥ । है, नपुंसक मनुष्य पौरुष युक्त, वृद्ध युवाके समान दधितषाढकं गव्यं तिलतैले प्रयोजयेत् ।। | और मूर्ख विद्याप्राप्ति में तत्पर हो जाता है। सिदं तत्र प्रदृश्येत ततो मालवाचनम् ॥ (नोट-लाखका रस बनानेकी विधि भा. भै. र. पतिक्षेनं प्रतिष्ठाप्प नारायणमिति स्मृतम् । प्रथम भाग पृष्ठ ३५३ पर देखिये । ) हन्ति वातविकारांश्च अपस्मारं ग्रहांस्तथा ।। शिरोरोगान् कर्णरोगान् कुष्ठान्यष्टादशान्यपि। (३५०२) 'नारायणतैलम् (मध्यम) बन्ध्या च लभते पुत्रं षण्ढोऽपि पुरुषायते ॥ (शा. ध । म. अ. ९; वृ. नि. र.; च. द.; वृ. बुदो युवायते मूों विचाराधनतत्परः । ___मा.; धन्व.; र. र.; भा. प्र. । वातव्या.; नारायणमिदं तैलं कृष्णात्रयेण भाषितम् ॥ ग. नि. । तैला.) भरल, पाढल, बेलछाल, अरनी, नीमकी | अश्वगन्धा वला बिल्वं पाटला रहतीद्वयम् । छाल, असगन्ध, फटेली, प्रसारणी, पुनर्नवा, गोखरु, । श्वदंष्ट्रातिबला निम्बः स्योनाकं च पुनर्नवा ॥ कंत्री और सरेटी; सब चीजें समान भाग मिश्रित प्रसारिणीममिमन्यः कुर्यादशपलं पृथक् । ६। सेर लेकर भवकुटा करके ३२ सेर पानीमें चतुद्रोंणे जले पक्त्वा पादशेष शृतं नयेत् ॥ पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान गो । हैं। तत्पश्चात् उसमें ८ सेर लाखका रस, ८ सेर S सिपेनत्र च गोक्षीर तैलासस्माचतुर्गणम् ॥ RATIMES शतावरका रस, ३२ सेर बकरीका दूध, ८ सेर नैविपाचयेदेभिः कल्कैदिपलिकै पृथक् । गायका दही, ८ सेर तिलका तैल और कल्क | कुष्ठेला चन्दनं मूर्वा वचामांसिससैन्धवैः ॥ मिलाकर पकावें । जब काथादि जल जाय तो देसको मन लें। अश्वगन्धा पला रास्ना सपुष्पेन्द्रदारुभिः । पर्णीचतुष्टयेनैव तगरेणैव सापयेत् ।। कल-सोया, बच, जटामांसी, देवदारु, ततैलं नावनेभ्यङ्गे पाने पस्तौ च योजयेत् । बीला, खरैटी, पताकाष्ठ, सफेद चन्दन, कूठ, | पक्षघात हनुस्तम्भ मन्यास्तम्भ गलग्रहम् ॥ छालचन्दन, करमवीज, शालपर्णी, दालचीनी, स्खल्लत्वं वपिरत्त्वं च गतिभङ्गं गलग्रहम् । इलायची, तेजपात, पुनर्नवा, राना, असगन्ध, १-१. ५ . मा.मन्वं.; र. र; ग. सेंधा, धमासा, मजीठ और तुलसी । हरेक १० | नि. और यो. चि. में करकरयों में खरैटी और तोले लेकर पीस । मक स्थानमें शैकेय और पुनर्नवा लिया। For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [१९७] - - गाप्रशोषेन्द्रियध्वंसे असृक्शुक्रे ज्वरे क्षये ॥ । नष्ट होना, शुक्रके साथ रक्त आना, ज्वर, क्षय, अण्डवृद्धिकुरण्डश्च दन्तरोग शिरोग्रहम् । अण्डवृद्धि, दन्तरोग, शिरोग्रह, पसलीका दर्द, पार्श्वशूलश्च पाङ्गुल्यं बुद्धिहानिश्च गृध्रसीम् ॥ पङ्गुता, बुद्धि की मन्दता, गृध्रसी, तथा अन्य कष्टअन्यांश्च विषमान्यातान् जयेत्सर्वाङ्गसंश्रयान् । साध्य वातज रोग नष्ट होते हैं । इसके प्रभावसे अस्य प्रभावाद्वंध्यापि नारी पुत्र प्रसूयते ॥ वन्ध्या स्त्रीके भी पुत्र उत्पन्न होता है । इसकी मर्यो गजो वा तुरगस्तैलाभ्यङ्गात्सुखी भवेत् । मालिश न केवल मनुष्योंके लिए अपितु हाथी यथा नारायणो देवो दुष्टदैत्यविनाशनः॥ और घोड़ों के लिये भी हितकारी है। तथैवं वातरोगाणां नाशनं तैलमुत्तमम् ॥ (३५०३) नारायणतलम् (मध्यम) (३) ___ असगन्ध, खरैटी, बेलछाल, पाढल, कटेली, ( भै. र. । वा. व्या. ) बड़ी कटेली, गोखरु, अतिबला ( कंघी ), नीमकी बिल्वाश्वगन्धाहतीश्वदंष्ट्रा छाल, सोनापाठा ( अरल ), पुनर्नवा, प्रसारिणी, श्योनाकवाटचालकपारिभद्रम् । और अरनी । हरेक १०-१० पल ( ५०-५० तोले ) लेकर कूटकर सबको १२८ सेर पानीमें मूलानि चैषां सरणीयुतानाम् ।। पकावें जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो मूलं विदध्यादथ पाटलीनां काथको छान लें । तत्पश्चात् ८ सेर तिलका तैल, प्रस्थं सपादं विधिनोद्धतानाम् । ८ सेर शतावरका रस, ३२ सेर गायका दूध, और द्रोणैरपामष्टभिरेव पक्त्वा निम्न लिखित कल्क तथा उपरोक्त काथको एकत्र पादावशेषेण रसेन तेन ।। मिलाकर पकावें । जब सैल मात्र शेष रह जाय तैलाढकाभ्यां सममेव दुग्धतो उसे छानकर सुरक्षित रखें। माजं निदध्यादथ वापि गव्यम् । ____ कल्क-कूठ, इलायची, सफेद चन्दन, एकत्र सम्यग्विपचेत्सुबुद्धिमूर्वा, बच, जटामांसी, सेंधानमक, असगन्ध, खरैटी, दद्याद्रसञ्चैव शतावरीनाम् ॥ रास्ना, सोया, देवदारु, शालपर्णी, पृश्निपणी, तैलेन तुल्यं पुनरेव तत्र मुद्गपर्णी, माषपर्णी और तगर । हरेक १० तोले रास्नाश्वगन्धामिषिदारुकुष्ठम् । लेकर सबको पानीके साथ पीस लें। पर्णीचतुष्कागरुकेशराणि ___ इस तैलकी नस्य लेने, मालिश करने, इसे सिन्धूत्यमांसीरजनीद्वयश्च ।। पीने और बस्ति द्वारा प्रयुक्त करने से पक्षाघात, | शैलेयकं चन्दनपुष्कराणि हनुस्तम्भ, मन्यास्तम्भ, गलग्रह, खालित्य (गंज), एलास्रयष्टीतगराब्दपत्रम् । पधिरता, गतिभङ्ग ( चलते समय पैर अव्यवस्थित भृङ्गाष्टवर्गाम्वचापलाशं । पड़ना ), अंगांका सूखना, इन्द्रियोंकी शक्तिका ! स्यौणेयवृश्चीरकचोरकाख्यम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१९८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि एतैः समस्तैपिलप्रमाणे बेलकी जडकी छाल, असगन्धकी जड़, बड़ी रालोडय सर्व विधिना विपकम् । कटेलीकी जड़, गोखरुकी जड़, अरलुकी जड़की कर्पूरकाश्मीरमृगाण्डजानां छाल, खरैटीकी जड़, फरहद (या नीम ) की चूर्णीकृतानां त्रिपलप्रमाणम् ॥ जड़की छाल, कटेलीकी जड़, पुनर्नवाकी जड़, प्रस्वेददौर्गन्ध्यनिवारणाय अतिबला (कंघी) की जड़, अरणीकी जड़की दद्यात् मुगन्धाय वदन्ति केचित् । छाल, प्रसारणी, और पाढलकी जड़की छाल ११-१॥ नारायणं नाम महच्च तैलम् प्रस्थ ( हरेक १। सेर ) लेकर कूटकर सबको सर्वप्रकारैविधिवत्प्रयोज्यम् ॥ २५६ सेर पानीमें पकावें। जब ६४ सेर पानी शेष आश्वेव पुंसां पवनार्दिताना रह जाय तो काथको छान लें और उसमें १६ मेकाहीनार्दितवेपनानाम् । - सेर तिलका तैल, १६ सेर बकरी या गायका दूध, ये पङ्गवः पीठविसर्पिणश्च १६ सेर शतावरका रस और निम्न लिखित कल्क बाधिर्यशुक्रक्षयपीडिताश्च ॥ मिलाकर पकावें। मन्याहनुस्तम्भशिरोरुजार्ता कल्कद्रव्य-रास्ना, असगन्ध, सौंफ, देवमुक्तामयास्ते बलवर्णयुक्ता। दारु, कूठ, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, मुद्गपर्णी, माषसंसेव्य तैलं सहसा भवन्ति पर्णी, अगर, नागकेसर, सेंधानमक, जटामांसी, वन्ध्या च नारी लभते च पुत्रम् ॥ वीरोपमं सर्वगुणोपपन्न हल्दी, दारुहल्दी,भूरिछरीला, सफेद कन्दन, पोखरसुमेधसं श्रीविनयान्वितश्च । मूल, इलायची, मजीठ, तगर, नागरमोथा, तेजशाखाश्रिते कोष्ठगते च वाते पात, भंगरा, जीवक, ऋषभक, ( दानांके अभावमें वृद्धौ विधेयं पवनार्दितानाम् ॥ विदारीकन्द ), मेदा, महामेदा (दोनेके अभावमें जिहानिले दन्तगते च शूले शतावर ), काकोली, क्षीरकाकोली, ( अभावमें उन्मादकौज्यज्वरकर्षितानाम् । असगन्ध), ऋद्धि, वृद्धि (दोनोंके अभावमें बाराहीमामोति लक्ष्मी प्रमदायित्वं कन्द), सुगन्धवाला, बच, पलाश (ढाक)की जड़की वपुःपकर्ष विजयश्च नित्यम् ।। छाल, गठीवन, श्वेतपुनर्नवा और चोरक । प्रत्येक नैलोपसेवी जरयाभिमुक्तो १०-१० तोले लेकर चूर्ण करें। जीवेचिरश्चापि भवेद् युवेव । । उपरोक्त काथादि और इस कल्कको एकत्र देवासुरे युद्धपरे समीक्ष्य | मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो - स्नायवस्थिभङ्गानसुरैः सुरांश्य ॥ | उसे छान कर उसमें सुगन्ध के लिये कपूर, केसर नारायणेनापि मुहणार्थ और कस्तूरी, हरेक ५-५ तोले मिला दें। स्वनामतैलं विहितञ्च तेषाम् ॥ । यह तैल समस्त वातव्याधियोंको नष्ट करता For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलमकरणम् ] तृतीयो भागः। [१९९] है । एकाङ्गवात, अर्दित (लकवा), गात्रकम्पन, अस्यतैलस्य पकस्य शृणु वीर्यमतः परम् । पङ्गुता, पीठविसर्पिता, (लूलापन ), बधिरता, शुफ- | अश्वानां वातभग्नानां कुञ्जराणां नृणां तथा ।। क्षय, मन्यास्तम्भ, हनुस्तम्भ, ‘और शिरोरुजा, तैलमेतत्पयोक्तव्यं सर्ववातनिवारणम् । इत्यादि रोग इसके सेवन से शीघ्र ही नष्ट होकर | अपुमांश्च नरः पीत्वा निश्चयेन दृढो भवेत् ।। वल वर्णादिकी वृद्धि होती है। इसके सेवनसे बन्ध्या गर्भमश्वतरी विन्द्यात्कि पुनर्मानुषी तथा। स्त्रीको सर्वगुण मेधा और विनय सम्पन्न वीरपुत्र हृच्छूलं पार्श्वशूलश्च तथैवाविभेदकम् ।। प्राप्त होता है। अपची गण्डमालाश्च वातरक्तं हनुग्रहम् । यह तैल शाखा और कोष्ठगत वायु, अण्ड- कामलापाण्डुरोगश्च अश्मरीश्चापि नाशयेत् ॥ वृद्धि, जिह्वागतवायु, दन्तशूल, कुब्जता, उन्माद तैलमेतद्भगवता विष्णुना परिकीर्तितम् । और वातज्वरको भी नष्ट करता है। नारायणमिदं ख्यातं वातान्तकरणं मतम् ॥ इस तैलको सेवन करनेवाला मनुष्य वृद्धा- शतावर, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कचूर, बच, वस्था रहित और प्रकृष्ट शरीर तथा सौन्दर्य- अरण्डमूल, कटेली, कटेला, करञ्जकी जड़, अतियुक्त एवं कामनी-प्रिय होकर दीर्घ काल तक बला ( कंघी ) की जड़ और कटसरैयाकी जड़ । युवावत् जीवित रहता है। हरेक १०-१० पल ( ५०-५० तोले ) लेकर (३५०४) नारायणतैलम् १ (महा) (४) सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें ( भै. र; च. द.; वृ. मा । वात.) ४-४ सेर गाय और बकरीका दूध, २ सेर शताशतावरी चांशुमती पृश्निपर्णी शठी वचा। वरका रस, २ सेर दूध, २ सेर तैल और नीचे एरण्डस्य च मूलानि वृहत्योः पूतिकस्य च ॥ लिखा कल्क मिलाकर पकावें । जब पानी जल गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च ।। जाय तो तैलको छान लें। एषां दशपलान्भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत् ।। पादावशेषे पूते च गर्भश्चैनं निधापयेत् । ___कल्क-पुनर्नवा, बच, देवदारु, सोया, सफेद चन्दन, अगर, छरीला, तगर, कूठ, इलापुनर्नवा वचा दारु शताहा चन्दनागुरुः ।। यची, जटामांसी, शालपर्णी, बला (खरैटी), असशैलेयं तगरं कुष्ठमेला मांसी स्थिरा बला। गन्ध, सेंधानमक और रास्ना । हरेक २॥२॥ अश्वाहा सैन्धवं रास्ना पलार्दानि च योजयेत्।। यता तोले लेकर चूर्ण कर लें। " गव्याजपयसोः प्रस्थौ द्वौ द्वावत्र प्रदापयेत् । शतावरीरसप्रस्थं तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ रमप्र तैलप्रम्य विपाचयेत। यह तैल घोड़े, हाथी और मनुष्यों के वात किसी किसी अन्धमें इसका नाम “ मध्यम - विकारोंको नष्ट करता है । इसे पीने से पुरुषत्व विष्णुतैल" लिखा है। हीन मनुष्य पौरुष युक्त हो जाता है, वन्ध्याको For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२००] भारत-भैषज्य-रलाकरः। [नकारादि - पुत्रकी प्राप्ति होती है । इसके अतिरिक्त यह हृदय- यह तैल बहुत छिद्रों वाले तथा अत्यधिक शूल, पार्श्वशूल, अर्धावभेदक ( आधासीसी), साव वाले बल्मीक (क्षुद्ररोमान्तर्गत पिडिका अपची, गण्डमाला, वातरक्त, हनुग्रह, कामला, विशेष ) को नष्ट करता है । पाण्डु और अश्मरी इत्यादि रोगोंको भी नष्ट (३५०७) निम्बतैलयोगः करता है। (. मा.; वृ. नि. र. । क्षुद्र.; ग. नि. । रसाय.) (३५०५) निम्बतलम् (१) निम्बस्य तैलं प्रकृतिस्थमेव (वै. म. । पटल ११) नस्य विधेयं विधिना यथावत् । निम्नच्छदस्वरससाधितमर्कदुग्ध मासेन गोक्षीरजो नरस्य रक्ताश्वमारमुकुलोषणकल्कसिदम् । चिरात्मभूत पलितं निहन्ति ॥ सैलं निहन्ति सहसेव समस्तपामाम् ॥ १ मास तक नीमके तैलकी नस्य लेने और ___ नीमके पत्तोंका स्वरस ८ सेर, सरसोंका तैल | केवल गायका दूध पीनेसे बहुत पुराना पलित रोग २ सेर, आकका दूध, लाल कनेरकी जड़, दन्ती- (बालोंका सफेद होना ) भी नष्ट हो जाता है। मूल और काली मिर्च का कल्क २॥-२॥ तोले । (३५०८) निम्मवीजतैलम् लेकर सबको एकत्र मिलाकर रस जलने तक (4. से.; ई. मा. । क्षुद्र.) पकावे। __यह तैल पामा को नष्ट करता है। निम्बस्य बीजानि हि भावितानि भृत्स्य तोयेन तयाऽशनस्य । (३५०६) निम्बतलम् (२) | तेलश तेषां विनिहन्ति नस्या(यो. त. । त. ६८) दुग्धाममोक्तुः पलितं समूलम् । मनाशिलालभल्लातसूक्ष्मैलागुरुचन्दनैः। नीमके बीजोंको भंगरे के स्वरस और असना जातीपल्लपयुक्तश्च निम्बतैलं विपाचयेत् ॥ वृक्षके काथकी अनेक भावनाएं देकर उनका तेल पला नासालाप निकलवा लीजिये । इस तैलकी नस्य लेने और मनसिल, हरताल, भिलावा, छोटी इलायची, केवल दूध भात पर रहनेसे पलितरोग समूल नष्ट अगर, सफेद चन्दन और चमेलीके पत्ते समान हो जाता है। भाग मिश्रित १३ तोले ४ माशे, नीमका तैल २ । निरामिषमहामावलम् सेर और उपरोक्त चीज़ांका काथ ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें और पानी जल (भै. र.) जाने पर तैलको छान लें। महामापतेसम् (निरामिष ) देखिए । For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२०१] (३५०९) निर्गुण्डीतलम् (१) कल्कद्रव्य--बच, कूठ, धतूरेके बीज, (वै. म. र. । प. ३) | मालकंगनी और कायफल आधा आधा पल (२॥निर्गुण्डीस्वरसे शृतं तिलभवं भृङ्गादिचूर्णान्विते । २॥ तोले ) तथा वछनाग इन सबके बराबर । पात्रे निःशृतमन्वहं दिनमुखे तन्मात्रया यः पिबेत्।। यह तैल वातव्याधियों को नष्ट करता है। कासश्वासमशेषमनितनुतां शीघ्रं जयेन्मासतो।। यक्ष्माणश्च समस्तरोगनिलयं रामो यथा रावणम्॥ (२० । (३५११) निर्गुण्डोतलम् (३) निर्गुण्डी ( संभाल ) का स्वरस ८ सेर, (र. र.; भै. र.; वं. से. । कर्ण.) तिलका तेल २ सेर और भंगरेका कल्क १० तो. | निर्गुण्डीस्वरसैस्तैलं सिन्धुधमरजोगुडः । लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब पानी | पूरणात्पूतिकर्णस्य शमनो मधुसंयुतः ॥ जल जाय तो तैलको छान लें। ____ संभालुका स्वरस ४ सेर, सेंधानमक, घरका इसे प्रातःकाल यथोचित मात्रानुसार सेवन | धुवां और गुड़ समान भाग मिश्रित ५ तोले तथा करनेसे खांसी, श्वास, अग्निमांद्य, और यक्ष्मादि तिलका तैल १ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर रोग एक मासमें ही नष्ट हो जाते हैं। पकावें । जब पानी जल जाय तो तैलको छान लें। ( मात्रा-६ माशेसे १ तोला तक । अनुपान-उष्ण जल ।) ___ इसमें शहद मिलाकर कानमें भरनेसे पूति(३५१०) निर्गुण्डीतैलम् (२) कर्ण रोग नष्ट होता है। (वैद्यामृत । अलं. २) (३५१२) निर्गुण्डीतैलम् (४) निर्गुण्डीकारसात्पस्थं पस्थं मार्कवजादसात् । । (वृ. यो. त. । त. १०८; वृ. नि. र.; भै. र.; रसादत्तूरजात्पस्थं गोमूत्रं प्रस्थसम्मितम् ।। | वं. से.; यो. र.; च. द.; . मा. । गण्डमा.; वचा कुष्ठं हेमबीजं तेजाहा कटफलं तथा । ग. नि. । ग्रन्थ्य.) पला शानि सर्वैस्तु वत्सनागः समो मतः ।।। तैलपस्थं पचेद्युक्त्या वातरोगेषु शस्यते।। • " निर्गुण्डीस्वरसेनाथ लागलीमूलकल्कितम् । हेमन्ते हरिणाक्षीणां गाढमालिङ्गनं यथा ॥ तैलं नस्येन हन्त्याशु गण्डमालां सुदुस्तराम् ॥ __ संभालुका स्वरस २ सेर, भंगरेका रस २ . संभालुके स्वरस और लागली ( कलिहारी ) सेर, धतूरेका रस २ सेर, गोमूत्र २ सेर और की जड़के कल्क से सिद्ध तैलकी नस्य लेनेसे तिलका तैल २ सेर तथा निम्न लिखित चीजेांका | कष्ट साध्य गण्डमाला भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। कल्क लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें। जब ( रस ४ सेर, तैल १ सेर और कल्क ५ रस जल जाय तो तैल को छान लें। | तोले लें।) For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२०२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि (३५१३) निर्गुण्डोतैलम् (५) तोले वछनाग (मीठा तेलिया ) का चूर्ण मिलाकर ( र. र.; च. द.; धन्व.; भै. र.; ग. नि.; वृ. मा.। पानी जलने तक पकावें । नाडीव्रणा.; यो. त. । त. ६०) इसे कानमें डालनेसे बधिरता, कर्णनाद, कृमि समूलपत्रां निर्गुण्डी पीडयित्वा रसेन तु। और कर्णपीड़ा तथा कर्णस्राव नष्ट होता है । तेन सिद्धं सम तैलं नाडीदुष्टत्रणापहम्॥ नोट-यदि सब चीज़ोका काथ ही डालना हो हितं पामापचीनाश्च पानाभ्यञ्जननावनैः। तो वछनाग ६ तोले ८ माशे डालना चाहिये। विविधेषु च स्फोटेषु तयादुष्टत्रणेषु च ॥ (३५१५) निर्गुण्डयादितैलम् (२) मूल और पत्र सहित संभालको कूटकर ४ (रा. मा. । शिरो.) सेर रस निकालें, और इसमें १ सेर तिल का तैलनिगडीला लियागाति दलित मिलाकर तैलमात्र शेष रहने तक पकावें । शिरसोरुजः समग्रा यदि वाऽपामार्गबीजसंसिइसको पीने तथा इसकी नस्य लेने और द्धम् ।। मालिश करनेसे दुष्ट नाड़ी व्रण ( नासूर ), पामा, | ___ संभालु, कलिहारी और आकके कल्क और अपची (गण्डमाला भेद ) और विस्फोटक नष्ट काथ से पका हुवा तैल मलनेसे या चिरचिटेके होते हैं। बीजेांके कल्कसे सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे (३५१४) निर्गुण्डयादितैलम् (१) समस्त प्रकारके शिरशूल नष्ट होते हैं । ( वृ. नि. र.; यो. र. । कर्ण.) ( कल्क १३ तोले ४ माशे । तिलका तैल निर्गुण्डिजातिरविभृङ्गरसोनरम्भा २ सेर । काथ ८ सेर । एकत्र मिलाकर पकावें । ___ कार्पासशिग्रुमुरसाईककारवेल्यः। यदि अपामार्ग के बीजोंसे तैल पाक करना हो तो एषां रसे तिलभवं सविषं सुकर्ण बीजांका कल्क २० तो. पानी ८ सेर और तेल बाधिर्यनादकृमिवेदनपूययुक्ते ॥ २ सेर लेना चाहिये ।) संभालु, चमेली, अर्क, भंगरा, ल्हसन, केला, (३५१६) निशादितैलम् (१) कपास, सहजना, तुलसी, अदरक और करेले में | से जिनका स्वरस मिल सके उनका स्वरस और । | (भै. र.; च. द.; वं. से.; ग. नि.; धन्च. । शेषका काथ समान भाग मिलाकर ४ सेर लें । भगन्दर.) अथवा सब चीजें समान भाग मिश्रित २ सेर । निशाकक्षीरसिन्थ्यमिपुराश्वहनवत्सकैः। लेकर १६ सेर पानीमें पकावे और ४ सेर पानी सिद्धमभ्यञ्जने तैलं भगन्दरविनाशनम् ।। शेष रहनेपर छान लें । तत्पश्चात् इस काथ या | हल्दी, आकका दूध, सेंधानमक, चीता, उपरोक्त स्वरसों में १ सेर तिलका तैल और १० । गूगल, कनेरकी जड़ और कुड़ेकी छाल के कल्क For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] तृतीयो भागः। [२०३] - - और काथसे सिद्ध तैल लगानेसे भगन्दर नष्ट हो | दत्त्वा चतुर्भागरसेन तेन जाता है। तैलं पचेदर्द्धपलपयुक्तैः॥ (सब चीज़ोंका समान भाग मिश्रित कल्क कल्कैरनन्ताखदिरेरिमेद१३ तो. ४ माशे, कोथ ८ सेर, तैल २ सेर । ) जम्बाम्रयष्टीमधुकोत्पलानाम् । (३५१७) निशादितैलम् (२) तत्तैलमाश्वेव धृतं मुखेन (वृ. मा. । बाल.) __ स्थैर्य द्विजानां बलतां विदध्यात् ।। नाभिपाके निशालोध्रप्रियङ्गमधुकैः शृतम् ।। ___ नीले फूलकी कटसरैया ६। सेर लेकर अध. - कुटा करके ३२ सेर पानीमें पकावें, जब ८ सेर तलमभ्यञ्जन शस्तमाभवाऽप्यवाणतम् ।। पानी रह जाय तो छानकर उसमें २ सेर तिलका बालककी नाभि पक जाय तो हल्दी, लोध, तैल और २॥-२॥ तोले अनन्तमूल, खैर सार, फूल प्रियंगु और मुलैठी के कल्क और काथसे इरिमेद (दुर्गन्धित खैर), जामन और आमकी सिद्ध तैल या इन्हीं चीजेांका चूर्ण लगाना चाहिये। छाल, मुलैठी, और नीलकमल का कल्क मिलाकर (तैल पाकके लिये-सब चीजेका समान | पकावें। भाग मिश्रित कल्क १३ तो. ४ माशे, काथ ८ सेर, तैल २ सेर ।) __इस तेलको मुखमें धारण करनेसे (दांतों पर लगाने या इसके गण्डूष धारण करनेसे ) हिलते (३५१८) निशाचं तैलम् हुवे दांत स्थिर हो जाते हैं। (भै. र.; धन्व. । कर्ण.) (३५२०) नीलीतैलम् निशागन्धपले पकं कटुतैलं पलाष्टकम् । (सु. सं. । चि. अ. २५; र. र. रसा. खं. । धुस्तुरपत्रजरसे कर्णनाडीजिदुत्तमम् ॥ उपदे. ५; ग. नि. । तैला.) हल्दी और गन्धकका कल्क २॥ २॥ तोले, नीलीदलं भृङ्गरजोऽर्जुनत्वक् सरसोंका तैल १ सेर तथा धतूरेका रस ४ सेर पिण्डीतकं कृष्णमयोरजश्च । लेकर सबको एकत्र मिलाकर रस जलने तक पकावें। ___ इसे कानमें डालनेसे कर्णनाड़ी ( नासूर ) बीजोद्भवं साहचरश्च पुष्पं नष्ट होता है। पथ्याक्षधात्रीसहितं विचूर्ण्य ।। एकीकृतं सर्वमिदं प्रमाय (३५१९) नीलसहचराद्य तेलम् पडून तुल्यं नलिनीभवेन । ( ग. नि. । तैला.) संयोज्य पक्षं कलशे निधाय तुलां धृतां नीलसहाचरस्य लोहे घटे समनि सपिधाने ॥ संक्षुध द्रोणे अपयेजलस्य। अनेन तैलं विपचेद्विमिश्र For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [२०४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [ नकारादि रसेन भृात्रिफलामवेन । पचेत्तैलावशेषन्तु नस्येनाभ्यञ्जनेन वा ।। आसमपाके च परीक्षणार्थ योज्यं हन्ति शिरस्तोदं पलितं च विनाशयेत् ॥ पक्ष बलाकाभवमाक्षिपेच्च ॥ नीलकमल, पीपल, मुलैठी, सफेद चन्दन, भवेद् यदा तद् भ्रमराङ्गनीलं और पुण्डरीक ( पुण्डरिया ) का कल्क ५-५ तोले, तदा विपकं विनिधाय पात्रे । तेल २ सेर और आमलेके फलेका रस ८ सेर कुष्णायसे मासमवस्थितं तद् लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब समस्त __ अभ्यङ्गयोगात् पलितानि हन्यात् ।। रस जल जाय तो तैलको छानले । ___ नीलके पत्ते, भंगरा, अर्जुनकी छाल, तगर __इसकी मालिश करने और नस्य लेनेसे शिर(अथवा काला मैनफल), लोहचूर्ण, बिजय- | पीड़ा तथा पलित रोग नष्ट होता है । सार, कटसरैयाके फूल, हरे, बहेड़ा और आमला समान भाग लेकर चूर्ण करके उसमें उसके बराबर (३५२२) नीलोत्पलाचं तेलम् कमलकी जड़के नीचेकी कीचड़ मिलाकर लोहेके (वं. से. । नेत्र.) फलसे में भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें, नीलोत्पलं मधुकनागरपुण्डरीकऔर १५ दिन पश्चात् निकालकर उसके कल्क और भंगरे तथा त्रिफलाके काथके साथ तैल द्राक्षासुयष्टिमधुकांशुमतीकणांश्च । कण्टारिकामलकशावरचोग्रगन्धापकावें । जब पाक तैयार होने वाला हो तो उसमें कासीसशर्करबलावृषभाश्च रास्ना ॥ बगलेका पंख डालकर देखें, यदि काला हो जाय तो तैलको तैयार समझें और उसे लोहके मभिष्ठया सह समैरपि मूक्ष्मपिष्टै स्तैलं पचेत्तु पयसा च चतुर्गुणेन । पात्रमें भरकर उसका मुख बन्द करके रखदें । नस्यं नृणां तिमिरकाचनिशान्थ्ययुक्तान् एक मास पश्चात् छानकर काममें लावें । इसे बालों में लगानेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं। ___पाकात्ययान्सपटलार्जुननीलिकांश्च ।। पिल्लाचुदामरुधिरसुतिवमैकण्डून् (कल्क १३ तो. ४ माशे, तैल २ सेर, स्पन्दं जयेद्विहितभोजनभङ्गुराणाम् । भंगरे और त्रिफलेका काथ ४-४ सेर । ) वाधिर्यमर्दितहनुग्रहदन्तचाल (३५२१) नीलोत्पलादितैलम् नासास्यपूयगलगण्डकृकाटिका न् ।। (वृ. नि. र. । शिरो.) कर्णाक्षिशूलदशनामयशीर्षरोगाजिनीलोत्पलकणायष्टिचन्दनं पुण्डरीककम् । हामयाञ्जयति कण्ठगतांश्च सर्वान् । प्रतिनिष्कचतुष्कं स्यात्तैलं स्यात्षोडशं पलम् ॥ अभ्यअनेन नियतं शिरसि प्रयत्नात् चतुःषष्टिपलं धात्रीफलानां रसमाहरेत् । सर्वानिहन्ति वदनालिशिरोविकारान् ।। For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२०५] - नीलकमल, महुवेके फूल, सेठ, पुण्डरीक । (३५२४) नृपवल्लभतलम् (सफेद कमल), दाख ( मुनक्का ), मुलैठी, शालपणी, (वं. से.: भै. र.; धन्वं.; च. द. । नेत्ररो.) पीपल, कटेली, आमला, लोध, बच, कसीस, खांड, खरैटी, बासा, रास्ना, और मजीठ; सब समान | जीवकर्षभको मेदे द्राक्षांशुमतीनिदग्धिकाढहती। भाग मिश्रित २० तोले लेकर पानीके साथ महीन मधुकं बला विडो मअिष्ठा शर्करा रास्ना ॥ पीसकर कल्क बनावें । फिर २ सेर तिलका तैल, नीलोत्पलं श्वदंष्ट्रा प्रपोण्डरीकं पुनर्नवा लवणम् ८ सेर दूध और यह कल्क एकत्र मिलाकर पकावें। पिप्पल्यः सर्वेषां भागैरक्षांशिकः पिष्टैः॥ जब समस्त दूध जल जाय तो तैलको छानलें। तैलं वा यदि सर्दित्त्वा क्षीरं चतुर्गुणं पकम् । आत्रेय निर्मितमिदं तैलं नृपबल्लभनाना ॥ इसकी नस्य लेने और शिरपर मालिश करने तिमिरं पटलं काचं नक्तान्थ्यमबुंदं तथान्ध्या । से तिमिर, काच, नक्तान्ध्यता, (रतौंधा) पाकात्यय, श्वेतश्च लिङ्गनाशं नाशयति नीलिकाम्याम् ॥ पटल, अर्जुन, नीलिका, पिल्ल, अर्बुद, अर्म, रुधिर मुखनासादोर्गन्ध्य पलितशाकालजं हनुस्तम्भम् । खाव, पलकांकी स्वाज, आंख फरकना, बधिरता, श्वासं कासश हिकां शोषं स्तम्भ तथान्यांश्च । अर्दित (लकवा), हनुग्रह, दांतोंका हिलना, नाक मुखजैहम्पमर्द्धभेदं रोगं बाहुग्रहं शिरःस्तम्भम् । या मुखसे पीपजाना, गलगण्ड, गर्दनके पिछले भाग रोगानयोर्ध्वजत्रोः सर्वानचिरेण नाशयति । (गुदी) की पीड़ा, कर्णशूल, नेत्रशूल, दन्तरोग, शिरोरोग, जिहारोग और कण्ठरोगों, का नाश होता है। जीवका, ऋषभका, मेदार, महामेदार, दाख (३५२३) नील्यादितैलम् (मुनक्का ), शालपर्णी, कटेली, बड़ीकटेली (कटेला), मुलैठी, खरैटी, बायबिडंग, मजीठ, खांड, रास्ना, (वै. म. र. । पट. ११) नीलकमल, गोखरु, प्रपौण्डरीक (पुण्डरिया), पुननीलीभूमिकदम्मानां मूले सिदं तिलोद्रम् । नवा, सेंधानमक, और पीपल । सब १०-११ तोला कक्षाविद्रधिवीसर्पहरं स्पाल्लेपनेन तत् ॥ लेकर पानीके साथ पीस लें । तत्पश्चात् २ सेर तैल या घी और ८ सेर दूध तथा यह कल्क नील और भूमिकदम्बकी जड़ के कल्कसे एकत्र मिलाकर पकावें । दूध जल जाने पर स्नेह सिद्ध तैल लगानेसे कक्षा, विद्रधि, और विसर्प नष्ट (घृत या तैल ) को छान लें। होता है। यह तैल तिमिर, पटल, काच, नक्तान्थ्य ( हरेक वस्तु ५ तोले, तिलका तैल १ सेर, भाषमें शतावर। पानी १ सेर । मिलाकर पका) २भभाषमें विदारीकन्द । कल्कद्रव्य For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२०६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि - - ( रतधा) अर्बुद, अन्धता, लिङ्गनाश, इत्यादि भुजाका जकड़ जाना,शिरका स्तम्भ,एवं गलेसे ऊपर नेत्ररोग तथा मुखकी नीलिका, व्यङ्ग (झांई ), के अन्य समस्त रोगांको नष्ट करता है। मुख और नाककी दुर्गन्ध, पलित, हनुस्तम्भ, श्वास, खांसी, हिचकी, शोष, शरीरका स्तम्भ | ( इसे नस्य, पान और मर्दन द्वारा प्रयुक्त अर्दित ( लकवा ), अविभेद (आधासीसी), | करना चाहिये । ) इति नकारादितैलपकरणम् । अथ नकाराद्यासवप्रकरणम् (३५२५) नारिकेलासवः | सेर । तथा चातुर्जात ( दाल चीनी, इलायची, (ग. नि. । आसवा.) तेजपात और नागकेसर समान भाग मिश्रित ) मालिकेरोदकं चैव द्रोणमात्र मदापयेत् । आर धायके फूलांका चूर्ण १-१ सेर, कस्तूरी ५ माशे, केसर, तगर, सफेद चन्दन और लौंग का इक्षोरसस्य द्रोणार्धे शाल्मल्या रसप्रस्थकम् ॥ चूर्ण ५-५ तोले । सबको एकत्र मिलाकर घृतसे दशमूलरसस्यापि प्रस्थमात्र तथैव च । चिकने किये हुवे मटकेमें भरकर उसका मुख बन्द घृतभाण्डे विनिक्षिप्य मध्ये चूर्ण निवेशयेत् ॥ करके रख दें और एक मास पश्चात् निकालकर चातुर्जातकधातक्यो पलान् षोडशसंङ्ख्यया । छान लें। शाणमात्रा तु कस्तूरी केशरं तगरं तथा ॥ चन्दनं देवपुष्पं च पलमात्रं पृथक् पृथक् । इसके सेवनसे बलिपलित नष्ट होकर काममासाचं पिबेच्चामुं रूपे कामसमो भवेत् ॥ | देवसदृश रूप हो जाता है तथा वृद्ध पुरुष भी रद्धोऽपि तरुणीं गच्छेत् षण्ढोऽपि पुरुषायते । युवाके समान युवतीसमागम कर सकता है। बलीपलितसन्त्यक्तः शतायुश्च भवेन्नरः॥ नपुंसक मनुष्यमें पुनः पुरुषत्व आ जाता है। नारिकेलासवः प्रोक्तः शम्भुना परमेष्ठिना ॥ नोट—केसर और कस्तूरी पहिले न डाल नारयलका पानी ३२ सेर, ईखका रस १६ कर आसव तैयार हो जानेके बाद सुरा (रेक्टीसेर, सेंभलका रस २ सेर और दशमूलका काथ २ फाइड स्प्रिट) में मिलाकर डालनी चाहिये । इति नकारावासवप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] [२०७] तृतीयो भागः। अथ नकारादिलेपप्रकरणम् (३५२६) नरास्थिलेपः | अम्लकाजीमें पीसकर लेप करनेसे विन्दुल नामक (वै. म. र. । पट. ६) कीटके सम्पर्कसे उत्पन्न हुई पिड़िकाएं शीघ्र ही नरास्थिचूर्ण स्तन्येन कांस्ये घृष्टं प्रलेपयेत् । । नष्ट हो जाती हैं। नयने बहिरन्तश्च कुकूणादिहरं परम् ॥ (३५२९) नवनीतादिलेपः ___ मनुष्यकी हडीको अत्यन्त महीन पीसकर (वृ. नि. र. । वातर.) कांसीकी थाली पर स्त्रीके धके साथ घिसकर | माहिषं नवनीतन्तु गोमूत्रक्षीरसैन्धवैः। आंखके बाहर पलकोपर लेप करने और भीतर | खल्वेनकत्र संलोडय वहिना तापयेच्छनैः॥ लगानेसे बालकेकि कुकूणकादि नेत्ररोग नष्ट | नेत्ररोग नष्ट गात्रमुद्वर्त्तयेत्तेन देहस्फुटनशान्तये ॥ भैंसका नवनीत ( नैनौ घी ), गोमूत्र, दूध (३५२७) नलादिलेपः और सेंधानमकका चूर्ण समान भाग लेकर सबको (ग. नि. । विसर्प.) एकत्र घोटकर मंदाग्नि पर पकावें । जब कुछ गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे उतार लें। यदि शरीर फूटता नलवेतसमूलानि गुन्द्रा शैवलशावलम् ।। हो तो इसकी मालिश करनी चाहिये । विसर्प सघृतं पिष्टमेकैकं लेपनं हितम् ।। नलकी जड़, बेतकी जड़, पटेर, सिरवाल, (३५३०) नवसादरादिलेपः (वृ. नि. र. । विष रो.) और दूब घास । इनमेंसे किसीको भी महीन पीसकर घीमें मिलाकर लेप करनेसे विसर्प में लाभ | नवसादरहरिताले पिष्टे तोयेन लेपनाशे। पहुंचता है। तत्क्षणमेव जयति वृश्चिकविद्धस्य दुर्धर वेडम्॥ (३५२८) नलिनीयोगः नवसादर ( नसदर ) और हरताल समान ( रा. मा.। क्षुद्ररो. ) भाग लेकर पानीमें पीसकर लेप करनेसे बिच्छूका विष तुरन्त उतर जाता है। मूलानि बीजान्यथवा पपिष्टान्यम्लारनालेन समं नलिन्याः। (३५३१) नागरादिलेपः (१) हरन्ति लेपेन तु बिन्दुकीट (यो. र.; वृ. नि. । सन्निपा.) सम्पर्कजाताः पिटिका क्षणेन ॥ सनागरं देवदारुरास्नाचित्रकपेषितम् । कमलिनीकी जड़ अथवा उसके बीजोको | प्रलेपनमिदं श्रेष्ठं गलशोफनिवारणम् ।। For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ २०८] यदि सन्निपात ज्वर में गलेमें सूजन हो जाय तो सोंठ, देवदारु, रास्ना और चीता समान भाग लेकर पानीके साथ महीन पीसकर लेप करना चाहिये । (३५३२) नागरादिलेप: (२) (नपुंसका. । त. ६) www.kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः । नागरं देवसुमनमाकारकरभं तथा । चूर्णितं मधुयोगेन मासैकं लेपयेद्बुधः ताम्बूलैर्वेष्टितं कृत्वा पुरुषार्थप्रदायकम् ।। सांठ, लैांग, और अकरकरा समान भाग लेकर अत्यन्त महीन पीसकर शहद में मिलाकर मल्हम बना लीजिये । रात्रिको सोते समय इन्द्री पर इसका लेप करके ऊपरसे पान बांध दीजिये । इसी प्रकार १ मास तक करनेसे नपुंसकता नष्ट हो जाती है । ( नोट - पानके ऊपर कपड़े की पट्टी लपेट कर कच्चे सूत से ढीला बांधना चाहिये । यथा सम्भव ठण्डे पानी से इन्द्रीको बचाना चाहिये) (३५३३) नारोपयसादिप्रयोगः ( वै. म. र. | प. १२ ) सीमन्तिनीनां पयसा प्रलिम्पे audi शताsi लिकुचोदकेन । जानुबाहुप्रभवानिलघ्ने स्यातां क्रमन्युत्क्रमलेपिते वै ॥ सोंठको स्त्रीके दूध में पीसकर या सोये को लकुचके रसमें पीसकर लेप करनेसे जानु और बाहुगत वायु नष्ट होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ नकारादि (३५३४) निलादिलेप: (१) ( ग. नि. । ग्रन्ध्य. शा. सं. । उ. अ. ११ ) निचुलं शिग्रुमूलानि दशमूलमथापि वा । आलेपनं च गण्डेषु सुखोष्णन्तु प्रशस्यते ॥ हिज्जल, और सहजनेकी जड़की छाल या दशमूल को पानीके साथ पीसकर मन्दोष्ण करके लेप करनेसे गलगण्ड रोग नष्ट हो जाता (३५३५) निचुलादिलेप: (२) I ( वा. भ. । उ. अ. २२ ) निचुलं कटभी मुस्तं देवदारु महौषधम् । वचा दन्ती च मूर्वा च लेपः कोष्णोऽतिशोफहा ।। हिज्जल, अरलुकी छाल, नागरमोथा, देवदारु, सोंठ, बच, दन्तीमूल और मूर्वा । सब चीजें समान भाग लेकर पानी के साथ महीन पीसकर मन्दोष्ण करके लेप करनेसे गलेकी अत्यधिक प्रवृद्ध सूजन नष्ट होती है 1 (३५३६) निम्बजलादिलेप: (वं. से. | क्षुद्ररो.) निम्बोदकेन लवणैःप्रलेपोऽश्वशकृद्रसैः ॥ नीम के पत्तों का रस, सेंधा नमकका चूर्ण और घोड़े की लीदका रस एकत्र मिलाकर लेप करनेसे अरुषिका नष्ट हो जाती है । (३५३७) निम्बदलादिलेप: For Private And Personal Use Only (शा. सं. । म. अ. ५; भा. प्र. । ख. २ ब्रणशो.) लेपानिम्बदलैः कल्को व्रणशोधनरोपणः । भक्षणाच्छर्दिकुष्ठानि पित्तश्लेष्मकृमीञ्जयेत् ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उ. अ. ११) नेपाकरणम् ] हतीयो भागः। [२०९] नीमके पत्तोंको पीसकर लेप करनेसे घाव शुद्ध | में घी भी मिला लिया जाय तो उसके लगानेसे होकर भर जाता है और खानेसे वमन, कुष्ठ, पित्त, घाव भर जाता है। कफ और कृमिरोग नष्ट होता है । (३५४१) निम्बपत्रादिप्रयोगः (३५३८) निम्बपत्रप्रयोगः (वं. से.; यो. र.; . मा. । व्रणरोगा.; शा. ध.। (वृ. मा.; यो. र. । व्रणशोथा.) निम्बपतिलैः कल्को मधुना व्रणशोधनः । निम्बपत्रं तिलादन्तीत्रिवृत्सैन्धवमाक्षिकम । रोपणः सर्पिषा युक्तो यवकल्केऽप्ययं विधिः ॥ दुष्टत्रणप्रशमनो लेपः शोधनकेशरी ॥ नीमके पत्ते और तिलांको अथवा केवल जौको नीमके पत्ते, तिल, दन्तीमूल, निसोत और पीसकर शहदमें मिलाकर लेप करनेसे व्रण शुद्ध सेंधा नमकके समान भाग मिश्रित चूर्णको शहदमें होता है तथा धीमें मिलाकर लेप करने से घाव मिलाकर लगानेसे दुष्ट ब्रण भी शुद्ध होकर भरजाते भर जाता है। हैं । घावेको शुद्ध करनेके लिये यह एक अत्युत्तम | प्रयोग है। (३५३९) निम्बपत्रादियोगः (१) (भा. प्र.; वं. से.; वृं. मा.; यो. र. । व्रणरो.) (३५४२) निम्बफेनलेपः निम्बपत्रघृतक्षौद्रदा:मधुकसंयुता। (व. नि. र. । दाहकर्म.) वर्तिस्तिलानां कल्को वा शोधयेद्रोपयेवणान्।। हड्दाहमोहाः प्रशमं प्रयान्ति नीमके पत्ते, धी, शहद, दारुहल्दी, मुलैठी निम्बरवालोत्थितफेनलेपात। और तिल। समान भाग लेकर पीसने योग्य चीजोंको यथा नराणां धनिनां धनानि महीन पीसकर सबको एकत्र मिला लीजिए । इस समागमाद्वारविलासिनीनाम् ॥ का लेप करने या इसकी बत्ती बनाकर घावमें भरने- जिस प्रकार वेश्या समागमसे धनिक मनुष्यका से घाव शुद्ध होकर भर जाता है । धन नष्ट हो जाता है उसी प्रकार नीमके पत्तों के (३५४०) निम्बपत्रादियोगः (२) झाग (फेन) लगानेसे तृषा, दाह, और मोह जाता रहता है। (वं. से.; . मा.; यो. र. । व्रण.) (नीमके पतोंको पीसकर उनमें थोडासा निम्बपतमधुभ्यान्तु युक्तः संशोधनः परः। पानी डालकर हाथसे खूब हिलावें, यहां तक कि पूर्वाभ्यां सर्पिषा वापि युक्तः संरोपणः परः॥ उसमें अच्छी तरह झाग उठ आवें । इन्हीं झागांका नीमके पत्तोंको पीसकर शहदमें मिलाकर | आवश्यकतानुसार मस्तक, नाभि अथवा समस्त लगाने से घाव शुद्ध होता है और यदि इन दोनों शरीर पर लेप करें।) For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२१०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि - (३५४३) निम्बादिलेपः (१) गन्धर्वहस्तमूलं दूर्वा कुसुमं तथा रजनी ॥ (व. मा.; यो. र.; वृ. नि. र. । व्रणशोथा.) | सिद्धार्थडगजत्वगिति समभार्ग प्रक्षिप्य नवनीते। निम्बशम्पाकजात्पर्कसप्तपर्णाश्वमारकाः। | उद्वर्त्तनं विधेयं सततं बलिनाशनं दृष्टम् ॥ कृमिघ्ना मूत्रसंयुक्ताः सेकालेपनधावनैः॥ संभालु, धतूरा, बासा, बेल, आमला और ___ नीम, अमलतास, चमेली, आक, सप्तपर्ण असना । इन सबके पत्ते, अरण्डकी जड़, दूर्वा (सतौना ) और कनेरकी जड़की छाल समान भाग (दूब घास ), लौंग, हल्दी, सफेद सरसों, पंवाड़के लेकर सबको गोमूत्रमें पीसकर लेप करने, या इनको बीज और दालचीनीके समान भाग मिश्रित चूर्णको गोमूत्र में पकाकर उस काथसे घावको धोने अथवा नवनीत में मिला कर कुछदिनों तक रोजाना मालिश घाव पर उस पानीको धार छोड़ने से घावके कृमि करनेसे बलि (शरीरकी झुर्रा) नष्ट हो जाती हैं। नष्ट हो जाते हैं। (३५४७) निशादिलेपः (१) (३५४४) निम्बादिलेपः (२) (वै. म. र. पट. ४) (वृ. नि. र. । अर्श.) निम्बाश्वत्यस्य पत्राणां लेपो दुर्नामनाशनः।। स्तनयोरपि मूले च रुग्भवेधदि वेगिनी। आरनालेन वा हन्यात्सगुडा कटुतुम्बिका ॥ निशाशम्बूकसहितचूर्ण लेपो जयेद्रुजम् ।। नीम और पीपल वृक्षके पत्तोंका लेप करनेसे हल्दी और शंखको पानीमें पीसकर लेप करनेसे अथवा गड और कडवी तम्बीको काशी में पीसकर। स्तनमूलकी तीव्र पीड़ा शान्त हो जाती है । लगानेसे अर्श नष्ट होती है । (३५४८) निशादिलेपः (२) (३५४५) निम्बुफलोद्भवादिप्रयोगः (भा. प्र. । म. ख. ज्वर. ) (यो. र. । नेत्ररो.) निशाविशालाभयमाणिमन्य लोहस्य पात्रे संघृष्टो रसो निम्बुफलोद्भवः । दारूग्दीमूलकृतः प्रलेपः। किश्चिद्घनो बहिर्लेपाक्षेत्रव्याधि व्यपोहति ॥ प्रभाकरक्षीरयुतः प्रमावानीबूके रसको लोहेके पात्रमें (लोहेकी मूसलीसे) यस्तसमस्तोऽप्यय कर्णिकानः॥ इतना घिसें कि वह कुछ गाढ़ा हो जाय । हल्दी, इन्द्रायनकी जड़, खस, सेंधानमक,दार पलकों पर इसका लेप करनेसे ( नेत्रपाक, हल्दी, और इंगुदी (हिंगोट )की जड़ । इन सबके अधिमन्यादि ) नेत्ररोग नष्ट होते हैं । समान भाग मिश्रित चूर्णको या इनमेंसे किसी एक (३५४६) निर्गुण्डयादिप्रयोगः ओषधिको आकके दृधमें घोटकर लेप करनेसे (वं. से. । रसायना.) कर्णिका ( सन्निपात ज्वरमें होने वाली कानके पीछे निर्गुण्डीफनकबासाश्रीफलामलकासनोत्थपत्राणि । की सूजन ) नष्ट होती है । For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेपमकरणम् ] हतीयो भागः। [२११] - (३५४९) निशादिलेपः (३) | समान भाग लेकर महीन चूर्ण करके उसे तक्रमें __(पृ. नि. र.; यो. र.; वं. से. । अर्श.) । पीसकर सरसेकेि तैलमें मिलाकर मालिश करनेसे निशाकोशानकीचूर्ण स्नुपयः सैन्धवान्वितम् । पामा इत्यादि नष्ट हो जाती है। गोमूत्रेण समायुक्तो लेपो दुर्नामनाशनः ॥ (३५५२) नीलाजकेशरादिलेपः। हल्दी, कडवी तोरी और सेंधा नमकके समान / (रा. मा. । शिरो. ) भाग मिश्रित पूर्णको थोहर (सेंड-सेहुंड) के | नीलाब्जकेशरतिलामलकैः सुपिष्टैदूधमें घोटकर गोमूत्रमें मिलाकर लेप करनेसे भर्श | यष्टयान्वितैर्बजति दारुणकः प्रणाशम् ॥ (बवासीर ) नष्ट होती है। __नीलकमलकी केसर, तिल, आमला और मुलैठी (३५५०) निशादिलेपः (४) के समान भाग मिश्रित चूर्णको पानीमें पीसकर (वं. से., पृ. मा. । मसूरि.) | लेप करनेसे दारुण नामक शिरो रोग नष्ट होता है। निशाद्वयोशीरशिरीषमुस्तकैः (३५५३) नीलीलेपः सलोध्रभद्राश्रियनागकेशरैः। (वं. से. । क्षुद्ररो.) सस्वेदविस्फोटविसर्पकुष्ठ नीलीपटोलयोर्मूलं जलपिष्टं घृतेन तम् । दोर्गन्ध्यरोमान्तिहरः प्रदेहः ।। | निहन्ति लेपनान्नूनं जालगर्दभजो रुजाम् ॥ हल्दी, दारुहल्दी, खस, सिरसकी छाल, भागरमोथा, लोध, सफेद चन्दन और नागकेसर नील और पटोलकी जड़को पानीके साथ के समभाग मिश्रित चूर्णको पानीके साथ पीसकर | महीन पीसकर धीमें मिलाकर लेप करनेसे जाललेप करनेसे शरीरकी दुर्गन्ध, पसीना, विस्फोटक, | गर्दभ नामक क्षुद्ररोग अवश्य नष्ट हो जाता है । विसर्प, कुष्ठ और रोमान्तिका नष्ट होती है। । (३५५४) नीलोत्पलादिलेपः (३५५१) निशादिलेपः (५) (वृ. नि. र.; यो. र. । उपदं.) (ई. मा.; वं. से. । कुष्ठा.; पृ. यो. त. । त. १२०) नीलोत्पलानि कुमुदं पदसौगन्धिकानि च । निशामुधारग्वधकामाची उपदंशे चूर्णयित्वा प्रलेपोऽयं प्रशस्यते ॥ पत्रैः सदावर्वीप्रघुनाटबीजैः। नीलकमल, कुमुद, पद्म ( सफेद कमल ) तक्रेणपिष्टैः कटुतैलमित्रैः | और सौगन्धिक (लाल कमल ) के चूर्णको पानीमें पामादिद्वर्तनमेतदिष्टम् ।। पीस कर लेप करनेसे उपदंश नष्ट होता है । हल्दी, थोहर (सेंड-सेहुंड ) अमलतास और यह प्रयोग ब. से. और भा. प्र. में क्षुद्र रोगोंमें मकोयके पत्ते; दारु हल्दी, तथा पमाड़के बीज । लिखा है; उसमें तिल नहीं लिखे, शेष प्रयोग समान है। For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [२१२] (३५५५) नीलोत्पलायो लेपः ( रा. मा. । शिरो. ) नीलोत्पलाक्षफलमज्जतिलाजगन्धाः । साङ्गकुसुमैः समपूगवल्कैः ॥ 9 सम्पिष्य यः प्रकुरुते बहुशः प्रलेपम् । खालित्यमस्य न पदं विदधाति मूर्ध्नि ॥ नीलकमल, बहेड़े की गुठलीकी मज्जा (गिरी), तिल, अजमोद, फूलप्रियङ्गु और सुपारीके छिलके समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकर बार बार लेप करनेसे खालित्य ( गञ्ज ) नष्ट हो जाता है होने वाले विसर्प के लिये है । ) (३५५८) न्यग्रोधादिलेप: (२) और पुनः नहीं होता । (३५५६) नील्यादियोग: ( र. र. रसा. ख. । उपदे. ५ ) नीलीपत्राणि कासीसं भृङ्गराजरसं दधि । लोहचूर्ण समं पिष्ट्वा तल्लेपं केशरञ्जनम् ॥ भारत-भैषज्य रत्नाकरः । नीलके पत्ते, कसीस, भंगरेका रस, दही, और लोहचूर्ण समान भाग लेकर पीसकर लेप करनेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं। ( यदि लेप गाढ़ा हो तो उसमें भंगरेका रस अधिक मिला लेना चाहिये । बालोंपर लेप करके ऊपरसे अरण्ड या केलेका पत्ता बांध देना चाहिये और दूसरे दिन लेप धोकर तैल लगा देना चाहिये ! ) [ नकारादि लक्ष्णपिष्ठैर्यथालाभ शिशोः कार्ये प्रलेपनम् । सदाह रागविस्फोट: वेदनाव्रणशान्तये || (३५५७) न्यग्रोधादिलेप: (१) (वं. से. 1 बाल. ) न्यग्रोधोदुम्ब रोश्वत्थलक्ष वेतसजम्बुजैः । त्वर्यष्टयाहममिष्ठाचन्दनोशीर पद्मकैः 5: 11 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़, गूलर, अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष ), पिलखन, बेत, और जामन; इनकी छाल तथा मुलैठी, मजीठ, लाल चन्दन, खस और पद्माक । इनमें से जितनी चीजें मिल सकें वह सब समान भाग लेकर महीन पीसकर लेप करनेसे बालकके दाह, सुर्खी, विस्फोटक और वेदना युक्त व्रण नष्ट होते हैं । (यह योग बालकोंके शिर तथा बस्ति प्रदेश में (वृ. नि. र.; यो. र.; वं. से. । विसर्प. ) न्यग्रोधपादो गुआ' च कदलीगर्भ एव च । तैर्ग्रन्थिविसर्प लेप धौताज्यसंयुतः ।। बड़की जड़ की छाल ( या जटा ), चींटली ( मतान्तर में पटेर ) और केलेकी मूसलीको महीन पीस कर सौ बार धुले हुवे घृतमें मिलाकर लगाने से प्रन्थिविसर्प नष्ट होता है । (३५५९) न्यग्रोधादिलेप: (३) (बृ. नि. र.; वं. से. । मसू. ) न्यग्रोधप्लक्षमञ्जिष्ठाशिरीषोदुम्बरत्वचाम् । ससर्पिष्कं मसूर्य्यान्तु वातजायां प्रलेपनम् ॥ बड़की छाल, पिलस्बन की छाल, मनीठ, सिरसकी छाल, और गूलरकी छालके समभाग मिश्रित चूर्णको घी में मिलाकर लगाने से वातज सूरिका नष्ट होती है । १---' गुन्द्रा' इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाकरणम् ] तृतीयो भागः। [२१३] - (३५६०) न्यग्रोधादिलेपः (४) । (३५६१) न्यग्रोधादिलेपः (५) ( वृ. नि. र. । व्रण.; वं. से.; यो. र. । विसर्प.) ( यो. र.; वृ. नि: र.; ग. नि.; . मा. । व्रणशो.) न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्यप्लक्षवेतसकवल्कलै । न्यग्रोधोदुम्बरोश्वत्थप्लक्षवेतसशेलुभिः । ससर्पिष्कैः प्रलेपः स्याच्छोफनिरिणः परः॥ चन्दनद्वयमनिष्ठायष्टीमरणगैरिकैः ॥ बड़, गूलर, पीपलवृक्ष, पिलखन और त शतधौतघृतोन्मित्रैलेंपो रक्तप्रसादनः।। की छालके महीन चूर्णको धीमें मिलाकर लेप करनेदाहपाकरुजासावशोफनिर्वापणं परः ॥ | से ब्रणकी सूजन नष्ट होती है। आगन्तुजे रक्तजे च एष लेपोतिपूजितः ॥ (३५६२) न्यग्रोधाद्युदर्तनम् बड़की छाल, गूलरकी छाल, पीपलकी छाल, (वै. जी. । वि. ४) पिलखनकी छाल, बेतकी छाल, लिहसौड़ेकी छाल, | न्यग्रोधाङ्करकुष्ठरोधविकसाश्यामामसूरारुण । सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मजीठ, मुलैठी, सूरण श्रीखाः पयसान्वितैर्विरचित्तं व्यङ्गनमुद्वर्त्तनम् ।। ( जिमिकन्द ) और गेरुके समान भाग मिश्रित बड़के अंकुर (कांपल), कूठ, लोध, मजीठ, चूर्णको सौ बार धुले हुवे धीमें मिलाकर लेप करने- फूलप्रियङ्ग, मसूर, सफेद चन्दन और लाल चन्दनसे दाह, पाक, पीड़ा, स्राव और शोथ युक्त आग- के समान भाग मिश्रित चूर्णको दूधमें मिलाकर न्तुक तथा रक्तज विसर्प नष्ट होता है। उबटन करनेसे मुखकी झाई नष्ट हो जाती हैं । इति नकारादिलेपप्रकरणम्। Cameer अथ नकारादिधूपप्रकरणम् (३५६३) निम्बकाष्ठधूपः | (३५६४) निम्बादिधूपः (१) ( यो. त. । त. ७५) ( वृ. नि. र. । ज्वरा.) धूपिते योनिरन्ध्रे च निम्बकाष्ठेन युक्तितः। निम्बपत्रं वचा कुष्ठं पथ्या सिद्धार्थकं घृतम् । ऋत्वन्ते रमते या स्त्री न सा गर्भमवाप्नुयात्।। विषमज्वरनाशाय गुग्गुलुश्चेति धूपनम् ॥ ____ यदि ऋतुकालके अन्तमें योनिको नीमकी नीमके पत्ते, बच, कूठ, हर्ष, सफेद सरसों, लकड़ी की धूनी देकर स्त्री पुरुषसमागम करें तो और गूगलके चूर्णको घीमें मिलाकर उसकी धूप गर्म नहीं रहता । देनेसे विषम ज्वर नष्ट होता है । For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२१४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि (३५६५) निम्बादिधूपः (२) पानीको एकत्र मिलाकर उसकी बारीक धार बन्द (र. र. । ज्वरा.) आंख पर छोड़िये । निम्बपत्रवचाहिजसर्पमिर्मोकसर्पपैः । यह उपाय कफाभिष्यन्द में हितकर हैं। डाकिन्यादिहरो धूपो भूतोन्मादविनाशनः॥ । (नोट-~धूप आंख बन्द करके देनी चाहिये और ध्यान रखना चाहिये कि आंखमें धुवां न नीमके पत्ते, पच, हाँग, सांपकी कांचली और सरसोंकी धूप (धूनी) देने से डाकिमी जाने पावे।) आदिके उपद्रव और मूतोन्माद नष्ट होते हैं। । (३५६८) निर्गुण्डधादिधूपः (१) (३५६६) निम्बादिधूपः (३) (ग. नि.; पृ. नि. र.; यो. र. । ज्वरा. ) (भा. प्र.; यो. र. । प्रण.) निर्गुण्डीपुरसहितः सिद्धार्थनिम्बपत्रसंयुक्तः । निम्बपत्रवचाहिङ्गुसपिलवणसर्षपैः । सर्जरसेन समेतो धृपवरः सन्धिगं हन्ति ।। धूपन कृमिरभोघ्नं प्रणकण्डूरुजापहम् ॥ संभालुके पत्ते, गूगल, सफेद सरसों, नीमके नीमके पत्ते, बच, हींग, सेंधा नमक, और पत्ते, और राल । सब चीजें समान भाग लेफर सरसों के समभाग मिश्रित चूर्णको धीमें मिलाकर | कूटकर चूर्ण बनाव।। उसकी धूप देने से बणके कृमि, कण्डू और पीड़ा रोगीको इसकी धूप देनेसे सन्धिगतज्वर नष्ट मष्ट होती है। | होता है। (३५६७) निम्बादिधूपः (४) (३५६९) निर्गुण्डयादिधूपः (२) (वं. से.; यो. र. । नेत्र.) (ग. नि.; वृ. नि. र. । ज्वर.) निम्बार्कपत्रसम्पर्क लो, भागचतुष्टयम् ।। निर्गुण्डीपिचुमन्दकुष्ठविजयाकार्पाससिद्धार्थकैः । धूपः सर्पिः पयो भागैः कफे सेकः सुखाम्बुना।। षड्यन्थातगरामरेन्द्रतरुभिर्तिण्डमूलान्वितैः॥ नीम और आकके पत्तोंकी लुगदी के बीचमें | चण्डीयावकरुद्रमाल्यसहितैर्मध्वाज्यसंयोजितैइनसे ४ गुने लोधको रखकर गोलासा बनाकर धूपोऽयं ग्रहसन्निपातजनितां पीडां पिनष्टि क्षणात्।। उसके ऊपर मिट्टीका लेप करके पुटपाक विधिसे । । संभालके पत्ते, नीमके पत्ते, कूठ, भांग, कपास, पका लीजिए । तत्पश्चात् आंखकी पलकों पर उस सफेद सरसों, बच, तगर, देवदारु, आककी जड़, लोधकी धूनी दीजिये; अथवा घी, दूध और मन्दोष्ण | शिवलिङ्गी, कुलथ और बेलछाल के समान भाग -" सैन्धवैः" इति पाठअन्तरम् । मिश्रित चूर्णको शहद और घी में मिलाकर धूप २-"धमः" इति पाठान्तरम् । देनेसे ग्रह और सन्निपातजनित ज्वर नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूम्रप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२५] - (३५७०) निर्गुण्डयादिधूपः (३) पामापीनसकासनाशनकरो धूपो प्रहोच्छेदनः ।। ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) ___संभालके पत्ते, नीमके मत्ते, हरताल, सरसों, देवदार और खांडके समभाग मिश्रित चूर्णको घी निर्गुण्डीदलनिम्बपत्रहरितालं सार्षपं चूर्णकम् । और वाहद में मिलाकर धूप देनेसे भगन्दर, अर्श, देवाहं घृतशर्करामधुयुतं धूपं भगन्दारके ॥ | पीडायुक्त दुष्ट और विषम व्रण, विसर्प, पामा, दुर्नामे सरजे व्रणे च विषमे दुष्टे विसर्पेषु च । पीनस, खांसी और ग्रहदोष नष्ट होते हैं । इति नकारादिधूपप्रकरणम् । अथ नकारादिघूम्रप्रकरणम् (३५७१) नेपालिकादिधूम्रयोगा: ___ मनसिल, गायका सींग, कूठ, राल, और कुश (ग. नि. । हिक्का.) | में से किसी एकके चूर्णको घीमें मिलाकर उसका नेपाल्या गोविषाणस्य कुष्ठात्सर्जरसस्य घ।। धूम्रपान करनेसे हिक्का शान्त हो जाती है। धूमं कुशस्य वा साज्यं पिवेद्धिकोपशान्तये ॥ । इति नकारादिधूम्रप्रकरणम् । अथ नकाराधजनप्रकरणम् (३५७२) नक्तमालाद्यञ्जनम् ___ करा के फलेकी गिरी, सेठ, मिर्च, पीपल, (वृ. नि. र.; वं. से.; ग. नि.; . मा. | विषा.) बेलकी जड़की छाल, हल्दी, दारुहल्दी और नक्तमालफलं व्योष विल्वमूल निशाद्वयम् ।। तुलसीके फूल ( वा पत्र ) समान भाग लेकर पूर्ण सौरसं पुष्पामाजं च मूत्रं बोधनंमधनम् ॥ करके सबको बकरीके मूत्रमें घोटकर अत्यन्त महीन १ पत्रमिति पाठान्तरम् । अञ्जन बनावें। For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२१६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नफारदि - - - - इसे आंखमें लगानेसे विषसे मूर्छित हुवे । (३५७५) नयनसाणाअनम् । ममुष्यकी मूर्छा जाती रहती है। (भा. प्र. ख. २; यो. र. । नेत्र.) (३५७३) नकान्ध्यकेतुः कणा सलवणोषणा सह रसाञ्जना सामना । (वृ. यो. त. । त. १३०; वै. - । नेत्र.) सरित्पतिकफः सिता सितपुनर्नवा सम्भवा । रजन्यरुणचन्दनं मधु च तुत्यपथ्या शिला। हरेणुकां सैन्धवसम्पयुक्तां अरिष्टदलशावरस्फटिकशनाभीन्दवः॥ स्रोतोजयुक्तामुपकुल्यया च । | इमानि तु विचूर्णयेन्निबिडवाससा शोधयेत् । पिष्ट्वाजमूत्रेण कृता च वत्ति | तथायसि विमर्दयेत्समधुताम्रखण्डेन तत् ॥ नेतान्ध्यविध्वंसकरी नराणाम् ॥ | इदं मुनिभिरीरितं नयनशाणनामाअनम् । रेणुका, सेंधानमक, सौवीरान और दन्तीमूल करोति तिमिरक्षयं पटलपुष्पनाशं बलात् ॥ के समान भाग मिश्रित चूर्णको बकरेके मूत्रमें पीपल, सेंधानमक, काली मिर्च, रसाञ्जन, घोटकर बत्तियां बना। काला सुरमा, समुद्रफेन, मिश्री, सफेद पुनर्नवामूल, इन्हें आंखमें लगानेसे नक्तान्ध्य (रतौंधा ) हल्दी, लाल चन्दन, मुलैठी, तुत्थ (नीला थोथा), | हर्र, मनसिल, नीमके पत्ते, लोध, फटकी, शंखनाभि, नष्ट होता है। और कपूरके अत्यन्त महीन, गाढ़े कपड़से छने हुवे (३५७४) नक्तान्ध्यहरीवत्तिः समान भाग मिश्रितं चूर्णको लोहपात्रमें तांबेकी ( र. र. स. । उ. अ. २३) मूसलीसे शहदके साथ घोटें। ताम्रायलवणशक्षैस्तुल्या यह तिमिर, पटल और पुष्पको नष्ट करता है। मगधोद्भवाऽय वै धात्री। (३५७६) नयनसुखावतिः जलपिष्टा गुलिकेयं (भै. स.; . मा.; धन्व. । नेत्र.) __सायं समयान्ध्यमपहरति ॥ एकगुणा मागधिका द्विगुणा शुद्ध नैपाली ताम्रका चूर्ण, सेंधानमक और | च हरीतकी सलिलपिष्टा। संखका चूर्ण १-१ भाग तथा पीपल और आम वत्तिरियं नयनमुखालेका चूर्ण ३-३ भाग लेकर सबको पानीके साथ तिमिरामैपटलकाचाश्रुहरी॥ पीसकर बत्तियां बना लीजिये । ___ एक भाग पीपल और २ भाग हरके महीन | चूर्णको पानीके साथ पीसकर बत्तियां बना लें। इन्हें आंखमें आंजनेसे मतान्ध्य (स्तीधा) | १. भा. प्र. यह योग ‘नयनशोणाचन' नामसे नष्ट होता है। | लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२१७] यह " नयन सुखावर्तिः ” तिमिर, अर्म, | (३५७८) नयनामृताजनम् (१) काच, अश्रुश्राव और पटलको नष्ट करती है। (वृ. नि. र.; वं. से; यो. र.; वै. रह.; र. .) नेत्र.; भा. प्र. ख. १ । नेत्र प्रसादने; वृ. यो. (नोट-इस योगमें हर्र की गुठलीके भीतरकी । त.। त. १३१; यो. त. । त. ७१; यो. मजा डालनी चाहिये । ) चि. । अ. ३; वा. भ. । उ. अ. १७; (३५७७) नयनामृतवटी र. मं. ! अ. ८; र. र. स. । अ. २३) (वै. र. । नेत्र.) रसेन्द्रभुजगौ तुल्यौ तयोर्द्विगुणमञ्जनम् । शुण्ठीहरीतकीवन्यकुलत्यं खपरं तथा।। सूततुर्याशकर्पूरमअनं नयनामृतम् ॥ तिमिरं पटलं काचं शुक्रमार्जुनानि च । स्फटिकं श्वेतखदिरं पृथङ्माजूफलं समम् ॥ | क्रमात्पथ्याशिनो हन्ति तथान्यानपि दृग्गदान् ॥ कर मृगनाभिश्च मौक्तिकं च तदर्द्धकम् । प्रत्येकं निम्बुकद्रावैः खल्वे मध दिनत्रयम् ॥ पारा और शुद्ध सीसा १-१ भाग, शुद्ध सुरमा पश्चात्तु वटिकां कुर्याजलेन तिमिरं हरेत् । ४ भाग, और कपूर पारेसे चौथाई लेकर सबको स्तन्येन पुष्पपटल मधुना कानिकान्मलम् ॥ घोटकर अञ्जन बनावें । नेत्रस्रावं रसोनेन नत्तान्ध्य भृङ्गयोगतः।। इसके लगाने और पथ्य पालन करनेसे तिमिर, गोमूत्राचिपिटं मांसद्धि रम्भाजलेन तु ॥ | पटल, काच, शुक्र, अर्म, अर्जुन और अन्य नेत्ररोग भी नष्ट होते हैं। सोट, हर्र, केवटीमोथा, कुलथ, शुद्ध खप (प्रथम सीसेको पिघलाकर धार बांधकर धीरे रिया, स्फटिकमणि (अथवा फटकी ), सफेद | धीरे पारदमें छोड़ें और साथ ही साथ घुटवाते कत्था, और माजू फलका चूर्ण २-२ भाग; कपूर, | जायं जब दोनों मिलजाय तो उसमें अन्य चीजें कस्तूरी और सच्चे मोती १-१ भाग लेकर सबको | | मिलाकर घोटें।) ३ दिन तक नीबू के रसमें घोटकर गोलियां बनावें।। (३५७९) नयनामृताञ्जनम् (२) इन्हें पानी के साथ घिसकर आंखमें लगाने से (यो. चिं. । अ. ३) तिमिर, स्त्रीके दूधके साथ लगाने से पुष्प (फूला), शङ्खनाभिकणातुत्थं बोलखर्परसंयुतम् । निम्बूकरसतोयेन हयानं नयनामृतम् ॥ शहदसे पटल, काजीसे मल, रसौन ( ल्हसन ) के शङ्खकी नाभि, पीपल, शुद्ध नीला थोथा, बोल, रसके साथ लगानेसे नेत्रस्राय, भंगरेके रसके साथ | और शुद्ध खपरियाका चूर्ण समान भाग लेकर सबको लगानेसे रतौंधा, गोमूत्रसे चिपिट और केलेके रसके । १ दिन नीबूके रसमें घोटें । साथ घिसकर लगाने से मांसवृद्धि नष्ट होती है। इसका नाम ' नयनामृताञ्जन' है। For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२१८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि (३५८०) नषनेत्रदात्रीवत्तिः । के महीन चूर्णको पानीके साथ पीसकर बत्तियां (र. र. स. । उ. खं.अ. २३; र. चं. । नेत्र.) । इन्हें आंखमें लगानेसे क्लेद (आंखोंकी चिपद्विरष्टौ ताम्ररजसो मधुकस्य चतुर्दश । चिपाहट), उपदेह, और कण्डू तथा कफज नेत्र कुष्ठस्य द्वादशांशाः स्युर्वचायास्तु दशैव हि ॥ रोग नष्ट होते हैं। रजतस्य तु चत्वारो द्वौ भागौ कनकस्य च । सैन्धवस्याष्टसङ्ग्याता पिप्पल्याश्च षडेव तु ॥ (३५८२) नागाद्यानम् अजाक्षीरेण संपेष्य ताम्रपात्रे निधापयेत् ।। (वा. भ. । उ. स्था. अ. १३) अभिष्यन्दमधिमन्यं व्रणभुलं कुकूणकम् ॥ त्रिंशद्भागा भुजङ्गस्य गन्धपाषाणपञ्चकम् । तिमिरं पटलं कार्य कण्डं हन्ति विशेषतः ॥ शुल्वतालकयोद्वौं द्वौ वङ्गस्यैकोऽञ्जनात्त्रयम् ॥ ताम्रभस्म (अथवा चूर्ण) १६ भाग, मुलै- अन्धमृषीकृतं ध्यातं पकं विमलमजनम् । ठीका चूर्ण १४ भाग, कूठका चूर्ण १२ भाग, . तिमिरान्तकरं लोके द्वितीय इव भास्करः॥ बचका चूर्ण १० भाग, चांदीके वर्क ४ भाग, शुद्ध सीसा ३० भाग, शुद्ध गन्धक ५ भाग, सोनेके वर्क २ भाग, सेंधा नमकका चूर्ण आठ शुद्ध ताम्र और हरताल २-२ भाग, शुद्ध वन भाग, और पीपलका चूर्ण ६ भाग लेकर सबको १ भाग तथा अञ्जन ( सुरमा) ३ भाग लेकर १ दिन ताम्रपात्रमें बकरीके दूधके साथ घोटें। सबको अन्ध मूषामें बन्द करके तीब्राग्निमें (४ पहर) तत्पश्चात् बत्तियां बनाकर छायामें सुखा लें। पकावें । पश्चात् मूषाके स्वांग शीतल होने पर यह वर्ति अभिष्यन्द, अधिमन्थ, सबणशुक्ल, औषधको खरल करके सुरमा बनालें । कुकूणक, तिमिर, पटल, काच, और विशेषतः कण्डु ___ यह अञ्जन तिमिरको नष्ट करता है । तथा (आंखकी खुजली) को नष्ट करती है। | संसारमें दूसरे सूर्यके समान अन्धताको नष्ट करने (पानी या बकरीके दूधमें घिसकर लगाना | वाला है। चाहिये ।) (३५८३) नागार्जुनीगुटिका (३५८१) नवाङ्गीवत्तिः (ग. नि. । नेत्र.) (ग. नि. । नेत्ररोगा.) हरिद्रा निम्पपत्राणि पिप्पल्यो मरिचानि च । भद्रमुस्तं विडलानि ससम विष्वभेषजम् ॥ यूषणत्रिफलासिन्धुशिलालेन नवाङ्गिका। एतानि समभागानि छागमूत्रेण पेषयेत् । क्लेदोपदेहकड्नी वर्तिः शस्ता कफापहा ॥ कोलास्थिकागुटी छायाशुष्का नागार्जुनीति सा।। ____सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, वारिणा तिमिरं हन्ति मधुना पटलं तथा। सेंधानमक, मनसिल और हरताल । इन ९ चीजों । रात्र्यन्वं भृजराजेन नारीदुग्धेन पुष्पकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२१९] गवां मूत्रेण पिटिकां कामिकेन च कामलाम् ।। एकत्र मिलाकर वर्षा के शुद्ध जलसे घोटकर उशीररससंयुक्ता विषं वृश्चिकसम्भवम्॥ | बर्तियां बनावें। • हल्दी, नीमके पत्ते, पीपल, काली मिर्च, नागर तिमिर और पटल नाशक यह प्रयोग नागामोथा, बायबिडंग, और सांठ का समान भाग चूर्ण र्जुनने पटने के एक स्तम्भ पर लिखाया था। लेकर सबको बकरीके मूत्रमें घोटकर बेरकी गुठ- इन्हें स्त्रीके दूधमें घिसकर लगानेसे नवीन लीके बराबर गोलियां बनाकर छायामें सुखावें। | नेत्रपाक अवश्य नष्ट होजाता है। इन्हें पानीके साथ घिसकर आंखमें आंजनेसे | केसू ( टेसू ) के फूलेके रसके साथ लगानेतिमिर, शहदसे पटल, भंगरेके रससे रतौंधा, स्त्रीके से पिल्ल, पुष्प और सुर्सी तथा लोधके पानीके दूधसे फूला, गोमूत्रसे पिटिका, काजीसे कामला| साथ लगानेसे नवीन तिमिर नष्ट होता है। यदि और खसके काथके साथ घिसकर लगानेसे बिच्छूका आंखें बहुत समयसे बन्द हां तो इसे बकरेके मूत्रके विष नष्ट होता है। साथ घिसकर लगानेसे वे आसानी से खुल जाती (३५८४) नागार्जुनीवतिः हैं और साथ ही स्वच्छ भी हो जाती हैं। (र. का. थे.; र. र.; धन्व., वं. से.; भै. र.; (३५८५) नारायणाअनम् _. मा.; च. द; ग. नि. । नेत्ररोगा.) (वृ. यो. त. । त. १३१; वै. र. । नेत्र.) त्रिफलाव्योषसिन्धूत्थयष्टीतुत्थरसाधनम् । तुलस्या बिल्वपत्रस्य रसौ प्रायौ समांशको । प्रपौण्डरीकं जन्तु लोधं तानं चतुर्दशः ॥ ताभ्यां तुल्यं पयो नास्त्रितयं कांस्यभाजने ॥ द्रव्याण्येतानि सञ्चूर्ण्य वतिः कार्यानभोम्बुना। गजवल्लथा दृढं मद्य ताम्रेण महरं पुनः। नागार्जुनी तिमिराणां पटलानां तथैव च ॥ | कज्जलत्वं समुत्पाद्य तेनाञ्जितविलोचनः॥ नागार्जुनेन लिखिता स्तम्भे पाटलिपुत्रके। सरो नेत्ररुजं हन्ति सशूलां पाकजामपि॥ सद्यः कोपं च दुग्धेन स्त्रिया विजयते ध्रुवम् ॥ तुलसी और बेलके पत्तोंका रस १-१ भाग किंशुकस्वरसेनाथ पिल्लपुष्पकरक्तताः ।। तथा स्त्रीका दूध दो भाग लेकर तीनोंको कांसीकी अञ्जनाल्लोधतोयेन आसन्नतिमिरं जयेत् ॥ । थालीमें नागरबेलके पानके साथ तांबेकी मूसली से चिरं संछादिते नेत्रे बस्तमूत्रेण संयुता। | घोटें। जब कज्जलके समान हो जाय तो निकालकर उन्मीलयत्यकृच्छ्रेण प्रसादश्चाधिगच्छति ॥ सुरक्षित रक्खें । हरे, बहेडा, आमला, सांठ, मिर्च, पीपल, इसके लगानेसे नेत्रपाक और आंखकी पीड़ा सेंधानमक, मुलैठी, नीला थोथा, रसौत, प्रपौण्डरीक | नष्ट होती है । (पुण्डरिया), बायबिडंग, लोध और ताम्र भस्म ।। (नीम या किसी अन्य लकड़ीके सोटेमें तांबेका इन १४ चीजेंके महीन चूर्णको समान भाग लेकर । पैसा लगवाकर उससे घोटना चाहिये ।) For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [२२०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि (३५८६) निशायञ्जनम् । (३५८९) नीलोत्पलाधअनम् (वृ. नि. र.; यो. र. । ज्वर.) (च. द.; . मा.; ग. नि. । नेत्ररो.) ज्वरेऽञ्जनं निशातैलकृष्णामरिचसैन्धवैः। नीलोत्पलं विडङ्गानि पिप्पली रक्तचन्दनम् । वचाहरीतकीसर्पिधूपः स्याद्विषमज्वरे ॥ अञ्जनं सैन्धवं चैव सद्यस्तिमिरनाशनम् ॥ हल्दी, पीपल, कालीमिर्च और सेंधा नमकके नीलकमल, बायबिडंग, पीपल, लाल चन्दन, समान भाग मिश्रित चूर्णको तैलमें घोटकर आंखमें | सुरमा और सेंधा नमकका समान भाग महीन चूर्ण लगाने से अथवा बच, हर्र और घीकी धूप देनेसे | लेकर एकत्र मिलाकर घोटें । विषम ज्वर नष्ट होता है। इसे आंखमें लगानेसे तिमिर रोग शीघ्र ही (३५८७) नीलाञ्जनशोधनम् नष्ट हो जाता है। ( रसे. सा. सं. । पू. ख.; यो. चि. । अ. ७ (३५९०) नेत्रवतिः आ. वे. प्र. | अ. ८) ( आ. वे. वि. । चिकि. अ. ७३) नीलाञ्जनं चूर्णयित्वा जम्बीररसभावितम् । । तुत्यकं तोलकमितं टानं सर्जिकं तथा । दिनैकमातपे शुद्धं भवेत्कार्येषु योजयेत् ॥ द्रावयित्वा मुपामध्ये तत्र माषमितं धनम् ॥ ___काले सुरमेके चूर्णको १ दिन जम्बीरी मिश्रयित्वा कृत्वा नेत्रवर्ती नेत्ररुजापहा । भाषिता श्रीमहेशेन सथः शान्तिपदा शुभा ।। नौबूके रसमें घोटकर धूपमें सुखा लेनेसे वह शुद्ध हो जाता है। नीलाथोथा १ तोला, सुहागा १ तोला और सज्जीखार १ तोला लेकर तीनोंको खुली मूषा में (३५८८) नीलोत्पलादिगुटिकाञ्जनम् । रखकर पिघलाबें तत्पश्चात् उसमें १ माषा कपूर (ग. नि. । नेत्र.) | मिलाकर खरलमें धोटकर बर्ति बनावें। मीलोत्पलस्य किञ्जल्कं गोशकद्रससंयुतम। इसे आंखमें आंजने से नेत्र पीड़ा नष्ट मुटिकाअनमेतत्स्यादिनरायन्धयोहितम् ॥ | होती है। नील कमलकी केसरको गायके गोबरके रसमें | (३५९१) नेपालादिवतिः घोटकर गोलियां बनावें । (यो. र. । नेत्र.) इन्हें आंखोंमें लगानेसे दिवान्धता और राज्य- नेपालत्रिफलामकान्ताव्योपं च पेषितम् । न्धता ( रतौंधी) नष्ट होती है। वर्तीकृतं बलासोत्यपालन तिमिरापह।। For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२२१] - नेपाली ताम्रभस्म ( अथवा अत्यन्त महीन चूर्णको पानीके साथ पीसकर बत्तियां बनावें । चूर्ण) हर्र, बहेड़ा, आमला, शंख, रेणुका, सोंठ, इसे आंख में आंजने से कफज तिमिर रोग मिर्च, और पीपल; सबके समानभाग मिश्रित । नष्ट होता है। इति नकाराधञ्जनप्रकरणम् । अथ नकारादिनस्यप्रकरणम् (३५९२) नवसादरचूर्णयोगः पारदभस्म, ताम्रभस्म, लोहभस्म, चीतेका (पृ. नि. र. । शिरो.) चूर्ण, सुहागेकी खील, शुद्ध खपरिया और सोंठ, | मिर्च, तथा पीपलका महीन चूर्ण बराबर बराबर नस्येन कलिकाचूर्ण नवसागरज रजः। लेकर सबको एकत्र मिलाकर एकदिन आकके पातश्लेष्मभवां पीडां शिरसो हन्ति सर्वथा ॥ दूधमें घोटें। __ कलीचूना और नौसादर समान भाग मिलाकर सूंघनेसे वातकफज शिरशूल नष्ट हो जाता है। __ आकके दूधमें मिलाकर इसकी नस्य देनेसे ( यह तीव्र नस्य है अत एव अधिक न सूंघनी | सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। चाहिये । अथवा इन दोनोंको एक शीशीमें भर- नोट—इसे सावधानी पूर्वक रोगीके बलाबलका कर रक्खें जब सूंघना हो तब शीशीमें २-३ बूंद विचार करके यथोचित मात्रानुसार देनी पानी डाल दें और उससे जो वाष्प निकले उसे चाहिये। सूचे। | (३५९४) नागरादिनस्यम् (यह नस्य बिच्छूके विषको भी नष्ट करती है।) (३५९३) नस्यभैरवः ( वं. से.; वृ. नि. र.; वृ. मा. । शिरो.) (र. चं.; र. सा. सं.; र. रा. मुं.; र. का.धे.। | नागरकल्कविमिश्रं क्षीरं नस्येन योजित पंसाम। ___ ज्वर.; रसेन्द्रचिं. । अ. ९) | नानादोषोद्भूतां शिरोरुज हन्ति तीव्रतराम् ।। मृत्सतार्वतीक्षणाभि टणं खरं समम् ।। । सोंठको दूधमें घिसकर नस्य लेनेसे विविध सम्योपमर्कदुग्धेन दिन सम्मर्दयेदृढम् ॥ दोषों से उत्पन्न तीव्रतर शिर पीड़ा भी नष्ट हो अक्षीरस्तं नस्य सविपातहरं परम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [२२२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि निम्बतैलनस्यम् | (३५९६) निर्गुण्डीमूलनस्यम् (ग. नि. । रसाय.) (ग. नि. । ग्रन्ध्या .; वृं. मा. । गलगं.) तैल प्रकरण में "निम्बतैलप्रयोग” देखिये। गण्डमालामयार्त्तानां नस्यकर्मणि योजयेत् । (३५९५) निम्बादिनस्यम् निर्गुण्डयास्तु शिफां सम्यग्वारिणा परिपेषिताम्।। ( भा. प्र. ख. २ । नासा.) नस्य हितं निम्बरसाञ्जनाभ्यां ___ गण्डमाला रोगमें संभालुकी जड़को पानीके दी शिरःस्वेदनमल्पशस्तु । साथ पीसकर उसकी नस्य देनी चाहिये। नस्ये कुते क्षीरजलावसेका (३५९७) निर्गुण्डयादिनस्यम् __ उच्छमन्ति भुञ्जीत च मुद्गयूषैः॥ । (यो. र.; वृ. नि. र. । अपस्मार ) दीप्त नामक नासारोगमें नीमके पत्तोंके रस निर्गुण्डीभववन्दाकनावनस्योपयोगतः । और रसौतकी नस्य लेनी, शिरको थोड़ा स्वेदित करना, तथा नस्यके पश्चात् शिरपर दूध और | उपैति सहसा नाशमपस्मारो न संशयः ॥ पानीकी धार डालना एवं मूंगका यूष और भात | संभालुके बन्दे की नस्य देनेसे अपस्मार खाना चाहिये। रोग तुरन्त नष्ट हो जाता है। इति नकारादिनस्यप्रकरणम् । अथ नकारादिकल्पप्रकरणम् (३५९८) निर्गुण्डीकल्पः (१) यावज्जीवेत्,बद्धशुक्रः स्त्रीशतं कामयितुं समो ___(भै. र. । रसायना.) भवति । शाकाम्ल विहाय यथेच्छया भोज्यम् । | तच्चूर्ण गोमूत्रेण सह यः पिबति हन्त्यष्टादश निर्गुण्डीमूलचूर्णमष्टपलं गृहीत्वा षोडशपलं कुष्ठानि पामोविचर्चिकादीनि नाडीव्रणगुल्ममधुमिश्रितं मर्दयित्वाघृतभाण्डे कृत्वा शरावेणा- शूलप्लीहोदराणि । तच्चूर्ण तक्रेण यः पिबति स च्छाध निविडलेपनं दत्त्वा मासमेकं धान्य- सर्वरोगविवर्जितो गृध्रदृष्टिवराहबलो भवति, मध्ये स्थापयेत् । तन्मासमेकं भक्षितमात्रेण वलीपलितवन्जितः पवनवेगो दिव्यमूर्तिभवति नरः कनकव) गृध्रदृष्टिः सर्वरोगविवर्जितः मासद्वयमयोगेणपण्डितश्च न संशयः ।। पलीपलितहीनः । सम्वत्सरं खादिते चन्द्रार्क संभालकी जड़के ८ पल चूर्णमें १६ पल For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२२३] शहद मिलाकर उसे घृतसे चिकने किये हुवे मिट्टीके । तच्चूर्ण क्षीरमध्वाज्यैलौंडितं स्निग्धभाण्डके। पात्रमें भरकर उसके मुखपर शराव ढककर सन्धि | रुद्धा क्षिपेद्धान्यराशौ मासादुद्धत्य भक्षयेत् ॥ पर कपड़मिट्टी कर दें । तत्पश्चात् इस पात्रको द्विपलं वर्षपर्यन्तं जीवेश्चन्द्रार्कतारकम् । अनाजके ढेरमें दबा दें और एक मास पश्चात् तच्चूर्णापलं चाज्यैलिहेत्स्यात्पूर्ववत्फलम् ॥ निकालकर यथोचित मात्रानुसार सेवन करें। तच्चूर्ण त्रिफला मुण्डी भङ्गी निम्बो गुडूचिका । इसे १ मास तक सेवन करने से मनुष्यका | वचा चैषां समं चूर्ण मध्वाज्याभ्यां लिहेल्पलम।। शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान् और उसकी वर्षान्मृत्यु जरां हन्ति जीवेद्ब्रह्मदिनत्रयम् । दृष्टि गृध्रके समान तीक्ष्ण हो जाती है तथा निर्गुण्डीपत्र द्राव भाण्डे मृद्वग्निना पचेत् ॥ वह सर्व रोग और बलिपलित रहित हो जाता है। गुडवत्याकमापन्नं पीतं वान्तिविरेककृत् । १ वर्ष तक खानेसे दीर्घ जीवन और प्रबल निर्यान्तिकमयस्तस्यमुखनासाक्षिकर्णतः ॥ कामशक्ति प्राप्त होती है। राजयक्ष्मादिरोगांश्च सप्ताहेन विनाशयेत् । इसके सेवन कालमें शाक और अम्ल पदार्थों मासत्रयाञ्जरां इन्ति जीवेद्वर्षशतत्रयम् ॥ को छोड़कर यथेच्छ आहार करना चाहिये। | "ॐनमो माय गणपतये भूपतये कुबेराय स्वाहा' | इति भक्षणमन्त्रः॥ इस चूर्णको गोमूत्रके साथ पीनेसे अठारह पुष्य नक्षत्रमें प्रातःकाल निर्गुण्डी (संभाल) प्रकारके कुष्ठ, पामा, विचर्चिका, नाडीव्रण, गुल्म, | । नाडावण, गुल्म, की जड़की छाल उतारकर उसे छायामें सुखा कर शूल, तिल्ली और उदररोगांका नाश होता है। | चूर्ण बनावें । इसे ११ तोले (१ कर्ष) की मात्राइसे तक्रके साथ सेवन करनेसे मनुष्य समस्त नुसार १ पल (५ तोले ) बकरीके मूत्रके साथ रोगरहित, बलवान, गृध्रदृष्टि, बलि पलितरहित, | ६ मास तक पीनेसे मनुष्य अमर हो जाता है । पवनके समान वेगवाला और दिव्य रूपवान हो १ वर्ष तक सेवन करनेसे शिव समान हो जाता है। जाता है। __इस चूर्णको दूध, शहद और घीमें मिलाकर दो मासतक सेवन करनेसे पंडित हो जाता है। मिट्टीके चिकने बरतनमें भरकर उसके मुखको (३५९९) निर्गुण्डीकल्पः (२) शरावसे ढक दें और उस पर कपर मिट्टी कर दें। इस बरतनको अनाजके ढेरमें दबा दें और १ मास (र. र. र. । उपदेश ४) पश्चात् निकालकर सेवन करें। पुष्पार्के ग्राहयेत्यातनिर्गुण्डीमूलजा त्वचम् । इसमें से नित्य प्रति २ पल दवा १ वर्ष छापाशुष्का विचूाय कर्षमेकं पिवेत्सदा ॥ | तक सेवन करनेसे दीर्घायु प्राप्त होती है। अजामूत्रपलैकेन षण्मासादमरो भवेत् । । उपरोक्त चूर्णमें से आधा पल लेकर धीमें वर्षमात्रमयोगेण शिवतुल्यो भवेभरः॥ मिलाकर खानेसे भी दीर्घायु प्राप्त होती है। For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२२४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि - ___ इस चूर्णमें समान भाग त्रिफला, मुण्डी, आंख और कानसे कृमि निकल कर सात दिनमें भंगरा, नीमकी छाल, गिलोय और बचका चूर्ण | राजयक्ष्मा इत्यादि रोग नष्ट हो जाते हैं । मिलाकर उसमें से १ पलकी मात्रानुसार शहद तीन मास तक सेवन करने से जरा (वृद्धाऔर घीके साथ खाने से १ वर्षमें मनुष्य जरामृत्यु बस्था दूर होकर तीनसौ वर्षकी आयु प्राप्त रहित हो जाता है। होती है। निर्गुण्डी (संभाल ) के पत्तोंके रसको मन्दामिपर पकाकर गुड़के समान गाढ़ा करें। इसे ____ इसे "ॐ नमो माय.... स्वाहा” मन्त्र पढ़कर खानेसे वमन और विरेचन होता तथा मुख, नाक, 'खाना चाहिये । इति नकारादिकल्पप्रकरणम् । अथ नकरादिरसप्रकरणम् नोट-पारा, गन्धक, वछनाग आदि समस्त रस, यावन्तो नेत्ररोगांश्च तानिहन्ति न संशयः । उपरस, विष, उपविष आदि शुद्ध ही लेने | (अत्र सर्वचूर्णसमं लौहाभं ग्राह्यम् ) चाहियें चाहे टीकामें इनके नामके साथ । सोंठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, 'शुद्ध' शब्द लिखा हो या न लिखा हो। काकड़ासिंगी कचूर, रास्ना, अतीस, दाख (भुनक्का), (३६००) नयनचन्द्रलोहम् नीलकमल, काकोली, मुलैटी, कंधी, नागकेसर, छोटी कटेली और बड़ी कटेली का चूर्ण १-१ (भै. र.; धन्वं.; र. रा. सु.; र. सा. स. । नेत्ररो.) भाग, लोहभस्म ९ भाग और अभ्रकभस्म ९ भाग। त्रिकटु त्रिफला भृङ्गी शठी रास्ना महौषधम् । सबको एकत्र मिलाकर १-१ दिन त्रिफलाके द्राक्षा नीलोत्पलश्चैव काकोली मधुयष्टिका ॥ काथ, तिलके तैल और भंगरेके रसमें घोटकर वाटयालक केशरश्च कण्टकारीद्वयं तथा। | बेरकी गुठलीके समान गोलियां बनावें । लौहाभ्रयोः पलं दत्त्वा भावयेदौषधैरिमैः ॥ इनके सेवनसे समस्त नेत्ररोग नष्ट होते हैं । त्रिफलाकायतैलेन हाराजरसेन च । ( मात्रा-१ से २ गोली तक । घीके साथ) भावयित्वा वटी कार्या बदरास्थिमिता शुभा ॥ नयनामृतलोहम् -रसेन्द्रसार संग्रामें " नयनामृतलोह" नाम (र. सा. सं., वृं मा. । नेत्र.) मिला है। नयनचन्द्रलोह देखिये। - For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् तृतीयो भागः। [२२५] (३६०१) नवज्वरमुरारिरसः काथमें बुझावें । ( हरेक पदार्थमें कमसे कम सात ( र. र. स. । उ. खं. अ. १२) बार बुझाना चाहिये ) तत्पश्चात् उससे दो गुने हरश्च गन्धकश्चैव कुनटी च समं समम् । गन्धक और शिंगरफको एकत्र मिलाकर पानीके साथ घोटकर उन पत्रों पर लेप करदें मर्ये कर्कोटिकायाश्च रसेन विनियोजयेत् ॥ और उन्हें नवज्वरमुरारिः स्याद्वल्लं शर्करया सह । शराव सम्पुट में बन्द करके उसके उपर सात कपर मिट्टी कर दें । तत्पश्चात् इस सम्पुटको तण्डुलीयरसश्चानुपानं शर्करयाऽपि वा ॥ सुखाकर ४ पहर तक लवणयन्त्रमें तीब्राग्नि पर गुञ्जाद्वयप्रमाणेन ज्वरान्हन्ति नवान्हठात् ॥ पका और फिर यन्त्र के स्वांग शीतल होनेपर शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध मनसिल, | उसमेंसे औषधको निकालकर पीस लें। समान भाग लेकर सबको एकत्र म्वरल करके एक | इसमें से १-१ रत्ती दवा अद्रकके रसके दिन ककोड़ेके रसमें घोटें। साथ देनेसे नवीन ज्वर नष्ट होता है। इसे खांडके साथ मिलाकर खिलानेसे नवीन नवज्वरविनाशनरसः ज्वर नष्ट होता है। मात्रा---२ रत्ती । अनुपान-चौलाईकी जड़ (वै. क. दु. । स्क. २ ज्वर.) का काथ या खांडका शर्बत । "प्रचण्डरस” देखिये। (३६०२) नवज्वररिपुरसः (३६०३) नवज्वरहरीवटी । (वृ. यो. त. । त. ५९; भा. प्र. ख. २; (र. रा. सुं.; र. का. धे.। वर.; रसें. चि.अ.९) र. रा. मुं. । चर.) तानं पत्रमयं प्रताप्य वहुशो निर्वाप्य पश्चामृते। रसो गन्धो विपं शुण्ठी पिप्पली मरिचानि च । गोमूत्रेऽग्निजले वलिद्विगुणितं पथ्या विभीतकं धात्री दन्तीवीजं च शोधितम।। म्लेच्छेन पिष्टेन च ॥ चूर्णमेपां समांशानां द्रोणपुप्पीरसैः पुटे । लिप्त्वा सप्तमृदांशुकैरथ पुनः सामुद्रयामं पचेत्। | वटीं माषनिभां कुर्याद्भक्षयेन्नूतने ज्वरे ॥ यन्त्रे लावणिके नवज्वररिपुः स्याद्गुञ्जया शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया सम्मितः॥ (बछनाग), सोंठ, पीपल, मिर्च, हर्र, बहेड़ा, आमला ( अत्रआईकरसानुपानम् ।) और शुद्ध जमाल गोटा । सब चीजें समान भाग ताम्रके बारीक पत्रोंको बारबार तपाकर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और पञ्चामृत में वुझावें, फिर गोमूत्र और चीते के। फिर उसमें अन्य चीजें|का कपड़छन महीन चूर्ण १-पञ्चामृत = गिलोय, गोखरू, मूसली, मुण्डी, | मिलाकर सबको १ दिन गूमाके रससे घोटकर उर्दके बराबर गोलियां बनावें। शतावर । For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - [२२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि इनके सेवनसे नवीन ज्वर नष्ट होता है । । प्रभाते सितया सार्धमशिता शीतवारिणा । (३६०४) नवज्वरहरो रसः (१) एकेन दिवसे नैव नवज्वरहरा भवेत् ॥ (र. का. धे. । ज्वर.) शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, समिपाल शुद्ध हिंगुल (शिंगरफ) ३ भाग, और शुद्ध विद्विद्वित्रिविकरसतुलितं दन्तीरसैखिदिनम् ॥ जमालगोटा ४ भाग लेकर प्रथम पारेगन्धककी भावितमय तद्गजाहयमिह देयं सितासहितम् । का | कज्जली बना लीजिये तत्पश्चात् उसमें अन्य चीजें सद्राक्ष वा तर्क दद्यात् पथ्यं ज्वरहरो यामात ॥ मिलाकर दन्तीमूलके काथमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लीजिये। __ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील और | ताम्र भस्म २-२ भाग, शुद्ध हिंगुल (शिंगरफ) इनमें से एक एक गोली प्रातःकाल खाडमें मिलाकर ठण्डे पानी खानेसे नवीन ज्वर एकही ३ भाग और शुद्ध जमालगोटा ६ भाग लेकर | दिनमें नष्ट हो जाता है। प्रथम पार गन्धकको कज्जली बनावें; तत्पश्चात् नोट-रसराज सुन्दरमें इसका नाम 'नवज्वरउसमें अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाफर सबको ३ दिन तक दन्तीमूलके काथमें पोटें और फिर उसका गोला बनाकर, सुखाकर उसे सम्पुटमें नवज्यरारण्यकृशानुमेघरसः बन्द करके गजपुटमें फूंकदें और फिर निकालकर (र. च. । ज्वर.) पासलें। ( भा. मै. र. भाग २ में पृष्ठ ५०४ पर इसे सांड या दाख (मुनक्का ) के साथ | २७७८ संख्यक "प्रैलोक्य मुन्दर" (५) | देखिये । उसीका नाम रसचण्डांशु में 'नवजरापथ्य-छाछ ( तक)। रण्यकृशानुमेघरस' दिया है। (३६०६) नववरारिरसः ( मात्रा--१ रती।) (र. का. धे. । ज्वर.) नववरहरो रसः (२) नबज्वरहरीवटी देखिये । त्रिसप्तकत्वो रसकं भावयेथिम्पुनीरतः । तद्धा नवनीतेन.भावयेन्मतिमान्भिषक् ॥ (१९०५) नवज्यरानुशरसः वल्लद्वयं सितायुक्तं दापयेत्तु नवज्वेर । (र. चं.; र. सा. सं.; धन्वं., र. का. धे.; | मुद्गयुषेण पथ्यं स्यामवज्वरनिवारणः ॥ __ मै. र.; र. रा. मुं. । ज्वर.) शुद्ध स्वपरिया को नीबूके रस की २१ भावना रसं गन्ध च दरद जैपालं क्रमवर्षितम् । । देकर या उसे नवनीत (नैनी पी ) में घोटबन्तीरसेन सम्पिज्य वटीगुजामिता कता ॥ । कर रक्खें । तानच For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२२७] इसमेंसे ६ रत्ती दवा मिश्रीके साथ देनेसे नवरत्नराजमृगाङ्करसः नवीन ज्वर नष्ट होता है। ( यो. र.; र. रा. सु. । यक्ष्मा.) पथ्य-मूंगका यूष और भात । "राजमृगाङ्क” देखिये। नवज्वरारिरसः (पर्पटिकारसः) । (३६०८) नवायसचूर्णम् (१) (र. र. स. । उ. अ. १२) (यो. चि. । अ. ३; च.सं. । चि. अ. २०; ग. "त्रैलोक्य सुन्दररस" (५) के समान ही है। नि. | चूर्णा.; यो. त. । त. २५; वृ. यो. त.। भारत भै. र. भाग २ पृष्ठ ५०४ पर प्रयोग सं. त. ७४; र. का. धे.। प्रमे.; भै. र.; रे. चं.; वं. २७७८ देखिये। से.; भा. प्र.; वृ. न. र.; वै.र.; वृं. मा; च. द.; र. (३६०७) नवज्वरेमसिंहरसः र.; र. रा. सु.; यो. र.; सु. सं.; । पाण्डुचिकि.) | वृषणं त्रिफला मुस्तं विडङ्ग चित्रकं तथा। ( भै. र.; . नि. र.; वै. क. दु. र. चं.; र. सा. | एतानि नव भागानि नवभाग हतायसम् ।। सं. र. रा. सु. र. का. धे. । ज्वर.; र. म.।। । एतदेकीकृतं चूर्ण नरोऽष्टादशरक्तिकम् । ____ अ. ७; रसें. चिं. । अ. ९.) पलिह्यान्मधुसर्पिभ्यां पिबेत्तक्रेण वा सह ॥ शुद्धसूतं तथा गन्ध लोह ताम्रश सीसकम् ।। गोमूत्रेण पिबेद्वापि पाण्डुरोगं स नाशयेत् । मरिच पिप्पली विश्वं समभागानि कारयेत् ॥ शो) हृद्रोगमुदरं कृमिकुष्ठं भगन्दरम् ॥ अर्द्धभार्ग विर्ष दत्वा मर्दयेद्वासरद्वयम् । नाशयेदग्निमाद्यं च दुर्नामकमरोचकम् । जवेरानुपानेन दद्याद्गुञ्जाइयं मिषक् ॥ आईफस्य रसेनापि लियात्कफसमृद्धिमान् ।। नवज्वरे महाघोरे धातुस्थे ग्रहणीगदे । | (अत्र नवायसं लोहं नवरक्तिकामितं भक्षणीयम्) नवज्वरेमसिंहोऽयं सर्वज्वरकुलान्तकृत् ॥ सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, __शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, ताम्र नागरमोथा, बायबिडंग और चीता । इनका चूर्ण भस्म, सौसाभस्म, कालीमिरच, सोंठ और पीपल १-१ भाग तथा लोहभस्म ९ भाग लेकर सबको १-१ भाग तथा शुद्ध बछनाग, (मीठा तेलिया) | एकत्र खरल करके रक्खें । आधा भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली इसे शहद और घी के साथ चाटने या छाछ बनावें, तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियांका महीन | अथवा गोमूत्रके साथ सेवन करने से पाण्डु, शोथ, चूर्ण मिलाकर २ दिन तक खरल करें। हृद्रोग, भगन्दर, उदर रोग, कृमि, कुष्ठ, अग्निमांद्य, इसमें से २ रत्ती औषध अद्रकके रसके साथ | अर्श और अरुचि आदि रोग नष्ट होते हैं। देनेसे घोर नवीन ज्वर तथा धातुगत ज्वर और यदि कफका प्रकोप हो तो अद्रकके रसके ग्रहणी विकार नष्ट होते हैं। | साथ सेवन करना चाहिए । For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि साधारण मात्रा-९ रत्ती तथा बलवान व्यक्तिके । निहन्ति पाण्डं श्वयधु प्रमेहं लिये १८ रत्ती। हलीमकं संग्रहणीपदोपम् । (३६०९) नवायसचूर्णम् ( वृहत् ) (२) श्वासश्च कासं च सरक्तपित्त(ग. नि. । चूर्णा.) मीसि चोर्वोत्रहमामवातम् ।। त्रिकटुत्रिफलैलाभिर्जातीफललवङ्गकैः । चिरायता, देवदारु, दारुहल्दी, नागरमोथा, | गिलोय, कुटकी, पटोलपत्र, घमासा, पित्तपापड़ा, नवभागोन्मितैरतः समं तीक्ष्णं मृतं भवेत् ।। सञ्चूालोडयेत्क्षौद्रे नित्यं यः सेवते नरः। नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, सांट, मिर्च, कासं श्वासं क्षयं मेहं पाण्डुरोगं भगन्दरम् ॥ | पीपल, चीता, और बायबिडंग का चूर्ण १-१ भाग तथा लोहभस्म सबके बराबर लेकर सबको घी और ज्वरं मन्दानलं शोफं सम्मोहं ग्रहणीं जयेत् ।। शहदमें धोटकर बेरके समान गोलियां बनावें । सेठ, काली मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, इनके सेवनसे पाण्ड, शोथ, प्रमेह, हलीमक, इलायची, जायफल और लैंौंग । सबका चूर्ण १-१ ।, | संग्रहणी, स्वास, खांसी, रक्तपित्त, अर्श, ऊरुग्रह भाग तथा तीक्ष्णलोह भस्म ९ भाग लेकर सबको । | और आमवात का नाश होता है। एकत्र खरल करके रक्खें। इसे शहदके साथ सेवन करनेसे खांसी, नवायसलोहम् श्वास, क्षय, प्रमेह, पाण्डु, भगन्दर, ज्वर, अग्नि (ग, नि.; यो. र.; वृ. यो. त.) मांध, शोथ, मोह और ग्रहणी विकार नष्ट होते हैं। भा. भै. रत्नाकर भाग २ पृष्ट ४७६ पर (मात्रा-१ माशा) "त्रिकट्वादि लोहम् " प्रयोग सं. २७०९ देखिये। (३६१०) नवायसचूर्णम् (गुटिका) (३) (३६११) नवायसलोहम् (ग. नि. । परि. चूर्णा.) (हा. सं. । पाण्डु.) किराततिक्तं सुरदारु दावी यूपणं त्रिफला मुस्ता विडङ्ग चित्रकं समम् । मुस्ता गुडूची कटुका पटोलम् । | भागमेकं लोहचूर्ण भावयेदिक्षुजै रसैः ।।। दुरालभा पर्पटकं सनिम्बं अष्टभागश्न मण्ड्रं दत्त्वा भाव्यञ्च पूर्ववत् । कटुत्रिकं वशिफलत्रिकं च ॥ शीलितन्तु मधुनाऽपि घृतेन विडङ्गकं चैव समांशकानि पाण्डुरोगहृदयामयापहम् । सर्वैः समं चूर्णमथापि लोहम् । सेवितं प्रवरकामलार्शसां सर्पिमधुभ्यां गुटिका विधेया नाशनं खलु हलीमकस्य च । सेव्या सदा वै बदरप्रमाणाः ।। सेांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२२९] नागरमोथा बायबिडंग और चीतेका चूर्ण तथा । अनार, खाडका शर्बत, दाख और दही देना चाहिए लोहभस्म १-१ भाग लेकर सबको एकत्र मिला- तथा आहारमें तकभात खिलाना चाहिये । कर ईखके रसके साथ घोटें तत्पश्चात् उसमें ८ । (३६१३) नष्टपुष्पान्तकरसः भाग मण्डूर भस्म मिलाकर १ दिन ईखके रसमें | (र. चं. । स्त्रीरो.) घोटकर रखें। रसेन्द्रं गन्धकं लौहं वङ्ग सौभाग्यमेव च । ___ इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे रजतानं च तानं च प्रत्येकं च पलं पलम् ॥ पाण्ड, हृद्रोग, प्रवृद्ध, कामला, अर्श और हलीमक गुडूचीत्रिफलादन्तीशेफालीकण्टकारिका । रोग नष्ट होता है। दारुजीवन्तीकुष्ठश्च बहतीकाकमाचिका ॥ (मात्रा-१ माशा।) नक्तं तालीसवेत्राग्रं श्वदंष्ट्रा वृषकम्बला । एतेषां स्वरसैर्भाव्यं त्रिवारं च पृथक् पृथक् ॥ (३६१२) नव्यचन्द्ररस: (र. चिं. । स्त. ११; र. रा. सुं. । ज्वर.) । | सैन्धवं मधुकं दन्ती लवङ्ग वंशलोचनम् । शम्भोर्षीज गलगतमथाङ्कोलबीजं च तीक्ष्णम् । रास्ना गोरबीजं च शाणमानं विचूर्णयेत् ॥ चेतो धात्री समलवमिदं मार्कवं वेदभागम् ॥ पण सर्वमेकी कृतं पेष्य जयन्तीतुलसीरसैः । " मर्दयित्वा वटीं कुर्याबष्टपुष्पकयोषिताम् ॥ श्लक्ष्णं पिष्ट्वा दहनसलिलैर्याममात्र त्रियामम्। का नष्टपुष्पे नष्टशुक्रे योनिशूले च शस्यते । भृङ्गस्याद्भिर्भवति रसराण्नव्यचन्द्राभिधानः ।। | योनिदाहे क्लेदयोन्यां नष्टपुष्पान्तको भवेत् ॥ वल्लं निम्बाईकभवरसैः सेवितो याममात्रा पारा, गन्धक, लोहभस्म, बंगभस्म, सुहागेकी चित्रं हन्याज्ज्वरमभिनवं तस्य तीव्रत्वशान्त्यै ।। दद्यादिक्षन्मधुरसयुतं दाडिमं शर्कराश्च । खील, चांदीभस्म, अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म । हरेक ५-५ तोले लेकर सबकी कज्जली करके द्राक्षामुख्यं सदधिवितरेत्पथ्यमन्नं सुतक्रम् ॥ उसे गिलोय, त्रिफला, दन्ती, हारसिंगार, कटेली, पारद भस्म, शुद्ध बछनाग (मीठातेलिया), मकोय, हल्दी, तालीस पत्र, बेतकी गोभ, गोखरु, अकोटके बीज, फौलादभस्म और चूका १-१ बासा और खरैटी में से हरेकके स्वरस (या काथ) भाग तथा भंगरा ४ भाग लेकर सबको एकत्र खरल की पृथक् पृथक् ३-३ भावना दें। तत्पश्चात् करके १ पहर चीतेके काथ और ३ पहर भंगरे । सेंधानमक, मुलैठी, दन्तीमूल, लौंग, बंसलोचन, के रसमें घोटें। रास्ना और गोखरु का १-१ शाण इसमें से ३ रत्ती औषध नीम या अद्रकके ( वर्तमान तोलसे हरेकको ५–माशे) चूर्ण उक्त रसके साथ देनेसे नवीन ज्वर १ पहर में ही उतर | औषधमें मिलाकर उसे १-१ दिन जयन्ती और जाता है। तुलसीके रसमें घोटकर (१-१ रत्तीकी) गोलियां यदि इसके सेवनसे दाह हो तो ईख, मीठा । बना लें । For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२३०] भारत-भैषज्य-स्नाकरः। [नकारादि ___यह गोलियां नष्टार्तव (मासिक धर्म न होना), तद्भस्ममाषमानन्तु तप्तोदककणायुतम् ॥ नष्टशुक्र, योनिदाह और योनिके क्लेद इत्यादि सर्वान् कृमींच्छासकासी हद्रोगादीन्विनाशयेत्।। विकारों में उपयोगी हैं। ५ तोले मनसिल और १। तोला पारेको (मात्रा-१ से २ गोली तक । अनुपान- | एकत्र खरल करके १ दिन ढाकके बीजोंके तैलमें उष्ण जल) | घोटें फिर ५ तोले सीसेके शुद्ध, कंटकवेधी पत्रोंनस्यभैरवः पर उसका लेप करके उन्हें सम्पुटमें बन्द करके (र. च.; र. सा. सं.; र. रा. सु.) पुटमें पकावें । उपले इतने डालने चाहिये कि नस्यप्रकरणमें देखिये । अग्नि ४ पहरमें शान्त हो जाय । तत्पश्चात् सम्पुटके स्वांगशीतल होने पर उसमें से सीसेको (३६१४) नागभक्तधादिः निकालकर उसपर उपरोक्त विधिसे मनसिलका (र. रा. सु. । प्रमेहा.) लेप करके पुनः पुटमें पकावें । जब तक सीसेकी तुल्यांश मारित सीसं दग्धं हरिणशृङ्गकम् । भस्म न हो जाय इसी प्रकार करते रहें । कार्पासबीजमज्जा च तुल्यमङ्कोलबीजकम् ॥ इसे समान भाग पीपलके चूर्णमें मिलाकर पेषयेन्माहिषैस्तक्रेर्दिनैकं वटकीकृतम् । । गर्म पानीके साथ सेवन करनेसे कृमि, श्वास, माषद्वयं सदाखादेत्सुरानामप्रमेहजित् ॥ | खांसी और हृद्रोगादि नष्ट होते हैं। सीसाभस्म, हरिनशृङ्गभस्म, कपासके बीज मात्रा १ माशा । ( व्यवहारिक मात्रा २-३ ( बिनौले ) की मज्जा, और अकोल ( हिंगोट ) के बीज बराबर बराबर लेकर सबको १ दिन | (३६१६) नागमस्मयोगः (२) भैसके तक्रमें घोटकर २-२ माशे की गोलियां (नपुंस. । त. ७; यो. र. । मेह.; वृ. यो. बना लें। त. । त. १०३) ___इनके सेवनसे सुरामेह नष्ट होता है। शुद्धस्य च मृतस्याहेरजो बल्लमित लिहेत् । सनिशामलकं क्षौद्रं सर्वमेहमशान्तये ॥ (३६१५) नागभस्मयोगः (१) ३ रत्ती सीसाभस्मको हल्दी और आमलेके (र. का. । कृमि.) (१-१ माषा) चूर्ण में मिलाकर शहदके साथ पलाशबीजतैलेन शिलां सम्मर्दयेद् दृढम् ।। चाटने से सर्व प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं । तनूनि नागपत्राणि तेन शुद्धानि लेपयेत् ॥ (३६१७) नागभस्मयोगः (३) पादांशं पारदं क्षिप्त्वा सम्पुटे रोधयेच्च तत् ।। (र. चं. । उपदंशचि.) दाहयेच्च चतुयोमं शीतं कुर्यात्पुनस्तथा ॥ ससितामृतनागच यो भजेदस्तिना मतम् । सथा लिप्त्वा दहेत्तावद्यावत्तद्भस्मतामियात् । तस्य सर्वेन्द्रियोत्पर्म रोगजालं हरेधुवम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] मृतीयो भागः। [३१] खांड, शुद्ध बछनाग ( मीठातेलिया) और । और उसमें से थोड़ा थोड़ा पिघले हुवे सीसेपर सीसाभस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र छिड़कते तथा उसे लोहेकी करछी से चलाते रहें। खरल करें। इस प्रकार १ पहरमें सीसेकी भस्म बन जायगी। इसके सेवनसे हर प्रकारका उपदंश नष्ट | अब इसमें इसके बराबर मनसिल मिलाकर काली होता है। के साथ घोटकर टिकिया बनावें और उन्हें सुखा( मात्रा-१ रती । अनुपान-शहद या कर सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। त्रिफलाकाथ ।) इसी प्रकार मनसिलके साथ काजीमें घोटकर साठ (३६१८) नागभस्मविधिः (१) पुट दें तो सीसेकी भस्म तैयार हो जायगी । ( आ. वे. प्र. । अ. ११; भा. प्र. पूर्व.) (३६२०) नागभस्मविधिः (३) ताम्बूलरससम्पिष्टशिलालेपात्पुनः पुनः। (अनु. त. । को. १) द्वात्रिंशद्भिः पुरैनांगो निरुत्थं भस्म जायते ॥ भागेकमहिफेनस्य नागभागवतुष्टयम् । १० तोले मनसिलको पानके रसमें घोट घर्षणाभिम्बकाष्ठेन मन्दवमिदानतः ॥ कर १० तोले सीसेके महीन पत्रोपर लेप करके नागभूतिर्भवेच्छेता वीर्यदार्यकरी मता ॥ उन्हें सम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी अग्निमें पकावें। १ भाग अफीम और ४ भाग सीसेको कदाई इसी प्रकार ३२ पुट देनेसे सीसेकी निरुत्थ भस्म में डालकर मन्दाग्नि पर चढ़ावें और उसे भस्म तैयार हो जाती है। होने तक नीमके सोटे से घोटते रहें। (३६१९) नागभस्मविधिः (२) ___ इस क्रियासे सीसेकी श्वेत भस्म बनती है जो वीर्यको पुष्ट करती है। (भा. प्र. । प्र. खं.) अश्वत्यचित्रात्वकचूर्ण चतुर्थाशेन निक्षिपेत् । (३६२१) नागमारणम् स्त्याने विद्रतो नागो लोहदा प्रचालितः ।। (र. प्र. सु. । अ. ४) यामैकेन भवेद्भस्म तत्तुल्या स्यान्मनःशिला। अथापरमकारेण नागमारणकं भवेत् । काधिकेन इयं पिष्ट्वा पचेद्गजपुटेन च ॥ लोहपात्रे द्रते नागे घर्षणं तु प्रकारयेत् ॥ साहसीतं पुनः पिष्ट्वा शिलया कालिकेन च। चतुर्या प्रयत्नेन मूलैश्चैव पलाशजैः । पुनः पचेच्छरावाभ्यामेवं षष्टिपुटैमृतिः ॥ अधस्ताज्ज्वालयेत्सम्यग्घठापि म्रियते ध्रुवम्॥ ८ भाग शुद्ध सीसेको लोहपात्र में डालकर रक्तामं जायते चूर्ण सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ अमिपर चढ़ावें और १-१ भाग इमली तथा पीप- शुद्ध सीसेको लोहेकी कढ़ाहीमें डालकर लको छालका चूर्ण एकत्र मिलाकर पास रख लें । उसे तीब्राग्निपर चढ़ा दें। जब सीसा पिघल जाय For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२३२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि तो उसे पलाशकी जड़से रगड़ना आरम्भ करे और ! अरण्योपलजं भस्म पलमानं प्रयोजयेत् । निरन्तर ४ पहर तक इसी प्रकार रगड़ते रहें। सर्वमेकत्र कृत्वा तु सुखल्वे मईयेदिनम् ।। इस क्रियासे सीसेकी लाल भस्म बन जाती है। आर्द्रकस्य रसेनाथ द्विगुआं भक्षयेत्पुमान् । (३६२२) नागरसः (१) शीताङ्गं सन्निपातं च वातरोगं जयेद् ध्रुवम् ।। पारा १ पल (५ तोले ), गन्धक २ पल, ( र. चं.; यो. र. । कास.) गन्धक द्वारा की हुई सीसेकी भस्म २।। पल, बछलवजातीफलजातिपत्रिका नाग ( मीठातेलिया ) २ पल, पीपुलका चूर्ण २ स्तथैव नागोषणग्रन्थिकानि। पल, काली मिर्चका चूर्ण २ पल तथा शङ्खभस्म कर्षप्रमाणानि तथैकशाणं और अरण्य उपलेकी भस्म १-१ पल लेकर कस्तूरिका कुङ्कुमयोः प्रयुश्यात् ॥ प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बनावें, तत्पआर्द्राम्बुनगऽथ विहिता वटिका त्रिगुञ्जा- श्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर चार्दाऽऽम्भसाऽपि विनिहन्ति कफक्षयादीन् । सबको १ दिन खरल करें। किं श्वासकासं जठरस्य शूलं __ इसमेंसे २ रत्ती रस अद्रकके रसके साथ नानानुपानः सकलामयनी॥ देनेसे शीताङ्ग सन्निपात और वातव्याधि नष्ट लौंग, जायफल, जावित्री, कालीमिर्च, और | होती है। पीपलामूलका चूर्ण तथा नागभस्म १।-१। तोला (३६२४) नागरसायनम् तथा कस्तूरी और केसर ५-५ माशे लेकर सबको (र. र. स. । उ. ख. अ. ५) अदरकके रसमें घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां एवं नागोद्भवं भस्म ताप्यभस्माधभागिकम् । बनावें। पादं पादं क्षिपेद्भस्म शुल्वस्य विमलस्य च ॥ इन्हें अदरकके रसके साथ सेवन करनेसे कान्ताभ्रसत्वयोश्चापि स्फटिकस्य पृथक् पृथक । कफ, क्षय, श्वास, खांसी और उदरशूल नष्ट होता सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य पुटेत्रिफलवारिणा ॥ है । उचित अनुपानके साथ खिलानेसे यह अन्य त्रिंशद्वनगिरिण्डैश्च त्रिंशद्वारं विचूर्ण्य च । समस्त रोगोंको भी नाश करता है। व्योपवेल्लकचूर्णैश्च समांशैः सह मेलयेत् ॥ . (३६२३) नागरसः (२) मध्वाज्यसहितं हन्ति प्रलीहें वल्लमात्रया। (र. रा. सुं । कास.) अशीतिवातजानोगान्धनुर्वातं विशेषतः ।। पारदं पलमानं स्याद्गन्धकं द्विपलं स्मृतम् । कफरोगानशेषांश्च मूत्ररोगांश्च सर्वशः । गन्धकेन हतं नागं साई द्विपलकं स्मृतम् ।। श्वासं कासं क्षयं पाण्डु श्वयधुं शीतकज्वरम् ।। अमृतं द्विपलं प्रोक्तं पिप्पलीद्विपला स्मृता। ग्रहणीमामदोषञ्च वह्निमान्धं सुदुर्जयम् । मरिच द्विपलं चोक्तं शङ्खभस्म पलं मतम् ॥ । सर्वानुदकदोपांश्च तत्तद्रोगानुपानतः॥ For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२३३] - सीसाभस्म ४ भाग, स्वर्णमाक्षिक भस्म २ | पित्ते पर्पटतोयेन क्षये द्राक्षारसेन च । भाग, ताम्रभस्म, विमलभस्म, कान्तलोहभस्म, | प्रमेहे त्रिफलाकाथैर्देयः सर्वजनमियः॥ अभ्रकसत्व-भस्म, और स्फटिकमणि-भस्म १-१ | ग्रहण्यां शाल्मलीसत्त्वानुपानेन प्रदापयेत् । भाग लेकर सबको १ दिन त्रिफलाके काथ में | आईकेण समं देयः सर्वरोगेषु पारदः॥ घोटकर टिकिया बनाकर सुखावें और उन्हें शराव | शुद्ध ताम्रचूर्ण और शुद्ध पारा समान भाग सम्पुट में बन्द करके ३० अरने उपलोंकी अग्निमें लेकर दोनोंको कठूमर (कठगूलर ) के रसमें घोटफूंक दें । इसी प्रकार त्रिफलाके काथमें घोट घोट कर टिकिया बनाकर मुखाकर सम्पुट में बन्द करके कर ३० पुट दें। फूंक दें । इसी प्रकार बार बार पारा मिलाकर ___ अब इसमें समान भाग मिश्रित सोंठ, मिर्च, | भस्म होने तक पुट लगाते रहें । पीपल और बायबिडंगका चूर्ण इसके बराबर मिला- | इसमेंसे १-१ रत्ती भस्म कठूमस्के रसके कर खरल करें। साथ देनेसे कष्टसाध्य कुष्ठ अवश्य शीघ्र ही नष्ट इसे ३ रत्ती मात्रानुसार घी और शहदके | हो जाता है । इसके अतिरिक्त इसे विसूचिका में साथ सेवन करनेसे ८० प्रकारके वातरोग और भी कठूमरकी छालके रसके साथ और ज्वरमें विशेषतः धनुर्वातका नाश होता है तथा यथो- | पीपलके चूर्णके साथ, कफवृद्धिमें काली मिर्च के चित अनुपान के साथ खानेसे समस्त कफरोग, । चूर्णके साथ, वातज रोगांमें रास्नाके काथके साथ, सर्व मूत्रविकार, श्वास, खांसी, क्षय, पाण्डु, शोथ, पित्तज रोगों में पितपापड़ाके रसके साथ, क्षयमें शीतज्वर, संग्रहणी, आमदोष, दुस्साध्य अग्निमांद्य, दाख (मुनक्का ) के पानीके साथ, प्रमेहमें त्रिफला तथा जलविकार नष्ट होते हैं। के काथ, संग्रहणीमें सेंभलकी छालके रस या (३६२५) नागराजरसः मोचरस और अन्य रोगों में अद्रकके रसके साथ (र. चिं. । स्तब. ४; र. का. धे. । अ. ३९) देना चाहिये। | (३६२६) नागबल्लभरसः ताम्रचूर्ण रसं शुद्ध द्वयमेतद्विघृष्य च ।। काकोदुम्बरिकामूलभवैस्तोयैविभावयेत् ॥ (यो. र. । मेह.) पूर्ववत्पुटिते तस्मिन्पारदं शुद्धमानयेत् ।। कर्षमाना मृगमदचोचटङ्कणका अथ । एकैकां रक्तिका दद्यात्काकोदुम्बरवारिणा॥ काश्मीरजन्मदरदपिप्पल्यः स्युद्धिकार्षिकाः ॥ कुष्ठ कष्टयुतं नूनं नाशयेदचिरेण तत् । आकारकरभो जातीपत्री जातीफलं विषम् । विसूच्यामपि दातव्यः पूर्वोक्तेनानुपानतः॥ प्रत्येक पलमानानि चत्वार्यथ सुखल्वके। ज्वरे च पिप्पलीभिस्तं श्लेष्मिके मरिचेन च । अहिवल्लीदलरसैमर्दयेच्च दिनत्रयम् । बातोवणेषु रोगेषु रास्नाकाथानुपानतः ॥ । मुद्गममाणा वटिका लीढा मध्वादकद्रवैः ।। For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२३४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि ताम्बूलचर्विता मेहकासक्षयमरूधरा । । (३६२८) नागशोधनम् (२) नागवल्लभनामाऽयं रसो विश्वोपकारकः ॥ (अनु. त. । को. १) कस्तूरी, दालचीनी और सुहागेकी खील, तालकस्वरसे वाराश्चत्वारिंशद्विगालयेत् । ११-१॥ तोला तथा केशर, शिंगरफ और पीपल | तप्तं तप्तं विशुद्धत नागो नागेन्द्रगामिनी ॥ २॥२॥ तोला एवं अकरकरा, जावित्री, जायफल सीसेको पिघला पिघला कर ४० वार ताड़के और शुद्ध बछनाग ( मीठाषिव ) ५-५ तोला । रसमें बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है। सबके चूर्णको ३ दिन पानके रसमें घोटकर मूंगके (३६२९) नागशोधनम् (३) बराबर गोलियां बनावें। (र. प्र. सु. । अ. ४) इन्हें शहद और अद्रकके रसमें मिलाकर निर्गण्डीकाहरिद्रयो रसे नागं पढालयेत् । या पानमें रखकर खानेसे प्रमेह, खांसी, क्षय और एवं नागो विशुद्धः स्यान्मृस्फिोटादि वातज रोग नष्ट होते हैं। ' नाचरेत् ॥ (३६२७) नागशोधनम् (१) । सीसेको पिघला पिघला कर (कमसे कम ७ (र. सा. स. । पूर्वख.) बार) समान भाग मिश्रित संभाल और हल्दीके रसमें बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है। नागवङ्गे च गलिते रविदुग्धेन सेचिते।। ___ इस प्रकार शुद्ध सीसेकी भस्म से मूर्छा और त्रिवाराछुद्धिमायातः सच्छिद्रे हण्डिकान्तरे॥ स्फोटकादि विक स्फोटकादि विकार नहीं होते। एक हण्डीमें आकका दूध भरकर उसके (३६३०) नागसुन्दरसः ऊपर एक छिद्रयुक्त प्याला ढक दें और सीसे या (र. रा. सु. । अति. । र.र. स. । उ. खं. अ. १६) रांगको पिघलाकर इस छिद्र से उक्त हण्डीमें डालें। नागभस्मरसन्योमगन्धैरर्घपलोन्मितैः । इसी प्रकार ३ बार बुझानेसे सीसा और रांग शुद्ध कुर्वीत कज्जलीं श्लक्ष्णां पक्षिपेत्तदनन्तरम् ।। हो जाते हैं। द्विपलोन्मितरालायां द्रुतायां परिमिश्रिताम् । नोट-कभी कभी गर्म रांग या सीसा | भृष्टयक्षाक्षसिन्धृत्यवचान्योपद्विजीरकैः॥ हाण्डीके अन्दर द्रव पदार्थ में गिरकर इतने जोरसे सपथ्या विजया दिव्यैस्तुल्यांभैरवचूर्णितेः। उछलता है कि ऊपरवाले प्यालेको तोड़कर बाहर | मेलयेत्माक्तनं कल्कं भावयेत्तदनन्तरम् ॥ आ गिरता है, इस लिये इन्हें शोधन करते समय महानिम्बत्वचा सारैः काम्बोजीमूलजद्रवैः। सावधान रहना चाहिये कि सीसा या रांग उछल रसैर्नागबलायाश्च गुडूच्याश्च त्रिधा त्रिधा ॥ कर मस्तक आदि पर न आ लगे। । ततश्च गुटिका कार्या बदरास्थिममाणतः। For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् तृतीयो भागः। [२३५] हन्यादेव हि नागमुन्दररसो बल्लोन्मितः सेवितो। (३६३२) नागार्जुनचूर्णम् नानातीसरणं तथा गुदपरिभ्रंश तथातिविषम्॥ (र. च. । बालरो.) सीसा भस्म, शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म और त्रिकटुवचयवानीगन्धपाषाणकुष्ठम्, शुद्ध गन्धक आधा आधा पल (२॥-२॥ तोले) सनिशरजनिपुष्पं जीरके काचकश्च । लेकर महीन कज्जली बना लीजिये । तत्पश्चात् कुलिरकनकबीजं तालसिन्धुं शिलाम, २ पल रालको पिघलाकर उसमें यह कजली वनजलशुनहिङ्गमूलमैशच टकम् ॥ मिलाकर खरल कीजिए और उसमें उसके बराबर समनृपतिविडङ्ग तुल्यभागं गृहीत्वा, करा बीज, सेंधा, बच, सांठ, मिर्च, पीपली, सफेद । शदि मसृणपिष्टं वस्त्रपूतं विधाय । जीरा, काला जीरा, हरे, भांग, और लोहभस्मका ग्रहजनितगदानां क्षीरपाणां शिशूनां, समभागमिश्रित चूर्ण मिलाकर सबको बकायनकी | शमयति जठरोत्थाजीर्णविष्टम्भकार्यम् ॥ छाल, बाबचीकी जड़, नागबला (गंगेरन) और ज्वरसकलबलासारोचकाक्षिपदोषान् , गिलोयके रसकी ३-३ भावना देकर बेरकी गुठली ___ ग्रहजनितसमस्तातङ्कदोषविहाय । के समान गोलियां बना लीजिये । विपुलबलसुवर्ण स्थौल्यवह्नि प्रकुर्यात् इनके सेवनसे अनेक प्रकारके अतिसार और | चिरमपि शिशवः स्युः सर्वरोगैर्विमुक्ताः ॥ गुदभ्रंशादि रोग नष्ट होते हैं। सेठ, मिर्च, पीपल, बच, अजवायन, गन्धक, (३६३१) नागादिवटिका कूठ, हल्दी करावा, सफेद जीरा, काला जीरा, (र. चं. । विष.) काचनमक (कचलोना), काकड़ासिंगी, धतूरेके नागटङ्कणसंयुक्त लवङ्ग मरीचकम् । बीज, हरतालभस्म, सेंधा नमक, शुद्ध मनसिल, भृाराजरसेनेव सुचिरं दृढं मदयेत् ॥ नागरमोथा, ल्हसन, हींग, शिवलिंगीकी जड़ और राजीसमा वटी कृत्वा बालानां दापने क्षमा।। सुहागेकी खील १-१ भाग तथा अमलतास और दुग्धेन मधुना वाऽथ देयाऽसाध्यगदेष्वपि ॥ । बायबिडंग सबके बराबर लेकर सबके महीन कपड़अतिश्वासस्य शमनी भवेद्रोगविनाशिनी ॥ छन चूर्ण को एकत्र खरल करके रक्खें । ___ सीसाभस्म, सुहागेकी खील, लौंग और काली । यह चूर्ण दूध पीने वाले बच्चोंके ग्रहदोष, मिर्चका चूर्ण समान भाग लेकर सबको भंगरे के उदर विकार, अजीर्ण, कब्ज, कृशता, ज्वर, कफ रसमें बहुत देर तक खरल करके राईके बराबर विकार, अरुचि और नेत्ररोगोंको नष्ट करता है। गोलियां बना लीजिये। इसके सेवनसे बच्चोंका शरीर हृष्ट पुष्ट, बलवान इन्हें शहद या दूधके साथ देने से बच्चोंका और सुन्दर होता है, पाचन शक्ति बढ़ती है तथा महा श्वास नष्ट होता है। बच्चे रोगरहित दीर्घायु प्राप्त करते हैं। For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ २३६ ] (३६३३) नागार्जुनवटी www.kobatirth.org भारत-भैषज्य - रत्नाकरः । (पञ्चाङ्गकृतावटी, दब्रुकुविद्रावणरसः ) ( र. र. स. । उ. ख. अ. २० ) रसगन्धकताप्यालकान्तकृष्णाभ्रभस्मकम् । हिङ्गुलं मधुकं कुष्ठं सर्व समविभागिकम् ॥ अम्लवेतसतोयेन त्रिदिनं परिमर्दयेत् । विशोष्याज्यमधुभ्याश्च मृदित्वा त्रिदिनं पुनः ॥ दत्वा जीर्णे गुडं तुल्यं कोलास्थिप्रमिता वटीः छायाशुष्काः प्रकुर्वीत शम्भुमग्रे च पूजयेत् ॥ इयं हि पञ्चाङ्गकृताभिधाना । नागार्जुनोक्ता गुटिका च नूनम् । सर्वाणि कुष्ठानि विचर्चिकां च दद्रूणि विद्रावयति क्षणेन ॥ पारा, गन्धक, स्वर्णमाक्षिक भस्म, हरताल, कान्तलोह भस्म, कृष्णाभ्रक भस्म, शंगरफ (हिंगुल), मुलैठी और कूठका चूर्ण । सब चीजें समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर ३ दिन अम्लबेतके रस में घोटें । तत्पश्चात् उसे सुखा कर ३-३ दिन घी और शहद में घोटकर उसमें उसके बराबर पुराना गुड़ मिलाकर बेरकी गुठली के समान गोलियां बना कर छाया में सुखा लें । इनके सेवन से समस्त प्रकारके कुष्ठ, विचचिका, और दादका नाश होता है । (३६३४) नागार्जुनाभ्ररसः (र. चं. र. रा. सुं.; र. सा. सं.; धन्वं. । हृद्रोग; रसे. चि. 1 अ. ९ ) सहस्रपुटनैः शुद्धं वज्राभ्रमर्जुनत्वचः । सत्त्वैर्विमर्दितं सप्तदिनं खल्वे विशोषितम् || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ नकारादि छायाशुष्का वटी कार्या नाम्नेदमर्जुनायम् । हृद्रोगं सर्वशुलार्शो हल्लासच्छर्धरोचकान् ॥ अतीसारमनिमान्यं रक्तपित्तं क्षतक्षयम् । शोथोदराम्लपित्तञ्च विषमज्वरमेव च ॥ हन्त्यन्यानपि रोगान्हि बल्यं हृप्यं रसायनम् || सहस्रपुटी वज्राभ्रक भस्मको ७ दिन अर्जुन की छालके रस में घोटकर (१-१ रतीको ) गोलियां बना कर छायासें सुखा लीजिये । इनके सेवन से हृद्रोग, सर्व प्रकार के शूल, अर्श, हृल्लास, छर्दि, अरुचि, अतिसार, अग्निमांद्य, रक्तपित्त, क्षत, क्षय, शोथ, उदररोग, अम्लपित्त और विषम ज्वरादि अनेकों रोग नष्ट होते तथा बलवीर्यकी वृद्धि होती है । यह रसायन भी है। (३६३५) नागार्जुनी गुटिका (र. सं. क. । उल्ला. ५; र. का. घे. । अ. ४८.) व कासीसकं कृष्णा' गुआ तुल्याऽऽर्द्रकाम्बुना कफवातामयं हन्ति गुटी नागार्जुनाभिधा ॥ बङ्ग भस्म, शुद्ध कसीस और पीपल का चूर्ण समान भाग लेकर सबको १ दिन अदरक के रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें । इनके सेवनसे कफवातज रोग नष्ट होते हैं । (३६३६) नागेन्द्र गुटिका ( र. र. र. का. घे. । मेह. ) मृतनागस्य भागैकं भागैकं वायसो भवेत् । दाङ्कोलफलं धात्री अक्षवीजं पलं पलम् ।। कनकस्य फलद्रावैः पिष्ट्वा तद्गुटिका शतम् । १ - रस काम धेनुमें “रसं त्रिशीस त्रिः कृष्णं है 1 " यह पाठ For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२३७] नागेन्द्रगुटिका ख्याता तक्रैः पीत्वातिमेहजित् ।। पश्चाद्विस्तीर्णहण्डिकायां द्रवीकृत्य, वर्तुलपानिशामृताद्विनिष्कञ्च मधुना लेहयेदनु ॥ पाणेन मर्दनपूर्वकं कासीसस्योत्तमस्य चूर्ण सीसाभस्म, अगर, दारुहल्दी, अकोल-फल, ल्दी. अडोल-फल. नागपरिमितं स्वल्पं स्वल्पं दत्त्वा दत्त्वा मारआमला और बहेड़े की मांग एक एक पल लेकर येत्, मृतं नागं घटीद्वयं वहावेव स्थाप्यम् । सबको धतूरके फलके रसमें घोटकर १०० गोलियां पश्चाद्भाजने तच्चूर्ण दत्त्वा, उष्णोदकेन सप्तबना लीजिये। वारं सुधौतं घर्मसंशुष्कं च विधाय, अर्कदुग्धेन इन्हें तक्रके साथ खाकर हल्दी और गिलोय प्रहरद्वयं मर्दयेत् । पश्चात्तच्चक्रिकां कृत्वा,संशोका ५-५ माशे चूर्ण शहदमें मिलाकर चाटना प्य, शरावसम्पुटे धृत्वा,पञ्चपटकपरिमितैर्वनोचाहिये। | पलैः पुटेत् । पश्चात्पारदः पलमितः, गन्धक आमलसाराख्यः पल पमितः, द्वयोः कजलिं इसके सेवन से प्रमेह नष्ट होता है। ( यह गोलियां सिकतामेह में उपयोगी हैं। व्यवहारिक | कृत्वा, पूर्वसिद्धमृतनागे विमिश्य मर्दयित्वा, सहदेव्या रसेन मर्दयेत्महरद्वयं; ततश्चक्रिकां मात्रा--१ माशा ।) कृत्वा विशोष्यशरावसम्पुटे धृत्वा पूर्ण गजपुट (३६३७) नागेन्द्ररस दद्यात् । ततः स्वागशीतं गृहीत्वा, कुमारीरसेन (र. का. धे. । प्रमेह; र. सा. । पट. २६) मर्दयेत्, तदुपरि अर्कदुग्धेन मर्दयेत् महरैकं, मृतनागसमं सूतं समगन्धेन मर्दयेत् । पश्चात्तच्चक्रिकां कृत्वा संशोष्य शरावसम्पुटे चक्रराजे स्थिरीकृत्वा विषं दद्यात्कलांशकम् ।। | धृत्वा पञ्चषटकपरिमितैर्वनोपलैः पुटेत्, तदुत्तरं गुटिका भृङ्गराजेन नागेन्द्रोऽयं रसः स्मृतः । | तस्य सहदेव्या रसेन पुटैकं दद्यात्, ततः सिद्धो अशेषव्याधिविध्वंसी क्रामणेन समन्वितः ॥ जातः । अथ प्रयोगः-रक्तिकाद्वयमस्य बाकुसीसाभस्म और पारा १-१ भाग तथा चीचूर्णेन सह देयं दिनानि चत्वारिंशत, पथ्यं गोधूमतिलतैलं, औषधं भक्षयित्वा धर्मे प्रहगन्धक २ भाग लेकर कजली करके उसे चक्रयन्त्र रैकं स्थेयं, ततोऽल्पदिनैर्मण्डलपाकाजलस्रावो में पकावें; तत्पश्चात् उसमें उसका सोलहवां भाग त्तरं क्रमेण सवर्णता । देवदारुदारुचीनीबाकुशुद्ध बछनाग ( मीठातेलिया ) मिलाकर भंगरेके रसमें घोटकर (१-१ रत्तीकी ) गोलियां बना लें। | चीयुक्तं गलत्कुष्ठे, त्रिकटुदेवदारुयुक्तं वातरक्ते, मूत्रकृच्छे बाकुचीयुक्तं, दुग्धोदनं सर्वत्र पथ्यम् । इनके सेवनसे समस्त रोग नष्ट होते हैं। इति नागेश्वरो रसः॥ (३६३८) नागेश्वरः ५ तोले सीसेको पिघला पिघलाकर सात बार ( आयु. वे. प्र. । अ. ११) तिलके तैलमें बुझाकर शुद्ध करें। तत्पश्चात् उसे पलपमितं नागं तिलतेले सप्तवारं विशोध्य, अच्छी चौड़ी कढ़ाई में पिघलाकर गोल और For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः । [ २३८ ] । चिकने पत्थर से थोड़ा थोड़ा कसीसका चूर्ण डालते हुवे घोटें । जब सीसेकी बराबर कसीस का चूर्ण डाल चुकें और सीसे की भस्म हो जाय तो उसे २ घड़ी तक अभिपर ही रहने दें तत्पश्चात् उसे ठण्डा करके गरम पानीसे सात बार धोकर धूपमें सुखा लें और फिर उसे २ पहर आकके दूधमें घोटकर टिकिया बनायें और उन्हें सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द करके ३० अरण्य उपलों में फूंक दें। जब सम्पुट स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषधको निकालकर उसमें ५-५ तोले पारे arrest कज्जली मिलाकर सबको २ पहर तक सहदेवीके रसमें घोटकर टिकिया बनावें और उन्हें सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द करके पूर्ण गजपुटमें फूंक दें। उसके पश्चात् सम्पुटके स्वांग शीतल होनेपर उसमें से सीसेकी भस्मको निकालकर उसे १ पहर घृतकुमारीके रसमें और १ प्रहर आकके दूधमें घोटकर, टिकिया बनाकर, उन्हें सुखाकर शराबसम्पुटमें बन्द करके ३० अरण्य उपलों में फूंक दें। तत्पश्चात् १ पुट सहदेवी के रस में और लगा दें। बस रस तैयार है । इसमें से २-२ रती दवा नित्यप्रति ४० दिन तक बाबचीके चूर्णके साथ खिलाएं । दवा खिलाने के पश्चात् रोगीको १ पहर धूपमें बिठलाएं। पथ्यमें गेहूं और तिलका तैल सेवन कराएं। इस प्रकार थोड़े दिन तक औषध सेवन करने से मण्डल कुष्टसे पानी निकलकर उस स्थानका रंग धीरे धीरे स्वाभाविक त्वचाके रंगके समान हो जायगा । इसे गलत्कुष्ट में देवदारु, दारचीनी, और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ नकारादि बाबचीके चूर्णके साथ; वातरक्त में सोंठ, मिर्च, पीपल और देवदारुके चूर्ण के साथ और मूत्रकृच्छ्र में केवल बाबची के चूर्णके साथ खिलाना चाहिए। इस पर दूध भात सर्वत्र पथ्य है । (३६३९) नागेश्वरविधः ( रस. चिं. 1 स्तब. ११; अनु. त. । को. १ ) पलद्वयं मृतं नार्ग हिङ्गुलं च पलद्वयम् । शिला कर्षमिता ग्राह्मा सर्वतुल्यं हि गन्धकम् || निम्बुनीरेण सम्मर्थ ततो मजपुटे पुटेत् । तदा नागेश्वरोऽयं स्यानागराजसुतोपमे || निशान्ते नागराजं यो सेवयेल्ललने पुमान् । नागवल्लदलेमाहं यथा नीरु प्रकामवान् ॥ भवेन्नारीशतं भुक्त्वा तथाप्यम्बुजलोचेन । तृप्तिं न याति कामस्य नित्यदृद्धिमवाप्नुयात् ॥ सीसेकी भस्म और शुद्ध शिंगरफ (हिङ्गुल ) १०- १० तोले तथा शुद्ध मनसिल १| तोला और गन्धक इन सबकी बराबर लेकर सबको एक दिन नीबूके रसमें घोटकर टिकिया बनाकर, उन्हें सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें; और सम्पुटके स्वांगशीतल होने पर Heart निकालकर सुरक्षित रक्खें । इसे प्रातः काल पानमें रखकर सेवन करने से अनेक स्त्रियोंके साथ रमण करने पर भी कामशक्तिह्रास नहीं होता । ( मात्रा - १ - २ रत्ती ) (३६४०) नागेश्वररसः (भै. र. । गुल्मा. ) शुद्धसूतस्तथागन्धो नागवङ्गौ मनःशिला । For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् तृतीयो भागः। [२३९] निशादल त्रिक्षारं लोई शुल्वं तथाभ्रकम् ॥ । ताम्रभस्म, पारा, गन्धक, शुद्ध जमालगोटा, एतानि समभागानि स्नुहीक्षीरेण मर्दयेत् । हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च और पीपल । चित्रकं पासकं दन्ती काषेनैकेन मर्दयेत् ॥ | सब चीजें समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी दिनेकन्तु प्रयत्नेन रसो नागेश्वरो मतः। । कजली बना लीजिये तत्पश्चात् उसमें अन्य गुल्मप्लीहपाण्डशोथानाध्मानश्च विनाशयेत् ॥ | ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर रखिये। मायेन्मापमेकन्तु पर्णखण्डेन गुल्मवान् ॥ इसमें से नित्य प्रति ५ माशे औषध शहदमें ___ पारा, गन्धक, सीसाभस्म, वङ्गभस्म, शुद्ध | मिलाकर खानेसे गुल्म रोग नष्ट होता है। मनसिल, हल्दीके पत्ते, सज्जीखार, यवक्षार, सुहागा, ( व्यवहारिक मात्रा-३-४ रत्ती।) लोहमस्म, ताम्रभस्म, और अभ्रकभस्म बराबर | नोट-इस रसको खानेके पश्चात् थोड़ी थोड़ी बरावर लेकर प्रथम पारे और गन्धक की कज्जली | ___ देर बाद थोड़ा थोड़ा ठण्डा पानी पीनेसे बना लीजिये, तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियां सुखपूर्वक विरेचन हो जाता है मिलाकर एकदिन स्नुही (सेंड-सेहुण्ड ) के दूधमें (३६४२) नाराषरसः (२) और एक दिन चीता, बासा तथा दन्तीमूलमें से किसी एकके काथमें घोट लीजिए। (वै. रह. । उदावर्त.; वृ. यो. त. । त. ९६; यो. र. । आनाह) इसमें से १-१ माषा औषध पानमें रखकर खानेसे गुल्म रोग नष्ट होता है । इसके अतिरिक्त | जैपालेन समैः सूतव्योषटकणगन्धकैः । उचित अनुपानके साथ देनेसे यह प्लीहा, पाण्डु, नाराचः स्याद्रसो इत्यस्य माषः सर्पिःसितायुतः।। शोथ और आध्मानको भी नष्ट करता है । ( व्यव- | हन्त्युदावत्तेमानाहमुदराध्यान्गुल्मकम् ॥ हारिक मात्रा २-३ रत्ती) पारा, सोंठ, मिर्च, पीपल, सुहागेकी खील और गन्धक १-१ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा नायिकाचूर्णम् इन सबके बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली 'लाईचूर्णम् ' देखिये। बनावें, तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण (३६४१) नाराचरसः (१) मिलाकर खरल करें। (र. चं.; र. र.; र. का. धे.; वृ. नि. र. इसे मिश्री और घीके साथ देनेसे उदावर्त, ___यो. र. । गुल्मा.) अफारा, उदररोग, आध्मान और गुल्म नष्ट तानं सूत: समं गन्धं जेपालं त्रिफला समम् । | होता है । त्रिकटु पेपयेत्तौदैनिष्कं गुल्महरं लिहेत् ॥ मात्रा-१। माषा । (व्यवहारिक मात्रा १-२ गुल्मोदरहरः ख्यातो नाराचोऽयं रसोत्तमः॥ | रत्ती ।) १-बसूतमिति पाठान्तरम् । नोट-इस रसको खानेके बाद थोड़ी थोड़ी देरमें For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [२४०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि थोड़ा थोड़ा ठण्डा पानी पीनेसे सुख पूर्वक । गन्धकं पिप्पली शुण्ठी द्वौ द्वौ भागी विचूर्णविरेचन हो जाता है । यदि औषधसे पेटमें येत् ॥ दाह हो तो भी ठण्डा पानी ही पीना चाहिये । सर्वतुल्यं क्षिपेदन्तीबीजं नस्तुपमेव च । और विरेचन हो जानेके पश्चात् तीसरे द्विगुञ्जओ रेचने सिद्धो नाराचोऽयं महारसः । पहर मंगकी खिचड़ी खानी चाहिये । गुल्मप्लीहोदरं हन्ति पिबेत्तण्डुलवारिणा । (३६४३) नाराचरसः (३) पारा, सुहागेकी खील, और कालीमिर्चका ( यो. चिं. । अ. ३ ) | चूर्ण १-१ भाग; गन्धक, पीपल और सोंठ २-२ अष्टौ निस्तुपदन्तिबीजकलिका भागत्रयं ना भाग तथा शुद्ध जमालगोटा इन सबके बराबर गरात् । | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें, तत्पद्वौ गन्धान्मरिचानि टङ्कणरसा एकैकभागाः श्चात् उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर खरल करें। क्रमात् ।। ! इसे सेवन करनेसे विरेचन होकर गुल्म, प्लीहा गुञ्जामानवटी विरेचनकरी देया सुशीताम्बुना । और अन्य उदर रोग नष्ट होते हैं । गुल्मप्लीहमहोदरातिशमनो नाराचनामा रसः।। भात्रा-२ रत्ती । अनुपान चावलेोका पानी ___ शुद्ध जमाल गोटा ८ भाग, सोंठका चूर्ण ( तण्डुलोदक)। ३ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग,तथा काली मिर्चका नोट- ( प्रयोग सं. ३६४२ के नीचे वाला नोट चूर्ण, सुहागेकी खील और पारा १-१ भाग लेकर देखिये ।) प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें तत्पश्चात् (३६४५) नाराचरसः (५) उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर पानीके साथ घोट (र. का. धे.; र. रा. मुं. । कुष्ठ.) कर १-१ रत्तीकी गोलियां बनालें । इनमें से १-१ गोली ठण्डे पानीके साथ लशुनं राजिका नीली भानुचित्रकपल्लवान् । देनेसे विरेचन होकर गुल्म 'प्लीहा और अन्य उदर समं भल्लातकं चूर्ण क्षिपेत्तैले चतुर्गुणे॥ रोग नष्ट होते हैं। तैलतुल्यैर्गवां क्षीरैः पचेत्तैलावशेषकम् । (प्रयोग सं.३६४२ के नीचेका नोट देखिये) । पश्चात्पश्चाङ्गमक्षस्य भूशिरीपपलाशयोः ।। (३६४४) नाराचरसः (४) सुवस्त्रगालितं कुयोत्तत्तुल्यं वा मूछितं रसम् । (भै. र.; धन्वं.; र. का. धे.; यो. २. । उदरा.; घृतक्षौद्रसमायुक्तं पूर्वतैलेन पिण्डितम् ॥ र. मं. । अ. ७; रसें. चिं. । अ. ९; वृ. यो. | अयं नाराचको भक्ष्यो निष्कैकं जिहकान्तकृत्।। त. । त. १०५; शा. सं. म. ख. । अ. १२; । ल्हसन, राई, नीली (नीलका पौदा ) तथा यो. त. । त. ५३) | आक और चीतेके पत्ते, १-१ भाग, भिलावा इन सूतं टङ्गनतुल्यांशं मरिचं मूततुल्यकम् । । सबके बराबर एवं इनसबसे ४-४ गुना तिलका For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भाग। [२४१] - - - बैल और गायफा दूध लेकर सबको एकत्र मिलाकर ऊपर अरण्य उपलोंकी धीमी अग्नि (१ पहर तक) एकावें । जब दूध जल जाय तो तैलको छान है। जलावें । तत्पश्चात् गरेके स्वांग शीतल होने पर तत्पश्चात् बहेडे, मूशिरीष और पलाशके पश्चाङ्ग का उसमें से गोलेको निकालकर पीस लें। समभाग मिश्रित चूर्ण या कजली को उपरोक्त इसमें से १ रत्ती दवा ठण्डे पानीके साथ तैल में घोटकर गोलियां बनावें । खाने से उस समय तक विरेचन होता रहता है जब तक कि गरम पानी नहीं पिया जाता। ___ इन्हें शहद और घीके साथ सेवन करनेसे पथ्य-दहीभात । जिह्वक सन्निपात नष्ट होता है। ___ मात्रा ४ माशे । ( व्यवहारिक मात्रा-२ से । (३६४७) नाराचरसः (७) ४ रत्ती तक ।) (र. का. धे. । उदावर्त.) (३६४६) नाराचरसः (६) कृष्णा शुण्ठी त्रिदृच्छयामा कम्पिल्लकहरीतकी। (वृ. यो. त. । त. ८) | रसगन्धौ समं सवै नेपाल सवेतुल्यकम् ॥ | मर्दयेइन्तिजरसै रसो नाराचसञ्जितः । तुल्यं पारदटङ्कणं समरिचं गन्धाश्मतुल्यं त्रिमि-: विश्वं च त्रिगुणं ततो नवगुणं जैपालवीज जीर्णज्वरं निहन्त्येव शर्कराजीरकान्वितः । TH सर्वोदावर्त्तहृद्रोगशूलगुल्मानुरोग्रहम् ॥ क्षिपेत् ।। ... पीपल, सोंठ, निसोत, कालीनिसोत, कबीला, खल्वे दण्डयुगं विमर्थ विधिवत्सन्यस्य पर्णे हरे, पारा और गन्धक १-१ भाग तथा शुद्ध . ततः स्विनं गोमयवहिना स तु भवेमाराचनामा जमालगोटा सबके बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धक की कजली बना लें तत्पश्चात् उसमें अन्य ओष रसः॥ गुजैकपमितो रसो हिमजलैः संसेविवो रेचयेत् धियोंका चूर्ण मिलाकर सबको दन्तीमूलके काथमें घोटकर (१-१ रत्तीकी ) गोलियां बनावें । यावभोष्णजलं भजेत्खलु नरो भोज्यं तु दध्यो इसके सेवन से उदावर्त, हृदोग, शूल, गुल्म, दनम् ॥ उरोग्रह और जीर्णचर नष्ट होता है । से. वि. पारा, सुहागेकी खील, और कालीमिर्च १-१ गोलीको तोड़कर (१-१ माशा ) जीरे और भाग, गन्धक और सोंठ ३-३ भाग तथा शुद्ध | खांड के चूर्ण में मिलाकर ( ठण्डे पानीके साथ) जमाल गोटा ९ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | खाना चाहिये । फज्जली बनावें तत्पश्चात् उसमें अन्य औषधियों । (३६४८) नराचरसः (महान्) (८) का चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर सबका (वै. रहस्य । वात व्या.; वृ. यो. त.; एक गोला बनावें और उसे पानों में लपेट कर भा. प्र. । गुल्म.) एक गढ़ेमें रक्खें एवं उसे मिट्टीसे ढककर उसके ! अभयारग्वधो धात्री दन्ती तिता स्तुदी वि। For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - [२४२] भारत-भैषज्य-त्वाकरः। [ नकारादि मुस्वा प्रत्येकमेतानि ग्रयाणि पलमात्रया ॥ । इसे शीतल जलके साथ सेवन करने से तानि संक्षुध सर्वाणि जलाढकयुगे पचेत् । आध्मान, शूल, आनाह, प्रत्याध्मान, उदावत, सुल्म, तत्र तोयेष्टमे भागे कषायमववारयेत् ॥ और अन्य उदररग शान्त होते हैं। नित्यग्जैपालबीजानि नवानि पलमात्रया। इससे विरेचन हो जानेके पश्चात् दही में बनुक्स्नधृतान्येव बस्मिन् काथे शनैः पचेत् ॥ खांड या सेंधानमक मिलाकर अथवा दहीभात ज्वालयेदनले मन्दं यावत्काथो धनो भवेत् । । खाना चाहिये । ततः खल्वे सिपेद्भागानष्टौ जैपालबीजतः॥ (३६४९) नारायणज्वराशरसः भागांस्त्रीनागराद्वौच मरिचाद्वौ च पारदात्।। (र. चं.; यो. र. । ज्वर.) गन्धकाद् द्वौ च तानीह यावद्यामं विमर्दयेत् ॥ सोमलं वत्सनागश्च मूतगन्धकतालकम् । रसो नाराचनामार्य भक्षितो रक्तिका मितः । कदुत्रयं कपर्दी च विजया कनकस्य च ॥ जलेन शीतलेनैव रोगानेतान् विनाशयेत् ॥ टङ्कणं समभागानि शृङ्गवेररसैस्त्र्यहम् । आध्मानं शूलमानाहं प्रत्याध्मानं तथैव च । | शीतज्वरे सन्निपाते विधूच्यां विषमज्वरे ॥ उदावत तथा गुल्ममुदराणि च नाशयेत् ॥ नाशयेदतिवेगेन धान्यमात्र प्रदापयेत् । वेगे शान्ते च भुञ्जीत शर्करासहितं दधि ।। वस्त्रमाच्छादयेत्तेन प्रस्वेदोऽयं प्रजायते ॥ ततस्सत्सैन्धवेनापि ततो दध्योदनं मनाक ॥ पथ्य यदिच्छया देय दघिशीतोदकादिकम् । हरे, अमलतासका गूदा, आमला, दन्तीमूल, | रसो नारायणो नाम सभिपातज्वरापहः॥ कुटकी, सेंड (सेहुंड-थोहर) का दूध, निसोत शुद्ध सोमल ( संखिया ), शुद्ध वछनाग और नागरमोथा । यह सब चीजें एक एक पल (मीठातेलिया), पारा, मन्धक, शुद्ध हरताल, सेठि, (५-५ तोले ) लेकर सबको अधकुटा करके मिर्च, पीपल, कौड़ीभस्म, भांग, धतूरेके शुद्ध बीज, १६ सेर पानीमें पकावें और २ सेर पानी शेष | और सुहागा समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक रहने पर काथको छान लें । तत्पश्चात् ५ तोले | की कज्जली बनावें तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषजमालगोटेकी शुद्ध गिरीको बारीक बस्त्रमें बांध धियोंका चूर्ण मिलाकर ३ दिन तक अदरकके कर उस काथमें डाल कर पुनः मन्दाग्निपर पकावें। रसमें घोट कर धनियेके दानेके बराबर गोलियां जब काथ गाढ़ा हो जाय तो एक खरल में ८ / बना लें। पल शुद्ध जमालगोटा, ३ पल सेोठका चूर्ण, २ इनके सेवनसे शीतञ्चर, सन्निपात, वित्रिका पल काली मिर्चका चूर्ण और २-२ पल पारे | और विषम ज्वर आदि नष्ट होते हैं । गन्धक से बनी हुई कजली तथा यह काथ डाल- | औषध खिलानेके पश्चात् रोगीके शरीरको कर १ पहर तक घोट कर १-१ रत्तीकी | वससे ढांप देना चाहिये, इससे पसीना अकर गोलियां बना लें। ज्वर उतर जाता है। For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्सप्रकरणम् सृतीयो भागः। [२४३] पन्य-दही, ठण्डा पानी आदि । तुल्यभागपुरोपेतं तुल्यत्रिफलयाऽम्बितम् ।। (३६५०) नारायणरसः (१) वातारितैलसंयुक्तं सेव्यं कर्षाधसम्मितम् । (२. चं.; मै. र. । भगन्दर.) मासेन नाशयेत्कुष्ठं दुःसाध्यमपि देहिनाम् ।। दस्द पार्वतीपुष्पं कुनटी पुरुषो रसः । क्षयं भगन्दरं शूलं मूलं गुल्मं च पाण्डुताम् । शोणितं गन्धक दैत्या सैन्धवातिविषा चवी॥ ब्रहणीश्च महाघोरां मन्दाग्निमपि दुस्तरम् ॥ घरपुल विडङ्गश्च यमानी गजपिप्पली। एवं विविधान्महारोगान्विनिहन्ति न संशयः। मरिचाकी च वरुणो धनकं च हरीतकी॥ श्लेष्मरोगान्हरेत्सर्वान् रसो नारायणाभिधः ।। सम्मर्थ कटुतैलेन वटिकां कारयेद्भिषक् ।। पारदभस्म ( अभावमें रससिन्दूर ), गन्धक, नाडीव्रणं प्रवाहच गण्डमालां विचर्चिकाम ॥ | गूगल, हर्र, बहेड़ा और आमला; इन सबके समान चिरदुष्टत्रणं दगु पूतिकर्ण शिरोगदम् । भाग चूर्णको एकत्र मिलाकर उसमेंसे रित्य प्रति हस्तिपादं परिस्फोटं दुःसाध्यं च भगन्दरम् ॥ | आधा कर्ष औषध अरण्डीके तैलके साथ सेवन करने एतान्दोगान निहन्त्याशु मिन्नमिव केसरि॥ से १ मासमें दुस्साध्य कुष्ठ भी मष्ट हो जाता है। शुद्ध हिंगुल, सौराष्ट्रमृत्तिका, रसौत, शुद्ध | इसके अतिरिक्त यह क्षय, भगन्दर, शूल, गुल्म, मनसिल, शुद्ध गूगल, शुद्ध पारा, ताम्रभस्म, शुद्ध | पाण्डु, ग्रहणीविकार, कष्टसाध्य अग्निमांद्य और अन्य कफजरोगेको नष्ट करता है । गन्धक, लोहभस्म, सेंधानमक, अतीस, चव, सरफोका, बायबिडंग, अजवायन, गजपीपल, काली (व्यवहारिक मात्रा-४-५ रत्ती) मिर्ग, आककी जड़, बरनेकी छाल, राल और हर्र । । (३६५२) नारीमत्तगजाङ्कशरसः सब चीजें समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी (३. यो. त. 1 त. १४७) कजली बनावें तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका पारदं स्वर्णनागानं वङ्गं तीक्ष्णं सतारकम् । पूर्ण मिलाकर सबको कड़वे तैलमें घोटकर गोलियां मनःशिला माक्षिकं च यथोत्तरविवर्धितम् ॥ बना लें। सर्वाशिं चाहिफेनं शुद्धमेकत्र मर्दयेत् । इनके सेवनसे नाडीव्रण, गण्डमाला, विच- | स्वर्णावविजयापत्ररसेन सुरपुष्पतः॥ चिका, पुराना दुष्ट व्रण, दाद, पूयकर्ण, शिरोरोग, करहाटात्काश्चनारापिप्पल्याः श्रावणीद्वयात् । फीलपा (श्लीपद ) शरीरका फटना, और भगन्दर नागवल्ल्याः कुङ्कमाञ्च रसेन च पृथक् श्रयम् ।। रोग नष्ट होता है । एवं सिद्धो रसो नाम्ना नारीमत्तगजाङ्कुशः । ( मात्रा--२-३ रत्ती) काश्मीरकं चानुपानं सुरपुष्पयुतं समम् ॥ (३६५१) नारायणरसः (२) प्रत्यूषे बल्लमेकं तु खादेदम्लादिवर्जयेत् । (२. २. स. । उ. ख. अ. २०) पीवरोरुस्तनश्रोणीनारीशतमनुव्रजेत् ॥ रसमस्मसमानेन गन्धकेन समन्वितम् । रसमेनं सेवयित्वा प्रमेहादिविनाशनम् ।। For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२४४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि - - पारा ( रससिन्दूर या चन्द्रोदय ) १ भाग, । एकैकां भक्षयेद्रोगी शीतं चानुपयः पिबेद् । स्वर्णभस्म २ भाग, सीसाभस्म ३ भाग, अभ्रक- श्लीपदं कफवातोत्थं रक्तमांसाश्रयं च यत् ।। भस्म ४ भाग, बङ्गभस्म ५ भाग, तीक्ष्णलोह ! मेदोगतं धातुगतं हन्त्यवश्यं न संशयः । ( फौलाद ) भस्म ६ भाग, चांदीभस्म ७ भाग, | अर्बुदं गण्डमाला च हयात्रवृद्धि चिरन्तनीम् ॥ मनसिल ८ भाग और सोनामक्खीभस्म ९ भाग | पातपित्ते श्लेष्मवाते गुदरोगे कृमो तथा। तथा शुद्ध अफीम सबसे आधी लेकर सबको एकत्र | अग्निद्धिं करोत्येव बलवीर्यश्च सुस्थताम् ॥ खरल करके धतूरे और भांगके पत्तोंके रस, लैगिके श्रीमद्गहननाथेन निर्मितो विश्वसम्पदे। काथ, अकरकरेके काथ, कचनारके स्वरस, पीपलके नित्यानन्दरसो नाना श्लीपदव्याधिनाशनः ॥ काथ, दोनों प्रकारकी मुण्डीके रस, नागबला आनन्दयति लोकेशः शिवो वाणामुरं यथा । ( गंगेरन ) के काथ और केसरके पानीमें ३-३ तथैव रोगिणां नित्यं अध्नद्धौ च सर्वजे ॥ दिन पृथक् पृथक् घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां रक्तजे पित्तजे चापि पथ्य योग्यं सदा बुधैः। बना लें। अभावे वृद्धदारोश्च तृवृतञ्च नियोजयेत् ॥ इनमेंसे प्रातःकाल एक एक गोली केसर एक गोली केसर हिलोत्थ (शंगरफसे निकाला हुवा ) पारा, और लैांगके चूर्ण के साथ खाने और अम्ल पदार्थो गन्धक, ताम्रभस्म, कांसीभस्म, बङ्गभस्म, शुद्ध हरका त्याग करनेसे प्रमेहादि रोग नष्ट होते तथा ताल, शुद्ध तूतिया, शङ्खभस्म, कौडीभस्म, सेठ, अनेक स्त्रियोंसे रमण करनेकी शक्ति प्राप्त होती है। मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा और आमलेका चूर्ण, (३६५३) नित्यानन्दरसः लोहभस्म, बायबिडंग, पांचो नमक (सेंधा, सञ्चल, विडनमक, सामुद्रनमक, कांचलवण), चव, पीपला(र. का. धे. । अधि. ६; र. चं.; भै. र.; र. मूल, हाऊबेर, बच, कचूर, पाठा, देवदारु, इलासा. सं.; र.र; र. रा. मुं.। श्लीपदा.; यची, विधारा ( अभावमें निसोत ), निसोत, चीता, सें. चि. अ. ९) और दन्तीका चूर्ण; सब चीजें समान भाग लेकर हिङ्गलसम्भवं सूतं गन्धकं मृतताम्रकम् । | प्रथम पार गन्धककी कज्जली बनावें तत्पश्चात् कास्यं वङ्गं तालकश्च सुत्थं शंखें वराटकम् ॥ । उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको त्रिकटु त्रिफला लोहं विडो पटुपञ्चकम् । हर्र के काथकी १ भावना देकर ५--५ रत्तीकी चविका पिप्पलीमूलं हपुपा च वचा तथा ॥ । गोलियां बनावें । शठी पाठा देवदारुरेला च वृद्धदारकम् । इनमें से १-१ गोली शीतल जलके साथ त्रिता चित्रकं दन्ती गृहीत्वा तु पृथक पृथक् ॥ सेवन करनेसे कफवातज और रक्त, मांस, मेद तथा एतानि समभागानि सश्चर्य वटिकां कुरु । धातुगत श्लीपद, अर्बुद,गण्डमाला,पुरानी अन्त्रवृद्धि, हरीतकीरसं दत्त्वा पञ्चगुआमितां शुभाम् ॥ । वातपित्तज और वातकफज रोग, अर्श तथा कृमि For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसप्रकरणम् ] इत्यादि रोग नष्ट होते, और अग्नि तथा बल वीर्यकी वृद्धि होती है 1 (३६५४) नित्यारोग्येश्वरो रसः ( र. र. 1 मेहा. ) सूतं मृताभ्रवङ्गाभ्यां तुल्यभागं प्रकल्पयेत् । महानिम्बोत्थबीजस्य चूर्ण योज्यं त्रिभिः समम्॥ मधुना लेहयेन्माषं लालामेहस्य शान्तये । सक्षौद्ररजनीं वात्र लिद्यान्निष्कत्रयं सदा ॥ असाध्यं नाशयेन्मेहं नित्यारोग्येश्वरो रसः ॥ अभ्रकभस्म, और बंगभस्म १ - १ भाग, पारा ( रस सिन्दूर या चन्द्रोदय ) २ भाग, और कायन बीजांका चूर्ण ४ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें । [ २४५ ] पलमात्रन्तु कृष्णाभ्रं तदर्धन्तु शिलाढयम् । जातीकोषफले मांसी तालीशैला लवङ्गकम् ॥ प्रत्येकं कोलमात्रन्तु वासानीरैर्विमर्दयेत् । शोषयित्वात पश्चाद्विदार्या पेपयेद्रसैः ॥ fat afrai कृत्वा पिपल्लीमधुना भजेत् । नाना नित्योदयश्चायं रसो विष्णुविनिर्मितः ॥ पञ्चकासान्निहन्त्याशु चिरकालोद्भवानपि । राजयक्ष्माणमप्युग्रं जीर्णज्वरमरोचकम् || धातुस्थं विषमाख्यञ्च तृतीयकचतुर्थकम् । अशसि कामलां पाण्डुमग्निमान्धं प्रमेहकम् ॥ सेवनादस्य कन्दर्परूपो भवति मानवः ॥ इसमेंसे नित्य प्रति १ मापा औषध शहदके साथ खाकर ऊपरसे १ तोला हल्दी का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटने से दुस्साध्य लालामेह भी अवश्य नष्ट हो जाता है 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध पारा और गन्धक, २॥ - २॥ तोले लेकर दोनोंकी कज्जली बनायें और उसे बेल छाल, अरनी, अरलकी छाल, पाढलछाल, खम्भारीछाल, खरैटी, नागरमोथा, पुनर्नवा (बिसखपरा ), आमला, कटेला ( बड़ी कटेली), बांसेके पत्ते, बिदारीकन्द, और शतावरके ११-१२ तोले रस या काथ में पृथक् पृथक् घोटकर उसमें ५ - ५ माशे स्वर्ण, ( व्यवहारिक मात्रा - ४ रत्ती । हल्दीका चांदी और सोनामक्खीकी भस्म, ५ तोले कृष्णाचूर्ण ३ माशे । ) भ्रकभस्म, २॥ तोले मनसिल, और जायफल, जावित्री, जटामांसी, तालीसपत्र, इलायची, और लगमें से हरेकका ७|| माशे चूर्ण मिलाकर सबको १ दिन वासाके रसमें घोटकर धूप में सुखायें और फिर उसे दिन विदारीकन्दके रसमें घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बनालें । (३६५५) नित्योदयरसः | ( र. रा. सुं.; र. सा. सं.; धन्व. । हिक्काश्वास ) सुशुद्धं पारदं गन्धं प्रत्येकं शुक्तिसम्मितम् । ततः कज्जलिकां कृत्वा मर्दयेच पृथक पृथक ।। बिल्वानिमन्थयोनाकाः काश्मरी पाटला बला मुस्तं पुनर्नवा धात्री गृहती पत्रकम् ॥ feart aहुपुत्री च येषां कर्षरर्भिषक् । सुवर्ण रजतं ताप्यं प्रत्येकं शाणमात्रकम् ॥ इनमें से १-१ गोली ( १ माशा) पीपलके चूर्ण और शहद के साथ सेवन करनेसे पांच प्रकार की पुरानी खांसी, भयङ्कर राजयक्ष्मा, जीर्णज्वर, अरुचि, धातुगतज्वर, विषमज्वर, तिजारी, चातुर्थिक For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२४६) भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [नकारादि ज्वर, अर्श, कामला, पाण्डु, अग्निमांद्य और प्रमेह । इले शहद और घोमें मिलाकर चाटनेसे नष्ट होता है। | कामला और पाण्डुरोग नष्ट होता है। (३६५६) नित्योदितरसः (पञ्चामृतरसः) । ( मात्रा-१ माशा । ) (भै. र.; र. का. धे.; वृ. नि. र. र. रा. सु., । (३६५८) निशादिवटी वै. रह.; रं: सा. सं. । अर्श.; रसे. चिं. । अ. (वा. भ. । कुष्ठ.) ९; र. म. । अ. ७; यो. त. ( त. २३) | निशाकनानागरवेल्लतोवर मृतसूतार्कलौहाम्रविषं गन्धं समं समम् । सवहिताप्यं क्रमशो विकर्षितम् । सर्वतुल्यांशभल्लातफलमेकत्र चूर्णयेत् ॥ गवाम्बुपीतं वटकीकृतं तथा वैः शूरणमाणोत्यैर्भाव्यं खल्ले दिनत्रयम् । निहन्ति कुष्ठानि सुदारुणान्यपि ॥ मापमात्र लिहेदाज्यै रसश्चाीसि नाशयेत् ॥ हल्दी १ भाग, पीपल २ भाग, सोंठ ३ भाग रसो नित्योदितो नाम गुदोद्भवकुलान्तकः ॥ बायबिडंग ४ भाग, तुवरक ५ भाग, चीता ६ भाग, पारदभस्म ( अभावमें रससिन्दूर ), ताम्र- और सोनामक्खी-भस्म ७ भाग लेकर सबके चूर्णको भस्म, लोहभस्म, अभ्रकभस्म, शुद्ध बछनाग (मीठा- गोमूत्रमें घोटकर (१-१ माशेकी) गोलियां तेलिया), और शुद्ध गन्धक १-१ भाग तथा / बनावें । सबसे आधा शुद्ध भिलावांका चूर्ण लेकर सबको इनके सेवनसे भयङ्कर कुष्ठ भी नष्ट हो ३-३ दिन जिमीकन्द और मानकन्दके रसमें | जाते हैं। घोटकर रक्खें। अनुपान-गोमूत्र । इसमें से १ माशा चूर्ण घीमें मिलाकर चाटने - (३६५९) नीलकण्ठरसः (१) से अर्श रोग नष्ट होता है। व्यवहारिक मात्रा-२-३ स्ती) (र. का. धे. । अग्निमां.) शुद्धं रसं ताम्रभस्म गन्धक मामकेसरम् । (३६१७) निशादिलोहम् अमृतं रेणुकं वनितिन्तडीकजलं समम् ॥ (र. चं.; र. सा. सं.; र. रा. सुं.; धन्वं. । पाण्डु.) सर्वतुल्यं गुडं दत्त्वा वटिकां कोलसम्मिताम् । लोहचूर्ण निशायुग्मं त्रिफलारोहिणीयुतम् ।। | भक्षयेत्मातरुत्थाय वकिमान्धप्रशान्तये ॥ मलियान्मधुसर्पियो कामलापाण्डुशान्तये ॥ | नीलकण्ठो रसो नाम क्षयशूलनिबर्हणः॥ लोहभस्म, हल्दी, दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा, शुद्रपारा, ताम्रभस्म, गन्धक, नागकेसर, शुद्ध आमला और कुटकीका चूर्ण १-१ भाग लेकर बछनाग ( मोठातेलिया ), रेणुका, चीता, तिन्लसबको एकत्र खरेल करें। डीक और सुगन्धवाला समान भाग लेकर प्रश्न For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमाहरणम् ] वृतीयो भागः। [२४७] पारे और गन्धककी कम्जली बनावे, सत्पश्चात् । करके उसे बिन्दाल के रसकी २१ भावना देकर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण एवं सबके बराबर | १-१ रत्ती की गोलियां बनावें । गुड़ मिलाकर जंगली बेरके बराबर गोलियो बनाव।। इनमेंसे १-१ मोली जम्बीरी नीबूके इसके इनमेंसे १-१ गोली प्रातःकाल खानेसे भग्नि- | साथ देनेसे वमन नष्ट होती है। मांथ, क्षय और मूल नष्ट होता है। | (३६६२) नीलकण्ठरसः (४) ( अनुपान---उष्ण जल ।) . (र. चं.। ज्वर.) (३६६०) नीलकण्ठरसः (२) । | रसटङ्कणतुत्यानि मर्दयेघटिकाप्रयम् । (र. र.; वृ. नि. २.; र. रा. सुं.; र.. जीमूतीफलतोयेन नीलकण्ठो भवेद्रसः । का. थे. । यक्ष्मा.) सशर्करं बल्लयुग्मं छदैनाज्ज्वरनाशनम् । विषं धुद्रा सेव्यकच हरिद्रा गोचरं मधु । पित्तादींश्च ज्वरवासहिध्माकासादिदोषजित् ।। कुटजस्य त्वचश्चूर्ण समांशं सर्वचूर्णकम् ।। शुद्ध पारा, सुहागा और नीलाथोथा समान राजयक्ष्महरं खादेद्रसोऽयं नीलकण्ठकः॥ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके ३ घड़ी तक देवदाली (बिन्दाल ) के रसमें घोट कर ६-६ शुद्र बछनाग ( मीठा तेलिया), कटेली, खस, रत्तीकी गोलियां बनावें । हल्दी, गोखरु, मुलैठी और कुड़े की छाल । सबके इनमेंसे १-१ गोली खांडमें मिलाकर देनेसे समान भाग चूर्णको एकत्र खरल करके रक्खें ।। वमन होकर ज्वर, श्वास, हिचकी और खांसी इत्यादि इसे सेवन करनेसे राजयक्ष्मा नष्ट होती है । | नष्ट हो जाती है। ( मात्रा-आधा माशा, अनुपान-घी और (नोट-इसकी मात्रा रोगीके बलाबलका शहद।) विचार करके निश्चय करनी चाहिये । ) (३६६१) नीलकण्ठरसः (३) (३६६३) नीलकण्ठरसः (५) . (र. का. धे.। छर्दि.) (बृ. नि. र.। कास.; र. सा. सं. , रसाय.; वेणीफलानां स्वरसैविभाव्य र. स. सु. । श्रास., रसा.) रसेन्द्रलेलीतकशकतुत्थम् । सूतकं गन्धकं लोहं विषं चित्रकपत्रकम् । त्रिसप्तधा जम्भरसेन वान्तौ वराज रेणुका मुस्ता प्रन्धिकं नागकेसरम् ।। गुञ्जोन्मितः स्यादिति नीलकण्ठः ॥ | फलत्रिकं त्रिकटुकं शुल्वं तुल्यं तथैव च । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शंखभस्म और । एतानि समभागानि गुडो द्विगुणमुच्यते ॥ शुद्ध नीलाथोथा समान भाग लेकर सबकी कम्जली 'सम्पर्य गुटिकां कृत्वा भक्षयेचणमात्रकम् । For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२४८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ नकारादि कासे श्वासे तथा शुरपे ममेहे विषमज्वरे ॥ : प्लीहाल्मोदराष्ठीलायकृत्पाण्दुत्वकामलाम् ।। मत्रकृच्छे मूढगर्भे वातरोगे च दारुणे। हृच्छूलं पृष्ठशूलश्च पावशूलं तथैव च । नीलकण्ठरसो नाम शम्भुना निर्मितः स्वयम् ॥ कटीशूलं कुक्षिशूलमानाहमष्टशूलकम् ।। शुद्ध पारा, गन्धक, लोहभस्म, शुद्ध यछनाग । कासश्वासामवातांश्च श्लीपदं शोथमर्बुदम् । (मीटा तेलिया), चीता, तेजपात, दालचीनी, गलगण्डं गण्डमालामम्लपित्तञ्च गृध्रसीम् ।। रेणुका, नागरमोथा, पीपलामूल, नागकेसर, हर, कृमिकुष्ठानि दद्रणि वातरक्तं भगन्दरम् । बहेड़ा, आमला, सेठ, मिर्च, पीपल, और ताम्र / उपदंशमतीसारं ग्रहण्यर्शः प्रमेहकम् ॥ भस्म १-१ भाग तथा सबसे २ गुना गुड़ लेकर अश्मरी मूत्रकृच्छ्रश्च मूत्राघातं सुदारुणम् । प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना लीजिये, तत्प- ज्वरं जीणे तथा पाण्डं तन्द्रालस्यं भ्रम क्लमम् ।। श्चात् उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर | दाहश्च विद्रधीं हिकां जगद्गदमूकताः। खरल कीजिये और अन्तमें गुड़ मिलाकर चनेके मौढयञ्च स्वरभेदश्च बनवृद्धि विसर्पकान् ॥ बराबर गोलियां बना लीजिये । ऊरुस्तम्भं रक्तपित्तं गुदभ्रंशारुची तृषाम् । इसके सेवनसे खांसी, श्वास, गुल्म, प्रमेह, । कर्णनासामुखोत्यांश्च दन्तरोगांश्च पीनसान् ।। विषमस्वर, मूत्रकृच्छू, मूढगर्भ और भयङ्कर वात शौन्यश्च शीतपित्तश्च स्थावरादिविषाणि च । व्याधियां नष्ट होती हैं। वातपित्तकफोत्यांश्च द्वन्द्वजान् सान्निपातिकान्॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१ माषा) सर्वानेव गदान्हन्ति चण्डांशुरिव पापहा । बलवर्णकरो हृद्य आयुष्यो वीर्यवर्द्धनः।। (३६६४) नपतिवल्लभरसः परं वाजीकरः श्रेष्ठः बुद्धिदो मन्त्रसिद्धिदः । (भै. र.; र. सा. सं.; र. रा. सु.; र. च.; | आरोगी दीर्घजीवीस्याद्रोगी रोगाद्विमुच्यते ॥ ध. । ग्रहण्य.) रसस्यास्य प्रसादेन बुद्धिमाआयते नरः ।। जातीफललवङ्गाब्दात्वगेलाटङ्करामठम् । जायफल, लांग, नागरमोथा, दारचीनी, इलाजीरकं तेजपत्रञ्च यमानी विश्वसैन्धवाः ॥ | यची, सुहागेकी खील, शुद्ध हींग, जीरा, तेजपात, लोहमदं रसो गन्धस्तानं प्रत्येकशः पलम् । अजवायन, सेांठ, सेंधानमक, लोभस्म, अभ्रकमरिच द्विपलं दत्त्वा छागीक्षीरेण पेषयेत् ॥ भस्म, पारा, गन्धक, और ताम्रभस्म १-१ पल धात्रीरसेन वा पेष्यं वटिकाः कुरु यत्नतः । ( हरेक ५ तोले ) और कालीमिर्च २ पल लेकर श्रीमद्गहननाथेन विचिन्त्य परिनिर्मितः॥ प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें तत्पश्चात् सूर्यवत्तेजसा चायं रसो नृपतिवल्लभः । | उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सबको अष्टादशवटी खादेत्पवित्रः मूर्यदर्शकः॥ १ दिन बकरीके दूध या आमलेके रसमें घोटकर हन्ति मन्दानलं सर्वेमामदोपं विभूचिकाम् । । (आधी आधी रत्तीकी) गोलियां बना लें। For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२४९] - - इनमें से १८ गोली नित्य प्रति यथोचित (३६६५) नृसिंहपोटलीरसः अनुपानके साथ खानेसे अग्निमांध, आमदोष, | (र. रा. मुं.; वृं. नि. र. । अति.) विसूचिका, प्लीहा, गुल्म, उदर, अष्ठीला, यकृत् , | रसश्च गन्धपाषाणः प्रत्येकं कर्षमात्रकम् । पाण्ड, कामला, हृदयशूल, पृष्टशूल, पसलीशूल, श्लक्ष्णचूर्ण द्वयोः सम्यक् मकुर्यात्कुशलो भिषक्॥ कटिशूल, कुक्षिशूल, आनाह, आठ प्रकारका उदर- तच्चूर्ण पीतवर्णाभाकपर्दाभ्यन्तरे कृतम् । शूल, खांसी, श्वास, आमवात,श्लीपद, शोथ, अर्बुद, शरावपुटके न्यस्य लिप्त्वा सम्भृतगोमयः ॥ गलगण्ड, गण्डमाला, अम्लपित्त, गृध्रसी, कृमिरोग, सुतीब्राग्नौ पचेतावद्यावद्गच्छति भस्मताम् । कुष्ठ, दाद, वातरक्त, भगन्दर, उपदंश, अतिसार, समुद्धत्याश्मना सर्व चूणितं सकपदेकम् ॥ ग्रहणीविकार, अर्श, प्रमेह, पथरी, मूत्रकृच्छ्र, भय- गव्येन सर्पिषा नित्यं भक्षयेद्रक्तिकाद्वयम् । कर मूत्राघात, जीर्णज्वर, तन्द्रा, आलस्य, भ्रम, ज्वरातिसारकं सर्व हन्यातूर्ण च दुर्जयम् ।। कान्ति, दाह, विद्रधि, हिका, जड़ता, गदगदता। अतीसारं समग्रं च ग्रहणी सर्वजां तथा । (हकलाना ), मूकता, मूढता, स्वरभेद, बन, चिरज्वरं च मन्दाग्निं क्षीरज्वरहरं च तत् ।। अण्डवृद्धि, विसर्प, ऊरुस्तम्भ, रक्तपित्त, गुदभ्रंश, रस एष नृसिंहस्य मता पोट्टलिका हिता। अरुची, तृषा, कर्णरोग, नासारोग, मुखरोग, दन्त-हिता सर्वज्वरीणान्तु सर्वातीसारिणां शुभा ॥ रोग, पीनस, शून्यवात, शीतपित्त, स्थावरादि विष, समान भाग पारे और गन्धककी कज्जलीको तथा अन्य वातज, पित्तज, कफज, द्वन्द्वज और पीली कौडियोंके भीतर भरकर उन्हें शरावसम्पुटसन्निपातज रोग नष्ट होते तथा बल, वर्ण, वीर्य, में बन्द करके उसके ऊपर गोबरका लेप कर भयु, कामशक्ति और बुद्धि की वृद्धि होती है। दीजिये । और फिर उसे तीब्राग्निमें इतना पकाइये इसके सेवनसे रोगी निरोग और स्वस्थ दीर्घ- कि कौड़ियोंकी भस्म हो जाय । तत्पश्चात् सम्पुटनीवी होता है। के स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको नृपतिवल्लभरसः (२) निकालकर कौड़ियों समेत पीस लीजिये । (र. सा. सं.। ग्रह.) __इसमें से २-२ रत्ती औषध गायके घीके " महाराजनृपतिवल्लभरस” देखिये । साथ सेवन करनेसे दुस्साध्य ज्वरातिसार, अतिनृपतिवल्लभरसः (३) सार, ग्रहणीविकार, जीर्णज्वर, और अग्निमांद्य, (र. सा. सं. । ग्रह.) नष्ट होता है। “ महाराजनृपतिवल्लभरस” देखिये। (३६६६) नेत्राशनिरसः नृपवल्लभरसः ( र. चं.; र. सा. सं.; र. रा. सुं. । नेत्रा.) (भै. र.; र. सा. सं. र. रा. सुं. । ग्रह.) अभ्रं ताम्र तथा लौहं माक्षिकं च रसाधनम् । "राजवल्लभरस" देखिये। पातनायन्त्रशुद्धं गन्धकं नवनीतकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२५०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [नकारादि पलप्रमाणं प्रत्येक गृह्णीयाच विधानवित् । । अभ्रकभस्म, ताम्रभस्म, लोहभस्म, स्वर्णमासर्वमेकीकृतं चूर्ण वैद्यः कुशलकर्मभिः॥ क्षिक भस्म, रसाञ्जन (रसौत) और शुद्ध आमलाततस्तु भावना कार्या त्रिफलाभृजराजकैः । सार गन्धक १-१ पल (५-५ तोले) लेकर ततः पक्षिपेच्चूर्णश्च पिप्पलीमूलयष्टिका ॥ सबको एकत्र घोटकर त्रिफलाके काथ और भंगरेएला पुनर्नवा दारु पाठा भृङ्गं शठी वचा । के रसकी १-१ भावना दें । तत्पश्चात् उसमें नीलोत्पलचन्दनञ्च श्लक्ष्णचूर्णश्च दापयेत् ॥ पीपलामूल, मुलैठी, इलायची, पुनर्नवा, देवदारु, माषमेकं प्रदातव्यम् घृतश्रीमधुमर्दितम् । पाठा, भंगरा, कचूर, बच, नीलोत्पल, और सफेद मर्दनं लौहदण्डेन पात्रे लोहमये दृढे ॥ चन्दनका १-१ माषा चूर्ण मिलाकर खरल करें। अनुपानं प्रयोक्तव्यमुष्णेन वारिणा तथा। इसमें से १-१ माषा औषधको घी और यावतो नेत्ररोगांश्च पानादेव विनाशयेत् ॥ | शहद मिलाकर लोहेके खरलमें लोहेकी मूसलीसे सरक्ते रक्तपित्ते च रक्ते चक्षुःसुतेपि च । घोटकर गरम पानीके साथ खिलानेसे समस्त नेत्रनत्तान्ध्ये तिमिरे काचे नीलिका पटलार्बुदे ॥ रोग, रक्तपित्त, आंखोसे रक्तस्राव होना, नक्तान्ध्य अभिष्यन्देऽधिमन्थे च पिष्टे चैव चिरन्तने। ( रतौंधा ), तिमिर, काच, नीलिका, पटल, नेत्रानेत्ररोगेषु सर्वेषु वातपित्तकफेषु च ॥ र्बुद, अभिष्यन्द, अधिमन्थ और पुराना पिष्टक सर्वनेत्रामयं हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ इत्यादि रोग नष्ट होते हैं । इति नकारादिरसप्रकरणम् । dooxoom अथ नकारादिमिश्रप्रकरणम् (३६६७) नखद्रव्यशुडि: नखको भैंस या गायके गोबरके रस में या (र. र.; वं. से. । वातरो.) तिन्तड़ीकके काथमें, और यदि इनमें से कोई चण्डीगोमयतोयेन यदि वा तिन्तिडीजलैः । पदार्थ न मिल सके तो काली मिट्टीके पानीमें नखं संकाययेदेभिरभावे मृजलेन तु ॥ थोड़ी देर पकाकर धोकर (तवे आदि पर) गरम करके गुडयुक्त हरके काथमें वुझावें तत्पश्चात् उसे पुनरुद्धत्य प्रक्षाल्य भर्जेयित्वा निषेचयेत् । चन्दनादि सुगन्धित द्रव्योंके पानीके साथ घोटकर गुडपथ्याम्बुना ह्येवं शुध्यते नात्र संशयः ॥ । मिट्टीके शरावेमें रख कर सुगन्धित फूलोंसे बसावें सम्पर्य चन्दनायैस्तु वासयेत्कुसुमैः शुभैः॥ तो वह शुद्ध हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् तृतीयो भागः। [ २५१] - (३६६८) नवनीतादियोगः अर्द्धभाग जलमिश्रित बकरीके दूध तथा (वं. से. । रक्तार्श.) सेांठ, नीलोफर और सुगन्धबालाके कल्कसे सिद्ध नवनीततिलाभ्यासात्केसर पेया या पृष्ठपर्णी के काथसे बनी हुई पेया रक्तानवनीतशर्कराभ्यासात् । | तिसार को नष्ट करती है । दधिसरमथिताभ्यासाद् (३६७१) नागरादिप्रयोगः गुदजाः शाम्यन्ति रक्तवाहाः ॥ ( यो. र. । प्रदर.) नवनीत ( नौनी घी) और तिल; अथवा | नागरं मधुकं तैलं सिता दधि च तत्समम् । नागकेसर का चूर्ण नवनीत और खांड मिलाकर; खजेनोन्मथितं प्रीतं वातप्रदरनाशनम् ॥ अथवा दहीकी मलाई या तक्र सेवन करनेसे रक्तज सोंठ और मुलैठीका चूर्ण तथा तैल, मिश्री अर्श नष्ट होती है। और दही समान भाग लेकर सबको मथनीसे (३६६९) नवायूषः अच्छी तरह मथकर सेवन करनेसे वातज प्रदररोग (वं. से.; वृं. मा. । कासा.; वृ. यो. त.।त.७८) नष्ट होता है । मुद्गामलाभ्यां यवदाडिमाभ्यां (३६७२) नागादिशलाका ककेन्धुना मूलकशुण्ठकेन । (वा. भ. । उ. अ. १३; ग. नि.। नेत्र.) शुण्ठीकणाभ्यां सकुलित्यकेन श्रेष्ठाजलं भृङ्गरसं सविषाज्यमजापयः । यूषो नवाङ्गः कफरोगह ॥ यष्टीरसं च यत्सीसं सप्तकृत्त्वः पृथक् पृथक् ।। मंग, आमला, जौ, अनारदाना, बेर, सूखी- | तप्तं तप्तं पायितं तच्छलाका मूली, सेठ, पीपल और कुलथी का यूष कफज | नेत्रे युक्ता साञ्जनानञ्जना वा। खांसीको नष्ट करता है। तैमिर्मिस्रावपैच्छिल्यपैल्लं ( विधि—सब चीजें समान भाग मिलाकर | कण्डूं जाइयं रक्तराजीच हन्ति ।। २॥ तोले लें और ४ सेर पानीमें पकाकर २ सेर सीसेको पिघला पिघलाकर सात सात बार पानी शेष रक्खें और छानकर उसमें २॥ तोले त्रिफला, भंगरा और अतीसके काथ, घी, बकरीके मुंग डाल कर पकावें, जब वह अच्छी तरह गल दूध और मुलैठीके काथमें बुझाकर उसकी सलाई जाय तो ठण्डा करके छान लें।) बनवावें। (३६७०) नागरादिपेया ___इससे अञ्जन लगाने या इसे खाली ही (वं. से. । अतिसा.) आंखमें फेरनेसे तिमिर, अर्म, स्राव, नेत्रोंकी चिपछागे चार्दोदके क्षीरे नागरोत्पलबालकैः। | चिपाहट, पिल्ल, कण्डू, जड़ता और लाल रेखाएं पेया रक्तातिसारनी पृष्ठपर्ध्या च साधिता ॥ । नष्ट होती हैं। For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२५२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [नकारादि (३६७३) नागार्जुनीशलाका पिप्पल्या भक्षितं हन्ति शूलं हि परिणामजम् । ( नेत्रसञ्जीविनी शलाका) वातिकं पैत्तिकश्चापि श्लैष्मिकं सानिपातिकम्।। (वृ. यो. त. । त. १३१; यो. त. । त. ७१; जलयुक्त नारयलके भीतर जितना आ सके वै. र. । नेत्र.) उतना सेंधानमक भरकर उसके ऊपर मिट्टीका एक निर्वापयेत्रफलके कपाये नागं अंगुल मोटा लेप कर दें और उसे कण्डोंकी अग्नि विधिज्ञः शतधा हुताशे। में पकावें । जब ऊपर की मिट्टी लाल हो जाय सन्ताप्य सन्ताप्य ततः शलाकां तो नारियलको टण्डा करके उसके भीतरसे नमक कृस्वास्य शुद्धेन रसेन लिम्पेत् ॥ मिश्रित जलको निकाल लें। तयाञ्जिताक्षो मनुजः क्रमेण इसमें पीपलका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे सुपर्णदृष्टिर्भवति प्रसह्य । वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज परिणामजयेदभिष्यन्दमथाधिमन्थमर्मार्जुनौ शूल नष्ट होता है। वै तिमिराणि पिल्लान् ॥ (३६७६) नारिकेलादिपेयम् सीसेको पिघला पिघला कर १०० बार (यो. र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ.) त्रिफलाके रसमें बुझावें और फिर उसकी सलाई नारिकेलजलं योज्यं गुडधान्यसमन्वितम् । बनवाकर उसपर शुद्ध पारद चढ़ा दें। इसे आंखमें आंजने से नेत्रोंकी ज्योति सदाहं मूत्रकृच्छूश्च रक्तपित्तं निहन्ति च । अत्यन्त तीक्ष्ण हो जाती है । तथा इससे अभि ____नारियलके पानीमें गुड़ और धनिया मिलाष्यन्द, अधिमन्थ, अर्म, अर्जुन, तिमिर और कर पीनेसे दाहयुक्त मूत्रकृच्छू और रक्तपित्त नष्ट पिल्लादि रोग भी नष्ट हो जाते हैं। होता है। (३६७४) नारिकेलजलादिपेयम् (३६७७) नारिकेलादि योगः (यो. र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ.) (वृ. नि. र. । मूर्छा.) रक्तस्य नारिकेलस्य जलं कतकसंयुतम् । नारिकेलाम्बुना पीताः सक्तवः समशर्कराः। शर्करैलासमायुक्तं मूत्रकृच्छ्रहरं विदुः॥ | पित्तहृत्कफतृणमूर्छाभ्रमादीन्हन्ति दारुणान् ।। लाल रंगके नारियल के जलमें निर्मलीफल, सत्तमें समान भाग खांड मिलाकर उसे नारिखांड और इलायचीका चूर्ण मिलाकर पीनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट होता है। यलके पानीमें घोलकर पीनेसे पित्त, कफ, तृषा, (३६७५) नारिकेलयोगः । मूर्छा और भ्रमादि नष्ट होते हैं । (भा. प्रा. । म. ख. शूला.; वृ. नि. र.; (६६७८) नारीक्षारप्रयोगः ___वं. से. । शूला.) (वै. म. र. । पट. २) नारिकेलं सतोयञ्च लवणेन सुपूरितम् । पयोऽङ्गनानां पिबतां नराणां मृदा च वेष्टितं शुष्कं पक्कगोमयवहिना ॥ द्रागेव जूतिः प्रशमं प्रयाति ॥ For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२५३] - __ स्त्रीका दूध पीनेसे ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो । और वेतकी छाल के काथसे घावोंको धोना, इन्हीं जाता है। को पीसकर लेप करना, इन्हींका चूर्ण घावों पर (३६७९) निम्बपत्रादियोगः छिड़कना और इन्हीं से घृत पकाकर खिलाना (वं. से. । नेत्ररोगा.) चाहिये। मिम्बपत्रैः कृतं चूर्ण लोध्रचूर्णसमन्वितम् । | (३६८२) निम्बादिवर्तिः वखवद्धं जले क्षिप्तं पूरणं नेत्ररोगनुत् ॥ (यो. र. । व्र.) ___ नीमके पत्ते और लोधके समान भाग मिश्रित | निम्बपत्रघृतक्षौद्रदार्वीमधुकसंयुता। चूर्णको पोटलीमें बांधकर उस पोटलीको पानीमें | वर्तिस्तिलानां कल्को वा शोधयेद्रोपयेवणम् ॥ भिगोए रक्खें । इस पानीको आंखों में डालनेसे | नीमके पत्ते, दारुहल्दी, मुलैठी और तिल ( अक्षिपाकादि) नेत्र रोग नष्ट होते हैं। १-१ भाग लेकर सबको पीसकर उसमें १-१ (३६८०) निम्बादिपिण्डी भाग घी और शहद मिला लीजिये । इस कल्कको लगाने या इसकी बत्ती बनाकर घावमें भरनेसे घाव (वं. से.; यो. र; वृ. नि. र. । नेत्ररो. ) शुद्र हो कर भर जाता है। निम्बस्य चोदुम्बरवल्कलस्य (३६८३) निम्बुपानकः एरण्डयष्टीमधुचन्दनस्य। (वृ. नि. र. । अरुचि.) पिण्डी विधेया नयने प्रकोपिते भागैकं निम्बुजं तोयं षड्भागं शर्करोदकम् । कफेन पित्तेन समीरणेन ॥ लवङ्गमरिचोन्मिश्रं पानकं पानकोत्तमम् ॥ नीम और गूलरकी छाल, अरण्डकी जड़, | निम्बृरसभवं पानमत्यम्लं वातनाशनम् । मुलैठी और चन्दन की पिण्डी ( पोटली ) बनाकर वह्निदीप्तिकरं रुच्यं समस्ताहारपाचकम् ॥ नेत्रोंपर लगानेसे कफज, पित्तज तथा वातज नेत्रा- १ भाग नीबूका रस ६ भाग खांडके शरबतभिष्यन्द नष्ट होता है। में मिलाकर उसमें यथारुचि लौंग और काली (३६८१) निम्बादिप्रयोगः मिर्च का चूर्ण मिला लीजिये। यह पानक अत्यम्ल, वातनाशक, अग्निदीपक, (. मा.; वं. से. । उपदंश) रोचक, और सर्व प्रकारके आहारों को पचाने निम्बार्जुनाश्वत्थकदम्बशाल वाला है। जम्बूवटोदुम्बरवेतसैश्च । (३६८४) निर्गुण्डीप्रयोगः प्रक्षालनालेपघृतानि कुर्या (गो. र.; वृ. नि. र. । मुखरो.) चूर्णश्च पित्तास्रभवोपदंशे॥ निर्गुण्डीमुसलीकन्दं चर्वयेदुपजिह्वापशान्तये । पित्तज तथा रक्तज उपदंश में नीम, अर्जुन, सम्भालूकी जड़ या मूसलीको चबानेसे उपपीपल वृक्ष, कदम्ब, शाल, जामन, बड़, गूलर | जिह्वा नष्ट होती है । For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२५४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - (३६८५) निर्गुण्डीमूलचर्वणम् (३६८७) निशादिप्रयोगः (रा. मा. । मुखरो.) (यो. र.; ग. नि. । नेत्र.; वं. से. । शिरो.; शेफालिकामूलमुशन्ति कण्ठ . मा. । नेत्ररो.) शालूकहन्त प्रतिचर्वितं सत । निशाब्दत्रिफलादावीसितामधुसमन्विता । रोग निहन्न्यादुपजिहिकाख्यं अभिघातातिशूलग्नं नारीक्षीरेण पूरणम् ॥ नासान्तरमसुतरक्तधाराम् ॥ हल्दी, नागरमोथा, त्रिफला, दारुहल्दी और निर्गुण्डीकी जड़को चबानेसे कण्ठशालक, मिश्रीका अत्यन्त महीन चूर्ण तथा शहद १-१ उपजिह्वा और नकसीर (नाकसे रक्त स्राव होना) भाग लेकर सबको स्त्रीके दूधमें मिलाकर छानकर का नाश होता है। उसकी बूंदें आंखमें टपकाने से नेत्रशूल नष्ट (३६८६) निर्गुण्डीमूलबन्धनम् होता है। ___(रा. मा. । बालरो.) [३६८८) निशादिवतिः पाचीगतं पाण्डुरसिन्दुवार (र. र.। भगन्दर.) मूलं शिशूनां गलके निबद्धम् ।। निशासैन्धवसिद्धार्थक्षौद्रगुग्गुलुसंयुता। करोति दन्तोद्भववेदनाया वतिर्भगन्दरे योज्या तथा नाडीव्रणापहा ॥ निःसंशयं नाशमकाण्डमेव ।। हल्दी, सेंधा नमक, सरसों और गूगल तथा पूर्व दिशामें उगे हुवे सफेद संभालुकी जड़को | शहद समान भाग लेकर चूर्ण योग्य चीजोंका चूर्ण बालकांके गलेमें बांधनेसे दांत निकलनेके समय | करके उसमें शहद और गूगल मिलाकर बत्ती बनावें होने वाली पौड़ा शान्त हो जाती है। यह बत्ती भगन्दर और नासूरको नष्ट करती है। इति नकारादिमिश्रप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायमकरणम् ] वतीयो भागः। [२५५] - अथ पकारादिकषायप्रकरणम् (३६८९)पचकोलकषाय: । बासा (अडूसा)। इन पांच ओषधियोंके समूह को "पञ्चतिक्त" कहते हैं । (ग. नि. । ज्वर.; वृ. नि.र.। ज्वर.; यो. चि. पञ्चतिक्तसे विसर्प और कुष्ठ नष्ट होता है। ___ म.। अ. ४; च. द. । ज्वर.) | (३६९१) पञ्चतिक्तकाथः । पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः । । (वं. से. । ज्वर.; वृ. यो. त.। त.५९; यो.त.। दीपनीयः स्मृतो वर्गः कफानिलगदापहः ॥ त. २०; वृ. नि. र. । ज्वर.) कोलमानोपयोगित्वात्पञ्चकोलमिदं स्मृतम् । क्षुद्रापुष्करभूनिम्बगुडूचीविश्वभेषजैः। तीक्ष्णोष्णं पाचनं श्रेष्ठं दीपनं कफवातनुत् ॥ "पञ्चतिक्त"नामायं काथो हन्त्यष्टधाज्वरम्॥ गुल्मप्लीहोदरानाइशूलनं पित्तकोपनम् ॥ कटेली, पोखरमूल, चिरायता, गिलोय और पीपल, पीपलामूल, चव, चीता और सेठि । सेठ । इन पांच ओषधियोंके समूहको " पञ्चइन पांच चीजोंके समूहको "पश्चकोल" कहते | तिक्त" कहते हैं । इसके सेवनसे आठ प्रकारके हैं । इस गणमें पांचों ओषधियां १-१ कोल(कर्ष) | ज्वर नष्ट हो जाते हैं। ली जाती हैं इसी लिये इसे पञ्चकोल कहते हैं। पञ्चतृणम् भा. भै. र. भाग २ प्रयोग सं. २२३५ . पश्चकोल दीपन, कफ और वायुके रोगोंको 'तृणपश्चमूलादिकाथ' देखिये। नष्ट करनेवाला,तीक्ष्ण,उष्ण,पाचन तथा गुल्म, प्लीहा, पञ्चदशाङ्गकाथः उदर, अफारा और शूलनाशक तथा पित्तको कु (q. मा.; र. र. । ज्वरा.) पित करनेवाला है। प्रयोग सं. २८४४ देखिये । (३६९०) पञ्चतिक्तकगणः | (३६९२) पञ्चपल्लवकाथ: (यो. र.; पृ. नि. र. । बालरो.) (भा. प्र.; वृ. यो. त.; ५. मा.; बिल्वः पटोलः क्षुद्रा च गुडूची वासकस्तथा। यो. र. । मुखरो.) विसर्पकुष्ठनुत् ख्यातो गणोऽयं “पञ्चतिक्तकः"। पटोलनिम्बजम्बाम्रमालतीनवपल्लवाः। बेलकी छाल, पटोल, कटेली, गिलोय और 'पञ्चपल्लवकः श्रेष्ठः कषायो मुखधावने ॥ For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि __पटोल, नीम, जामन, आम और चमेलीके | शहद और मिश्री मिलाकर पिलाना चाहिये । तथा नवीन पत्तों का काथ बनाकर उससे कुल्ले करनेसे | दोषांके अनुसार ज्वरनाशक कषाय सेवन कराने मुखरोग (मुंह के छाले आदि ) नष्ट होते हैं। चाहिये। (३६९३) पञ्चभद्र कम् | (३६९६) पञ्चमूलकाथ: (वै. र.; . मा.; यो. चि.; वृ. नि. र.; भा. प्र.) (वं. से. । स्त्रीरो.; यो. र. । सूतिका.) ज्वरा.; वै. जी. । विला. १; शा. ध.। म.. | पञ्चमूलस्य वा काथं तप्तलोहेन सङ्गतम् । अ. २; वृ. यो. त. । त. ५९) सूतिकारोगनाशाय पिबेद्वा तद्युतां सुराम् ।। गुडूची पर्पटो मुस्ता किरातो विश्वभेषजम् । वातपित्ते ज्वरे देयं “पञ्चभद्रमिदं" शुभम्।। पञ्चमूल ( बेलछाल, सोना पाठा (अरलू ), | खम्भारी, पाढल, अरणी ) के काथमें गर्म लोहेको गिलोय, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, चिरायता और सांठ का काथ वातपित्त ज्वरको नष्ट करता है। बुझाकर पीनेसे अथवा उसमें सुरा मिलाकर पीनेसे इसका नाम 'पञ्चभद्र' है। सूतिकारोग नष्ट होता है। (३६९४) पञ्चमुष्टिकयूषः (३६९७) पञ्चमूलादिक्काथ: (१) (ग. नि.; च. द.; वृं. मा.; वं. से.; यो. र.; | (वृ. यो. त. । त. १२६; यो. र. । मसूरि.) भा. प्र. । ज्वरचिकि.; यो. त.। त. २०) । वृहतः पञ्चमूलस्य दृषपत्रयुतस्य च । यवकोलकुलत्यानां मुद्गमूलकशुण्ठयोः । कपायः शमयेत्पीतः कफोत्यां तु ममूरिकाम् ॥ एकैकं मुष्टिमादाय पचेदष्टगुणे जले ॥ वृहत्पञ्चमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल पञ्चमुष्टिक इत्येष वातपित्तकफापहः । और अरणीकी छाल) और बासे ( अडूसे ) के शस्यते शूलगुल्मेषु कासे श्वासे क्षये ज्वरे ॥ | पत्तोंका काथ पीनेसे कफज मसूरिका शान्त ___ जौ, बेर, कुलथी, मूंग, और मूलीके टुकड़े | होती है। १-१ मुट्ठी लेकर सबको ८ गुने पानीमें (३६९८) पञ्चमूलादिकाथः (२) इनका यूष वातपित्त और कफज ज्वर, शूल, (वं. से.; वृ. नि. र.; आ. वे. वि. । ज्वर. चि.) गुल्म, खांसी, श्वास और क्षयमें हितकर है। पञ्चमूलीबलारास्नाकुलत्यैः सह पौषकरैः। (३६९५) पञ्चमूलकषायः काथो इन्याच्छिरःकम्पं पर्वभेदं मरुज्ज्वरम् ॥ (वं. से. । मदात्यय.; वृ. नि. र. । मूर्छा.) ___ वृहत्पञ्चमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल पञ्चमूलकषायश्च मधुना सितया पिबेत् । और अरणीकी छाल ) खरैटी, रास्ना, कुलथी और यथा स्वश्च ज्वरनानि कषायानि प्रयोजयेत् । पोखरमूलका काथ पीनेसे शिरका कांपना, जोड़ोंका मदात्यय और मूर्छा में पश्चमूलके कषाय में । टूटना, और वातजज्वर नष्ट होता है। पकावें। For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कसायाकरणम् ] तृतीयो भागः। [२९७] - - (३६९९) पञ्चमूलीकषायः (१) (३७०२) पश्चमूलीकाथः (१) (आ. वे. वि. । ज्वरा.) (च. सं.। चि. अ. ५ गुल्म.; ई. मा.। गुल्म.) पत्रमूलीकषायन्तु पाचनं वातिके ज्वरे। पञ्चमूलीशृतं तोयं पुराणं वारुणीरसम् । पञ्चमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और कफगुल्मी पिबेत्काले जीर्ण मावीकमेव वा।। भरणीकी छाल) का काथ वातज्वर में दोषों को पञ्चमूल ( बेल, अग्लु, खम्भारी, पाढल, और पकाता है। अरणीकी छाल ) के काथमें पुरानी वारुणी सुरा (३७००) पञ्चमूलीकषायः (२) | या पुराना माध्वी सुरा मिलाकर पीनेसे कफगुल्म नष्ट होता है। (वै. जी. । प्रथ. विला.) (३७०३) पञ्चमूलीकाथ: (२) पत्रमूलीकषायस्य सकृष्णस्य निषेवणात् । जीर्णज्वरः कफकृतो विदधाति पलायनम् ॥ (वृ. नि. र.; वं. से.; . मा.; यो. र. । वातव्या.) | पञ्चमूलीकृतः काथो दशमूलीकृतोऽथवा । पश्चमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और रूक्षस्वेदस्तथा नस्यं मन्यास्तम्भे प्रशस्यते ॥ अरणी की छाल) के काथमें पीपलका चूर्ण मिला ___मन्यास्तम्भ रोगमें पञ्चमूल या दशमूलका कर पीनेसे कफज जीर्णज्वर नष्ट हो जाता है। काथ और रूक्षस्वेद तथा नस्य हितकारक है । (काथ १० तोले। पीपलका चूर्ण १ माशे से ३ माशे तक) (३७०४) पञ्चमूलीक्षीरम् (३७०१) पश्चमूलीकषायः (३) (. मा.; ग. नि. । बालरो.) पञ्चमूलीकपायेण सघृतेन पयः शृतम् । (वं. से.; . मा. । वातव्या.) सावेरं सगुडं शीतं हिकार्दितः पिबेत् ॥ पञ्चमूलीकषायन्तु रुबुतैलत्रिवधुतम् ।। पञ्चमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और गृध्रसीगुल्मशूलश्च पीतं सद्यो नियच्छति ॥ अरणीकी छाल ) और घीके साथ दूध पकाकर पञ्चमूल (बेल, अरल, खम्भारी, पाढल, और ठंडा करके उसमें सांठका चूर्ण और गुड मिलाकर अरणी की छाल ) के काथमें अरण्डका तैल (का- पीनेसे हिचकी नष्ट होती है। ष्ट्रायल) और निसोतका चूर्ण मिलाकर पीनेसे (पञ्चमूल का काथ ८० तोले, दूध २० गृध्रसी गुल्म और शूल रोग शीघ्र ही नष्ट हो तोले, घी ११ तोला । सबको मिलाकर पकावें। जाता है। दूध शेष रहने पर छान लें । सेोठका चूर्ण १ से (काथ १० तोले, अरण्डका तेल २ तोले, | ३ माशे तक और गुड़ इतना मिलावे कि दूध निसोत ३ माशे ।) | मीठा हो जाय । For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [२५८ ] (२००५) पञ्चमूल्यादिकाथ : (१) (वै. जी. | विला. १; बृ. नि. र. । वातज्वर.) पञ्चमुल्यभृतामुस्ता विश्व भूनिम्वसाधितः । कषायः शमत्याशु वायुमायुभवं ज्वरम् ॥ पक्षमूल (बेल, अरल, खम्भारी, पाढल और अरणीको छाल), गिलोय, मोथा, सेट और चिरायतका का वातज्वरको शीघ्र ही नष्ट कर देता है । (३७०६) पञ्चमूल्यादिकाथ: (२) (म.प्र.) वं. से. । अतिसा; मै. र. ग. नि; ई. मा.; च. द. । ज्वराति . ) पञ्चमूलीला बेल्वगुचीमुस्तनागरैः । पाठा भूनिम्वटी वेरकुटजत्व क्फलैः शृतम् ॥ सर्व हन्यतीसारं ज्वरञ्चापि तथा वमिम् । सोष्ट्रवस्दा कासं चापि सुदुस्तरम् ॥ पञ्चमूलीच सामान्या पित्ते योज्या कनीयसी । पुनर्वासे च सायोज्या महती मता ॥ पञ्चमूल, खरैटी, बेलगिरी, गिलोय, मोथा, सोंठ, पाठा, चिरायता, नेत्रबाला, कुड़ेकी छाल और इन्द्रजौ का काथ सेवन करनेसे वातज, पित्तज और कफज तथा सन्निपातज अतिसार, ज्वर, चमन, शूल, श्वास और भयंकर खांसी आदि उपद्रव नष्ट होते हैं । पित्तज रोगमें लघु पञ्चमूल (शालपर्णी, पृष्ठ पण, कटेली, कटेला, गोखरु ) और कफज तथा वातज रोग में वृहत्पञ्चमूल (बेल, अरल, खम्भारी, अरोकी छाल) लेना चाहिये । पाडल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (३७०७) पञ्चमूल्यादिकाथः (३) (वं. से. । ज्वरा. ) समुस्तं पञ्चमूलश्च दद्याद्वातोत्तरे गदे । भृशोष्णं वा सुखोष्णं वा दृष्ट्वा दोषबलाबलम् ॥ वातप्रधान ज्वर में पञ्चमूल (बेल, अरल, खम्भारी, पाढल और अरणीको छाल) और मोथेका काथ दोष बलाबल के अनुसार अधिक उष्ण या मन्दोष्ण पिलाना चाहिये । (३७०८) पञ्चमूल्यादिकाथ : (४) ( वं. से.; वृ. नि. र.; च. द. । ज्वरा. ) पञ्चमूली किरातादिर्गणो योज्यस्त्रिदोषजे । पित्तोत्कटे च मधुना कणया वा कफोत्कटे ॥ पञ्चमूल, ( बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और अरणी की छाल ) और किरातादि गण ( चिरायता, मोथा, गिलोय, सांठ) के काथमें शहद मिलाकर पित्तप्रधान सन्निपात में और पीपलका चूर्ण मिलाकर कफप्रधान सन्निपात में पिलाना चाहिये । ( काथ १० तोले, शहद १| तोला, पीपलका चूर्ण १ से ३ माशे तक । ) (३७०९) पञ्चमूल्यादिक्षीरम् (१) (ग. नि. । कासा . ) स्थिरादिपञ्चमूलस्य पिप्पली द्राक्षयोस्तथा । कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत्सम धुशर्करम् ॥ For Private And Personal Use Only शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, पीपल और मुनक्का से दूध पकाकर उसमें शहद और खांड मिलाकर पीने से खांसी नष्ट होती है । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मूली बलासिद्धं क्षीरं वातामये हितम् । कषायप्रकरणम् ] ( ओषधियां २ ॥ तोले, दूध २० तोले, पानी ८० तोले । सबको मिलाकर पानी जलने तक पकावें । मिश्री १| तोला, शहद १| तोला ।) (३७१०) पञ्चमूल्यादिक्षीरम् (२) ( वं. से. । वातव्या . ) तृतीयो भागः । ( भोषधियां २ ॥ तोले, दूध २० तोले, पानी ८० तोले । सबको मिलाकर पानी जलने तक पकावें और छान लें । ) (३७११) पञ्चमूलाद्याइच्योतनम् ( वृं. मा. । तृष्णा. ) कोलदाडिमवृक्षालचुकीका चुक्रिकारसः । पञ्चमूल ( बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और | पञ्चामलको मुखालेपः सग्रस्तृष्णां नियच्छति || अरणी की छाल) और खरैटीसे सिद्ध दूध वातव्याधिको नष्ट करता है । ( शा. ध. । खं. ३ अ. १३ ) बिल्वादिपञ्चमूलेन हत्येरण्ड शिश्रुभिः । काय आश्च्योतने कोष्णो वाताभिष्यन्दनाशनः ।। बेलफी छाल, अरलुकी छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलकी छाल, अरणीकी छाल, कटेला, अरण्डकी जड़ और सहजनेकी छाल के काथ को में टपकाने से वातज अभिष्यन्द नष्ट होता है । नोट -- काथको अत्यन्त स्वच्छ कपड़े से छानकर मन्दोष्ण व्यवहृत करना चाहिये । (३७१२) पञ्चवल्कलादिकाथः ( वृं. मा. भा. प्र. यो. र. । मुख. ) पञ्चवल्कलजः काथत्रिफलासम्भवोऽथवा । मुखपाके प्रयोक्तव्यः सक्षौद्रो मुखधावने ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२५९ ] पचवल्कल ( पीपल, पाखर, गूलर, बड़ और बेतकी छाल ) या त्रिफलाके काथ में शहद मिलाकर कुल्ले करने से मुखरोग ( मुख पाकादि ) नष्ट होते हैं । (६७१३) पञ्चाम्लयोगः बेर, अनार, इमली और चूकावासका रस तथा कांजी समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर मुखमें लेप करने से तृष्णा शीघ्रही शान्त हो जाती है। (३७१४) पटीरादिकाथ: ( भा. प्र. । दाह; वृ. यो त । त. ८७ ) पटीरपर्पटोशीरनीरनीरदनीरजैः मृणाल मिशिधान्याकपद्मकामलकैः कृतः । अर्द्धशिष्टः सिताशीतः पीतः क्षौद्रसमन्वितः काथो व्यपोहयेद्दाहं नृणाञ्च परमोल्वणम् ।। सफेद चन्दन, पित्तपापड़ा, खस, सुगन्धबाला, नागरमोथा, कमल, मृणाल, सौंफ, धनिया, पाक और आमला । सब चीजें समान भाग मिली हुई २ तोले लेकर २० तोले पानी में पकावें । आधा पानी रहने पर उसमें ( १ तोला ) मिश्री मिला कर ठंडा करके ( १ तोला ) व मिला कर पिलाने से अत्यन्त नहीं हुई दी शान्त हो जाती है । For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६०] भारत-मैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि - (३७१५) पटोलचतुष्क: मलनेसे छोटे छोटे दाने से हो जाते हैं वही पीपल (यो. स. । स. ३) के चावल कहलाते हैं ) सबको पीसकर मन्दोपटोलतिक्तापिचुमन्दपथ्या ष्ण पानीमें मिलाकर बालकको पिलाने से आमा__ शृतकषायः कफपित्तजातः । तिसार नष्ट होता है। ज्वरो विनश्येन्मधुनाटरूप (३७१८) पटोलमूलादियोगः शुण्ठीपटोलीत्रिफलाभिरेव ॥ (च. सं. । चि. अ. ५; ग. नि. । कु.) पटोल, कुटकी, नीमकी छाल और हर्र का | मूलं पटोलस्य तथा गवाक्ष्याः काथ या बासा ( अडूसा), सांठ, पटोल और | त्रिफलेका काथ शहद मिलाकर पीनेसे कफपित्तज पृथक् पलांशं त्रिफलात्वचश्च । ज्वर नष्ट होता है। स्यात् त्रायमाणा कटुरोहिणी च (३७१६) पटोलमूलादिकाय: भागाद्धिका नागरपादयुक्ता ॥ पलं त्वथैकं सहचूर्णितानां (र. र.; . मा. । मसू.; यो. त. । त. ६७) जले श्रृतं दोषहरं पिबेना। पटोलमूलारुणतण्डुलीयकं कुष्ठानि शोफ ग्रहणीमदोषं तथैव धात्रीखदिरेण संयुतम् । पिवेजलं मुकथितं मुशीतलं अशीसि कृच्छ्राणि हलीमकश्च ।। ममूरिकारोगविनाशनं परम् ॥ षडात्रयोगेन निहन्ति चैव हृद्वस्तिशूलं विषमज्वरश्च ॥ पटोल (परवल) की जड़ और लाल चौलाईकी जड़ एवं खैरसार और आमलेका काथ ठण्डा पटोलमूल, इन्द्रायणकी जड़, हर्र, बहेड़ा और करके पीनेसे मसूरिका रोग शान्त होता है। आमले की बकली ५-५ तोले, त्रायमाणा और | कुटकी २॥२॥ तोले तथा सेठ १ तोला लेकर (३७१७) पटोलमूलादिप्रयोगः सबको एकत्र मिलाकर अधकुटा कर लें । (वं. से. । बालरो.) पिष्टा पटोलमूलञ्च शृङ्गवेरं वचामपि । इसमेंसे ५ तोले चूर्णको ४० तोले पानीमें विडनान्यजमोदाश्च पिप्पलीतण्डुलान्यपि ॥ पकाकर १० तोले शेष रहने पर छानकर रोगीको एतान्यालोच्य सर्वाणि मुखतोन वारिणा। पिला दें। आमभवृत्तेऽतीसारे कुमारं योजयेद्भिषक् ॥ इसके सेवन से कुष्ठ, शोथ, ग्रहणी, अर्श, ___ पटोलकी जड़, सांठ, बच, बायबिडंग, अज- हलीमक, हृदय और वस्तिका शूल तथा ज्वर ६ मोद और पीपलके चावल। (पीपलको दूधमें भिगोकर । दिनमें ही नष्ट हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कषायप्रकरणम् ] (३७१९) पटोलादिकषायः (ग. नि. । ज्वरा. ) www.kobatirth.org तृतीयो भागः । शृतं पटोल त्रिफलापाब्दैः सरोहिणीकैः पिचुमन्दयुक्तैः । सदेवकाष्ठैश्च जलं नराणाम् सर्वज्वरं हन्ति निपीयमानम् ॥ पटोलपत्र, त्रिफला, बासा (अडूसा ), नागरमोथा, कुटकी, नीमकी छाल और देवदारु का काथ समस्त प्रकारके ज्वरोको नष्ट करता है । (३७२०) पटोलादिकाथ: (१) (वै. जी. | वि. १ ) स्वकान्तिजितरोचने चपललोचने मालतीप्रसूननिकरस्फुरत्कवरिपञ्चवक्त्रोदरि । पटोलकटुरोहिणीमधुकचेतकी मुस्तका प्रकल्पितकषायको विषममाशु जेजीयते ॥ पटोल ( पलवल ), कुटकी, मुलैठी, हर्र और नागरमोथेका काr विषमज्वरको शीघ्रही नष्ट कर देता है। (३७२१) पटोलादिकाथ: (२) त्रायन्तितिक्ताहनिशामृतानाम् । पीतः कषायो मधुना निहन्ति ( वृ. यो. त. । त. १२८; वं. से; वृ. नि. र. ग. नि.; भै. र. यो. र.; वृं. मा. ; वा. भ. । मुखरो. ) पटोल शुण्ठीत्रिफलाविशाला मुखे स्थितश्चाssस्यगदानशेषान् ॥ पटोल, सोंठ, त्रिफला, इन्द्रायण, त्रायमाणा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६१] कुटकी, हल्दी और गिलोय । इनके काथमें शहद मिलाकर पीने से समस्त मुखरोग नष्ट हो जाते हैं। (३७२२) पटोलादिकाथ: (३) ( र. र. । विसर्प ; वृ. मा. । विस्फो. ) पटोलत्रिफलारिष्टगुडूचीमुस्तचन्दनैः । समूर्वारोहिणीपावारजनीसदुरालभा ।। कषायं पाययेदेतत्पित्तश्लेष्मरुजापहम् । कण्डूत्वग्दोषविस्फोट विषवीसर्पनाशनम् ॥ पटोल, त्रिफला, नीमकी छाल, गिलोय, नागरमोथा, लालचन्दन, मूर्वा, कुटकी, पाठा, हल्दी, और धमासा | इनका काथ पित्तकफज पीड़ा, खुजली, त्वग्दोष, विस्फोटक और विषजन्य विसर्पको नष्ट करता है। (३७२३) पटोलादिकाथः (४) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २ ) पटोलवासा पिचुमन्दकस्य दलानि यष्टीमधुकं कणा च । कषायमेतत् प्रतिसाधितं तु ज्वरे कफे पित्तयुते प्रशस्तः ॥ सन्दीपनो वातकफात्मके च तथैव पित्तासम्भवे च । ज्वरे मलानां प्रतिभेदनः स्यात् पटोलधान्यामृतकल्कयुक्तः ॥ पटोल, बासा ( अडूसा ) और नीमके पत्ते, मुलैठी और पीपल । इनके काथमें पटोल, धनिया और गिलोयका कल्क मिलाकर पीनेसे पित्तयुक्त For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि कफवर, वातकफचर और रक्तपित्तज ज्वर नष्ट । मसूरीं शमयेदामं पकाश्चैव विशोधयेत् । होता है । मल टूट कर निकल जाता है और ! नातः परतरं किञ्चिद्विस्फोटज्वरशान्तये ॥ अग्नि प्रदीप्त होती है। पटोलपत्र, गिलोय, नागरमोथा, बासा, धमा(३७२४) पटोलादिकाथः (५) सा, चिरायता, नीमकी छाल, कुटकी और पित्त(ग. नि.; वृ. मा. । अम्ल.) | पापड़ा । इनका काथ आम (अपक) मसूरिका पटोलनिम्बामृतरोहिणीकृतं को शान्त और पक्कको शुद्ध करता है । विस्फोटजलं पिवेत्पित्तकफोच्छ्ये वा। ज्वरके लिये इससे अच्छी अन्य कोई भी औषध शूलभ्रमारोचकवनिमान्ध नहीं है। दाहज्वरच्छदिनिवारणञ्च ॥ (३७२७) पटोलादिकाथ: (८) पटोल, नीमकी छाल, गिलोय, और कुटकी। ( वा. भ. । चि. अ. १७) इनका काथ पित्तकफप्रधान अम्लपित्त, शूल, | पटोलमूलत्रायन्तीयष्ट्याकटुकाभयाः । भ्रम, अरुचि, अग्निमांद्य, दाह, वर और वमनको | दारु दार्वी हिमं दन्ती विशाला निचुलं कणा॥ नष्ट करता है। तैः काथः सघृतः पीतो हन्त्यन्तस्तापतृभ्रमान्। (३७२५) पटोलादिकाध: (६) ससन्निपातवीसर्प शोफदाहविषमज्वरान् ।। ( वृ. नि. र.; . मा. । उपदं.) पलवलकी जड़, त्रायमाणा, मुलहटी, कुटकी, पटोलनिम्बत्रिफलाकिरातः हरे, देवदार, दारुहल्दी, सफेद चन्दन, दन्ती, काथं पिवेद्वा खदिरासनाभ्याम् । | ( जमालगोटेकी जड़ ) इन्द्रायण, जलवेत, और सगुग्गुलं वा त्रिफलायुतं वा पीपल । इनके काथमें घृत मिलाकर पीनेसे अन्तसर्वोपदंशापहरः प्रयोगः ॥ स्ताप, पिपासा, भ्रम, सन्निपात, विसर्प, शोथ, पटोल, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला | दाह और विषमज्वर नष्ट होता है । और चिरायता । इनके अथवा खैरसार और अस- (३७२८) पटोलादिकाथः (९) नाके काथमें गूगल या त्रिफला का चूर्ण मिलाकर (वा. भ. । चि. अ. २ ) पिलाने से सब प्रकारके उपदंश नष्ट होते हैं। पटोलमालतीनिम्बचन्दनद्वन्यपद्मकम् । (३७२६) पटोलादिकाथः (७) रोधो दृषस्तन्दुलीयः कृष्णामृन्मदयन्तिका ॥ (र. र.; ग. नि.; भै. र.; बूं. मा.; च, द.; यो. | शतावरी गोपकन्या काकोल्यौ मधुयष्टिका । र.; वं. से. । मरिका; . यो. त. । त. १२६) | रक्तपित्तहराः काथास्त्रयः समधुशर्कराः ॥ पोलकुण्डलीटस्पधन्वयवासकैः । (१) पटोलपत्र, चमेली, नीमकी छाल, सफेद अनिम्नलिम्बयाणां पौन शृतं जलम् ।। चन्दन, लालचन्दन और कमल । For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२६३] (२) लोध, बासा (अडूसा), चौलाईकी जड़, काली , (३७३१) पटोलादिकाथः (१२) मिट्टी, मदयन्तिका। (वृ. नि. र. । ज्वर.) . (३) शतावर, सफेद सारिवा, काकोली, क्षीर- 1 पटोलत्रिफलातिक्तासठीवासामताभवः । काकोली और मुलैठी। | काथो मधुयुतःपीतो हन्यात्कफकृतं ज्वरम् ॥ इन तीनों का से किसी एकमें शहद पटोलपत्र, त्रिफला, कुटकी, सठी ( कचूर ), और मिश्री मिलाकर पीनेसे रक्तपित्त नष्ट होता है। बासा और गिलोय । इनके काथमें शहद मिला)३७२९) पटोलादिकाथः (१०) | कर पीनेसे कफज्वर नष्ट होता है । (वं. से. । ज्वरा.) (३७३२) पटोलादिकाथः (१३) पटोल बालकञ्चैव मुस्तकं रक्तचन्दनम् ।। (वं. से.; च. द. । मुख.; यो. त. । त. ६९) पाठा मूर्वामृता शुण्ठी चोशी कटरोहिणी॥ | पटोलनिम्बजम्ब्याम्रमालतीनां च पल्लवैः । समभागैः शृतं तोयं सर्वज्वरहरं पिबेत् ॥ कृतः काथः प्रयोक्तव्यो मुखपाकस्य धावने ॥ पटोलपत्र, सुगन्धवाला, नागरमोथा, लाल-. पटोलपत्र, नीम, जामन, आम और चमेली चन्दन, पाठा, मूर्वा, गिलोय, सेठ, खस और | और के पत्ते । इनके काथके कुल्ले करनेसे मुखपाक नष्ट कुटकी । इनका काथ समस्त प्रकारके ज्वरोको हो जाता है। नष्ट करता है। (३७३३) पदोलादिकायः (१४) (. नि. र. । ज्वर.; यो. त.। त. २०; यो. (३७३०) पटोलादिकाथः (११) । चिं.। अ. ४; शा. सं. । म. ख, अ. २) (वं से. । ज्वर.) पटोलत्रिफलानिम्बतृष्णान्विते वातकफार्तिशूले द्राक्षाशम्पाकवासकैः। सश्वासकासारुचिवद्धविट्के । काथः सितामधुयुतो हितं जलं दीपनपाचनश्च जयेदेकाहिकं ज्वरम् ॥ पटोलशुण्ठीयवपिप्पलीनाम् ॥ पटोलपत्र, हर, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, मुनक्का, अमलतासका गूदा और बासा । पटोलपत्र, सोंठ, इन्द्रजौ और पीपलका इनके काथमें मिश्री और शहद मिलाकर पीनेसे काथ तृष्णायुक्त वातकफज्वरको नष्ट करता तथा 'इकतरा' ज्वर नष्ट होता है। अर्ति (बेचैनी) शूल, श्वास, खांसी, अरुचि, (३७३४) पटोलादिकाथः (१५) और मलवद्धता (मलका अत्यन्त कठिन होना- (वृ. नि. र.; वं. से. । ज्वर.) अर्थात् सुद्दे) को नष्ट करता है। यह दीपन पाचन पटोलेन्द्रयवानन्तापथ्यारिष्टामृताजलम् । कथितं तज्जलं पीतं ज्वरं सन्ततकं जयेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २६४ ] पटोलपत्र, इन्द्रयव, अनन्तमूल, हर्र, नीमकी छाल और गिलोयका काथ 'सन्तत' ज्वरको नष्ट करता है । भारत - भैषज्य रत्नाकरः । (३७३५) पटोलादिकाथ: (१६) ( वृ. नि. र. । ज्वर. ) पटोलाब्दवृषातिक्तासारिवाभिः शृतं जलम् । सन्तताख्ये ज्वरे देयं वातादीनां निवृत्तये ॥ पटोलपत्र, नागरमोथा, बासा, कुटकी और सारिवा । इनका काथ 'सन्तत' ज्वरको नष्ट करता और वातादि दोषोंको शान्त करता है । (३७३६) पटोलादिकाथः (१७) (३७३७) पटोलादिकाथ : (१८) (बृ. नि. र. । ज्वर.; वृ. यो त । त. ६३ ) पटोलमुस्तामृतवल्लिवासकं सनागरं धान्यं किराततिक्तकम् । कषायमेषां मधुना युतं नरो निवारयेद्दुर्जलदोषमुल्वणम् ॥ [ पकारादि (३७३८) पटोलादिकाथ: (१९) (आ. वे. वि. । अ. ७९) पटोल मधुकं द्राक्षां धन्यार्क विश्वभेषजम् । पीतमूलीं बलां रास्नां मूर्व्वामिन्द्रयवं विडम् ॥ कणाद्वन्द्वं निशाद्वन्द्वमिन्द्रपुष्पं त्रिजातकम् । काथयित्वा पिवेत्तोयमण्डाधारगदे सदा ॥ पटोलपत्र, मोथा, गिलोय, बासा (अडूसा ), सोंठ, धनिया और चिरायता । इनके काथ में शहद मिलाकर पीनेसे खराब पानी पीनेसे उत्पन्न हुवा ज्वर नष्ट होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ग.नि.; वृ. नि. र. । ज्वरा. ) पटोलीन्द्रयवदारुगुडूचीनिम्बपल्लवाः । हन्ति काथो निपीतोऽयं सततं विषमज्वरम् ॥ पटोलपत्र, इन्द्रजौ, देवदारु, गिलोय और नीमके पत्ताका काथ सेवन करनेसे 'सतत ' विषम | निपीतमात्रः शमयत्युदीर्णे वर नष्ट होता है । पटोलपत्र, मुलेठी, मुनक्का, धनिया, सोंठ, रेवन्दचीनी, खरैटी, रास्ना, मूर्वा, इन्द्रयव, बायबिड़ंग, सफेद और काला जीरा, हल्दी, दारूहल्दी, लौंग, दालचीनी, तेजपात और इलायची । इनका काथ अण्डाधार सम्बन्धी रोगोंको नष्ट करता है । (३७३९) पटोलादिकाथः (२०) (वृ. नि. र. । ज्वर. ) पटोलपथ्यापिचुमन्दशक्रबीजामृतायासकृतः कषायः । कासादियुक्तं सततं ज्वरं हि ॥ पटोलपत्र, हर्र, नीमकी छाल, इन्द्रजौ गिलोय और धमासेका काथ कासादि उपद्रवयुक्त 'सतत ' ज्वर को नष्ट करता है । (३७४०) पटोलादिकाथः (२१) ( वं. से.; वृं. मा.; ग. नि. । ज्वर. ) पटोले पिचुमन्दञ्च त्रिफलां मधुकं बलाम् । साधितोऽयं कषायः स्यात्पित्तश्लेष्मोद्भवे ज्वरे ॥ परवल के पत्ते, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला मुलैठी और खरैटी । For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२६५] इनका काथ पित्तकफज ज्वरफो नष्ट | (३७४४) पटोलादिकाथः (२५) करता है। (वं. से. । व्रण.) (३७४१) पटोलादिकाथः (२२) ततः प्रक्षालनः काथ पटोलनिम्बपत्रजः। (ग. नि. । विसर्प.) अविशुद्ध विशुद्धे तु न्यग्रोधादित्वगुद्भवः॥ पीत्वा पटोलनिम्बैस्तु चन्दनोत्पलमुस्तकैः। | अशुद्ध घावको पटोल और नीमके पत्तेकि कार्य विसर्परोगातः शिमं सुखमवाप्नुयात् ॥ काथसे तथा शुद्ध धावको न्यग्रोधादि गणकी पटोलपत्र, नीमकी छाल, लाल चन्दन, | छालके काथसे धोना चाहिये । नीलोफर (कमल) और नागरमोथा। इनका काथ । (३७४५) पटोलादिकाथः (२६) विसर्प रोगको शीघ्र ही नष्ट कर देता है। (ग. नि.; वृं. मा.; वं. से. । कुष्ठा.) (३७४२) पटोलादिकाथः (२३) पटोलखदिरारिष्टत्रिफलाकृष्णाचित्रकैः । (ग. नि. । विस.) तिक्तासनैः पिबेत्वार्थ कुष्ठी कुष्ठं व्यपोहति ॥ पटोलारिष्टादावीत्वक्तिक्तात्रायन्तिकामृताः। पटोलपत्र, खैरसार, नीमकी छाल, त्रिफला, सयष्टीमधुकाः सर्वे विसर्पान् नन्ति पानतः ॥ पीपल, चीता, कुटकी और असना । इनका काथ पटोलपत्र, नीमकी छाल, दारुहल्दीकी छाल, पीनसे कुष्ठ रोग नष्ट होता है । कुटकी, त्रायमाणा, गिलोय और मुलैठी। (३७४६) पटोलादिकाथः (२७) इनका काथ पीनेसे समस्त प्रकारके 'वीसर्प (यो. चि. का.) नष्ट हो जाते हैं। पटोली च गुडूची च मुस्ता चैव धमासकम् । (३७४३) पटोलादिकाथः (२४) निम्बत्वपर्पटें तिक्ता भूनिम्बत्रिफला वृषा ॥ (वं. से. । स्त्रीरो.) "पटोलादिरयं" काथः वातज्वरहरः स्मृतः॥ पटोलनिम्बासनदारुपाठा पटोलपत्र, गिलोय, नागरमोथा, धमासा, मूर्वी गुडूची कटुरोहिणीश्च । नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, कुटकी, चिरायता, सनागरं वा कथितश्च तोये त्रिफला और बासा । धात्री पिबेत्स्तन्यविशुद्धिहेतोः॥ यह काथ वातजज्वरको नष्ट करता है । पटोलपत्र, नीमकी छाल, असना वृक्षकी । (३७४७) पटोलादिकाथः (२८) छाल या सार, देवदारु, पाठा, मूर्वा, गिलोय, (भा. प्र.; यो. र. । बाल.) कुटकी और सेठ का काथ धाय(धात्री)को पिलानेसे | पटोलत्रिफलारिष्टहरिद्राकथितं पिबेत् । उसका दूध शुद्ध हो जाता है। | क्षतवीसर्पविस्फोटज्वराणां शान्तये शिशोः॥ For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि ___ पटोलपत्र, त्रिफला, नीमकी छाल और हल्दी; | इनका काथ पीनेसे अभिन्यास ज्वर नष्ट होता इनका काथ पिलानेसे बच्चोंका क्षत, वीसर्प, और कण्ठ खुल जाता है । विस्फोटक और ज्वर शान्त होता है। | (३७५१) पटोलादिकाथ: (३२) (३७४८) पटोलादिकाथः (२९) (यो. र.; वं. से. । विस.) (वृ. नि. र. । ज्वर.) पटोल पिचुमन्दश्च दावीं कटुफरोहिणीम् । पटोलयवधान्याकमधुकं मधुसंयुतम् । यष्टयाई त्रायमाणाश्च दद्याद्वीसपेशान्तये ॥ हन्ति पित्तज्वरं दाहं तृष्णां चाति प्रमाथिनीम्।। पटोलपत्र, नीमकी छाल, दारुहल्दी, कुटकी, पटोलपत्र, इन्द्रजौ, धनिया और मुलैठी के मुलैठी और त्रायमाणा । इनका काथ विसर्पको काथमें शहद डालकर पीनेसे पित्तज्वर, दाह और नष्ट करता है। तृषा शान्त होती है। (३७५२) पटोलादिकाथः (३३) (३७४९) पटोलादिक्काथः (३०) (हा. सं.। स्था. ३ अ. २; वृं. मा.; वं. से.; (वं से.; वृं. मा.; ग. नि.; च. द.; वृ. नि. | वृ. नि. र.; ग. नि.; च. द. । ज्वराः; शा. र.। ग्वरा.) ध. । म. ख. अ. २; वृ. यो. त. ।त. ५९) पटोलयवनिष्काथो मधुना मधुरी कृतः। पटोली चन्दनं तिक्ता मूर्वा पाठामृता गणः । तीब्रपित्तज्वरोन्मर्दी पानात्तृड्दाहनाशनः॥ पित्तश्लेष्मज्वरच्छदिदाहकण्डूनिवारणः॥ ___पटोलपत्र और इन्द्रजौके काथको शहदसे पटोलपत्र, लालचन्दन, कुटकी, मूर्वा, पाठा मीठा करके पीनेसे भयङ्कर पित्तजज्वर और तृषा | और गिलोय । इनका काथ पित्तकफज्वर, छर्दि, तथा दाहका नाश होता है। दाह और खुजलीका नाश करता है। (३७५०) पटोलादिकाथः (३१) (३७५३) पटोलादिकाथः (३४) (ग. नि.; वं. से. । ज्वरा.) पटोलपत्रं सुषवी वृहती कण्टकारिका । (३. नि. र.; वं. से.; र. र. । ज्वरा.) मरिच पिप्पली बिल्वं चिरबिल्वं सचित्रकम् ॥ पटोलयवधान्याकमुस्तामलकचन्दनम् । करञ्जवीज मञ्जिष्ठा त्रायन्ती विश्वभेषजम् । श्लैष्मिकश्लेष्मपित्तोत्यज्वरतछर्दिदाहनुत् ।। गलमबोधनं श्रेष्ठमभिन्यासज्वरापहम् ॥ पटोलपत्र, इन्द्रयव, धनिया, नागरमोथा, पटोलपत्र, काला जीरा, कटेला, कटेली, आमला, और लालचन्दन । इनका काथ कफज कालीमिर्च, पीपल, बेलकी छाल, डहर करआ, चीता, और कफपित्तज ज्वर तृषा, छर्दि और दाहका करखकी गिरी, मजीठ, त्रायमाणा और सेठि । । नाश करता है । For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२६७] (३७५४) पटोलादिकाथः (३५) पटोलपत्र, सेठ और धनिया। इनका काथ ( वृ. नि. र.; यो. र.; वं. से.; वृ. मा.; ग. नि.। खुजली, पामा, शूल, कफपित्त और अग्निमांधका शूला.; वृं. मा. । अम्लपि.) नाश करता है। पटोलत्रिफलारिष्टैः शृतं क्षौद्रयुतं पिबेत् । (३७५८) पटोलादिकाथ: (३९) पित्तश्लेष्मोद्भवं शूलं विरेकवमनैर्जयेत् ॥ (वृ. नि. र.; ग. नि.; वृं. मा.; यो. र.; वं. पटोलपत्र, त्रिफला और नीमकी छाल । इनके से. । अति.) काथमें शहद मिलाकर पीनेसे पित्तकफज शूल पटोलयवधान्याककाथः पीतः मुशीतलः । नष्ट होता है । पित्तकफज शूल में विरेचन और शरामधुसंयुक्तश्छद्येतीसारनाशनः ॥ वमन करानी चाहिये। पटोलपत्र, इन्द्रजौ और धनियेके काथको (३७५५) पटोलादिकाथः (३६) ठंडा करके उसमें खांड और शहद मिलाकर पीनेसे (भा. प्र. । ख. २; भै. र.; . मा.; यो. र. । वमन और अतिसार नष्ट होते हैं । वातरक्ता.; आ. वे. वि. । चि. अ. ३२) । (३७५९) पटोलादिकाथः (४०) पटोलं त्रिफला भीरुडूची कटुरोहिणी। | (ग. नि. । नेत्ररोगा. ) कायः पित्ताधिके शस्तः शर्करामधुसंयुतः ॥ पटोलपत्र, त्रिफला, शतावर, गिलोय और पटोलमुद्गामलकैस्तोयं सिद्धं पिधेनिशि । कुटकी । इनके काथमें खांड और शहद मिला | किश्चिच्छीतं मधुयुतं हन्ति पिल्लाक्षिजं रुजम् ॥ कर पीने से पित्ताधिक वातरक्त नष्ट होता है। पटोलपत्र, मूंग और आमला । इनके मन्दो(३७५६) पटोलादिकाथ: (३७) ष्ण काथमें शहद डालकर रात्रिको पीनेसे आंखोका पिल्ल रोग नष्ट होता है। (वं. से.; वृ. नि. र.; यो. र. । शोथरो. ) पटोलत्रिफलारिष्टदार्वीकाथः सगुग्गुलुः।। (३७६०) पटोलादिकाथः (४१) हन्ति पित्तकृतं शोथं तृष्णाज्वरसमन्वितम् ॥ ( वृ. नि. र. । ज्वर.; शा. ध. । म. अ. २) ____ पटोलपत्र, त्रिफला, नीमकी छाल और दारु- पटोलेन्द्रयवादारुत्रिफलामुस्तगोस्तनैः। हल्दी । इनके काथमें गूगल मिलाकर पीने से | मधुकामृतावासानां काथं क्षौद्रयुतं पिबेत् ॥ तृष्णा और ज्वरयुक्त पित्तज शोथ नष्ट होता है। सन्तते सतते चैव द्वितीयकतृतीयके। (३७५७) पटोलादिकाथ: (३८) एकाहिके वा विषमे दाहपूर्वे नवज्चरे ॥ (ग. नि.; वृ. मा. । अम्ल.) पटोलपत्र, इन्द्रयव, देवदारु, त्रिफला, नागपटोलं नागरं धान्यं काथयित्वा जलं पिवेत् । रमोथा, मुनक्का, मुलैठी, गिलोय और बासा । कण्ट्रपामातिशूलनं कफपित्तामिमान्यजित् ॥ । इनके काथमें शहद मिलाकर पीनेसे सन्तत, सतत, For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि - पटोलपत्र, गुलैठी, कुटकी, नागरमोथा और निन्ति कफपित्तकुष्ठज्वरान् तिजारी, चौथिया, विषमज्वर, दाहपूर्व ज्वर और | पटोलपत्र, नीमकी छाल, असनाका सार, नववर नष्ट होता है। आमला, हर्र और बहेड़ा । इनके काथमें गूगल (३७६१) पटोलादिकाथः (४२) मिलाकर प्रातःकाल सेवन करनेसे विसर्प, विस्फोट (वृ. नि. र.; यो. र.; ग. नि. । ज्वर.) और दुष्ट व्रण नष्ट होते हैं। पटोलयष्टीमधुतिक्तरोहिणी (गूगल १॥ से ३ माशे तक मिलावें।) घनाभयामिविषमज्वरघ्नम् । | (३७६४) पटोलादिगणः (१) कृतः कषायत्रिफलामृतारैः (वा. भ. । सू. अ. १५) _पृथक्पृथग्वा विषमज्वरापहः॥ | पटोल कटुरोहिणी चन्दन मधुस्रवगुडूचिपाठान्वितम् । हर्रका काथ विषमज्वरको नष्ट करता है। निहन्ति कफपित्तकुष्ठज्वरान् अथवा त्रिफला या गिलोय या बासेका काथ विषं वमिमरोचकं कामलाम् ॥ पीनेसे भी विषमज्वर नष्ट होता है । पटोल, कुटकी, लालचन्दन, महुवा, गिलोय और पाठा । यह द्रव्यसमूह कफ, पित्त, कुष्ठ, (३७६२) पटोलादिकाथः (४३) ज्वर, विष, वमन, अरुचि और कामलाको नष्ट (ग. नि. । विस्फो.; यो. र.; . मा.। विस्फो.; करता है। यो. त. । त. ६६) (३७६५) पटोलादिगणः (२) पटोलामृतभूनिम्बवासकारिष्टपर्पटैः। (यो. त. । त. ५१) खदिराब्दयुतैः काथो विस्फोठात्तिज्वरापहः॥ पटोलवासकारिष्टगुडूचीत्रिफलाधनम् । पटोलपत्र, गिलोय, चिरायता, बासा | पञ्चमूली सयष्टयाहा चन्दनं विश्वभेषजम् ॥ (अडूसा), नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, खैरसार और | पटोलादिर्गणः प्रोक्तः सर्वनेत्रामयापहः। नागरमोथेका काथ पीनेसे विस्फोटक और ज्वर | वातिकं पैत्तिकं चैव श्लैष्मिकं सामिपातिकम् शान्त होते हैं। सावं रक्तप्रकोपञ्च पटोलादिळपोहति ॥ (३७६३) पटोलादिकायः (४४) __ पटोल, वासा, नीमकी छाल, गिलोय, त्रि( भा. प्र. । ख. २ विस्फो.; वं. से. । व्रणशो.) | फला, नागर मोथा, पञ्चमूल, मुलैठी, लालचन्दन और सेठ । इन ओषधियोंके समूहको 'पटोलादिपटोलनिम्बासनसारधात्री गण' कहते हैं। पथ्याक्षनि'हमहर्मुखेषु । पटोलादिगण वातज, पित्तज, कफज और पिबेधुतं गुग्गुलुना विसर्प सन्निपातज नेत्ररोग, नेत्रस्राव और रक्तप्रकोपको विस्फोटदुष्टत्रणशान्तिमिच्छन् ॥ । नष्ट करता है । For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - कषायमकरणम् ] तृतीयो भागः। [ २६९] (३७६६) पटोलादिगण: (३) कायो हरीतकीसपिण्डेन (सु. सं. । सू. स्था. अ. ३८) पीतो निहन्ति गुदजानि ॥ पटोलचन्दनकुचन्दनमूर्वागुडूचीपाठाः तेजपात, नागकेसर, सेाठ, इलायची, तुम्बरु, कटुरोहिणीचेति ॥ धनिया, बायबिडंग, तिल और हरै । इनके काथमें पटोलादिर्गणः पित्तकफारोचकनाशनः । घी और गुड़ मिलाकर पीनेसे बवासीर (अर्थ) ज्वरोपशमनो व्रण्यश्च्छर्दिकण्डूविषापहः॥ नष्ट होती है। ___ पटोलपत्र, लालचन्दन, पतङ्ग, मूर्वा, गिलोय, (३७७०) पथ्यादिकषायः (१) पाठा और कुटकी । इन ओषधियोंके समूहको (र. र.; यो. र. । शोथ.; भा. प्र. । म. ख. "पटोलादि गण" कहते हैं। यह गण पित्त, शोथ; इ. यो. त. । त. १०६) कफ, अरुचि, ज्वर, छर्दि, खुजली और विषनाशक तथा घावों में लाभदायक है। . पथ्यामृताभानीपुनर्नवामि(३७६७) पटोलादिवमनयोगः दारूनिशादारुमहौषधानाम् । कायं प्रपीयोदरपाणिपाद(ग. नि. । विसर्प.) पटोलपिचुमन्दाभ्यां पिप्पल्या मदनेन च । रक्ताश्रितं हन्त्यचिरेण शोयम् ॥ हर्र, गिलोय, भारंगी, पुनर्नवा ( साठी), विसर्प वमनं शस्तं तथा चेन्द्रयवैः सह ॥ चीता, दारुहल्दी, हल्दी, देवदार और सेठ । पटोलपत्र, नीमकी छाल, पीपल, मैनफल इनका काथ सेवन करने से उदर, हाथ और पैरों और इन्द्रजौका काथ पीनेसे वमन होकर विसर्प का रक्ताश्रित शोथ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। रोग नष्ट हो जाता है। (३७७१) पथ्यादिकषायः (२) (३७६८) पटोलादिसेक: (ग. नि. । प्रमे.) (ग. नि. । अति.) पथ्योशीरशिवामुस्तानिशोत्पलसमुद्भवः । गुददाहे प्रपाके वा पटोलमधुकाम्बुना । सेकादिकं प्रशंसन्ति छागेन पयसाऽथवा ॥ काथो मधुयुतः पीतः प्रमेहं हन्ति पित्तजम् ॥ गुददाह और गुदपाकमें पटोलपत्र और । हरे, खस, आमला, नागरमोथा, हल्दी और मुलैठी के काथसे अथवा बकरीके दूधसे गुदाको | नीलकमल ( नीलोफर )। इनके काथमें शहद धोना चाहिये। मिलाकर पीनेसे पित्तजप्रमेह नष्ट होता है। (३७६९) पत्रकादिकाथः (३७७२) पथ्यादिकाथः (१) (हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) (वृ. नि. र.; यो. र. । सन्नि.) पत्रकेसरशुण्ठीसमैला पथ्यापर्यटकटुकामद्वीकादारुजलदभूनिम्बाः। तुम्वरुधान्यविडङ्गतिलानाम् । शम्पाकपटोलशिवाकाथश्चित्तभ्रमं हन्ति ॥ For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२७०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि हर्र, पित्तपापड़ा, कुटकी, मुनक्का, देवदारु, । काथमें हींग, पीपल और अतीसका चूर्ण मिलाकर नागरमोथा, चिरायता, अमलतासका गूदा, पटोल- | पीनेसे वातज शूल, आमशूल और कफज शूल पत्र और आमला। शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। ___ इनका काथ चित्तभ्रम सनिपातको नष्ट (३७७६) पथ्यादिकाथा (५) करता है। (वै. म. र. । पट. २) (३७७३) पथ्यादिकाथः (२) पथ्याकटूफलनागराम्बुद्वचा(4. से. । अति.) भूनिम्बधान्यद्रुमैपथ्याजाजीदुरालम्भाघोटाफलसमन्वितः। | भीिपर्पटकान्वितैः मृतमिदं स्वरसोऽप्यथवा कल्कः पकातीसारनाशनः ॥ तोयं मुशीतं पुनः। हरे, जीरा, धमासा और बेर (या सुपारी)। मध्वाढयं परमाणुरामठयुतं । इनके स्वरस या कल्कको सेवन करनेसे पक्काती श्लेष्मज्वरं नाशयेत् सार नष्ट होता है। कोष्ठातिश्वसनाग्निसादकसना(३७७४) पथ्यादिकाथः (३) ___रुच्यास्यशोषान्वितम् ॥ (कृ. नि. र.; वं. से. । अति.; हा. सं. । स्था. हरे, कायफल, सांठ, नागरमोथा, बच, चिरा ३ अ. ३; भा. प्र. । ख. २ अति.) यता, धनिया, इन्द्रजौ, भारंगी और पित्तपापड़ा; पथ्यादारुवचामुस्तै गरातिविषान्वितैः। इनके काथको शीतल करके उसमें शहद और जरा आमातिसारशुलन्नं दीपनं पाचनं परम् ॥ सा हींग मिलाकर पीनेसे उदरपीडा, श्वास, अग्नि ___ हर्र, देवदारु, वच, मोथा, सांठ और अतीस | मांध, खांसी,अरुचि और मुखशोषयुक्त कफज्वर का काथ आमातिसार और शूलको नष्ट करता है। यह दीपन और पाचन भी है। (३७७७) पथ्यादिकाथः (६) (३७७५) पथ्यादिकाथः (४) (वृ. नि. र. । सन्नि.) (वृ. नि. र.; यो. र. । शूलरो.) पथ्यावृषारखधदारुतिक्ता रास्नागुडूचीगदजः कषायः। पथ्यासशक्रयवपुष्करमूलयुक्ता सोपद्रवाचान्तकनामधेयानिःकाथ्य हिङ्गजटिलातिविषासमेतम् । शुजाटलातावपासमतम् । ज्वराजरं मोचयतीति चित्रम् ॥ पीत्वा मुखोष्णमय वातकृतं हि शूल- हर, बासा, अमलतास, देवदारु, कुटकी, मामोद्भवं कफकृतं च निहन्ति तूर्णम् ॥ रास्ना, गिलोय और कूट । इनका काथ उपद्रवयुक्त हरं, इन्द्रयव और पोखरमूलके मन्दोण अन्तकनामकसन्निपात ज्वरको नष्ट करता है। For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कषायमकरणम् तृतीयो भागः। [२७१] (३७७८) पथ्यादिकायः (७) महौषधं चातिविषा सुराहम् । ___ (वृ. नि. र.; यो. र.; ग. नि. । ज्वरा.) | जलेन निकाथ्य ततश्च पानं पथ्यास्थिरानागरदेवदारु गुल्मामयानां प्रतिपाचनश्च ॥ धात्रीपैरुत्कथितः कषायः । हर्र, मजीठ, पृष्टपर्णी, रास्ना, सोंठ, अतीस सितोपलामाक्षिकसम्पयुक्त और देवदारु । इनका काथ गुल्मको पकाता है। श्चातुर्थिक हन्ति अचिरेण पीतः ॥ । (३७८२) पथ्यादियोगः हर्र, शालपर्णी, सांठ, देवदारु, आमला और (ग. नि. । उदर.) बासा । इनके काथमें मिश्री और शहद मिलाकर पथ्यापुनर्नवादारुगुडूचीगुग्गुलुः समम् । पीनेसे 'चातुर्थिक' (चौथिया) ज्वर शीघ्रही नष्ट पिष्य गोमूत्रपीतानि नाशयन्ति जलोदरम् ।। हो जाता है। । हर्र, पुनर्नवा, देवदारु, गिलोय, और गूगल । (३७७९) पथ्यादिकाथः (८) इनको गोमूत्रमें पीसकर पीनेसे जलोदर नष्ट (यो. र. । स्त्री.) होता है। पथ्यामलकविभीतकविश्वौषधदारुरजनीनाम् । (३७८३) पथ्यायोगः सक्षौद्रलोध्रचूर्णः कायो हन्त्येव सर्व प्रदरम् ॥ (यो त. । त. ५६) हर, आमला, बहेड़ा, सेठ, देवदारु और | भृश्चैरण्डतैलेन कल्कः पथ्यासमुद्भवः । हल्दीके काथमें लोधका चूर्ण और शहद मिलाकर कृष्णासैन्धवसंयुक्तो ब्रनरोगहरः परः॥ पीनेसे सर्वदोषजमदर अवश्य नष्ट हो जाता है। हर्रको अरण्डके तेलमें भूनकर पानीके साथ (३७८०) पथ्यादिकापः (९) पीसकर उसमें सेंधानमक और पीपलका चूर्ण ___ (वृ. नि. र.; वं. से.। अतिसार.) मिलाकर सेवन करनेसे बध्न रोग नष्ट होता है। पथ्यामिकटुकापाठावचामुस्तकवत्सकैः। (३७८४) पद्मकादिकाथः (१) सनागरैर्जयेत्काथः कल्को वा श्लैष्मिकी सुतिम्।। (ग. नि. । ज्व.) हर्र, चीता, कुटकी, पाठा, बच, नागरमोथा, पद्मकं मधुपुष्पाणि यष्टीमध्वाटरूपकम् । इन्द्रजौ और सेठ । इनका काथ या कल्क सेवन उशीरद्वितयं द्राक्षा नीलोत्पलदलान्वितम् ॥ करनेसे कफज अतिसार नष्ट होता है । | आबालाच निषेव्योऽयं कायः कथितशीतलः। (३७८१) पथ्यादिपाचनकायः | वातपित्तज्वर मोहं प्रलापश्च यतो हरेत् ॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४) पनाक, महुवेके फूल, मुलैठी, बासा (अडूसा), पथ्यासमझाकलसीसरास्ना खस, सुगन्धबाला, मुनक्का और नीलकमलके पत्ते । For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२७२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - इनके काथको ठंडा करके पिलानेसे बालकों और । (३७८८) पनकादिगणः बड़ेोका वातपित्तज्वर, मोह और प्रलाप नष्ट (वा. भ. । सूत्र.) होता है। पनकपुण्ड्री वृद्धितुगद्धर्थः (३७८५) पनकादिकाथः (२) शृश्यभृतादशजीवनसंझा। (ग. नि. । ज्व.) स्तन्यकराघ्नन्तीरणपित्त पब धान्यकं शुण्ठी पर्पटोशीरकद्वयम् । पीणनजीवनईहणवृष्याः ॥ एमिः कायः कृतः सद्यो देयः पित्तज्वरच्छिदे ॥ पभाक, पुण्डरिया, वृद्धि, बंसलोचन, ऋद्धि, पमाक, धनिया, सोंठ, पित्तपापड़ा, खस और सुगन्धबाला; इनका काध पीनेसे पित्तज्वर काकड़ासिंगी, गिलोय, जीवनीय गण (जावन्ती, शीघ्र ही शान्त हो जाता है। काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, मुद्गपर्णी; माषपर्णी. ऋषभक, जौवक और मुलैठी )। (३७८६) पनकादिकाथः (३) ___ यह “ पनकादिगण" स्तन्य (दुग्धवईक), (च. सं. । चि. अ. ४) वातपित्तनाशक, जीवन, व्रहण और वृष्य है। पत्रकं पद्मकिञ्जल्कं दूर्वा वास्तुकमेव च । नागपुष्पञ्च लोधश्च तेनैव विधिना पिबेत् ॥ (३७८९) पद्मोत्पलादिकायः पाक, कमलकी केसर, दूर्वा, बथुवा, नाग (वृ. नि. र. । रक्त. पि.) केसर और लोध । पोत्पलानां किअल्कः पृष्ठिपर्णीमियाका । ___ इनका काथ पीनेसे रक्तपित्त शान्त | वासापत्रसमुद्भूतो रसः समधुशर्करः ॥ होता है। काथो वा हरते पीतो रक्तपित्तं सुदारुणम् ॥ (३७८७) पनकादिकाथः (४) पम ( कमल ) की केसर, पृष्ठपर्णी, फूल(भा. प्र. । म. खं. ज्व.) प्रियंगु, और बासे ( अडूसे) के पत्ते । इनके पअफचन्दनपर्पटमुस्त स्वरस या काथमें शहद और मिश्री मिलाकर जातीजीवकचन्दनवारि। पीनेसे भयङ्कर रक्तपित्त भी नष्ट हो जाता है। क्लीतकनिम्बयुतं परिपकं (३७९०) परूषकादिकाय: वारि भवेदिह शोणितहारि ॥ (ग. नि.; भा. प्र. । ज्वरा.) पभाक, लाल चन्दन, पित्तपापड़ा, नागर- परूषकानि त्रिफला देवदारुं सकटफलम् । मोथा, चमेली, जीवक, सफेद चन्दन, सुगन्धबाला, चन्दनं पद्यकश्चैव तथा कटुरोहिणी ॥ मुलैठी और नीमकी छालका काथ पीनेसे रक्तष्ठी- | पृथकर्षसमैः सिदसुपित' शीतलं पिवेत् । वी सभिपात में होने वाला रक्तस्राव बन्द पित्तोत्तरे नृणामेतत्सभिपाते चिकित्सितम् ।। होता है। पृश्निपणीत स्वमिरिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपामकरणम् ] हतीयो भागः। [२७३] - फालसा, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, (३७९३) परूषकादिहिमः कायफल, लाल चन्दन, पाक और कुटकी । | (ग. नि. । ज्वरा.) प्रत्येक ओषधि १। तोला लेकर सबको अधकुटा | परूषकमधुकानि काश्मर्यामलकानि च । बलाखर्जूरमृद्वीकाशीतपाकीनिदिग्धिकाः॥ इनका शीत कषाय सेवन करने से पित्त- मधूक प्रपौण्डरीकं चन्दनोशीरपद्मकम् । प्रधान समिपात नष्ट होता है । एतान्यापोथ्य तुल्यानि वासयेदुत्तमोदके ॥ (३७९१) परूषकादिगणः शर्करामधुसंयुक्तं प्रातरुत्थाय पाययेत् । (सु. सं. । सू. अ. ३८; वा. भ. । सू. अ. १५) तेनास्य पित्तंसम्भूतो ज्वरः शिमं प्रणश्यति ॥ परुषकद्राक्षाकटफलदाडिमराजादनकतक फालसा, महुवा, खम्भारी, आमला, खरैटी, फलशाकफलानि त्रिफला चेति । खजूर, मुनक्का, काकोली, कटेली, मुलैटी, पुण्डरिया, परूषकादिरित्येष गणो वातविनाशनः । लाल चन्दन, खस और पद्माक । सबको कूटकर रातको स्वच्छ जलमें भिगो दें और प्रातःकाल मूत्रदोपहरो हपः पिपासानो रुचिपदः ।। मल छान कर उसमें मिश्री और शहद मिलाकर फालसा, मुनक्का, कायफल, अनार, खिरनी, | सेवन करें। यह काथ पित्तज्वरको शीघ्र नष्ट निर्मलोके फल, सागोनके फल और त्रिफला। करता है। इन ओषधियोंके समूहको “परूषकादि (३७९४) पर्पटादिकाथः (१) गण" कहते हैं । यह गण वातनाशक, मूत्र- ( च. द.; वृ. नि. र. । वर.; वं. से.; यो. र. । दोषनाशक,हृथ,पिपासानाशक और रुचिवर्द्धक है । छर्दि.; वै. जी. । वि. १) (३७९२) परूषकादियोगः एक एव खलु पैत्तिकज्वरं हन्ति पर्पटकृतः कपायकः । (ग. नि. । छZ.) चन्दनोदकमहौषधान्वितंपरूषकाणि मृद्वीकां मधुकं शर्करां बलाम् । श्वेत्तदा किमु पुनर्विचारणा ।। मधूकपुष्पं पदं च मुस्तामलकानि च ॥ पित्तज्वर को नष्ट करनेके लिये केवल पित्तआपोथ्य तानि सर्वाणि प्रक्षिपेत्तण्डुलोदके। पापड़ेका काथ ही पर्याप्त है, यदि उसके साथ चन्दन, शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं पिबेच्छर्दिषापहम् ॥ सुगन्धबाला और सोंठ भी मिला दी जाय तब तो फालसा, मुनक्का, मुलैठी, मिश्री, खरैटी, मह- कहना ही क्या है। के फूल, कमल, नागरमोथा और आमला । सब (३७९५) पर्पटादिकाथ(२) चीज़ोको पीसकर चावलोंके पानीमें मिलावें और (वृ. नि. र. । ज्य.; शा. सं. : म. ख. अ. २ उसमें मिश्री तथा शहद मिलाकर सेवन करावें । पपेटो वासकस्तिता किरात यन्वयासकः । इसके सेवनसे छर्दि और तृषा नष्ट होती है। प्रियङ्गश्च कृतः काय एष शर्करमा पुनः ।। For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । [ २७४ ] पिपासादाहपित्तात्रयुक्तं पित्तज्वरं हरेत् ॥ पित्तपापड़ा, बासा, कुटकी, चिरायता, धमासा और फूलप्रियङ्गु । इनके काथमें मिश्री मिलाकर पीने से पिपासा, दाह और रक्तपित्तयुक्त पित्तज्वर शान्त होता है । (३७९६) पर्पटादिकाथ: ( ३ ) (ग. नि. । ज्वर. ) पश्चन्दनं मुस्ता विश्वोशीरद्वयं समम् । eri कायस्तृषां हन्ति छर्दि पित्तज्वरं तथा ॥ पित्तपापड़ा, लालचन्दन, नागरमोथा, सोंठ, खस और नेत्राला । इनका काथ तृषा, छर्दि और पित्तज्वरको नष्ट करता है । (३७९७) पर्पटादिकाथ: (४) | भारत ( भा. प्र. । ज्वरा. ) पर्यटः कट्फलं कुष्ठमुशीरं चन्दनं जलम् । नागरं मुस्तकं शृङ्गी पिप्पल्येषां शृतं हृतम् ॥ तृष्णादाहाग्निमान्येषु पित्तश्लेष्मोल्वणे ज्वरे ॥ पित्तपापड़ा, कायफल, कूठ, खस, लालचन्दन, सुगन्धबाला, सोंठ, नागरमोथा, काकड़ासिंगी और पीपल । इनका काथ तृष्णा, दाह, अग्निमांद्य और पित्तकफज ज्वरको नष्ट करता है । (३७९८) पर्पटादिकाथ : (५) ( वृं. मा.; वृ. नि. र. 1 ज्वरा. ) eferreratri काथ पित्तज्वरं जयेत् । द्राक्षारग्वधयोश्चापि काश्मर्यस्याथ वा पुनः ॥ पित्तपापड़ा, गिलोय और आमलेका अथवा मुनक्का और अमलतासका या खम्भारीका काथ feesarai ष्ट करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (३७९९) पलाशपत्रयोगः ( भा. प्र.; वं. से.; यो. र. । स्त्री. रो. ) पत्रमेकं पलाशस्य पिष्ट्वा दुग्बेन गर्भिणी । पीत्वा पुत्रमवाप्नोति वीर्यवन्तं न संशयः ॥ गर्भिणी स्त्री ढाक ( पलास ) के एक पत्तेको दूधके साथ पीसकर सेवन करे तो वह निस्सन्देह वीर्यवान पुत्रको जन्म देती है । (३८००) पलाशपुष्पक्काथः ( यो. र. । प्रमेह. ) पलाशतरुपुष्पाणां काथः शर्करया युतः । निषेवित: प्रमेहाणि इन्ति नाना विधान्यपि ।। पलास (ढाक ) के फूले के काथमें मिश्री मिलाकर पीनेसे अनेक प्रकार के प्रमेह नष्ट होते हैं । (३८०१) पलाशमूलस्वरसः ( वृं. मा .; वृ. नि. र. । दलीपद ) पलाशमूलस्वरसं पिबेद्वा तैलेन तुल्यं सित्सर्षपाणाम् । मूत्रेणपक्त्वामरदारुविश्वं श्रीगुग्गुलं श्लीपदमिर्निषेव्यम् ॥ सफेद सरसोंका तैल मिलाकर पलासकी जड़का स्वरस, या देवदारु और सोंठको गोमूत्र में पकाकर उसमें गूगल मिलाकर पीने से श्लीपद रोग नष्ट होता है । (३८०२) पलाशवीजयोगः For Private And Personal Use Only ( वं. से.; ग. नि. । कृमि. ) पलाशवीजस्वरसं पिबेद्वा क्षौद्रसंयुतम् । पिबेत्तद्वीजककं वा तक्रेण क्रिमिनाशनम् ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायपकरणम् ] तृतीयो भागः। [२७५] - पलासके बीजोंके स्वरसमें शहद मिलाकर । पाठा, नीमकी छाल, पटोलपत्र, हरे, बहेड़ा, पीनेसे या उनके कल्कको तक्रके साथ पीनेसे कृमि आमला, असना और धमासेके क्वाथमें गूगल नष्ट हो जाते हैं। मिलाकर पीने से कफप्रधान अम्लपित्त नष्ट (३८०३) पलाशादिकाथ: होता है। (यो. चि. । अ. ४) (३८०६) पाठादिकाथ: (३) पलाशरोहीतकमूलपाठा (वै. म. । पटल १ ) __कार्य विदध्यात्मदरे सपाण्डौ। पाठोशीरजलैः सिद्धः काथः स्यात् पाचन पीते सितेऽयं मधुसंप्रयुक्तं ज्वरे। प्रसिद्धयोगः शतशोऽनुभूतः॥ नागराम्बुयवासैश्च पृथक् सिद्धः सपर्पटैः॥ पलास ( ढाक ) की छाल, रुहेड़ेकी जड़की पाठा, खस और सुगन्धवाला अथवा सांठ, छाल, और पाठा । इनके काथमें शहद मिलाकर सुगन्धबाला, धमासा और पित्तपापड़ेका क्वाथ पीनेसे पाण्डु और पीला तथा सफेद प्रदर नष्ट | ज्वरपाचक है। होता है। (३८०७) पाठादिकाथ: (४) __ यह एक प्रसिद्ध और सैंकड़ों बारका अनु- (वै. म. र. । पट. ६) भूत प्रयोग है। पाठानागरदुःस्पृग्बिल्वाग्निषाब्दसंभृतः कायः। (३८०४) पाठादिकाथ: (१) आमातिसारमस्येत् सावं सकर्फ सशूलञ्च ॥ (वृं. नि. र. । अतिसा.) पाठा, सेठ, धमासा, बेलगिरी, चीता, बासा पाठाविषावत्सकमेघदारु और नागरमोथा । इनका काथ कफ और शूलविडङ्गकामोचरसैः कषायम् । युक्त आमातिसार को नष्ट करता है। कृतं प्रभाते प्रपिबेद्गदार्ति (३८०८) पाठादिकाथः (५) शोफातिसारार्णववाडवामिः ॥ (वं. से. । अतिसा.) पाठा, अतीस, इन्द्रजौ, नागरमोथा, देवदारु, पाठा वत्सकवीजानि चित्रकं विश्वभेषजम् । बायबिडंग, और मोचरस । इनका काथ प्रातःकाल पिबेन्निकाथ्य चूर्णानि कृत्वा चोष्णेन वारिणा।। पीनेसे सूजन और अतिसार नष्ट होते हैं। पित्तश्लेष्मातिसारघ्नं ग्रहण्यां शूलनुद्धितम् ॥ (३८०५) पाठादिकाथः (२) . पाठा, इन्द्रजौ, चीता और सेठ । गर्म (वृ. नि. र. । अम्लपि.) पानीके साथ इनका चूर्ण या इनका काथ पीनेते पागनिम्बपटोलत्रिफलासनयासयोर्जयति। पित्तकफज अतिसार, ग्रहणी और शाल ना अधिकाफमम्लपित्तं सहितो गुग्गुलुना क्रमशः॥ होते हैं । For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२७६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - (३८०९) पाठादिकाथ: (६) पाठा, इन्द्रजी, चिरायता, नागरमोथा, पित्त(वं. से. । स्त्रीरो.) पापड़ा, गिलोय और सेठ । इनका काय आमापाठा मूर्वा च भूनिम्बदारुशुण्ठिकलिङ्गकाः। सिसार और ज्वरको नष्ट करता है। शारिवामृततिक्ताख्याः काथः स्तन्यविशोधनः॥ (३८१३) पाठासिरपया पाठा, मूळ, चिरायता, देवदारु, सांठ, इन्द्रजो, | (वै. म. र. । पट. १) सारिया, गिलोय और कुटकी का क्वाथ बालककी पागशिफापयः पीतं प्रातरेव दिनैखिभिः। माता ( या धाय ) को पिलानेसे उसका दूध शीतिका कम्पबहुला नाशयेल्लशुनं तथा ॥ शुद्ध होता है। (३८१०) पाठादिकाथः (७) तीन दिनतक रोजाना प्रातःकाल पाठे की (ग. नि.; वू. मा. । प्रमेह.) जड़को दूधमें पीसकर पीने अथवा लहसन खाने से पाठाशिरीपदुस्पर्शामूर्वाकिंशुकतिन्दुक- कम्पयुक्त शीत नष्ट हो जाता है। (यह योग फपित्यानां भिषक् काथं हस्तिमेहे प्रयोजयेत् ॥ शीतज्वरमें उपयोगी है।) हस्तिप्रमेहमें पाठा, सिरसकी छाल, धमासा, (३८१४) पारिजातादिकाथाष्टकम् मूर्वा, केसू ( टेसू), तेंदु की छाल और कैथ वृक्षकी (वृं. मा. । प्रमेहा.) छाल का काथ पिलाना चाहिये । पारिजातजयानिम्बवहिगायत्रिणांपृथक् । (३८११) पाठादिकाथः (८) | पाठायाः सागुरोः पीता यस्य शारदस्य ।। (भा. प्र.; वृ. नि. र. । ज्वर.) जलेक्षुमधसिकताशनलेवणपिष्टकाः। पागमतापर्पटमुस्तविश्वा सान्द्रमेहान्क्रमाद्घन्ति अष्टौ काया: समा. किराततिक्तेन्द्रयवान् विपाच्य । लिकाः॥ पिवन् हरत्येव हठेन सर्वान् (१) पारिजात (२) जया (३) नीमकी छाल ज्वरातिसारानपि दुर्निवारान् ॥ । (४) चीता (५) खैरसार (६) पाठा और अगर पाठा, गिलोय, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, (७) हल्दी (८) दार हल्दी। यह आठ काथ शहद सेठ, चिरायता और इन्द्रजौ इनका काथ भयंकर डालकर पीनेसे क्रमशः उदकमेह, इक्षुमेह, सुरामेह, ज्वरातिसारको भी अवश्य नष्ट कर देता है। सिकतामेह शनैमेह, लवणमेह, पिष्टमेह और (३८१२) पाठासप्तककाथ: सान्द्रमेहको नष्ट करते हैं। (ग. नि.; र. र.; वं. मा.; वं. से.; वृ. नि. र.। (३८१५) पारिमदरसादिप्रयोगः ज्वराति.; वृ. यो त । त. ६५) (वं. से.; . मा.। कृम्यधि.) पाठेन्द्रयवभूनिम्बमुस्तपर्पटकामृताः। पारिभद्रकपत्रोत्यं रस लौद्रयुत पिवेत् । नयन्त्याममतीसारं २ज्वरञ्च समहौषधाः२॥ किंशुकस्य रसं वापि धतूरस्थापि वा रसम् ॥ १-'भृताः' इति पाठान्तरम् । -कम्युक्त्येति पठान्वरम् । २- २ सज्वरं वाऽथ विज्वरमिति पाठान्तरम् ।। २-पररस्वति पान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । कषायप्रकरणम् ] पारिभद्र ( फरहद) के पत्तों के या टेसू अथवा धतूरेके रसमें शहद मिलाकर पीनेसे कृमि नष्ट होते हैं । (३८१६) पाषाणभेदकाथः ( वृ. नि. र. । अश्मरी . ) पीत्वापाषाण भिक्कार्य सशिलाजतुशर्करम् । पित्ताश्मरीं निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ पखानभेदके काथमें शिलाजीत और खांड मिलाकर पीने से पिसज अश्मरी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । (३८१७) पाषाणभेदादिकषायः (ग. नि. । मूत्रकृच्छ्र.) पाषाणभेदो मधुयष्टिरेला कृष्णाशिफैरण्डसिताटरूषाः । स्पृका स्वदंष्ट्रा च शिवासमेतैः कायो हरेदुः सह मूत्रकृच्छ्रम् ॥ पखानभेद, मुलैठी, इलायची, पीपलामूल, अरण्डकी जड़, सफेद बासा, स्पृक्का, गोखरु और हर्रका काथ भयङ्कर मूत्रकृच्छ्रको भी नष्ट कर देता है । (३८१८) पाषाणभेदादिकाथ : (१) ( वं. से. । अश्मरी. ) पाषाणभेदवरुणगोक्षुरकपोतवङ्गजः काथः । गिरिजतुगुडप्रगाढः कर्कटिकात्रपुसबीजयुक्तः ॥ पेयोssममवश्यं दुर्भेदामपि भिनत्ति योगवरः शिखरिणमिव शतकोटिः शतमन्योईस्तनिर्मुक्तः। पाषाणभेद ( पखान भेद ), बरनेकी छाल, गोवर, और ब्राह्मी । इनके काथमें शिलाजीत । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २७७ ] और ककड़ी तथा खीरे के बीज मिलाकर उसे गुड़से मीठा करके पीनेसे दुर्भेद्य अश्मरी (पथरी) भी अवश्य नष्ट हो जाती है । (३८१९) पाषाणभेदादिकाथः (२) ( वृ. नि. र. 1 मूत्रकृ. ) पाषाणभेदकृतमालकघन्वयास पथ्यात्रिकण्टककषायनिषेवणेन । मध्वन्वितेन सहसा विरहं प्रयाति रुग्दाहबन्धसहितं किल मूत्रकृच्छ्रम् ॥ पखानभेद, छोटा अमलतास, धमासा, हर्र और गोखरुके काथमें शहद मिलाकर पीनेसे पीड़ा दाह और मूत्रावरोध युक्त मूत्रकृच्छ्र शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । (३८२०) पाषाणभेदादिकाथ: (३) ( वं. से. ' | अश्म.; वृं. यो. त. । त. १०२; यो र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ . ) पाषाणभिवरुणगोक्षुरकोरुबूक क्षुद्राद्वयक्षुरकमूलकृतः कषायः । दध्ना युतो जयति मूत्रविबन्धशुक्र मुग्राश्मरीमपि च शर्करया समेताम् || पखानभेद, बरनेकी छाल, गोखरु, अरण्डकी जड़, कटेली, बड़ी कटेली और तालमखानेकी जड़ । इनके काथमें दही मिलाकर पीने से मूत्रावरोध, शुक्राश्मरी, और शर्करा का नाश होता है। (३८२१) पाषाणभेदादिकाथ: ( ४ ) ( यो. र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ. ) पाषाणभेदस्त्रिष्टता च पथ्या-दुरालभापुष्करगोक्षुरश्च | १६. से. मे वरुणका अभाव है । For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि पलाशशृङ्गाटककर्कटीनां | पीनेसे पुरानी प्रवाहिका (पेचिश ) भी ३ दिन बीजं कषायः सनिरुद्धमत्रे॥ में ही नष्ट हो जाती है। __ यदि मूत्रकृच्छू रोगमें मूत्र रुक जाय तो पखान- ( मात्रा–२-३ माशे ।) भेद, निसोत, हर्र, धमासा, पोखरमूल, गोखरु, । (३८२५) पिप्पलीकाथ: पलाश, (ढाकके फूल) सिंघाड़ा, और ककड़ीके (भै. २.; वृ. नि. र.; ग. नि.; भा. प्र. । ज्वरा.) बीजेांका काथ पिलाना चाहिये । पिप्पलीभिः शृतं तोयमनभिष्यन्दि दीपनम् । (३८२२) पिचुमन्दमूलयोगः वातश्लेष्मविकारघ्नं प्लीहघ्नं ज्वरनाशनम् ॥ (रा. मा. । वातरो.) पीपल डालकर पकाया हुवा पानी अनभिजरठपिचुमन्दमूलं पिष्टं शीतेन वारिणा पीतम् ष्यन्दि, दीपन, वात और कफ नाशक, तथा अपहरति वातदोष सन्धिकसंझं प्रकर्षेण ॥ | तिल्ली और ज्वरको नष्ट करनेवाला है। पुराने नीमकी जड़की छालको शीतल जलके । (२८२६) पिप्पलीमूलादिकाथः (१) साथ पीसकर पीनेसे सन्धिकवात (गठिया) (ग. नि. । शोथा.) नष्ट होती है। कफजे पिप्पलीमूलदारुचित्रकनागरैः । (३८२३) पिचुमन्दादिकाथः पानाहारविधौ शोथे सिद्धं पानीयमाचरेत् ॥ (वृ. नि. र. । ज्वर.) कफज शोथमें पीपलामूल, देवदारु, चीता पिचमन्दमहौषधान्वितावहतीपौष्करतिक्तकं | और सांठ से पका हुवा पानी पीना और इसी शठी। पानीसे बना हुवा आहारादि करना चाहिये। दृषकटफलकं कणा वरी कथितं वारि कफ- (प्रत्येक ओषधि १। तोला, पानी ८ शेर, दोष ज्वरं जयेत् ॥ ४ सेर) नीमकी छाल, सांठ, कटेली, पोखरमूल, (३८२७) पिप्पलीमूलादिकाथः (२) चिरायता, कचूर, बासा, कायफल, पीपल और ( रा. मा. । ज्वर.) शतावरका काथ कफज्वरको नष्ट करता है। | यः पिप्पलीमूलशिवाम्बुवाह(३८२४) पिप्पलीकल्क: व्याधिनशुण्ठीकटुरोहिणीनाम् । ( वं. से.; यो. र.; ग. नि.; वृं. मा. । अतिसा.) यः पर्पटोशीरविमिश्रितानां पयसा पिप्पलीकल्कः पीतो वा मरिचोद्भवः। कार्य पिवेत्पित्तसमुदभवोऽस्य । त्र्यहानिर्वाहिकां हन्याच्चिरकालसमुत्थिताम् ॥ ज्वरः शमं याति सतृट्समूर्च्छ पीपल या कालीमिर्चको पीसकर दूधके साथ स्तिक्तास्यतादाहयुतः क्षणेन ॥ For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । कषायमकरणम् ] पीपलामूल, हर्र, नागरमोथा, अम्लतास, सोंठ, कुटकी, पित्तपापड़ा और खस । इनका काथ तृषा, मूर्च्छा और दाहयुक्त पित्तज्वर तथा मुंहके कड़वेपन को दूर करता है । (३८२८) पिप्पलीवर्द्धमानम् । ( वृ. यो त । त. ५९ ) क्षीरेण पञ्चवृद्धया वा सप्तहृद्धयाऽथ वा कणाः पिबेपिष्ट्वा दशदिनं तास्तथैवापकर्षयेत् ॥ एवं विंशद्दिनैः सिद्धं पिप्पलीवर्द्धमानकम् । अनेन पाण्डुवातास्रकासश्वासारुचिज्वराः || उदरार्शः क्षयश्लेष्मवाता नश्यन्त्युरोग्रहाः । त्रिभिरथ परिवृद्धं पञ्चभिः सप्तभिर्वा ॥ दशभिरथ विवृद्धं पिप्पलीवर्द्धमानकम् । इति पिबति पयो यस्तस्य न श्वासकासज्वरजठरगुदाशव।तरक्तक्षयाः स्युः ॥ पहिले दिन ३, ५, ७ या १० पीपल दूधके साथ पीसकर दूधके ही साथ सेवन करें और दूसरे दिन से रोज़ ३, ५, ७ या १० ( जितनी पहिले दिन सेवन की हां उतनी ही ) पीपल बढ़ाते रहें । १० दिन पश्चात् इसी क्रमसे घटाते हुवे सेवन करें । इस प्रकार २० दिन में यह प्रयोग पूरा होता है। इसका नाम “पिप्पली वर्द्धमान् " है । इस प्रयोगसे पाण्डु, वातरक्त, खांसी, श्वास, ज्वर, अरुचि, उदररोग, बवासीर, क्षय, कफज तथा वातज रोग और उरोग्रह आदि रोग नष्ट होते हैं 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २७९ ] (३८२९) पिप्पल्यादिकल्कः ( ग. नि. ; वं. से. । कासा. ) तैलभृष्टञ्च पिप्पल्याः कल्कस्याक्षं ससितोपलम् । पिबेद्वा कफकासनं कुलित्थसलिलप्लुतम् ॥ पीपलको तिलके तेलमें भूनकर पीसकर उसमें समान भाग मिश्री मिला लीजिये । इसे कुलथीके काढ़े में मिलाकर पीने से कफज कास नष्ट होती है । (३८३०) पिप्पल्यादिकवल: (१) ( वं. से.; वृं. मा. । मुखरो. ) पिप्पल्यः सर्पपाः श्वेता नागरं नैचुलं फलम् । सुखोदकेन संसृज्य कवलं तस्य योजयेत् ॥! पीपल, सफेद सरसों, सोंठ और हिज्जलका फल । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण करके मन्दोष्ण पानीमें मिलाकर उसके कवल धारण करने से मुखरोग ( उपकुशादि ) नष्ट होते हैं । (३८३१) पिप्पल्यादिकवलः (२) ( च. सं. 1 चि. अ. २६ ) पिप्पल्य गुरुदार्वीत्वग्यवक्षारो रसाञ्जनम् । पाठां तेजोवतीं पथ्यां समभागं सुचूर्णितम् ॥ मुखरोगेषु सर्वेषु सक्षौद्रं तद्विधारयेत् । शीधुमाधवमाध्वीकैः श्रेष्ठोयं कवलग्रहः ॥ For Private And Personal Use Only पीपल, अगर, दारूहल्दीकी छाल, दारचीनी, जवाखार, रसौत, पाठा, मालकंगनी और हरे । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण करके उसे शहद में मिलाकर कवल धारण करनेसे समस्त मुखरोग नष्ट होते हैं । इस चूर्ण को सीधु या माधवी सुरा में मिलाकर कवल धारण करना भी उत्तम है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८१] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि (३८३२) पिप्पल्यादिकषायः (१) चीता और बासा । इनके काथ में पीपलका पूर्ण (ग. नि. । ज्वर.) मिलाकर पीनेसे कफज खांसी नष्ट होती है। कृष्णाऽमिपथ्यामलकैः कषायः (३८३५) पिप्पल्यादिकाथः (२) कृतः समस्तज्वरहाग्निहेतुः। (वृ. नि. र. । बालरो.) व्याघ्रीगुडूचीपजोऽथ कास पिप्पलीरेणुकाकाथः सहिङ्गः समधुः कृतः। श्वासज्वरन्नश्च सपिप्पलीकः॥ हिकां बहुविधां हन्यादिदं धन्वन्तरेर्वचः ॥ पीपल, चौता, हर्र और आमले का काथ पीपल और रेणुकाके काथमें जरासा हींग सब प्रकारके ज्वरोंको नष्ट करता और अग्नि दीप्त मिलाकर उसमें शहद डालकर पीनेसे अनेक करता है। प्रकारका हिचकी रोग नष्ट होता है। (३८३६) पिप्पल्यादिकाथ: (३) ___ कटेली, गिलोय और बासेके काथमें पीपल (वं. से. । स्त्री.) मिलाकर पीनेसे खांसी, श्वास, और ज्वर नष्ट पिप्पली देवकाष्ठश्च आर्द्रकं गजपिप्पली। होता है। चित्रकं सैन्धवञ्चैव पिप्पलीमूलमेव च ॥ (३८३३) पिप्पल्यादिकषायः (२) सुखोष्णं योजयेदेतत्सूतिकारोगशान्तये । (ग. नि. । राजयश्मा.) वातिकं पैत्तिकांश्चैव श्लैष्मिकान्साभिपातिपिप्पलीविश्वधान्याकदशमूलीजलं पिबेत् । कान् ॥ पार्श्वशूलज्वरश्वासपीनसादिनिवृत्तये॥ सूतिकोपद्रवान्हन्ति पीतं हयेतन संशयः॥ ___पीपल, सांठ, धनिया और दशमूलका काथ पीपल, देवदारु, अदरक ( अभावमें सेठ), पोनेसे पसलीका दर्द, शूल, उचर, श्वास और गजपीपल, चीता, सेंधानमक और पीपलामूल का पीनसादि रोग नष्ट होते हैं। मन्दोष्ण काथ पीनेसे वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज मूतिकारोग अवश्य नष्ट हो (३८३४) पिप्पल्यादिक्वाथ: (१) जाता है। ( भा. प्र.; वृ. नि. र. । कासा.) (३८३७) पिप्पल्यादिकाथः (४) पिप्पली कट्फलं शुण्ठी शृङ्गी भाी तथोषणम्। (ग. नि.; वं. मा.; वृ. नि. र.; भै. र. । ज्वर.) कारखी कण्टकारी च सिन्दुवारो यवानिका ॥ | पिप्पलीसारिवाद्राक्षाशतपुष्पाहरेणुभिः । चित्रको वासकश्चैषां कपायं विधिवत्कृतम् । | कृतः कषायः सगुडो हन्याच्छ्वसनज ज्वरम् ॥ कफकासविनाशाय पिबेत्कृष्णारजोयुतम् ॥ पीपल, सारिवा, मुनक्का, सौंफ और रेणुकाके पीपल, कायफल, सोंठ, काकड़ासिंगी, भड्गी, | काथमें गुड़ मिलाकर पीनेसे वातवर नष्ट कालीमिर्च, कालाजीरा, कटैली, संभालु, अजवायन, होता है। For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । कषायप्रकरणम् ] (३८३८) पिप्पल्यादिकाथ: (५) ( यो. र.; वृ. मा; भा. प्र. कृ. नि. र. ग. नि । ऊरुस्त. ) पिप्पलीपिप्पलीमूलं भल्लातकफलानि च । कार्थ मधुयुतं पीत्वा ऊरुस्तम्भाद्विमुच्यते ॥ पीपल, पीपलामूल और शुद्ध भिलावा । इनके काथमें शहद मिलाकर पीनेसे ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है । (३८३९) पिप्पल्यादिगणः ( र. र.; वृ. नि. र.; भा. प्र. । ज्वर; बृ.नि. र. । स्त्री; यो. र. । प्रसूत. ) पिप्पलीपिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम् । मरिचैलाजमोदेन्द्रपाठा रेणुकजीरकम् ॥ भाङ्गमहानिम्बफलं हिङ्ग रोहिणी सर्षपम् । विडङ्गातिविषामूर्वा चेत्ययं कीर्तितो गणः ॥ पिप्पल्यादिः कफहरः प्रतिश्यायानिलापहः । निहन्याद्दीपनो गुल्म शूलघ्नस्त्वामपाचनः ।। पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, काली मिरच, इलायची, अजमोद, इन्द्रजौ, पाठा, रेणुका, जीरा, भारंगी, बकायनके फल, हींग, कुटकी, सरसों, बायबिडंग, अतीस और मूर्वा । इन ओषधियोंके समूहको 'पिप्पल्यादिगण' कहते हैं । यह गण कफ, वात, प्रतिश्याय, गुल्म और शूल नाशक, दीपन तथा आमपाचक है । (३८४०) पिप्पल्यादियुषः ( वं. से.; र. र. । बी. ) पिप्पलीदेवकाष्ठश्च भद्रनुस्तकमेव च । अगुरु पिप्लीमूलं श्लक्ष्णपिश्च कारयेत् || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २८१] तक्रेण सह संयुक्तं पचेषं विचक्षणः । अयन्तु घृतसंयुक्त पीतमात्रो न संशयः ॥ वातिकं पैत्तिकचैव श्लैष्मिकं साभिपातिकम् । सूतिकोपद्रवं हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ पीपल, देवदारू, नागरमोथा, अगर और पीपलामूल । इनका महीन चूर्ण करके तक्रमें मिलाकर उसके साथ दालका यूष बनाकर उसमें घी मिलाकर पिलानेसे वातज, पित्तज, कफज तथा सन्निपातज सूतिकारोग अवश्य नष्ट हो जाता है । (३८४१) पिप्पल्यादियोगः ( वं. से. । ज्वर. ) पिप्पलीशर्कराक्षौद्रं शृतं क्षीरं घृतं नवम् । खजेन मथितं पेयं विषमज्वरनाशनम् ।। पीपलका चूर्ण, खांड, शहद, पकाहुवा दूध और नवीन घृत | सबको एकत्र मिलाकर मथनी से मथकर पीने से विषमज्वर नष्ट होता है । (३८४२) पुत्रकमञ्जरीयोग; ( भा. प्र. । बन्ध्याचि. ) पुत्रकमञ्जरिमूलं विष्णुक्रान्तेशलिङ्गिनीसहि तम् । एतद्गर्भेऽष्टदिनं पीत्वा कन्यां न सर्वथा सुते ।। पुत्रकमञ्जरीकी जड़, विष्णुकान्ता और शिवलिङ्गीका काथ गर्भवती को ८ दिन तक पिलानेसे पुत्र ही उत्पन्न होता है । (३८४३) पुनर्नवादिकल्कः (ग.नि.; बृ. मा.; वं. से.; भै. र. । शोथा. ) पुनर्नवाविश्वत्रिची शम्पाकपथ्यासुरदारुकल्कम् । For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२४१] भारत-भैषज्य रत्नाकर। [पकारादि शोथे कफोत्थेऽक्षसमं समूत्रं । (३८४६) पुनर्नवादिकाथः (२) कार्थ पिषेद्वाप्यथ चैव तेषाम् ॥ (वृ. नि. र. । उदर.) पुनर्नवा ( साठी )की जड़, सोंठ, निसोथ, पुनर्नवादारुमहौषधाम्बु गिलोय, अमलतासका गूदा, हर्र और देवदारु ।। गोमूत्रसिद्धः श्वयथु निहन्ति । सब चीजें समान भाग लेकर सबको गोमत्रके | तथा कणाशुण्ठिगुडोत्थचूणे साथ पीसकर उसीके साथ १। तोलेकी मात्रानुसार शोफामशूलनमजीर्णहारि॥ पीनेसे अथवा इन चीजोंका काथ पीनेसे कफज | पुनर्नवा (साठी), देवदारु, सेठ और सुगन्धशोथ नष्ट होता है। बाला । इनको गोमूत्रमें पकाकर सेवन करनेसे ( व्यवहारिक मात्रा-६ माशे ) । शोथ नष्ट होता है। पीपल, सोंठ और गुड़ । इनका चूर्ण सेवन (३८४४) पुनर्नवादिकषायः करनेसे सूजन, आम, शूल और अजीर्णका नाश (ग. नि. । ज्वरा.) होता है। पुनर्नवा गुडची च त्रायन्त्येरण्डवासकम् । । (३८४७) पुनर्नवादिकाथः (३) पञ्चमूल्येकतश्चात्र गोमूत्रेण श्रुतं शुभम् ॥ . (वृ. नि. र. । उदर.) नश्यत्यनेनाभिन्यासः संज्ञा चास्योपजायते ॥ । पुनर्नवामृतादारुपथ्यानागरसाधितः। पुनर्नवा ( साठी ) गिलोय, त्रायमाना, अर- गोमूत्रगुग्गुलुयुतः काथः शोथोदरापहः॥ ण्डकी जड़, बासा और पञ्चमूल (बेल, खम्भारी, | साठी, गिलोय, देवदारु, हर्र और सांठके अरलु, पाठा, अरणी ); इनको गोमूत्रमें पकाकर क्वाथमें गोमूत्र और गूगल मिलाकर सेवन करनेसे पीनेसे अभिन्यास सन्निपात नष्ट होता और रोगी | शोथोदर नष्ट होता है । होशमें आ जाता है। (३८४८) पुनर्नवादिकाथः (४) (३८४५) पुनर्नवादिकाथः (१) (वै. जी. । विला. १; वृ. नि. र. । ग्रहणी.) (. मा.; वं. से. । विद.) पुनर्नवावल्लिजवाणपुला विश्वाग्निपथ्याचिरबिल्वबिल्वैः। पुनर्नवादारुविश्वदशमूलाभयाम्भसा। गुग्गुल्वेरण्डतैलं वा पिबेन्मारुतविद्रधौ। कृतः कषायः शमयेदशेषान् दुर्नामगुल्मग्रहणीविकारान् ॥ पुनर्नवा ( साठी ), देवदारु, सोंठ, दशमूल, पुनर्नवा ( साठी), काली मिर्च, शरपोखा, और हरे के काथमें गूगल या अरण्डीका तेल सेठ, चीता, हर्र, करंजुवा और बेलगिरी । इनका मिलाकर पीनेसे वातज विद्रधि नष्ट होती है। काथ बवासीर, गुल्म और ग्रहणीको नष्ट १ शोथे कफोत्ये महिषाक्षयुक्तमिति पाठान्त रम् । ' करता है। For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कफायप्रकरणम् ] हतीयो भागः। [२८३] (३८४९) पुनर्नवादिकाथः (५) पुनर्नवा, सांठ, देवदारु, हर्र, शुद्ध भिलावा (वै. म. र. । पटल ११) गिलोय और दशमूल का काथ अथवा गोमूत्रके पुनर्नवाभयाशुण्ठीकालशाकैः समैः शृतम्। साथ गूगल सेवन करनेसे ऊरुस्तम्भ नष्ट होता है। जलं शोफं जयेत्पीतं प्रातः सायं च मात्रया ॥ (३८५२) पुनर्नवादिकाथः (८) __पुनर्नवा, हरे, सांठ और नाडीका शाक । (भा. प्र.; वै. र.; भै. र. । उदर.) इनका काथ बनाकर प्रातः सायं पीनेसे शोथ पुनर्नवादारुनिशासतिक्ता नष्ट होता है । पटोलपथ्यापिचुमर्दमुस्ता । (३८५०) पुनर्नवादिकाथ:१ (६) सनागरच्छिन्नरुहेति सर्वः । (च. द. । उदरा.; । वं. से. । शोथा.; यो. र. कृतः कषायो विधिना विधिज्ञैः॥ उदर.; वृं. मा. । शोथोदर.; वृ. यो. त.। | गोमूत्रयुग्गुग्गुलुना च युक्तः त. १५०) पीतः प्रभाते नियतं नराणाम् । पुनर्नवां दाय॑भयां गुडूची सर्वाङ्गशोथोदरकासशूलपिबेत्समूत्रां महिषाख्ययुक्ताम् । श्वासान्वितं पाण्डुगदं निहन्ति ॥ त्वग्दोषशोफोदरपाण्डुरोग पुनर्नवा ( साठी ), देवदार, हल्दी, कुटकी, स्थौल्यपसेकोलकफामयेषु ॥ पटोलपत्र, हरी, नीमकी छाल, नागरमोथा, सोंठ, ___ पुनर्नवा ( साठी), दारुहल्दी, हर्र और | और गिलोय । इनके काथमें गोमूत्र और गूगल गिलोयके काथमें गोमूत्र और गूगल मिलाकर । मिलाकर प्रातःकाल पीनेसे सर्वाङ्गशोथ, उदररोग, पीनेसे त्वग्दोष, सूजन, उदर, पाण्डु, स्थौल्य, खांसी लव खांसी, शूल, श्वास, और पाण्डुका नाश होता है। प्रसेक और ऊर्ध्वजत्रुगत कफज रोग नष्ट होते हैं । (३८५१) पुनर्नवादिकाथः (७) (३८५३) पुनर्नवादिस्वेदः (१) (ग. नि.; वृ. नि. र. । शोथा.) (वै. जी. । विला. ४) पुनर्नवानागरदारुपथ्या पुनर्नवाग्निनिर्गुण्डीपलितैरण्डजैर्दलैः । ___ भल्लातकछिनरुहाकषायः। सहाचरैर्जलं तप्तं तत्स्वेदः शोफहा मतः ॥ दशाघिमिश्रः परिपेय ऊरु पुनर्नवा ( साठी ), चीता, संभाल, काली__ स्तम्भेऽथवा मूत्रपुरमयोगः।। | मिर्च, अरण्डके पत्ते और पियाबांसा । इनका पानी पकाकर उसकी भाफ देनेसे शोथ नष्ट -वृहद्योगतरजिणीमें इसका नाम "लघुपुनर्नवादि" लिखा है। होता है। - - For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि (३८५४) पुनर्नवादिस्वेदः (२) पुनर्नवानिम्बपटोलशुण्ठी(वं. से. । शूला.) तिक्तामृतादाय॑भयाकषायः । पुनर्नवैरण्डयवातसीभिः सर्वाङ्गशोथोदरकासशूल___कार्पासजैरस्थिभिरारनालैः। श्वासान्वितं पाण्डुगदं निहन्ति ॥ स्विभैरमीभिर्भिषजा च कार्यः पुनर्नवा ( साठी ), नीमकी छाल, पटोलपत्र, स्वेदः समीरार्तिहरो नराणाम् ॥ सांठ, कुटकी, गिलोय, दारुहल्दी और हर्रका काथ पुनर्नवा ( साठी ), अरण्डकी जड़, जौ, सींगशोथ, उदररोग, खांसी, शूल, श्वास और अलसी और कपासके बीजों ( बिनौले ) की गिरी | पाण्डुको नष्ट करता है। को कांजीमें पकाकर उसकी भाफ देनेसे वातज | (३८५७) पुरीषविरजनीयकषायदशक: शूल नष्ट होता है। (च. सं. । सू. अ. ४) जम्बुशल्लकीत्वक्कच्छुरामधुकशाल्मलीश्रीवेष्टक(३८५५) पुनर्नवायोगः भृष्टमृत्पयस्योत्पलतिलकणा इति दशेमानि (रा. मा. । विषरो.) पुरीपविरजनीयानि भवन्ति । यः पिबति पुष्यदिवसे जलपिष्टं सितपुननेवा- जामनकी छाल, शल्लकीकी छाल, कौच के मूलम् । | बीज, मुलैठी, संभलकी छाल, श्रीवेष्ट, दग्ध मृत्तिका, तत्सविधौ न वर्षे वृश्चिकभुजगाः प्रसर्पन्ति ॥ बिदारीकन्द, नीलोत्पल और तुषरहित तिल । पुष्य नक्षत्र में सफेद पुनर्नवा ( साठी-बिस इन दश चीजेोंके समूहको 'पुरीषविरजनीय खपरा) की जड़को उखाड़कर पानीमें पीसकर कषायदशक ' कहते हैं। ( इनके सेवन से मल पीनेसे एक वर्ष तक सांप और बिच्छू पास तक | दोष रहित हो जाता है।) नहीं फटकते । (३८५८) पुरीषसंग्रहणीयकषायदशकः (३८५६) पुनर्नवाष्टकम् (च. सं. । सू. अ. ४) (4. से., भै. र. । शोथ.; ग. नि.; वृ. नि. र.; प्रियङ्गवनन्ताम्रास्थिकालोध्रमोचरसबं. से. । पाण्डु.; यो. र.; च. द. । उदराः; समाधातकीपुष्पपमापबकेशराणीति र. र. । शोथ.; . मा. । शोथोदर.; वृ. दशेमानी पुरीषसंग्रहणीयानि भवन्ति । यो, त. । त. १५०; यो. र. पाण्डु.; फूलप्रिया, अनन्तमूल, आमकी गुठली, यो. र. । उदरा.) अरलकी छाल, लोध, मोचरस, मजीठ, धायक फूल, १ योगतरङ्गिणीमें इसका माम " वृहत्पुन पभा और कमलकेसर । यह दश ओषधियां पुरीष मेवादि" लिखा है। संग्रहणीय अर्थात् मलको बांधनेवाली हैं। For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - कषायमकरणम] तृतीयो भागः। [२८५ ] (३८५९) पुष्करमूलादिकाथः अजवायन । इनके काथमें यवक्षार और सेंधानमक (ग. नि.; रा. मा. । ज्वर.) मिलाकर गरम गरम पीनेसे हृद्रोग नष्ट होता है । पुष्करमूलगुडूचीनिदिग्धिकानागरैः कृतः कायः (३८६२) पुष्करादिकाथ: (२) कासश्वासबलासाश्वरं च हन्ति त्रिदोषस- (यो. र.; वं. से.; . मा.; च. द.; वृ. नि. र. । म्भतम कास.; यो. चि. म. । अ. ४) पोखरमूल, गिलोय, कटैली और सेठका पौष्कर कट्फलं भार्गीविश्वपिप्पलिसाधितम् काथ, खांसी श्वास, कफ और सन्निपातज ज्वरको | पिबेत्वार्थ कफोद्रेके कासे श्वासे च हृद्गदे ।। नष्ट करता है। ___ कफप्रधान खांसी, श्वास और हृद्रोगमें (३८६०) पुष्करादिकल्कः पोखरमूल, कायफल, भारंगी, सेठ और पीपलका (च. सं. । चि. अ. २६; यो. र.; वृ. नि. र. काथ पीना चाहिये । वं. से. । हृदो.; वृ. यो. त. । त. ९९) (३८६३) पुष्करादिकाथ: (३) सपुष्कराई फलपूरमूलं (वा. भ. । चि. अ. १४ गुल्मा.) महौषधं शटयभया च कल्काः । पुष्करैरण्डयोर्मूलं यवधन्वयवासकम् । क्षाराम्लसपिलवणैर्विमिश्राः जलेन कथितं पीतं कोष्ठदाहरुजापहम् ।। स्युतिहृद्रोगविकर्तिकानः ॥ पोखरमूल, अरण्डकी जड़, इन्द्रजौ और पोखरमूल, बिजौरे की जड़, सोंठ, कचूर और हरै । सब चीजें समान भाग लेकर पीसकर उसमें | धमासा । इनका काथ कोष्ठकी दाह और यवक्षार, अनारका रस, घी और सेंधानमक मिला पीडाको नष्ट करता है। । (३८६४) पूतिकरारसयोगः (१) कर सेवन करनेसे वातज हृद्रोग दूर होता है। (३८६१) पुष्करादिकाथः (१) (वं. से. । मसूरि.). (च. सं. । चि. अ. २६.; यो. र. वृ. नि. र.: । रसं पूतिकरञ्जस्य चामलक्या रसन्तथा । वं. से. । हृद्रो.) पिबेत्सशर्कराक्षौद्रं शोफनुत्कफपैत्तिके ॥ काथः कृतः पौष्करमातुलुङ्ग करञ्जके पत्ते और आमलेका रस बराबर पलाशपूतीका शठीसुराहैः। | बराबर मिलाकर उसमें मिश्री और शहद मिलाकर सनागराजाजिवचायवानी पीनेसे कफपित्तज शोथ नष्ट होता है। सक्षार उष्णो लवणेन पेयः॥ (३८६५) पूतिकरञ्जरसयोगः (२) पोखरमूल, बिजौरेकी जड़, पलाश (केस), (वं. से. । श्लीपद.) करंजुवा, कचूर, देवदारु, सांठ, जीरा, बच और | पिबेत्सर्षपतैलेन श्लीपदानां निवृत्तये । , भतीकेति पालन्तरम् । पूतीकरञ्जछदजं रसं वापि यथावलम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८६] भारत-भैषज्य रस्माकरः। [पकारादि - पूतीकरन के पत्तेके रसमें सरसोंका तैल | पृश्निपर्णी, खरैटी, बेलगिरी, सोंठ, नीलोमिलाकर पीनेसे श्लीपद रोग नष्ट होता है। त्पल, धनिया, बायबिडंग, अतीस, नागरमोथा, (३८६६) पूतिकादिकल्कः देवदारु, पाठा और इन्द्रजौके काथमें कालीमिर्चका (वृ. नि. २. । अतिसा.) चूर्ण मिलाकर पिलानेसे शोकातिसार नष्ट प्रतिकव्योपविल्वाग्निपाठादाडिमहिनभिः । । होता है। योजयेत्सत्कृतैः पेष्यैः श्लेष्मातीसारपीडितम । (३८७०) पृश्निपादिक्षीरम् करख, सांठ, मिर्च, पीपल, बेलगिरी, चीता, (यो. र. । उदर.) पाठा, अनारदाना और हींग । इन्हें पानीके साथ | | पृश्निपर्णीबलाव्याघ्रीलाक्षानागरसाधितम् । पीसकर खिलानेसे कफातिसार नष्ट होता है। ! क्षार पित्तोदरं हन्ति जठरं कतिमिर्दिनैः॥ पृश्निपर्णी, खरैटी, कटैली, लाख और सोंठ। (३८६७) पूतिकादिकाथ: सब चीजें समान भाग मिलाकर २॥ तोले लें (वृ. नि. । अतिसा.) और उन्हें २० तोले दूधमें डालकर उसमें पूतिकं मागधी शुण्ठी बला धान्य हरीतकी। ८० तोले पानी मिलाकर पानी जलने तक पकापक्त्वाम्बुना पिबेत्सायं वासातीसारशान्तये ॥ कर छानकर पिलावें । इससे पित्तोदर रोग कुछ ___ करञ्जुवा, पीपल, सोंठ, खरैटी, धनिया | दिनोंमें ही नष्ट हो जाता है। और हरै । इनका काथ सायंकालके समय पीनेसे (३८७१) पृश्निपण्यांदिनियूहः वातातिसार नष्ट होता है। (यो. र. । गर्भिणीरो.) (३८६८) पूतिदा दिकषायः पृश्निपर्णीबलाबासानिhहो रक्तपित्तजित् । (वं. से. । अति.) गर्भिण्याः कामलाशोफश्वाशकासज्वरापहः ॥ पूतिदारुत्वचं रोधं कामथ नागरम् । ___ पृश्निपर्णी, खरैटी और बासाका स्वरस (या दाहिमाम्लयुतं दद्याद्वातश्लेष्मातिसारिणाम् ॥ काथ) गर्भिणीके रक्तपित्त, कामला, शोफ, श्वास, करञ्जुवा, देवदारुकी छाल, लोध, अरल | खांसी और ज्वरको नष्ट करता है। और सेठके काथमें खट्टे अनारका रस मिलाकर (३८७२) पृश्निपादिशृतम् पीनेसे वातकफज अतिसार नष्ट होता है। (ग. नि.) (३८६९) पृश्निपादिकाथ: | पृश्निपर्णीघनोदीच्यशुण्ठिसिद्धं जलं हितम् । ( . मा.; यो. र.; वृ. नि. र. । अतिसा.) पानाहारविधौ पैत्ते शोथे क्षीराशनं तथा ॥ पृश्निपर्णीबलाबिल्वनागरोत्पलधान्यकैः । पित्तज शोथमें पृष्टपर्णी, नागरमोथा, सुगन्धविडङ्गातिविषामुस्तदारुपाठाकलिङ्गकैः ॥ बाला और सेठि से पकाया हुवा पानी पिलाना मरिचेन समायुक्तं शोकातिसारनाशनम् ॥ । और दूधका आहार देना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । कषायप्रकरणम् ] (३८७३) प्रजास्थापनकषायदशकः ( च. सं. 1 सू. अ. ४ ) ऐन्द्री ब्राह्मशतवीर्यासहस्रवीर्यामोघाव्यथाशिवारिष्टाबाट्य पुष्पी विष्वकसेनकान्ता इति दशेमानि प्रजास्थापनानि भवन्ति । इन्द्रायन, ब्राह्मी, दूर्वा, सहस्रवीर्या (दूर्वाभेद), पाढल, आमला, हर्र, कुटकी, खरैटी और बाराही कन्द | यह ओषधियां प्रजास्थापक हैं । ( इनके सेवन से स्त्री गर्भ धारण करती है।) (३८७४) प्रपौण्डरीकायाश्च्योतनम् ( ग. नि. । नेत्ररो. ३ ) 1 पौण्डरीकं मधुकं हरिद्रा छागं पयो वाऽप्यथवापि नार्याः । आरच्योतनं शर्करया विमिश्रं पित्तानिलातेर्विनिवृत्तये तु ॥ पुण्डरिया, मुलैठी और हल्दी में से किसीका रस अथवा बकरी या स्त्रीका दूध खांड मिलाकर आंखमें डालने से पित्तज और वातज नेत्र पीड़ा शान्त होती है । (३८७५) प्रियङ्गुकादिकषायः ( ग. नि. । रक्तपि; च. स. । चि. अ. ४ रक्तपि. ) प्रियङ्गुकाचन्दनलोधसारिवा मधूकमुस्ताभयधातकीजलम् । समृत्प्रसादं सह षष्टिकाम्बुना सशर्करं रक्तनिबर्हणं परम् ॥ फूलप्रियङ्गु, लालचन्दन, लोध, सारिवा, मुलैठी, नागरमोथा, खस और घायके फूल । इनका [ २८७ ] शीतकषाय, काली मिट्टीका निथरा हुवा पानी और साठी चावल का पानी खांड मिलाकर पीनेसे रक्तपित्त नष्ट होता है । (३८७६) प्रियङ्गवादिकल्कः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (बृ. मा.; वं. से. । बालरो; यो त । त. ७७ ) कल्कः प्रियङ्गुकोलास्थिमध्यमुस्तरसाञ्जनैः । क्षौद्रलीः कुमारस्य छर्दिस्तृष्णातिसारनुत् ॥ फूलप्रियङ्गु, बेरकी गुठली की गिरी, नागरमोथा और रसौत । समान भाग लेकर पीसकर शहद में मिलाकर चटाने से बालककी तृषा, छर्दि और अतिसार नष्ट होते हैं । (३८७७) प्रियङ्गवादिगणः ( वा. भ. । सू. अ. १५ ) भियनुपुष्पाञ्जनयुग्मपद्मापद्माद्रजोयोजनवल्ल्य नन्ता । मानद्रुमो मोचरसः समङ्गा पुन्नागशीतं मदनीयहेतुः ॥ गणौ प्रियवम्बष्ठादी पकातिसारनाशनौ । सन्धानीयौ हितौ पित्ते व्रणानामपि रोपणौ ॥ फूलप्रियङ्गु, पुष्पाञ्जन, रसाञ्जन, कमलिनी, कमलिनीकी केसर, मजीठ, धमासा, सेंभलकी छाल, मोचरस, लज्जालु, नागकेसर, चन्दन और धाय के फूल । इन ओषधियोंके समूहको प्रियवादि गण कहते हैं । प्रियवादि तथा अम्बष्ठादि गण पकातिसार नाशक, सन्धान कारक, पित्तनाशक और घावांको भरने वाले हैं । इति पकारादिकषायप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८८] [पकारादि - - - भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। अथ पकारादिचूर्णप्रकरणम् (३८७८) पश्चकषायचूर्णयोगः पनकोलके चूर्णको गर्म पानीके साथ सेवन (बूं. मा.; वं. से. । कर्णरोगा.) करनेसे मन्दाग्नि, शूल, गुल्म, आम, कफ और चूर्ण पञ्चकषायाणां कपित्थरससंयुतम् । अरुचि नष्ट होती है। कर्णखावे प्रशंसन्ति पूरणं मधुना सह ॥ (३८८१) पश्चनिम्बकं चूर्णम तिन्दुकान्यभयालोधं समझा चामलक्यपि । (ग. नि. । कुष्ठ.) पत्रकायशब्देन ग्राह्यमेतद्भवेदिह॥ खदिरोदकसम्मिश्रं पञ्चाङ्ग निम्बचूर्णकम् । - तेन्दु, हरे, लोध्र, मजीठ और आमलेके | सेवेत कुष्ठविनाशाय ब्रह्मचर्येण संयुतः॥ चूर्णमें कैथका रस और शहद मिलाकर कानमें ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक नीमके पश्चाङ्गका चूर्ण डालनेसे कर्णस्राव बन्द हो जाता है । खरके काथके साथ सेवन करनेसे कुष्ठ नष्ट (३८७९) पञ्चकोलचूर्णम् होता है। (शा. ध. । खं. २ अ. ६; मै. र. । ज्वर.; (३८८२) पञ्चनिम्बचूर्णम् यो. त. । त. १८) (ग. नि.; भै. र. वृं. मा.; च. द. । अम्लपित्त.) पिप्पलीचव्यविश्वाह पिप्पलीमूलचित्रकैः ।। एकोशः पञ्चनिम्बानां द्विगुणो वृद्धदारुकः। पञ्चकोलमिति ख्यात रुच्यं पाचनदीपनम् ॥ | सतुर्दशगुणो देयः शर्करामधुरीकृतः ।। आनाइप्लीहगुल्मन्नं शूलश्लेष्मोदरापहम् ॥ शीतेन वारिणा पीतं शूलं पिसकफोत्थितम् । पीपल, चव, सेठ, पीपलामूल और चीता । | निहन्ति चूणे सक्षौद्रमम्लपित्तं मुदुस्तरम् ॥ इन पांच ओषधियांक समूहको 'पञ्चकोल ' कहते | सवाते सविवन्धेऽस्मिन् हिता कंसहरीतकी॥ हैं । यह योग रोचक, पाचक, दीपक और अफारा, नीमका पञ्चाङ्ग १ भाग, बिधारा २ भाग, प्लीह, गुल्म, शूल, कफ तथा उदर विकार | और सत्तू १० भाग लेकर सबको एकत्र मिला नाशक है। . कर ठण्डे पानीमें घोलकर उसे खांडसे मीठा करके (३८८०) पञ्चकोलचूर्णयोगः पीनेसे पित्तकफज शूल नष्ट होता है तथा इस (वृ. नि. र.; मा. प्र.; यो. र.; . मा. । । चूर्णको शहदके साथ चाटनेसे भयंकर अम्लपित्त आमवात.) नष्ट हो जाता है। पञ्चकोलकचूर्णन्तु पिबेदुष्णेन वारिणा। यदि अम्लपित्तमें वायु प्रबल हो और मलामन्दाग्निशूलगुल्मामकफारोचकनाशनम् ॥ | वरोध हो तो कंसहरीतकी सेवन करनी चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२८९] पश्चनिम्बचूर्णम् पञ्चवल्कल ( वट, पोपल, पिलखन, गूलर ( रसप्रकरणमें देखिये।) और बेत ) की छालका चूर्ण और सीपका चूर्ण (३८८३) पश्चमूलचूर्णम् | समान भाग मिलाकर (धीमें घोटकर ) लगाने (वं. से. । आमवात.) से अथवा धायके फूल और लोधके चूर्णको इसी पञ्चमूलकचूर्णन्तु पिबेदुष्णेन वारिणा | प्रकार लगाने से घाव भर जाता है। मन्दाग्निशूलगुल्मञ्च कफारोचकनाशनम् ॥ (३८८७) पश्चसमं चूर्णम् पञ्चमूलके चूर्णको उष्ण पानीके साथ सेवन (ग. नि. । परिशिष्ट चूर्णा.; वै. र. । शूला.; करनेसे मन्दाग्नि, शूल, गुल्म और कफज अरुचि | यो. र. । आमवा.; शा. ध. । चूर्णा.) नष्ट होती है। पथ्यानागरजीरकाख्यरुचकैः श्यामान्वितैः प(३८८४) पश्चलवणम् भि(वं. से. । ग्रहण्य.) श्चूर्ण पञ्चसमं समस्तरुजहत्कायाग्निसन्दीपनम्।। सौवर्चलं सैन्धवञ्च विडमौद्भिदमेव च। । प्राणोत्साहविवर्द्धनं रुचिकरं गुल्मन्नप्लीहापहम् सामुद्रण समं पञ्च लवणान्यत्र योजयेत् ॥ | प्रत्याध्मानगरादिशमनं सामानिले पूजितम् ।। सञ्चल ( काला नमक ), सेंधा नमक, विड- | हरे, सेांठ, जीरा,+ सञ्चल ( काला नमक ) नमक, उद्भिद नमक और सामुद्र लवण । इन | और निसोत; समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । पांचोंको पश्चलवण कहते हैं । इसके सेवनसे अग्नि दीप्त और उत्साहकी (३८८५) पञ्चवल्कलचूर्णम् वृद्धि होती है । तथा गुल्म, तिल्ली, आध्मान (भा. प्र. । ममूरि.) ( अफारा ) और गरविषादि नष्ट होते और रुचि पञ्चवल्कलचूर्णेन क्लेदिनीमवधृलयेत् । उत्पन्न होती है । यह चूर्ण सामवायुमें विशेष भस्मना केचिदिच्छन्ति केचिद्गोमयरेणुना।। उपयोगी है। क्लेद (पीप ) युक्त ममूरिकाकी फुसियों | (३८८८) पञ्चाग्निचूर्णम् पर पञ्चवल्कल ( वट, पीपल वृक्ष, गूलर, पिलखन (वृ. नि. र. । अजो.) और वेत ) की छालका चूर्ण या अरने उपलोंकी अम्लवेतसधनञ्जयवत्री राख अथवा सूखे गोबरका चूर्ण लगाना चाहिये। मोरटा तदनु मूरण एषः। (३८८६) पञ्चवल्कलादिचूर्णम् पञ्चवहिजठरानलवृद्धथै ( वृं. मा. । व्रणशोथ.; यो. र. । व्रण.) तक्रसाकमिदमाशु हि पेयम् ॥ पञ्चवल्कलचूर्णैर्वा शुक्तिचूर्णसमायुतैः ।। +गदनिग्रहके अतिरिक्त अन्य समस्त प्रन्धोंमें धातकीलोध्रचूर्णैर्वा तथा रोहन्ति ते व्रणाः ।। | जोक जगह पीपल लिखी है । For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२९०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि अमलबेत, अर्जुनकी छाल, थोहर, मूर्वा । दुखलेऽवक्षुध स्नेहघटे प्रक्षिप्यावलिप्य गोशऔर जिमीकन्द । इनके चूर्णको तक्रके साथ कृभिर्दाहयेदेतत्पत्रलवणमुपदिशन्ति वातरोपीनेसे अग्नि दीम होती है। गेषु । । पञ्चामृतचूर्णम् ___ अरण्ड, मोखा ( छोकर ), करजुवा, बासा, (र. र. । अजी. ) नाटाकरञ्ज, अमलतास और चीता इत्यादि (वात रस प्रकरणमें देखिये । नाशक ) वृक्षांके हरे पत्ते लेकर उन्हें ( समान (३८८९) पटोलाचं चूर्णम् भाग ) नमक के साथ ओखलीमें कूट लें और (वृ. यो. त. । त. १५०; यो. र. । उदर.; च. फिर चिकने घड़े में भरकर उसका मुंह बन्द करके सं । चि. अ. १८; वं. से.; ग. नि.; . मा; उस पर कपड़मिट्टी करके उसे उपलों ( कण्डों) ___ च. द. । उदर.; यो. त. । त. ५३ ) की आग में फूकें । जब घड़ा स्वांग शीतल हो पटोलमूलं। रजनी विडङ्गं त्रिफलात्वचः।। जाय तो उसमें से औषधको निकालकर पीस लें । कम्पिल्लकं नीलिनीच त्रितां चेति चूर्णयेत् ।। | यही पत्रलवण है । यह वातव्याधियों में पडाद्यान्कार्षिकानन्त्यांस्त्रींश्च द्वित्रिचतुर्गुणान् । हितकर है। ( मात्रा-१ से ३ माशे तक । उष्ण कृत्वा चूर्ण ततो मुष्टिं गवांमूत्रेण ना पिबेत् ॥ | जलके साथ । ) हन्ति सर्वोदराण्येतच्चूर्ण जातोदकान्यपि । । (३८९१) पत्रलवणम् (२) कामलां पाण्डुरोगं च श्वयधुं चापकर्षति ॥ | ( . मा. । गुल्म.; ग. नि. । चूर्णा.; वृ. नि. र. । __पटोलमूल, हल्दी, बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा ___ गुल्म.; वा. भ. । चि. अ. १४) और आमला १-१। तोला, कमीला २॥ तोले, पूतीकपत्रगजचिर्भटचव्यवह्निनीलका पञ्चाङ्ग ३।। तोले और निसोत ५ तोले ___ व्योपं च संस्तरचितं लवणोपधानम् । लेकर चूर्ण बनावें । | दग्ध्वा विचूर्ण्य दधिमस्तुयुतं प्रयोज्यं . इसे ५ तोलेकी मात्रानुसार गोमत्रके साथ गुल्मोदरश्वयथुपाण्डुगुदोद्भवेषु ॥ पीनेसे जलोदर तथा अन्य उदररोग, कामला, करञ्जुवेके पत्ते, इन्द्रायणके फल, चव, चीता, पाण्डु और शोथ का नाश होता है। सेट, मिर्च और पीपल १-१ भाग तथा सेंधा (व्यवहारिक मात्रा ३ से ६ माशे तक।) नमक सबके बराबर लेकर पत्तांके सिवाय अन्य (३८९०) पत्रलवणम् (१) सब चीजोका चूर्ण करलें फिर एक मिट्टीकी हाण्डी (सु. सं. । चि. अ. ५) में नीचे करञ्जके पत्ते बिछाकर उन पर वह चूर्ण गन्धर्वहस्तकमुष्ककनक्तमालाटरूषकपूतीकार- | फैलादें और उसके ऊपर फिर पत्ते बिछावें । इसी ग्वधचित्रकादीनां पत्राण्याणि लवणेन सही- प्रकार चूर्ण और पत्तांकी तह जमाकर हाण्डीके १ पत्रमिति पाठान्तरम् । मुखको बन्द कर दें और फिर उस पर कपडमिट्टी For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] करके सुखा दें । इसे उपले की आग में फूंकें । जब हाण्डी स्वांगशीतल हो जाय तो उसमें से औषधको निकालकर पीस लें । तृतीयो भागः । इसे दही या मस्तु के साथ देनेसे गुल्म, पाण्डु, उदररोग, शोथ और अर्शका नाश होता है । ( मात्रा --- ३-४ माशे । ) (३८९२) पत्रादिचूर्णम् ( वं. से.; व्रं. मा. । रक्तपि . ) पत्रं त्वगै लानतचन्दनानां श्यामास शुण्ठीमधुकोत्पलानाम् । स्याद्वात्रिवासा' द्विगुणोत्तरानां चूर्ण सिताक्षौद्रसमन्वितानाम् ॥ दाहे ज्वरे लोहितपित्तयुक्ते कासे क्षये शोणितमूत्रकृच्छ्रे । रक्तेऽतिमात्रं पतिते मुखेन sr नासाश्रुति मेयोनौ || प्रोक्तं पुरा रक्तविनिग्रहार्थं चूर्ण वसिष्टेन महागदन्नम् ॥ तेजपात १ भाग, दालचीनी २ भाग, इलायची ४ भाग, तगर ८ भाग, लालचन्दन १६ भाग, निसोत ३२ भाग, सांठ ६४ भाग, मुलैठी १२८ भाग, निलोत्पल २९५६ भाग, आमला ५१२ भाग और बासा १०२४ भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे ( समान भाग ) खांडमें मिलाकर शहदके साथ चाटने से दाह, ज्वर, रक्तपित्त, खांसी, क्षय, मूत्रकृच्छ्र, मूत्रके साथ रक्त आना, मुखसे १ सधात्रि वांशीति पाठान्तरम् । [ २९१] अत्यधिक रक्त आना या गुदा, नासिका, कान, मूत्रमार्ग और योनिसे रक्तस्राव होना इत्यादि विकार शान्त होते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस चूर्णकी योजना प्राचीन काल में वसिष्ठ जीने की थी । ( मात्रा - ३-४ माशे । ) (३८९३) पथ्याचूर्णयोगः (बृ. मा. | रक्तपि. ) aresस्वर से पथ्या सप्तधा परिभाविता । कृष्णा वा मधुना लीढा रक्तपित्तं श्रुतं जयेत् ।। हरे या पीपलको वासेके स्वरसकी सात भावना देकर शहदके साथ सेवन करनेसे रक्तपित्त शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । (३८९४) पथ्यादिचूर्णम् (१) ( भा. प्र. । छर्दि . ) पथ्यात्रिकदुधान्याकजीरकाणां रजो लिइन् । मधुना नाशयेच्छर्दिम रुचिश्च त्रिदोषजाम् ॥ हरे, सांठ, मिर्च, पीपल, धनिया और जीरा । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे शहद के साथ सेवन करनेसे त्रिदोषज छर्दि और अरुचि नष्ट होती है । ( मात्रा - ३ माशे । ) (३८९५) पथ्यादिचूर्णम् (२) ( वृ. नि. र. । शूल . ) चूर्ण पथ्या वचा वह्नि कटुरोहिणी रुक् समम् । श्लेष्मशुलं हरत्याशु पीतं गोमूत्रसंयुतम् ॥ हर्र, बच, चीता, कुटकी और कूठ । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२९२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे कफजशूल (३८९८) पथ्यादिचूर्णम् (५) शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ( मात्रा ३-४ माशे) (वृ. नि. र. । कास.) (३८९६) पथ्यादिचूर्णम् (३) पथ्या विश्वा कणा मुस्ता देवदारुः समांशकम् । ( . मा. । छर्दि.) एतच्चूर्ण मधुपेतं श्लेष्मकासापनुत्तये ॥ पथ्याक्षधात्रीमगधोषणानां ____ हर, सोंठ, पीपल, नागरमोथा और देवदार चूर्ण सलाजाञ्जनकोलमध्यम् । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । छर्दि निहन्त्याशु समाक्षिकन्तु । इसे शहदके साथ चाटनेसे कफज खांसी ___ सत्र्युषणं वापि कपित्यमध्यम् ।। नष्ट होती है। हरे, बहेड़ा, आमला, पीपल, काली मिर्च, (दिनभरगे १ तोले तक थोड़ा थोड़ा धानकी खील, सुरमा और बेरकी गुटलीकी मन्ना, । करके कई बारमें चटा देना चाहिये ।) ( गिरी ) समानभाग--लेकर चूर्ण बनावें । (३८९९) पथ्यादिचूर्णम् (वृहत्) (६) - इसे शहदके साथ चाटनेसे वमन शीत्र ही (. नि. र. । अजीर्ण.) नष्ट हो जाती है। पथ्यावचाहिङ्गकलिङ्गभृङ्ग कैथका गूदा और सांठ, मिर्च तथा पीपलके सौवर्चलैः सातिविषैः सुचूर्ण्य । समानभाग-मिश्रित चूर्णको भी शहद के साथ | मुखाम्बुपीतो विनिहन्त्यजीर्णसेवन करनसे छर्दि (वमन) रुक जाती है। शुलं विपूची कसनश्च सद्यः ।। ( मात्रा-३-४ माटो । थोड़ी थोड़ी देरमें हर्र, बच, हींग, इन्द्रजौ, भंगरा, सञ्चल. जरा जरा सी दवा बार बार चटानी चाहिये ।) ( काला नमक ) और अतीस । समान भाग लेकर (३८९७) पथ्यादिचूर्णम् (४) चूर्ण बनावें । इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे (वृ. नि. र. । कफाति.) अजीर्ण, शूल, विषूचिका और खांसी शीघ्र ही पथ्या पाठा वचा कुष्ठं चित्रकः कटुरोहिणी। नष्ट हो जाती है। चूर्णमुष्णाम्भसा पीतं श्लेष्मातीसारनाशनम् ॥ (३९००) पथ्यादिचूर्णम् (७) (र. र. । बालरोग.) हरं, पाठा, बच, कूट, चीता और कुटकी । | पथ्याकुष्ठवचाचूर्ण मधुतैलयुतं पिवेत् । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। ग्रीवादाढयंकरं श्रेष्ठं तालुकण्टकनाशनम् ।। इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कफज हर्र, कूट और बच समान भाग लेकर अतिसार नष्ट होता है। चूर्ण बनावें। ( मात्रा ३ माशे । दिनमें ३-४ बार दें।)। इसमें शहद और तेल मिला कर चटानेसे For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्ण प्रकरणम् तृतीयो भागः। [२९३] बालकांकी गरदन दृढ़ होती और तालुकण्टक । हर, सञ्चल ( काला नमक ), हींग, सेंधा रोग ( जिसमें बालकका तालु नीचेको बैठ जाता | नमक, अतीस और बच । समान भाग लेकर है, शिरमें गढ़ा पड़ जाता है और बालकको दस्त चूर्ण बनावें। आते हैं वह ) नष्ट होता है। इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे आमा(३९०१) पथ्यादिचूर्णम् (८) (वृ. नि. र. । अर्श. ) तिसार और कफातिसार नष्ट होता है । पथ्यानागरकृष्णाकरअवेल्लाग्निभिः सितातुल्यैः। ( मात्रा----१ माशा । ) बडवामुख इव जरयति बहुगुर्वपि भोजनं (३९०४) पथ्यादिचूर्णम् (११) __चूर्णम् ॥ | (. मा. । शूला.) हर्र, सेठ, पीपल, कर वेकी गिरी, बायबिडंग और चीता १-१ भाग तथा मिश्री सबके पथ्या सौवर्चलं क्षारं हिङ्ग सैन्धवदीप्यकम् । बराबर लेकर चूर्ण बनावें । चूर्ण मद्यादिभिः पीतं वातशूलनिवारणम् ॥ इसके सेवनसे अग्नि अत्यंत तीव्र हो कर हरै, सञ्चल नमक, जवाखार, हींग, सेंधानमक भारीसे भारी पदार्थ भी पच जाते हैं । और अजवायन । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । (३९०२) पथ्यादिचूर्णम् (९) (वृ. यो. त. । त. ९४ ) इसे सुरा इत्यादि के साथ सेवन करने से पथ्यांशशक्रयवपुष्करमूलयुक्तां वातज शूल नष्ट होता है। सञ्चूर्ण्य हिङ्गजटिलातिविषासमेताम् । (३९०५) पथ्यादिचूर्णम् (१२) चूर्ण कवोष्णसलिलेन निपीय सद्यः ( वृ. मा. । वृद्ध्य.) शूलानि हन्ति पवनामकफोद्भवानि ॥ भृष्टो रुबूकतैलेन कल्कः पथ्या समुद्भवः । हरे, इन्द्रजौ, पोखरमूल, हींग, बालछड़ और कृष्णासैन्धवसंयुक्तो वृदिरोगहरः परः ।। अतीस समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । हर के कल्कको अरण्डीके तैलमें भून लें फिर इसके सेवनसे वातज, आमजन्य और कफज उसमें पीपल और सेंधा नमकका 'चूर्ण १-१ शुल नष्ट होता है । अनुपान-उष्ण जल। (मात्रा-१ माशा ।) | भाग मिलाकर रखें। (३९०३) पथ्यादिचूर्णम् (१०) इसके सेवनसे वृद्धि रोग नष्ट हो जाता है। (वं. से.; ग. नि.; यो. र.; वृ. नि. र. । अतिसा.) (मात्रा--२-३ मारो ।) पथ्या सौवर्चल हिङ्गु सैन्धवातिविषे वचा। __ पथ्यादिचूर्णम् (१३) आमातिसारं कफजं पीतमुष्णाम्भसा जयेत् ॥ रस प्रकरण में देखिये । For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य - रत्नाकरः । [ २९४ ] (३९०६) पथ्यादियोग: (बृ. नि. र. । ज्वर ) पथ्यां तैलघृतक्षौद्रैलिहेद्दाहज्वरापहम् । कासासृपित्तवीसर्पश्वासं हन्ति वमिमपि ॥ भारत हर्र के चूर्ण में तेल, घी और शहद मिलाकर चाटने से दाह, ज्वर, खांसी, रक्तपित्त, वीसर्प, श्वास और छर्दि (वमन) नष्ट हो जाती है । ( हर्र ३ माशे, घी ३ माशे, तेल ३ माशे, शहद २ तोले । ) (३९०७) पथ्याद्यं चूर्णम् (१) (यो. र.; बृ. मा.; वृ. नि. र.; ग. नि. । अजी.) पथ्यापिप्पलीसंयुक्तं चूर्ण सौवर्चलं पिबेत् । मस्तुनोष्णोदकेनापि बुद्धा दोषगतिं भिषक् ।। चतुर्विधम जीर्णश्च मन्दानलमथारुचिम् । आध्मानं वातगुल्मञ्च शूलञ्चाशु विनाशयेत् ॥ हर्र, पीपल और सचल (काला नमक) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें | इसे मस्तु या उष्ण जल इत्यादि रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे चार प्रकार की अजीर्ण, मन्दाग्नि, अरुचि, अफारा, वातज गुल्म और शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ( मात्रा --- १ - १॥ माशा | ) (३९०८) पथ्याचं चूर्णम् (२) (बृ. मा. भा. प्र. । आमवाता. ) पथ्याविश्वयवानीभिस्तुल्याभिश्चूर्णितं पिबेत् । तोष्णोदकेनापि काञ्जिकेनाऽथवा पुनः ॥ [ पकारादि आमवातं निहन्त्याशु शोथं मन्दाग्नितामपि । पीनसं कासहृद्रोगं स्वरभेदमरोचकम् ॥ हरे, सोंठ और अजवायन समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे तक्र, उष्णजल या काञ्जीके साथ पीने से आमवात, शोथ, मन्दाग्नि, पीनस, खांसी, हृद्रोग, स्वरभेद और अरुचिका नाश होता है । ( मात्रा - २ - ३ माशे । ) (३९०९) पथ्यायोगः ( वृं. मा. । कुष्टा.) शोथपाण्डुामयहरी गुल्ममेहकफापहा । कच्छूपामाहरी चैव पथ्या गोमूत्रसाधिता ।। हरेको गोमूत्र में पकाकर सुखा कर चूर्ण करके रखें। इसके सेवन से शोथ, पाण्डु, गुल्म, प्रमेह, कफ, कच्छू और पामाका नाश होता है । ( मात्रा - ३-४ माशे । ) (३९१०) पद्मबीजयोगः (ग. नि. । कासा. ) चूर्णन्तु पद्मबीजानां मधुना संप्रयोजितम् । पित्तकासार्दितो लिह्यात्स्वास्थ्यं स लभते क्षणात् ॥ कमलगट्टे चूर्ण को शहद में मिलाकर चाटसे पित्तज खांसी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । ( मात्रा -- ३-४ माशे । दिन में ३-४ बार ।) (३९११) पद्मबीजादियोगः ( वृ. नि. र. । स्त्री. ) पद्मवीजं सितया भक्षितं दुग्धवारिणा । दृढं स्त्रीणां स्तनद्वन्द्वं मासेन कुरुते किल || For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [२९५] ____कमलगट्टेका चूर्ण और मिश्री समान भाग | रसेन मध्वाज्ययुतानि पीत्वा मिलाकर दूधके पानी (दूधको फटकी आदिसे वृद्धोपि मासात्तरुणत्वमेति ।। फाड़कर निकाले हुवे पानी ) के साथ सेवन करने | पलाश (ढाक) के बीज (पलाश पापड़ा ) से १ मासमें स्त्रीके स्तन अवश्य ही दृढ़ हो और बायबिडंग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । जाते हैं। इसमें आमलेका रस, शहद और घी मिला(३९१२) पद्मादिचूर्णम् | कर पीनेसे १ मासमें वृद्ध पुरुष भी तरुणके समान (यो. र.; वं. से. । अतिसा.) हो जाता है। पद्म समगा मधुकं बिल्वजन्तु शलाटु च। (३९१५) पलाशादिचूर्णम् पिबेत्तण्डुलतोयेन सक्षौद्रमगदं परम् ॥ (वा. भ. । उ. अ. ३४) कमल, लज्जालु ( या मजीठ ), मुलैठी और पलाशधातुकीजम्बूसमझामोचसर्जजः । बेलगिरी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। दुर्गन्धे पिच्छिले क्लेदस्तम्भनश्चूर्णमिप्यते ॥ इसे शहदके साथ चाटकर ऊपरसे चावलांका पलाश की छाल ( या गांद ), धायके फूल, पानी पीनेसे अतिसार नष्ट होता है । जामनकी छाल, लज्जालु, मोचरस और राल समान (यह योग पक्कातिसारमें उपयोगी है।) | भाग लेकर चूर्ण बनावें। (३९१३) पलाशफलादियोगः यह चूर्ण योनिकी दुर्गन्ध, पिच्छिलता (वै. म. र.। पट. ३) (चिपचिपाहट) और क्लेद (गीलेपन) को नष्ट पलाशोदुम्बरफलं मरिचैः सह भक्षितम् । करता है। कासं हेरबिभिवारैः कायक्लेशकरं निशि ॥ (३९१६) पाटलाभस्मयोगः पलाश (ढाक) और गूलरके फल तथा काली (वृ. मा. । मूत्राघा.) मिर्च समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । | सतैलं पाटलाभस्मक्षारवद्वापरिसुतम् । इसके केवल ३ बारके ही सेवनसे रात्रिमें पाढलकी राखको ६ गुने पानीमें घोलकर कष्ट देने वाली खांसी नष्ट हो जाती है । । क्षार बनानेकी विधिसे २१ बार छान लें । इसमें (मात्रा--६ माशे । शहदके साथ ।) तेल मिला कर पिलानेसे मूत्राघात नष्ट होता है। (३९१४) पलाशबीजादियोगः । (३९१७) पाठादिचूर्णम् (१) (रा. मा. । बालरो.) ( भा. प्र. । अतिसा.) पलाशबीजानि विडङ्गयुक्ता पाठां पिपा च गोदना तथा मध्यत्वगाम्रजा। न्युमिश्रितान्यामलकीफलानाम् । । अतीसारं व्यथादाहं हन्त्येवाशु न संशयः ॥ For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि पाठा और आमके वृक्षकी अन्तर्जाल समान | शठी पुष्करमूलश्च तिन्तिडीकं सदाडिमम् । भाग लेकर गायके दहीके साथ पीसकर पिलानेसे मातुलुङ्गथाश्च मूलानि मूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्।। दाह और पीडायुक्त अतिसार शीघ्र ही नष्ट सुखोदकेन मधैर्वा चूर्णान्येतानि पाययेत् । हो जाता है। अर्शः शूलं च हृद्रोगं गुल्मं चापि व्यपोहति ॥ (३९१८) पाठादिचूर्णम् (२) पाठा, बच, जवाखार, हर्र, अमलबेत, धमासा, (च. सं. । चि. अ. १८ कास.) । चीता, सेांठ, मिर्च, पीपल, सेंधानमक, कालानमक, पाठां शुण्ठी शठीं मां गवाक्षी मुस्तपिप्पलीम। बिडलवण, सटी ( कचूर ), पोखरमूल, तिन्तडीक, पिष्ट्वाधर्माम्बुना हिल्सैन्धवाभ्यां युतां पिबेत् ॥ अनारदाना और बिजौरे नीबूकी जड़की छाल पाठा, सेठ, सठी ( कचूर ), मूर्वा, इन्द्रा | समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । यणकी जड़, नागरमोथा और पीपर समान भाग इसे मन्दोष्ण जल या मद्यके साथ सेवन लेकर चूर्ण बनावें। करनेसे अर्श, शूल, हृद्रोग और गुल्म नष्ट इसमें थोड़ा सा हींग तथा सेंधानमक मिला | होता है। कर उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कफज खांसी | ( मात्रा-२ से ४ माशे तक ।) नष्ट होती है। (३९२१) पाठाद्यं चूर्णम् (१) (३९१९) पाठादिचूर्णम् (३) (वं. से. । अतिसा.) (र. र. । अतिसार.) पाठा वचा त्रिकटुकं कुष्ठं कटुकरोहिणी । पाठामोचरसं मुस्तं धातकीबिल्वनागरम् । उप्णाम्बुपीतान्येतानि श्लेष्मातीसारनाशनम्।। गुडतक्रयुतं पाने असाध्यमपि साधयेत् ॥ पाठा, बच, सांठ, मिर्च, पीपल, कूट और पाठा, मोचरस, नागरमोथा, धायके फूल, | कुटकी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । बेलगिरी और सेठ; इनके चूर्णमें समान भाग गुड़ । इसे उष्ण जलके साथ पीनेसे कफातिसार मिला कर तक्रके साथ सेवन करने से दुःसाध्य नष्ट होता है। अतिसार भी नष्ट हो जाता है। ( मात्रा-३-४ माशे । ) (३९२२) पाठाद्यं चूर्णम् (२) ( मात्रा-३ से ६ माशे तक ।) (वं. से.; वृ. नि. र.; भा. प्र; यो. र. । (३९२०) पाठादिचूर्णम् (४) आमातिसा.) ( ग. नि.; वृ. नि. र. । हृद्रोगा.) पाठाहिङ्ग्वजमोदोग्रापञ्चकोलाब्दजं रजः। पाठां वचा यवक्षारमभयामम्लवेतसम् । उप्णाम्बुपीतं सरुजं जयत्यामं ससैन्धवम् ॥ दुरालभां चित्रकं च त्र्यूषणं लवणत्रयम् ॥ पाठा, हींग, अजमोद, बच, पिप्पली, पीपला For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] तृतीयो भागः। [२९७] मूल, चव, चीता, सोंठ, नागरमोथा और सेंधा | (३९२५) पाठायं चूर्णम् (५) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। (ग. नि. । चूर्णा.) __इसे उष्ण जल के साथ पीनेसे पीडायुक्त पाठा सकृष्णा गजपिप्पली च आमातिसार नए होता है। निदग्धिका नागरचित्रकौ च । ( मात्रा--३-४ माशे।) सपिप्पलीमूलमजाजीरात्रि(३९२३) पाठाद्य चूर्णम् (३) मुस्तं च चूर्ण सुखतोयपीतम् ।। ( वा. भ. । उ. अ. २२) । हन्यात्रिदोषं चिरजञ्च शोफं। पाठादार्वीत्वक्कुष्ठमुस्तासमङ्गा ___ कुष्ठश्च चूर्णस्य हि सुप्रयोगात् ॥ तितापीताङ्गारोधतेजोवतीनाम् । पाठा, पीपल, गजपीपल, कटेली, सेांठ, चीता, चूर्णः सक्षौद्रो दन्तमांसार्तिकण्डू पाकस्रावाणां नाशनो घर्षणेन ॥ | पीपलामूल, जीरा, हल्दी और नागरमोथा समान ___ पाठा, दारुहल्दीकी छाल, कूठ, नागरमोथा, | भाग लेकर चूर्ण बनावें । मजीठ, कुटकी, हल्दी, लोध और मालकंगनी। इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे त्रिदोसमान भाग लेकर चूर्ण बनावें। पज और पुराना शोथ तथा कुष्ठ नष्ट होता है। इसे शहदमें मिलाकर मसूढों पर मलनेसे उनकी पीड़ा, खुजली, पाक और स्राव ( पाइरिया) ( मात्रा--३-४ माशे।) का नाश होता है। (३९२६) पाठाद्यं चूर्णम् (६) (३९२४) पाठाद्यं चूर्णम् (४) (ग. नि. । चूर्णा.) (वा. भ. । चि. अ. १९) । पाठा प्रतिविषा मुस्तं व्योषभूनिम्बवत्सकाः। पाठादारींवनिघुणेष्टाकटुकाभि | तिक्ताचित्रकदुस्पर्शास्तुल्यैस्तैः कुटजः समः ॥ मूत्रं युक्तं शक्रयवैश्चोष्णजलश्च । | गुडशीताम्बुना पीतो ग्रहणीहाऽग्निकारकः॥ कुष्ठी पीत्वामासमरूक्स्याद गुदकीली पाठा, अतीस, नागरमोथा, सोंठ, मिर्च, मेही शोफी पाण्डुरजीर्णी कृमिमांश्च ॥ पीपल, चिरायता, कुड़ेकी छाल, कुटकी, चीता पाठा, दारुहल्दी, चीता, अतीस, कुटकी और धमासा १-१ भाग तथा इन्द्रजौ सबके और इन्द्रजौ । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे गोमूत्र या उष्ण जलके साथ सेवन बराबर लेकर चूर्ण बनावें । इसे समान भाग गुड़में करनेसे १ मासमें कुष्ट, अर्श, प्रमेह, शोथ, पाण्डु, | मिलाकर शीतल जलके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी अजीर्ण और कृमिरोग नष्ट होता है । रोग नष्ट होता और अग्नि दीप्त होती है । ( मात्रा---३-४ माशे।) ( मात्रा--३ से ६ माशे तक ।) For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । [ २९८ ] (३९२७) पाठाद्यं चूर्णम् (७) ( र. र. । गुल्म ) पाठावचाशठीक्षारपथ्याग्निव्योषदाडिमम् । महाकञ्च त्रिफला कुष्ठयासाम्लवेतसम् ॥ मातुलुङ्गस्य मूलञ्च चूर्णमुष्णाम्बुना पिवेत् । मद्येन वा जयेद् गुल्मं हृद्रोगं शूलमाशु तत् || पाठा, बच, सठी ( कचूर ), जवाखार, ह चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल, अनारदाना, बनअदरक, हर्र, बहेड़ा, आमला, कूठ, धमासा, अमलबेत और बिजौरे नीबूकी जड़की छाल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे उष्ण जल या मद्यके साथ पीनेसे गुल्म, हृद्रोग और शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ( मात्रा ---- - ३-४ माशे ) (३९२८) पाठाचं चूर्णम् (८) ( वं. से.; भै. र.; च. द. वृ. नि. र. । ग्रहणी. ) पाठाविल्वानलव्योषं जम्बुदाडिमघातकी । कटुकातिविषा मुस्ता दार्वी भूनिम्बवत्सकैः || सर्वैरेतैः समं चूर्ण कौटजं तण्डुलाम्बुना । सक्षौद्रेण पिबेच्छर्दिज्वरातीसारशूलवान् ।। हृद्दाहग्रहणीदोषारोचकानलसादजित् || भारत पाठा, बेलगिरी, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल, जामनकी छाल, अनारदाना, धायके फूल, कुटकी, अतीस, नागरमोथा, दारूहल्दी, चिरायता और कुड़ेकी छाल १-१ भाग तथा इन्द्रजौ सबके बराबर लेकर चूर्ण बनावें । इसे शहदके साथ चाटकर ऊपरसे चावलों का पानी ( तण्डुलोदक । देखो भा. भै. र. प्रथम भाग पृ. ३५३ ) पीना चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि इसके सेवन से छर्दि (वमन), ज्वर, अतिसार, शूल, हृदयकी दाह, ग्रहणी - विकार, अरुचि और अग्निमांद्यका नाश होता है । ( मात्रा -- ३-४ माशे । ) (३९२९) पाठां चूर्णम् (९) ( च. सं. । चि. अ. २६ ) पाठा रसाञ्जनं मूर्वा तेजोहेति च चूर्णितम् । क्षौद्रयुक्तं विधातव्यं गलरोगे भिषग्जितम् ॥ पाठा, रसौत, मूर्वा, और ज्योतिष्मति समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे शहद में मिलाकर सेवन करनेसे गलरोग नष्ट होते हैं । (३९३०) पाठामूलयोगः ( वं. से.; वृं. मा. । विद्रधि. ) शमयति पाठामूलं क्षौद्रयुतं तण्डुलाम्बुना पीतम् । अन्तर्भूतं विद्रधिमुद्धतमाश्वेव मनुजस्य ॥ पाठामूलके चूर्णको शहद में मिलाकर चाटें और ऊपरसे चावल का पानी ( तण्डुलोदक | देखो भा. भै. र. प्रथम भाग पृ. ३५३ ) पियें । इसके सेवन से भयङ्कर अन्तरविद्रधि भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । ( मात्रा - - ३ - ४ माशे । ) पारदादिचूर्णम् रसप्रकरणमें देखिये । (३९३१) पारसीययमानीयोगः ( ग. नि.; वृं. मा. र. र. वं. से. । कृमिचि . ) पारसीययमानी पीता पर्युषितवारिणा प्रातः । गुडयुक्ता कृमिजाल कोष्ठगतं पातयत्याशु || १ " गुडपूर्वा " इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] - तृतीयो भागः। [ २९९] खुरासानी अजवायनके चूर्णको गुड़में मिला- | (५९३४) पारिभद्रादिक्षारः कर प्रातःकाल बासी पानीके साथ सेवन करनेसे | (ग. नि. । अर्श.) उदरस्थ कृमि शीघ्र ही निकल जाते हैं। पारिभद्रं सुधां दन्तीं ककुभं समयूरकम् । (३९३२) पारावतपुरीषयोगः गवाश्वमहिषाणां च मूत्राण्यथ समाहरेत् ॥ भस्मीकृत्य च तं क्षारं युक्त्या मधेन पाययेत् । (रा. मा. । स्त्रीरो.; वै. म. । पटल १३; ग. श्लेष्माशीसि प्रशमयेच्छयथु पाण्डुतामपि ॥ नि. । गर्भस्राव. ) रक्तजेष्वपि चास्सुि क्षीरेणाजेन शस्यते । योपितः सततं यस्या गर्भवत्याः स्रवत्यमुक् । | ऋतुं चाप्ययनं वाऽपि पिबेन्मासमथापि वा ।। पारावत्पुरीपं तो पायपेत्तण्डुलाम्भसा ।। __ पारिभद्र (नीम या फरहद ) की छाल, यदि गर्भवती स्त्रीको रक्तस्राव होता हो तो सेंड ( सेहुंड-थोहर ), दन्तीमूल, अर्जुनकी छाल उसे तण्डुलोदक ( चावलेांका पानी । बनानेकी और चिरचिटा समान भाग लेकर कूट लें । फिर विधि भा. भै. र. भाग १ पृ. ३५३ पर देखिये ।) इस चूर्णके बराबर गोमूत्र, घोड़ीका मूत्र और के साथ कबूतरको विष्ठाका चूर्ण पिलाना चाहिये। | भैसका मूत्र लेकर, उस चूर्ण और इन सब मूत्रों (३९३३) पाराशीयादिचूर्णम् को मजबूत हांडीमें भरकर उसका मुंह बंद करके ( भै. र. । क्रिमिरो.; र. र. । बालरो. ) उस पर कपड़ मिट्टी करदें । अब इस हांडीको चूल्हे पर चढ़ाकर इतना पकायें कि सब चीजें पाराशीययमानिकाधनकणाशृङ्गीविडङ्गारुणा- | चूर्ण श्लक्ष्णतरं विलीढमपि तत् क्षौद्रेण संयो जलकर राख हो जायं । __इसके बाद हांडीके स्वांग शीतल होने पर कासं नाशयति ज्वरश्च जयति प्रौढातिसारं उसमें से औषधको निकालकर पीस लें । जयेच्छदि मर्दयति क्रिमिन्तु नियतं कोणस्थ- इसे मद्यके साथ सेवन करनेसे कफज बवा मन्मलयेत ॥| सीर, शोथ और पाण्डु का नाश होता है । बकरी खुरासानी अजवायन, नागरमोथा, पीपल, के दूधके साथ देनेसे रक्तार्श भी नष्ट हो जाती है। काकड़ासिंगी, बायबिडंग और अतीस समान भाग इसे २ मास, ६ मास या १ मास तक लेकर अत्यन्त महीन चूर्ण बनावें । ( आवश्यकतानुसार ) सेवन करना चाहिये । इसे शहदके साथ सेवन करनेसे खांसी, | (३९३५) पावपिप्पलादियोगः ज्वर, प्रबल अतिसार और छर्दिका नाश होता है। | (यो. र.; भा. प्र.; वृ. नि. र. । स्त्रीरो. ) इसके सेवनसे उदरस्थ क्रिमि तो अवश्य ही निर्मूल | याऽवला पिबति पार्श्वपिप्पलं हो जाते हैं। जीरकेण सहितं हिताशना। यादिचूर्णम् जितम् ।। For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३००] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि श्वेतया विशिखपुझ्या युतं | (३९३७) पिचुमन्दाघुबर्तनम् सा सुतं जनयतीह नान्यथा । (ग. नि.। वातरो.) पारसपीपल, जीरा और सफेद सरफेांका पिचुमन्दस्य मूलानि चित्रको हस्तिपिप्पली। समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिये । त्वपत्रफलमूलानि करञ्जात्सर्षपात्तथा ॥ जो (गर्भिणी ) स्त्री पथ्य पालन पूर्वक इसे | तुल्यानि तानि सर्वाणि वल्मीकस्य च मृत्तिका। सेवन करती है उसके निश्चय ही पुत्र उत्पन्न | गवां मूत्रेण पिष्टानि सूक्ष्माण्युद्वत्तनं परम् ॥ होता है । नीमकी जड़की छाल (पाठभेदके अनुसार (३९३६) पाषाणभेदाचं चूर्णम् पत्र), चीता, गजपीपल, कर वेकी छाल पत्र फल और मूल; सरसांका पञ्चाङ्ग और बांबीकी मिट्टी (च. द. । अश्मरी.; च. सं. । चि. अ. २६) समान भाग लेकर सबका महीन चूर्ण करके उसे पाषाणभेदं दृषकं श्वदंष्ट्रा गोमूत्र में घोट लें। पाठाभयाव्योषशठीनिकुम्माः । इसकी मालिशसे ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है। हिंस्राखराश्वाशितिवारकाणा (३९३८) पिण्डारकबन्धूकयोगः __ मेर्वारुकाच्च पुपाच वीजम् ।। (वृ. नि. र. । श्लीपद.; यो. त.२ । त. ५८) उत्कुञ्चिका हिङ्गु सवेतसाम्लं पिण्डारकतरुसम्भवबन्धकशिफा च सर्पिषा स्यावे वृहत्यौ हपुपा वचा च । चूर्ण पिवेदश्मरिभेदि पकं इलीपदमुग्रं नियतं बद्धा सूत्रेण जङ्खायाम् ।। सर्पिश्च गोमूत्रचतुर्गुणं तैः॥ पिण्डारक के बन्देकी जडको धीमें पीसकर पखानभेद, बासा, गोकर, पाठा, हर्र, सेांठ, | पीने तथा उसीको सूतमें बांधकर जंघा में बांधनेसे मिर्च, पीपल, सठी (कचूर), दन्तीमूल, बालछड़, भयंकर इलीपद रोग भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। खुरासानी अजवायन, सुनिषण्णक ( चांगेरीभेद ), (३९३९) पिप्पलीचूर्णम् ककड़ी और खीरेके बीज, कलौंजी, हींग, अमल- (३. मा.; भा. प्र. । ज्वरा; शा. ध.। वेत, कटेली, कटला, हाऊबेर और बच । सब ख. २. अ. ६) चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । मधुना पिप्पलीचूर्ण लिहेकासज्वरापहम् । इस चूर्णको सेवन करनेसे अथवा इन्हीं हिका श्वासहरं कण्ठयं प्लीहन्नं बालकोचितम् ॥ चीजेोक कल्क और काथसे घृत पकाकर सेवन पीपलके चूर्णको शहदके साथ चाटनेसे करनेसे पथरी नष्ट हो जाती है । १ 'पत्राणि' पाठ भी मिलता है । (चूर्णकी मात्रा-३-४ माशे । उष्ण जलके २ योगतरङ्गिणीमें पिण्डारककी जडको ही पीने के साथ ।) लिए लिखा है, बन्देको नहीं । पीता। For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३०१] - - खांसी, ज्वर, हिचकी, श्वास और तिल्ली नष्ट । (३९४२) पिप्पलीयोगः होती है। (वृ. मा.; वं. से.। उदररो.) __ यह चूर्ण कण्ठके लिये हितकारी तथा | पलाशक्षारतोयेन पिप्पली परिभाविता । बालकांके लिये उपयोगी है। गुल्मप्लीहार्तिशमनी वह्निदीप्तिकरी मता ॥ ( मात्रा--१-१॥ माशा ।) पलाश ( ढाक ) की भस्मको छःगुने पानी में (३९४०) पिप्पलीचूर्णयोगः घोलकर क्षार बनानेकी विधिसे (रैनी चढ़ाकर ) ( रा. मा. । उदर.) | २१ बार छान लें। इस पानी में पीपलके चूर्णको यः सप्तरात्रत्रितयं सुधायाः (कई दिन तक) धोटें और फिर सुखाकर सुरक्षीरेण चूर्ण मृदितं कणाया। | क्षित रक्खें। लेढि प्रकामं मधुरश्च भुङ्कते यह चूर्ण गुल्म और तिल्ली नाशक तथा अग्नि तस्योदरच्याधिरुपैति नाशम् ॥ वर्द्धक है। पीपलके चूर्णको सेंड ( सेहुंड ) के दूधमें | ( मात्रा-४-६ रत्ती । अनुपान शहद ।) घोटकर ३ सप्ताह तक सेवन करने से समस्त उदर (३९४३) पिप्पल्यादिक्षारम् व्याधियां नष्ट हो जाती हैं। (च. सं. । चि. अ. १५ ग्रह.) पथ्य-मधुर पदार्थ । समूलां पिप्पली पाठां चव्येन्द्रयवनागरम् । ( मात्रा--४-६ रत्ती।) (३९४१) पिप्पलीमूलादिप्रयोगः चित्रकातिविषे हिङ्गु श्वदंष्ट्रां कटुरोहिणीम् ।। (ग. नि. । शूला.) वचां च कार्षिकान् पञ्चलवणानां पलानि च । कणामूलमथैरण्ड चित्रकं विश्वभेषजम् । दध्नः प्रस्थद्वये तैलसर्पिपोः कुडवद्वये ॥ हिङ्गसैन्धवसंयुक्तं सद्यः शूलहरं परम् ।। चूर्णीकृतानि निष्काथ्य शनैरन्तर्गते रसे। पीपलामूल, अरण्डमूल, चीता, सांठ, भुनी- अन्तधूम तता दग्ध्वा चूण कृत्वा घृताप्लुतम् ।। हुई हींग और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण पिबेत्पाणितलं तस्मिञ्जीर्णे स्यान्मधुराशनः । बनावें । वातश्लेष्मामयान्सर्वान् हन्याद्विषगरांश्च सः ॥ इसे ( उष्ण जलके साथ ) सेवन करनेसे पीपल, पीपलामूल, पाठा, चव, इन्द्रजौ, शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। सांठ, चीता, अतीस, हींग, गोखरु, कुटकी और (मात्रा-४-६ रत्ती।) बच ११-१। तोला तथा सेंधा नमक, सञ्चल नमक, १-वृन्दमाधव तथा भावप्रकाशमें श्लोक भिन्न विड लवण, काच लवण और सामुद्र लवण ५-५ है. योग यही है। तोले लेकर सबको कूटकर चूर्ण बनावें और फिर For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३०२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि ४ सेर दही और आधा आधा सेर तेल और घी । इसे शहदमें मिलाकर खानेसे पित्तज अरुचि को एकत्र मिलाकर उसमें वह चूर्ण मिलाकर | नष्ट होती है। मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश जल जाय तो | (मात्रा-६ माशे से ९ माशे तक । ) उसे एक मज़बूत हांडीमें भरकर उसका मुख बन्द । (३९४५) पिप्पल्याटिचर्णम (२) करके उसपर ३-४ कपर मिट्टी कर दें और उसे (वृ. नि. र. । कास.) चूल्हे पर चढ़ाकर इतनी देर पकायें कि जिससे समस्त ओषधियोंकी भस्म हो जाय। इसके बाद हांडी पिप्पली तवराजश्च तवक्षीरं त्रयं समम् । के स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको मधुसपियुतं भुक्तं पित्तकासविनाशनम् ।। निकाल कर पीस लें। ___ पीपल, तवराज ( यवासशर्करा-तुरञ्जबीन ) और बंसलोचन समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। ___इसे १ पल मात्रानुसार घीमें मिलाकर पियें इसे शहद और धीमें मिलाकर चाटने से और पच जाने पर मधुर (दूध भात इत्यादि ) पित्तज खांसी नष्ट होती है। भोजन करें। (३९४६) पिप्पल्यादिचूर्णम् (३) यह क्षार वातकफज रोग और विष विकारों ( वा. भ. । कल्प. अ. ३ ) को नष्ट करता है। पिप्पलीदाडिमक्षारहिङ्गशुण्ठयम्लवेतसान् । ( व्यवहारिक मात्रा-१ से ३ माशे तक । ससैन्धवान् पिबेन्मथैः सर्पिपोष्णोदकेन वा ॥ अनुपान-उष्ण जल ।) प्रवाहिकापरिस्रावे वेदनापरिकर्त्तने ॥ (३९४४) पिप्पल्यादिचूर्णम् (१) पीपल, अनारदाना, जवाखार, हींग, सेठ, (ग. नि. । अरुचि.) अमलबेत और सेंधानमक बराबर बराबर लेकर पिप्पल्यामलकं मूर्वा चन्दनं कमलोत्पलम। | चूर्ण बनावें । उशीरं पद्मकं रोधमेला लामजकं तथा ॥ इसे मद्य, धी अथवा उष्ण जलके साथ एतानि समभागानि क्षौद्रेण सह संसृजेत् । सेवन करनेसे वमन विरेचनके मिथ्यायोगसे द्विगुणां शर्करां दत्त्वा पित्तजायामथारुचौ ॥ उत्पन्न हुई प्रवाहिका, अतिसार, शूल और कतर नेके समान वेदना नष्ट होती है। पीपल, आमला, मूर्वा, सफेद चन्दन, कमल, नीलोत्पल, खस, पद्माक, लोध, इलायची और (३९४७) पिप्पल्यादिचूर्णम् (४) लामज्जक (खस भेद-पीला खस) समान भाग | (ग. नि.; वृ. नि. र.; . मा. । गुल्मा.) लेकर कूट छानकर चूर्ण बनावें और फिर उसमें | पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकाजाजिसैन्धवम् । उस सबसे २ गुनी खांड मिला लें। पीतं तु सुरया हन्ति गुल्ममाशु सुदुस्तरम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] तृतीयो भागः। [३०३] पीपल, पीपलामूल, चीता, जीरा और सेंधा । कृमिकण्ड्वरुचिहरं सुरयोष्णोदकेन वा । नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । नातः परतरः किश्चिदामशोथनिषूदनम् ॥ इसे मद्यके साथ सेवन करने से दुस्साध्य पीपल, पीपलामूल, सेंधा नमक, कालाजीरा, गुल्म भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। | चव, चीता, तालीसपत्र और नागकेसर; हरेक ( मात्रा-२-३ माशे ।) १०-१० तोले । सञ्चल ( काला नमक ) २५ (३९४८) पिप्पल्यादिचूर्णम् (५) तोले; काली मिर्च, जीरा और सांठ ५-५ तोले, (शा. ध. । खं. २ अ. ६) अनारदाना २० तोले तथा अमलबेत १० तोले लेकर सबको कूटकर चूर्ण बनावें । कर्षमात्रा भवेत्कृष्णा त्रिता स्यात्पलोन्मिता। खण्डात् पलं न विज्ञेयं चूर्णमेकत्र कारयेत् ॥ इसके सेवनसे अग्नि दीप्त होती तथा अर्श, कोंन्मितं लिहेदेतत्क्षौद्रेणाध्माननाशनम् । ग्रहणी, उदररोग, गुल्म, भगन्दर, कृमि, कण्डू गाढविट्कोदरकफान् पित्तशूलश्च नाशयेत् ॥ । | और अरुचि नष्ट हो जाती है । आमशोथके लिये इससे उत्तम अन्य एक भी पीपल ११ तोला, निसोत ५ तोले और प्रयोग नहीं है। खांड ५ तोले लेकर चूर्ण बनावें। अनुपान-सुरा या उष्ण जल । ___इसमेंसे १। तोला चूर्ण शहदके साथ चाट | ( मात्रा–२--३ माशे।) नेसे आध्मान ( अफारा ), गाढविट्कता (मलका | (३९५०) पिप्पल्यादिचूर्णम् (७) कठिन होना ), उदररोग और पित्तशूलका नाश (वृ. नि. र. । बालरोग.) होता है। पिप्पली मधुकं जम्बूरसालतरुपल्लवाः। (३९४९) पिप्पल्यादिचूर्णम् (६) चूर्णोऽयं मधुना चेति तृष्णाप्रशमनः शिशोः ॥ ( वं. से.; वृ. नि. र. । कृमि.; भा. प्र. । आमवात. पीपल, मुलैठी तथा आम और जामनके पिप्पली पिप्लीमूलं सैन्धवं कृष्णजीरकम् । पत्ते समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । चव्यचित्रकतालीसपत्रकं नागकेसरम् ॥ इसे शहदके साथ चटानेसे बालकोंकी तृषा | ( भड़क ) शान्त होती है। एषां द्विपलिकान्भागान् पश्च सौवर्चलस्य च ।। ( मात्रा--४ रत्तीसे १ माशा तक ।) मरिचाजाजिशुण्ठीनामेकैकस्य पलं पलम् ॥ दाडिमात्कुडवश्चैव द्वे पले चाम्लवेतसात् । । (२९५ (३९५१) पिप्पल्यादिचूर्णम् (८) सर्वमेकत्र संक्षुध योजयेत्कुशलो भिषक् ॥ | (वृ. नि. र. । बालरो.) पिप्पल्याघमिदं ख्यातं नष्टवड्नेः प्रदीपनम् । | पिप्पलीविजयाशुण्ठीचूर्ण मधुयुतं भिषक् । अशौसि ग्रहणी गुल्ममुदरं सभगन्दरम् ॥ दत्त्वा निहन्त्युग्रग्रहणीरुजं कीर्तिमवाप्नुयात् ।। For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३०४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि पीपल, भांग और सांठके समानभाग- यदि बालक अधिक रोता हो तो उसे पीपल मिश्रित चूर्णको शहदके साथ देनेसे भयङ्कर और त्रिफला (हर, बहेड़ा और आमला ) के संग्रहणी भी नष्ट हो जाती है। समानभाग-मिश्रित चूर्णको घी और शहदमें यह प्रयोग वैद्यांको कीर्ति दिलानेवाला है। | मिलाकर चटाना चाहिये । (३९५२) पिप्पल्यादिचूर्णम् (९) (३९५४) पिप्पल्यादिचूर्णम् (११) (यो. र. । स्लीपद; वृ. यो. त. । त. १०९; | (वं. से.; ग. नि.; वृ. नि. र. । स्वरभङ्ग.) र. र.; च. द.; वृ. मा.; वं. से. । इलीपद.) पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं विश्वभेपनम् । पिप्पली त्रिफला दारु नागरं सपुनर्नवम् । पिबेन्मूत्रेण मतिमान् कफज स्वरसंक्षय ।। भागैद्विपलिकैस्तेषां तत्समं वृद्धदारकम् ॥ पीपल, पीपलामूल, काली मिर्च और सेठ कानिकेन तु तच्चूर्ण पिबेत्कर्षप्रमाणतः। समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे गोमूत्रके जीर्णे चापरिहारं स्याद् भोजनं सर्वकामिकम् ॥ साथ सेवन करनेसे कफज स्वरभंग ( गलाबैठना) श्लीपदं वातरोगांश्च प्लीहगुल्ममरोचकम् । रोग नष्ट होता है। अमिं च कुरुते घोरं भस्मकश्च प्रयच्छति ॥ ( मात्रा-२-३ माशे । दिनमें २-३ पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, सांठ, बार।) और पुनर्नवा ( साठी) १०-१० तोळे तथा (३९५५) पिप्पल्यादिचूर्णम् (१२) विधारा इन सबके बराबर लेकर चूर्ण बनावें । (यो. र. । योनिरो.) यह चूर्ण ११ तोलेकी मात्रानुसार काजीके पिप्पलीविडङ्गटङ्कणसमचूर्ण या पिबेत्पयसा। साथ सेवन करें और औषध पच जाने पर इच्छा-ऋतुसमये न हि तस्या गर्भः संजायते कापि ॥ नुसार आहार करें । इसके सेवनकालमें किसी जो स्त्री ऋतुकालमें (मासिक धर्मके समय) विशेष परहेज़की आवश्यकता नहीं है। पीपल, बायबिडंग और सुहागे के समान भाग इसके सेवनसे स्लीपद, वातव्याधि, तिल्ली, | मिश्रित चूर्णको दूधके साथ पीती है उसके गर्भ गुल्म, अरुचि और भस्मक रोग नष्ट होता तथा कदापि नहीं रहता। अग्नि दीप्त होती है। (३९५६) पिप्पल्यादिचूर्णम् (१३) (व्यवहारिक मात्रा--३-४ माशे) | (वृ. नि. र. । बालरो. ) (३९५३) पिप्पल्यादिचूर्णम् (१०) पिप्पली ग्रन्थिकं विश्वा त्रायमाणा च दार्विका। (यो. र.; भा. प्र. । बालरो.) पथ्येभपिप्पली भागी लवङ्गं टङ्कणस्तथा ।। पिप्पलीत्रिफलाचूर्ण घृतक्षौद्रपरिप्लुतम् । कुमारी पालपथ्या च सैन्धवस्त्वजवारिणा । बालो रोदिति यस्तस्मै लेढुं दद्यात्सुखावहम् ॥ घर्पितं पाययेत्मातदिटकं फुल्लिकापहम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - करती है। चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३०५] पीपल, पीपलामूल, सोंठ, त्रायमाना, दारु- | अजीर्ण, शूल, गुल्म, अफारा और अग्निमांच नष्ट हल्दी, हर्र, गजपीपल, भरंगी, लौंग, सुहागेकी | होता है। खील, घृतकुमारी, छोटी हर्र और सेंधा नमक (३९५९) पिप्पल्यादिचूर्णम् (१६) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे बकरीके | - (र. म. । अ. ९) मूत्रके साथ पिलानेसे बालकोंका उत्फुल्लिका रोग | पिप्पली शृङ्गवेरश्च मरिचं केसरं तथा । नष्ट होता है। घृतेन सह पातव्यं वन्ध्यागर्भमदं परम् ॥ मात्रा-८ माशे । ( व्यवहारिक मात्रा- | पीपल, सांठ, काली मिर्च और नागकेसरके आधेसे २ माशे तक ।) चूर्णको घीके साथ पीनेसे वन्ध्या स्त्री गर्भ धारण (३९५७) पिप्पल्यादिचूर्णम् (१४) (वं. से.; वृ. नि. र. । बालरो.) (३९६०) पिप्पल्याचं चूर्णम् (१) (वं. से. । ग्रहण्य.; च. सं. । चि. अ. १९; पिप्पलीमधुकानाञ्च२ चूर्ण समधुशर्करम् । ग. नि. । परिशिष्ट चूर्णा.) .. रसेन मातुलुङ्गस्य हिक्काछर्दिनिवारणम् ।। समलां पिप्पली क्षारौ द्वौ पञ्च लवणानि च । पीपल और मुलैठीका चूर्ण समान भाग मातुलुङ्गाभयारास्ना शठी मरिचनागरम् ॥ मिलाकर उसमें इन दोनेांके बराबर खांड मिलावें। कृत्वा समांशं तच्चूर्ण पिबेत मातः सुखाम्बना । इसे शहदमें मिलाकर चाटकर ऊपरसे बिजौरे श्लैष्मिके ग्रहणीदोषे बलमांसाग्निवर्द्धनम् ।। नीबूका रस पीनेसे हिचकी और वमन नष्ट पीपल, पीपलामूल, जवाखार, सजीखार, होती है। पांचों नमक, बिजौ रेकी जड़, हरं, रास्ना, शठी (३९५८) पिप्पल्यादिचूर्णम् (१५) (कचूर), कालीमिर्च और सेठ समान भाग लेकर (वृ. नि. र. । बालरो.) चूर्ण बनावें। पिप्पली रुचकं पथ्याचूर्ण मस्तुजलं पियेत् । । इसे प्रातःकाल मन्दाष्ण जलके साथ सेवन सर्वाजीर्णहरं शूलगुल्मानाहामिमान्यजिष् ॥ ! | करनेसे कफज संग्रहणी नष्ट होती और बल, मांस तथा जठराग्निकी वृद्धि होती है। पीपल, काला नमक और हरैके चूर्णको | (मात्रा-२-३ माशे ।) छाछके पानीके साथ पिलानेसे हर प्रकारकी (३९६१) पिप्पल्याचं चूर्णम् (२) , उत्कुल्लिका रोगमें बालकके पैटपर अफारा होता है, श्वास तेज चलता है भौर दाहिनी कोख में सूजन (ग. नि. । अरोचक.) .. होती है । इसीको डव्या कहते हैं । पिप्पली पिप्पलीमूल मरिचानि हरीतकी। २ " पिप्पलीमरिचामान्तु" इति पाठान्तरम् । शृङ्गवेरं यवक्षारो रो, तेजोवती तया ॥ For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३०६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि एतानि समभागानि मधुना सह लेहयेत् । षड्भागाः सैन्धवस्योक्तास्तथाों हिङ्गुतः अरोचके श्लेष्मभवे प्रधान मुखधावनम् ॥ स्मृतः। पीपल, पीपलामूल, काली मिर्च, हरी, सोंठ, | निस्तुपानां विडङ्गानामेको भागः प्रकीर्तितः ॥ जवाखार, लोध और चव समान भाग लेकर | तत्सर्वमेकतः कृत्वा सूक्ष्मचूर्णन्तु कारयेत् । चूर्ण बनावें। लवणं दीपनमिदं वातश्लेष्मविकारनुत् ॥ ___इसे शहदमें मिलाकर चाटनेसे कफज अरुचि रुच्यमन्नेन संयुक्तं केवलं वा हितं तथा ॥ नष्ट होती है। पीपल ४ भाग, सञ्चल ( काला नमक ) कफज अरुचिमें बार बार मुख-प्रक्षालन ! पाच भाग, जीरा और सेठ ३-३ भाग, काली करना लाभदायक है। मिर्च ७ भाग, अनारका रस ( शुष्क ) अथवा ( मात्रा-१ माशा । दिनमें कई बार सेवन | अनारका सत ७ भाग, तिन्तडीक २ भाग, अम्लकरना चाहिये । ) बेत ४ भाग, सेंधा नमक ६ भाग तथा आधा भाग हींग और १ भाग बायबिडंगके चावल, (३९६२) पिप्पल्याचं चूर्णम् (३) (गिरी) लेकर सबको कूट छानकर चूर्ण बनावें । (ग. नि.; वै. जी. । कासा.) . इसे भोजनके साथ ( अन्नमें मिलाकर ) पिप्पली पिप्पलीमूलं नागरं सविभीतकम् । या पृथक् ( गरम पानीके साथ ) खानेसे वातलीडं मधुयुतं चूणे कासरोगनिवारणम् ॥ कफज विकार नष्ट होते हैं । यह अग्निदीपक और पीपल, पीपलामूल, सोंठ और बहेड़ा समान रोचक है। भाग लेकर चूर्ण बनावें। (मात्रा १-१॥ माशा ।) ___इसे शहदके साथ चाटनेसे खांसी नष्ट | (३९६४) पिप्पल्याचं चूर्णम् (५) होती है। (वं. से.; ग. नि. । ग्रहणी.; शा. ध. । चूर्णा.; ( मात्रा-३ माशे । दिनमें ३-४ बार वा. भ.२ । चि. अ. १०) चाटें ।) . . पिप्पली रहती व्याघी यवक्षारः कलिङ्गकः । (३९६३) पिप्पल्या पूर्णम् (४) चित्रकं सारिवा पाठा शठी लवणपश्चकम् ।। (ग. नि. । परिशि. चूर्णा.) तच्चूर्ण पाययेहध्ना मुरयोष्णाम्भसापि वा। मारुतग्रहणीदोपशमनं दीपनं परम् ॥ चत्वारि पिप्पलीनां तु पश्च सौवर्चलोद्भवाः ।। वायविडंगको पानीकी सहायतासे जरा नम (भाई) जीरकस्य त्रयो भागाः शुण्ठया भागत्रयं तया॥ "करके बोखलीमें कूटनेसे उसके चावल निकल भाते हैं। सप्त सस स्पृता भागास्तीक्ष्णदाडिमसारयोः।। २ वाग्भटमें श्लोक भिन्न है परन्तु प्रयोग यही है। द्वौ भागौ तिन्तिडीकस्य चत्वारश्चाम्लवेतसात्।। केवल शठीके स्थानमें सेठि लिखी है। For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३०७] पीपल, छोटी और बड़ी कटैली, जवाखार, रसस्तथैवाईकनागरस्य इन्द्रजौ, चीता, सारिवा, पाठा, सठी ( कचूर ) पेयोऽथ जीर्णे पयसानमधात् ॥ और पाचों नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। पीपल, जीरा, गजपीपल, कटेली, सोंठ, इसे दही, मद्य या उष्ण जलके साथ सेवन | चीता, हल्दी, पीपलामूल, पाठा और नागरमोथा करनेसे वातज संग्रहणी नष्ट होती और अग्नि | समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । दीप्त होती है। इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे (३९६५) पिप्पल्याचं चूर्णम् (६) पुराना त्रिदोषज शोथ नष्ट हो जाता है । ( ग. नि. । चूर्णा.) चिरायता और सांठ के कल्कको अद्रक के पिप्पली चन्दनं मुस्तामुशीरं कटुरोहिणी। रसमें मिलाकर चटानेसे भी शोथ नष्ट होता है। पाठा वत्सकीजश्च हरीतक्यो महौषधम् ॥ __ औषध पच जाने पर दूध भात खाना चाहिये । एतदामसमुत्यानमतीसारं सवेदनम् । (चूर्णकी मात्रा-२-३ माशे ।) कफात्मकं सपित्तश्च पुरीएं चाशु रुन्धति ॥ । (३९६७) पिप्पल्याचं चूर्णम् (८) पीपल, सफेद चन्दन, नागरमोथा, खस, (वृ. नि. र. । अरुचि.) कुटकी, पाठा, इन्द्रजो, हर्र और सेठि समान भाग पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः । लेकर चूर्ण बनावें। मरिचं दीप्यकश्चैव वृक्षाम्लं साम्लवेतसम् ॥ इसके सेवनसे पीडायुक्त आमातिसार, कफा- एलालवङ्गशालूकदधित्थं चेति कार्षिकम् । तिसार और पित्तातिसार शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। प्रदेयं चाति शुद्धायाः शर्करायाश्चतुः पलम् ॥ ( मात्रा–२-३ माशे । अनुपान उष्ण चूर्णमग्निप्रसादः स्यात्परमं रुचिवर्द्धनम् । जल ।) प्लीहकार्यमथाहसि श्वासं शूलं ज्वरं वमिम्।। निहन्ति दीपयत्यग्निं बलवर्णरुचिप्रदम् । (३९६६) पिप्पल्याचे चूर्णम् (७) वातानुलोमनं हृद्यं जिहाकण्ठविशोधनम् ।। ___ (वं. से.; यो. र.; वृ. नि. र. । शोथरो.) पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, काली पिप्पल्यजाजी गजपिप्पली च | मिर्च, अजवायन, तिन्तडीक, अम्लबेत, इलायची, ___ निदग्धिका नागरचित्रके च।। | लांग, जायफल और कैथका गूदा ११-१। तोला रजन्यथो पिप्पलिमूलपाठा तथा अत्यन्त स्वच्छ खांड २० तोले लेकर चूर्ण मुस्तश्च चूर्ण सुखतोयपीतम् ॥ बनावें। हन्यात्रिदोषं चिरजश्च शोथं यह चूर्ण अग्निदीपक, अत्यन्त रोचक, तथा कल्कोऽथ भूनिम्बमहौषधाभ्याम् । तिल्ली, कृशता, अर्श, शूल, श्वास, ज्वर और वमन For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि नाशक बलवर्धक, वर्ण-संस्कारक (रंगको ठीक । नमक, सञ्चल (काला नमक), सांठ और अजमोद करने वाला), वायुको अनुलोम ( यथोचित मार्गः समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। गामी) करने वाला, हृदयके लिये हितकारक तथा इसे दही, मद्य, आसव, काजी या घोके जिहा और कण्ठको शुद्ध करने वाला है। साथ सेवन करने से वातज हृद्रोग शान्त होता है। ( मात्रा-२-३ माशे।) ___ इसे वमन विरेचनादि द्वारा शरीर शुद्धि करनेके पश्चात् सेवन कराना चाहिये । (३९६८) पिप्पल्या चूर्णम् (९) ( मात्रा-१-१॥ माशा) (ग. नि. । उदररोगा.; वा. भ. । चि. अ. १५; १५ (३९७०) पिप्पस्यायोऽगदः . च. सं. । चि. अ. १८) (पं. से. । विष.) विप्पली नागरं दन्ती समभागास्त्रयोऽभया । षीविषात मस्निग्धमय चापश्च शोषितम् । त्रिगुणाऽया विडादधैं तच्चूर्ण प्लीहनाशनम् ॥ पाययेदगदं मुख्यमिदं दृषीविषापहम् ॥ उष्णाम्बुक्षीरगोमूत्रैर्यथावत्संप्रयोजयेत् ॥ पिप्पली ध्यामकं मांसी लोध्रमेला सुवचिंका । पीपल, सोंठ और दन्तीमूल १-१ भाग, बालक परिपेला च तथा कनकगैरिकम् ॥ हरै ३ भाग और बायविडंग आधा भाग लेकर सौद्रयुक्तोऽगदो हथेष दृषीविषमपोहति । चूर्ण बनावें। दूषीविषारिनामायं न कैश्चिदपिवाध्यते ॥ ____ इसे उष्ण जल, दूध या गोमूत्र के साथ पीपल, कत्तृण (अभावमें खस), जटामांसी, सेवन कराने से प्लीहा (तिल्ली) नष्ट होती है। | लोध, इलायची, सज्जीक्षार ( या सश्चल नमक ), (३९६९) पिप्पल्या चूर्णम् (१०) सुगन्धबाला, केवटी मोथा और सोनागेरु समान भाग मिलाकर चूर्ण बनावें । (वं. से. । द्रो.; आ. वे. वि. । चि. अ. १६; रोगीको स्निग्ध करनेके पश्चात् वमन विरेवृ. यो. त. । त. ९९; ३. नि.र. । हृद्रो.) चन कराके यह अगद शहदके साथ सेवन करापिप्पल्येला वचा हिज यवक्षारोऽय सैन्धवम् । | नेसे दूषी विष ( अन्नपानादि के दोषसे उत्पन्न हुवा सौवर्चलमयो शुण्ठी हयजमोदा च चूर्णितम् ॥ | विष) नष्ट होता है। दध्ना मधेनासवेन कालिकेन घृतेन वा। । (३९७१) पिप्पल्याणो योगः पाययेच्छुद्धदेहश्च वातदोगशान्तये ॥ (ग. नि. । हृदो.) पीपल, इलायची, बच, हींग, जवाखार, सेंधा | पिप्पली वीजपूरन नवनीतयुतं द्वयम् । 1 घरक और माग्भट में त्रिगुणाकी जगह द्विगुणा हच्छूल भतितं हन्ति हृद्रोगं चाति दारुणम् ।। पाठ है, इसके अतिरिक्त चरकमें इस योगमें चित्रकमी। कुटभट नतं कुठं यष्टोचन्दनगैरिकमिति पाठालिखा है तथा विडा १ भाग लिखी है। For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्णमकरणम् ] तृतीयो भागः। [३०९] पीपल और बिजौरे नीबूकी जड़की छालके | प्रियङ्ग, अतीस, नागरमोथा, नागकेसर, त्रायमाना, चूर्ण को नवनीत (नैनी घी-मक्खन) में मिलाकर | चिरायता, कुटकी, बहेड़ा, अनारकी छाल, तबकी खानेसे हृदय-शूल और दुस्साध्य हृद्रोग नष्ट | हरताल और मनसिल १-१ भाग तथा छारछरीला होता है। और रसौत ३-३ भाग लेकर चूर्ण बनावें। (३९७२) पीतकचूर्णम् ___ इसे शहद में मिलाकर मलनेसे मसूढ़े, गले, (च. द.; . मा.; वं. से. । मुखरो.; यो. त.। मुंह, होठ, जीभ और तालु के रोग नष्ट होते हैं । त. ६९; घ. सं. । चि. अ. २६ त्रिमी.; । (३९७४) पुण्डरीकयोगः र. र.; भै. र. । मुखरो.; वा. भ. । उ. अ. २०; वृ. यो. त. । त. १२८; (३. मा. । नेत्ररोगा.) ग. नि. । चूर्णा.) | एक वा पुण्डरीकं च छागक्षीरेण सेषितम् । मनःशिला यवक्षारो हरितालं ससैन्धवम। रागाश्रुवेदना हन्यात्क्षतपाकात्ययाजकाः॥ दारूत्वक चेति तच्चूर्ण माक्षिकेण समायुतम् ।। केवल पुण्डरिया(या श्वेत कमल)को ही बकरीके मूच्छितं घृतमण्डेन कण्ठरोगेषु धारयेत् । दूधमें पीसकर सेवन करने से आंखोकी लाली, मुखरोगेषु च श्रेष्ठं पीतकं नाम कीर्तितम् ॥ | अश्रुस्राव, पीड़ा, क्षत, पाकात्यय और अजकाजात शुद्ध मनसिल, जवाखार, शुद्ध तबकिया | रोग नष्ट होता है। हरताल, सेंधानमक और दारु हल्दीकी छाल समान | (३९७५) पुत्रजीवमज्जायोगः भाग लेकर चूर्ण बनावें। ( वृ. नि. र. 1 विष.) __इसे शहद और घीमें मिला कर मुखमें । पुत्रजीवस्य मज्जां च निष्कमात्रां गवांपयः । धारण करनेसे कण्ठरोग तथा मुखरोग नष्ट होते हैं। पिष्वा चोग्रतरं हन्यानानायोगकृतं विषम् ॥ (३९७३) पीतकं चूर्णम् जियापोतेकी मजा (मींगी) ५ माशे ... (ग. नि. । चूर्णा. ). लेकर उसे गायके दूधमें पीसकर पिलानेसे अत्यन्त पटोलदा:मधुकं प्रियङ्गवतिषिपा घनम् ।। उग्र दूषी विष ( अन्न पानादि के दोष या संयोग विरुद्ध पदार्थोके योगसे उत्पन्न विष ) नष्ट सनागपुष्पं त्रायन्ती भूनिम्बं तिक्तरोहिणी ॥ होता है। विभीतकं दाडिमत्वग्धरितालं मनःशिला। समांशानि त्रिभागांशं सशैलेयं रसाउनम् ॥ (३९० (३९७६) पुनर्नवादिचूर्णम् (१) पीतकं चूर्णमेतद्धि मध्वाक्तं प्रतिसारणम् । (वं. से.; भा. प्र.; भै. र. । आमवात.; वृ. यो. दन्तमूलगलास्योष्ठजिहातालविकारिणाम् ।। त.। त. ९३ ) पटोल, दारुहल्दीकी छाल, मुलैठी, फूल- | पुनर्नवामृताशुण्ठीशताहायुद्धदारकम् । For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३१०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि शठी मुण्डितिकाचूर्णमारनालेन पाययेत् ॥ (३९७८) पुनर्नवादिचूर्णम् (३) आमाशयोत्थवातघ्नं चूणे पेयं सुखाम्बुना। (ग. नि. । उदर.) आमवातं निहन्त्याशु गृध्रसीमुद्धतामपि ॥ पुनर्नवा (साठी-बिसखपरा), गिलोय, पुनर्नवाशृङ्गवेरं देवदारु च भागिकाः। सेठ, सोया, बिधारा, शठी (कचूर ) और यवानी स्याद्विडषं च चित्रकश्चार्द्धभागिकाः ॥ त्रित्रिगुणितं चूर्णमुष्णेन पयसा पिबेत् । मुण्डी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे काजीके साथ पीनेसे आमाशयगत गोमूत्रेणाथवा प्लीहशोफार्शः पाण्डुरोगजित्॥ वायु, तथा उष्ण जलके साथ पीनेसे आमवात और पुनर्नवा ( साठी-विसखपरा ), सेठ और कष्टसाध्य गृध्रसी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। देवदारु १-१ भाग; अजवायन, बायबिडंग और चीता आधा आधा भाग; और निसोत ३ भाग (३९७७) पुनर्नवादिचूर्णम् (२) लेकर चूर्ण बनावें। ( ग. नि.; भै. र.'; वं. से.; वृ. नि. र.; यो. र.; इसे उष्ण जल या गोमूत्रके साथ पीनेसे वृ. मा. । शोथ.; वृ. यो. त. । त. १०६) | तिल्ली, शोथ, अर्श, और पाण्डुरोग नष्ट होता है । पुनर्नवामृतापाठादारुबिल्वं श्वदंष्ट्रिका। वृहत्यौ द्वे रजन्यौ द्वे पिप्पलीमूलचित्रकम् ॥ पुनर्नवादिचूर्णम् (४) समभागानि सञ्चये गवांमूत्रेण वै पिबेत् । (च. सं. । चि. अ. २६) बहुमकारं श्वयधुं सर्वगात्रविसारिणम् ॥ रसप्रकरणमें देखिये। हन्ति चाशूदराण्यष्टौ व्रणांश्चैवोद्धतानपि ॥ (३९७९) पुनर्नवादियोगः (१) पुनर्नवा (साठी-बिसखपरा ), गिलोय, पाठा, देवदारु, बेलछाल, गोखरु, दोनो कटेली, (वृ. नि. र. । गुल्म.) हल्दी, दारुहल्दी, पीपलामूल और चीता समान | श्वेतं पुनर्नवामूलं तुल्यं सैन्धवचूर्णितम् । भाग लेकर चूर्ण बनावें । सघृतं लेहयेद्गुल्मी क्षौदैर्वाथ जलोदरी ।। ___ इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे समस्त ____ सफेद पुनर्नवा ( साठी-बिसखपरा) की शरीरपर फैला हुवा अनेक प्रकारका शोथ, आठां जड़ और सेंधा नमक समान भाग मिलाकर चूर्ण प्रकारके उदररोग और भयङ्कर व्रण (घाव ) | बनावें । शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। ___ इसे घृतके साथ सेवन करनेसे गुल्म, और १ भैषज्यरत्नावली में गिलोयकी जगह हर्र और | शहदके साथ सेवन करनेसे जलोदर नष्ट होता है। पीपलामूलकी जगह पीपल तथा गजपीपल लिखा है एवं वासा अधिक है। (मात्रा-१-१॥ माशा) For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चूर्णमकरणम् ] तृतीयो भागः। [३११] (३९८०) पुनर्मवादियोगः (२) पोखरमूलके चूर्णको शहदके साथ चाटनेसे (ग. नि. । कासा.) हृदयका शूल, श्वास, खांसी, क्षय और हिक्का (हिचूर्ण पुनर्नवारक्तशालितण्डुलशर्करम् । चकी) नष्ट होती है। रक्तष्ठीवी पिबेत्सिद्धं द्राक्षारसपयोघृतैः ॥ ( मात्रा--१-१॥ माशा ) पुनर्नवा ( बिसखपरा-साठी ) लाल चावल । (३९८३) पुष्करमूलचूर्णम् (२) ( साठीचावल ) और खांड समान भाग लेकर (वै. म. र. । पटल १८) चूर्ण बनावें। सौद्रेण पौष्कर रेणुमेकविंशतिवासरान् । इसे द्राक्षा ( अंगूर ) के रस, घी और दूधके । लिहेच्च देहदौर्गन्ध्यं नश्यनिःशेषमङ्गिनाम् ॥ साथ सेवन करनेसे रक्तयुक्त (जिसमें खांसते । २१ दिन तक पोखर मूलके चूर्णको शहदमें समय मुंहसे रक्त निकलता हो वह ) खांसी नष्ट होती है। मिलाकर चाटने से शरीरकी दुर्गन्ध नष्ट हो ( मात्रा-चूर्ण ६ माशे । घी १ तो. जाती है। अंगूरका रस २ तोले और दूध १० तोले) (३९८४) पुष्करादिचूर्णम् (३९८१) पुनर्नवायोगः (ग. नि.; भै. र.; वृ. मा. । बालरो.) ( वृ. मा.; वं. से.; ग. नि. । रसायन.) | पुष्करातिविषाङ्गीमागधीधन्वयासकैः । पुनर्नवस्या पलं नवस्य तच्चूणे मधुना लोढं शिशूनां पञ्चकासनुत् ॥ पिष्ट्वापिबेद्यः पयसाईमासम् । पोखरमूल, अतीस, काकड़ासिंगी, पीपल मासद्वयं तत्रिगुणं समां वा और धमासा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । जीर्णोऽपि भूयः स पुनर्नवः स्यात् ॥ इसे शहदमें मिलाकर चटानेसे बालकांकी १५ दिन, २ महीने, ६ महीने या १ वर्ष | पांच प्रकारकी खांसी नष्ट होती है। तक पुनर्नवा (बिसखपरा-साठी ) की २॥ तोले (३९८५) पुष्यानुगचूर्णम् नवीन जड़को दूधके साथ पीसकर पीनेसे वृद्ध (भै. र. । स्त्रीरो.; ग. नि. । चूर्णा.; र. र.; वृं. पुरुष का शरीर भी नवीन हो जाता है। मा. । प्रदरा.; च. द.; असृग्द.; वा. भ. । उ, (३९८२) पुष्करमूलचूर्णम् (१) अ. ३४; च. सं.। चि. अ. ३० योनिरो.; (वं. से.; ग. नि.; वृ. मा.; भै. र.; यो. र. ।। ___वं. से.; यो. र.; वृ. नि. र. । स्त्रीरो.) हृद्रोग.; वृ. यो. त. । त. ९९) पाठाजम्ब्वाम्रयोर्मध्यं शिलाभेदं रसाधनम् । चूर्ण पुष्करजं लिहयान्मालिकेण समायुतम् । | अम्बष्ठकी मोचरसः समङ्गा पद्मकेशरम् ॥ इच्छूलश्वासकासनं क्षयहिकानिवारणम् ॥ वाहीकातिविषा मुस्तं विल्वं लोधं सगैरिकम् । For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३१२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि कट्फलं मरिचं शुण्ठी मृद्वीका रक्तचन्दनम् ।। ( मात्रा–२-३ माशे ।) कहावत्सकानन्ता धातकी मधुकार्जुनम् । पूतीकराचं चूर्णम् पुष्येणोद्धृत्य तुल्यानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत्।। तानि क्षौद्रेण संयोज्य पाययेत्तण्डुलाम्बुना। (वं. से. । उदरा.) अमृग्दरातिसारेषु रक्तं यच्चोपवेश्यते ॥ रसप्रकरणमें देखिये। दोषागन्तुकृता ये च बालानां तांश्च नाशयेत् ।। (३९८६) पतीकाच योनिदोष रजोदोषं श्वेतं नीलं सपीतकम् ॥ | स्त्रीणां श्यावारुणं यच्च तत्मसहय निवर्तयेत् । (वृ. नि. र. । अर्श. ) चूर्ण पुष्यानुगं नाम हितमात्रेयपूजितम् ।। पूतिकं मुशली पथ्या भूनिम्बासितवत्सकम् । ( अम्बष्ठा दक्षिणे ख्याता गृहन्त्यन्ये तु लक्ष- मसूरानिकसिन्धत्यदेवदालीसुचूर्णितम् ।। मणाम् ) तक्रेण पिवतस्तस्य तक्रश्चैव समश्नतः । पाठा, जामनकी गुठलीकी गिरी, आमकी | मासात्पकफलानीव पतन्त्यासि वेगतः ॥ गुठलीकी गिरी, पखानभेद, रसौत, अम्बष्ठकी, करलफल, मूसली, हर, चिरायता, काले मोचरस, मजीठ, कमलकेसर, केसर, अतीस, नागर कुड़ेकी छाल, मसूर, चीता, सेंधा नमक और बिंडाल मोथा, बेलगिरी, लोध, गेरुमिट्टी, कायफल, डोढा । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । कालीमिर्च, सोंठ, मुनक्का, लालचन्दन, सोनापाठा ( श्योनाक-अरल ) की छाल, इन्द्रजौ, अनन्त इसे तकके साथ सेवन करने तथा आहार मूल, धायके फूल, मुलैठी और अर्जुनको छाल। में भी तक ही लेनेसे १ मास में बवासीरके मस्से सब चीजें पुष्य नक्षत्रमें एकत्रित करें और सबके । पक्के फले के समान गिर जाते हैं। समान भाग धूर्णको 'एकत्र मिला लें। | (३९८७) पृथ्वीकायोगः इसे शहदमें मिलाकर चाटकर ऊपर से (ग. नि.; च. द. । रक्तपि.) तण्डुलोदक ( चावलांका पानी) पीनेसे स्त्रियांका रक्तप्रदर, रक्तातिसार,योनिदोष,रजोदोष योनिमार्गसे लोहगन्धिनि निःश्वासे उद्गारे धूमगन्धिनि । सफेद, नीला, पीला, काला और लाल स्त्राव होना पृथ्वीकां शाणमात्रां तु खादेविगुणशर्कराम् ॥ और प्रसूत रोग आदि नष्ट होते हैं । ___ यदि रक्तपित्त वाले रोगी के श्वासमें लोह नोट--इस योगमें अम्बष्टा शब्दसे कुछ | की ओर उसकी उद्गार ( की और उसकी उद्गार ( डकार )में धुंवे की सी विद्वान तो दक्षिण देशमें इसी नामसे प्रसिद्ध गन्ध आती हो तो उसे नित्य प्रति ५ माशे इला ओषधि डालते हैं और कोई कोई आचार्य लक्ष्मणा | यचीके चूर्णमें १० माशे खांड मिलाकर खाना लेते हैं। चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३१३] (३९८८) प्रसारिणीचूर्णम् __फूलप्रियगु, काली मिट्टी, लोध और सुरमा (वै. म. र. । पटल ७) ; समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे १ जलेन नालिकेरस्य पिबेत्मातः प्रसारणीम् ।। दिन बासेके रसमें घोटें । मूत्रकृच्छूविनाशाय शर्करापातनाय च ॥ इसे वासेके रस और शहदके साथ चाटने प्रातःकाल नारियलके पानीके साथ प्रसारणी- से नाक, मुंह, गुदा, योनि और मूत्रमार्ग से का चूर्ण सेवन करनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट होता और निकलने वाले रक्तपित्तका रक्त रुक जाता है। पथरी निकल जाती है। यदि शस्त्रादिके घावका रक्त बन्द न हो तो (३९८९) प्रियङ्ग्वादिवर्णम् (१) घावमें यह चूर्ण भरने से वह भी शीघ्र ही रुक (वं. से. । बालरो.) जाता है। मियनुस्वर्जिकासिन्धुमधुना लेहयेच्छिशुम् । । (३९९१) प्रियङ्ग्वादिचूर्णम् (३) क्षीरामयं निहन्त्याशु विडोन युतं कृमीन् । ( भा. प्र. । वर्णाच.) फूलप्रिया, सजीखार और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। मियधातकीपुष्पं यष्टीमधुजदूनि च । इसे शहदके साथ मिलाकर बालकको चटाने सूक्ष्मचूर्णीकृतानि स्यू रोपणान्यवधूलनात् ॥ से दूधके दोषसे उत्पन्न हुवे विकार नष्ट हो फूलप्रियङ्ग, धायक फूल, मुलैठी और लाख जाते हैं। समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । यदि इसमें १ भाग बायबिडंगका चूर्ग भी मिला लिया जाय तो उस के सेवनसे कृमि नष्ट इसे लगाने से घाव भर जाते हैं। हो जाते हैं। (३९९२) भियङ्ग्वाधं चूर्णम् (३९९०) प्रियङ्गवादिचूर्णम् (२) (वं से. । छर्दि.; वृ. नि. र.; वं. से.; ग. नि.; (ग. नि.; वृं. मा.। रक्तपि.; वृ. यो. त. । त. ७५) यो. र.; वृं. मा. । अतिसा.) वृषस्य स्वरसं कृत्वा द्रव्यैरेमिश्च योजयेत् । । पियवञ्जनमुस्तानि पाययेत्तु यथावलम् । मियमृत्तिकारोधमञ्जनं चावचूर्णयेत् ॥ तृष्णातिसारछर्दिन्नं सक्षौद्रतण्डुलाम्बुना ।। तच्चूर्ण योजयेत्तत्र रसक्षौद्रसमन्वितम् । फूलप्रियंगु, सुरमा और नागरमोथा समान नासिकामुखपायुभ्यो योनिमेदाच वेगितम् ॥ | भाग लेकर चूर्ण करें । प्रस्रवद्रक्तपित्तश्च स्थापयत्येष योगराट् । इसे शहदमें मिलाकर चाटकर ऊपरसे चावयञ्च शस्त्रक्षते रक्तं न तिष्ठेद्विवृतं पुनः ॥ लेांका पानी पीने से तृष्णा, अतिसार और छर्दि तदप्यनेन योगेन तिष्ठत्याश्ववचूर्णितम् ॥ । नष्ट होती है। इति पकारादिचूर्णपकरणम्। For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३१४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि अथ पकारादिगुटिकाप्रकरणम् (३९९३) पञ्चकोलाचा गुटिका हर, सोंठ और नागरमोथा समान भाग लेकर (ग. नि.; वृ. मा. । मुखरो.) चूर्ण बनावें । इसे सबसे दो गुने गुड़में मिलाकर पञ्चकोलकतालीसपत्रैलामरिचत्वचः। गोलियां बनालें। पलाशमुष्ककक्षारौ यवक्षारश्च चूर्णितम् ॥ । इन्हें अथवा केवल बहेड़ेको मुंह में रखनेसे द्विगुणेन गुडेनैता गुटिकाः कोलमात्रकाः। समस्त प्रकारका श्वास और खांसी रोग नष्ट होता है। सप्ताहं संस्थिता भव्ये तप्ते मुष्ककभस्मनि ॥ । (३९९५) पथ्यादिगुटिका (२) कण्ठरोगेषु सर्वेषु धार्याः स्युरमृतोपमाः॥ (वै. जी. । विला. ४ ) पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सांठ, तालीसपत्र, तेजपात, इलायची, कालीमिर्च, दालचीनी, | पथ्यातिलारुष्करकैःसमांशपलाशका क्षार, मुष्कक ( मोखावृक्ष ) का क्षार और गुडेन युक्तैः खलुमोदकः स्यात् । यवक्षार बराबर बराबर लेकर चूर्ण बनावें और फिर दुनामपाण्डुज्वरकुष्ठकासउसे सबसे दो गुने गुड़ में मिलाकर बेरके बराबर श्वासं जयेत् प्लीहरुजं च तद्वत् ॥ गोलियां बनावें और उन्हें मुष्कककी गर्म राखमें हरी, तिल और शुद्ध भिलावा समान भाग दबा दें । सात दिन तक गरम राखमें रखनेके | लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे सबसे दो गुने पश्चात् निकाल लें। गुड़में मिलाकर गोलियां बना लें । इन्हें मुंहमें रखनेसे कण्ठरोग नष्ट होते हैं। ये गोलियां अर्श, पाण्ड, ज्वर, कुष्ठ, खांसी, पञ्चाननगुटी) श्वास और तिल्लीका नाश करती हैं । पश्चाननवटी । रसप्रकरणमें देखिये। ( मात्रा-१ तोले तक ।) पश्चानना वटी पञ्चामृतवटी | (३९९६) पथ्यादिमोदकः (३९९४) पथ्यादिगुटिका (१) (वृ. नि. र. । अर्श.) ( वा. भ. । चि. अ. ३०; वृ. यो. त. । त. ७८; | पथ्याशुण्ठीकणावनिमत्येकं चूर्णयेत्पलम् । वं. से. । कासा.) त्वगेलापत्रकं चाय प्रत्येकं कर्षमात्रकम् ॥ पथ्याशुण्ठीघनगुडैगुटिकां धारयेन्मुखे। गुडं दशपलं योज्य कर्ष भुक्त्वार्थासां जयेत् ॥ सर्वेषु श्वासकासेषु केवलं वा विभीतकम् ।। । हर, सोंठ, पीपल और चीता ५-५ तोले For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकामकरणम् ] तृतीयो भागः। [३१५] तथा दालचीनी, इलायची और तेजपात १।१।। ही आराम हो कर शरीर बालसूर्यके समान तोला लेकर चूर्ण बनावें और उसे ५० तोले गुड़में दीप्तिमान हो जाता है। मिलाकर गोलियां बना लें। पलाशादिवटी । इनके सेवनसे अर्श नष्ट होती है। पानीयवाटिका पानीयवटिका ( मात्रा--१। तोला।) (सिद्ध फला) (३९९७) पथ्यावटक: पानीयभक्तवटिका ! ( ग. नि.। परिशिष्ट गुटिका.; वं. से. । कुष्ठ.) पानीयभक्तवटी । रसप्रकरणमें देखिये। पारदगुटिका पथ्यां सेन्द्रयवां सकिंशुक पारदादिगुटिका फलां सार्की तथावर्तकीं। पारदादिगुटी व्याधि न तु योजितां हुत पारदादिवटी भुजासारुष्करां बाकुचीम् ॥ पालङ्कयादिगुटिका तद्वच्च क्रिमिशत्रुणाप्युपगतामेकैकद्धानिमान्। (वै. म. र. । पट. १६) गोमूत्रेण विमृद्य तुल्यतुबरान्कृष्ठी वटान् भक्षयेत्।। अञ्जनप्रकरणमें देखिये ।। निहन्ति इतनासिकाकरजकर्णपादाङ्गुलि-- क्षरद्रुधिरपूतिपूयपरिजग्धजन्तुव्रणान् । । । (३९९८) पारावतपुरोषयोगः (गुटिका) पभिन्नाचिरलक्षितस्वरमशेषकुष्ठं मह (र. चं. । विसर्पाद्यधि.; यो. र. । स्नायु. ) निहन्ति कुरुतेऽरुणार्कवपुष नरं योगतः॥ पारावतपुरीषस्य मधुना कल्कितस्य च । हर्र १ भाग, इन्द्रजौ २ भाग, ढाक (पलाश) गिलिता गुटिका हन्ति स्नायुकामयमुद्धतम् ।। की छाल ३ भाग, त्रिफला ४ भाग, आक ५ कबूतरकी बीटको शहदमें घोटकर ( आधे भाग, मरोडफली ६ भाग, अमलतास ७ भाग, आधे माशे की) गोलियां बनालें । चीता ८ भाग, शुद्ध भिलावा ९ भाग, बाबची इनके सेवनसे स्नायुक (नहरया) रोग नष्ट १० भाग और बायबिडंग ११ भाग लेकर सब होता है । का महीन चूर्ण करके उसे गोमूत्रमें घोटकर | (३९९९) पिण्याकादिगुटिका गोलियां बनालें। (वै. म. र. । पटल ९) जिस कुष्ठीकी नाक, उंगली, कान और पिण्याकसैन्धवपुनर्नवचूर्णभास्वपैरोकी उंगली आदि गिर गई हो तथा कोढ़ से साराजमूत्रपयसां समभागभाजाम् । दुर्गन्धित राध और रक्त निकलता हो और जिसके । हिङ्गषणाज्यसहिता गुटिकाग्नितप्ता पावोंमें कृमि पड़ गये हों उसे इसके सेवनसे शीघ्र गुल्मोदराग्निसदनारुचिशूलहन्त्री ॥ For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३१६] भारत-भैषज्य-रत्नाकर।। [पकारादि तिलकी खल, सेंधानमक, बिसखपरा (साठी- । (४००१) पिप्पल्यादिक्षारगुटिका पुनर्नया ), हींग और कालीमिर्चका चूर्ण तथा (ग. नि. । गुटि.) आकका दूध, एवं बकरीका मूत्र और दूध तथा पिप्पलीनामेककर्ष मरिचानां तथैव च । घी समान भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर गोलि दाडिमस्य पलादै च गुडस्य च पलद्वयम् ॥ यां बनावें; और उन्हें अग्निपर सेकलें । यवक्षारार्द्धकर्षश्च गुटिकां कारयेद्भिषक् ।। इनके सेवनसे गुल्म, उदररोग, अग्निमांद्य, मुखेन धारिता इन्ति कासश्वासगलामयान् ॥ भरुचि और शूलका नाश होता है । ____ पीपल १। तोला, काली मिर्च १। तोला, ( मात्रा-१ माशा ।) अनारदाना २॥ तोले, गुड़ १० तोले और जवा | खार ७|| माशे लेकर सब चीज़ोंके चूर्णको गुड़में (४०००) पिप्पलीमोदकः मिलाकर गोलियां बनावें । ( शा. ध. । ख. २ अ. ७; वै. र. । ज्वर.) इनमें से १-१ गोली मुंहमें रखकर उसका सौद्राद्विगुणितं सर्पिघृताद्विगुणपिप्पली। | रस चूसनेसे खांसी, श्वास और गलेके रोग नष्ट सिता द्विगुणिता तस्याः क्षीरं देयं चतुर्गुणम् ॥ होते हैं । चातुर्जातं क्षौद्रतुल्यं पक्त्वा कुर्याच्च मोदकान् । (४००२) पिप्पल्यादिगुटिका धातुस्थांश्च ज्वरान् सर्वान् श्वासं कासश्च (वै. र.; यो. र.; वं. से.; वृ. नि. र.; । कासा.) धातुक्षयं वहिमान्य पिप्पलीमोदको जयेत् ॥ शुण्ठीशठीमुस्तकसूक्ष्मचूर्णैः। शहद १ भाग, घी २ भाग, पीपलका चूर्ण | गुडेन युक्ता गुडिकाः प्रयोज्या: ४ भाग, खांड ८ भाग, दूध १६ भाग और चातु- श्वासेषु कासेषु च वर्द्धितेषु ॥ आत ( दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर ) पीपल, पोखरमूल, हर्र, सोंठ, शठी ( कचूर) का चूर्ण १ भाग लेकर प्रथम पीपलको दूधमें | और मोथे के समान भाग मिश्रित चूर्णको उससे पकावे जब खोया हो जाय तो उसमें घी डालकर | दो गने गुडमें मिलाकर गोलियां बना लें। उसे भूनें और फिर खांडकी चाशनी बनाकर इनके सेवनसे प्रबल श्वास और खांसीका उसमें यह खोया तथा चातुर्जातका चूर्ण मिला दें | नाश होता है । और उसके ठंडा होने पर उसमें शहद मिलाकर ( मात्रा-~६ माशे । अनुपान-उष्णजल।) (१-१ तोलेके ) मोदक बनालें । पिप्पल्यादिगुटिका इनके सेवनसे धातुगत ज्वर, श्वास, खांसी, ( यो. र.; वं. से.; यो. त. । नेत्र.) पाण्डु, धातुक्षय और अग्निमांद्य नष्ट होता है। । अञ्जनप्रकरणमें देखिये । पाण्डुताम्।। सपिप्पलीपुष्करमूलपथ्या For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकापकरणम् ] हतीयो भागः। [ ३१७ ] (४००३) पियालादिमोदक: _ हल्दी, नीमके पत्ते, पीपल, काली मिर्च, (ग. नि. । बालरो.) नागरमोथा, बायबिडंग, सांठ, सेंधा नमक, चीता, पियालमज्जामधुकमधुलाजासितोपलैः। कूठ, पाठा और हर्रका चूर्ण समान भाग लेकर अपस्तन्यस्य संयोज्य: मीणनो मोदकः शिशो। सबको बकरीके मूत्रमें पीसकर जंगली बेरके समान चिरौंजी, मुलैठी, शहद, धानको खील और गोलियां बनाकर छायामें सुखा लें। मिश्री समान भाग लेकर शहदके अतिरिक्त अन्य टिप्पणी योग चिन्तामणिमें बाबची, पित्तसब चीजोंका चूर्ण करके उसे शहदमें मिलाकर | प.पड़ा, और बच । यह द्रव्य अधिक लिखे हैं गोलियां बनालें । तथा बकरीके मूत्रमें पीसते हुवे १-१ करके इनके सेवनसे बालक पुष्ट होते हैं। |१०८ चमेलीके फूल डालनेके लिये लिखा है। तथा गुटिका बनानेके लिए सबसे २ गुना गुड़ प्रकाशिका गुटिका डालना भी लिखा है। (ग. नि. । नेत्ररो.) अञ्जनप्रकरणमें देखिये। गुण इस प्रकार लिखे हैं-इनके सेवनसे प्रचेतानामगुटिका वात व्याधि, हर्षवात, १८ प्रकारके गुल्म, २० (यो. चि. म. । अ. ३ ) प्रकार के प्रमेह, हृद्रोग, कुष्ठ, शूल, गलग्रह, श्वास, अजनप्रकरणमें देखिये। ग्रहणी, पाण्ड, अग्निमांथ और अरुचिका नाश होता है। प्रभाकरः प्रभावतीगुटिकाकरणम सिरसप्रकरणमें देखिये। प्रभावतीवटी प्रभावतीगुटिका रसप्रकरणमें देखिये। (ग. नि. । नेत्ररो.) (४००५) प्राणदागुटिका मजनप्रकरणमें देखिये। ( मै. र.; वं. से.; . मा.; च. द. । अर्श.; (४००४) प्रभावती वटिका ग. नि. | गुटिका.) । (ग. नि. । परिशिष्ट गुटिका.) त्रिपलं शृङ्गवेरस्य चतुष्कं मरिचस्य च । हरिद्रा निम्बपत्राणि पिप्पल्यो मरिचानि च । पिप्पल्याः कुडवार्द्धश्च चव्यश्च पलमेव च ॥ भद्रमुस्ता विडतानि सप्तमं विश्वभेषजम् ॥ तालीसपत्रस्य पलं पलादै केसरस्य च । सैन्धवं चित्रकचैव कुष्ठं पाठा हरीतकी। वे पले पिप्पलीमूलाद कर्षश्च पत्रकात ।। एतानि समभागानि छागमूत्रेण पेपयेत् ॥ सूक्ष्मैला कर्षमेकश्च कर्षे त्वामृणालयोः। कोलास्थिका गुटी छायाशुष्का नाम्ना प्रभावती।। गुडात्पलानि त्रिंशच चूर्णमेकत्र कारयेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३१८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि तोलार्द्धमाना गुटिका माणदेति प्रकीर्तिता। हृद्रोग, गुल्म, शूल, श्वास और खांसी से पीडित पूर्व भक्ष्या च पश्चाच्च भोजनस्य यथावलम् ॥ रोगियोंके लिये अमृतके समान गुणकारी है। इन्यादीसि सर्वाणि सहजान्यनजान्यपि। यदि अर्शके साथ मलावरोध भी हो तो इस वातपित्तकफोत्थानि सनिपातोद्भवानि च ॥ ! योगमें सेठ के स्थान में हर डालनी चाहिये और पानात्यये मूत्रकृच्छे वातरोगे गलग्रहे। यदि पित्ताश में सेवन करना हो तो गुड़के स्थान विषमज्वरे च मन्देऽग्नौ पाण्डुरोगे तथैव च ॥ में समस्त चूर्णसे ४ गुनी खांड डालनी चाहिये । कृमिहद्रोगिणाश्चैव गुल्मशूलातिनां तथा। गोलियां गुड़ या खांडकी चाशनी बनाकर उसमें श्वासकासपरीतानामेषा स्यादमृतोपमा ॥ अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर बनानी चाहिये शुण्ठ्याः स्थानेऽभया देया विड्ग्रहे पित्तपायुजे। क्यों कि अग्निके संयोगसे ये लघु हो जाती हैं। प्राणदेयं सिता देया चूर्णमानाचतुर्गुणा ॥ यह गुटिका अम्लपित्त और अग्निमांधादिमें अम्लपित्ताग्निमान्यादी प्रयोज्या गुदजातुरे। | भी उपयोगी हैं। पक्त्वैनं गुडिकाः कार्या गुडेन सितयाऽथवा ॥ (४००६) प्राणप्रदो मोदकः परं हि वनिसंसर्गाल्लघिमान भजन्ति ताः॥ (वृ. यो. त.। त. ६९; कृ. नि. र.; यो. र.। अर्श.) सेठ ३ पल, कालीमिर्च ४ पल, पीपल, | तालीसज्वलनोपणाः सचविकास्तुल्या द्वि २ पल, चव १ पल, तालीसपत्र १ पल, नागकेसर आधा पल, पिप्पलीमूल २ पल (१० तोले) भागा भवेतेजपात आधाकर्ष, छोटी इलायची १ कर्ष | कृष्णा मूलसमन्विता त्रिपलिका शुण्ठी चतु जातकम् ॥ (११ तोला ), दालचीनी आधाकर्ष और स्यान्मुष्टिपमितं गुडत्रिगुणितैरेमिः कृता मोदकाः गुड़ ३० पल (१५० तोले) लेकर गुड़की चाश कासश्वासमदामिमान्यगुदजप्लीहप्रमेहापहा॥ नीमें अन्य समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर ६-६ माशे की गोलियां बनालें । ___ तालीसपत्र, चीता, कालीमिर्च, और चव एक एक गाग, पीपल और पीपलामूल २-२ भाग, ___ इन्हें भोजनके पूर्व तथा पश्चात् खाना | साठ ३ भाग और चातुर्जात (दालचीनी, तेजपात, चाहिये। | इलायची, नागकेसर ) १ भाग लेकर सबके इनके सेवनसे वातज, पित्तज, कफज और चूर्णको उससे ३ गुने गुड़में मिलाकर गोलियां सन्निपातज अर्श तथा रक्तार्श और सहजार्श नष्ट बना लें। होती है। इनके सेवनसे खांसी, श्वास, मद, अग्नियह वटी पानात्यय, मूत्रकृच्छू, वातरोग, मांध, अर्श, तिल्ली और प्रमेह नष्ट होता है। गलग्रह, विषमज्वर, मन्दाग्नि, पाण्डु, कृमि, (मात्रा-६ माशे । अनुपान उष्ण जल ।) For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३१९ ] (४००७) प्लीहारिवटिका ल्हसन समान भाग लेकर सबको एकत्र कूटकर आधे आधे माशे की गोलियां बनावें। ( आ. वे. वि. । चि. अ. ६) इनके सेवनसे तिल्ली और कष्टसाध्य गुल्म कासीसश्च सहासारं रसोनश्चाप्यकञ्चुकम् । | नष्ट हो जाता है। सर्व सम्पर्ध वटिकामर्द्धमाषप्रमाणिकाम् ॥ | ( अनुपान---उष्ण जल । ) रचयित्वाऽथ संशोष्य योजयेत् प्लीहरोगिणे।। प्लीहारिवटिका प्लीहानं नाशयेदेषा गुल्मचापि सुदारुणम् ।। (भै. र.) कसीस, एलवा (मुसब्बर) और छिला हुवा | रसप्रकरणमें देखिये । इति पकारादिगुटिकापकरणम् । अथ पकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (४००८) पक्षाघातारिगुग्गुलुः | लेकर चूर्ण बनावें और फिर इसमें सबके बराबर (वृ. नि. र. । वातव्या.) शुद्ध गूगल मिलाकर थोड़ा थोड़ा घी डालकर खूब कृष्णाजटानागरचव्यवहि-- कूटें । पाठविडोन्द्रयवैः समांशै । इसके सेवनसे पक्षाघात नष्ट होता है । हिङ्गनगन्धाद्विजयष्टिकौन्ती (मात्रा-१॥ माशा । अनुपान उष्ण जल ।) - मातङ्गकृष्णातिविषान्वितश्च ॥ ससर्षपाजाजियुगाजमोदा (४००९) पश्चतिक्तवृतगुग्गुल: न्वितैः समस्तैत्रिफला द्विभागा। (भै. र.; च. द. । कुष्ठा.) एभिः समो गुग्गुलुराजमिश्रो निम्बामृतावृषपटोलनिदिग्धिकानाम् भुक्तो हरेत्पक्षभवानिलातिम् । भागान् पृथक् दशपलान् पचेद्घटेऽपाम् । पीपलामूल, सेठ, चव, चीता, पाठा, बाय- | अष्टांशशेषितरसेन सुनिश्चितेन बिडंग, इन्द्रजौ, हींग, बच, भरंगी, रेणुका, गज- । प्रस्थं घृतस्य विपचेत्पिचुभागकल्कैः ॥ पीपल, अतीस, सरसों, दोनो जीरे और अजमोद | पाठविडङ्गसुरदारुगजोपकुल्याएक एक भाग तथा त्रिफला इन सबसे दो गुना । द्विक्षारनागरनिशामिशिचव्यकुष्ठैः। For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३२०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - तेजोवतीमरिचवत्सकदीप्यकामि अर्बुद, भगन्दर, गण्डमाला, ऊर्ध्वजत्रुगत समस्त रोहिण्यरुष्करवचाकणमूलयुक्तैः ॥ रोग, गुल्म, अर्श, प्रमेह, यश्मा, अरुचि, श्वास, मञ्जिष्ठयातिविषया वरया यमान्या खांसी, पीनस, शोष, हृद्रोग, पाण्डु, गलविद्रधि संशुद्धगुग्गुलुपलैरपि पञ्चसंख्यैः। और वातरक्तका नाश होता है। तत्सेवितं विषमातिप्रबलं समीरम् (मात्रा--१ तोला।) __ सन्ध्यस्थिमज्जगतमप्यथ कुष्ठमीक् ॥ नाडीव्रणाचुदभगन्दरगण्डमाला (४०१०) पथ्यादिगुग्गुलुः (१) जबर्द्धसर्वगदगुल्मगुदोत्यमेहान् । (वृ. मा. । श्लीपदा.) यक्ष्मारुचिश्वसनपीनसकासशोष-- मूत्रेण पथ्या सुरदारु विश्वं हृत्पाण्डुरोगगलविद्रधिवातरक्तम् ॥ सगुग्गुलु श्लीपदिमिनिषेव्यम् ॥ हरं, देवदारु और सोंठके चूर्णको सबके नीमकी छाल, गिलोय, बासा, पटोल और बराबर शुद्ध गूगलमें मिलाकर कूटें । कटेली १०-१० पल (हरेक ५० तोले ) लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें पकावें इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे श्लीपद और जब ४ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे छान रोग नष्ट होता है। लें और एक पोटलीमें २५ तोले शुद्ध गूगल बांध- (मात्रा-१-१॥ माशा।) कर इस काथमें डाल दें और फिर इसमें २ सेर । (४०११) पथ्यादिगुग्गुलः (२) घी और निम्न लिखित ओषधियोंका कल्क मिला (वं. से.; वै. र.; मा. प्र.; वृ. नि. र. । कर पकावें । जब काथ जल जाय तो घृतको छान वातव्याधि.) लें और उसमें उपरोक्त पोटलीवाला गूगल मिला दें। पथ्याविभीतामलकीफलानां शतं क्रमेण द्विगुणाभिहदम् । कल्क-पाठा, बायबिडंग, देवदारु, गज- | प्रस्थेन युक्तञ्च पलङ्कषाणां पीपल, जवाखार, सजीखार, सेठि, हल्दी, सोया, द्रोणे जले संस्थितमेकरात्रम् ॥ चव, कूठ, मालकंगनी, कालीमिर्च, इन्द्रजौ, जीरा, अवशेष कथितं कषायं चीता, कुटकी, शुद्ध भिलावा, बच, पीपलामूल, भाण्डे पचेत्तत्पुनरेव लोहे। मजीठ, अतीस, हर्र, बहेड़ा, आमला और अज अमूनि पश्चादवतार्य दद्याद् वायन । प्रत्येक ११-१। तोला । द्रव्याणि सञ्चूर्ण्य पलाकानि ॥ इसके सेवनसे सन्धि अस्थि और मज्जागत | विडङ्गदन्तीत्रिफलागुडूची-- कष्टसाध्य प्रबल वायु, कुष्ठ, नाडीव्रण (नासूर), कृष्णात्रिनागरसोषणानि । For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सगृध्रसीं नूतनखञ्जताञ्च । लहानमुग्रं जठराणि गुल्मं www.kobatirth.org गुग्गुलुप्रकरणम् ] gar नरस्य शीघ्रं हिमाम् पानान च भोजनानि ॥ निषेव्यमानो विनिहन्त रोगान् पाण्डुत्वकण्डूवमिवातरक्तम् ॥ तृतीयो भागः । पध्यादिगुग्गुलु एषु नाम्ना ख्यातः क्षितौ चाप्रमितप्रभावः । बलेन नागेन समं मनुष्यं जवेन कुर्यात्तुरगेन तुल्यम् ॥ आयुःप्रकर्षे विदधाति सद्यः चक्षुर्बलं पुष्टिकरो विषघ्नः । क्षतस्य सन्धानकरो विशेषात् रोगेषु शस्तः सकलेषु चैत्र ॥ हरे १००, बहेड़े २००, और आमले ४०० नग तथा गूगल १ सेर ( ८० तोले ) लेकर गूगलके सिवाय बाकी सब चीज़ोंको अधकुटी करके ३२ सेर पानी में भिगो दें और २४ घण्टे बाद उसे पकाकर आधा पानी शेष रहने पर छान लें । इस छने हुवे काथको दुबारा लोहे की कढ़ाई में पकावें और इस बार इसमें वह गूगल भी डाल दें । जब पानी गाढ़ा हो जाय तो उसे आगसे नीचे उतारकर उसमें बायबिडंग, दन्ती, हर्र, बहेड़ा, आमला, गिलोय, पीपल, निसोत, सांठ और काली मिर्चका २॥ - २॥ तोले चूर्ण मिलावें । इसके सेवनसे गृध्रसी, नवीन खञ्जवात, कष्टसाध्य प्लीहा, उदर रोग, गुल्म, पाण्डु, खुजली, हर्दि और वातरक्त आदि रोग नष्ट होते हैं; शरीर में हाथी के समान बल आ जाता है; और चाल घोड़े के समान तीव्र हो जाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३२१] यह आयुष्य -- वर्द्धक, पौष्टिक, और विषन्न है। rain बलको बढ़ाता है । एवं घाव को भरनेमें विशेष उपयोगी है | ( मात्रा ३ माशे । ) इसके सेवनकाल में शीतल जल पीना और शीतल आहार खाना चाहिये । (४०१२) पुनर्नवागुग्गुलुः (भै. र.; वं. से. भा. प्र. । वातरक्त; वृ. यो. त । त. ९१ ) पुनर्नवामूलशतं विशुद्धं basमूलञ्च तथा प्रयोज्यम् । दत्वा पलं षोडशकञ्च शुण्ठ्याः सङ्कटय सम्यग्विपचेद् घटेऽपाम् ॥ पलानि चाष्टादश कौशिकस्य तेनाष्टशेषेण पुनः पचेत्तु । एरण्डतैलं कुडवञ्च दद्यात् तथा त्रिचूर्णपलानि पञ्च ॥ निकुम्भचूर्णस्य पलं गुडूच्याः पलद्वयं च द्विपलं प्रतिह | फलत्रयं ज्यूषणचित्राणि सिन्धूत्थभल्लात विडङ्गकानि ॥ कर्ष तथा माक्षिकधातु चूर्ण पुनर्नवाया: पलमेव चूर्णम् । चूर्णानि दत्त्वा हयवतार्य शीते खादेन्नरो मापत्रयप्रमाणम् ॥ वाता वृद्धिगदञ्च सप्त जयत्यवश्यं त्वथ गृध्रसीश्च । जङ्कोरुपृष्ठत्रिकवस्तिजञ्च तथामवातं प्रवञ्च शीघ्रम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - पुनर्नवा और अरण्डकी जड़ १००-१०० (४०१३) पुनर्नवादिगुग्गुलः पल तथा सोंठ १६ पल ( ८० तोले ) लेकर ) ( मै. र. शोथा.) सबको कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें और । जब ४ सेर पानी शेष रह जाय तो उसको छान- 1 पुनर्नवादाभयागुडूची कर उसमें १८ पल ( ९० तोले ) शुद्ध गूगल पिवेत्समूत्र महिषासयुक्ताम् । मिलाकर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो स्वग्दोषशोथोदरपाण्डुरोगउसमें ४० तोले अरण्डका तेल एवं २५ तोले स्थौल्यमसेकोर्ध्वकफामयेषु ॥ निसोत, ५ तोले दन्तीमूल, १० तोले गिलोय, पुनर्नवा ( साठी), देवदारु, हरे और गिलोय और ५-५ तोले हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, | का चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल सबके मिर्च, पीपल, चीता, सेंधानमक, शुद्ध मिलाया | बराबर लेकर सबको (थोडासा अरण्डका तेल और बायबिईंग एवं १४ तोला सोनामक्खी-भस्म । डालकर ) कूटें। और ५ ताले पुनर्नवाका चूर्ण मिलावें। इसे गोमूत्रके साथ सेवन करने से त्वग्दोष, इसके सेवनसे वातरक्त, वृद्धिरोग, गृध्रसी, | शोथोदर, पाण्डु, स्थौल्य, कफप्रसेक तथा ऊर्ध्वजंघा ऊरु पृष्ठ त्रिकस्थान और बस्तिगत शूल | जत्रुगत कफज रोग नष्ट होते हैं । तथा प्रबल आमवातका अवश्य नाश हो जाता है। मात्रा-३ माशे। . ( मात्रा-३ माशे।) इति पकारादिगुग्गुलुपकरणम् । अथ पकाराचवलेहप्रकरणम् (४०१४) पञ्चजीरकगुडः पिप्पली पिप्पलीमूलमजमोदाऽथ वाष्पिका। ( र. र. । सूतिका.; ग. नि. । लेहा.; भै. र.; चित्रकच पलांशानि तथा धान्यं चतुष्पलम्॥ च. द. । स्त्रीरो.) कशेरुकं नागरं च कुष्ठं दीप्यकमेव५ च । जीरक हपुषा धान्यं शताहा पदराणि च । । गुडस्य च शतं दद्याद् घृतमस्य तथैव च ॥ यमानी राजिका' हिडपत्रिका कासमर्दकम् ॥ | क्षीरद्विमस्थसंयुक्तं शनैर्मुद्वग्निना पचेत् ।। + सुरदारुच -मेथिका २...कामरक्षकम् ३-तथा ४-कृष्णा४-यष्टी ५-जीरकमेव -गुरुस्याईशतं पाठान्तराणि । For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेहमकरणम् ] तृतीयो भागः। [३२३] पञ्चजीरक इत्येष सूतिकानां प्रशस्यते ॥ । एतानि पलमात्राणि गुडं पलशतं मतम् । गर्भार्थिनीनां नारीणां प्रदुष्टे चैव मारुते। क्षीरं प्रस्थद्वयं दद्यात्सर्पिषः कुडवं तथा ॥ विंशतिळपदो योनेः कासं श्वासं स्वरक्षयम् ॥ पञ्चजीरकपाकोऽयं प्रसूतानां प्रशस्यते । हलीमकं पाण्डुरोगं दौर्गन्ध्यं कृच्छ्रमूत्रताम् । युज्यते सूतिकारोगे योनिरोगे ज्वरे क्षये ॥ हन्ति पीनोन्नतकुचाः पद्मपत्रायतेक्षणाः ॥ | कासे श्वासे पाण्डुरोगे कार्ये वातामयेषु च ॥ उपयोगाखियो नित्यमलक्ष्मीकलिवर्जिताः ॥ । जीरा, कलौंजी, सोया, सौंफ, अजवायन, __ जीरा, हाऊबेर, धनिया, सोया, बेर, अजवा- | अजमोद, धनिया, मेथी, सोंठ, पीपल, पीपलामूल, यन, राई, हिङ्गपत्री, कसौंदी, पीपल, पीपलामूल, | चीता, हाऊबेर, बिदारीकन्द, त्रिफला, कूठ और अजमोद, कालाजीरा और चीता ५-५ तोले तथा | कमीला ५-५ तोले लेकर चूर्ण बनावें । तत्पधनिया, कसेरु, सांठ, कूठ और अजमोद २० | श्चात् १०० पल (६। सेर) गुड़को ४ सेर २० तोले लेकर चूर्ण बनावें । तत्पश्चात् १०० | दूधमें घोलकर उसमें ४० तोले घी मिलाकर पल (६। सेर ) गुड़को ४ सेर दूधमें घोलकर पकावें । जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें उपउसमें २ सेर घी डालकर पकावें । जब | रोक्त चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें । चाशनी तैयार हो जाय तो उसमें उपरोक्त चूर्ण यह 'पञ्चजीरक पाक' प्रसूता स्त्रियोंके मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर रखें। लिये हितकारी है । इसके सेवनसे प्रसूतरोग, यह गुड़ प्रसूता तथा गर्भार्थिनी स्त्रियोंके योनिरोग, ज्वर, क्षय, खांसी, श्वास, पाण्डुरोग, कृशता और वातज रोग नष्ट होते हैं । लिये हितकारी है। (मात्रा-१॥ तोला ।) इसके सेवनसे वातव्याधि, २० प्रकारके (४०१६) पटोलाद्यवलेहः योनिरोग, खांसी, श्वास, स्वरक्षय, हलीमक, पाण्डु (वं. से. । अर्श.; ग. नि. । लेहा.) रोग, शरीरकी दुर्गन्धि और मूत्रकृच्छ आदि रोग पटोलमूलं त्रिफलां विशालां चतुरङ्गलम् । नष्ट होते तथा कान्तिकी वृद्धि होती है । नीलिनी त्रिवृतां दन्ती कृमिघ्नं सपुनर्नवाम् ।। (मात्रा-१॥ तोला ।) कटुकां सातलां लोधं भागान्दशपलोन्मितान् । (४०१५) पञ्चजीरकपाक: दत्त्वा द्रोणचतुष्कन्तु सलिलं पादशेषितम् ॥ ( यो. र.; भा. प्र.; वृ. नि. र. । सूतिका.) | तैलस्य कुडवं तत्र गुडस्य तु तुलां पचेत् । जीरकं स्थूलजीरश्च शतपुप्पा द्वयं तथा। त्रिचूर्ण पलान्यष्टौ लेहवत्साधुसाधयेत् ।। यवानी चाजमोदा च धान्यकं मेधिकापि च ॥ शीतीभूते न्यसेत्तत्र व्योपं पञ्चपलोन्मितम् । शुण्ठी कृष्णा कणामूलं चित्रकं हपुषाऽपि च । पलत्रय जातस्य दत्वा सङ्घट्टयेत्पुनः ।। विदारीफलचूर्णन्तु कुष्ठं कम्पिल्लकं तथा ॥ १-गदनिग्रहमें विशालाके स्थानमें रजनी पाठ है। For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३२४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि ततो यथावलं खादेत्पलाई पिचुमेव वा। द्विपलांशं तु प्रत्येकं जलं द्रोणचतुष्टयम् ॥ नाहारे यन्त्रणा काचिन्न विहारे तथैव च ॥ काथं पादावशेषन्तु शीतीभूते क्षिपेद गुडम् । विवन्धाध्मानगुल्मार्शः पाण्डुरोगकफकमीन् । पलानां द्विशतश्चैव धातुकी पलपञ्चकम् ॥ कुष्ठमेहारुचिं हन्ति हयन्त्रवृद्धिषु शस्यते ॥ घृतभाण्डे स्थिते तस्मिन्यथाशक्तिपिवेत्ततः । पटोलकी जड़, त्रिफला, इन्द्रायन--मूल, | अशोसि ग्रहणीपाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मनुत् ।। ( पाठभेदके अनुसार हल्दी ), बड़ा मन्दाग्नि चोदरं शोथं कुठनं परमौषधम् ।। अमलतास (धनबहेड़ा), नीलवृक्ष, निसोत, दन्ती- हर्र ३२ पल, आमला १६ पल, कैथका मूल, वायबिडंग, पुनर्नवा ( साठी--बिसरखपरा), गूदा १० पल, इन्द्रायणमूल ५ पल, बायबिडंग, कुटकी, सातला और लोध १० १० पल (हरेक । पीपल, लोध, कालीमिर्च, सेंधानमक और आलु ५० तोले ) लेकर सबको अधकुटा करके १२८ २--२ पल (१०-१० तोले ) लेकर सबको सेर पानी में पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष अधकुटा करके चार द्रोण ( १२८ सेर ) पानीमें रह जाय तो छानकर उसमें ४० तोले तिलका | पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो तैल और १०० पल (६। सेर ) गुड़ मिलाकर | उसे उतारकर छान लें एवं ठण्डा होनेपर उसमें पुनः पकावें । जब अवलेहके समान गाढ़ा हो २०० पल ( १२॥ सेर ) गुड़ और ५ पल (२५ जाय तो उसमें निसोतका चूर्ण ४० तोले मिला तोले) धायके फूलोंका चूर्ण मिलाकर चिकने बरदें और फिर अग्निसे नीचे उतार लें । जब ठण्डा तनमें भरकर सुरक्षित खखें । हो जाय तो उसमें त्रिकुटाका चूर्ण २५ तोले तथा दालचीनी, इलायची और तेजपातका चूर्ण ___इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्श, ५--५ तोले मिला दें। संग्रहणी, पाण्डु, हृद्रोग, प्लीहा (तिल्ली), गुल्म, इसे १। तोले से २॥ तोले तककी मात्रानु अग्निमांध, उदररोग, शोथ और कुष्ट नष्ट होता है। सार सेवन करनेसे विवन्ध, अफारा, गुल्म, अर्श, (नोट--उपरोक्त विधिसे बने हुवे अवलेहके पाण्डुरोग, कफजकृमि, प्रमेह, अरुचि और अन्त्र- शीघ्र ही बिगड़ जानेकी अधिक सम्भावना है अत वृद्धि आदि रोग नष्ट होते हैं । एव यदि गुड़ मिलाकर पुनः गाढ़ा करनेके बाद (४०१७) पथ्यादिगुडः धायके फूल मिलाए जाएं तो अच्छा है।) (वृ. नि. र. । अ#.) (४०१८) पथ्याद्यवलेहः द्वात्रिंशत्पलपथ्यानां तदर्धामलकीफलम् । ( भा. प्र. । ज्वर.) कपित्थं स्याद्दशपलं विशाला पलपश्चकम् ॥ पथ्यां तैल तक्षौदैर्लिहन्दाहज्वरापहाम । विडङ्ग पिप्पली लोधं मरिचं सैन्धवालुकम् । । कासासपित्तवीसर्पश्वासान्हन्ति वमीमपि ।। For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हमकरणम् ] हरेको पीसकर तेल, घी, और शहद में मिलाकर चाटने से दाह, ज्वर, खांसी, रक्तपित्त, वीसर्प, श्वास और वमनका नाश होता है । (हर्रका चूर्ण ३ माशे, घी ३ माशे, तैल ३ माशे, शहद १ तोला ) (४०१९) पथ्यावलेह: ( ग. नि. । लेहा.; वृं. मा. । अर्शो. ) श्यामागुडूच्यामलक चित्रकाणां पादावशिष्टं विधिवद्विधिज्ञः । भागान् पलानां शतसम्मितांश्च । सर्वान् पृथक् सम्परिकल्प्य युक्त्या द्रोणद्रयेऽपां तु विपाच्य पात्रे || लौहे दृढ़े मन्दहुताशनेच भूयः पचेत्तं तुलया गुडस्य शुक्रेन वस्त्रेण विशोधितस्य ॥ चूर्णीकृतैर्जीरकयुग्मदन्ती पाठात्रित्त्र्यूषणग्रन्थिकाद्वैः । भल्लातकाख्यैश्च पलप्रमाणेः ॥ तृतीयो भागः । धान्याजमोदेभकणायवानी www.kobatirth.org प्रस्थत्रयेणाथ हरीतकीना मैकध्यमालोय शनैस्तु दर्या ज्ञात्वा सुपकं रसगन्धवर्णैः कुम्भे निदध्यात्त्रिसुगन्धियुक्तम् ॥ प्रस्थार्द्धयुक्तं मधुनोऽत्र शीते भल्लातकास्थिमभवाच तैलात् । दत्त्वा पलार्द्ध यात्रशुकजस्थ चाष्टौ पलान्येव सितोपलायाः ॥ एनं लिहेदक्षफलप्रमाण शौविकारी प्रसमीक्ष्य वह्निम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३२५ ] कुष्ठानि सर्वाणि निहन्ति हिक्कां श्वासञ्च कासारुचिपाण्डुरोगान् ॥ मन्दानत्वं ग्रहणीविकारान् गुल्मान्स शोफानुदरामयांश्च । शूलानि यक्ष्माणमसृप्रवृत्तिं पथ्यsasisयमिति प्रदिष्टः ॥ निसोत, गिलोय, आमला और चीता १००, १०० पल ( हरेक ६ । सेर) लेकर सबको पृथक् पृथक् कूटकर २--२ द्रोण ( ६४-६४ सेर ) पानी में पृथक् पृथक् लोहपात्र में मन्दाग्नि पर पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो छानकर सब काथों को एक जगह मिला लें और फिर उसमें १०० पल ( ६ । सेर) गुड़ मिलाकर सफेद वस्त्र में छानकर उसे पुन: पकायें । जब अवलेह के समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें जीरा, कालाजीरा, दन्तीमूल, पाठा, निसोत, सोंठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, धनिया, अजमोद, गजपीपल, अजवायन और शुद्ध भिलावेका चूर्ण ५, ५ तोले तथा ३ प्रस्थ ( ३ सेर ) हर्रका चूर्ण मिलाएं | एवं शीतल होने पर उसमें दालचीनी, तेजपात और इलायचीका समभाग मिश्रित ( ५ तोले ) चूर्ण तथा १ सेर शहद और २ || तोले भिलावे के बीजोंका तैल एवं २|| तोले जवाखार और ४० तोले खांड मिलाकर रक्खें । इसमें से नित्य प्रति बहेड़ेके फल के बराबर ( १ तोला ) या अग्निबलानुसार न्यूनाधिक मात्रामें सेवन करनेसे अर्श, कुए, हिचकी, स्वास, खांसी, अरुचि, पाण्डु, अग्निमांद्य, ग्रहणी, गुल्म, शोथ, उदररोग, शूल, यक्ष्मा और रक्तस्रावका नाश होता है । For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - (४०२०) पनकादिलेहः (४०२३) पाचकावलेहः (ग. नि. । कासा.; च. सं. । चि. अ. २२ कासा.) (रसायनसार । ज्वरा.) पमकं त्रिफला व्योष विडङ्ग सुरदारु च। । सेटोन्मिते निम्बुरसे पदद्यात् बला रास्ना च तुल्यानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥ तदर्धशम्पाकमहर्द्वयं ज्ञः। सर्वैरेभिः समैर्भागैः पृथक् क्षौद्रं घृतं सिता। पटेन शुद्धेन ततः प्रगाल्य लियालेहं विमथ्यैतत्सर्वकासहरं शिवम् ॥ ददीत चूर्ण दशकस्य चास्य ॥ ___ पनाक, हर, बहेड़ा,आमला, सोंठ,मिर्च, पीपल, तनुत्वचानागरवेल्लकृष्णाबायबिडंग, देवदारु, खरैटी और रास्ना समान वाही वयःस्था द्वयकर्षभागाः। भाग लेकर चूर्ण बनावें फिर इस सब चूर्णके बराबर सिन्धृद्भवं शूलह कृण्णवीजं शहद तथा इतना इतना ही घी और खांड लेकर श्वेतं नवं जीरकमक्षकर्षाः॥ सबको एकत्र मिलाकर मथलें। आज्येन भृष्टे ननु हिङ्गुजीरे इसके सेवन से हर प्रकारकी खांसी नष्ट नदीरजः स्वेव च कृष्णवीजम् । होती है। ( मात्रा-१ तोला ।) सङ्कुटय सर्वे पटगालितश्च विनीय लेहं निदधीत पात्रे । (४०२१) पद्मकेसरयोगः मन्दानिमालस्यमपाकरोति (वृ. नि. र. । अर्श.) ___ करोति शुद्धिं जठरस्य पुंसाम् सपद्मकेसरक्षौद्रनवनीतं नवं लिहन् । स्वादिष्टवर्यो ननु लेहराजो सिताकेसरसंयुक्तं रक्तार्शी सुसुखी भवेत् ॥ रुचिपदो भोजनसन्निधाने ॥ कमलकेसर, मधु, नवनीत ( नौनी घी ), मिश्री | पञ्चकर्षा यदि द्राक्षा तावानेव रसो भवेत् । और नागकेसर के चूर्णको एकत्र मिलाकर सेवन । पकदाडिमवीजानां स्वादः सौम्यश्च जायते ॥ करनेसे रक्तार्श नष्ट होती है। ___ अर्थ-नीबूके १ सेर रसमें आधसेर अमल(४०२२) पलाशवृन्तयोगः | तासकी फलियोंको कूटकर डाल दें, दो दिन तक (ग. नि. । रक्तपि.) भीगने के बाद धुले हुवे वस्त्रमें डाल कर हिला पलाशवृन्तस्वरसं प्रपीडय विधिवच्छ्रतम् ।। हिलाकर छान लें । यह उत्तम खटाइ बन गइ । तल्लिह्यान्मधुसंयुक्तं रक्तपित्तनिवारणम् ॥ इसमें आगे लिखी हुइ दश चीजेांके कपड़छन पलाशके डण्ठले के स्वरस को अग्निपर गाढा चूर्णको डाल दें। दालचीनी, सेठ, कालीमिरच, करके उसमें शहद मिलाकर पीनेसे रक्तपित्त नष्ट | छोटी पीपल, हींग, छोर्टी अथवा बड़ी इलायचीके होता है। दाने । यह छः चीजें २-२ तोले लें। और सेंधा For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमकरणम् ] हतीपो भागः। [३२७ ] - नोन, कालानोन, कालादाना ( जिसको जुलाबके | यह चटनी जिसकी जिहापर लग जायगी उसको लिये जमालगोटेकी जगह वैध तथा डाक्टर लिया | किसी चूर्णकी आवश्यक्ता नहीं पड़ेगी। करसे हैं । यह सभी शहरों में पंसारीकी दूकान पर यह अवलेह कुछ गरम होता है इस लिये मिल जाता है । ), नवीन सफेदजीरा (जिसका | ५ तोले दाखको नीबूके रसके साथ शिलपर पीसदाल शाकमें छांक लगता है ) । यह चारों चीजें कर कपरछन करके अवलेहमें डाल दें। ओर पके ५-५ तोले लें । हींग और जीरेको मन्दी मन्दी | हुवे अनारके दानोंका रस भी डाल दें तो ये सब आंचसे धीमें भून लें और काले दानेको लोहेके | गरमी को शान्त करके स्वाद बढ़ा देंगे । ( यह तसलेमें, चलनीसे छानी हुइ रेतमें डालकर चूल्हे | स्मरण रहे कि इस अवलेहको मिट्टी, पत्थर, चीनी, पर रखकर मन्द मन्द आंच दें और जब दाने | कांच, काष्ठ आदिके पात्रमें बनावें । अर्थात् पीतल, खिलने लगें और “ पटपट " शब्द करने लगे। कांसी आदि किसी धातुका संपर्क न होने दें, तब तुरन्त तसलेको उतारकर उसमें की रेत और | नहीं तो अवलेहका स्वाद बिगड़ जायगा और काले दानेको चलनीमें डालकर हिलावें । ऐसा | चाटते ही चित्त खराब हो जायगा । जिसको करनेसे बालू छनकर सब निकल जायगी और | नोनका जियादे अभ्यास है वह अधिक भी कालादाना चलनीमें रह जायगा । हींग, जीरा | डाल ले ।) (रसायनसारसे उद्धृत) और काला दाना इनको शिलपर खूब पीस डालें (४०२४) पाषाणभेदपाक: बाकी ऊपर लिखी सात चीज़ोंको लोहेके खरल में कूटकर कपरछन कर लें । सब चूर्णको ऊपर (यो. र.; वृ. नि. र. । अश्मरी.) कही हुई खटाई में मिलानेसे बहुत स्वादु पाचका- अश्मभेदात्मस्थमेकं चूर्णितं वस्त्रगालिप्तम् । वलेह ( पाचक चटपटी चटनी ) बन जाता गव्ये दुग्धाढके क्षिप्त्वा पाचयेन्मृदुवहिना ॥ है। इसकी खूराक ३ माशेसे १ तोले तककी है। दा सम्मदेयेत्तावद्यावद्घनतरं भवेत् । इसके चाटनेसे मन्दाग्नि और आलस्य दूर | एला लवङ्गमगधा यष्टीमध्वमृताऽभया ॥ हो जाते हैं । रात्रिको चाटकर सोनेसे प्रातःकाल | कौन्ती श्वदंष्ट्रा वृषकं शरपुछा पुननेवा। दस्त साफ हो जाता है । चित्त खूब प्रसन्न यावश्कोऽनिलघ्नश्च मांसी सप्ताङ्गुलात्पलम् । रहता है । भोजनमें यदि रुचि नहीं होय तो दो वर्ष लोहं तथाऽभ्रं च कपूर पर्पटें शटी। घण्टे पहिले चाटनेसे भोजनमें रुचि हो आती है। पत्रेभकेसरं त्वक् च संशुद्धं च शिलाजतु ॥ प्रायः बुखारमें मुखका स्वाद बिगड़ा रहता है, । पृथगर्दपलं चूर्ण चूर्णिता सितशर्करा । इसके चाटनेसे वह दोष दूर हो जाता है । आज- | सार्द्धप्रस्थमिता ग्राखा दुग्धे वै लेखतां नयेत् ।। कल सभी लोगोंको नमक सुलेमानो, भास्करलवण | सर्व तमिक्षिपेत्तत्र स्वाइशीतलतां नयेत् । आदि पाचक चूर्णको आवश्यक्ता पड़ती है, परन्तु । मधुनः प्रस्थमेकं दद्यालिग्धभाण्डे विनिक्षिपेत्।। For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि कर्षादै भक्षयेत्मातस्तीक्ष्णं तैलादिकं त्यजेत् ।। परहेज़-तेल और तीक्ष्ण पदार्थ न खाने पञ्चाश्मरीभेदनः स्यान्मूत्रकृच्छं खुडं तथा ॥ | चाहिये। मूत्राघातान्ममेहांश्च नाशयेन्मधुमेहताम् । पिप्पलीखण्डः अधोगं रक्तपित्तश्च वस्तिकुक्षिगदं तथा ॥ ( भै. र. । अम्लपित्ता.) तीवाश्मरीपरीतानां विशेषेण हितं हि तत् । । खण्डपिप्पली (प्रयोग सं. १०८०) देखिये। प्रथमात्रिणा विरचितं च्यवनाय निवेदितम् ॥ (४०२५) पिप्पलीखण्डः ( वृहत् ) ___ पखानभेदका कपड़छन महीन चूर्ण १ सेर लेकर ( भै. र. । अम्लपित्त.) उसे ८ सेर गोदुग्धमें मन्दाग्निपर पका और जब पिप्पल्याः कुडवं चूर्ण घृतस्य कुडवद्वयम् । वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्न लिखित पलषोडशिकं खण्डादसे वाः पलाष्टके । चीजोंका महीन चूर्ण मिला दें। पलपोडशिके चैव आमलक्या रसस्य च । इलायची, लौंग, पीपल, मुलैठी, गिलोय, हरं, क्षीरप्रस्थद्वये साध्यं लेहीभूते ततः क्षिपेत् ।। रेणुका, गोखरु, बासा, सरफेोंका, पुनर्नवा, जवा त्रिजातकामयाजाजी धन्याकं मुस्तकं शुभा। धात्री च कार्षिकं चूर्ण कार्द्धश्चापि जीरकम् ॥ खार, बहेड़ा, जटामांसी और सप्ताङ्गुलका चूर्ण ५-५ तोले तथा बंगभस्म, लोहभस्म, अभ्रकभस्ग, कुष्ठनागरकं नागं सिद्धशीतेऽवचूर्णितम् । कपूर, पित्तपापड़ा, शटी (कचूर), तेजपात, नाग जातीफलं समरिचं मधुनश्च पलत्रयम् ।। केसर, दालचीनी और शुद्ध शिलाजीत का चूर्ण उपयुज्यात्ततो धीमानम्लपित्तनिवृत्तये । आधा आधा पल (२॥-२।। तोले ) तथा सफेद हृल्लासारोचकच्छर्दिवासकासक्षयापहम् ॥ खांड १॥ सेर । अग्निसन्दीपनं हृद्यं पिप्पलीखण्डसंज्ञितम् । __पीपलका चूर्ण २० तोले, शतावरका रस १ इन सब चीजेके मिलानेके पश्चात् जब वह | सेर, आमलेका रस २ सेर और दूध ४ सेर लेकर पाक बिल्कुछ ठण्डा हो जाय तो उसमें २ सेर | | सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें और शहद मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर सुरक्षित | जब खोया तैयार हो जाय तो उसे १ सेर धीमें रक्खें । भूनकर १ सेर खांडकी चाशनी में मिला दें और इसके सेवनसे पांच प्रकारकी अश्मरी, मूत्र- फिर उसमें निम्न लिखित चीजेका बारीक कृष्छू, वातरक्त, मूत्राघात, प्रमेह, मधुमेह, अधो- चूर्ण मिलाएं। गत रक्तपित्त, बस्तिरोग और कुक्षिगत रोग नष्ट दालचीनी, तेजपात, इलायची, हर्र, कालाहोते हैं । यह पाक अश्मरीके लिये विशेष जीरा, धनिया, नागरमोथा, बंसलोचन और आमउपयोगी है। लेका चूर्ण १।--११ तोला तथा जीरा, कूठ, सेठ मात्रा-६-७ माशे । और नागकेसर मेंसे हरेकका चूर्ण ७|| माशे । For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३२९] इसके पश्चात् जब वह शीतल हो जाय तो | पीपल, आमला, मुनक्का, खजूर और मिसरी उसमें जायफल और पीपलका चूर्ण तथा शहद समान भाग लेकर सबको एकत्र पीसकर घी और १५-१५ तोले मिलाकर सुरक्षित रक्खें । शहदमें मिलाकर चाटनेसे पित्तज क्षतज खांसी ___ इसके सेवनसे अम्लपित्त, जी मिचलाना,अरु- नष्ट होती है । ची, वमन, श्वास, खांसी और क्षयका नाश होता (४०२९) पिप्पल्यादिलेहः (३) है। यह अग्निदीपक तथा हृदयके लिये हित (रा. मा. | कासाधि. १०) कारी है । ( मात्रा ६ माशे ।) कृष्णामयूरच्छदभस्मयुक्ता (४०२६) पिप्पलीमूलाधवलेहः क्षौद्रेण लीढा विनिहन्ति हिक्काम् । (वृ. नि. र. । हिक्का.) श्वासं च सापूरमपि प्रवृद्धं पिप्पलीमूलमधुकं गुडगोश्वसकृद्रसान् । सुसूत्रतामानयति असहय ॥ हिध्याभिष्यन्दकासन्नान् लिहेन्मधुघृतान्वितान्॥ पीपल और मोरके पंखकी भस्म समान भाग ___पीपलामूल, और मुलैठीका चूर्ण तथा गुड़ लेकर दोनोंको शहदमें मिलाकर चटानेसे हिचकी और गाय तथा घोड़ेके मलका रस समान भाग | नष्ट होती है तथा अत्यन्त बढ़ा हुवा श्वास सुव्यलेकर सबको शहद और घी में मिलाकर चाटनेसे । वस्थित हो जाता है । हिचकी, आंखें दुखना और खांसी का नाश (मात्रा-१माशा ।) होता है। (४०२७) पिप्पल्यादिलेहः (१) पिप्पल्याचवलेहः (१) (ग. नि. | कासा. १०) (वं. से. । अम्लपित्त.) पिप्पल्यामलकं द्राक्षा तुगाक्षीर्यथ शर्करा।। प्र. सं. १०८१ खण्डपिप्पली देखिए लाक्षाघृतं माक्षिकं च लेहः कासविनाशनः ॥ (४०३०) पिप्पल्याचवलेहः (२) पीपल, आमला, मुनक्का, वंसलोचन, मिसरी और लाख समान भाग लेकर सबको पीसकर घी (यो. र.। क्षयकास.; वृ. यो. त. । त. ७८; और शहदमें मिलाकर चाटनेसे खांसी नष्ट होती है। च. सं. । चि. अ. ३२) (४०२८) पिप्पल्यादिलेहः (२) पिप्पली मधुकं पिष्टं कार्षिकं ससितोपलम् । (ग. नि. । कासा. १०) प्रस्थैकं गव्यमाज्यं च क्षीरमिक्षुरसस्तथा ॥ पिप्पल्यामलके द्राक्षा खर्जूरं शर्करा मधु । यवगोधूममृद्वीकाचूर्णमामलकीरसम् ।। लेहोऽयं सघृतो लीढः पित्तक्षतजकासनत ॥ तैलं च प्रसृतांशानि तत्सर्वं मृदुवहिना ॥ For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३३०] भारत-भैषज्य-स्नाकरः। [पकारादि पचेल्लेहं घृतक्षौद्रयुक्तं स श्वासकासजित् । । (४०३२) पिप्पल्याचवलेहः (४) क्षयहृद्रोगकासनो हितो वृद्धाल्परेतसाम् ॥ | (पिप्पलीपाक ) पीपल, मुलैठी और मिश्री ११-१। तोला, ( ग. नि. । परिशि. अवले. ५; वृ. नि. र.; यो. गायका घी, दूध और ईखका रस २-२ सेर तथा र. । ज्वरा.; यो. चिं. म. । पाका.) जौ, गेहूं, मुनक्का, आमलेका रस और तेल १०- प्रस्थं पिप्पलीमादाय क्षीरश्चैव चतुर्गुणम् । १० तोले लेकर चूर्ण योग्य चीज़ों का चूर्ण करके | अख़्ढकं घृतं गव्यं शुद्धखण्डात्तथाऽऽढकम् ।। सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब | पचेन्मृद्वमिना तावद्यावत्पाकमुपागतम् । लेह तैयार हो जाय तो ठण्डा करके उसमें घी | शीतीभूते क्षिपेत्तस्मिंश्चातुर्जातपलत्रयम् ॥ और शहद मिलाकर रखें। योजयेन्मात्रया दोषधात्वग्निबलसात्म्यतः। ___ इसके सेवन से श्वास, खांसी, क्षय और | बल्यो दृष्यस्तथा हृयो धातुपुष्टिकरः परः॥ जीर्णज्वरहरश्चैव स्त्रियं चैव तु टंहयेत् । हृद्रोग नष्ट होता है। छर्दिषारुचिश्वासशोषहिध्मा सकामलाः॥ यह वृद्ध और अल्पवीर्य पुरुषोंके लिये हित हृद्रोगं पाण्डुगुल्मञ्च प्रदरं च त्रिदोषजम् । शोणितानिलकाय च रक्तपित्तं नियच्छति ।। कारी है। सतताभ्यासयोगेन वलीपलितवर्जितः॥ (४०३१) पिप्पल्याचवलेहः (३) पीपलका चूर्ण १ सेर, गोदुग्ध ८ सेर, गो(वृं. मा.: वं. से. । यो. र.: ग. नि.: वृ. नि. | घृत ४ सेर और शुद्ध खांड ४ सेर लेकर सबको र.। कासा.; वृ. यो. त. । त. ७८) एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब अवलेह तैयार हो जाय तो उसे ठंडा करके उसमें दालपिप्पली पद्मकं लाक्षा' सुपकं वृहतीफलम् ।। चीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसरका घृतक्षौद्रयुतो लेहः क्षतरकासनिबहेणः॥ समान भाग मिश्रित चूर्ण १५ तोले मिलाकर पीपल, पनाक, लाख और कटेलीके पक्के सुरक्षित रक्खें । फल समान भाग लेकर सबको पीसकर घी और इसे दोष, धातु, अग्निबल और सात्म्यादि के शहदमें मिलाकर सेवन करने से क्षतज खांसी नष्ट | विचारसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे होती है। १-योग चिन्तामणिमें इससे भागे यह पाठ अधिक है१-द्राक्षेति पाठान्तरम् । षोडशपलप्रमाणं खादिरं गुन्दमेव च । २-क्षयेति पाठान्तरम् । पाचितं गव्यहम्येन निक्षिपेवस्य मध्यतम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेहमकरणम् ] तृतीयो भागः। [३३१] जीर्णज्वर, छर्दि (वमन ), तृषा, अरुचि, श्वास, | आटा आधा सेर लेकर सबको पृथक् पृथक् समान शोष, हिचकी, कामला, हृद्रोग, पाण्डु, गुल्म, ! भाग धीमें भूनें । तत्पश्चात् ३ सेर खांडकी त्रिदोषज प्रदर, वातरक्त, कृशता और रक्तपित्तका चाशनी बनाकर उसमें ये तीनों भुनी हुई चीजें नाश होता है। अच्छी तरह मिलाकर निम्न लिखित ओषधियोंका यह बल वीर्य वर्द्धक, हृदयके लिये हितकारी, चूर्ण मिला दें। धातुपुष्टिकर और स्त्रियोंके लिये वृंहण है । दोनों मूसली, तालमखाना, असगंध, शता इसके निरन्तर अभ्याससे मनुष्य बलीपलित वर, विधारा और कौंचके बीज ५-५ तोले । रहित हो जाता है। जायफल, जावत्री, अकरकरा, दारचीनी, लैांग, ( मात्रा-२ तोले । अनुपान-दूध ।) केसर, नागकेसर, बंगभस्म तथा अभ्रकभस्म ११, १। तोला। (४०३३) पिष्टिपाक: समस्त चीजें अच्छी तरह मिलाकर १०(नपुं. मृता. । त. ४) १० तोलेके लडु बनाकर रक्खें । पस्यैकं माषजां पिष्टिं प्रस्थाई मुद्गजां तथा। इन्हें नित्य प्रति प्रातःकाल सेवन करनेसे गोधूमानां च वै चूर्णमर्द्धप्रस्थप्रमाणत्ः॥ धृते समे विभज्याथ सर्वाश्चैव पृथक पृथक् ।। | कमरका दर्द और कृशता नष्ट होकर पलवृद्धि होती है। पाकं चैव विधायाथ शर्करामस्थकत्रयम् ॥ पाकं कृत्वा विधानेन पश्चाच्चूणीश्च मेलयेत्।। | यह उत्तम वाजीकरण भी है । मुशलीद्वयमिद्धं च अश्वगन्धां शतावरीम् ॥ वृद्धदारं कपीकच्छ पलैकांचूर्णयेत्पृथक् । | (४०३४) पुनर्नवहरीतक्यवलेहः जातीफलं जातिको आकारकरभ त्वचम् ॥ (ग. नि. । लेहा. ५) लवङ्गं चैव काश्मीरं तथैव नागकेशरम् । पुनर्नवायाः प्रस्थं तु चित्रकस्य तथैव च । वङ्गमभ्रं च सम्मेल्य कर्पकर्षप्रमाणतः ॥ पाठानागरदन्तीनां भागान्दशपलोन्मितान् ।। कारयित्वा विधानेन द्विपलिकांश्च मोदकान् ।। दशमूलतुलार्द्धन्तु पथ्यानां शतमेव च। मातनित्यं भक्षणीयं पाकोयं पिष्टिसम्भवः ॥ चतुर्गुणेऽम्भसः पक्त्वा पूर्त पादावशेषितम्।। कटीशूलं च काय च नाशयेनात्र संशयः। गुडस्यैकां तुलां क्षिप्त्वा लेहवत्साधु साधयेत् । बलवृद्धिकरं शश्वद्वाजीकरणमुत्तमम् ।। क्षिपेच्चूर्णीकृतं तत्र त्रिजातं त्रिकटुं तथा ॥ उर्दकी छिलके रहित दालकी बारीक पिट्ठी नागकेसरसंयुक्तं पलांशमुपकल्पितम् । १ सेर, मुंगकी दालकी पिट्ठी आधासेर तथा गेहूंका ! शीते भूते ततो दद्यात्कुडवं माक्षिकस्य च ॥ For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३३२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि लका काथ सब चीज अतो लेहपलं लीट्वा पथ्यां चैकां च भोजयेत् । पुनर्नवा ( बिसखपरा----साठी ), गिलोय, शोफगुल्मोदरार्शोन्नी पुनर्नवहरीतकी । पनर्नवा ( बिसखपग-मादी) र चीता। समान भाग मिश्रित ४ सेर लेकर ३२ सेर पानी १ सेर; पाठा, सांठ और दन्तीमूल १०-१० पल में पकाकर ८ सेर शेष रक्खें । ), अदरकका रस ( हरेक ५० तोले), दशमूलकी हरेक चीज ५ २ सेर और गुड़ ६। सेर लेकर सबको एकत्र पकाकर पल ( २५ तोले ) और हरै १०० नग लेकर | लेह बनावें और फिर उसमें सेठ, मिर्च, पीपल, हरीको कपड़े की पोटलीमें बांध लें और बाकी चव, इलायची, दालचीनी और तेजपातका चूर्ण सब चीजोको अधकुटा करलें । तत्पश्चात् सबको ११-१। तोला मिला । जब शीतल हो जाय तो ८ गुने पानी में पकावें और जब चौथा भाग पानी | उसमें ४० तोले शहद मिलावें । शेष रह जाय तो क्वाथको छान लें और हरी को यह लेह कफज शोथ, श्वास, खांसी और अलग रख दें । इस काथमें ६। सेर गुड़ और वे अरुचि नाशक तथा बल पुष्टि और अग्निवर्द्धक है। हरै डालकर फिर पकावें । जब अवलेह तैयार हो | ( मात्रा-६ माशे ।) जाय तो उसमें ५-५ तोले दालचीनी, तेजपात, ति, (४०३६) पुष्करमूलादि लेहः इलायची, सेठ, मिर्च, पीपल और नागकेसरका ( भा. प्र. । ज्वरा.; वृ. नि. र. । ज्वरोपद्रव.) चूर्ण मिलावें । और जब वह ठण्डा हो जाय तो उसमें ४० तोले शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें । पुष्करमूलकटुत्रिक्शृङ्गी इसमें से नित्य प्रति ५ तोले अवलेह चाटने कट्फलयासककारविकाभिः । | मधुलुलिताभिरयं खलु लेहः और १ हर्र खानेसे शोथ, गुल्म, उदररोग और ___ कासरिपुः कफरोगहरश्च ।। अर्शका नाश होता है। पोखरमूल, सांठ, मिर्च, पीपल, काकड़ासिंगी, (४०३५) पुनर्नवादिलेहः कायफल, धमासा और कलौंजी के समानभाग(वं. से.; भै. र.; च. द.; यो. र.; ग. नि.; वृं. मिश्रित चूर्णको शहदमें मिलाकर चाटनेसे खांसी मा. । शोथा.; वृ. यो. त. । त. १०६) और कफज रोग नष्ट होते हैं। पुनर्नवामृतादारुदशमूलरसाढके। (४०३७) पुष्करलेहः आईकस्वरसे प्रस्थे गुडस्य च तुलां पचेत् ॥ तत्सिद्धं व्योषचव्यैलात्वपत्रैः कार्पिकैः पृथक् । ( रसें. सा. सं.; र. रा. मुं. । प्रदर.; रसें. चि.म. अ. ९) चूर्णीकृतैलिहेच्छीते मधुनः कुडवं क्षिपेत् ॥ लेहः पौनर्नवो नाम्ना श्लेष्मशोथनिषूदनः। रसाञ्जनं शुभा शृङ्गी चित्रकं मधुयष्टिकम् । श्वासकासारुचिहरो बलपुष्टयग्निवर्द्धनः॥ । धान्यतालीशगायत्रीद्विजीरं त्रिता बला ॥ For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुप्रकरणम् ] सृतीयो भागः। [३३३] दन्तीत्र्यूषणकश्चापि पलार्द्धश्च पृथक् पृथक् । । श्वास, अम्लपित्त और क्षयका नाश होता तथा चतुः पलं माक्षिकस्यामलकस्य च क्षिपेत्ततः ॥। बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है। जातीकोषलवङ्गं च ककोलं मृद्विकापि च । । (मात्रा-६ माशे । ) चातुर्जातकखर्जूरं कर्षमेकं पृथक् पृथक्॥ (४०३८) पूगखण्डः (१) प्रक्षिप्य मर्दयित्वा च स्निग्धभाण्डे निधापयेत् । (भै. र. । शूला.) एप लेहवरः श्रीदः सर्वरोगकुलान्तकः॥ | छित्वा पूगफलं दृढं परिणतं पक्त्वा च दुग्धायत्र यत्र प्रयोज्यः स्यात्तदामयविनाशनः । म्बुभिः अनुपानं प्रयोक्तव्यं देशकालानुसारतः ॥ ! प्रक्षाल्यातपशोपितं वसुपलं ग्राहचं ततश्चूसर्वोपद्रवसंयुक्तं प्रदरं सर्वसम्भवम् । र्णितात् । द्वन्द्वजं चिरजञ्जव रक्तपितं विनाशयेत् ॥ तत्सर्पिः कुडवे विपाच्य हि वरीधात्रीरसौ कासश्वासाम्लपित्तश्च क्षयरोगमथापि वा। द्वयञ्जली सर्वरोगप्रशमनो बलवर्णाग्निवर्द्धनः॥ द्वे प्रस्थे पयसः प्रदाय विपचेन्मन्दं तुलार्की पुष्कराख्यो लेहवरः सर्वत्रैवोपयुज्यते ॥ सिताम् ॥ रसौत, बंसलोचन, काकड़ासिंगी, चीता, | हेमाम्भोधरचन्दनं त्रिकटुकं धात्रीपियालामुलैठी, धनिया, तालीसपत्र, खैरसार, दोनों जीरे, स्थिजौ निसोत, खरैटी, दन्तीमूल, सोंठ, काली मिर्च और / मज्जाना त्रिसुगान्ध जारकयुग शृङ्गाटक वंशजा पीपल २॥२॥ तोले; शहद ४० तोले, आमला , जातीकोषफले लवङ्गमपरं धान्याककक्कोलकम् २० तोले, तथा जावित्री, लांग, कंकोल, मुनक्का ! नाकूली तगराम्बु वीरणशिफा भृङ्गाश्वगन्धे दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर और तथा ॥ खजूर ११-१। तोला लेकर कूटने योग्य चीजको सर्व द्वयक्षमितं विचूयं विधिना पाके तु कूट छानकर चूर्ण बनावें और पीसने योग्य चीजों मन्दे ततः को पीसलें, तदनन्तर सबको एकत्र मिलाकर प्रक्षिप्याथ विघट्टयन् मुहुरिदं दावतार्य चिकने पात्र में भरकर सुरक्षित रक्खें । क्षणात् । | सिद्धं वीक्ष्य विधारयेदवहितः स्निग्धेऽथ मृद्___ यह अवलेह कान्तिवर्द्धक और सर्वरोग भाजने नाशक है। जहां कहीं भी दिया जाता है, रोग खादेत्मातरिदं जरामयहरं वृष्यं बुधस्तोलकम् ॥ को नष्ट कर देता है। शूलाजीर्णगुदप्रवाहरुधिरं दुष्टाम्लपित्तं जयेत इसके सेवनसे सर्व दोषज पुराना और सर्व | यक्ष्मक्षीणहितं महाग्निजननं तुट्छर्दिमूर्छाउपद्रव युक्त प्रदर, रक्तपित्त, खांसी, पहम् । For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः । [ ३३४ ] पाण्डु वलवर्णदृष्टिकरणं गर्भमदं योषितामेतत् पूगरसायनं प्रदरनुद् विण्मूत्रसङ्गापहम् ॥ सुपक उत्तम सुपारीके छोटे छोटे टुकड़े करके उन्हें जलमिश्रित दूधमें पकार्वे और फिर उन्हें गानी से धोकर धूप में सुखा कर चूर्ण करलें । तत्पश्चात् आठ पल (४० तोले) इस चूर्णको ४० तोले घीमें भूनें और फिर उसमें ४०-४० तोले सतावर और आमलेका रस, ४ सेर दूध और ३ सेर १० तोले खांड मिलाकर मन्दाग्निपर पकायें । जब अवलेह तैयार हो जाय तो उसमें निम्न लिखित चीजेांका चूर्ण मिलावेंः——नागकेसर, नागरमोथा, सफेद चन्दन, सोंठ, मिर्च, पीपल, आमला, चिरौंजी, दालचीनी, तेजपात, इलायची, दोनों जीरे सिंघाड़ा, बंसलोचन, जावित्री, जायफल, लौंग, धनिया, कंकोल, रास्ना, तगर, सुगन्धवाला, खस, भंगरा और असगन्ध २॥ २॥ तोले । इन सब चीजोंका चूर्ण मिलाकर थोड़ी देर करछी से चलायें और फिर चिकने पात्र में भरकर रख दें। इसके सेवन से शूल, अजीर्ण, गुदासे रक्त आना, कष्ट साध्य अम्लपित्त, तृष्णा, छर्दि, मूर्च्छा, पाण्डु और मल तथा मूत्रका अवरोध आदि रोग नष्ट होते हैं । | यह जराहर, वृष्य, अग्निवर्द्धक, बलवर्णको बढ़ानेवाला, दृष्टिको तीक्ष्ण करनेवाला और गर्भप्रद तथा यक्ष्माके रोगी और क्षीण पुरुषों के लिये हितकारी है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (४०३९) पूगखण्ड : (अपर ) (२) ( भै. र. । शूला. ) प्रस्यैकं पूगचूर्णस्य पयसश्चाढकं क्षिपेत् । शर्करायाः पलशतं घृतस्य कुडवद्वयम् ॥ मांसी तालीसपत्रञ्च बीजं कमलसम्भवम् ॥ चातुर्जातं त्रिकटुकं देवपुष्पं सचन्दनम् । नीलोत्पलं तथा बांशी शृङ्गाटं जीरकं तथा । विदारीकन्दजश्चैव रजो गोक्षुरसम्भवम् ।। शतमूलीरजश्चैव मालतीकुसुमं तथा । धात्रीचूर्ण समं कर्षे कर्पूरं शुक्तिमानतः ॥ मन्देऽग्नौ विपचेद् वैद्यः स्निग्वेभाण्डे निधापयेत् । खादेच्च प्रातरुत्थाय कोलमेकं प्रमाणतः ॥ छर्ब्रम्लपित्तहृद्दाहभ्रममूर्च्छापहं नृणाम् । सर्वशूलहरं श्रेष्ठमामवातविनाशनम् ॥ मेदोविकार लीहपाण्डुगदापहम् । अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रश्च गुदजं रुधिरं जयेत् ॥ रेतोवृद्धिकरं हृद्यं पुष्टिदं कामदं तथा । वन्ध्यापि लभते पुत्रं वृद्धोपि तरुणायते ।। नातः परतरं श्रेष्ठं विद्यते वाजिकर्मसु ॥ १ सेर सुपारीके चूर्णको ८ सेर दूध में पकावें । जब खोवा (मावा ) हो जाय तो उसे १ सेर घी में भूनें और फिर ६ सेर खांड की चाशनी करके उसमें यह खोवा (मावा) और निम्न लिखित चीजांका चूर्ण मिलावें: For Private And Personal Use Only दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, लौंग, सफेद चन्दन, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हमकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ३३५ ] जटामांसी, तालीसपत्र, कमल गट्टेकी गिरी, नीलो । जातीकोषफले च षट्कटुसटीद्राक्षावरावानरीचातुर्जाततुगाब्दधान्यमुसलीदीप्याजयष्टीक्षु त्पल, बंसलोचन, सिंघाड़ा, जीरा, बिदारीकन्द, गोखरू, शतावर, मालतीपुष्प और आमला | प्रत्येक १ - १ | तोला । इन सब चीजोंका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह आलोडन करें । जब पाक ठंडा हो जाय तो उसमें २|| तोले कपूर मिला कर चिकने पात्र में भरकर रखदें । इसे नित्य प्रति प्रातः काल ६ माशेकी मात्रानुसार सेवन करने से छर्दि, अम्लपित्त, हृदयकी दाह, भ्रम, मूर्छा, सर्व प्रकारके शूल, आमवात, प्रमेह, मेद, प्लीहा, पाण्डु, पथरी, मूत्रकृच्छ्र और गुदमार्गसे रक्त जाना इत्यादि रोग नष्ट होते हैं । यह वीर्यवर्धक, हृदयके लिये हितकारी पौष्टिक और कामशक्तिवर्द्धक है । इसके सेवनसे बन्ध्या स्त्रीको पुत्र प्राप्ति होती है और वृद्ध पुरुष पुनः युवाके समान हो जाता है I ( नोट - कपूरेको थोड़े से घी में मिलाकर डालना चाहिये । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जावित्री, जायफल, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, काली मिर्च, सटी ( कचूर), दाख इससे उत्तम वाजीकरण औषध अन्य कोई ( मुनक्का ), हर्र, बहेड़ा, आमला, कांचके बीज, नहीं है। दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, बंसलोचन, नागरमोथा, धनिया, मूसली, कालाजीरा, मेढासिंगी, मुलैठी, तालमखाना, अश्मा ( शिलाजीत ), कपूर, बला (खरैटी), अतिबला (कंधी), नागबला (गंगेरन ), गजपीपल, जटामांसी, शतावर, मेथी, सिंघाड़ा, सौंफ, सफेदजीरा, सुगन्ध बाला, भांग, गोखरु, खजूर, आमला, भलका गोंद ( या मूसली), बेर, चोरक, धतूरेके बीज (४०४०) पूगपाकः ( वृहत् ) ( वृ. यो. त. । त. १०३ ) पच्यात्पूगरजो दशाश्रममलं मार्दे कटाहेऽग्निना भेदेनाष्टगुणे पयस्यापि घृतप्रस्थार्धकेऽस्मि - न्घने । रम् ॥ ramrita aarti करिकणामांसीव रीमेथिकाशृङ्गाटं मिशिजीरवारिविजयागोक्षुरखर्जूरकम् । धात्री शाल्मलि कोलचोरकनकं कुम्भत्रिनेत्राभ्रकं पृथ्वीका भयवङ्गदेवकुसुमं दद्यात्पृथक् कार्षिकम् ॥ पञ्चाशत्पलखण्डपाकललितः स्यात्पूगपाकःपृथुवृष्यः पाण्ड्यहरः प्रमेहदलनो रेतोविवृद्धिमदः। पित्ताको प्रदरे क्षये करपदे दाहेऽम्लपित्ते वधुदहे पाण्डुगदे हुताशनहतावेतेषु शस्तो मतः॥ दश पल ( ५० तोले) सुपारीके चूर्णको १० सेर दूधमें मिट्टीके पात्रमें पकावें । जब खोवा (मावा) हो जाय तो उसे १ सेर ( ८० तोले ) घी में भून लें। और फिर ५० पल ( ३ सेर १० तोले ) खांड की चाशनी बनाकर उसमें यह खोवा तथा निम्न लिखित ओषधियांका चूर्ण मिलावें । For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३३६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि निसोत, बाराहीकन्द, अभ्रकभस्म, इलायची, । मन्दाग्निं च विजित्य पुष्टिमतुलां कुर्याच्च शुक्रपदो खस, बंगभस्म और लैग । प्रत्येकका चूर्ण १।- योगो गर्भकरः परो गदहरः स्त्रीणामसृग्दोष११ तोला। जित् ।। सबको अच्छी तरह मिलाकर चिकने पात्रमें | सुपारीके ८ पल (४० तोले ) चूर्णको भरकर रक्खें । । ६ सेर दूधमें पकावें । जब खोवा (मावा) यह पाक वृष्य, नपुसकतानाशक, प्रमेह हो जाय तो उसे ४० तोले घीमें भूनें और नाशक, वीर्यवर्द्धक तथा रक्तपित्त, प्रदर, क्षय, फिर ५० पल ( ३ सेर १० तोले ) खांडकी हाथ पैरोंकी जलन, अम्लपित्त, शरीरको दाह, पाण्डु चाशनीमें यह मावा तथा निम्न लिखित चीज़ांका और अग्निमांद्य में हितकर है। चूर्ण मिलावें । ( मात्रा--१ तोला ) आमला और शतावर २०-२० तोले, तथा नागकेसर, नागरमोथा, सफेदचन्दन, सोंठ, पूगपाकः ( रतिवल्लभः) मिर्च, पीपल, आगला, चिरौंजी, बेरकी माँगी, रकारमें देखिये। लज्जालु, दालचीनी, तेजपात, इलायची, दोनोंजी रे, (४०४१) पूगपांसुर्योगः ( पूगपाकः ) सिंघाड़ा, बंसलोचन, जावित्री, लौंग और धनिया। ( वृ. यो. त.। त. १०३; यो. र.; वै. र.। प्रत्येकका चूर्ण १।-११ तोला । सबको अच्छी प्रमेह.; यो. त. । त. ५१; वृ. नि. र.। | तरह मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर रक्खें । प्रमेह; यो. चि. म. । अ. १) । इस नित्य प्रति प्रातःकाल सेवन करनेसे हेमाम्भोधरचन्दनं त्रिकटुकं धात्री प्रियालाकुह- प्रमेह, जीर्णज्वर, अम्लपित्त, गुदमार्ग आंख नाक लेजालस्त्रिमुगन्धिजीरकयुगं शृङ्गाटकं वंश और मुंहसे रक्तस्राव होना और रक्तप्रदर आदि रोग | नष्ट होते तथा बल, अग्नि और वीर्यकी वृद्धि जातीकोशलवडधान्यबहलाप्रत्येकमक्षोन्मिताः | होती है । इसके सेवनसे स्त्रियोंको गर्भप्राप्ति पुगस्याष्टपलं विचूर्ण्य च पयः प्रस्थत्रये संप- | होती है। चेत॥ (मात्रा-६ माशे।) गोसपिः कुडवं सिताकतुलां धात्रीवरी द्वयालि (४०४२) पूगीपाक: मन्दाग्नौ विपचेद् भिषक् शुभदिने सुस्निग्ध (यो. त. । त. ५१) भाण्डे क्षिपेत् । | श्रीखण्डं त्रिसुगन्धिकेसरकणाशुण्ठीवरीचाम्बुदं तं खादेत्तु यथाग्नि वासरमुखे मेहांश्च जीर्णज्वरं शृङ्गाटं जलज प्रियालबदरीधात्र्यब्जबीजं तुगा। पित्तं साम्लममृतिं च गुदजां वक्त्राक्षिना- द्राक्षा जीरकधान्यकं ससुमनः पुष्पं च जातीदलं सासु च ॥ शुद्धारं दरदं पलार्द्धकमिदं सन्नारिकेलाप्रमत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेहप्रकरणम् ] तृतीया भागः। [३३७] पूर्ग चाष्टपलं च सौरभपयः प्रस्थत्रये सम्पचेत् | यह खोवा और उपरोक्त प्रक्षेप द्रव्यांका चूर्ण पश्चादामलकीवरीजलशरावाऽय पिष्टीकृतम्। मिला कर चिकने पात्रमें भरकर रखें । शुष्कीकृत्य कटाहके च सघृते मन्दाग्निना चू- इसे प्रातःकाल सेवन करने से प्रमेह, वायु, युग | अफारा, शूल, क्षीणता, दैन्य, मुख गुद कान नाक वाव्योमपलार्द्धकन्तु तुलया खण्डेन पाकी- | और रोमकूपों से रक्तस्राव होना, वृद्धावस्थाके कृतम् ॥ | विकार, अग्निमांद्य और हृद्रोग नष्ट होते तथा भुक्तं पातरिद प्रमेहपवनाध्मानानि शूलानि च | बलवीर्यकी वृद्धि होती है। क्षेण्यं दैन्यमस्कति मुखगुदश्रोत्रासिलोमो- ( मात्रा-६ माशे से १ तोले तक।) भवाम् । पेठापाका हन्याद्रोगजराविपत्तिशमनं मन्दामिहमुहणं । ण्डखण्ड तथा बल्य वृद्धिकरं प्रमोदजनक पूर्ण न कि सेव्यते॥ खण्डकुष्माण्ड देखिये।) प्रक्षेपद्रव्य-सफेदचन्दन, दालचीनी, तेज | (४०४३) प्रसारणीलेहः पात, इलायची, नागकेशर, पीपल, सांठ, शतावर, ( भा. प्र. । आमवा.) नागरमोथा, सिंघाड़ा, कमल चिरौंजी, बेरकीमींगी, प्रसारण्याढके काथे प्रस्थो गुडरसो मतः। आमला, कमलगट्टा, बंसलोचन, मुनक्का, जीरा, | धनिया, चमेलीके फूल तथा पत्ते, मुण्डलौहभस्म, पकः पश्चोषणरजोयुक्तः स्यादामवातहा ।। शुद्ध हिंगुल और गोला ( नारियल ), बंगभस्म ४ सेर प्रसारणीको ३२ सेर पानीमें पकावें। तथा अभ्रकभस्म २॥२॥ तोले । जब ८ सेर पानी रह जाय तो उसे छानकर उसमें १ सेर गुड़ मिलाकर पुनः पकावें । जब विधि-प्रथम ८ पल (४० तोले ) अवलेह तैयार हो जाय तो उसमें पीपल, पीपलासुपारीके चूर्णको १-१ सेर आमले और शताव मूल, चव, चीता और सेठि का (१० तोले) रके रसमें पीसें और फिर उसे सुखाकर ६ सेर चूर्ण मिलावें। गायके दूधमें पकावें । जब खोवा (मावा) हो जाय तो उसे ( १ सेर ) धीमें भून लें। इसके सेवनसे आमवात का नाश होता है। तदनन्तर ६। सेर खांडकी चाशनी करके उसमें । ( मात्रा-१ तोला तक ) इति पकाराधवलेहप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ३३८ ] www.kobatirth.org भारत त-भैषज्य रत्नाकरः । अथ पकारदिघृतप्रकरणम् कल्क -- पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ और जवाखार ( सब समानभाग - मिश्रित २० तोले ) लेकर पीसलें । (४०४४) पञ्चकोलघृतम् (१) (४०४५) पञ्चकोलघुतम् (२) (बृ. नि. र. । पाण्डु; हा. सं. । स्था. ३ अ. ९ ) पञ्चकोलं यवाग्रं च क्षीरं दधा घृतं पुनः । ( च. सं. । चि. अ. १३ उदर. ) पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः । समांशानि तु योज्यानि भाङ्ग कुष्ठं च पौष्करम् ॥ सक्षारैरर्द्धपलिकैर्द्विप्रस्थं सर्पिषः पचेत् ॥ शतं तत्र हरीतक्या जले चैव चतुर्गुणे । का चैकत्र योज्यान्ते काथयेन्मृदुवह्निना ।। मृदुपाकघृतं सिद्धं पाने नस्ये च बस्तिषु । गुणाधिक्यं भवेन्नृणां पाण्डुरोगे हलीमके ॥ क्षये च राजयक्ष्मणि च शस्तमुक्तं भिषग्वरैः ॥ काथ --भरंगी, कूठ और पोखरमूल तथा १०० हर्र । सब मिलित २ सेर 1 काथार्थ जल १६ सेर । शेष काथ ४ सेर अन्य पदार्थ - दूध २ सेर, दही ४ सेर, घी २ सेर । विधि काथ कल्क और अन्य समस्त पदार्थों को एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे पिलाने अथवा बस्ति या नस्य द्वारा प्रयुक्त करनेसे पाण्डु, हलीमक क्षय और राजयक्ष्माका नाश होता है । [ पकारादि कल्कैर्द्विपञ्चमूलस्य तुलार्धस्वरसेन च । दण्डाकोपेतं तत्सर्पिर्जठरापहम् ॥ श्वयथुं वातविष्टम्भं गुल्माशसि च नाशयेत् ॥ सांठ और यवक्षार २||२|| तोले | कल्क — पिप्पली, पीपलामूल, चव, चीता, काथ -- २५ पल ( १ सेर ४५ तोले ) दशमूलको २०० पल ( १२ ॥ सेर ) पानी में पकावें और जब ५० पल पानी शेष रह जाय तो छान लें। विधि ४ सेर घी, ८ सेर मस्तु (दहीका पानी) उपरोक्त काथ और कल्क एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसको छान 1 यह घृत उदरव्याधि, शोध, वायु, विष्टम्भ, गुल्म और अर्श को नष्ट करता है । ( मात्रा - - १ तोला । ) I (४०४६) पञ्चकोलाद्यं घृतम् १ (१) ( च. सं. । चि. अ. ५ गुल्म.; वृ. नि. र. । गुल्म . ) पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः । पलिकैः सयवक्षारैर्धृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ For Private And Personal Use Only १ - शार्ङ्गधर में यवक्षारके स्थान में सैन्धन, और दूध चार गुना लिखा है । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] मृतीयो भागः। [३३९] क्षीरमस्थेन तत्सपिहन्ति गुल्मं कफात्मकम् । गायके गोबरका रस, गायका खट्टा दही, महणीपाण्डुरोगघ्नं प्लीहकासज्वरापहम् ॥ गायका दूध, गोमूत्र और गायका घी बराबर कल्क----पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, बराबर लेकर एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतसेठ और यवक्षार ५-५ तोले ।। मात्र शेष रह जाय तो छान लें। २ सेर घीमें यह कल्क; २ सेर दूध और इसके सेवनसे चातुर्थिक (चौथिया ) ज्वर, ८ सेर पानी मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष उन्माद और अपस्मार नष्ट होता है । रह जाय तो उसे छान लें । (४०४९) पञ्चगव्यं घृतम् (२) यह घृत कफजगुल्म, संग्रहणी, पाण्डु, प्लीहा, (सु. सं. । उ. त. अ. ३९) खांसी और ज्वरका नाश करता है। गव्यं दधि च मूत्रश्च क्षीरं सर्पिः शकृद्रसः । (मात्रा--१ तोला।) समभागानि पाच्यानि कल्कांश्चैतान्समावपेत् ॥ (४०४७) पञ्चकोलाचं घृतम् (२) । त्रिफलां चित्रकं मुस्तं हरिद्रे द्वे विषां वचाम् । (. मा.; वं. से.; च. द. । शोथा.) विडङ्गं त्र्यूषणं चव्य सुरदारु तथैव च ॥ रसे विपाचयेत्सर्पिः पञ्चकोलकुलत्थयोः। | पश्चगव्यमिदं पानाद्विषमज्वरनाशनम् ॥ पुनर्नवायाः कल्केन घृतं शोथविनाशनम् ।। गायफा दही, मूत्र, दूध, घी और गोबरका काथ-पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, रस २-२ सेर तथा निम्न लिखित ओषधियों का सोंठ और कुलथ समान--भाग-मिश्रित २ सेर कल्क २० तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर लेकर अधकुटा करके १६ सेर पानीमें पकावें । | पकावें । जब धृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें । जब ४ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें १ कल्क हर, बहेड़ा, आमला, चीता, नागरसेर घी और ६ तोले ८ माशे पुनर्नवा (बिसख- | मोथा, हल्दी, दारुहल्दी, अतीस, बच, बायबिपरा) का कल्क मिलाकर पुनः पकावें । जब क्वाथ डंग, सांठ, मिर्च, पीपल, चव और देवदारु । जल जाय तो घीको छान लें । यह घृत विषमज्वरको नष्ट करता है। इसके सेवनसे शोथ नष्ट होता है। ( मात्रा--१ तोला) ( मात्रा--१ तोला ।) (४०५०) पञ्चगव्यं घृतम् (३) (४०४८) पञ्चगव्यं घृतम् (१) (स्वल्प) (र. र. । अपस्मारा.; च. सं. । चि. अ. ( ग. नि. । घृता.१; सु. सं. । उ. त. अ. ६१) १५ अपस्मा.) दशमूलेन्द्रवृक्षत्वङ्यूर्वाभार्गीफलत्रयैः । गोशकद्रसदध्यम्लक्षीरमूत्रैः समैघृतम् । शम्पाकश्रेयसीसप्तपणापामागेफल्गुभिः॥ सिद्धं चातुर्थिकोन्मादसर्वापस्मारनाशनम् ॥ । १-पीलुभिरिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३४०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि शृतैः कल्कैश्च भूनिम्बत्रिफलाव्योपचित्रकैः।। (४०५१) पञ्चगव्यं घृतम् (४) (वृहत् ) त्रिवृत्पाठानिशायुग्मसारिवाद्वयपौष्करैः॥ (र. र. । अपस्मार.; च. सं. । चि. अ. १५ कटुकायासदन्त्युग्राश्नीलिनीक्रिमिशत्रुभिः। अपस्मा.; ग. नि. । घृता. १.) सपिरेभिश्च गोक्षीरदधिमूत्रशकद्रसैः ॥ द्वे पश्चमल्यौ त्रिफलां रजन्यौ कुटजत्वचम् । साधितं पञ्चगव्याख्यं सर्वापस्मारभूतनुत् ।। सप्तपर्णमपामार्गनीलिनीकटुरोहिणीम् ।। चतुश्चतुः क्षयश्वासानुन्मादांश्च नियच्छति ॥ सम्पाकं फल्गुमलञ्च पौष्करं सदुरालभम् । काथ-दशमूल, कुड़ेकी छाल, मूळ, द्विपलांशं जलद्रोणे पक्त्वा पादावशेषितम् ॥ भरंगी, त्रिफला, अमलतास, गजपीपल, सताना, | भाजीपागत्रिकटुकत्रिहतानि चूर्णानि च । चिरचिटा और कठूमर ( कठगूलर ) की छाल | श्रेयसी २मागधी मा दन्ती भूनिम्बचित्रकौ ॥ समान भाग मिश्रित १ सेर लेकर अधकुटा करके द्वे सारिवे रोहिषश्च भूतिकं मदयन्तिकाम् । ८ सेर पानीमें पका और २ सेर पानी शेष रहने | क्षिपेत्पिष्ट्वाक्षमानानि तैः प्रस्थं सर्पिषः पचेत्।। पर छानलें। | गोशकृद्रसदध्यम्लक्षीरमृत्रैश्च तत्समैः। कल्क-चिरायता, त्रिफला (हर, बहेड़ा, पञ्चगव्यमिति ख्यातं महत्तदमृतोपमम् ॥ आमला. ) त्रिकटा ( सांठ, मिर्च, पीपल ), चीता, | अपस्मारे ज्वरे कासे श्वयथावुदरेषु च । निसोत, पाठा, हल्दी, दारुहल्दी, दो प्रकारकी | गुल्माशः पाण्डुरोगेषु कामलायां हलीमके ॥ सारिवा, पोखरमूल, कुटकी, धमासा, दन्तीमूल, अलक्ष्मीग्रहरक्षोघ्नं चातुर्थिकनिवारणम् ॥ बच, नीलका पञ्चाङ्ग और बायबिडंग । सब समान- (श्रेयसीगजपिप्पली, रोहिर्ष गन्धतृणभेदः, भागमिश्रित २० तोले लेकर पानीके साथ भूतिकं गन्धवर्ण रोहिषाभावे भागद्वयं ग्राह्यम् ।) पीस लें। काय-दशमूलकी हरेक चीज़, हर्र, बहेड़ा, विधि--काथ, कल्क, २ सेर गायका घी, | आमला, हल्दी, दारुहल्दी, कुड़ेकी छाल, सतौना, २ सेर गायका दही, २ सेर गायका दूध, और | | चिरायता, नीलका पश्चाङ्ग, कुटकी, अमलतास २ सेर गायके गोबरका रस एकत्र मिलाकर पकावें। और कठूमर ( कठगूलर ) की जड़की छाल, जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। पोखर मूल और धमासा । प्रत्येक १० तोले लेकर अधकुटा करके सबको ३२ सेर पानीमें पकावें । इसके सेवनसे अपस्मार, भूतोन्माद, क्षय, | जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। श्वास और उन्माद रोग नष्ट होता है। ___ कल्क-भरंगी, पाठा, सोंठ, मिर्च, पीपल, ( मात्रा-१ तोला।) निसोत, गजपीपल, पीपल, मूर्वा, दन्तीमूल, चिरायता, २-पूतीकेति पालन्तरम् । १-" निबुलानि च " इति पाठान्तरम् । -कटकामदयन्त्युप्रेति पाठभेदः २-" मालकी" इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३४१] (या चीता, दो प्रकारकी सारिवा, रोहिष (गन्ध- | विधि---काथ, कल्क और २ सेर घीको तृण भेद । इसके अभावमें गन्ध तृण ), भूतिक । एकत्र मिलाकर पकावें। जब घृतमात्र शेष रह (गन्ध तृण ) और मल्लिका पुष्प (मोगरा या | जाय तो छान लें। चमेली ) । प्रत्येक ११-१॥ तोला लेकर सबको इसके सेवनसे विषमज्वर, पाण्डु, कुष्ठ, पानीके साथ पीस लें। | विसर्प, कृमि और अर्शका नाश होता है। विधि-काथ, कल्क, २ सेर गायका घी, (मात्रा-१ तोला ।) २ सेर गायके गोबरका रस, २ सेर गायके दही का पानी, २ सेर गायका दूध और २ सेर गोमूत्र | (४०५३) पञ्चतिक्तकं घृतम् (२) एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृत मात्र शेष रह (यो. र. । वातव्या.) जाय तो छान लें। | निम्बामृतापपटोलनिदिग्धिकानां यह घृत अमृतके समान गुणकारी है। | भागान्पृथक्दशपलान् विपचेद् घटेऽपाम् । इसके सेवनसे अपस्मार, ज्वर, खांसी, शोथ, उद | अष्टावशेषितरसेन पुनश्च तेन । ररोग, गुल्म, अर्श, पाण्डु, कामला हलीमक और प्रस्थं घृतस्य विपचेपिचुभागकल्कैः ॥ चातुर्थिक (चौथिया ) ज्वर का नाश होता है। | रास्नाविडङ्गसुरदारुगजोपकुल्या (मात्रा-१ तोला ।) द्विक्षारनागरनिशामिशिचव्यकुष्ठैः। तेजोवतीमरिचवत्सकदीप्यकानि-- (४०५२) पश्चतिक्तकं घृतम् (१) रोहिण्यपुष्करवचाकणमूलयुक्तैः ॥ (यो. र.; इ. नि. र. । ज्वरा.; यो. चिं. म.। मनिष्ठयाऽतिविषया त्रितायमान्या अ. ५) ____संशुद्धगुग्गुलुपलैरपि पञ्चसंख्यैः । वृषनिम्बामृताव्याघ्रीपटोलानां शृतेन च। तत्सेवितं घृतमतिप्रबलं समीरं कल्केन पकं सर्पिस्तु निहन्याद्विषमज्वरान् ॥ सन्ध्यस्थिमज्जगतमप्यपहन्ति कुष्ठम् ।। पाण्डं कुष्ठ विसर्प च कृमीनशॉसि नाशयेत् ॥ नाडीव्रणाव॒दभगन्दरगण्डमाला काय--बासा, नीमकी छाल, गिलोय, जर्ववातगदगुल्मगुदोत्यमेहान् । कटेली और पटोल समानभागमिश्रित ४ सेर लेकर | यक्ष्मारुजं श्वसनपीनसकासशोफसबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें पकावें । __ हृत्पाण्डुरोगमथ विद्रधिवातरक्तम् ॥ और चौथा भाग शेष रहने पर छान लें। काथ--नीमकी छाल, गिलोय, बासा, कल्क---उपरोक्त पांचों ओषधियां समान- | पटोल और कटेली । दस दस पल ( हरेक ५० भागमिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर पानीके तोले ) लेकर सबको ३२ सेर पानी में पकावे । साथ पीस लें। | जब ४ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३४२] भारत-भैषज्य-रस्नाकरः। [पकारादि कल्क--रास्ना, बायबिडंग, देवदारु, गज- काथ-नीमकी छाल, पटोल, कटेली, गिलोय पीपल, जवाखार, सजीखार, सोंठ, हल्दी, सौंफ, | और बासा १०-१० पल (हरेक ५० तोले ) चव, कूठ, मालकंगनी, कालीमिर्च, इन्द्रजो, अज- लेकर कूटकर सबको ३२ सेर पानीमें पकायें । मोद, चीता, कुटकी, पोखरमूल, बच, पीपलामूल, जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। मजीठ, अतीस, निसोत और अजवायन । प्रत्येक तत्पश्चात् यह काथ, २ सेर धी और १३ तोले ओषधि ११-१। तोला लेकर पानीके साथ पीस ८ माशे त्रिफलेका कल्क एकत्र मिलाकर पकावें। लें। शुद्ध गूगल २५ तोले । काथके जल जाने पर धृतको छान लें। विधि--काथ, कल्क, २ सेर घी ( और इसके सेवनसे कुष्ठ, ८० प्रकारके वातज ४ सेर पानी ) एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृत | रोग, ४० प्रकारके पित्तज रोग, २० प्रकारके मात्र शेष रह जाय तो छान लें। कफज रोग, दुष्ट व्रण, कृमि, अर्श और पांच प्रकाइसके सेवनसे सन्धि, अस्थि, और मज्जा- | रकी खांसी नष्ट होती है । गत प्रबल वायु, कुष्ठ, नाड़ीगण ( नासूर ), अर्बुद, ( मात्रा---१ तोला ।) भगन्दर, गण्डमाला, ऊर्ध्वजत्रुगत वातज रोग, | (४०५५) पञ्चतिक्तं घृतम् (४) गुल्म, अर्श, प्रमेह, राजयक्ष्मा, श्वास, पीनस, (वृ. नि. र.: ग. नि.. . मा. । विस्फोटा.. खांसी, शोथ, हृद्रोग, पाण्डु, विद्रधि और वातरक्त वृ. यो. त.। त. १२५.; वं. से.; र. र.; यो. का नाश होता है। र.; च. द. । विस्फोटा.; यो. त.। त. ६६) ( मात्रा--६ माशे।) पटोलसप्तच्छदनिम्बवासा (४०५४) पञ्चतिक्तकं घृतम् (३) फलनिकच्छिन्नरुहाविपकम् । (च. द.; मैं. र. यो. र.; वं. से.; . मा.। तत्पश्चतिक्तं घृतमाशु हन्ति । कुष्ठ.; ग. नि. । घृताधि. १; वृ. यो. त.। त्रिदोषविस्फोटविसर्पकण्डूः॥ त. १२०) पटोल, सतौना, नीमकी छाल, बासा, हरे, निम्बं पटोलं व्याघ्री च गुडूची वासकं तथा। बहेड़ा, आमला और गिलोय के काथ तथा कल्कसे कुर्याद्दशपलान्भागानेकैकस्य मुकुहितान् ॥ सिद्ध घृतसे त्रिदोषज विस्फोटक, विसर्प और जलद्रोणे विपक्तव्यं यावत्पादावशेषितम् । । खुजली नष्ट होती है। घृतपस्थं पचेत्तेन त्रिफलागर्भसंयुतम् ॥ (काथके लिये सब चीजें मिलाकर ४ सेर पञ्चतिक्तमिदं ख्यातं सर्पिः कुष्ठविनाशनम् । | लें । ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष अशीतिं वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच्च पैत्तिकान्।। रहने पर छान लें। विंशति श्लैष्मिकांश्चैव पानादेवापकर्षति । कल्कके लिये सब चीजें समान-भाग-मिश्रित दुष्टवणक्रिमीनः पञ्चकासांश्च नाशयेत् ॥ | १३ तोले ४ माशे । घी २ सेर।) For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] हतीयो भागः। [३४३] (४०५६) पञ्चपलं घृतम् ( सब चीजें समान भाग मिलाकर १ (भै. र.; च. द. । गुल्मा.; च. सं. । चि. सेर लें और कूट कर ८ सेर पानीमें पकावें । अ. ५ गुल्म.) । २ सेर पानी शेष रहने पर छान कर उसमें आधा पिप्पल्याः पिचुरध्यर्दो दाडिमाद्विपल पलम्। | सेर घी तथा उपरोक्त चीजोंका समानभाग-मिश्रित धान्यात् पश्चाघृताच्छुण्ठ्याः कर्षः क्षीरं चतु ६ तोले ८ माशे कल्क मिलाकर धूप में रक्खें गुणम् ॥ और पानी खुश्क हो जाने पर छान लें। अथवा सिद्धमेतद् घृतं सद्यो वातगुल्मं चिकित्सति। आगपर पकाकर पानी जला दें।) योनिशूलं शिरःशूलमांसि विषमज्वरम् ॥ इस तेलका फाया योनिमें रखना चाहिये । पीपल १ तोला १०॥ माशे, अनारदाना | (४०५८) पञ्चमूलाधं घृतम् १० तोले, धनिया ५ तोले और सांठ ११ तोला । (यो. र.; वं. से. । ग्रहणी.; वृ. यो. त. । त. लेकर सब को पानीके साथ पीस लें । तत्पश्चात् ६७ वा. भ. । चि. अ. १०) यह कल्क, ५० तोले घी और २०० तोले दूध घो और २०० तोले दूध | पञ्चमूल्यभयाव्योषपिप्पलीमूलसैन्धवैः । एकत्र मिलाकर पका । और दूध जल जाने पर रास्नाक्षारद्वयाजाजीविडङ्गशटिभिश्रुतम् ॥ घृतको छान लें। पकेन मातुलुङ्गस्य स्वरसेनाऽऽद्रेकस्य च । ___ इसके सेवनसे वातज गुल्म, योनिशूल, शिर- शुष्कमूलककोलाम्बुचुक्रिकादाडिमस्य च ॥ पीड़ा, अर्श और विषमज्वर नष्ट होता है। | तक्रमस्तुसुरामण्डसौवीरकतुषोदकैः।। ( मात्रा-१ तोला ।) काधिकेन च तत्पक्त्वा पीतमग्निकरं परम् ।। (४०५७) पञ्चपल्लवाचं घृतम् शूलगुल्मोदरानाहकार्यानिलगदापहम् ।। (च. द. । योनिन्याप.) कल्क-बेलछाल, अरलुकी छाल, खम्भापञ्चपल्लवयष्टयाहमालतीकुसुमैय॒तम् । | रीकी छाल, पाढल, अरणी, हर्र, सांठ, मिर्च, पीपल, रविपकमन्यथा वा योनिगन्धार्तवनाशनम् ॥ | पीपलामूल, सेंधा नमक, रास्ना, जवाखार, पश्चपल्लव ( आमकेपत्ते, जामनके पत्ते. । सजीखार, जीरा, बायबिडंग और शटी ( कचूर) बिजौरे नीबूके पत्ते, कैथके पत्ते और बेलके पत्ते), | सब चीजें समानभाग-मिश्रित २० तोले । मुलैठी और चमेली के फूलों के कल्क तथा काथसे | द्रव पदार्थ-पके हुवे बिजौरे नीबूका सूर्यपाक द्वारा अथवा अग्निपर पकाकर सिद्ध किया | रस २ सेर, अदरकका रस २ सेर, सूखी मूलीका हुवा घृत योनिकी गन्ध और आर्तव-विकारों को काढ़ा २ सेर, बेरका काढ़ा २ सेर, चूकेका रस मष्ट करता है। २ सेर, अनारका रस २ सेर, तक्र २ सेर, दहीका १-प्रस्थमिति पाठान्तरम् । | पानी २ सेरे, सुराका मण्ड ( स्वच्छ भाग) For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३४४ ] २ सेर, सौवीरक २ सेर, तुषोदक २ सेर और कांजी २ सेर | भारत - भैषज्य रत्नाकरः । २ सेर घी, कल्क और ये समस्त द्रव पदार्थ मिलाकर पकावें । इसके सेवन से अग्निकी वृद्धि होती तथा शूल, गुल्म, उदररोग, अफारा, कृशता और वातज रोग नष्ट होते हैं । ( मात्रा - १ तोला 1 ) (४०५९) पश्चारविन्द घृतम् ( र. र. । उपदंशा . ) मृणालं पद्मबीजानि नालं पद्मञ्च केसरम् । सर्व सप्पलं कुर्यात् त्रिंशत्पलञ्च गोघृतम् ॥ घृताच्चतुर्गुणं क्षीरं घृतशेषं विपाचयेत् । पाकान्ते चूर्णमेषाञ्च क्षिप्त्वा तदवतारयेत् ॥ भक्षयेल्लिङ्गरोगघ्नं घृतं पञ्चारविन्दकम् ॥ कमलनाल, कमलगट्टा, कमलकी जड़, कमलपुष्प और कमलकेसर । सबका समानभाग - मिश्रित चूर्ण ३५ तोले । -२ तोले तक । ) ३० पल (१५० तोले) घी में यह चूर्ण और चार गुना दूध मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें उपरोक्त पांचों ओषधियों का ७ पल ( ३५ तोले ) चूर्ण मिला । इसके सेवन से उपदंश ( आतशक ) नष्ट होती है । ( मात्रा - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (४०६०) पटोलघृतम् (वं. से.; वृ. मा.; वृ. नि. र. । क्षुदरोगा .; वृ. यो त । त. १२७ ) पटोलपत्रत्रिफलारसाञ्जनविपाचितम् । पीतं घृतं नाशयति कृच्छ्रमप्यहिपूतनम् ॥ पटोलपत्र, हर्र, बहेड़ा, आमला और रसौतके कल्क तथा काथसे सिद्ध घृत पीनेसे कष्टसाध्य अहिपूतना रोग भी नष्ट हो जाता है । ( काथ ४ सेर, कल्क ६ तोले ८ माशे, घृत १ सेर । काथ जलने तक पकावें । ) (४०६१) पटोलमूलादि घृतम् ( च. सं. । चि. अ. १२ श्वयथु. ) पटोलमूलामरदारुदन्ती त्रायन्ति पिप्पल्यभयाविशालाः । yasi तिक्तकरोहिणी च सचन्दना स्यान्निचुलानि दार्वी ॥ कर्षोन्मतैस्तैः कथितः कषायो घृतेन पेयः कुडवेन युक्तः । विसर्पदाहज्वरसन्निपातां तृष्णां विषाणि श्वयथुं निहन्ति ॥ पटोलकी जड़, देवदारु, दन्ती मूल, त्रायमाणा, पीपल, हर्र, इन्द्रायणमूल, मुलैठी, कुटकी, लालचन्दन, हिज्जलफल और दारूहल्दी ११ - १1 तोला लेकर कूटकर उसे ८ गुने पानी में पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रहे तो छान लें । For Private And Personal Use Only इस काथमें आधासेर घी मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो घी को छान लें। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतीयो भागः। [३४५] - यह घी विसर्प, दाह, ज्वर, सन्निपात, तृष्णा, | छाल, बासा, हरै, बहेड़ा, आमला, धमासा, पित्तविष और शोथका नाश करता है। पापड़ा और त्रायमाणा ५-५ तोले तथा आम( मात्रा-१ तोला ।) ला १ सेर लेकर कूट कर सबको ३२ सेर पानीमें (नोट-पाककी उत्तमताके लिये चार | पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। गुना पानी भी डालना चाहिये ।) कल्क-चिरायता, इन्द्रजौ, नागरमोथा, मुलेठी, सफेद चन्दन आर पीपल । सब समान (४०६२) पटोलशुण्ठिघृतम् भाग मिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर पानीके (च. द.; वृं. मा.; यो. र. । अम्लपित्त.) । साथ पीस लें। पटोलशुण्ठयोः कल्काभ्यां केवल कुलकेन वा। विधि-२ सेर घी, काथ और कल्क को - घृतप्रस्थं विपक्तव्यं कफपित्तहरं परम् ॥ | एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो पटोल और सांठके अथवा केवल पटोल के | घीको छान लें। कल्कसे सिद्ध घृत कफ और पित्तका नाश यह घृत आंखोंके लिये हितकारी और शुक्र करता है। वर्द्धक है तथा नाक कान आंख त्वचा और ( कल्क २० तोले । घी २ सेर । पानी मुखके रोग, व्रण, कामला, ज्वर, विसर्प और गण्ड८ सेर । ) मालाका नाश करता है। (४०६३) पटोलाचं घृतम् ( मात्रा--१ तोला।) (यो. त.; वं. से.; यो. र.; भै. र.; . मा.; च. द.। (४०६४) पथ्यावृतम् नेत्ररो.; ग. नि. । नेत्र.; वा. भ. । उत्त. अ. १३) | (च. सं. । चि. अ. १६ पाण्डु) पटोलं कटुको दावी निम्बं वासां फलत्रिकम् । पथ्याशतरसे पथ्यान्तार्द्धशतकल्कवान् । दुरालभां पर्पटकं त्रायन्तीश्च पलोन्मिताम् ॥ । प्रस्थः सिद्धो घृतात्पेयः सपाण्डामयगुल्मनुत्॥ प्रस्थमामलकानान्तु काययेनल्वणेऽम्भसि । । काथ-१०० पल (६। सेर) हर को तेन पादावशेषेण घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी कल्कै भूनिम्बकुटजमुस्तयष्टयाहचन्दनैः।। | शेष रहे तो छान लें। सपिप्पलीकैस्तत्सिद्ध चक्षुष्यं शुक्रयोहितम् ॥ कल्क----५० पल हरके डण्ठलों को पानीके घाणकर्णातिवमत्वङ्मुखरोगत्रणापहम् । | साथ पीस लें । कामलाज्वरवीसर्पगण्डमालापहं परम् ॥ विधि--२ सेर घीमें यह कल्क तथा काथ काय-पटोल, कुटकी, दारुहल्दी, नोमकी मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो धीको १ वाग्भटमें कल द्रव्योंमें नेत्रवाला अधिक है। । छान लें । For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३४६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि इसके सेवनसे पाण्डु और गुल्म नष्ट होता है। हर्र और नागबला (गंगेरन ) के काथ तथा ( मात्रा-१ तोला ।) पीपल और बासे के कल्क और दूधके साथ घृत (४०६५) पथ्याचं घृतम् (१) | सिद्ध करके सेवन करानेसे क्षत-जन्य क्षयका (वृ. मा. । मदात्यया.) नाश होता है। पथ्याकाथेन वा सिद्धं घृतं धात्रीरसेन वा । (काथ ८ सेर, घी २ सेर, दूध २ सेर सर्पिः कल्याणकं वापि मदमूर्छापहं पिबेत् ॥ और कल्क २० तोले ।) ___हरके काथ या आमलेके रससे सिद्ध घृत | (४०६८) पद्मकाद्यं घृतम् (१) या 'कल्याणकघृत' पिलानेसे मद और मूर्छा ( यो. र.; वं. से.; वृ. नि. र.; . मा.; च. द.। का नाश होता है। छर्दि.; वृ. यो. त. । त. ८३ ) (काथ ४ सेर, घी १ सेर । मन्दाग्नि पर पकावें ।) पद्मकामृतनिम्बानां धान्यचन्दनयोः पचेत् । (४०६६) पथ्याचं घृतम् (२) कल्के काथे च हविषः प्रस्थं छर्दिनिवारणम् ।। __(ग. नि. । बालरो.) तृष्णारुचिप्रशमनं दाहज्वरहरं परम् ॥ पथ्यासौवर्चलक्षारवेलव्योषाग्निहिङ्गुभिः।। ___काथ-पद्माख, गिलोय, नीमको छाल, तिक्तया च घृतं सिद्धं समक्षीरं व्यपोहति ॥ धनिया और चन्दन । सब समानभाग-मिश्रित गुल्मानाहगुदभ्रंशश्वासकासविलम्बिकाः॥ ४ सेर लेकर कूटकर ३२ सेर पानीमें पकायें और ___हर्र, सञ्चल, जवाखार, बायबिडंग, सेठ, ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। मिर्च, पीपल, चीता, हींग और कुटकी के कल्क | कल्क-उपरोक्त चीजें समानभाग-मिश्रित तथा समान भाग दूधके साथ पकाया हुवा घृत | १३ तोले ४ माशे लेकर पानीके साथ पीस लें । पीनेसे गुल्म, अफारा, गुदभ्रंश, श्वास, खांसी और विधि--२ सेर घी तथा काथ और कल्क विलम्बिका का नाश होता है। को एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय ( कल्ककी सब चीजें समान भाग मिश्रित | तो घीको छान लें। २० तोले । घी २ सेर । दूध २ सेर । पानी ८ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पकावें । ) इसके सेवनसे छर्दि; तृष्णा, अरुचि, दाह (४०६७) पथ्याचं घृतम् (३) और ज्वरका नाश होता है। (वृ. नि. र. । क्षय. ) ( मात्रा--१ तोला ।) पथ्याहनागबलयोः काथे क्षीरसमे घुतम । | नोट-काथमें लालचन्दन तथा कल्क में पयसापिप्पलीवासाकल्कसिद्धं क्षते हितम् ॥ । सफेद चन्दन डालना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । घृतप्रकरणम् ] (४०६९) पद्मकाद्यं घृतम् (२) ( वं. से.; यो. र. । विस्फोटा . ) पद्मकं मधुकं लोध्रं नागपुष्पञ्च केशरम् । हरिद्रे विडङ्गानि सूक्ष्मैला तगरं तथा ॥ कुष्ठं लाक्षा पत्रकञ्च सिन्धूत्थं ' तुत्थमेव च । तोयेनालोड्य तत्सर्वं घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ यांश्च रोगान्निहन्त्येतत्तान्निबोध महामुने । सर्पकीटादिदष्टेषु लतामूत्रकृतेषु च ॥ विविधेषु च स्फोटेषु तथा कुष्ठविसर्पिषु । नाडीषु गण्डमाला प्रभिन्नासु विशेषतः ।। अगस्तिविहितं धन्यं पद्मकं तु महाघृतम् ॥ पद्माक, मुलैठी, लोध, नागकेसर, केसर, हल्दी, दारूहल्दी, बायबिडंग, छोटी इलायची, सगर, कूठ, लाख, तेजपात, सेंधानमक और नीलाथोथा समान भाग-मिलित २० तोले लेकर सबको पीसकर ८ सेर पानी में मिलायें और उसे २ सेर घी में डालकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें 1 इसे सर्प इत्यादि विषैले जन्तुओं के काटके स्थान पर तथा मकड़ी आदि के विष पर और विविध प्रकारके स्फोट, कुष्ठ, विसर्प, नाड़ीव्रण ( नासूर ), गण्डमाला और विशेषतः जिस गण्डमाला में घाव हो गये हों उसमें लगानेसे लाभ होता है । (४०७०) पलाशक्षारघृतम् (बृ. यो. त. । त. ९८ गुल्म; वं. से. । गुल्म. ) पलाशक्षारतोयेन सर्पिः सिद्धं पिबेद्वधूः । ( यस्मिन्नवसरे क्षारतोयसाध्यघृतादिषु १ सिक्थकमिति पाठान्तरम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३४७ ] फेनोद्गमस्य निष्पत्तिर्नष्टदुग्धसमाकृतिः ॥ स एव तस्य पाकस्य कालो नेतर लक्षणः ।। ) पलाश के क्षार के पानी से पका हुवा घृत पिलानेसे स्त्रियांका रक्त गुल्म नष्ट हो जाता है । ( मात्रा - - ६ माशे । ) ( ढाक ( पलाश) की भस्मको ६ गुने पानी में घोलकर २१ बार छानकर स्वच्छ पानी निकालें । यह पानी ४ सेर और घी १ सेर मिलाकर पकावें । ) क्षारके पानी से घृत पकाते समय जब फेन आने लगें और घृत फटे हुवे दूधके समान दीखने लगे तो उसे सिद्ध समझना चाहिये । (४०७१) पलाशघृतम् ( च. सं. । चि. अ. ५ रक्तपि; वा. भ. । चि. अ. २ ) पलाशवृन्तस्य रसेन सिद्धं तस्यैव कल्केन मधुद्र हि । लिह्याद् घृतं वत्सककल्कसिद्धं तद्वत्समङ्गोत्पललोध्रसिद्धम् ॥ पलाश ( ढाक ) के डण्ठलोका रस ४ सेर, इन्हीं कल्क १० तोले और घी १ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकायें । जब रस जल जाय तो घीको छान लें । इसमें शहद मिलाकर पीने से रक्तपित्त नष्ठ है । ( मात्रा -- घी १ तोला । शहद २ तोले । ) इसी प्रकार कुड़ेकी छालके कल्क या मजीठ, For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३४८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि मुलैठी और लोधके कल्कसे सिद्ध घृत भी रक्त- कल्क--उपरोक्त चीजें समान-भाग-मिलित पित्तको नष्ट करता है। । ६ तोले ८ माशे लेकर पानीके साथ पीस लें। (४०७२) पलाशादिघृतम् । विधि--१ सेर गायका नवनीत (मक्खन) (रा. मा. । अशे. १८वं. से. । अर्श.) और उपरोक्त काथ तथा कल्क एकत्र मिलाकर त्रिगुणेन पलाशभस्मनः सलिलेनोषणकायेन वा काथ जलने तक पकावें । तदनन्तर घृतको परिपाचितमाज्यमश्नुते ध्रुवमाशु प्रशमोऽर्शसां | छान लें। भवेत् ॥ इसे बच्चोंको पिलानेसे उनकी बुद्धि, स्मरणढाक ( पलाश ) की राखका पानी ६ सेर, | शक्ति, रूप और बलकी वृद्धि होती है। सोंठ, काली मिर्च और पीपलका समान-भाग- | (४०७४) पाठाचं घृतम् (२) मिश्रित कल्फ २० तोले तथा धी २ सेर लेकर (वं. से. । बालरो.) सबको एकत्र मिलाकर पानी जलने तक पकावें। | पाठामतिविषां कुष्ठं सरलं देवदारु च । इसे सेवन करने से अर्श शीघ्र ही नष्ट हो / द्विपिप्पल्यौ तेजवती चित्रकं विश्वभेषजम् ।। जाती है। ( मात्रा-६ माशे ।) उभे हरिद्रे सरलं फलानि कुटजस्य च । . ( ढाक की राख को ६ गुने पानीमें घोल गण्डीरीमजमोदाश्च विडङ्ग कटुरोहिणीम् ॥ वचा सर्पसुगन्धाश्च श्रेयसी मरिचानि च । कर २१ बार छानकर स्वच्छ पानी निकालें । यही मातुलुङ्गस्य मूलानि दाडिमस्य रसेन तु ॥ पानी उपरोक्त धीमें डालना चाहिये ।) इलक्ष्णपिष्टानि संयोज्य क्षीरे सर्पिर्विपाचयेत् । (४०७३) पाठाचं घृतम् (१) । | मृदमियः कुमारः स्यात्क्रिमिकोष्ठश्च यो भवेत्।। (ग. नि. । बाल रो. ११) अरोचकगृहीतश्च तथा यश्चातिसार्यते । पाठा वचा सैन्धव शिग्रु पथ्या एतत्सर्पिः प्रयोक्तव्यं कुमारो बलवान् भवेत् ॥ कटुत्रयं गोनवनीतपकम् । पाण्डुरोगाच गुल्माच तथा श्वयथुसश्चयात् । एतघृतं पानत एव कुर्यात् कृशभावाच दैन्याच स्वरभेदात्तथैव च ॥ मति स्मृति रूपबलं शिशूनाम् ॥ प्रज्वालावर्णभेदाच क्षिप्रमेव विमुच्यते ॥ काथ-पाठा, बच, सेंधानमक, सहजनेकी कल्क-पाठा, अतीस, कूठ, देवदार, धूपछाल, हरे, सोंठ, मिर्च और पीपल । सब समान- सरल, पीपल, गजपीपल, चव, चीता, सोंठ, हल्दी, भाग-मिश्रित २ सेर लेकर कूटकर १६ सेर दारुहल्दी, सरल ( धूप सरल), इन्द्रजौ, मजीठ, पानीमें पकावें जब ४ सेर पानी शेष रह जाय अजमोद, बायबिडंग, कुटकी, बच, सर्पगन्धा तो छान लें। (गन्ध रास्ना ), हर्र, कालीमिर्च और बिजो रेकी For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम] तृतीयो भागः। [३४९] जड़ । सब चीजें समान-भाग-मिश्रित २० तोले । (४०७६) पाठायं घृतम् (४) लेकर पानीके साथ पीस लें। (वा. भ. । उ. अ. २ बालरो.) __ यह कल्क, २ सेर घी, २ सेर दुध और पाठाबेल्लद्विर्जनीमुस्तभाीपुनर्नवैः । ८ सेर अनारका रस लेकर सबको एकत्र मिला- | सबिल्वत्र्यूषणैः सर्पिवृश्चिकालीयुतैः शृतम् ॥ कर मन्दाग्नि पर पकावें और दूधमात्र शेष रहने | लिहानो मात्रया रोगैमुच्यते मृत्तिकोभवैः॥ पर छान लें। काथ-पाठा, बायबिडंग, हल्दी, दारुहल्दी, इसे पिलानेसे बालकोंके अग्निमांद्य, कोष्ठके नागरमोथा, भरंगी, पुनर्नवा (बिसखपरा), बेलकी कृमि, अरुचि, अतिसार, पाण्डु, गुल्म, शोथ, छाल, सोंठ, काली मिर्च, पीपल और वृश्चिकाली। सब चीजें समान-भाग-मिलित ४ सेर लेकर कूटकृशता, दीनता और स्वरभेद इत्यादि रोग शीघ्र | कर ३२ सेर पानीमें पकावें । जब चौथा भाग ही नष्ट हो जाते हैं तथा उनके बल, वर्ण और पानी शेष रह जाय तो छान लें। अग्निको वृद्धि होती है। कल्क-उपरोक्त समस्त चीजें समान-भाग(४०७५) पाठायं घृतम् (३) मिलित १३ तोले ४ माशे लेकर पानीके साथ (वा. भ. । चि. अ. ८) पीस लें। पाठगजमोदधनिकाश्वदंष्ट्रापञ्चकोलकैः।। विधि--काथ, कल्क और २ सेर घृतको सबिल्वैर्दधिचाङ्गेरीस्वरसे च चतुर्गुणे ॥ एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो हन्त्याज्यं सिद्धमानाहं मूत्रकृच्छ्रे प्रवाहिकाम् । घीको छान लें। गुदभ्रंशातीदजग्रहणीगदमारुतान् ॥ यह घृत बालकोंको खिलाने से उनके मिट्ठी पाठा, अजमोद, धनिया, गोखरु, पीपल, | खानेसे उत्पन्न हुवे रोग नष्ट होते हैं । पीपलामूल, चव, चीता, सांठ और बेलगिरि का (४०७७) पाठाचं घृतम् (५) (वं. से. । अतिसा.) समान-भाग-मिश्रित कल्क २० तोले तथा दही ४ पाठामसिविषां निम्बं समझा चन्दनं जलम् । सेर और चांगेरी (चूके) का स्वरस ४ सेर एवं घी | धातकी मुस्तभूनिम्ब जटामांसी सनागराम् ॥ २ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब दावी च समभागानि घृतप्रस्थे विपाचयेत् । घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। सज्वरोऽस्मिनतीसारे ग्रहण्यां पाण्डुरोगिणि ॥ इसके पौनेसे अफारा, मूत्रकृच्छू, प्रवाहिका, | मूत्रकृच्छ्रे गुदस्रावे विधूच्यामलसे हितः॥ गुदभ्रंश, अर्श, संग्रहणी और वायुका नाश होता है। काथ-पाठा, अतीस, नीमकी छाल, मजीठ, ( मात्रा-१ तोला।) चन्दन, सुगन्धवाला, धायके फूल, नागरमोथा, For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त-भैषज्य रत्नाकर! | [ ३५० ] [ पकारादि चिरायता, जटामांसी (बालछड़), सोंठ, और दारु- । स्थिस नतं हरिद्रे द्वे सारिवे द्वे मियका || हल्दी । समान-भाग-मिश्रित ४ सेर लेकर कूटकर नीलोत्पलैलामञ्जिष्ठादन्तीदाडिमकेसरम् । सबको ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी विडङ्गं पृश्निपर्णी च कुष्ठचन्दनपद्मकैः ॥ शेष रह जाय तो छान ले 1 तालीसपत्रं बृहती मालत्याः कुसुमं नवम् । अष्टाविंशतिभिः कल्कैरेतैरक्षसमन्वितैः ॥ चतुर्गुणं जलं दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत् । अपस्मारे ज्वरे कासे शोषे मन्देऽनले क्षये || वातरक्ते प्रतिश्याये तृतीयकचतुर्थके । छर्शोमूत्रकृच्छ्रे च विसर्पोपद्रवेषु च ॥ कण्डूपाण्ड्वामयोन्मादविषमेहगरेषु च । भूतोपहतचित्तानां गद्गदानामरेतसाम् ।। शस्तं स्त्रीणां च बन्ध्यानामायुर्वर्णबलप्रदम् । अलक्ष्मीपापरक्षोघ्नं सर्वग्रहनिवारणम् ॥ कल्याणकमिदं सर्पिः श्रेष्ठं पुंसवनेषु च ॥ भारत कल्क-उपरोक्त सब चीजें समान भाग- मिलित १३ तोले ४ माशे लेकर पानीके साथ पीस लें । विधि - २ सेर घी तथा यह काथ और कल्क एकत्र मिलाकर पकावें । काथ जलने पर घी को छान लें। यह घृत ज्वरातिसार, संग्रहणी, पाण्डु, मूत्रकृच्छ्र, अतिसार, विषुचिका और अलसकमें हितकारी है | ( मात्रा १ तोला । ) नोट - काथमें लाल चन्दन और कल्क में सफेद चन्दन डालना चाहिये । (४०७८) पानीयकल्याणकं घृतम् (बृ. मा.; भै. र.; च. द. । ज्वरा.; शा. ध. । ख. २ अ. २; वृ. यो. त. । त. ८८ ) विशाला ' त्रिफला कौन्ती देवदावैलवालुकम् । १. वङ्गसेन में इससे पूर्व इतना पाठ अधिक है:दशमूली तथा रास्ना वानरी त्रिवृता बला । मूर्वा शतावरी चेति काथ्यैस्तु कुडवैः पृथक् ।। कृत्कार्थं पृथक् प्रस्थद्वयं मृद्वग्निना पचेत् ॥ (वं. से. । उन्मादा० ) दशमूल, रास्ना, कौंचके बीज, निसोत, खरैटी, मूर्वा, और शतावर पृथक् पृथक् २०-२० तोले लेकर कूटकर हरेकको अलग अलग ४ -४ सेर पानीमें पकावें । जब १-१ सेर पानी रह जाय तो सब कार्यों को एकत्र मिला लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रायण की जड़, हर्र, बहेड़ा, आमला, रेणुका, देवदारु, एलवालुक, शालपर्णी, तगर, हल्दी, दारूहल्दी, दोनों प्रकारकी सारिवा, फूल प्रियङ्गु, नीलोत्पल, इलायची, मजीठ, दन्तीमूल, अनारदाना, नागकेसर, बायबिडंग, पृष्टपर्णी, कूठ, सफेद चन्दन, पद्माक, तालीसपत्र, कटेली और चमेली के नवीन पुष्प | प्रत्येक ओषधि ११ - १ तोला लेकर पीसकर कल्क बनावें । तत्पश्चात् २ सेर घी में यह कल्क और ८ सेर पानी डालकर पकावें । जब पानी जल जाय तो घृत को छान लें । यह घृत अपस्मार, ज्वर, खांसी, शोष, अग्निमांद्य, क्षय, वातरक्त, प्रतिश्याय, तृतीयक ज्वर, चतुर्थिक (चौथिया) ज्वर, छर्दि (वमन), अर्श, मूत्रकृच्छ्र, विसर्प, कण्डु, पाण्डु, उन्माद, विष, प्रमेह, गरविष, भूतोन्माद, गद्गदता ( हकलाना ), For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतीयो भागः। [३५१] वीर्यकी कमी और बन्ध्यत्व आदि रोगोंको नष्ट । यह घृत उपद्रव-सहित राजयक्ष्मा को नष्ट करता है । तथा इसके सेवन से आयु, वर्ण और | करता है। बलकी वृद्धि होती है। (मात्रा-१ तोला) यह अलक्ष्मी, और ग्रहदोषों को भी शान्त । (४०८०) पाराशरं घृतम् (२) करता है। (वृ. नि. र. । क्षय.) ( मात्रा-१ तोला ।) यष्टी बला गुडूची च पञ्चमूलं समांशकम् । पारदादिसर्पिः कायेन सदृशं धात्रीरसं चेक्षुरसं तथा ॥ (वै. र. । उपदंश.; वृ. यो. त.। त. ११७) विदार्याया रसं चैव घृतं च समभागिकम् । लेपप्रकरणमें देखिये । क्षीरं दधिसमं चात्र नवनीतं तु तत्समम् ॥ (४०७९) पाराशरं घृतम् (१) द्राक्षातालीससंयुक्तं पथ्या लाभेन योजयेत् । सिद्धं घृतं च पानीये नस्ये बस्तौ प्रदापयेत् ॥ (च. द.; वं. से; वृ. मा. । राजय.) हरते राजयक्ष्माणं पाण्डुरोगं च दारुणम् । यष्टीवलागुडूच्यल्पपञ्चमूलीतुलां पचेत् । हलीमकार्शसी नित्यं रक्तपित्तनिवारणम् ॥ शूर्पेऽपामष्टभागस्थे तत्र पात्रं पचेद् घृतम् ।। लेपनं दुष्टवीसर्पपित्तदग्धव्रणापहम् ॥ धात्रीविदारीस्वरसे त्रिपात्रे पयसोर्मणे। काथ-मुलैठी, खरैटी, गिलोय, शालपर्णी, सुपिष्टैीवनीयैश्च पाराशरमिदं घृतम् ॥ पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला और गोखरु ।समान-भागससैन्यं राजयक्ष्माणमुन्मूलयति शीलितम् ॥ | मिश्रित ४ सेर लेकर कूटकर ३२ सेर पानी में काथ-मुलैठी, खरैटी, गिलोय, शालपर्णी, | पकावें जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। पृष्ठपर्णी, कटेली, कटेला और गोखरु । सब समान- अन्य द्रव पदार्थ-आमलेका रस ८ सेर, भाग-मिश्रित ६ । सेर लेकर, कूटकर सबको ६४ । ईखका रस ८ सेर, बिदारीकन्दका रस ८ सेर, दूध सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह | ८ सेर और दही ८ सेर।। जाय तो छान लें। ___कल्क-दाख (मुनक्का ), तालीसपत्र और कल्क-जीवनीय गणकी ओषधियां समान हरै । समान-भाग-मिश्रित २ सेर लेकर पानी के साथ पीस लें। भाग-मिश्रित १ सेर लेकर पानी के साथ पीस लें। विधि-८ सेर घी, ८ सेर नवनीत (मक्खन) अन्य द्रव पदार्थ-आमलेका रस १२ सेर, ! और उपरोक्त समस्त पदार्थों को एकत्र मिलाकर विदारीकन्दका रस १२ सेर और दूध ३२ सेर । पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। विधि-उपरोक्त समस्त चीजें तथा ८ सेर इसे नस्य और बस्तिद्वारा प्रयुक्त करना तथा घृत को एकत्र मिलाकर पकावें । पिलाना चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३५२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - ___ इसके सेवनसे राजयक्ष्मा, पाण्डु, हलीमक, | (४०८२) पाषाणभेदाचं घृतम् अर्श और रक्तपित्तका नाश होता है। ( मात्रा- (च. द.; भा. प्र.; वं. से.; वृ. मा.; ग. नि. । १ तोला ।) ___अश्मयः; वा. भ. | चि. अ. ११) ___ इसका लेप करनेसे दुष्ट वीसर्प और अग्निदग्ध पाषाणभेदो वसुको वशिरोऽश्मन्तकं तथा । वण नष्ट होता है। शतावरी श्वदंष्ट्रा च वृहती कण्टकारिका ॥ (४०८१) पारुषकं घृतम् कपोतवक्वार्तगलकाश्नोशीरगुन्द्रकाः । (च. सं। चि. अ. २९ वातर.; भा. प्र. वा. र.) | वृक्षादनी भल्लुकश्च वरुणः शाकजं फलम् ।। त्रायन्तिका तामलकी द्विकाकोली शतावरी। यवाः कुलत्याः कोलानि कतकस्य फलानि च । कशेरुका कषायेण कल्कैरेभिः पचेघृतम् ॥ ऊषकादिभतिवापमेषां का शृतं घृतम् ॥ दत्त्वा परूषकद्राक्षाकाश्मयक्षुरसान् समान् । भिनत्ति वातसम्भूतामश्मरी लिममेव तु । पृथविदार्याः स्वरसं तथा क्षीरं चतुर्गुणम् ॥ काय- पखानभेद, लाल आक, चिरचिटा, एतत्मायोगिक सर्पिः पारूषकमिति स्मृतम् । पत्थरचटा, शतावर, गोखरू, बड़ी कटेली, छोटी वातरक्ते क्षते क्षीणे वीस पैत्तिके ज्वरे॥ । कटेली, मकोय, नीले फूलकी कटसरैया, कचनारकी काथ-त्रायमाना, भुईआमला, काकोली, क्षीर छाल,खस, गुन्दपटेर, बन्दा, अरलुकी छाल, बरनेकी काकोली, शतावर और कसेरु । समान भाग मिश्रित १ सेर लेकर, कूटकर सबको ८ सेर पानीमें पकावें। छाल, सागोनके फल, जौ, कुलथी, बेर और जब २ सेर पानी रह जाय तो छान लें। निर्मलीके फल । समान भाग मिश्रित ४ सेर लेकर कल्क-उपरोक्त चीजें समान-भाग-मिश्रित | सबको एकत्र कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें जब २० तोले लेकर पानी के साथ पीस लें। ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। अन्य द्रव पदार्थ-फालसेका रस २ सेर, | इस काथ और 'उपकादि गण'' के दाख (अंगूर) का रस २ सेर, खम्भारीके फलोका कल्कके साथ २ सेर घृत सिद्ध करें। रस २ सेर, ईखका रस २ सेर और बिदारीकन्द इसके सेवन से वातज पथरी शीघ्र ही टूट का रस २ सेर तथा दूध ८ सेर । विधि-२ सेर घी और उपरोक्त समस्त कर निकल जाती है। पदार्थको एकत्र मिलाकर पकावें। जब घृतमात्र (मात्रा-३ से ६ माशे तक।) शेष रह जाय तो छान लें। १. रेह, सेंधानमक, शिलाजीत, दो प्रकारका यह घृत वातरक्त, क्षत, क्षीणता, वीसर्प कसीस, हींग और नीला थोथा (शुद्ध) समान माग भौर पैत्तिक ज्वरमें उपयोगी है। मिश्रित १३ तोले चार माशे। - For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतीयो भागः। [३५३] (४०८३) पिप्पलीघृतम् (१) । (४०८५) पिप्पलीचित्रककृतम् (वृ. मा.। उदरा.) (च. द.; वं. से.; भै. र. । प्लीहा.) पिप्पलीकल्कसंयुक्त घृतं क्षीरचतुर्गुणम् । पिप्पलीचित्रकान्मूलं पिष्ट्वा सम्यग्विपाधयेत् । पचेत्प्लीहामिसादादियकृद्रोगहरं परम् ॥ घृतं चतुर्गुणक्षीरं यकृत्प्लीहोदरापहम् ॥ पानीके साथ पिसी हुई पीपल २० तोले, पीपल १० तोले तथा चीतेकी जड़ १० घी २ सेर और दूध ८ सेर लेकर सबको एकत्र | तोले लेकर दोनों को पानी के साथ पीस लें। तदनन्तर यह कल्क, २ सेर घी और आठ सेर मिलाकर दूध जलने तक पकावें । तदनन्तर छान लें। दूध एकत्र मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाय यह घृत तिल्ली, अग्निमांद्य, और यकृद्रोगोंको तो घीको छान लें। नष्ट करता है। इसके सेवनसे यकृत् , प्लीहा और उदररोग ( मात्रा-१ तोला।) नष्ट होते हैं। (१०८४) पिप्पलीघृतम् (२) (मात्रा-१ तोला) (र. र.; च. द. । शूला.; यो. र.; वं. से.; | (४०८६) पिप्पल्यादिघृतम् वृ. मा.; वृ. यो. त. । अम्लपि.) (च. सं. । चि. अ. १८ कास.) कापेन कल्केन च पिप्पलीनां पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। सिद्धं घृतं माक्षिकसंप्रयुक्तम् ।। धान्यपागवचारास्नायष्टयाहक्षारहिङ्गुभिः॥ क्षीरानपस्यैव निहन्त्यवश्य कोलमात्रैघृतपस्थादशमूलीरसाढके। शूलं प्रदं परिणामसंझम् ॥ सिदाचतुर्थिकां पीत्वा पेयामण्डं पिबेदनु । तच्यासकासहत्पार्श्वग्रहणीदोषगुल्मनु । पीपलका काथ ८ सेर, पीपलका कल्क १३ पिप्पल्याधं घृतं चैतदात्रेयेण प्रकीर्तितम् ॥ तोले ४ मारो और धी २ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो घीको कल्क-पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठ, धनिया, पाठा, बच, रास्ना, मुलैठी, जवाछान लें। खार और हींग । प्रत्येक ७॥ माशे लेकर सबको इसे शहद में मिलाकर सेवन करने से प्रवृद्ध | पानीके साथ पीस लें। परिणाम शूल अवश्य नष्ट हो जाता है। काथ--दशमूल ४ सेर । पाकार्थ जल ३२ पथ्य-दूधभात। सेर । शेष काथ ८ सेर । (मात्रा-घी १ तोला । शहद २ तोले । ) विधि-२ सेर घी, कल्क और काथ एकत्र For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३५४] मिलाकर पका । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान 1 इसे ५ तोलेकी मात्रानुसार पीकर ऊपरसे पेया या मण्ड पीना चाहिये । भारत-भैषज्य ( व्यवहारिक मात्रा - - १ तोला । ) (४०८७) पिप्पल्या घृतम् (१) ( च. सं. । चि. अ. ३; वृं. मा.; वृ. नि. र.; वं. से.; र. र.; भै. र. । ज्वरा . ) पिप्पल्यश्चन्दनं मुस्तमुशीरं कटुरोहिणी । कलिङ्गकस्तामलकी' सारिवाऽतिविषास्थिरा ॥ द्राक्षामलकबिल्वानि त्रायमाणा निदिग्धिका । सिद्धमेतैर्धृतं सद्यो जीर्णज्वरमपोहति ॥ क्षयं कासं शिरःशूलं पार्श्वशूलं हलीमकम् । साभितापम िच विषमं सन्नियच्छति ॥ यह घृत जीर्णज्वर, क्षय, खांसी, शिरशूल, पसलीका दर्द, हलीमक और अंसाभिताप ( कन्धों इसके सेवन से श्वास, खांसी संग्रहणी और की तपन ) को शीघ्र ही नष्ट कर देता है। तथा गुल्मका नाश होता है । इसके सेवनसे विषमानि ठीक हो जाती है । ( मात्रा - १ तोला । ) नोट - काथमें लाल चन्दन तथा कल्क में सफेद चन्दन डालना चाहिये । (४०८८) पिप्पल्याद्यं घृतम् (२) काथ- पीपल, चन्दन, नागरमोथा, खस, कुटकी, इन्द्रजौ, भुईआमला, सारिवा, अतीस, शालपर्णी, दाख ( मुनक्का ), आमला, बेलछाल, त्रायमाना और कटेली । सब चीजें समान -भाग-मिश्रित ४ सेर लेकर ३२ सेर पानी में पकायें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें । - रत्नाकरः । [ पकारादि एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो घीको छान लें. । १ कलिङ्गकरत्वा मलकीति पाठान्तरम् । २ द्राक्षामलकवीजानीति पाठान्तरम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( वृ. मा. वं. से.; च. द । राजयक्ष्मा; वृ. नि. र. वं. से. । कास.; बृ. यो. त. । त. ७८ ) पिप्पलीगुडसंसिद्धं छागक्षीरयुतं घृतम् । एतदप्रिविद्धयर्थं सर्पिश्च क्षयकासिनाम् ॥ पीपलका कल्क १० तोले तथा गुड़ १० तोले, घी २ सेर और बकरीका दूध ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें 1 इसके सेवन से क्षय और खांसी नष्ट होती तथा अग्नि तीव्र होती है । ( मात्रा - १ तोला कल्क-उपरोक्त समस्त चीजें सम-भागमिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर सबको पानीके साथ पीस लें । (४०८९) पिप्पल्यार्थं घृतम् (३) (ग.नि. । बाल. ) पिप्पलीपिप्पलीमूलकटुकादेवदारुभिः । विधि- -- यह काथ, कल्क और २ सेर घी क्षारद्वयविड।जाजीविल्वमध्याग्रिदीप्यकैः ॥ दविसौवीरकसुरामण्डैश्च विपचेद् घृतम् । हन्ति प्रयुक्तं तत्काले रोगान् परिभवाश्रयान् ॥ For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [३५५] - (4.. पीतं पीतं च यः स्तन्यं सवातमतिसार्यते।। (कल्कके लिये सब चीजें समान-भागतस्याप्येतत्परं पध्यं दीपनं बलवर्णकृत् ॥ मिश्रित २० तोले । धी २ सेर । गोमूत्र ८ सेर ।) पीपल, पीपलामूल, कुटकी, देवदारु, जवा- (४०९१) पिप्पल्या घृतम् (५) खार, सज्जीखार, बिडलवण, जीरा, बेलगिरी, चीता ( वै. म. र. । पटल ३) और अजवायन समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर सबको पानीके साथ पीस लें। तत्पश्चात पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली। यह कल्क, २ सेर घी, २ सेर दही, २ सेर सौवी सैन्धवं सयवक्षारं हिङ्गसौवर्चलं तथा ॥ रक, २ सेर सुरामण्ड और २ सेर उपरोक्त कल्क- | मरिचं नागरं चैव पलांशैस्तैर्विपाचयेत् । वाली ओषधियोंका काथ लेकर सबको एकत्र क्षीरे चतुर्गुणे सम्यक् सर्पिः सिद्धं पिबेन्नरः ।। मिलाकर पकायें। जब घृतमात्र शेष रह जाय तो शूलगुल्मोदरार्तिघ्नं हृद्रोगोरःक्षतापहम् । छान लें। आनाहपाण्डुताप्लीहकासश्वासविकारनुत् ।। ___ जो बालक दूध पीकर तुरन्त वमन कर देता पिप्पल्याघमिदं सर्पिः पित्तगुल्महरं परम् ॥ हो या जिसे अपान वायुके साथ दस्त आता हो कल्क-पीपल, पीपलामूल, चीता, गजउसके लिये यह घृत अत्यन्त उपयोगी है। पीपल, सेंधानमक, जवाखार, हींग, सञ्चल (काला इसके सेवनसे अग्नि दीप्त और बलवर्णकी नमक), काली मिर्च और सेठ । प्रत्येक ५-५ वृद्धि होती है। तोले लेकर पानी के साथ पीस लें। (काथ बनाने के लिये समस्त ओषधियां काथ-उपरोक्त चीजें सम-भाग-मिश्रित - समान-भाग-मिश्रित १ सेर । पाकार्थ जल ८ ५ सेर । पाकार्थ जल ८० सेर । शेष काथ सेर । शेष काथ २ सेर ।) २० सेर । (४०९०) पिप्पल्याचं घृतम् (४) विधि--कल्क, काथ, ५ सेर घी और २० " (. यो. त. । त. ८१) | सेर दूध लेकर सबको एकत्र मिला कर पकावें । पिप्पली पिप्पलीमूल मरिच विश्वभेषजम् । जब घृत मात्र शेष रह जाय तो छान लें। पोन्मत्रेण मतिमान्कफजे स्वरसंक्षये ॥ पीपल, पीपलामूल, कालीमिरच और सेठिके ____ यह घृत शूल, गुल्म, उदररोग, हृद्रोग, कल्क तथा चार गुने गोमूत्रके साथ सिद्ध घृत उरःक्षत, अफारा, पाण्डु, तिल्ली, खांसी, श्वास कफज स्वरभंगको नष्ट करता है। और पित्तगुल्मको नष्ट करता है। ( मात्रा-१ तोला) (मात्रा-१ नोला ।) For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३५६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - (४०९२) पिप्पल्यावं घृतम् (६) ( साठी-बिसखपरा ), गजपीपल, जीरा, चूका, (ग. नि. । परिशि. घृता. ) बेरीकी जड़की छाल, पोखरमूल, तेजपात और पिप्पलीमरिचडिजनागरं कुस्तुम्बरु । प्रत्येक वस्तु १।-१। तोला लेकर सबको पानीके साथ पीस लें। मातुलुङ्गमथ विल्वशुण्ठिका। तदनन्तर यह कल्क, २ सेर घी और ८ कुष्ठधान्यकमयाम्लवेतसं सेर दूध एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । ___ क्षारवन्ति लवणानि पञ्च च ॥ जब दूध जल जाय तो घृतको छान लें । सिन्तिडीकमय कारवी वचा दाडिमं च चविका तथैव च । यह घृत शारीरिक और मानसिक वात व्याधि, पार्श्वपीड़ा, कमरका दर्द, ठोडीका चित्रकं च सपुनर्नवं भवेद् हस्तिपिप्पलियुता हयजाजिका ॥ रह जाना, जत्रुरोग, क्षय और समस्त वात-व्याधियों तथा गरविषको नष्ट करता है । एवं वृद्धों में शुक्तिकाबदरमूलपौष्करं बल वर्णकी वृद्धि करता है। पत्रकेण सह तुम्बरु स्मृतम् । (४०९३) पिप्पल्याचं घृतम् (७) कर्षभागसहितांस्तथा हरेत् श्लक्ष्णपिष्टमय समयेत्ततः॥ (भै. र. । बालरोग.) पिप्पलीधातकीपुष्पधात्रीफलकशेरुभिः। प्रस्थमत्र तु घृतस्य दापयेत् वचामूर्यास्तापाठाकटुकातिरिसाधनैः । दन एव च भवेत्तदाढकम् । जीवनीयघृतं सिदं शस्तं दशनजन्मनि । सर्वमेतदभिमृश्य शास्त्रतः पाचयेत मृदुनाऽग्निना सुखम् ॥ मुखोष्णेन यथामात्रं पयसैतस्मयोजयेत् ॥ मारुतोपहतगात्रचेतसां काथ-पीपल, धायके फूल, आमला, कसेरु, पार्श्वपृष्ठहनुजत्रुरोगिणाम् । बच, मूर्वा, गिलोय, पाठा, कुटकी, अतीस, नागर मोथा और जीवनीय गणकी ओषधियां सब क्षयगरविषदूषितान् मनुष्यान् समान-भाग-मिलित ४ सेर लेकर कूटकर सबको __गतवयसो बलवर्णविप्रयुक्तान् ॥ ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष घृतमिदमगदान्करोति सधः रहे तो छान लें। पवनकृतान् शमयेच्च सर्वरोगान् ।। कल्क–पीपल, कालीमिर्च, हींग, सोंठ, | कल्क-उपरोक्त ओषधियां समान-भाग मिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर सबको पानीके विजो रे नीबूकी जड़, बेलगिरी, कूठ, धनिया, अम्लबेत, यवक्षार, पांचों नमक, तिन्तडीक, साथ पीस लें। कलौंजी, बच, अनारदाना, चव, चीता, पुनर्नवा | जीवनीय गण-प्रयोग संख्या १९८२ देखिये । For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३५७] ० मा ८५ विषि-काथ, कल्क और २ सेर घीको | विधि-काथ, कल्क, २ सेर घी, २ सेर एकत्र मिलाकर पकावें। दही और २ सेर दूध एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। | जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें । इसे मन्दाष्ण दूधमें डालकर पिलानेसे बालकों ____यह घृत पीने तथा मर्दन करनेसे वातज, के दांत निकलनेके समय होने वाले समस्त पित्तज, कफज और सन्निपातज सूतिका रोगको रोग नष्ट होते हैं। नष्ट करता है। (४०९४) पिप्पल्या घृतम् (८) ( मात्रा--१ तोला ।) (वं. से.; र. र. । सूतिका.) | (४०९५) पिप्पल्यायं घृतम् (९) पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली । (च. सं. । चि. अ. १४ अर्श. ) चव्यश्च रजनी देया भद्रमुस्तवचाभयाः॥ पिप्पलीं नागरं पाठां श्वदंष्ट्रां च पृथक् पृथक् । धान्यकमजमोदा च सपश्चलवणानि च । | भागांस्त्रिपलिकान् कृत्वा कषायमुपकल्पयेत् ॥ भद्रदारुयवानी च भाङ्गीकुटजतण्डुलाः ॥ गण्डीरं पिप्पलीमूलं व्योष चव्यं च चित्रकम् । कण्टकार्याश्च मूलं वै वृहती बिल्वपेशिका । पिष्ट्वा कषाये विनयेत्पूते द्विपलिकं पृथक् ॥ मरिचानि विडङ्गानि कल्कैरेतैश्च पादिकैः॥ | पलानि सर्पिषस्तस्मिश्चत्वारिंशत्मदापयेत् । यवकोलकुलित्थानां निषूहे च चतुर्गुणे। चणे।" | चाङ्गेरी स्वरसं तुल्यं सर्पिषा दधिषड्गुणम् ॥ दधिप्रस्थं पयः प्रस्थं दत्त्वा प्रस्थं घृतं पचेत ॥ मृमिना ततः साध्य सिद्धं सर्पिर्निधापयेत । वातिकान्पैत्तिकांश्चैव श्लैष्मिकान्सानिपातिकान। तदाहारे विधातव्य पाने प्रायोगिके विधौ ॥ सूतिकोपद्रवान्सर्वानभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥ ग्रहण्यशीविकारघ्नं गुल्महृद्रोगनाशनम् । ___ कल्फ-पीपल, पीपलामूल, चीता, गज शोथप्लीहोदरानाहमूत्रकृच्छज्वरापहम् ॥ पीपल, चव, हल्दी, नागरमोथा, बच, हर्र, धनिया, | | कासहिकारुचिश्वाससूदनं पाचशूलनुत् । अजमोद, पांचों नमक, देवदारु, अजवायन, बलपुष्टिकरं वर्ण्यमग्निसन्दीपनं परम् ॥ भरंगी, इन्द्रजौ, कटेलीकी जड़, बड़ीकटेली, बेलगिरी, काथ-पीपल, सांठ, पाठा और गोखरु कालीमिर्च और बायबिडंग समान-भाग-मिश्रित | ३-३ पल ( प्रत्येक १५ तोले) लेकर सबको २० तोले लेकर सबको पानीके साथ पीस लें। । ८ गुने पानीमें पकावें । काथ-~-जौ, बेर और कुलथी समान-भाग जब चौथा भाग पानी शेष रहे तो छान लें। मिलित ४ सेर लेकर कूटकर सबको ३२ सेर कल्क-मजीठ, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय । पीपल, चव और चीता । प्रत्येक ओषधि १०-१० तो छान लें। तोले लेकर सबको पानीके साथ पीस लें । For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त- भैषज्य रत्नाकरः । [ ३५८ ] विधि-४० पल ( ५ सेर) घी, काथ, कल्क और ४० पल चूकेका रस तथा ३० सेर दही एकत्र मिलाकर पकावें । जब वृतमात्र शेष रह जाय तो छान भारत 1 इसे पिलाना और आहार के साथ खिलाना चाहिये । यह घृत ग्रहणी, अर्श, गुल्म, हृद्रोग, शोध, लीहा, उदररोग, अफारा, मूत्रकृच्छ्र, ज्वर, खांसी, हिचकी, अरुचि, श्वास और पार्श्वशूलको नष्ट करता तथा बल, वर्ण, पुष्टि और अग्निकी वृद्धि करता है । ( मात्रा -- तोला । ) (४०९६) पुनर्णवाघृतम् ( भै. र. । शोथा; च. द. | शोथा. ) पुनर्नवाकाथकल्कसिद्धं शोथहरं घृतम् । २ सेर पुनर्नवाको १६ सेर पानी में पकावें । जब ४ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें १ सेर घी और ६ तोले ८ माशे पुनर्नवाका कल्क मिलाकर पकायें । जब काथ जल जाय तो घृतको छान लें। यह घृत शोधको नष्ट करता है । ( मात्रा - १ तोला । ) (४०९७) पुनर्नवा दिघृतम् (१) (ग. नि. । मदात्य. अ. १७; र. र. च. द.; बूं. मा. । मदाव्य ) पयः पुनर्नवा कायटीकल्कमसाधितम् । घृतं पुष्टिकरं पानान्मद्यपानाद्धतौजसाम् || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि ४ सेर पुनर्नवा ( बिसखपरे ) को ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें २ सेर घी, २ सेर दूध और २० तोले मुलैठीका कल्क मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें । मद्यपान के कारण जिन व्यक्तियोंका ओज क्षीण हो गया हो उनके लिये यह घृत पौष्टिक है। ( मात्रा १ तोला । ) (४०९८) पुनर्नवादिघृतम् (२) (ग.नि.; वृ. मा.; च. द. वं. से. । शोथा. ) पुनर्नवा चित्रक देवदारु पश्चोषणसारह रीतकीनाम् कल्केन पकं दशमूलतोये घृतोत्तमं शोथनिचूदनं हि ॥ कल्क – पुनर्नवा ( बिसखपरासाठी ), चीता, देवदारु, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठ, यवक्षार और हरे । समान भाग- मिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर पानी के साथ पीस लें 1 काथ -- ४ सेर दशमूलको ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें 1 विधि - २ सेर घी, कल्क और काथको एकत्र मिलाकर पका । जब घृत मात्र शेष रह जाय तो छान लें। यह घृत शोथको नष्ट करता है 1 ( मात्रा - १ तोला । ) (४०९९) पुनर्नवादिघृतम् (३) ( ग. नि. । श्वय. अ. १३ ) पुनर्नवा देवदारुपथ्यानागरसाधितम् । शुष्कमूलकनिर्यूहे वातशोफी घृतं पिबेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३५९] - - कल्क-पुनर्नवा (बिसखपरा---साठी), । (४१०१) पुनर्नवाणं घृतम् (२) देवदार, हर्र और सेठ समान भाग-मिश्रित १३ (ग. नि. । राजय. अ. ९) तोले ४ माशे लेकर पानीके साथ पीस लें। | पुनर्नवावलारास्नास्थिरापिप्पलिगोक्षुरैः । काथ-४ सेर सूखी मूलीको ३२ सेर जीवन्त्या च घृतं सिद्धं पयसा शोषजित्परम् ॥ पानी में पकाकर ८ सेर पानी शेष रहने पर काय--पुनर्नवा (बिसखपरा--साठी), छान लें। खरैटी, रास्ना, शालपर्णी, पीपल, गोखरु और विधि--काथ, कल्क और २ सेर घीको | जोवन्ती समान भाग मिश्रित १ सेर लेकर, कूट एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो कर सबको ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर घीको छान लें। पानी शेष रह जाय तो छान लें । इसके सेवनसे वातज शोथ नष्ट होता है। कल्क-उपरोक्त समस्त ओषधियां समान-- (४१००) पुनर्मवाचं घृतम् (१) भाग-मिलित २० तोले लेकर पानी के साथ (भै. र. । शोथा.) | | पीस लें। पुनर्णवा तुला ग्राहया जलद्रोणे विपाचयेत् । विधि--काथ, कल्क, २ सेर थी और २ चतुर्भागावशेषेण घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ सेर दूध एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र अनिम्बविजया शुण्ठी शोयनामरदारु च । । शेष रह जाय तो छान लें । कासं श्वासं ज्वर हन्ति शोयश्चापि सुदारुणम् ॥ इसके सेवन से शोथ नष्ट होता है । काथ--६। सेर पुनर्नवा (बिसखपरा- (मात्रा--१ तोला ।) साठी ) को ३२ सेर पानी में पकावे । जब ८ । (४१०२) पुनर्नवाचं घृतम् (३) सेर पानी शेष रहे तो छान लें। (वा. भ. । चि. अ. ३ ) ___ कल्क-चिरायता, भांग, सेठ, पुनर्नवा ओर-देवदारु समान भाग मिश्रित १३ तोले पुनर्नवशिवाटिकासरलकासमामृता __ पटोलहतीफणिज्मकरसैः पयः संयुतैः। माशे लेकर सबको पानीके साथ पीस लें। विधि-काथ, कल्क और २ सेर घृतको घृतं त्रिकटुना च सिद्धमुपयुज्य सञ्जायते एक साथ मिलाकर पकावें जब काथ जल जाय न कासविषमज्वरक्षयगुदाङ्करेभ्यो भयम्॥ तो घृतको छान लें। काथ--लाल और सफेद पुनर्नवा ( बिस__इसके सेवनसे खांसी, श्वास, ज्वर और कष्ट- | खपरा-साठी), सरल (धूप सरल ), कसौंदी, साध्य शोथ नष्ट हो जाता है। गिलोय, पटोल, कटेली और तुलसी समान-भाग(मात्रा--१ तोला ।) | मिश्रित ४ सेर लेकर, कूटकर सबको ३२ सेर For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३६०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय। विधि-काथ, कल्क और २ सेर घीको तो छान लें। एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो कल्क-२० तोले त्रिकुटे ( सोंठ, मिर्च, घृतको छान लें। पीपल) को पानीमें पीस लें। इसके सेवनसे वातकफज रोग, भयंकर शोथ, विधि-२ सेर घी, २ सेर दूध और काथ गुल्म, उदररोग, प्लीहा और अर्शका नाश तथा तथा कल्कको एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृत- अग्निकी वृद्धि होती है।। मात्र शेष रह जाय तो छान लें। ( मात्रा--१ तोला ।) यह घृत खांसी, विषम-चर, क्षय और (४१०४) पुराणघृतप्रयोगः अर्शको नष्ट करता है। (ग. नि. । उन्माद. अ. ३) ( मात्रा--१ तोला ।) | पुरानं पाययेचैनं सर्पिरुन्माद नाशनम् । (४१०३) पुनर्नवाचं घृतम् (४) | स्थितं वर्षशतं श्रेष्ठं कौम्भं सर्पिस्तदुच्यते ॥ (वं. से.; वृ. नि. र.; यो. र.; वृ. यो. त.। पानाभ्यञ्जननस्येषु हितमुन्मादिनां सदा ।। शोथा.) सौ वर्षका पुराना घी “कौम्भं" कहलाता पुनर्नवापत्ररसालमूलं संक्षुध तोयामणशेषसिद्धम्। है । इस घीको पिलाने, इसकी मालिश करने और चतुर्थभागेन घृतं विपकं प्रस्थं तु तत्कल्कपला- नस्य देनेसे उन्माद नष्ट होता है । टकेन ॥ संसेवितं वातवलासरोगान्स:श्च शोथानपि । (४१० Prage (४१०५) पैशाचकं घृतम् (महा) दुस्तरांश्च। (वा. भ. । चि. अ. ६) गुल्मोदरप्लीहगुदोद्भवांश्च निहन्ति वहिं जटिला पूतना केशी चोरटी मर्फटी वचा । कुरुते हि पुंसाम् ॥ | त्रायमाणा जया वीरा चोरकः कटुरोहिणी ॥ काथ---पुनर्नवा ( बिसखपरा-साठी ) के कायस्था शूकरी छत्रा सातिच्छत्रा पलङ्कपा । पत्ते और आमकी जड़की छाल समान-भाग- महापुरुषदन्ती च वयस्था लागलीद्वयम् ॥ मिश्रित ६। सेर लेकर, कूटकर सबको ३२ सेर | कटम्भरायश्चिकाली शालिपर्णी च तैर्धतम् । पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय सिद्धं चातुर्थिकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् ॥ तो छान लें। महापैशाचक नाम घृतमेतद्यथामृतम् । कल्क--उपरोक्त सब चीजें समान-भाग- | बुद्धिमेधास्मृतिकरं बालानां चारवर्द्धनम् ॥ मिश्रित ४० तोले लेकर सबको पानी के साथ बालछड, हर्र, भूतकेश, स्थल कमल, काँचके पीस लें। | बीज, बच, त्रायमाना, जया, क्षीरकाकोली (अथवा For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । घृतमकरणम् ] पृश्निपर्णी), चोरहोली, कुटकी, संभालु, बाराहीकन्द, सौंफ, सोया, गूगल, सतावर, गिलोय ( या माझी ), दोनों प्रकारकी रास्ना, प्रसारणी, बिछाती और शालपर्णी । इनके कल्क और काथके साथ घृत सिद्ध करें । काथके लिये - सब चीजें समान -भागमिश्रित ६ | सेर | पानी ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर | ककके लिये - सब चीजें समान -भागमिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर पानीके साथ पीस लें । 1 यह घृत चातुर्थिक ज्वर, उन्माद और महापस्मार नाशक तथा बुद्धि, मेधा और स्मृति - वर्द्धक एवं बालकोंकी शरीरवृद्धि करने वाला है । (४१०६) प्रपौण्डरीकार्थं घृतम् (१) (बृ. मा.; च. द. | व्रण. ) प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठामधुकोशीरपद्मकैः । सहरिद्रैः कृतं सर्पिः सक्षीरं व्रणरोपणम् ॥ काथ- पुण्डरिया, मजीठ, मुलैठी, स्वस, पद्माक और हल्दी समान -भाग- मिश्रित ४ सेर [३६१] लेकर ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्क – उपरोक्त समस्त चीजें समान भाग मिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर सबको पानीके साथ पीस लें । विधि --- काथ, कल्क और २ सेर दूध तथा २ सेर घृतको एकत्र मिलाकर पकावें जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें । (४१०७) प्रपौण्डरोकार्थं घृतम् (२) ( वं. से. । मुखरो. ) काथ, कल्क और २ सेर घृतको एकत्र प्रपौण्डरीकमधुकत्रिफलोत्पलसाधितम् । मिलाकर पकावें । तैलं घृतं वा वातघ्नं शीतादेः संप्रशस्यते ॥ यह घी ( लगाने और खानेसे ) व्रण भर जाते हैं । पुण्डरिया, मुलैठी, हर्र, बहेड़ा, आमला और नीलोत्पल के काथ तथा कल्कसे सिद्ध तैल या घृत शीताद आदि मसूढ़ों के रोगों में हितकर है । यह Sagar है। काथके लिये- सब चीजें समान - भागमिश्रित ४ सेर । पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । 1 कल्क के लिये -- सब चीजें समान भाग मिश्रित १३ तोले ४ माशे । सबको २ सेर घीमें मिलाकर पकावें । इति पकारादिष्टतमकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ३६२ ] www.kobatirth.org (४१०८) पञ्चमूला तैलम् (१) ( च. सं. । चि. वातव्या . ) भारत - भैषज्य रत्नाकरः । अथ पकारादितैलप्रकरणम् पञ्चमूलकषायेण पिण्याकं बहुवार्षिकम् । पक्त्वा तस्य रसं पूत्वा तेन तैलं विपाचयेत् ॥ पयसाष्टगुणेनैतत्सर्ववातविकारनुत् । संसृष्टे श्लेष्णा चैतद्वाते शस्तं विशेषतः || बेलछाल, श्योनाक ( अरल) की छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलकी छाल और अरणी समानभाग-मिश्रित ४ सेर लेकर सबको कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें | तत्पश्चात् इसमें १ सेर तिलकी बहुत पुरानी खल डाल कर पुनः पकावें । जब वह अच्छी तरह मिल जाय तो छान लें । इस काथ में २ सेर तितका तेल और १६ सेर दूध मिलाकर पकावें । जब सेलमात्र शेष रह जाय तो छान ले 1 यह तैल समस्त वातरोगों को नष्ट करता है । विशेषतः कफान्वित वातमें अत्यन्त उपयोगी है। (४१०९) पञ्चमूला तैलम् (२) ( वृ. यो. त. । त. १०६; वं. से.; यो. र. । शोधा. ) पञ्चमूलं सलवर्ण सरलं देवदारु च । हस्तिकर्णपलाशस्य फलानि निचुलस्य च ।। पलांशं काकनासा च गुडूची देवपुष्पकम् । अहिंसा श्रेयसी हिंसा कृष्णगन्धा पुनर्नवा || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि कायस्था च वयस्था च दारुको जटिला जटा । अलम्बुषो रुबूकं च प्रपुन्नाटं सनागरम् ॥ शिग्रुगोधाant भार्गी तर्कारी पौष्करीजटा । एतैः सिद्धं यथालाभं तैलमभ्यञ्जनैस्त्रिभिः ।। निहन्त्युदीर्ण श्वयथुं जन्तोर्वातकफात्मकम् ॥ काथ-बेलछाल, श्योनाक ( अरल) छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलहाल, अरणी, सेंधानमक, सरल ( धूप सरल देवदारु, हस्तीकर्णपलाश के फल, समन्दरफल, काकनासा ( कौयाडोढी ), गिलोय, लौंग, काकादनी, गजपीपल, बालछड़, सहजनेकी छाल, पुनर्नवा (बिसखपरा), हर्र, आमला, देवदारु, पीपलामूल, मुण्डी, अरण्डकी जड़, पंवाड़, सोंठ, सहजनेकी छाल, हंसपादी, भरंगी, अरणी और पोखरमूल । सब चीजें समान-भाग- मिश्रित ४ सेर लेकर, कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें 1 कल्क- उपरोक्त ओषधियां समान-भागमिश्रित १३ तोले ४ माशे । पानीके साथ पीसकर कल्क बनावें । विधि- - काथ, कल्क और २ सेर तेलको एकत्र मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो छान लें। For Private And Personal Use Only इसकी मालिश करनेसे भयङ्कर वातकफज शोध भी ३ दिन में ही नष्ट हो जाता है । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - तैलपकरणम् ] सृतीयो भागः। [३६३] (४११०) पञ्चवल्कलतैलम् इन दोनों योगों में से किसी एक की ओष(वं. से. । कर्ण.) धियां ११-१। तोला लेकर सब को पानी के साथ विल्वोदुम्बरजम्मूदधित्यचूतानां वल्कलैः सिद्धम् | पीस लें । तदनन्तर यह कल्क, ८ सेर तेल और ३२ सेर पानी एकत्र मिलाकर पकावें । जब पानी श्रुतिरोधश्च निहन्ति तैलं प्रपाकपूतिनुतं जल जाय तो तेलको छान लें। जयति ।। इस तैलकी अनुवासन बस्ति लेने से समस्त काय-बेलकी छाल, गूलरकी छाल, जामनकी | प्रकारके ज्वर, खांसी और वातज रोग नष्ट होते हैं। छाल, कैथकी छाल और आमकी छाल समान भाग (४११२) पटोलादिस्नेहः मिश्रित ४ सेर । पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष (वं. से. । ज्वरा.) काथ ८ सेर । पटोलपिचुमन्दाभ्यां गुडूच्यामलकेन च । कल्क-उपरोक्त चीजें समान-भाग-मिश्रित मदनैश्च शृतं स्नेहं ज्वरनमनुवासनम् ।। १३ तोले ४ माश । काथ-पटोल, नीमकी छाल, गिलोय, आमला काथ, कल्क और २ सेर तेलको एकत्र मिला- और मैनफल समान-भाग-मिश्रित ४ सेर । पाकार्थ कर :पकावें । जब काथ जल जाय तो तेलको जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । छान लें। कल्क-उपरोक्त चीजें समभाग मिश्रित १३ ___ कानोका बन्द होना, कर्णपाक और मवाद तोले ४ मासे लेकर पानी के साथ पीस लें। निकलना आदि कर्णरोग इस को कान में डालनेसे विधि-काथ, कल्क, और २ सेर तेल को नष्ट हो जाते हैं। एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो तैल को छान लें। (४१११) पटोलादितैलम् (वं. से. । ज्वरा.) इसको अनुवासन बस्ति लेने से ज्वर नष्ट होता है। पटोलमदनारिष्टगुडूचीमधुकैः शृतम् । | (४११३) पटोलीतैलम् श्वदंष्ट्रामदनभृङ्गीमधुकारिष्टवासकैः । | (वं. से.; भा. प्र. म. खं.; यो. र.; वृ. नि. र.। अश्वगन्धेति तैलस्य कार्षिकैराटकं पचेत् । ___ अग्निदग्ध.) अनुवासनकं तैलं सर्वज्वरविनाशनम् ॥ | सिद्ध कपायकल्काभ्यां पटोल्या: कटुतैलकम् । कसनान्वातविकारांश्च नाशयेदपि चोत्थितान् ॥ दग्धव्रणरुजात्रावदाइविस्फोटनाशनम् ॥ (१) पटोल, मैनफल, नीमकी छाल, गिलोय - ग. नि.; भै. र.; द. ६.; र. र. और इन्द और मुलैठी। अथवा (२) गोखरु, मैनफल, काकड़ा-माधव में पटोल के स्थान में पाटलो (पाढल या लाल सिंगी, मुलैठी, नीमकी छाल, वासा और असगन्ध, । लोध ) लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - काथ-पटोल ४ सेर । पाकार्थ जल ३२ । विधि-काथ, कल्क, २ सेर लाखका रस, सेर । शेष काथ ८ सेर। | २ सेर दूध, २ सेर शुक्त, २ सेर स्वच्छ काली कल्क-१३ तोले ४ माशे पटोल को पानी | और २ सेर दही का पानी तथा २ सेर तेल एकत्र के साथ पीस लें। मिलाकर पकावें । जब तेलमात्र शेष रह जाय तो विधि-काथ, कल्क, और २ सेर सरसों के | छान लें। तेल को एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल यह तैल त्वचा के लिये हितकारी तथा तृष्णा, जाय तो तेल को छान लें। दाह ओर ज्वरनाशक है। ___ इसे लगाने से अग्निदग्धव्रणकी पीड़ा, स्राव, (४११५) पनकतैलम् (२) (खुडाकपनकम्) और दाह तथा विस्फोटकका नाश होता है। | (भा. प्र. यो. र. ; . नि. र. । वा. र.) (४११४) पद्मकतैलम् (१) पनकोशीरयष्टयाहरजनीकाथसाधितम् । (वं. से.; भा. प्र. । ज्वरा.) | स्यात्पिष्टैः सर्जमञ्जिष्ठावीराकाकोलिचन्दनैः ।। पद्मकोत्पलकहारमृणालबिसपौष्करैः । खुड्डाकपमकमिदं तैलं वातास्त्रपित्तनुत् ॥ कुमुदोशीरमञ्जिष्ठापनगैरिककट्फलैः ॥ काथ-पनाक, खस, मुलैठी और हल्दी शारिवाद्वयलोध्राब्दक्षीरीखजूरमुस्तकैः । समान भाग मिलित २ सेर । पाकार्थ जल १६ धात्रीशतावरीयुक्तैः काये कल्के प्रयोजितैः॥ | सेर । शेष काथ ४ सेर । सलाक्षाम्भः पयः शुक्तस्वच्छकाञ्जिकमस्तुभिः।। । कल्क-राल, मजीठ, बड़ी शतावर, काकोली पर्क तैलमिदं त्वच्यं सृष्णादाहज्वरापहम् ॥ चरापमा | और सफेद चन्दन । सब चीजें समान-भागकाथ-पभाक, नीलोत्पल, लाल कमल, कम मिश्रित ६ तोले ८ माशे लेकर पानी के साथ पीस लें। लनाल, कमलकन्द, पोखरमूल, कुमुद, खस, मजीठ, सफेद कमल, गेरु, कायफल, दो प्रकारकी सारिवा, विधि-काथ, कल्क और १ सेर तिल के लोध, नागरमोथा, दुद्धी, खजूर, केवटीमोथा, तैल को एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल आमला और शतावर । सब चीजें समान भाग जाय तो तैल को छान लें। मिश्रित १ सेर लेकर सब को कूटकर ८ सेर यह तैल वातरक्त और पित्त का नाश पानी में पकावें । जब २ सेर पानी शेष रह जाय करता है। तो छान लें। (४११६) पनकतैलम् (३) (महा) कल्क-उपरोक्त समस्त चीजें मिलित १३ ( भा. प्र.। वा. र.) तोले ४ माशे लेकर सब को पानी के साथ पत्रकेसरयष्टयाहफेनिलापकोत्पलैः । पीस लें। पृथक् पचपलैर्दत्तं बलाकिंशुकचन्दनैः॥ For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेलमकरणम् ] तृतीयो भागः। [३६५] जले भृतं पवेत्तैलं प्रस्य सौवीरसम्मितम् । । सिल, कूठ और राल समान-भाग-मिश्रित २० लोधकाकोलिकोशीरजीवकर्षभककेशरैः ।।। तोले लेकर कल्क बनावें फिर यह कल्क, २ सेर मदयन्तिलतापत्रपत्रकेशरपकैः। तैल और ८ सेर पानी एकत्र मिलाकर पकायें जब प्रपोण्डरीककालीयमेदामांसीमियाभिः ।। पानी जल जाय तो तेलको छान लें। मैदिगुणैः कर्मजिष्ठायाः पलेन च ।। पूतनाग्रह-जुष्ट बालक के शरीर पर इस महापत्रकमिदं तैलं वातासग्ज्वरनाशनम् ॥ । तैल की मालिश करना हितकारी है। काथ-कमलकेसर, मुलैठी, रीठा, पनाक, | (४११८) पलङ्कषायं तैलम् नीलोत्पल, स्वरैटी, टेसूके फूल और लाल चन्दन। (च. द. । वा. व्या; वृ. नि. र. । अपस्मा.) प्रत्येक वस्तु २५-२५ तोले । पाकार्थ जल २० पलपावचापध्यावश्चिकाल्यर्कसर्षपैः । सेर । शेष काथ ५ सेर। | जटिलापूतनाकेशीलागलीहिङ्गचोरकैः ॥ कल्क-लोध, काकोली, खस, जीवक, ऋष लशुनातिरसाचित्राकुष्ठैविभिश्च पक्षिणाम् । भक, नागकेसर, मदयन्तिका (मोतिया), तेजपात, मांसाशिनां यथालाभं बस्तमूत्रे चतुर्गुणे ॥ कमलकेसर, पनाक, पुण्डरिया, दारुहल्दी, मेदा, | सिद्धमभ्यञ्जने तैलमपस्मारविनाशनम् ॥ बालछड़ और फूलप्रिया । प्रत्येक ११-१। तोला। कल्क-गूगल, बच, हर्र, बिछाती, आक, केसर २॥ तोले और मजीठ ५ तोले लेकर सबको सरसों, बच, बालछड़, भूतकेश, कलियारी, हींग, पानीके साथ पीस लें। चोरहोली, ल्हसन, मूर्वा, चीता, कूठ और (चील विषि-काथ, कल्क, १ सेर पानी, २ सेर | इत्यादि) मांस खानेवाले पक्षियों की विष्ठा। सब सौवीरक और २ सेर तेल को एकत्र मिलाकर पकावें। चीजें समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर पानी के जब तेलमात्र शेष रह जाय तो छान लें। साथ पीस लें फिर यह कल्क, २ सेर तैल और यह तैल वातरक्त और ज्वर को नष्ट करता है। आठ सेर बकरे का मूत्र एकत्र मिलाकर पकावें । (नोट -- सौवीरक--भा. भै. रत्नाकर भाग __ जब तैल मात्र शेष रह जाय तो छान लें। १ पृष्ठ ३५४ पर तुमोदक बनाने की विधि देखिये।) इस की मालिशसे अपस्मार नष्ट होता है । (१११७) पयस्यादितैलम् (४११९) पलाशवीजतैलम् (नपुं. मृ.) (पृ. नि. र. । बालरो.) पलाशसम्भवान्वीजान् किम्पार्क कनकप्रभाम् । नवा पपस्या गोलोमी हरितालं मनःशिला। कपोतारण्यज विष्टं प्रत्येक षट् च कर्षकम् ॥ कुष्ठं सर्जरसश्चैव तैलाथै कल्क इष्यते ॥ लवङ्गाकारकरभौ चोल च कर्षसम्मितम् । नबीन काकोली, सफेद बच, हरताल, मन- अजादुग्धे पेषयित्वा शोष्य तैलञ्च पातयेत् । For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - [३६६] भारत-भैषज्य रस्नाकरः। [पकारादि पूर्वोक्तेन विधानेन शिश्नपृष्ठेविलेपयेत् । प्रशस्तं ग्रहणीरोगे प्रमेहज्वरनाशनम् ॥ दिशैकदिवसै रोगान्मुच्यते हस्तसम्भवात् ॥ नाम्ना पल्लवसाराख्यं तैलं विद्यानिपग्वरः ।। ___ढाक के बीज, कुचला, मालकंगनी और द्रव पदार्थ-त्रिफला का काथ (१ सेर जंगली कबूतर की बीट; प्रत्येक ७॥ तोले तथा त्रिफला को ८ सेर पानीमें पकाकर चौथाई शेष रहा लैंग, अकरकरा और दालचीनी १०-११ तोला । हुया ) २ सेर, मंगरे का रस २ सेर, शतावर का सबको बकरी के दूध घोटकर सुखाकर पाताल यन्त्र से तैल निकालें। रस २ सेर, दूध २ सेर, पेठे का रस २ सेर, लाख इसे सीवन और सुपारी छोड़कर इन्द्री पर का रस २ सेर और काली २ सेर । मलकर ऊपर से बंगला पान बांध देना चाहिये। कल्क-पीपल, हरे, द्राक्षा ( मुनक्का), हर्र, इस प्रकार २१ दिन करने से हस्त-क्रिया | बहेड़ा, आमला, नीलोत्पल, मुलैठी और क्षीरकाकोली से उत्पन्न हुवे दोष नष्ट हो जाते हैं । प्रत्येक ५-५ तोले। (नोट-इसके प्रयोगकाल में इन्द्री को ठंडे गन्धद्रव्य-कपूर, नखी, कस्तूरी, गन्धापानी से बचाना चाहिये ।) बिरोजा, जावत्री और लौंग। प्रत्येक २॥२॥ तोले। (४१२०) पल्लवसारतैलम् विधि-द्रव पदार्थ, कल्क और २ सेर तिल (भै. र.। वाजीक.) का तेल मिलाकर पकावें । जब तेलमात्र शेष रह त्रिफलाया रसपस्थं भृगराजरसं तथा। जाय तो उसमें गन्ध द्रव्य पीसकर मिला दें और शतावरीरसं क्षीरं कूष्माण्डस्य रसं पृथक् ॥ | २४ घण्टे बाद छान लें। प्रस्थैक तिलतैलस्य पचेन्मृमिना भिषक् । (नोट-कस्तूरी और कपूर को रेक्टीफाइड लाक्षारनालसिद्धाम्बु प्रस्थं प्रस्थं विपाचयेत् ॥ स्प्रिट में मिलाकर डालना अच्छा है।) कल्क कणा शिवा द्राक्षा त्रिफला नीलमुत्पलम्। इसकी मालिश से महावात और महापित्तका मधुकं क्षीरकाकोली प्रत्येक पल पलम् ॥ | नाश होता है। यह समस्त नेत्र-रोग, अपस्मार, कर्पूरण नखं गन्धमण्डज विरजासमम् । वातव्याधि, विद्रधि, प्रण, शोथ, प्रमेह, शूल, जातीकोष लवङ्गा पतिकर्षयं पचेत् ।। | अफारा, मूत्रकृच्छू, गुल्म, इच्छूल, मूत्राघात, संप्रमहावातहरं तैलं महापित्तविनाशनम् । हणी और ज्वर को नष्ट करता है। नेत्ररोगेषु सर्वेषु अपस्मारेऽनिलामये ॥ विद्रषिव्रणशोथनं मेहदोपहरं परम् । (लाक्षारस और कांजी बनानेकी विधि मा. एलरोगप्रशमनमानाइकृच्छूनाशनम् ॥ भै. रत्नाकर प्रथम भाग पृष्ट ३५३ और ३५४ गुल्मनं इदिशूलनं मूत्राघातविनाशनम् । | पर देखिये।) For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलमकरणम् ] (४१२१) पाठादितैलम् (च. द. यो. र.; भै. र. ग. नि.; वृं. मा. र. र. । नासा.; वृ. यो त । त. १३०; शा. ध. । ख. २ अ. ९ ) तृतीयो भागः । पाठाद्विरजनीमूर्वापिप्पलीजातिपल्लवैः । दन्त्या च तैलं संसिद्धं नस्यं सम्पकपीनसे || (४१२२) पानीनाशक तैलम् ( नपुंसकामृ । त. ६ ) काथ- पाठा, हल्दी, दारूहल्दी, मूर्वा, पीपल, चमेली के पत्ते और दन्तीमूल । सब समान -भागमिश्रित ४ सेर | पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर | I इसे अग्रभाग और सीवन को बचाकर इन्द्री पर लगाना चाहिये । जब फुंसियां निकल आवें तो तेल लगाना बन्द कर के रोपणी क्रिया करनी चाहिये । ( चमेलीका तैल आदि लगाना चाहिये । ) इस प्रकार इस तैलके प्रयोगसे इन्द्रीकी नसोंका पानी निकल कर नपुंसकता दूर हो जाती है। यह अत्युत्तम प्रयोग है । (४१२३) पिण्डतैलम् (१) (महा) ( भा. प्र. । वा. र. ) सारिवारिष्टकुष्माण्डपोतकी भस्मजाम्बुना । गुडूचीगन्यदुग्धाभ्यां कर्मरङ्गरसेन च ॥ विपचेतिल तैलं दत्वैतानि भिषग्वरः । काकोल्यौ जीवकं मेदे शताहा क्षीरिणीयुतैः ॥ कल्क- उपरोक्त समस्त पदार्थ समान भागमिश्रित १३ तोले ४ माशे । विधि-२ सेर तिलका तैल, काथ और कल्क को एकत्र मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो तैल को छान लें । इसकी नस्य लेने से पक्क पीनस नष्ट होती है। जिङ्गी सिक्थामृतानन्ता सर्जसैन्धवचन्दनैः । ज्योतिष्मती तु कुडवमजेपालं पलद्वयम् । जातीफल जातिपत्र चोलच देवपुष्पकम् ॥ सर्वान्सम्मेल्य विधिना तैलं संकर्षयेत्ततः । अग्रभागं च सीमानौ त्यक्ता छेषं प्रलेपयेत् ॥ पिटिकादर्शनात्वा लेपने तैलसम्भवम् । रोपणीं च क्रियां कुर्याद्यावदारोग्यतां ब्रजेत् ॥ अनेनैव विधानेन शिश्ननाडीभव जलम् । नश्यति नात्र सन्देहो योगोयं परमोत्तमः ॥ [ १६७ ] ५-५ तोले लेकर सब का पाताल यन्त्र से तैल निकाले । मालकंगनी २० तोले, जैपाल (जमालगोटा ) १० तोले, जायफल, जावत्री, दालचीनी और लौंग । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हन्याद्वातास्रजं घोरं स्फुटितं गलितं तथा ॥ चर्मदाख्यं पामादस्त्वग्दोषञ्च विपादिकम् । कुष्ठान्यशांसि वीसर्प व्रणशोथं भगन्दरम् ॥ न सोऽस्ति वातरक्तस्य विकारो योऽभिवर्द्धितः। यन्न हन्यात्प्रसहचैतत् पिण्डतैलं महत्स्मृतम् ॥ सारिवा, नीम, पेठा और पोई की समान भाग मिश्रित भस्मको ६ गुने पानी में घोल कर क्षार बनाने की विधिसे २१ बार छान कर स्वच्छ पानी निकालें । यह पानी २ सेर, गिलोयका काथ ( आठ गुने पानी में पकाकर चौथा भाग शेष रहा हुवा ) २ सेर, गायका दूध २ सेर और कमरखका रस For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि २ सेर तथा निम्न लिखित चीज़ोंका कल्क २० । (४१२५) पिप्पलीतेलम् तोले लेकर सबको २ सेर तिलके तेलमें मिलाकर (वं. से. । नासा.) पकावें । जब तैल मात्र शेष रह जाय तो छान लें। सपिप्पलीकुष्ठमहौषधानां कल्कद्रव्य-काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, विडोककषायकल्कैः । मेदा, महामेदा, सोया, दुद्धि, मजीठ, मोम, | तैलं विपर्क क्षवयौ च नस्य गिलोय, अनन्त मूल, राल, सेंधा नमक और सफेद वसां पवेतैलमयोधृतश॥ चन्दन । सब समान भाग मिश्रित २० तोले । । कषाय-पीपल, कूठ, सोंठ, वायविडंग यह तैल गलित और स्फुटित भयंकर वात- | और मुनक्का समान भाग मिश्रित १ सेर । पाका रक्त, चर्मदल नामक कुष्ठ, पामा, विपादिका, कुष्ठ, जल ३२ सेर । शेष पानी ८ सेर । अर्श, वीसर्प, व्रणशोथ और भगन्दरको नष्ट करता कल्क-उपरोक्त समस्त चीजें समान भाग है । वातरकका कोई भी ऐसा उपद्रव नहीं जिसे | मिश्रित १३ तोले माशे लेकर मलो पानी यह तेल नष्ट न कर सकता हो। साथ पीस लें। (४१२४) पिण्डतेलम् (२) । विधि-२ सेर तिलका तैल अथवा घी (र. र.; वृं. मा.; यो. र.; भा. प्र.; वं. से.; या बसा और उपरोक्त कल्क तथा काथ एकत्र ग. नि. । वा. र.; च. स. । चि. अ. मिलाकर पकावें। २९ वातर.; वा. भ. । चि. अ. २२, जब पानी जल जाय तो छान लें। च. द. । वातर.) इसकी नस्य लेनेसे क्षवथु (छींक आना) सारिवासर्जयष्टयाइमच्छिष्टैः पयोन्वितैः।। सिद्धमैरण्डज सैलं वातरक्तरुजापहम् ॥ रोग नष्ट होता है। अपूतमथितस्यास्य पिण्डतैलस्य योगतः ॥ (४१२६) पिप्पल्या तैलम् (१) सारिवा, राल, मुलैठी और मोम ५-५ | ( मै. र.; वं. से.; . मा.; च. द. । अर्स.) तोले लेकर पहिली : चीजोंको खब महीन पीस | पिप्पली मधुकं बिल्वं शता मदन वचाम् । लें फिर २ सेर अरण्डी के तेलमें यह चारों चीजें | कुष्ठ शुण्ठी पुष्कराख्यं चित्रकं देवदारु च ।। तथा ८ सेर दूध मिलाकर मन्दामि पर पकावें । | पिष्टा तैलं विपक्तव्यं द्विगुणक्षीरसंयुतम् । जब दूध जल जाय तो तेलको ठण्डा करके बिना अर्शसां मूढवातानां तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ॥ छाने हो बोतलों में भर दें।* गुदनिःसरणं शूलं मूत्रकृच्छु भवाहिकाम् । __ इसकी मालिश से वातरक्त का नाश होता है। | कटयूरुपृष्ठदौर्बल्यमानाई बसणे रुजम् ।। *कुछ प्रन्थों में दूधका अभाव है तथा एरण्ड तैल पिच्छात्रावं गुदे शोर्य वातवर्णविनिग्रहम् । लिसकर केवल तैल शब्द लिखा है । | उत्थानं बहुशो यच जयेचैवानुवासनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बैलमकरणम् ] कल्क-- पीपल, मुलैठी, बेलगिरी, सोया, । मैनफल, बच, कूठ, सोंठ, पोखरमूल, चीता और - देवदारु । समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर सबको पानीके साथ पीस लें और फिर २ सेर तिलके तैलमें यह काथ और ४ सेर दूध तथा ४ सेर पानी मिला कर पकावें । जब दूध और पानी जल जाय तो तैलको छान लें तृतीयो भागः । इसकी अनुवासन बस्ति लेनेसे अर्श, मूढ बात, कांच निकलना, शूल, मूत्रकृच्छू, प्रवाहिका ( पेचिश ), कमर, जंघा और पीठी दुर्बलता, अफारा, वाङ्क्षणशूल, पिच्छल (चिपचिपाहटवाला) दस्त होना, गुदशोथ और मलमूत्रका रुकना इत्यादि रोग नष्ट होते हैं । (४१२७) पिप्पल्याद्यं तैलम् (२) ( वं. से. । कर्ण. ) पिप्पल्यो बिल्वमूलं च कुष्ठं मधुकमेव च । सूक्ष्मैलादेवदारूणि मांसीव्याधीनखीगुरु ॥ गर्भेणानेन तैलस्य प्रस्थं मृमिना पचेत् । केयूरमूलकरसौ दद्यात्स्नेहेन संयुतौ ॥ तेन कर्णे पिचुं दद्याद्वस्तिकर्म च कारयेत् । तेनोपशाम्यते क्षिप्रं कर्णशुलं सुदारुणम् ॥ कल्क - पीपल, बेलकी जड़की छाल, कूठ, मुलैठी, छोटी इलायची, देवदारु, जटामांसी (बालछड़), कटेली, नख और अगर । सब चीजें समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर पानीके साथ पीस लें । विधि - २ सेर तिलका तेल, ४ सेर केमुआ का रस, ४ सेर मूलीका रस और यह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३६९ ] कल्क एकत्र मिलाकर पकायें। जब तेलमात्र शेष रह जाय तो छान लें। इस तैलमें रुई भिगोकर उसे कान में रखने और इसकी बस्ति लेनेसे दारुण कर्णशूल भी तुरन्त नष्ट हो जाता है । (४१२८) पीलुपण्याचं तैलम् ( च. स. । चि. अ. ऊरुस्त. ) पीलुपर्णी पयस्या व रास्ना गोक्षुरको बच्चा । सक्षौद्रं प्रसृतं तस्मादञ्जलिं वापि ना पिबेत् ॥ सरलागुरुपाठाश्च तैलमेभिर्विपाचयेत् ॥ काथ- पीलुपर्णी (मूर्वा), क्षीरकाकोली, रास्ना, गोखरु, बच, सरल (धूप सरल ), अगर और पाठा समान भाग मिश्रित ४ सेर । पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । 1 कल्क – उपरोक्त समस्त चीजें समान भाग मिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर पानीके साथ पीस लें । विधि - - काथ, कल्क और २ सेर तिलके तेलको एकत्र मिलाकर पकावें । जब तेलमात्र शेष रह जाय तो छान लें । इसमें से १० तोळे या २० तोले तेल शहद में मिलाकर पीने से ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है । ( मात्रा -- ६ माशे से १ तोले तक ) (४१२९) पुनर्णवादितैलम् (भै. र. । शोथा. ) पुनर्णवा पलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् । । तेन पादावशेषेण तैलप्रस्थं पचेद् भिषक् ।। For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३७० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि त्रिकटु त्रिफला शृङ्गी धान्यकं कट्फलं तथा। । रक्तपित्त, महाशोथ, खांसी, श्वास, भगन्दर, तिल्ली, शटी दावी प्रियङ्गश्च पद्मकाष्ठं हरेणुकम् ।। | उदर रोग और जीर्णज्वर को नष्ट और अग्निको कुष्ठं पुनर्णवा चैव यमानी कारवी तथा।। दीप्त करता तथा कान्ति बढ़ाता है । एला त्वचं सलोध्रश्च पत्रकं नागकेशरम ॥ (४१३०) पुनर्णवाद्यं तैलम् (वं से. । अस्मरि.; यो. र. । अण्डवृद्धि.) वचा ग्रन्थिकमूलश्च चव्यं चित्रकमूलकम् ।। शतपुष्पाम्बु मभिष्ठा रास्ना यासस्तथैव च ॥ पुनर्नवामृताभीरुसक्षारलवणत्रयः ।। एतेषां कार्षिकैर्भागैः पेषयित्वा विनिःक्षिपेत् । शठाकुष्ठवचामुस्तरास्नाकट्फलपाष्करः ।। कामलां पाण्डुरोगश्च हलीमकमथारुचिम् ॥ | यवानीहपुषाहिङ्गशताहासाजमोदकैः । रक्तपित्तं महाशोथं कासं श्वासं भगन्दरम् । | विडङ्गातिविषायष्टीपञ्चकोलकसंयुतैः ॥ प्लीहानमुदरश्चैव जीर्णज्वरमपोहति ॥ एतैरक्षसमैः कल्कैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् । कुरुते परमां कान्ति प्रदीप्तं जठरानलम् ।। गोमूत्रं द्विगुणं देयं काञ्जिकं तद्वदेव तु ॥ तैलं पुनर्णवाख्यातं सर्वान् व्याधीन व्यपोहति ॥ पुनर्नवाद्यमित्येतत्तैलं पानेन बस्तिना। काथ--६। सेर पुनर्नवा (साठी) को ३२ | शकेराश्मरिशूलग्नं मूत्रकृच्छ्रप्रमोचनम् ॥ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे | कटयूरुबस्तिमेढस्थं कुक्षिशूलविनाशनम् । कफवातामशूलघ्नमन्त्रद्धेश्च नाशनम् ॥ कल्क-सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, कल्क-पुनर्नवा (साठी), गिलोय, शतावर, आमला, काकड़ासिंगी, धनिया, क.यफल, शठी जवाखार, सेंधा नमक, सञ्चल नमक, विड नमक, ( कचूर ), दारुहल्दी, फूलप्रियङ्गु, पाख, रेणुका सठी (कचूर), कूठ, बच, नागरमोथा, रास्ना, कायफल, पोखरमूल, अजवायन, हाऊबेर, हींग, सोया, (संभालुके बीज ), कूठ, पुनर्नवा ( बिसखपरा अजमोद, बायबिडंग, अतीस, मुलैठी, पीपल, साठी ), अजवायन, काला जीरा, इलायची, दाल पीपलामूल, चव, चीता और सेठ १।-१। तोला चीनी, लोध, तेजपात, नागकेसर, बच, पोपलामूल, लेकर पानी के साथ पीस लें । तत्पश्चात् २ सेर चव, चीतामूल, सोया, सुगन्धवाला, मजीठ, रास्ना | तेल में यह कल्क, ४ सेर गोमूत्र और ४ सेर काञ्जी और धमासा । प्रत्येक ओषधि १।-११ तोला | मिलाकर पकावें । लेकर पानीके साथ पीस लें। इसे पीने तथा इसकी बस्ती लेने से शर्करा, विधि--२ सेर तिलका तैल तथा उपरोक्त | अश्मरी, शूल, मूत्रकृच्छू, कमरका दर्द, ऊरु की पीड़ा, काथ और कल्क एकत्र मिलाकर पकावें । जब | बस्ति और लिङ्गकी पीड़ा, कोखका शूल, कफज बस्ति और लिडकी काथ जल जाय तो तेलको छान लें। शूल, आमशूल, वातज शूल और अन्त्रवृद्धि का यह तैल कामला, पाण्डु, हलीमक, अरुचि, ' नाश होता है। तो छान लें। For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] तृतीयो भागः। [३७१ ] (४१३१) पुनर्नवाद्यं तैलम् यवानी भूतिकं मांसी निर्गुण्डी च तथा बला ॥ (वं. से.; वृ. नि. र. । हृद्रों.) वनिर्गोक्षुरकञ्चैव मृणालं बहुपुत्रिका। प्रतिकर्षमिदं योज्यं सर्वमेकत्र पाचयेत् ।। पुनर्नवां दारु सपञ्चमूलं तैलशेष समुद्धत्य पुष्पराजप्रसारणीम् । रास्नां यवान्कोलकपित्थबिल्वम् । अभ्यङ्गे योजयेत्पाने नस्यकर्मणि सर्वदा ॥ पक्त्वा जले तेन पचेत्तु तैल भग्नानां खञ्जपङ्गनां शिरोरोगे हनुग्रहे। मभ्यङ्गपानेऽनिलहृद्गदनम् ॥ समस्तान् वातजान् रोगांस्तूर्ण नाशयति ध्रुवम्।। पुनर्नवा ( साठी-बिसखपरा ), देवदारु, काथ-प्रसारणी १०० पल (६। सेर), बेलछाल, अरलुकी छाल, खम्भारोकी छाल, पाढल असगन्ध ५० पल ( ३ सेर १० तोले )। पाकार्थ की छाल, अरणी, रास्ना, जौ, बेर, कैथ और बेल जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । गिरी । सब चीजें समान भाग मिश्रित ४ सेर अन्य द्रव पदार्थ--गाय या भैंस का दूध ८ लेकर, कूटकर सब को ३२ सेर पानी में पकावें । सेर, सफेद कमल का रस २ सेर और शतावर का जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान कर उस रस २ सेर । में २ सेर तिल का तेल मिलाकर पुनः पकावें । जब कल्क-सोया, पीपल, इलायची, कूठ, कटेली, काथ जल जाय तो तेल को छान लें। सेठ, मुलैठी, देवदारु, शालपर्णी, पुनर्नवा (साठी-- __इसे मर्दन करने और पीने से वातज हृद्रोग बिसखपरा), मजीठ, तेजपात, रास्ना, बच, पोखरनष्ट होता है। मूल, अजवायन, गन्धतृण, बालछड़, संभालु, खैरेटी, (४१३२) पुष्पराजप्रसारणीतैलम् चीता, गोखरू, कमलनाल और शतावर । सबै (धन्व. । वा. व्या.) चीजें १।-१। तोला लेकर बारीक पिसवा लें । विधि-२ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त समस्त प्रसारणीपलशतं मूलश्चैवाश्वगन्धजम् । पदार्थ मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब तेलपश्चाशतपलमानन्तु जलद्रोणे विपाचयेत् ।। मात्र शेष रह जाय तो छान लें। पादशेषे हरेत्काथं काथांशं तिलतैलकम् ।। इसे पीना तथा इस की नस्य लेनी और तैलाचतुर्गुणं क्षीरं गव्यं वा माहिषं तथा ॥ मालिश करनी चाहिये । पुण्डरीकरसस्तत्र शतावर्यारसस्तथा। तैलसमः प्रदातव्यः पाचयेन्मृदुवहिना ।। यह तैल भग्न (टूटी हुई ) हड्डी को जोड़ता शतपुष्पा कणा चैला कुष्ठश्च कण्टकारिका । | है । खञ्ज और पङ्गुत्व रोग तथा शिरोरोग, हनुशुण्ठी यष्टी देवदारु शालपर्णी पुनर्नवा ॥ | ग्रह और अन्य समस्त वातज रोगों को नष्ट मञ्जिष्ठा पत्रकं रास्ना वचा पुष्करमूलकम् । | करता है । For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३७२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि (४१३३) पृथ्वीसारतैलम् (४१३५) प्रपौण्डरीकार्य तेलम् (२) _ (भै. र.; च. द. । कुष्ठा.) (मै. र.; आ. वे. वि.; . मा.; वं. से. । क्षुद्र रो.) चित्रकस्याय निर्गुष्टया हयमारस्य मूलतः । | मपौण्डरीकमधुकपिप्पलीचन्दनोत्पलैः । नाडीच वीजाद विषतः काबिपिष्ट पल पलम्॥ कार्षिकैस्तैलकुडवस्तैदिरामलकीरसः ॥ करतेलाष्टपल कानिकस्य पलं पुनः। साध्यः स प्रतिमर्शः स्यात् सर्वशीर्षगदापहः ॥ मिश्रित सूर्यसम्पर्क तैलं कुष्ठवणाम्रजित् ॥ कल्क-पुण्डरिया, मुलैठी, पीपल, सफेद___ चीतामूल, संभाल की जड़, कनेर की जड़, चन्दन और नीलोत्पल १३-१४ तोला लेकर पानी नाहीच बीज और मीठातेलिया (बछनाग) ५-५ | के साथ महीन पीस लें। तोले लेकर सब को काजी के साथ पीस लें। ४० तोले तिल के तेल में यह कल्क, ८० फिर ४० तोले करखतैल में ५ तोले काली और तोले आमले का रस (और ८० तोले पानी) उपरोक्त कल्क मिलाकर उसे धूप में रख दें । जब मिलाकर पकावें । जब तेलमात्र शेष रह जाय तो जलांश सूख जाय तो तेल को छान लें। छान लें। इस.की मालिश से कुष्ठ, व्रण, और रक्तदोष इस की नस्य लेने से समस्त शिरोरोग नष्ट दूर होते हैं। | होते हैं। (४१३४) प्रपोण्डरीका तैलम् (१) (च. द. । प्र. शो.) (४१३६) प्रमेहमिहिरतैलम् प्रपोटरीकं मधुर्क काकोल्यो द्वे सचन्दने । (भै. र. । प्रमेह.) सिदममिः समं तैलं तत्परं व्रणरोपणम् ॥ शतपुष्पा देवकाष्ठं मुस्तकश निशाद्वयम् । काय-पुण्डरिया, मुलैठी, काकोली, क्षौरका- मूळ कुष्ठं वाजिगन्धा चन्दनद्वयरेणुकम् ॥ कोली, लाल चन्दन और सफेद चन्दन । सब कटुकी मधुकं रास्ना त्वगेला ब्रह्मयष्टिका । चीजें समान भाग मिश्रित ४ सेर लेकर, कूटकर चविका धान्यकं वत्सं पूतिकागुरुपत्रकम् ।। सबको ३२ सेर पानी में पकावें। जब ८ सेर | त्रिफला नालिका बाला बला चातिवला तथा। पानी शेष रहे तो छान लें। मञ्जिष्ठा सरलं पद्म लोधं मधुरिका वचा ॥ कल्क-उपरोक्त ओषधियां समान भाग अजाजी चोशीरजाती वासा तगरपादुका । मिश्रित १३ तोले ४ माशे लेकर सब को पानीके एतेषां कार्षिकैर्भागैस्तैलमस्थं विपाचयेत् ॥ साथ पीस लें। शतावर्या रसं तुल्यं लाक्षायाश्च चतुर्गुणम् । विधि-२ सेर तिल के तेल में यह काथ | मस्तु लाक्षारसैस्तुल्यं क्षीरं तुल्यं प्रदापयेत् ॥ और कल्क मिलाकर काय जलने तक पकावें। वैरेतैः पचेत्तैलं गन्धं दक्वा यथाक्रमम् । यह तेल लगाने से व्रण भर जाते हैं। 'एतलेलवर श्रेष्ठमभ्यवान्मारुतापहम् ।। For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैसमकरणम् ] हतीयो भागः। [३७३] - - - विषमाख्यान् ज्वरान् सर्वान् मेदोमज्जगतानपि।| विषमज्वर नष्ट होते हैं। यह क्षीणेन्द्रिय व्यक्तियों वातिकं पैत्तिकचैव श्लैष्मिकं सामिपातिकम् ॥ के लिये और विशेषतः ध्वजभंग में उपयोगी है। क्षीणेन्द्रिये तथा शस्तं ध्वजभने विशेषतः। यह तैल दाह, पिपासा, पित्त, छर्दि, मुखशोष दद्यात्तैलं विशेषेण फलमस्य च कथ्यते ॥ | और २० प्रकार के प्रमेहों को निस्सन्देह नष्ट दाई पित्तं पिपासाश्च छर्दिश मुखशोषणम्। | करता है। प्रमेहान् विंशतिश्चैव नाशयेदविकल्पतः॥ (४१३७) प्रसारणीतेलम् (१) प्रमेहमिहिरं नाम्ना रतिनाथेन भाषितम् ॥ (वा. भ. । चि. अ. २१) कल्क-सोया, देवदारु, नागरमोथा, हल्दी, | प्रसारणीतुलाका तैलमस्यं पयः समम् । दारुहल्दी, मूर्वा, कूठ, असगन्ध, सफेद चन्दन, द्विमेदामिशिमञ्जिष्ठाकुष्ठरास्नाकुचन्दनः॥ लाल चन्दन, रेणुका, कुटकी, मुलैठी, रास्ना, दाल जीवकर्षभकाकोलीयुगलामरदारूमिः। चीनी, इलायची, भरंगी, चव, धनिया, इन्द्रजौ, | कल्कितैर्विपचेत्सर्वमारुतामयनाशनम् ।। करञ्जबोज, अगर, तेजपात, हर्र, बहेड़ा, आमला, काथ-प्रसारणी ६। सेर । पाकार्य जल ३२ नलिका ( नाडीका शाक), सुगन्धवाला, खरैटी, सेर । रोष काथ ८ सेर ।। कंघी, मजीठ, सरलकाष्ठ, कमल, लोध, सौंफ, | बच, जीरा, खस, जायफल, बासा और तगर ।। कल्क-मेदा, महामेदा, सौंफ, मजीठ, कूल, प्रत्येक ओषधि ११-१॥ तोला। रास्ना, लाल चन्दन, जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली और देवदार। सब समान भागद्रव पदार्थ-शतावर का रस २ सेर, लाखका मिश्रित १३ तोले ४ मारो। रस' ८ सेर, दहीका पानी ( मस्तु) ८ सेर और २ सेर तिल के तेल में उपरोक्त काथ, कल्क दूध २ सेर । और २ सेर दूध मिलाकर पकावें । जब तैल मात्र विधि-२ सेर तिलतैल में उपरोक्त समस्त । । शेष रह जाय तो छान लें। पदार्थ मिलाकर पकावें। जब तेलमात्र शेष रह जाय तो छान ले । तदनन्तर इस में गन्धद्रव्य यह तेल समस्त वातज रोगों को नष्ट करता है। मिलाफर पुनः पाक करें। । (४१३८) प्रसारणीतलम् (२) इसकी मालिश से वात-विकार तथा वातज । (चं. से. । वा व्या.; भा. प्र.म. खं. वा. व्या.) पित्तज कफज सन्निपातज मेदोगत और मांसगत असारिण्या रसे सिद्धं तैलमैरण्डज पिवेत् । सर्वदोषहरश्चैव कफरोगहरं परम् ।। लक्षारस बनाने की विधि भा. भ. र. भाग १ पृष्ठ ३५३ पर देखिये। ४ सेर प्रसारणी को ३२ सेर पानी में पका२ गन्ध द्रव्य गकारादि कवाय प्रकरण में देखिये। । कर ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । इस में For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ३७४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि २ सेर अण्डी का तैल (काष्ट्रायल) मिलाकर पकावें।। सद्यः प्रशमेयेतैलमेतमात्र विचारणा। जब पानी जल जाय तो तेल को छान लें। इन्द्रियस्य प्रजनन बन्ध्यानाश्च प्रजाकरम् ।। वृद्धानां बालकानाश्च स्त्रीणां राज्ञां हितं परम् । यह तेल कफरोग और समस्त दोषोंको नष्ट पर्वा पीठसपिर्वा पीत्वैतत्संप्रधावति ।। करता है। काय-मूल और पत्रयुक्त सुपक सारयुक्त ६। (४१३९) प्रसारिणीतेलम् (३) । सेर प्रसारणी को कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें। (यो. र.; वृ. नि. र. । वातरो.; । यो. त. । त. जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे छान लें। ४०; ग. नि. । तैला. २) ___अन्य द्रव पदार्थ-दही ८ सेर और खट्टी । काञ्जी १६ सेर । समूलपत्रामुत्पाटय जातसारां प्रसारिणीम् । कुट्टयित्वा पलशतं कटाहे समधिश्रयेत् ।। १ कल्क-जवाखार, सेंधा नमक, पीपला मूल वारिद्रोणसमायुक्तं चतुभोगावशेषितम् ।। | और चीतामूल १९-१० तोले । सोंठ २५ तोले, कषायसममात्रं तु तैलमत्र प्रदापयेत् ।।२।। | रास्ना १० तोले, प्रसारणी १० तोले और मुलैठी दनस्तत्राढकं दद्यात् द्विगुणश्चाम्लकाञ्जिकम् ।। १० तोले । भेषजानि तु पेश्याणि तत्रेमानि समावपेत् ॥३. विधि-८ सेर तिल के तेल में उपरोक्त समस्त यवक्षारपले द्वे च सैन्धवस्य पलद्वयम् । पदार्थ मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब तेल द्वे पले पिप्पलीमूलाच्चित्रकस्य पलद्वयम् ।। ४ मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। शुण्ठी पलानि पश्चैव रास्नायाश्च पलद्वयम् ।। इस की नस्य लेने से वायु नष्ट होता है। प्रसारिणी पले द्वे च द्वे पले मधुकस्य च ॥५. एकाङ्ग और सींग ग्रह, अपस्मार, उन्माद, एतत्सर्वं समालोडय शनैर्मद्वग्निना पचेत् ।। | अग्निमांद्य, त्वचागत वायु, शिरा और सन्धि तथा एतत्मभञ्जने श्रेष्ठं नस्यकर्मणि शस्यते ।। अस्थिगत वायु, वातज शुक्रविकार और वातज एकागग्रहणं वापि सर्वाङ्गग्रहणं तथा । | रजोदोष, इसके उपयोग से नष्ट हो जाते हैं। अपस्मारं तथोन्मादं विद्रधि मन्दवह्निताम् ।। । - इसे सेवन करनेसे पङ्गु को दौड़ने की शक्ति त्वग्गताश्चापि ये वाताः शिरासन्धिगताश्च ये। , " प्राप्त होती है। अस्थिसन्धिगता ये च ये च शुक्रातवे स्थिताः सर्वान्वातामयान्नूनं नाशयत्येव सर्वथा। | यह तैल वात व्याधि से पीड़ित मनुष्यों, हयं नरं गजं वापि वातजर्जरितं भृशम् ॥ घोड़ों और हाथियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। यो, र. और वृ. नि. र. में श्लोक संख्या ४ तथा इस के सेवन से इन्द्रिय बलवान होती हैं गदनिप्रहमें श्लोक सं. ५ में कथित औषधे नहीं हैं। और बन्ध्या स्त्री गर्भ धारण करती है। For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३७८ । - यह तैल वृद्ध, बालक, स्त्री और राजाओं के काथ--मूल पत्र और शाखायुक्त प्रसारणी लिये परमोपयोगी है। ६। सेर । पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ (इसे दूध में डालकर पीना चाहिये तथा ८ सेर । “इस की नस्य, बस्ती और मालिश करनी चाहिये। । अन्य द्रव पदार्थ--मस्तु १२॥ सेर, पीने के लिये मात्रा-६ माशे।) कात्री १२॥ सेर तथा गायका दूध ५० सेर । (४१४०) प्रसारणीतेलम् (४) कल्क-चीता, पीपलामूल, मुलैठी, सेंधा (भा. प्र. । म. ख. वा. व्या.) नमक, बच, सोया, देवदारु, रास्ना, गजपीपल, समूलपत्रशाखायाः प्रसारण्याः शतं पलम् । । प्रसारणीकी जड़, जटामांसी ( बालछड़), लाल सम्यक्संक्षुध सलिले द्रोणमात्रे पचेद्भिषक् ॥ चन्दन, अरण्डमूल, खरैटीकी जड़ और सेठ । सलिलस्य चतुर्थाशं काथं समवशेषयेत् । सब समान भाग मिश्रित ६२॥ तोले । ततः पलशते तेले तं कषायं पुनः पचेत् ॥ विधि--१२।। सेर तेलमें उपरोक्त समस्त पचेत्पलशतं मस्तु कालिकं मस्तुनः समम् । पदार्थ मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह ततः शुद्ध पचेहुग्धं गव्यं तैलाचतुर्गुणम् ॥ जाय तो छान लें। चित्रकं पिप्पलीमूलं मधुकं सैन्धवं वचा। ___ इसे रोगीको पिलाना तथा नस्य, शिराबस्ति, शतपुष्पा देवदारु रास्ना च गजपिप्पली ॥ | मर्दन और स्वेदन कर्म में प्रयुक्त करना चाहिये । प्रसारणीभवं मूलं मांसी रक्तश्च चन्दनम् । तथावातारिमूलश्च बलामूलश्च नागरम् ।। यह समस्त वातज रोगोंको और विशेषतः तैलस्य चाष्टमांशेन सर्वकल्कानि साधयेत् । | हनुस्तम्भ, जिह्वास्तम्भ, अर्दित, गद्गदत्व,विश्वाची, नाम्ना प्रसारणीतलं विख्यातं तत्पयुज्यते ॥ मन्यास्तम्भ, अपबाहुक, त्रिकशूल, गृध्रसी, खञ्जता, पाने नस्ये शिरोबस्तौ मर्दने स्वेदने तया। पहुँता, कलायखञ्जता, अंगांका स्तम्भ और संकोच, प्रयुक्तं वातजान रोगान् सर्वानपि विनाशयेत्।। अन्तरायाम, बाह्यायाम, दण्डापतानक, धनुर्वात विशेषतो हनुस्तम्भं जिलास्तम्भं तथार्दितम् ।। और कुजता को नष्ट करता है । गद्गदत्वञ्च विश्वाची मन्यास्तम्भापवाहको यह तैल क्षीण, वृद्ध और वातव्याधिसे त्रिकशूलं गृध्रसीश्च खञ्जतां पङ्गतां तथा। पीड़ित मनुष्योंके सङ्कुचित अंगांका प्रसारण कर कलायखञ्जतां खलं स्तम्भं सङ्कोचमेव च ॥ | देता है इसी लिये इसे प्रसारणी तैल कहते हैं। आन्तरं बाहयमायाम तथा दण्डापतानकम्।। (पीनेके लिये मात्रा-~-६ माशे ।) धनुर्वातश्च कुब्जत्वं व्यपोहति न संशयः॥ नोट--तैल पकाते समय समस्त द्रवक्षीणानां स्थविराणाश्च वातसङ्कोचितात्मनाम् । पदार्थ एक साथ न डालकर क्रमश: एक एक प्रसारयेद्यतोऽङ्गानि तदुक्तैषा प्रसारणी॥ 'डालना चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कल्कीकृतं विश्वघनाम्बुकुष्ठं [ ३७६] [ पकारादि (४१४१) प्रसारणीतैलम् (५) जटामांसी (बालछड़), सोया, देवदारु, खस, प्रसारणीकाथपयोम्बुतक्रं ( यो. चि. म. । अ. ६; वृ. नि. र. । वा. व्या.) भूरिछरीला, रास्ना, अगर, सारिवा, सेंधानमक, बेलछाल, अरणी, मोचरस, मजीठ, कमल, पुनर्नवा ( बिसखपरा---साठी ), अरलुकी छाल, मुलैठी, केवटीमोथा, गिलोय, दारूहल्दी, हर्र, करीज, मेदा, हल्दी, दारूहल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, अरusमूल, गोखरू और जीवक । सब समान भाग मिश्रित १ सेर | मस्त्वारनालं दधिभिस्तु तैलम् । मांसीशताहामरदारुसेव्यैः ॥ शैलेयरास्नागुरुसारिवाभिः सासृग्लताम्भोजपुनर्नवाख्य छिन्नोद्भवादार्व्यभयाकरञ्ज सिन्धूत्थबिल्वानलमन्थमोचैः । स्योनाकयष्टयाइकुटन्नटैश्च ॥ www.kobatirth.org भारत मेदा निशा सफलत्रियैश्च । एरण्डगोण्टजीव कैश्च त-भैषज्य रत्नाकरः । सवाश्च दीप्तानपि पक्षघातान् तत्साधितं हन्त्यनिलोत्थरोगान् ॥ वाताश्रितानाह हनुग्रहादीन् । सगृध्रसी विश्वविबाहुशोषं हृन्मूर्धसंस्थांश्च गदांश्च तांस्तान् ॥ संशुष्कभग्नं प्रबलाङ्गयष्टिं यो साध्यतामुल्वणमारुतेन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीतः पुमांस्तस्यभवेदवश्यं प्रसारिणीतैलमिदं हिताय ॥ काथ-- प्रसारणी ६ सेर | पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । अन्य द्रव पदार्थ -- दूध ८ सेर, पानी ८ सेर, तक्र ८ सेर, मस्तु दहीका पानी ) ८ सेर, आरनाल ८ सेर और दही ८ सेर । विधि - --८ सेर तेल में उपरोक्त समस्त पदार्थ मिलाकर पकावें । जब तेल मात्र शेष रह जाय तो उसे छान ले I यह तैल पक्षाघात, आनाह, हनुस्तम्भ, गृध्रसी, विश्वाची और बाहुशोष इत्यादि समस्त वातरोगों कष्ट करता है । यह हृदय और शिरके रोगों में उपयोगी है। सूखे और टूटे हुवे अंगोंको पुनः ठीक कर देता है । ( इसे पीना चाहिये तथा नस्य, बस्ति और मर्दन आदि द्वारा प्रयुक्त करना चाहिये । पीनेके लिये मात्रा -- ६ माशे । ) (४१४२) प्रसारणीतैलम् (६) (ग. नि. । तैला. २) प्रसारण्याः पलशतं बलामूलार्द्धभागिकम् । शतावर्यश्वगन्धा च शतपुष्पा पुनर्नवा ॥ गुडूची दशमूलं च चित्रको मदनं शठी । पलांशकान् समापोथ्य जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ चतुर्भागाव शेषन्तु कषायमवतारयेत् । कल्क -- सोंठ, नागरमोथा, सुगन्धवाला, कूठ रास्नां शताहां मधुकं पिप्पलीं नागरं वचाम् || For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] कुष्ठं हरेणुकां मांसीं प्रियङ्गविन्द्रयवान् विडम् । सैन्धवं शृङ्गवेरश्च यवक्षारं सचित्रकम् ॥ मधूलिकां व्याघ्रनखं पालिकान् श्लक्ष्णपेषि तान् । पचेत्तैलाढकं पूतमारनारपयोयुतम् ॥ एतदभ्यञ्जनं श्रेष्ठं नस्यकर्मानुवासने । तृतीयो भागः । समस्थिभङ्गं च ये च मन्दाग्नयो नराः ॥ अपस्मारं तथोन्मादं विद्रधिं मन्दगामिताम् । त्वग्गताश्चापि ये वाताः शिरासन्धिगताश्च ये । अश्वं वा वातसम्भग्नं नरं वा जर्जरीकृतम् । सर्वान् प्रशामयत्येतत्तैलमात्रेयपूजितम् ॥ स्थिरीकरणमेतद्धि बलीपलितनाशनम् । इन्द्रियाणां बलकरं वर्णोदार्यकरं तथा ॥ बल्यं प्रजाकरं श्रेष्ठं वृद्धकालेऽपिसेवितम् । पङ्गुर्वाप्यथवा खञ्जः पीत्वा तैलं प्रधावति ।। काथ- प्रसारणी ६ । सेर, बलामूल ३ सेर १० तोले तथा शतावर, असगन्ध, सोया, पुननवा ( साठी बिसखपरा ), गिलोय, दशमूल, चीता, मैनफल और सटी ( कचूर ) ५ - ५ तोले । पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । कल्क—रास्ना, सोया, मुलैठी, पीपल, सोंठ, बच, कूठ, रेणुका, जटामांसी (बालछड़), फूलप्रियङ्गु, इन्द्रजौ, बायबिडंग, सेंधा नमक, सोंठ, जवाखार, चीता, मूर्वा और नख । प्रत्येक वस्तु ५-५ तोले लेकर महीन पीस लें । विधि- - सेर तिलके तैलमें उपरोक्त काथ, कल्क, ८ सेर दूध और ८ सेर आरनाल ( कांजी ) मिलाकर पकावें । जब तैल मात्र शेष रह जाय तो छान लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३७७ ] इसकी मालिश करनी और नस्य तथा अनुवासन बस्ती लेनी चाहिये । यह तैल गृध्रसी, अस्थिभंग, अग्निमांद्य, अपस्मार, उन्माद और विद्रधि का नाश करता है। जो व्यक्ति तेज नहीं चल सकते उनकी चालको तेज़ कर देता है। त्वचा और शिरा तथा सन्धि गत वायुको नष्ट करता है । वायुसे पीड़ित मनुज्योंही के लिये नहीं अपितु घोड़ोंके लिये भी यह तैल हितकारी है । यह तैल स्थैर्य करनेवाला, बलीपलित नाशक, इन्द्रियबल - वर्द्धक और शरीरके रंगको सुधारने वाला है । इसके सेवन से बल और वृद्धों में भी सन्तानोत्पादन की शक्ति प्राप्त होती है । इसे पीनेसे पङ्ग मनुष्यको दौड़ने की शक्ति प्राप्त होती है । ( पीनेके लिये मात्रा -- ६ माशे । ) (४१४३) प्रसारणीतैलम् (७) (ग. नि. । तैला. २ ) प्रसारणीशतं क्षुण्णं पचेत्तोयार्मणे शुभे । पादशेषे पचेत्तैलं दधिमस्त्वम्लकाञ्जिकम् ॥ द्विगुणं इलक्ष्णपिष्टानि द्रव्याणीमानि योजयेत् । द्विपलान्यग्निमधुकरुणामूलं पहुं वचाम् ॥ मूलं तथा प्रसारण्याः क्षारं च यावशुकजम् । त्रिंशद्भल्लात्कास्थीनि नागरात्पळपञ्चकम् ॥ सिद्धं मृद्वग्निना तैलं वातश्लेष्मामयाअयेत् । अशीतिर्नरनारीणां वातरोगान्निषूदति ॥ कुब्जवामनपङ्गुत्वं खञ्जत्वं गृध्रसीं खुडम् । हन्यात्पृष्ठकटिग्रीवास्तम्भं चाशु व्यपोहति ॥ For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि पीठसी विभग्नश्च पीत्वा तैलं सुखी भवेत् । । तैलाढकं चतुः क्षीरं दधितुल्यं द्विकालिकम् । प्रसारणीतैलमिदं बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ द्विपलैर्ग्रन्थिकक्षारमसारण्यक्षसैन्धवैः॥ काथ-प्रसारणी १०० पल ( ६। सेर )। समञ्जिष्ठाग्नियष्टयाहैः पलिकैर्जीवनीयकैः । पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । | शुण्ठयाः पञ्चपलं दत्त्वा त्रिंशद्भल्लातकानि च ॥ __ अन्य द्रव पदार्थ-दही ४ सेर, मस्तु ४ पचेद्वस्त्यादिना वातं हन्ति सन्धिशिरास्थितम् । सेर, कांजी ४ सेर । पुंस्त्वोत्साहस्मृतिप्रज्ञाबलवर्णामिवृद्धये ॥ ___कल्क--चीता, मुलैठी, पीपलामूल, सेंधा- काथ-(१) प्रसारणी १२॥ सेर पाकार्थ नमक, बच, प्रसारणीकी जड़ और जवाखार १०- जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । १० तोले | भिलावों की गिरी ३० पल (१५० (२) असगन्ध १२॥ सेर । पाकार्थ जल तोले ) अथवा ३० नग और सेठ २५ तोले। ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । विधि-२ सेर तिलके तैलमें काथादि (३) दशमूल १२॥ सेर । पाकार्थ जल ३२ उपरोक्त समस्त पदार्थ मिलाकर मन्दाग्नि पर तैल- | सेर । शेष काथ ८ सेर । पाक सिद्ध करें। ___अन्य द्रव पदार्थ-दूध ३२ सेर, दही ८ यह तैल वातकफज रोग, ८० प्रकार के | | सेर और काजी १६ सेर । वातरोग, कुजता, अंगोंका छोटा होना, पङ्गुता, गृध्रसी, खुडवात, पीठ कमर और ग्रीवाका जकड़ कल्क--पीपलामूल, जवाखार, प्रसारणी, जाना और अस्थि-भंग आदि रोगों को नष्ट | बहेड़ा, सेंधानमक, मजीठ, चीता और मुलैठी करता है। १०-१० तोले । जीवक, ऋषभक, मेदा, महा___इसके सेवन से बल वर्ण और अमिकी वृद्धि | मेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, होती है। | जीवन्ती और मुलैठी ५-५ तोले । सेठ २५ प्रसारणीतैलम् तोले और ३० नग भिलावे । ( शा. ध.। खं. २ अ. ९; वृ. नि. र. । वा. व्या.;) विधि-८ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त ___ कुञ्जप्रसारणीतैल सं. ८७३ देखिये। | समस्त पदार्थ मिलाकर पकावें । जब तैल मात्र (४१४४) प्रसारणीतैलम् (८) (मध्यम) । शेष रह जाय तो छान लें। ( . मा. । वा. व्या.) __ इसे बस्ति इत्यादि द्वारा प्रयुक्त करनेसे सन्धि प्रसारण्यास्तुलामश्वगन्धाया दशमूलतः। | और शिरागत वायु नष्ट होता तथा पौरुष उत्साह तुला तुला पृथग्वारिद्रोणे पक्त्वांशशेषिते ॥ । स्मृति बुद्धि बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है। For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३७९] (४१४५) प्रियजवाद्यं तैलम् ___ यह तैल विद्रधि और घावको नष्ट करता है। (वृ. यो. त. । त. ११०; ग. नि. । विद्र. अ. 1080 लामा ३५; र. र. । विद्र.; वृं. मा. । व्रणा.; वै.. से. । विद्र.) (ग. नि. । ज्वरा. १) प्रियङ्गतिकीलोधं कट्फलं तिनिसत्वचा'। यवाईकुडवं पिष्ट्रा मधिष्ठापलं तथा । एतैस्तैलं विपक्तव्यं विदधौ व्रणरोपणम् ।। | अम्लप्रस्थरसोन्मिश्रं तैलपस्थं विपाचयेत् ।। फूलप्रियङ्गु, धायके फूल, लोध, कायफल, । एतत्पादनं तैलं ज्वरदाहविनाशनम् ।। और तिरच्छ (सांदन ) वृक्षकी छाल । समान १० तो. जौ और २॥ तोले मजीठ को भाग मिश्रित ४ सेर लेकर ३२ सेर पानी में पीसकर २ सेर तेलमें मिलावें और उसमें २ सेर पकावें जब आठ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। काजी मिलाकर पकायें । जब तेल मात्र शेष रह तदनन्तर २ सेर तिल के तेलमें यह काथ तथा इन्हीं चीजोंका समान भाग मिश्रित कल्क १३ जाय तो छान लें। तोले ४ माशे मिलाकर पकावें । जब तेल मात्र | इस तैलकी मालिश से ज्वर और दाह नष्ट शेष रह जाय तो छान लें। | होते हैं। इति पकारादितैलप्रकरणम् । अथ पकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् (४१४७) पञ्चमूत्रासवः | व्योषस्यापि पलं सार्द्धमभयैकपला मता। (ग. नि. । आसवा. ६) चुल्यग्रे वासरान् सप्त निक्षिप्याशु समुद्धरेत् ।। अजागोसुरभीणां च चतु:कर्ष खरोष्ट्रयोः। प्लीहोदरहरं दिव्यं मूढवातकफापहम् । मृत्रं संग्राहय कुम्भे च स्थाप्य चूर्ण प्रदापयेत् ।। अशीतिवातशमनं पश्चमूत्रासवं विदुः॥ बचाया वातकुम्भस्य लशुनस्यैलया सह। । बकरी, साधारण गाय, सुरा गाय, गधी और लवङ्गस्यापि प्रत्येकं पलार्द्ध कृमिनाशनः॥ । ऊंटनी का मूत्र ५-५ तोले । बच, अरण्डखरबूजा, १ कटफल मिसिन्धवमिति पाठान्तरम् । तिलसैन्धवमिति च। For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३८०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि - ल्हसन, इलायची और लैांगका चूर्ण २॥२॥। इसमें ६। सेर गुड़ और १ सेर धाय के तोले । बायबिडंग, हरे, बहेड़ा और आमलेका फूलांका चूर्ण मिलाकर चिकने मटकेमें भरकर चूर्ण प्रत्येक ७॥ तोले तथा हर्रका चूर्ण ५ तोले । | उसका मुख बन्द करदें और उसे भूमि में दबा सबको एकत्र मिलाकर चिकने घड़े में भरकर | दें। (१ मास ) पश्चात् निकालकर वारुणीयन्त्र उसका मुख बन्द करके उसे चूल्हे के पास जमीन द्वारा उसका अर्क खींचें । उस अर्कको पुनः में दबा दें और ७ दिन पश्चात् निकाल कर काम खींचें । इसी प्रकार दस बार अर्क खींच कर में लावें। उसमें यथोचित प्रमाणमें दालचीनी, तेजपात, ___ यह आसव प्लीहा (तिल्ली), विकृत्वायु, इलायची, नागकेसर, जायफल, लौंग, कपूर और कफ और ८० प्रकारके वातरोगों का नाश केसरका चूर्ण मिलावें। करता है। यह आसव हर प्रकारके क्षय को नष्ट नोट--यह आसव पिण्डासबके समान | करता है। गाढ़ा बनेगा । मात्रा-६ माशे । २ तोले पानी में । (४१४९) पत्राङ्गासवः डालकर पीना चाहिये। (भै. र. । स्त्रीरोगा.) (४१४८) पञ्चसायक: पत्राङ्ग खदिरं वासा शाल्मलीकुसुमं बला। (वृ. यो. त. । त. १४७) भल्लातकं शारिवे द्वे जवाकुसुममस्फुटम् ॥ द्राक्षातुलामुपादाय जलद्रोणचतुष्टये।। | आम्रास्थिदावी भूनिम्ब आफूकफलजीरकम् । पक्त्वा चतुर्थशेषं तु तं कषायमुपाहरेत् ॥ लौह रसाञ्जनं बिल्वं केशराजस्त्वचं तया ॥ दत्त्वा गुडतुलां तत्र धातकीपस्थमेव च ।। | कुङ्कुमं देवकुसुमं प्रत्येक पलसम्मितम् । निखाय स्थापयेद् भूमौ यावत्पाशो वरो भवेत्॥ भवनात सर्व सुचूर्णितं कृत्वा द्राक्षायाः पलविंशतिम् ॥ ततस्तत्सारमादाय वारुणीयन्त्रतः शनैः।। धातकी षोडशपलां जलद्रोणद्वये क्षिपेत् । पुनस्तं वारुणीयन्त्रे समारोप्य तमाहरेत् ॥ | शर्करायास्तुलां दत्त्वा क्षौद्रस्या तुलां तथा ॥ एवं तु दशधा सारं पौनः पुन्येन संहरेत् । एकीकृत्य क्षिपेद् भाण्डे निदध्यान्मासमात्रकम् । ततस्तस्मिंश्चतुर्जातजातीकोशलवङ्गकम् ।। हन्त्युग्रं प्रदरं सर्व श्वेतारुणं सवेदनम् ॥ .. कर्पूरकुङ्कम चापि यथालाभं नियोजितम् । ज्वरं पाण्डं तथा शोफ मन्दामित्वमरोचकम् ॥ तं यथामिवलं मर्त्यः पिबेत्सर्वक्षयापहम् ।। पतंग, खैरसार, बासा, संभलके फूल, खरैटी, ६। सेर द्राक्षा ( मुनक्का) को १२८ सेर | शुद्ध भिलावा, दो प्रकारकी सारिवा, गुडहलकी पानी में पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रहे तो | कलियां, आमकी गुठली, दारुहल्दी, चिरायता, काथको छान लें। पोस्तके फल, जीरा, अगर, रसौत, बेलगिरी, भंगरा, For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । आसवारिष्टप्रकरणम् ] १ । दालचीनी, केसर और लौंग ५-५ तोले लेकर चूर्ण बनावें । तदनन्तर ६४ सेर पानी में सेर मुनक्का, १ सेर धायके फूलोंका चूर्ण, ६ सेर स्वांड, ३ सेर १० तोले शहद और उपरोक्त चूर्ण अच्छी तरह घोलकर उसे चिकने मटके में भरकर उसका मुख बन्द कर दें । और एक मास पश्चात् आसवको छान लें । | यह आसव पीड़ायुक्त सफेद, लाल इत्यादि हर प्रकारके प्रदरको एवं ज्वर, पाण्डु, शोथ, मन्दान और अरुचिको नष्ट करता है। (४१५०) पार्थाचरिष्टः (भै. र. । हृद्रो. ) पार्यत्वचन्तुलामेकां मृद्वीकार्द्धतुलां तथा । भागं मधूकपुष्पस्य पलविंशति सम्मितम् ॥ चतुर्द्रोणेऽम्भसः पक्त्वा द्रोणमेवावशेषयेत् । धातक्या विंशतिपलं गुडस्य च तुलां क्षिपेत् ॥ मासमात्रं स्थितो भाण्डे भवेत्पार्थाधरिष्टकः । इत्फुप्फुसगदान्सर्वान् हन्त्ययं बलवीर्यकृत् ॥ अर्जुनकी छाल ६ । सेर, मुनक्का ३ सेर १० तोले तथा महुवेके फूल १ सेर लेकर सबको १२८ सेर पानी में पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें २० पल ( १ | सेर ) धायके फूलोंका चूर्ण और ६ | सेर गुड़ मिलाकर उसे मिट्टी के चिकने मटके में भरकर उसका मुख बन्द कर दें, और एक मास पश्चात् निकालकर छान लें 1 यह आसव हृदय और फुप्फुस के समस्त रोगोंको नष्ट करता और बल वीर्यको बढ़ाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३८१] (४१५१) पिण्डासवः ( च. स. । चि. अ. १९; वं. से. | ग्रहण्य. ) प्रास्थिकी पिप्पली मस्यं गुडं प्रस्थं विभीतकम् । उदकप्रस्थसंयुक्तं यवपल्ले निधापयेत् ॥ तस्मात्सुजातात्तु पलं. सलिलाञ्जलिसंयुतम् । पिवेत्पिण्डासवो हयेष रोगानीकविनाशनः ॥ स्वस्थोऽपि यः पिबेन्मासं नरः स्निग्धरसाशनः । तस्याग्निं दीपयत्येष आरोग्याय प्रकीर्तितः ॥ पीपलका चूर्ण १ सेर, गुड़ १ सेर, बहेड़ेका चूर्ण १ सेर । सबको १ सेर पानी में मिलाकर मिट्टीके चिकने पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके उसे जौके ढेरमें दबा दें। और ( १ मास ) पश्चात् निकाल लें । इसमें से ५ तोले आसवको २० तोले पानी में मिलाकर पीना चाहिये । यह समस्त रोगोंको नष्ट करता है । यदि स्वस्थ मनुष्य भी इसे १ मास तक सेवन करे और स्निग्ध आहार करता रहे तो उसकी अग्नि दीप्त होती और उसका स्वास्थ्य स्थिर रहता है । ( व्यवहारिक मात्रा ६ माशे । ) नोट- यह आसव गाढ़ा कीचड़ सा बनता है 1 For Private And Personal Use Only (४१५२) पिप्पलीमूलाद्यारिष्टः ( ग. नि. । राजय . ) समूला पिप्पली शृङ्गी बृहती हयश्मभेदकः । पाटला देवकाष्ठञ्च श्वदंष्ट्रा हयभया तथा ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३८२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि एकैकात्षोडशपलं कोलानामाढकं तथा। करके रख दें और १० दिन पश्चात् निकालकर दन्तीचित्रकमूलानां पञ्चविंशपलं पृथक् ।। छान लें। चतुर्गुणे जलद्रोणे पचेदर्धावशेषितम् । ___फूलप्रियङ्ग, पीपल, लोध, मुनक्का, एलवालक, शीतं समावपेद्भाण्डे प्रलिप्त मधुसर्पिषा ॥ सुपारी, सोया, नीमको छाल, गज पीपल और देवखण्डस्य द्वे शते शुद्ध तद्वल्लोहं समावपेत् । दारु ५-५ तोले सथा खैरसार २० तोले । इन पत्रीकृतं तिलोत्सेधं सूक्ष्मचूर्णान्यमूनि च । सबका महीन चूर्ण । लोहेके तिलके समान बारीक पियॉ पिप्पली रो| मृद्वीकां सैलवालुकम् । टुकड़े १२॥ सेर । शहद ४ सेर । क्रमुकं शतपुष्पां च निम्बं तेजोवतीमपि ॥ ___ यह आसव पुष्य, रोहिणी या उत्तरा नक्षत्र पालिकान् देवदारुं च खदिरस्य चतुः पलम् । | में बनाना चाहिये । क्षौद्रमस्थद्वयं चापि समासिच्य घटे शुभे ॥ सौम्ये पुष्ये तथा हस्ते रोहिण्यामुत्तरासु च ।। यह आसव रसायन, पौष्टिक, मेधा वर्द्धक दशरात्रस्थितः पेयोऽरिष्ट आत्रेयपूजितः ॥ और बलीपलित नाशक है ।। अश्विभ्यां कथितं पूर्व रसायनमिदं शुभम् । इसके सेवन से क्षय, खांसी, ज्वर, तिल्ली, यथामिबलमात्रां तु पिवेदस्य हिताशनः ।। कुष्ठ, गुल्म, अग्निमांद्य, श्वित्र, अश्मरी, उदर्द, धन्य पुष्टिकर मेध्यं बलीपलितनाशनम् । विद्रधि, अन्त्रवृद्धि, पाण्डु, उदररोग, स्तन्यविकार, क्षयकासज्वरप्लीहकुष्ठगुल्माग्निमार्दवे ॥ वीर्यविकार, नाडीव्रण, पिडिका और भूतापस्मार श्वित्रेऽश्मर्या तथोदर्दे विद्रध्यामन्त्रवृद्धिषु । नष्ट होता है। पाण्डुरोगोदरस्तन्यरेतोदोषे च शस्यते ॥ (४१५३) पिप्पल्यरिष्टः नाडीपिडिकयोर्दोषे भूतापस्मारसङ्करे ॥ | (ग. नि. । आसवा. ६; वृ. यो. त. । त. ७६; पीपल, पीपलामूल, काकड़ासिंगी, कटेली, । यो. र. । क्षय.; यो. त. । त. २७) पाषाणभेद ( पखानभेद ), पाढल, देवदारु, गोखरु पिप्पलीरोधमरिचपाठाधान्येलवालुकम् । और हर्र १-१ सेर, बेर ४ सेर तथा दन्तीमूल | चव्यचित्रकजन्तुघ्नक्रमुकोशीरचन्दनम् ।। और चीतामूल २५-२५ पल (हरेक १ सेर मुस्ताप्रियङ्गुलवलीहरिद्रामिशिपेलवम् । ४५ तोले ) लेकर कूटकर सबको १२८ सेर पत्रत्वक्कुष्ठतगरं नागकेसरसंयुतम् ।। पानीमें पकावें । जब ६४ सेर पानी शेष रह एषामर्द्धपलान्भागान् द्राक्षां षष्टिपलां क्षिपेत् । जाय तो छानकर उसमें १२॥ सेर शुद्ध खांड पलानि दश धातक्या गुडस्य च शतत्रयम् ॥ मिलावें और फिर एक मटके के भीतर घी और | तोयद्रोणद्वये सिद्धो भवत्येष मुखावहः। शहदका लेप करके उसमें यह काथ और निम्न ग्रहणीपाण्डुरोगार्शः कासगुल्मोदरापहः॥ लिखित ओषधियां डालकर मटके का मुख बन्द | पिप्पल्यादिररिष्टोऽयं ज्वरारुचिविनाशनः ॥ For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३८३] ___ पीपल, लोध, काली मिर्च, पाठा, आमला, कपड़ेसे छना हुवा पीलुका रस ३२ सेरे, एलवालक, चव, चीता, बायविडंग, सुपारी, खस, | धायके फूल, मुनक्का, खजूर, आमला, पाठा, काला सफेदचन्दन, नागरमोथा, फूलप्रिय, लवलीफल | | अतीस, धमासा, अमलबेत, सोंठ, मिर्च, पीपल, ( हरफारेवड़ी), हल्दी, सौंफ, केवटी मोथा, तेज दालचीनी, इलायची, कंकोल, स्पृक्का (असवरण), | बेर, लांग, बायबिडंग, पीपलामूल और चीता पात, दालचीनी, कूठ, तगर और नागकेसर २॥-२॥ तोले । मुनक्का ६० पल ( ३॥ सेर)। ५-५ तोले । गुड़ ६। सेर । धायके फूल १० पल ( ५० तोले ) और गुड़ कूटने योग्य चीजेको कूट लें। फिर सबको १८॥ सेर लेकर कूटने योग्य चीजेको कूटकर एकत्र मिलाकर स्निग्ध मटके में भरकर उसका सबको ६४ सेर पानी में मिलाकर चिकने मटके मुख बन्द करके निर्वात स्थान में रखदें । और में भरकर यथाविधि आसव तैयार करें। .. १५ दिन पश्चात् निकालकर छान लें। __ यह पिप्पल्यरिष्ट (आसव) संग्रहणी, पाण्डु, इसके सेवनसे अर्श और गुल्म नष्ट होते तथा अर्श, खांसी, गुल्म, उदररोग, ज्वर और अरुचिको | अग्नि दीप्त होती है। नष्ट करता है ।* (४१५५) पील्वासवः (२) पिप्पल्यासवः (भै. र.; शा. ध.) ( ग. नि. । आस. ६) (पिप्पल्यरिष्ट देखिये ) मूखजूरपाठानिलरिपुमधुकं कच्छुरा हारहूरा (४१५४) पील्वासवः (१) कोलत्वग्वेतसाम्लं दहनमिशिकणाकृष्णाविश्वा (ग. नि. । आसवा. ६; वा. भ. । चि. अ. ८) _लवङ्गम् । द्रोणं पीलुरसस्य वस्त्रगलितं न्यस्तं हविर्भाजने। त्वग्लोधादाडिमाञ्च पलमितमिति पृथक् दन्ति मूलेन युक्तं । युञ्जीत द्विपलैमंदामधुफलाखजूरधात्रीफलैः ।। पाठामाद्रिदुरालभाम्लविदुलव्योषत्वगेलोल्लकैः । ". पीलुद्रोणे द्विपक्षं गुडपलशतयुक् धान्यराशौ स्पृक्काकोललवङ्गवेल्लचपलामूलाग्निकैःपालिकैः॥ निदध्यात् ॥ गुडशतविनियोजितं निवाते अशः प्लीहं च गुल्मं जठरगदमथो नाशयेनिहितमिदं प्रपिबेञ्च पक्षमात्रात् । चाग्निमान्यम् । निशमयति गुदाङ्कुरान्सगुल्मा कुर्याच्चाग्नि प्रदीप्तं प्रबलबलयुतं पीलसंज्ञासननलबलं प्रबलं संविधत्ते ॥ वोऽयम् ॥ __ *शाधर तथा भै. र. व. में लवली, मिशी, पेलव मूर्वा, खजूर, पाठा, अरण्डकी जड़, मुलैठी, की जगह लवंग, मांसी और एला लिखा है तथा | धमासा, मुनक्का, बेरीकी छाल, अमलबेत, चीता, नाम पिप्पल्यासव लिखा है। शेषयोग समान है। काली For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३८४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि लोध, अनारदाना और दन्तीमूल ५-५ तोले । भगन्दराशौजठराणि कासं पीलुका रस ३२ सेर और गुड़ ६। सेर लेकर श्वासग्रहण्यामयकुष्ठकण्डूः ॥ कूटने योग्य चीज़ोंकों कूट लें और फिर सबको | शाखानिलं बद्धपुरीषतां च एकत्र मिलाकर चिकने मटकेमें भरकर उसका हिका किलासं च हलीमकं च ॥ मुख बन्द करके अनाजके ढेरमें दबा दें और | __सफेद और लाल पुनर्नवा, दोनों पाठा, १५ दिन पश्चात् निकालकर छान लें। दन्तीमूल, गिलोय और चीतामूल १०-१० तोले इसके सेवनसे अर्श, प्लीहा, गुल्म, उदररोग | तथा कटैली १५ तोले लेकर सब को कूटकर और अग्निमांद्यका नाश होता तथा अग्नि और १२८ सेर पानी में पकावें । जव ३२ सेर पानी बलकी वृद्धि होती है। शेष रह जाय तो छान लें। तदनन्तर उस में १२॥ सेर गुड़ और २ सेर शहद मिलावें । फिर इसे (४१५६) पुनर्नवासवः (१) घृत रखने के मटके में शहद और धी पोतकर उस (मै. र. । शोथा.; ग. नि. । आसवा. ६; यो. | में भर दें और उस का मुख बन्द कर के अनाज र. । शोथ.; च. सं. । चि.अ. १७; वृ. नि. र.। के ढेर में दबा दें एवं एक मास पश्चात् निकाल शोथ.) कर उस में २||-२॥ तोले नागकेसर, दालचीनी, पुनर्नवे द्वे च पले सपाठे इलायची, कालीमिर्च, सुगन्ध बाला, और तेजपात दन्ती गुडूची सहचित्रकेण । का चूर्ण मिला दें। निदिग्धिका च त्रिपलानि पक्त्वा __इसे पुराना हो जाने पर छानकर सेवन करने द्रोणावशेषे सलिले ततस्तु ॥ से द्रोग, पाण्डु, प्रवृद्ध शोथ, प्लीहा, भ्रम, अरुचि, प्रत्वा रसं द्वे च तुले पुराणाद् प्रमेह, गुल्म, भगन्दर, अर्थ, उदररोग, खांसी, ___ गुडान्मधुप्रस्थयुतं सुशीतम् । श्वास, संग्रहणी, कोढ़, खुजली, शाखागत वायु, मासं निदध्याघृतभाजनस्थं मलबन्ध, हिचकी, किलास कुष्ठ और हलीमक नष्ट पल्ले यवाना परतश्च मासात् ।। होता है। चूर्णीकृतैरईपलांशकैस्तं (४१५७) पुनर्नवासवः (२) हेमत्वगेलामरिचाम्बुपत्रैः। (भै. र. । शोथा.) गन्धान्वितं क्षौद्रघृतपदिग्ध त्रिकटु त्रिफलां दावी श्वदंष्ट्रां वहतीद्वयम् । जीर्णे पिवेद म्याधिवल समीक्ष्य ॥ | वासामेरण्डमूलश कटुकी गजपिप्पलीम् ॥ इत्पाण्डुरोग श्वयधु प्रवृद्धं शोथनीं पिचुमर्दश्च गुडूची शुष्कमूलकम् । प्लीहभ्रमारोचकमेहगुल्मान् । | दुरालभां पटोलञ्च पलांशेन विचूर्णयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३८५] धातकी षोडशपलां द्राक्षायाः पलविंशतिम् । उशीरकाश्मरिफलं रास्ना भाजी च नागरम् । तुलामानां सितां दत्त्वा मालिकार्द्धतुलां तथा ।। एषा द्विपलिकान्भागांश्चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्।। जलद्रोणद्वये क्षिप्त्वा मासं भाण्डे निधापयेत् ।। द्रोणशेषे कपाये तु प्रते शीते प्रदापयेत । पुनर्नवासवो हथेप शोथोदरविनाशनः ॥ मुटस्य त्रिशतं तत्र धातक्याः पलविंशतिः ॥ प्लीहानमम्लपित्तं च यकृद्गुल्मज्वरादिकान् । कृच्छ्रसाध्यामयान् सर्वान् नाशयेन्नात्र संशयः।। मरिचं केशरं श्यामामेलात्वक्पत्रकं पलम् । सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, पिप्पलीनां तु कुडवं चूर्णीकृत्य पदापयेत् ।। दारुहल्दी, गोखरु, छोटी कटेली, बड़ी कटेली, घृतभाण्डे स्थितं मासं पिबेन्मात्रां यथाबलम् । बासा, अरण्डमूल, कुटकी, गजपीपल, पुनर्नवा क्षपापस्मारकासासक्शोफगुल्मभगन्दरान् ॥ ( साठी- --बिसखपरा), नीमकी छाल, गिलोय, पुष्करासव इत्येष प्रयोगादेव नाशयेत् ॥ सूखी मूली, धगासा और पटोल ५-५ तोले तथा पोखरमूल ६। सेर, धमासा ३ सेर १० तोले, धाय के फूल १ सेर लेकर सब को कटकर चूर्ण या ५ सेर ४५ तोले, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, बनावें। पीपल) १। सेर, मजीठ, कूठ, काली मिर्च, कैथ, तदनन्तर एक चिकने मटके में १२८ सेर देवदारु, लोध, बायविडंग, चव, पीपलामूल, खस, पानी भरकर उस में उपरोक्त चूर्ण और २० पल खम्भारी के फल, रास्ना, भरंगी और सोंठ १०(१। सेर) मुनक्का, ६, सेर खांड और ६। सेर १० तोले लेकर सब को कूटकर १२८ सेर पानी शहद मिलाकर उस का मुख बन्द कर दें। और में पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो एक मास पश्चात् आसवको निकालकर छान लें। छानकर ठंडा होने पर उस में १८॥ सेर गुड़, यह, आसव, शोथोदर, प्लीहा, अम्लपित्त, | १। सेर धाय के फूलों का चूर्ण तथा काली मिर्च, यकृत् , गुल्म और ज्वर आदि कष्ट साध्य रोगों नागकेसर, निसोत, इलायची, दालचीनी और को नष्ट करता है। तेजपात का चूर्ण ५-५ तोले एवं पीपल का चूर्ण (४१५८) पुष्करमूलासवः २० तोले मिलाकर सब को चिकने मटके में भर(ग. नि. । आसवा. ६) कर उस का मुख बन्द कर दें और एक मास तुला पुष्करमूलस्य तदई तु दुरालभा। पश्चात् आसव को निकालकर छान लें। तदर्द्धन तु धान्याकं व्योषाच पलविंशतिः ।। इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करने से मञ्जिष्ठाकुष्ठमरिचं कपित्थं देवदारु च । क्षय. अपस्मार, खांसी, शोथ, गुल्म और भगन्दर रोधं कृमिघ्नं चविका पिप्पलीमूलमेव च ॥ नष्ट होता है । इति पकाराघासवारिष्टमकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ३८६ ] www.kobatirth.org 1- भैषज्य रत्नाकरः । अथ पकारादिलेपप्रकरणम् भारत (४१५९) पङ्कलेप: ( वै. म. र । पटल ७ ) चिरजलधर भाण्डोद्भूतपङ्कं गृहीत्वा जठरपणनाभौ निक्षिपेन्मूत्रकृच्छ्री । पानी रखनेके पुराने घड़ेके टुकड़ेको पानी के साथ पीसकर उसकी कीचड़सी बना लें । इसे पेट, अण्डकोष और नाभिपर लेप करसे मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता है । (४१६०) पञ्चकोलादिलेपः ॥ ( च. सं. 1 चि. अ. ३० योनिव्या. ) पञ्चकोलकुलत्थैश्च पिष्टैरालेपयेत्स्तनौ । शुष्क प्रक्षाल्य निर्दुश्यात्तथास्तन्यं विशुद्धयति पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ और कुलथी समान भाग लेकर सबको पानीके साथ पीसकर स्तनोंपर लेप कर दें। जब वह सूख जाय तो उसे धो डालें । इस प्रयोग से दूध शुद्ध हो जाता है। (४१६१) पञ्चवल्कलादिलेप: (वं. से.; वृ. नि. र.; वृं. मा. भा. प्र. । विद्रधि.) पश्चवल्कलकल्केन घृतमिश्रेण लेपनम् । सर्पिषा शतधौतेन नवनीतेन वा गवाम् || सिरस, पीपल, पिलखन, बड़ और बेतकी छाल के महीन चूर्णको सौ बार धुले हुवे गायके या गायके मक्खन में मिलाकर लगानेसे पित्तज अण्डवृद्धि रोग नष्ट होता है । (४१६२) पञ्चवल्कलादिलेप: ( यो. र. । वीस. ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शतधौत घृतविमिश्रः कल्कस्त्वक्पञ्चकस्य लेपेन । बहुदाहकरमुचैरग्निविसर्प विनाशयति ।। [ पकारादि पीपल, पिलखन, बेत, बड़ और सिरसकी छाल चूर्णको सौ बार धोये हुवे घी में मिला कर लगाने से अत्यन्त दाह करनेवाला अभिवीसर्प नष्ट होता है । श्रेष्ठः (४१६३) पञ्चशिरीषलेपः ( च. सं. । चि. अ. २५ ) शिरीषफलमूलत्वकुपुष्पपत्रैः समैर्धृतैः । पञ्चशिरीषोऽयं विषाणां प्रवरो बधे ॥ सिरसके फल, जड़, छाल, पुष्प और पत्र समान भाग लेकर पीसकर सबको घृतमें मिलाकर लेप करनेसे विष नष्ट होता है । (४१६४) पञ्चामलको लेपः ( वं. से. । तृषा ; ग. नि. । तृषा. १६ ) कोलदाडिमवृक्षाम्लचुक्रिकाचुक्रिकारसः । पश्चामलको मुखे लेपः सग्रस्तृष्णां नियच्छति ।। For Private And Personal Use Only बेर, अनारदाना, इमली, चुक्र ( शुक्त) और चूकेका रस समान भाग लेकर पहिली तीनों चीज़ोंको महीन पीस लें और फिर सबको एकत्र मिलाकर उसका मुखमें लेप करें । इससे तृष्णा शीघ्र ही शान्त हो जाती है । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपपकरणम्] तृतीयो भागः। [३८७] (४१६५) पटोलादिलेपः । श्लक्ष्णैः साम्बुभिराहितः (ग. नि. । श्वयध्वधि. ३३) प्रकुरुते लेपो मुखे गौरताम् ॥ पटोलो मधुकं निम्बो दार्वी सप्तच्छदो दृषः । लालचन्दन, कमलनाल, पाक, कूठ, बेर सारिवा चेति सघृतं पित्तशोथमलेपनम् ॥ की गुठलीकी गिरी, नागकेसर, दालचीनी, सफेद पटोल, मुलैठी, नीमकी छाल, दारुहल्दी, | चन्दन, केसर, हल्दी, दारुहल्दी, अगर, काली सतौना, बासा और सारिवा । सबके समान भाग निसोत, सावरलोध, गोरोचन, मुलैठी, गुडहलके मिश्रित महीन चूर्णको घीमें मिलाकर लेप करनेसे | फूल और मसूर समान भाग लेकर महीन चूर्ण पित्तज शोथ नष्ट होता है। बनावें । इसे पानीमें मिलाकर लेप करनेसे मुखका (४१६६) पत्रकादिलेपः रंग गोरा हो जाता है। ( यो. र. | कुष्टा.; ग. नि. । कुष्ठा. ३६) । (४१६८) पथ्यादिलेपः (१) पत्रकोषणकासीसतेलताप्यमनःशिलाः। (रा. मा. । शिरोरो. १) सप्ताहमुषिताः कांस्ये सिध्मश्वित्रविनाशनाः ॥ पथ्याक्षधात्रीफललोहचूर्णे___ तेजपात, कालीमिर्च, कसीस, सोनामक्खी | । स्तुरङ्गमारासनमार्कवैश्च । तुल्यैर्गुडेन प्रतिधूपितैश्च भस्म ( या चूर्ण) और मनसिल समान भाग लिप्तानि काण्यं पलितानि यान्ति ।। लेकर सबको महीन पीसकर तेलमें मिलाकर हर, बहेड़ा, आमला, लोहचूर्ण, कनेरकी कांसीके बरतनमें रख दें और सातदिन पश्चात् काममें लावें। जड़की छाल, असन वृक्षकी छाल और भंगरा समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । इसे गुड़की इसका लेप करनेसे सिध्म और श्वित्र (सफेद धूनी देकर सफेद बालोंपर लेप करनेसे वे काले कुष्ठ) नष्ट होता है। हो जाते हैं। (४१६७) पत्राङ्गादिलेपः (४१६९) पथ्यादिलेपः (२) (रा. मा. । मु. रो. ५) (यो. र. । कु ठा.; वृ. नि. र. । त्वग्दोषा. या पत्रागमणालपद्मक भा. प्र.; वं. से. । कुष्ठा.) गदैः कोलास्थिमज्जान्वितैः । पथ्याकरञ्जसिद्धार्थनिशावल्गुजसैन्धवैः । स्वर्णत्वग्मलयोत्यकुकुम विडङ्गसहितैः पिष्टैर्लेपमात्रेण कुष्ठजित् ॥ निशायुग्मैः सकालीयकैः॥ हर, करञ्जबीज, सफेद सरसों, हल्दी, बाबची, श्यामासावररोचनामधु सेंधा नमक और बायबिडंगको महीन पीसकर लेप जपायुक्तैर्मरैरपि । करनेसे कुष्ठ नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३८८ ] (४१७०) पथ्यादिलेप: (३) (बृ. मा. | नेत्र ; ग. नि. वं. से.; यो. र.; -भैषज्य भारत वृ. नि. र. । नेत्र. ) पथ्यागैरिक सिन्धूत्यदार्वीताक्ष्यैः समांशकैः । जलपटैर्वहिर्लेपः सर्व नेत्रामयापहः ॥ समान भाग हर्र, गेरु, सेंधा नमक, दारूहल्दी और रसौत को पानी में पीसकर आंखोंके बाहर लेप करने से आंखों के समस्त रोग नष्ट होते हैं । ( दुखती आंखों में उपयोगी है | ) (४१७१) पथ्यादियोग: ( वै. म. र. | पटल १६ ) प्रस्थे पयसि सम्पर्क गवां पथ्याचतुष्टयम् । आपनं तेन सम्पिष्टं बहिर्लिप्तं गार्तिनुत् ॥ चार नग हर्र गाय के १ सेर दूध में पकावें । इस दूध में काली मिर्च पीसकर आंखों के बाहर ( पेवटों पर) लेप करने से नेत्र पीड़ा ( आंख की खड़क ) नष्ट होती है। (४१७२) पद्मकादिलेप: (१) (ग. नि. । विसर्पा ३९.) पद्मकोशीरमधुकचन्दनैश्च प्रशस्यते । लेपो विसर्पपित्तास्रदाहरागनिवारणः ।। पद्माक, खस, मुलैठी और लाल चन्दन को पीसकर लेप करने से विसर्प, रक्तपित्त, दाह और लालिमा नष्ट होती है । (४१७३) पद्मकादिलेप: (२) (वं. से. 1 स्त्री) पद्मोत्पलबीजानि त्रासानि शतावरी । विदारी चेमूल पिष्ट्वा धौत घृतायुतम् ॥ योन्यां शिरसि गात्रे च प्रदेहोऽसग्दापहः ॥ [ पकारादि पद्माक, कमलगट्टा, खीरे बीज, शतावर, बिदारीकन्द और ईख की जड़ । सब चीजें समान भाग लेकर सब को महीन पीसकर धुले हुवे धीमें मिलाकर योनि, शिर और शरीर में लेप करने से रक्तप्रदर और दाह का नाश होता है । नोट- रक्तप्रदर में योनि में और दाह में शरीर तथा शिरपर लेप करना चाहिये । (४१७४) पद्मिनीपङ्कादिलेपः (वृ. मा. । विसर्पा.) पैते तु पद्मिनोपङ्कपिष्टं वा शङ्खशैवलम् गुन्द्रामूलन्तु शुक्तिव गैरिकं वा घृतान्वितम् ॥ पैत्तिक विसर्प में कमलिनी की जड़ के नीचे की कीचड़ ( अथवा कमलिनी का कल्क ) अथवा शंख और शैवाल या नागरमोथे की जड़ अथवा सीप या गेरु को पीसकर घी में मिलाकर लेप करना चाहिये । (४१७५) पद्मोत्पलादिलेप: (वं. से. । उपदंश. ) पद्मोत्पलमृणालैश्च ससर्जार्जुन वेतसैः । सर्पिः स्निग्धैः समधुकैः पैत्तिकं संप्रलेपयेत् ॥ कमल, नील कमल, कमलनाल, राल, अर्जुन की छाल, बेत और मुलैठी के समान -भाग- मिश्रित महीन चूर्ण को घी में मिलाकर लेप करने से पैत्तिक उपदंश नष्ट होता है । - रत्नाकरः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४१७६) पयस्यादिलेप: (वृ. मा. | नेत्ररोग. ) पयस्यासारिवापत्रमञ्जिष्ठामधुकैरपि । अजाक्षीरान्वितैर्लेपः सुखोष्णः पथ्य उच्यते ।। For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [३८९] क्षीरकाकोली, सारिवा, तेजपात, मजीठ और कर घी और शहद में मिलाकर योनि में लेप करने मुलैठी के समान-भाग-मिश्रित महीन चूर्ण को से स्त्री कभी गर्भवती नहीं होती। बकरी के दूध में मिलाकर जरा गर्म कर के लेप (४१८०) पलाशबीजादिलेपः करने से आंखों की पीड़ा और लाली नष्ट होती है। (वं. से. । विषरोगा.) (४१७७) परूषकादिलेपः अर्कक्षीरेण सम्पिष्टं लेपाद्वीजं पलाशजम् । (वृ. मा.। स्त्रीरो.) वृश्चिकार्ति हरेत् कृष्णा सशिरीषफला तथा ॥ परूपकशिफालेपः स्थिरामूलकृतोऽथवा। ढाक (पलाश) के बीजों को आक के दूध में नामिवस्तिभगायेषु मूढगर्भापकर्षणः ॥ पीसकर या पोपल और सिरस के बीजों को (पानी ___ फालसे या शालपर्णी की जड़ को पीसकर के साथ) पीसकर लेप करने से बिच्छू के दंश की नाभि, बस्ति और भग आदि में लेप करने से मूढ- पीड़ा नष्ट हो जाती है । गर्भ निकल आता है। (४१८१.) पलाशादिलेपः (१) (४१७८) पलाशफलादिलेपः (यो. र.; च. द. । ज्वरा.) (वं. से.; यो. र. । स्त्री.) अम्लपिष्टैः सुशीतैर्वा पलाशतरुजैव्हेित् । पलाशोदुम्बरफलं तिलतैलसमन्वितम् । बदरीपल्लवोत्थेन फेनेनारिष्टकस्य च ॥ मधुना योनिमालिप्य गाढीकरणमुत्तमम् ॥ कालेयचन्दनानन्तायष्टीवदरकाञ्जिकैः । __ ढाक (पलास ) और गूलर के फलों को पीस | सघृतैःस्याच्छिरोलेपस्तृष्णादाहार्तिशान्तये ॥ कर तिल के तैल से चिकना कर के शहद में मिला- पित्तज्वर में तृष्णा, दाह और वेचैनी हो तो कर लेप करने से योनि की शिथिलता नष्ट हो निम्न लिखित प्रयोगों में से किसी एक का शिरजाती है। पर लेप करना चाहिये। (४१७९) पलाशबीजलेपः (१) ढाक के फूलों को कांजी में पीसकर (रा. मा. । स्त्री रो. ३०; यो त. । त. ७५) | लेप करें। ऋतौ घृतक्षौद्रयुतैः पलाश (२) बेरी या नीम के पत्तों को काञ्जी में बीजैः प्रलेपं ममृणमपिष्टैः। पीसकर उन्हें हाथों से मलकर और थोड़ी सी काजी करोति या स्त्री भगरन्ध्रमध्ये में खूब आलोडन कर के झाग उठावें और इन . न सा भवेद् गर्भवती कदाचित् ॥ झागों का लेप करें। __ ऋतुकाल (मासिक धर्म होने के दिनों) में | (३) दारुहल्दी, चन्दन, अनन्त मूल, मुलैठी, पलाश ( ढाक ) के बीजों को खूब महीन पीस | और वेर । समान भाग लेकर सब को कांजी के For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ ३९० ] साथ पीस लें और फिर उसे घी में मिलाकर लेप | ( ४१८५) पारदलेप: करें । (४१८२) पलाशादिलेप: (२) ( यो. र. । गलगण्डा . ) तण्डुलोदकपिष्टेन मूलेन परिलेपितः । हितः कर्णे पलाशस्य गलगण्डः प्रशाम्यति || पलाश की जड़ की छाल को तण्डुलोदकर (चावलों के पानी ) के साथ पीस कर कान के नीचे लेप करने से गलगण्ड नष्ट होता है । (४१८३) पाठादिलेपः ( वृं. मा. । स्त्रीरो.) पाठासुरससिंहास्यमयूरकुटजैः पृथक् । नामिवस्तिभगापात्सुखं नारीमसूयते ॥ पाठा, संभालु, बासा, चिरचिटा और इन्द्र जौ । इन में से किसी एक को पीसकर नाभि, बस्ति और योनि में लेप करने से सुखपूर्वक प्रसव हो जाता है । (४१८४) पामादद्रुकुष्ठहरो लेपः ( रखें. म. ) पामां विचर्चिकां दद्धुं लेपाद् गन्धक पिष्टिका । कटुतैलेन पक्ता सा लेपनादेव नाशयेत् ॥ गन्धक को पीसकर सरसों के तेल में पका कर मल्हम बना लें 1 इसे लगाने से पामा, विचर्चिका और दाद का नाश होता है । १ हस्तिकर्णपलाशस्येति समुचित पाठः २ तण्डुलोदक बनाने की विधि भा. भै. रत्नाकर प्रथम भाग के ३५३ पृष्ठ पर देखिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (यो. र. । कृमि. रा. मा. । शिरो.) पारदं मर्दयेन्निष्कं कृष्णधत्तूरकद्रवैः । नागवल्लीद्रवैर्वाऽथ वस्त्रखण्डं प्रलेपयेत् ॥ तवस्त्रं मस्तके धार्यं यामत्रयं ततः । बद्ध्वा यूकाः पतन्ति निश्चेष्टाः सलिक्षा नात्र संशयः।। ५ माशे पारद को काले धतूरे या नागरबेल के पान के रस में अच्छी तरह घोटें और फिर उसे एक कपड़े के टुकड़े पर लेप कर दें। यह कपड़ा शिर पर बांध लें और ३ पहर पश्चात् खोल डालें । इस प्रयोग से शिर की जुर्वे ( यूका ) और लख (लिक्षा) मरकर गिर पड़ती हैं। (४१८६) पारदादिमलहरम् (१) ( यो. र. । व्रणशोथा; वृ. यो त । त. १११ ) रसगन्धकसिन्दूररालकम्पिलमुर्डकम् । तुत्यं खादिरकं चूर्ण सर्वं घृतचतुर्गुणम् ॥ युक्त्या सम्मेल्य पिचुनावणे देयं विजानता । सर्वत्र प्रशमनं घृतमेतन्न संशयः ॥ पारा, गन्धक, सिन्दूर, राल, कमीला, मुर्दासिंग, नीलाथोथा और कत्था समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की कजली बनावें तत्पश्चात् उस में अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर खूब घोटें और फिर उसे चार गुने घी में मिला लें। इस का फाया लगाने से हर तरह का घाव भर जाता है । For Private And Personal Use Only (४१८७) पारदादिमलहरम् (२) (यो. र. । व्रणशोथ; वृ. यो. त । त. १११) रसगन्धकयोश्चूर्ण तत्समं मुर्डशङ्खकम् । सर्व तुल्यन्तु कम्पिल्लं किश्चिन्तुन्यसमन्वितम् ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपमकरणम् ] तृतीयो भागः। [३९१] - सर्व सम्मेलयेद्दत्वा घृतं सर्वाच्चतुर्गुणम् । इन्हें गायके घृतमें मिलाकर लेप करनेसे पिचुप्लुतं प्रदातव्यं दुष्टवणविशोधनम् ॥ | उपदंशके घाव नष्ट होते हैं। नाडीव्रणहरं चैव सर्वव्रणनिषूदनम् । । (४१८९) पारदादिसर्पिः ये व्रणा न प्रशाम्यन्ति भेषजानां शतेन च ॥ (वै. र. । उपदंश.; वृ. यो. त.। त. ११७) अनेन ते प्रशाम्यन्ति सर्पिषा स्वल्पकालतः ॥ पारदं गन्धकं तालं सिन्दूरं च मनःशिलाम् । ___पारा और गन्धक १-१ भाग लेकर दोनों ताम्रपात्रे तु सघृते ताम्रेणैव विमर्दयेत् ।। की कजली बनावें तत्पश्चात् उसमें २ भाग मुर्दा- | | धर्मे दिनैकं मृदितमेतत्कण्डूपदंशजित् ॥ सिंग, ४ भाग कमीला और ज़रा सा नीलेथोथे का चूर्ण मिलाकर घोटें और इसे सबसे ४ गुने धीमें | पारा, गन्धक, हरताल, सिन्दूर और मनसिल मिला लें। समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली इस का फाया लगाने से दुष्ट व्रण और नासूर बनावें । तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियां मिलाशुद्ध होकर भर जाते हैं । जो व्रण अन्य सैकड़ों कर सबको तांबेके पात्रमें तांबा लगे हुवे सोटेसे औषधों से नहीं भरते वे इस प्रयोगसे स्वल्प १ दिन घी के साथ धूपमें घोटें । काल में ही नष्ट हो जाते हैं। यह लेप खुजली और उपदंशको नष्ट (४१८८) पारदादिलेपः करता है। (यो. र.; वृ. नि. र. । उपदंशा.) | (४१९०) पारिजातादिकल्कः पारदं गन्धकं तालं दरदं च मनःशिलाम् । ( . मा; यो. र. । नेत्ररो.) पृथक्कर्ष द्विकर्ष च मुडदारं सङ्गजीरकम् ।। वल्कलं पारिजातस्य तैलसैन्धवकाभिकम् । विधाय कज्जलीं श्लक्ष्णां मर्दयेत्सुरसारसैः। कफजाताक्षिजशूलग्नं तरुघ्नं कुलिशं यथा ॥ छायाशुष्कां ततः कृत्वा पुनरुन्मत्तजद्रवैः॥ पारिजात ( हारसिंहार ) की छालको पीसविमर्धाऽथ वटी कार्या उपदंशे प्रयोजयेत् । कर उसमें तैल, कांजी और सेंधा नमक मिलाकर गोघृतेन प्रलेपोऽयं व्रणानां रोपणे हितः ॥ लेप करने से कफज नेत्रशूल इस प्रकार नष्ट हो ___ पारा, गन्धक, हरताल, शंगरफ ( हिंगुल ) | जाता है जैसे वज्रपातसे वृक्ष । और मनसिल १-१ भाग तथा मुर्दासिंग और (४१९१) पिण्डीतगरमूलयोगः शंखजीरा २-२ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण (ग. नि.। विषचि.) मिला कर सबको १ दिन तुलसीके रसमें घोटकर पिण्डीतगरकमूलं पुष्येणोत्पाटय योजितं देशे। छाया में सुखा लें । तदनन्तर उसे १ दिन धतूरे | मृतमपि दष्टकपुरुषं चालयतीति नो चित्रम् ।। के रसमें घोटकर गोलियां बना लें। पुष्य नक्षत्र में पिण्डीतगरकी जड़को उखाड़ For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-मैपज्य - रत्नाकरः । [ ३९२ ] लें । इसे पीसकर सर्पके दंश स्थान पर लगानेसे मृतप्रायः रोगी भी सचेत हो जाता है 1 (४१९२) पिण्याकादिलेपः ( वृ. मा. । क्षुद्ररोग; शा. ध. । ख. ३ अ. ११) पुराणमथ पिण्याकं पुरीषं कुक्कुटस्य च । मूत्रपिष्टः मलेषोऽयं शीघ्रं हन्यादरूंषिकाम् || तिलकी पुरानी खल और मुरगेकी विष्टाको गोमूत्र में पीसकर लेप करनेसे अरूंषिका ( शिरकी छोटी छोटी फुंसियां ) शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं । (४१९३) पिप्पल्या दिलेप: (१) ( भा. प्र. 1 अर्श.) पिप्पलीं सैन्धवं कुठं शिरीषस्य फलं तथा । सुधादुग्धार्कदुग्धं वा लेपोऽयं गुदजान् हरेत् ॥ पीपल, सेंधानमक, कूठ और सिरसके बीज समान भाग लेकर सबका महीन चूर्ण बनाकर उसे सेंड ( सेहुंड-थोहर ) या आकके दूध में घोटकर लेप करने से अर्शके मस्से नष्ट हो जाते हैं । | (४१९४) पिप्पल्यादिलेप: (२) ( ग. नि. । वृद्ध्यधि. ३५ ) पिप्पली जीरकं कुष्ठं बदरं शुष्कगोमयम् । काञ्जिकेन प्रलेपोऽयमन्त्रवृद्धि विनाशनः ॥ पीपल, जीरा, कूठ, बेर और सूखा हुवा गायका गोबर समान भाग लेकर सबको काखीके साथ खूब महीन पीस कर लेप करने से अन्य वृद्धि नष्ट होती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (४१९५) पिप्पल्या दिलेप: (३) ( च. सं. । चि. अ. १४ अर्श. ) पिप्पल्यश्चित्रकः श्यामा किण्वं मदनतण्डुलाः । मलेपः कुक्कुट शक्रुद्ध रिद्रागुडसंयुतः ॥ पीपल, चीता, निसोत, किण्व (सुराबीज ), मैनफल के बीज, मुरगेकी विटा, हल्दी और गुड़ समान भाग लेकर खूब महीन पीसकर लेप करनेसे अर्शके मस्से नष्ट हो जाते हैं । (४१९६) पुत्रजीवका दिलेप: ( भा. प्र. म. ख. विस्फोटका . ) पुत्रजीवस्य मज्जानं जले पिष्ट्वा प्रलेपयेत् । कालस्फोटं विपस्फोट सो हन्यात्सवेदनम् ॥ कक्षाग्रन्थि कर्णग्रन्थि गलग्रन्थि च नाशयेत् ॥ पुत्रजीवक ( पितोजिया ) की मींगीको जलमें पीसकर लेप करनेसे वेदनायुक्त कालेफोड़े, विषैले फोड़े, कक्षाग्रन्थि, कर्णमूल और गलेकी गांठ शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । (४१९७) पुनर्नवादिलेप: (१) ( वं. से. । व्रण; वृं. मा. । व्रणशोथा. ) पुनर्नवादारु शिग्रदशमूलमहौषधैः । कफवातकृते शोथे लेपः कोष्णो विधीयते ॥ पुनर्नवा ( बिसखपरासाठी ), देवदारु, सहजनेकी छाल, दशमूल और सोंठको महीन पीसकर मन्दोष्ण लेप करनेसे कफवातज शोथ नष्ट होता है । (४१९८) पुनर्नवादिलेप: (२) ( ग. नि. । वृद्ध्यधि. ३५ ) मूलं पुनर्नवायाश्च शुष्कैरण्डफलं तिलाः । | सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य यवचूर्णेन योजयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपकरणम् ] तृतीयो भागः। [३९३] काञ्जिकेन पिष्टं तु सुखोष्णेनैव कारयेत् । । (४२०१) पूतिकादिलेपः लेपो दृद्धिहरः प्रोक्तः सद्य शूलनिवारणः॥ (वृ. मा. । कुष्ठा.) पुनर्नवा ( साठी ) की जड़, अण्डीके सूखे पूतीकार्कस्नुङ्नरेन्द्रद्रुमाणां फल, तिल और जौका चूर्ण । सब चीजें समान मुत्रैः पिष्टाः पल्लवाः सौमनाश्च । भाग लेकर सबको कांजीके साथ अच्छी तरह लेपाच्छ्त्रिं नन्ति दवणांश्च पीसकर मन्दोष्ण लेप करनेसे वृद्धि और शूल कुष्ठान्यझै दुष्टनाडीव्रणांश्च ॥ शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। करञ्ज, अर्क, (आक), स्नुही (सेंड-सेहुंड), (४१९९) पुनर्नवादिलेपः (३) और अमलतास के पत्ते तथा फूलोंको गोमूत्र में (यो. र. । श्वयथु.) | पीसकर लेप करनेसे सफेद कुष्ठ, दाद, घाव, कुष्ठ, पुनर्नवा दारु शुण्ठीसिद्धार्थे शिग्रुमेव च । अर्श और नाडीव्रण ( नासूर ) नष्ट होता है । पिष्ट्वा चैवाऽऽरनालेन प्रलेपः सर्वशोथजित् ॥ (४२०२) पूर्णचन्द्रलेपः। पुनर्नवा ( बिसखपरा-साठी ), देवदारु, (र. चं. । कुष्ठ.) सेांठ, सफेद सरसों और सहंजनेकी छाल । सब । करजैडगजानिम्बगुडावाकुचिकुष्ठकाः। समान भाग लेकर सबको कांजीमें पीसकर लेप | तालकं मरिचं मुस्तं गोमूत्रकदेमैः सह । करनेसे समस्त प्रकारके शोथ नष्ट होते हैं। | सर्वकुष्ठहरो लेपो गहनानन्दनिर्मितः । (४२००) पूगादिलेपः | दहेद्दावानलं यद्वन्निदाघतणसङ्कुलम् ।। (यो. र. । उपदंशा.) पूर्णचन्द्रकनामाऽयं कुष्ठनाशाय च तथा। पूगं सुदग्धमेकन्तु रसगन्धकहिङ्गलम् । यथा चन्द्रो निशां मन्दां तमसः परिवर्जयेत् ॥ खदिरं तुत्यकं चैव मर्दयेनिम्बुनीरकैः ॥ करञ्जके बीज, पंवाड़के बीज, नीमकी छाल, समभागानि सर्वाणि गुटिकां कारयेद्बुधः। गिलोय, बाबची, कूठ, हरताल, कालीमिर्च, नागरउपदंशे घृतैलेपस्त्रिदिनाद् व्रणरोपणः ॥ मोथा और गोमूत्रकी कीचड़ ( जिस स्थान पर ___ जली हुई सुपारी, पारा, गन्धक, शंगरफ़ | गाय पेशाब किया करती हो उस स्थानकी ( हिंगुल ), खैरसार और नीलाथोथा समान भाग | कीचड़) समान भाग लेकर सबको महीन पीसलेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना. फिर | कर लेप बनावें । उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको जिस प्रकार दावानल सूखे तृणसमूहको नीबूके रसमें घोटकर गोलियां बनालें । और चन्द्रमा रात्रिके अंधकारको नष्ट करता है ___ इन्हें धीमें मिलाकर लेप करनेसे ३ दिनमें | इसी प्रकार यह लेप समस्त कुष्ठांको नष्ट कर उपदंशके पाव भर जाते हैं । | देता है। For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३९४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि (४२०३) प्रपुन्नाटादिलेपः (१) सुप्ति ( स्पर्श ज्ञानका नाश ) और विवर्णता का (र. का. घे. । अ. ४०) | नाश होता है। मपुभाटवरागुञ्जा शुष्कानं कल्कितम् स्थितम् । (४२०६) प्रपौण्डरीकादिलेपः (१) रवितोऽष्टदिनं गर्ने तल्लेपो दद्रुजित्परः॥ (ग. नि. । विसर्पा. ३९) पंवाड़के बीज, हर्र, बहेड़ा, आमला, चौटली | भप | प्रपौण्डरीकोत्पलगैरिकञ्च और सूखा हुवा आम (अमचूर) समान भाग लेकर मञ्जिष्ठयष्टीमधुकं विदारी। सबको पानीके साथ महीन पीसकर ताम्रके पात्रमें द्वे चन्दने पद्मकपद्मपत्रं भरकर भूमिमें दबा दें; और आठ दिन पश्चात् सौगन्धिकं स्यात्कुमुदं च तुल्यम् ॥ निकाल कर काममें लावें। लेपः प्रशस्तः पयसा मुपिष्टः इसका लेप करनेसे दाद नष्ट हो जाता है। कुमारकाणां सविसर्पकाणाम् ।। पुण्डरिया, नीलोत्पल, गेरु, मजीठ, मुलैठी, (४२०४) प्रपुन्नाटादिलेपः (२) | विदारीकन्द, लाल चन्दन, सफेद चन्दन, पनाक, (वं. से. । कुष्ठ.; वृ. नि. र. । त्वग्दोष.) कमल, तेजपात, लाल कमल और कुमुद । सब मपुन्नाटस्य बीजानि धात्रीसर्जरसस्नुही। । चीजें समान भाग लेकर सबको दूधके साथ पीससौवीरपिष्टं दद्रुणामेतदुद्वर्तनं परम् ॥ कर लेप करनेसे बच्चोंका विसर्प नष्ट होता है। पवांडके बीज, आमला, राल और सेंड (४२०७) प्रपौण्डरीकादिलेपः (२) (सेहंड) का दूध समान भाग लेकर सबको . (यो. र.; ग. नि. । विसपो. ३९) कांजीके साथ पीसकर मलनेसे दाद नष्ट हो | । प्रपौण्डरीकयष्टयाहदावर्वीरोधाब्दचन्दनैः । जाता है। सितोपलैरकासत्तुमसूरीशीरपद्मकैः॥ लेपो रुग्दाहवीसस्फोटशोफनिवारणः॥ (४२०५) प्रपुन्नाटादिलेपः (३) । पुण्डरिया, मुलैठी, दारुहल्दी, लोध, नागर(वं से. । कुष्टा.) मोथा, लालचन्दन, मिश्री, एरका (मोथी तृण ), प्रपुन्नाटार्कदुग्धाग्निदन्तीजन्तुघ्नसैन्धवैः। जौका सत्त, मसूर, खस और पद्माक को पीसकर गृहधमनिशायुग्मसिंहीफलयुतैः समैः॥ लेप करनेसे पीडा और दाह यक्त विसर्प. स्फोटक लेपः समस्तकुष्ठघ्नः सुप्तिवैवर्ण्यनाशनः॥ और शोथ नष्ट होता है। पंवाड़के बीज, आकका दूध, चीता, दन्ती- (४२०८) प्रपौण्डरीकादिलेपः (३) मूल, बायबिडंग, सेंधानमक, घरका धुवां, हल्दी, (वं. से.; वृ. नि. र. । उपदंशा.) दारुहल्दी और कटेलीके फल समान भाग लेकर | प्रपौण्डरीकयष्टयाइसरलागुरुदारुभिः । सबको महीन पीसकर लेप करनेसे समस्त कुष्ट, | सरास्नाकुष्ठपृथ्वीकैर्वातिके लेपसेचने ॥ For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लेपप्रकरणम् ] पुण्डरिया, मुलैठी, सरल ( धूपसरल ), अगर देवदारु, रास्ना, कूठ और इलायची । इनका लेप करने और इनके काथसे घाव धोनेसे वातज उपदंश नष्ट होता है । तृतीयो भागः । (४२०९) प्रपौण्डरीकादिलेप: (४) (ग. नि. । विसर्पा. ३९.; च. द. 1 विसर्पा.) प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठापद्मकोशीरचन्दनैः । सयष्टीन्दीवरैः पिष्टैः क्षीरयुक्तैः प्रलेपनम् ॥ पुण्डरिया, मजीठ, पद्माक, खस, लाल चन्दन, मुलैठी और कमलको दूधके साथ पीसकर लेप करने से पित्तज विसर्प नष्ट होता है । (४२१०) प्रपौण्डरीकादिलेप: (५) (ग. नि. । विसर्पा ३९ ) पौण्डरीकं मधुकं पयस्था मञ्जिष्ठा पद्मकचन्दने च । सुगन्धिका चेति सुखोपलेपः ह्रीवेरकैश्चन्दनभागयुक्तैः । पिटैः प्रलेपो विहितो मुखस्य शशाङ्कादधिकां विधत्ते ॥ पैते विसर्पे भिषजा प्रयोज्यः ॥ पुण्डरिया, मुलैठी, क्षीरकाकोली, मजीठ, पद्माक, लाल चन्दन और श्वेतापराजिता ( सफेद कोयल) को पानी के साथ पीसकर लेप करनेसे पित्तज विसर्प नष्ट होता है । (४२११) प्रियवादिलेप: ( रा. मा. । मुखरो. ५) प्रियङ्गुकाश्मीरजकोलमज्जा [३९५ ] फूलप्रियङ्गु, केसर, बेरकी गुठली की गिरी, सुगन्धवाला और लाल चन्दन को पानी में पीस कर लेप करनेसे मुख चन्द्रमासे भी अधिक दीप्तिमान हो जाता है । (४२१२) प्रियालादिलेपः (वृ. मा । क्षुद्ररोग. शा. ध. । ख. ३ अ. ११) प्रियालबीजमधुककुष्ठमित्रैः ससैन्धवैः । nara arora मूर्ध्नि पो मधुसंयुतः ॥ चिरौंजी, मुलैठी, कूठ और सेंधा नमक को पीसकर शहद में मिलाकर लेप करने से दारुण ( शिरो रोग विशेष ) नष्ट होता है । (४२१३) लक्षाद्यो लेपः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ग. नि. । बालग्रहा. १२ ) लक्षाश्वत्थोदुम्बरमधूकवटगर्दभाण्डतरुणानाम् । आदाय मुष्टिमात्रं विपाच्य सलिलार्द्धशेषेण ॥ तेन जलेन शिशूनां स्नानं कुर्वीत पूतशीतेन । त्वग्रक्तकोटमण्डलविस्फोटकशमनमायुष्यम् ॥ सर्वग्रहापनोदनमुपचकरमाशु सर्वसन्धीनाम् । एषामेव च कल्कैः सरक्तकोठापही लेपः ॥ पिलखन, पीपल, गूलर, महुवा, बड़ और पारसपीपल की समान भाग मिश्रित छालें ५ तोले लेकर कूट कर पानी में पकायें और आधा पानी जल जाने पर उसे छानकर ठंडा करें। इस पानी से बालक को स्नान करानेसे उसके त्वग्दोष, रक्तविकार, चकते, विस्फोटक आदि और समस्त ग्रहदोष शान्त होते तथा शीघ्र ही उस की सन्धियां मज़बूत हो जाती हैं । उपरोक्त ओषधियों को पानीमें पीसकर लेप करनेसे त्वचा के लाल चकते नष्ट होते हैं । १ माषैरिति पाठान्तरम् । इति पकारादिलेपप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३९६] भारत-भैषज्य-रेत्नाकरः । [पकारादि अथ पकारादिधूपप्रकरणम् (४२१४) पलङ्कषादिधूपः काकजङ्घामहाश्वेताकपित्थक्षीरिपादपैः। ( वृ. नि. र. । विषम ज्वर.; वं. से.; यो. र. । सकरञ्जकदम्बैश्च धूपं स्नातस्य चाचरेत् ॥ ज्वरा; वा. भ. । चि. अ. १) देवदार, अरलुकी छाल, जामनवृक्षकी छाल, बरने की छाल, सुगन्धतृण, ब्राह्मी, चिरचिटा, पलङ्कमा निम्बपत्रं वचा कुष्ठं हरीतकी। पाढल की छाल, मुलैठी, सहजने की छाल, काकसर्पपाः सयवा सर्पिधूपनं ज्वरनाशनम् ॥ जंघा, श्वेत अपराजिता ( कोयल), कैथ की छाल, गूगल, नीमके पत्त, बच, कूठ, हरे, सरसो क्षीरी वृक्ष (पीपल, बड़, गूलर आदि) की छाल, और जौ के समान-भाग-मिश्रित चूर्ण को घीमें | करञ्ज की छाल और कदम्ब की छाल । सब चीजें मिलाकर उसकी धूप देनेसे ज्वर नष्ट हो जाता है। | समान-भाग लेकर चूर्ण बनावें।। (४२१५) पलङ्कषादिधूपः बालक को स्नान कराने के पश्चात् इस की (वृ. यो. त. । त. १४४; वं. से.; वृ. नि. र.। धूप देनेसे समस्त ग्रहदोष नष्ट होते हैं। बालरोग.) (४२१७) पुरीषादिधूपः । पलङ्कषा वचा कुष्ठं गजचर्माविचर्म च ।। (बृ. नि. र. । बालरो.) निम्बस्य पत्रं माक्षीकं सर्पिर्युक्तं च धूपनम् ॥ पुरीषं कौक्कुट केशाश्चर्मसर्पभवं तथा । ज्वरवेगं निहन्त्याशु बालकानां विशेषतः ॥ | जीर्णेन सर्पिषा चैतद्धपनायोपकल्पयेत् ॥ ____ गूगल, बच, कूठ, हाथी का चर्म, भेड़ का | मुरगे की विष्ठा, बाल, सांप की कांचली और चर्म और नीमके पत्ते । सब के समान भाग चूर्ण पुराने घी को एकत्र मिलाकर उस से बालकको धूप को शहद और घीमें मिलाकर उसकी धूप देने से | देनी चाहिये । ज्वरका वेग कम हो जाता है । (यह योग पूतनाग्रहनाशक है।) यह योग बालकों के लिये विशेष उपयोगी है। (४२१८) पूतीकरञ्जादिधूप: पारदादिधृपः (वा. भ. ।उ. स्था. अ. ३) (भै. र. । उपदंशे) पूतीदशाङ्घीसिद्धार्थवचाभल्लातदीप्यकैः । रसप्रकरण में देखिये। सकुष्ठैः सघृतधूपः सर्वग्रहविमोक्षणः ॥ (४२१६) पारिभद्रादिधृपः करञ्ज, दशमूल, सफेद सरसों, बच, भिलावा, (ग. नि. । बालग्रहा. १२) अजवायन और कूठ के समभाग-मिश्रित चूर्ण को पारिभद्रककाजम्बूवरुणकतृणैः । घी में मिलाकर उस की धूप देने से बालकों के कपोतवङ्कापामार्गपाटलामधुशिग्रुभिः॥ समस्त ग्रहदोष नष्ट होते हैं । इति पकारादिधूपप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूम्रप्रकरणम् ] [३९७] तृतीयो भागः। अथ पकारादिधूम्रप्रकरणम् (४२१९) प्रपौण्डरीकादिघूमः मिर्च, पीपल, मुनक्का, इलायची और तुलसी की (च. स. । चि. अ. १८ कास.) | मञ्जरी समान भाग लेकर सब को पीसकर यथाविधि पपौण्डरीकं मधुकं शाङेष्टां समनःशिलाम् । बत्ती बनावें और उस पर रेशमी कपड़ा लपेट दें। मरिचं पिप्पली द्राक्षामेलां सुरसमञ्जरीम् ॥ इसे घृतसे स्निग्ध कर के इसका धूम्रपान कृत्वा वति पिबेद्धमं क्षौमचेलानुवर्तिताम् । | करने से खांसी नष्ट होती है। घृताक्तामनु च क्षीरं गुडोदकमथापि वा॥ धूम्रपान करने के पश्चात् दूध या गुड़ का __ पुण्डरिया, मुलैठी, मकोय, मनसिल, काली ' शर्बत पीना चाहिये । इति पकारादिधूम्रपकरणम् । अथ पकाराद्यअनप्रकरणम्। (४२२०) पधशतावतिः । चावल १०० दाने लेकर सब को अत्यन्त महीन पीसकर पानी की सहायता से पत्तियां बनावें । (ग. नि. । नेत्र. ३) ___यह पञ्चशतावति यवनांने शिलास्तम्भ पर नीलोत्पलपत्रशतं मुद्गशतं यवशतं च निस्तु- | लिखाई थी। षकम् । ___ इसे आंखों में डालने से तिमिररोग नष्ट मालत्याः कुसुमशतं पिप्पल्यास्तन्दुलशतं च ॥ होता है । पञ्चशतेषा वर्तिलिखिता यवनैः शिलास्तम्भे । | (४२२१) पटलहराञ्जनम् (र. र. स. । अ. २३) अन्धमनन्धं कुरुते यस्य च नोत्पाटिते नयने । कारवेल्लद्रवैः सार्धं सम्यग्मा कपर्दिका । नीलोत्पल की पंखड़ियां १०० नग, छिलके सूतकं टङ्कणं लाक्षा तुल्यं जम्बीरजद्रवैः ॥ रहित मूंग १०० दाने, छिलके रहित जो १०० पीपल को दूध में भिगोकर यो मेरो नग, चमेली के फूल १०० नग और पीपल के | उन के चावल निकल आते हैं। For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३९८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि मर्दयेत्ताम्रपात्रे तु तस्मिन् रुध्वा विनिक्षिपेत् ।। हर्र की गुठली की मींग ३ भाग, बहेड़े की धान्यराशौ स्थित मासमञ्जनम् पटलं हरेत् ॥ गुठली की मांग २ भाग और आमले की गुठलीकी ___कौड़ी के चूर्ण को करेले के रस में अच्छी मींग १ भाग लेकर सब को पानी के साथ महीन पीसकर बत्तियां बनावें। तरह भूनें । तत्पश्चात् पारा, सुहागा और लाख इसे आंखों में आंजने से अत्यन्त प्रवृद्ध अश्रुतथा वह कौड़ी का चूर्ण समान-भाग लेकर सब स्राव और कष्टसाध्य नेत्र प्रकोप (आंख दुखना) को जम्बीरी नीबू के रस में तांबे के पात्र में घोटकर नष्ट होता है। तांबे के पात्र में भरकर उस के मुख को अच्छी तरह (४२२४) पलाशरसयोगः बन्द कर दें और उसे अनाज के ढेरमें दबा दें। (वै. म. र. । पट. १६) फिर १ मास पश्चात् औषध को निकालकर महीन | दिनावसाने रुधिरं पलाशा AAT. पीस लें। दादाय नेत्रे सहसैव दद्यात् । इसे आंख में आंजने से पटलरोग नष्ट नक्तान्ध्यमाश्वेव विजित्य होता है। जीवेच्चन्द्रातपे चाक्षरवाचकः स्यात् ।। (४२२२) पत्राद्यञ्जनम् सन्ध्या समय पलाश (ढाक) का रस आंख _(वृ. मा. । नेत्ररो.) में डालने से नक्तान्ध्य (रतौंधा) शीघ्र ही नष्ट हो पत्रगैरिककर्पूरयष्टीनीलोत्पलाञ्जनम् । | जाता है। इस प्रयोग से चन्द्रमा की चांदनी में पुस्तक नागकेशरसंयुक्तमशेषतिमिरापहम् ॥ पढ़नेकी शक्ति प्राप्त होती है। तेजपात, गेरु, कपूर, मुलैठी, नीलोत्पल, | (४२२५) पारदाद्यञ्जनम् सुरमा और नागकेसर के समान-भाग मिश्रित चूर्ण (ग. नि. । नेत्ररो. ३) को घोटकर अञ्जन बनावें। | मृतकं गन्धकोपेतं चाङ्गेरीरसमूच्छितम् । इसे आंख में आंजने से तिमिर रोग नष्ट | अञ्जनं दृष्टिदै नृणां सर्वनेत्रामये हितम् ।। होता है । पारे गन्धककी कजली को चांगेरी ( चूके) | के रस में घोटकर अञ्जन बनावें । (४२२३) पथ्याद्यञ्जनम् इसे आंख में आंजने से समस्त नेत्र रोग नष्ट (यो. र.; वृ. नि. र; वं. से. । नेत्ररो.) होते और दृष्टि बढ़ती है। पथ्याक्षधात्रीफलमध्यबीजै | (४२२६) पारिजातादियोगः विद्वयेकभागैर्विदधीतवर्तिम् । (ग. नि.। नेत्ररो. ३) तयाञ्जयेदश्रुमतिप्रवृद्ध वल्कलं पारिजातस्य तैलं काञ्जिकसैन्धवम् । मक्ष्णोहरेत्कष्टमपि प्रकोपम् ॥ कफजातातिशूलनं गिरिघ्नं कुलिशं यथा ॥ For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनमकरणम् ] तृतीयो भागः। [३९९] - पारिभद्र (फरहद) की जड़ की छाल और | कर पुनः पकावें और जब वह गाढ़ा हो जाय सेंधा नमक का चूर्ण तथा तिल का तेल और तो उसमें १० पल (५० तोले ) पुष्पाञ्जन और कांजी समान-भाग लेकर सब को एकत्र घोट लें। श तोला काली मिर्चका महीन चूर्ण मिलाकर इसे आंख में आंजने से आंख की कफज उसकी गोलियां बना लें अथवा चूर्ण ही रहने दें। पीड़ा नष्ट होती है। इसे आंखमें आंजनेसे समस्त नेत्राभिष्यन्द, (४२२७) पालङ्कयादिगुटिका | लालिमा और पीड़ा आदि नष्ट होकर नेत्र शीघ्र (वै. म. र. । पटल १६) ही स्वच्छ हो जाते हैं । यह योग वैद्यांका एक मूलं पालङ्कथायाः कृष्णाशौ च तुरगगन्धायाः | रहस्य है। मूलं पृथक् पृथक् स्याभिष्क तुत्यं चतुर्निष्कम्।। (४२२९) पिण्डानम् जम्बीरसारपिष्टा गुटिकेयं नेत्ररोगतिमिरहरी ॥ (वा. भ. । उत्त. अ. १४ ) पालग ( शाक विशेष ) की जड़, पीपल, शंख और असगन्धकी जड़ १-१ भाग तथा | जातीशिरीषधवमेषविषाणपुष्पनीला थोथा ४ भाग लेकर सबको महीन पीसकर | | वैडूर्यमौक्तिकफलं पयसा सुपिष्टम् । जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर गोलियां बनावें । | आजेन ताम्रममुना प्रतनु मदिग्ध, | सप्ताहतः पुनरिदं पयसैव पिष्टम् ॥ इन्हें (पानीमें ) घिसकर आंखमें लगानेसे | पिण्डाञ्जनं हितमनातपशुष्कमक्षिण, तिमिर रोग नष्ट होता है। विद्धे प्रसादजननं बलकृच्च दृष्टेः ।। (४२२८) पाशुपतयोगः चमेलीके फूल, शिरीषपुष्प, धवके फूल, (वा. भ. । उत्त. अ. १६) मेदासिंगीके फूल, वैडूर्य मणि और मोती समान प्रपौण्डरीकं यष्टयाह दावीं चाष्टपलं पचेत् । भाग लेकर सबको बकरीके दूधमें पीसकर तांबेके जलद्रोणे रसे पूते पुनः पके घने क्षिपेत् ॥ बारीक पत्रों पर लेप कर दें। तदनन्तर एक सप्ताह पुष्पाअनादशपलं कर्षश्च मरिचात्ततः। पश्चात् उन पत्रोंसे औषधको छुड़ाकर पुनः बककृतश्चूर्णोऽथवा वर्तिः सर्वाभिष्यन्दसम्भवान् ॥ हन्ति रागरुजाघर्षान्सद्यो दृष्टिं प्रसादयेत् ।। " रीके दूधमें घोटें और छाया में सुखाकर अञ्जन अयं पाशुपतो योगो रहस्यं भिषजां परम् ॥ बना लें । ___ पुण्डरिया, मुलैठी और दारुहल्दी ४०-४० । नेत्रों में बेधन कर्म करनेके पश्चात् ( यथोतोले लेकर कूटकर सबको ३२ सेर पानीमें पकावें। चित कालमें ) इसे आंजनेसे दृष्टि स्वच्छ और जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे छान- | बलवती हो जाती है। For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (४२३१) पिप्पल्यादिगुटिका [ ४०० ] (४२३०) पिण्डीतगराञ्जनम् ( वं. से.; भा. प्र. । विष. ) पिण्डीतगरकं नेत्रे पुष्येणोत्पाटय योजितम् । चालयत्यत्र नो चित्रं पुरुषं दष्टमृतं खलु ॥ पुष्य नक्षत्र में पिण्डी तगरको उखाड़ यदि कोई रोगी सर्प दंशसे मृतक समान भी हो गया हो तो उसकी आंखों में इसका अंजन लगासे वह सचेत हो जाता है । भारत - भैषज्य रत्नाकरः । लें I ( यो. र.; वं. से.; यो. त; वृ. नि. र.; वृ. मा. 1 ने. रो. ) पिप्पली त्रिफला लाक्षा लोकं च' ससैन्धवम् भृङ्गराजरसे पिष्टं गुटिकाञ्जनमिष्यते || अर्मं सतिमिरं काचं कण्डूं शुक्रमथार्जुनम् । अजकां नेत्ररोगांश्च हन्यान्निरवशेषतः || पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, लाख, लोध और सेंधा नमकका समान भाग चूर्ण लेकर सबको भंगरेके रस में घोटकर गोलियां बनावें । इसे आंख में आंजनेसे अर्म, तिमिर, काच, कण्डू, शुक, अर्जुन और अजकाजात इत्यादि नेत्ररोग नष्ट होते हैं । (४२३२) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (१) ( वं. से. । नेत्ररो. ) सङ्घप्य पिप्पलीचूर्ण सफेनं कांस्यभाजने । सक्षौद्रं सैन्धवोपेतमञ्जनं शुक्रनाशनम् ॥ पीपल, समुद्रफेन और सेंधा नमकका महीन १ लोहचूर्णमिति पाठान्तरम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि चूर्ण तथा शहद १-१ भाग लेकर सब को एकत्र मिलाकर कांसीके पात्र में ( कांसीकी कटोरी से ) रगड़ें | इसे आंखमें आंजनेसे फूला नष्ट होता है । (४२३३) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (२) (च. द. | नेत्ररो. ) पिप्पलीं सतगरोत्पलपत्रां वर्तमधुकां सहरिद्राम् । एतया सततमञ्जयितव्यं यः सुपर्णसममिच्छति चक्षुः ॥ पीपल, तगर, कमलपत्र, मुलैठी और हल्दीका समानभाग मिश्रित महीन चूर्ण लेकर सबको । पानी के साथ घोटकर बत्तियां बनालें । इन्हें नित्य प्रति आंख में आंजने से दृष्टि गरुड़ के समान तीक्ष्ण हो जाती है । (४२३४) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (३) (ग. नि. | नेत्र. ) वैदेही श्वेतमरिचनागरं सैन्धवं समम् । मातुलुङ्गरसैः पिष्टमञ्जनं पिष्टकापहम् || पीपल, सहेजने के बीज, सांठ और सेंधानमका अत्यन्त महीन चूर्ण समान भाग लेकर सवको बिजौरेके रस में घोटकर अञ्जन बनावें । इसे आंख में आंजनेसे पिष्टक नामक नेत्ररोग नष्ट होता है । (४२३५) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (४) (ग. नि. । ज्वरा. ) पिप्पलीलशुनराजिकावचाः पथ्यया सह जलेन चूर्णिताः । For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अञ्जनमकरणम् ] अञ्जनं च गुटिकादिकं स्फुटं . सर्व भूतज नितज्वरापहम् ॥ www.kobatirth.org तृतीयो भागः । पीपल, ल्हसन, राई, बच और हर्रका समानभाग - मिश्रित अत्यन्त महीन चूर्ण लेकर उसे पानी के साथ घोटकर गुटिका बना लें । (४२३६) पिप्पल्याद्यञ्जनम् (५) (ग. नि. । ने रो.) आंखमें इसका अञ्जन लगाने से भूत-जनित वर नष्ट होता है । air कर बीजानि त्रिफला च रसाञ्जनम् । रो स्वर्णफलं शुण्ठी काअिकेनाति पेषयेत् ॥ छायाशुकस्य तस्याथ गुटिका वारिचूर्णिता । निशान्ध्यं हन्ति तिमिरं कण्डूं चाम्लकसंयुता ॥ पीपल, करञ्जबीज, हर्र, बहेड़ा, आमला, रसौत, लोध, निर्मलीके फल और सांठ । सबके समान भाग मिश्रित अत्यन्त महीन चूर्णको काञ्जीके साथ अच्छी तरह घोटकर गुटिका बना - कर छायामें सुखा लें । इसे लकुचके स्वरसमें या पानी में घिसकर आंखमें लगानेसे रतौंधा, तिमिर और नेत्रोंकी खुजली आदि रोग नष्ट होते हैं । (४२३७) पुण्डरीकयोग: (ग. नि. । नेत्ररो. ) एकं वा पुण्डरीकं च छागक्षीराव से चितम् । रोगांश्च वेदनां हन्यात्क्षतपाकात्ययाजकान् ॥ केवल पुण्डरीक ( श्वेतकमल ) को बकरीके दूधमें भिगोकर पीसकर आंखमें लगानेसे नेत्रपीड़ा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४०१] नेत्रक्षत, पाकात्यय और अजकाजातादि नेत्ररोग नष्ट होते हैं । (४२३८) पुनर्नवायोगः ( ग. नि. । नेत्र.; शा. ध. । ख. ३ अ. १३; यो र.; वृ. नि. र. । नेत्र. ) दुग्धेन कण्डूं क्षौद्रेण नेत्रस्रावं च सर्पिषा । पुरुष तैलेन तिमिरं काञ्जिकेन निशान्धताम् ॥ पुनर्नवा जयेदाशु भास्करस्तिमिरं यथा ।। पुनर्नवा ( साठी ) को दूधमें घिसकर आंखांमें लगाने से नेत्रोंकी खुजली, शहद में घिसकर लगाने से नेत्रस्राव, घीके साथ लगानेसे तैलके फूला, साथ लगाने से तिमिर और कांजी के साथ पीसकर लगानेसे रतौधा नष्ट होता है । (४२३९) पुष्पकासीसाद्यञ्जनम् ( ग. नि. । नेत्ररो. ३; वं. से. । नेत्ररो; वा. भ. । 1 उत्त. अ.१६ ) पुष्पकासीसचूर्ण वा सुरसारसभावितम् । ताम्रे दशाहं तत्पैल्लपक्ष्मरोगजिदञ्जनात् ॥ पुष्पकसीस को तुलसीके रसकी भावना देकर दश दिन तक ताम्र पात्रमें पड़ा रहने दें और फिर पीसकर अञ्जान बना लें 1 इसे आंख में लगानेसे पिल्ल इत्यादि पश्मरोग नष्ट होते हैं । (४२४०) पुष्पहरीवर्तिः ( भा. प्र. म. ख. ने. रो. ) पलाशपुष्पस्वरसैर्बहुशः परिभावितम् । करअत्रीजं तद्वर्तिर्दृष्टेः पुष्पं विनाशयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४०२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि करञ्जबीजेको पलाश (ढाक) के फूलोंके । सचन्दनेयं गुटिका प्रकाशिका स्वरसकी बहुतसी भावनाएं देकर बत्तियां बनावें । प्रशस्यते रात्रिदिनेष्वपश्यताम् ।। इन्हें आंखों में लगानेसे नेत्रफूला नष्ट ___स्रोतोऽञ्जन, सेंधानमक, सांठ, मिर्च, पीपल, | सुरमा, मनसिल, हरताल, हल्दी, दारुहल्दी, गायका (१२४१) पुष्पाक्षादिरसक्रिया गोबर ( शुष्क ) और लालचन्दन का समानभाग (यो. र. । नेत्ररो.) मिश्रित महीन चूर्ण लेकर उसे पानीके साथ घोटपुष्पाक्षतार्क्ष्यजसितोदधिफेनशंख- कर गुटिका बनावें। सिन्धृत्यगैरिकशिलामरिचैःसमांशैः। यह गुटिका रतौंधा (नक्तान्ध्य) और दिवापिष्टैस्तुमाक्षिकरसेनरसक्रियेयं न्ध्यताको नष्ट करती है। हन्त्यमकाचतिमरार्जुनवर्त्मरोगान् ।। (४२४४) प्रचेतानामगुटिका जस्तका फूल, रसौत, मिसरी, समुद्रझाग, (यो. चि. म. । अ. ३) शंन्व, संधानमक, गेरू, मनसिल और कालीमिर्च त्र्यूषणं त्रिफला हिङ्ग सैन्धवं कटुका वचा । का समापन काग मिश्रित अत्यन्त महीन चूर्ण नक्तमालस्य बीजानि तथा च गौरसर्षपा ॥ लेकर सरकार में घोटें । इस अश्वमें लगानेसे अर्म, काच, तिमिर, मेषमूत्रेण पिष्टानि छाया शुष्कं विधापयेत् । भूतोन्मादेप्यचैतन्ये जननमेकाहिकादिषु ।। अर्जुन और वर्मरोग नष्ट होते हैं । (१२४२) पोत्रीदन्तादिवतिः सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, (वै. म. र. । पट. १६) ... हींग, सेंधानमक, कुटकी, बच, करञ्जबीज और सफेद सरसों के समान भाग मिश्रित चूर्णको भेड़के नेत्रीकरभयोर्दन्तं हृदयास्थि च कुक्कुटात् । कैमै कपालं स्तन्येन पिष्टं समधु पुष्पहा ॥ मूत्रमें पीसकर गुटिका बनाकर छायामें सुखा लें। सुवर और ऊंटका दांत, मुरगेके हृदयकी इन्हें आंखमें आंजनेसे भूतोन्माद तथा एकाहड़ी और कछुवेकी खोपरीका समान भाग मिश्रित हिकादि ज्वरकी बेहोशी नष्ट हो जाती है। अत्यन्त महीन चूर्ण लेकर उसे स्त्रीके दूधमें पीसें। | (४२४५) प्रचेतानामगुटिका इसमें शहद मिलाकर आंखमें आंजनेसे नेत्रपुप्प | .. ( यो. चि. म. । अ. ३) ( फूला ) नष्ट होता है। राजिका मरिचं कृष्णा सैन्धवं भूतनाशनम् । (४२४३) प्रकाशिकागुटिका नरमूत्रेण सम्पिष्य अञ्जनं ज्वरनाशनम् ॥ (ग. नि. । ने. रो. ३) राई, कालीमिर्च, पीपल, सेंधानमक और नदीजसिन्धूत्रिकन्यथाऽञ्जनं सफेद सरसों को मनुष्य के मूत्रमें पीसकर गुटिका मनःशिलाले द्विनिशे गवां शकृत् । । बनावें । For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्यपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४०३] इसे आंखमें आंजने से ज्वर नष्ट होता है। । (४२४७) प्रवालाद्यञ्जनम् (४२४६) प्रभावती गुटिका (३. मा.; वं. से. । नेत्र.) ( ग. नि. । नेत्ररोगा.) प्रवालमुक्तावैडूर्यशङ्खस्फटिकचन्दनम् । मनःशिला देवकाष्ठं रजन्यौ त्रिफलोषणम् ।। । सुवर्ण रजतं क्षौद्रमञ्जनं शुक्तिकापहम् ॥ लाक्षालशुनमभिष्ठासैन्धवैलाः समाक्षिकाः॥ रोधं शाबरजं चूर्णमायसं ताम्रमेव च।। __ मूंगा, मोती, वैडूर्यमणि, शंख, स्फटिकमणि, कालानुसारिवं चापि कुक्कुटाण्डदलान्यपि ॥ | चन्दन, सोना और चांदी । सबके महीन चूर्णको तुल्यानि पयसा पिष्टा गुटिकेयं प्रभावती।। शहदमें मिलाकर आंखमें आंजनेसे शुक्तिका का कण्डूतिमिरशुक्रामरक्तराजीजिदानात् ॥ नाश होता है। मनसिल, देवदारु, हल्दी, दारुहल्दी, हरे, (४२४८) प्रसादनाअनम् बहेड़ा, आमला, कालीमिर्च, लाख, ल्हसन, मजीठ, सेंधानमक, इलायची, सोनामक्खी, पठानी लोध, (शा. ध. । ख. ३ अ. १३) लोहचूर्ण, ताम्रचूर्ण, तगर और मुरगीके अण्डेके | कनकस्य फलं घृष्ट्वा मधुना नेत्रमञ्जयेत् । छिलके । सबका समान भाग मिश्रित अत्यन्त ईषत्कर्पूरसहितं स्मृतं नेत्रप्रसादनम् ।। महीन चूर्ण लेकर उसे दूधके साथ घोटकर गुटिका बनावें । निर्मलीके फलको शहदमें घिसकर उसमें ___इसे आंखमें लगानेसे आंखकी खाज, तिमिर, जरासा कपूर मिलाकर आंखमें आंजने से नेत्र शुक्र, अर्म और लाल रेखाएं नष्ट होती हैं। स्वच्छ होते हैं। इति पकाराघानप्रकरणम् । अथ पकारादिनस्यप्रकरणम् (४२४९) पलितनाशकनस्यम् गुडहरके फूलों के स्वरसमें समान भाग शहद (र. र. । क्षुद्र.) मिलाकर उस की नस्य लेने से १ मासमें, अन्य ओंडकुसुमस्वरसो मधुतुल्यो नस्यतः पलितम् । सैकड़ों औषधों से न आराम होने वाला पलितरोग योगशतैरप्यजितं मासाज्जयति नाश्चर्यम् ॥ । भी अवश्य नष्ट हो जाता है । For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४०४ ] (४२५०) पिप्पल्यादिनस्यम् (वृ. मा. भा. प्र.; वृ. नि. र. । नासा. ) पिप्पल्यः शिग्रुवीजानि विडङ्गं मरिचानि च । अवपीडः प्रशस्तोऽयं प्रतिश्यायनिवारणः । भारत-भैषज्य रत्नाकरः । पीपल, सहजने के बीज, बायबिडंग, और काली मिरच समान भाग लेकर सब को पानी के साथ महीन पीस लें । इस लुगदीको वस्त्र में बांध कर निचोड़ने से जो रस निकले उस की नस्य लेने से प्रतिस्याय नष्ट होता है । (४२५१) पिप्पल्यादिनस्यम् ( वृ. नि. र. । शिरो. ) पिप्पली सैन्धवं पाच्यं तैलेनाज्येन नस्यतः । शिरःशूलं निहन्त्याशु तमः सूर्योदयो यथा ॥ पीपल और सेंधा नमक के चूर्णको घी या तेल में पकाकर उस की नस्य लेने से शिरशूल इस प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार सूर्योदय से अन्धकार । (४२५२) पिप्पल्यादिप्रधमननस्यम् (ग. नि. । उन्मा. २ ) पिप्पल्यो मरिचं बीजमपामार्गशिरीषयोः । शवको हिब्रुवन्ये तच्चूर्ण प्रधमनं भवेत् ।। अवपीडच तैरेव वस्तमूत्रद्रवीकृतः । इत्युन्मादमपस्मारं वैचित्यं विषमज्वरम् ।। पीपल, काली मिर्च, अपामार्ग, (चिरचिटे) के तुष रहित स्वच्छ बीज, सिरसके बीज, नकछिकनी, हींग और चव के समान भाग- मिश्रित चूर्ण को सुंघाने से अथवा उस चूर्ण को बकरे के [पकारादि मूत्र में पीसकर लुगदी सी बनाकर उसे कपड़े में निचोड़कर निकाले हुवे रसकी नस्य देनेसे उन्माद, अपस्मार; चित्तविकृति और विषमज्वर का नाश है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२५३) पिप्पल्याचं नस्यम् (ग. नि. । शिरो. ) पिप्पलीमरिचद्राक्षामधुयष्टिकनागरैः । पर्क गोनवनीतेन नस्यं हन्ति शिरोरुजम् ॥ पीपल, काली मिरच, मुनक्का, मुलैठी और सेठ के समान भाग- मिश्रित चूर्णको गायके नवनीत (मक्खन) में पकाकर उस की नस्य लेने से शिर पीड़ा नष्ट होती है । (४२५४) पुण्ड्रेक्ष्वादि नस्यम् (वै. म. र. | पट. १६ ) पुण्ड्रेक्षुकाण्डरेणुस्तु सस्तन्यस्तुल्यं शर्करः । न्यस्तो घ्राणमुखे सद्यः सर्वोन्मादविनाशनः ॥ पुण्डरिया और ईखका काण्ड ( तन्ना ), | रेणुका और खांड के चूर्ण को स्त्रीके दूध में मिलाकर रोगी की नाक में डालने से उन्माद रोग नष्ट होता है। (४२५५) पूतिकरआद्योऽवपीड: (ग. नि. । क्रि. रो. ६ ) फलं पूतिकरञ्जानां पिप्पल्यो मरिचानि च । अवपीडं क्रिमिहरं कुर्याच्छीर्षविरेचनम् ॥ एतैरेवाक्षमात्रैस्तु घृतमस्थं विपाचयेत् । त्रिगुणे तु गवां मूत्रे तमस्यं क्रिमिसूदनम् ॥ कण्टककर के फल, पीपल और काली For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४०५] मिरच को पानी में पीसकर लुगदीसी बनावें और | फूलप्रियङ्गु, काली मिट्टी, लोध और सुरमा फिर उसे कपड़े में डालकर निचोड़कर रस निकालें। समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । इसकी नस्य देने से शिरोविरेचन होकर कृमि | यदि नाक, मुंह, गुदा, योनि और लिंग से नष्ट हो जाते हैं। रक्त आता हो तो इसे शहद में मिलाकर इसकी उपरोक्त ओषधियां १-१ तोला लेकर पानी | नस्य लेनी चाहिये। के साथ पीसकर कल्क बनावें फिर २ सेर घी में यह कल्क और ६ सेर गोमूत्र मिलाकर पकावें । यह एक सिद्ध प्रयोग है। जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। (४२५७) प्लाण्ड्वादिनस्यम् इस घी की नस्य लेने से भी कृमि नष्ट हो (हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) जाते हैं। (४२५६) प्रियङ्गवादिनस्यम् पलाण्डुपानिर्यासं नस्यं नासाम्रजापहम् ।। (यो. र. । र. पि. चि.) यष्टीमधुमधुयुतं चापि नस्यं पित्तात्रज जयेत् ॥ भियात्तिकालोध्रमञ्जनं चेति चूर्णयेत् । पलाण्ड (प्याज) के पत्तों के स्वरस की तचूर्ण योजयेत्तत्र नस्ये क्षौद्रसमन्वितम् ॥ | अथवा मधुमिश्रित मुलैठी के चूर्ण की नस्य लेने नासिकामखपायुभ्यो योनिमेदाच वेगितम।। से नाक से होने वाला रक्तस्राव ( नकसीर ) बन्द रक्तपित्तस्रवं हन्ति सिद्ध एष प्रयोगराट् ॥ हो जाता है। इति पकारादिनस्यप्रकरणम् । अथ पकारादिकल्पप्रकरणम् (४२५८) पिप्पलीकल्पः प्रयोज्या मधुसम्मिश्रा रसायनगुणैषिणा । (ग. नि. । ओषधिकल्पा.) दशवृद्धया दशाहानि दशपैप्पलिकं हितम् ॥ पश्चाष्टौ सप्त दश वा पिप्पलीमधुसर्पिषा। वर्धयेत्पयसा सार्द्ध तथैवापनयेत्पुनः । रसायनगुणान्वेषी समामेकां प्रयोजयेत् ॥ जीर्णौषधस्तु भुञ्जीत षष्टिकं क्षीरसर्पिषा॥ विसस्तिस्रस्तु पूर्वा भुस्वाऽग्रे भोजनस्य च । पिप्पलीनां प्रयोगोऽयं सहस्त्रस्य रसायनम् । पिप्पल्यः किंशुकक्षारभाविता घृतभर्जिताः॥ : पिष्टास्ता बलिभिः पेयाः शृता मध्यबलैनरैः॥ For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४०६ ] भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ पकारादि शीतीकृताः क्षीणवलैर्वीक्ष्य दोषान् प्रयोजयेत् । | रोज़ाना १०-१० घटाकर सेवन करें। औषध तद्वै छागदुग्वे द्वे सहस्रे प्रयोजयेत् ॥ पचने पर साटी चावलों का भात घी दूध के साथ एभिः प्रयोगः पिप्पल्यः कासश्वासगलग्रहान् । खाना चाहिये । यक्ष्ममेहग्रहण्यर्शः पाण्डुत्वविषमज्वरान् ॥ नन्ति शोफं वर्मिं हिध्मां प्लीहानं वातशोणितम् ।। यह १००० पीपल का रसायन प्रयोग है । बलवान व्यक्ति को यह प्रयोग कराना हो तो पिप्पलों को पीसकर खिलाना चाहिये । मध्यम बलवाले को दूध में पकाकर और क्षीणबल वालेको पिप्पलीका शीत कषाय बनाकर सेवन कराना चाहिये । नित्य प्रति ५, ८, ७ या १० पीपल शहद और घी के साथ सेवन करें । यह प्रयोग रसायन ( जराव्याधि - नाशक ) है | पीपलों को पलाशके क्षारके पानी की भावना देकर घी में भून लें। इनमें से ३-३ पीपल शहद के साथ प्रातःकाल, भोजन के पहिले और भोजन के पश्चात् सेवन करें । यह प्रयोग भी रसायन है । उपरोक्त १००० पिप्पली वाले प्रयोग के समान ही बकरी के दूध के साथ २००० पीपल भी सेवन कराई जाती हैं । ( इस प्रयोग में रोज़ाना २०-२० पीपल बढ़ाकर सेवन करनी चाहियें । ) पीपल के उपरोक्त समस्त प्रयोग खांसी, श्वास, गलग्रह, राजयक्ष्मा, प्रमेह, ग्रहणी, अर्श, पाण्डु, विषमज्वर, शोथ, वमन, हिचकी, प्लीहा और वातरक्त को नष्ट करते हैं । इति पकारादिकल्पप्रकरणम् । पहिले दिन १० पीपल दूध के साथ सेवन करें और दूसरे दिन इसी प्रकार २० पीपल सेवन करें । इसी प्रकार रोज़ाना १०-१० पीपल बढ़ाते हुवे दस दिन तक सेवन करें । ११ वें दिन से Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ पकारादिरसप्रकरणम् (४२५९) पञ्चनिम्बादिचूर्णम् (१) (वृ. यो. त. । त. १२०;बृ. नि. र. । त्वग्दोष. यो. र.; ग. नि.; वं. से.; वै. र. । कुष्ठ.; शा. ध. चूर्णाधि. ) पिचुमन्दफलं पुष्पं त्वक्पत्रं मूलमेव च । पञ्चैतानि सुसूक्ष्माणि समचूर्णानि कारयेत् ॥ अष्टभागावशेषेण खदिरासनवारिणा । भावयित्वा तु संयोज्य द्रव्याण्येतानि दापयेत् ॥ faraise विडङ्गानि व्याधिघातकशर्करान् । भल्लातकहरीतक्यौ शुण्ठ्यामलकगोक्षुरान् ॥ चक्रमर्दाच्च पिप्पलीं मरिचं निशाम् । लोह चूर्ण समायुक्तं समभागं प्रमाणतः ॥ For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [ ४०७] भावयेदभृङ्गराजेन पुनः शुष्काणि कारयेत् ।। यह चूर्ण रसायन (जराव्याधिनाशक ) है। निम्बार्द्धचूर्णमेतेपामेकीकृत्य निधापयेत् ॥ नोट-कुछ ग्रन्थोंमें पञ्चनिम्ब चूर्णके समान भाग विडालपदमात्रन्तु सर्पिषा पयसापि वा।। | चित्रकादि का चूर्ण मिलाने और उस के पश्चात् खैरसार, प्रातः प्रातनिषेवेत खदिरासनवारिणा ।। असन और भंगरेके रसकी भावना देने का लिया है: अकेले पञ्चनिम्ब चूर्ण को भावना देना नहीं लिखा । परिहारो न चात्रास्ति पञ्चनिम्बेऽवतिष्ठति । मासमात्रप्रयोगेण कुष्ठं हन्ति रसायनम् ।। (१२६०) पञ्चनिम्यादिचूर्णम् २ (२) त्वग्दोपं नीलिकाव्यङ्गं तथैव तिलकालकान् । (भै. र.; वृं. मा.; च. द.; भा. प्र.; ग. नि. । अष्टादशविधं कुष्ठं सप्त चैव महाक्षयान् ॥ कुष्ठा.) सर्वव्याधिविनिर्मुक्तो जीवेद्वर्षशतं सुखी ॥ | पुष्पकाले च पुष्पाणि फलकाले फलानि च । नीमका पञ्चाङ्ग (फल, पुष्प, छाल, पत्र और सञ्चूये पिचुमन्दस्य त्वङ्मूलानि दलानि च ॥ मूल) समान-भाग लेकर सब का कपड़छन चूर्ण द्विरंशानि समाहृत्य भागिकानि प्रकल्पयेत् । करके उसे खैरसार और असन की छाल के अष्टा त्रिफला त्र्यूषणं ब्राह्मी श्वदंष्ट्रारुष्कराग्निकाः ॥ वशेष ( चौगुने पानी में पकाकर आठवां भाग शेष विडङ्गसारो वाराही लौहचूर्णो स्मृताः समाः। रहे हुवे ) कार्की १-१ भावना दें तत्पश्चात् हरिद्राद्वयावल्गुजव्याधिघाताः सशर्कराः ॥ उस में निम्न लिखित चूर्ण मिलावें । कुष्ठेन्द्रयवपाठाश्च कृत्वा चूर्ण सुसंयुतम् । ___ चीता, बायबिडंग, अमलतास, खांड, शुद्ध खदिरासननिम्बानां घनकाथेन भावयेत् ॥ भिलावा, हर, सेांठ, आमला, गोखरु, पंवाड़के बीज, सप्तधा पश्चनिम्बञ्च माकेवस्वरसेन च । बाबची, पीपल, काली मिर्च, हल्दा और लोह भस्म । स्निग्धशुद्धतनुर्धीमान् योजयेच्च शुभे दिने । प्रत्येक का समान-भाग चूर्ण लेकर सब को एकत्र मधुना तिक्तहविपा खदिरासनवारिणा । मिलाकर उसे भंगरे के स्वरस की एक भावना देकर सेव्यमुष्णाम्बुना वापि कोलवृद्धया पलं पिबेत् ॥ सुखा लें। जीर्णे च भोजनं कार्य स्निग्धं लघुहितश्च यत् ___अब यह चूर्ण २ भाग तथा उपरोक्त पञ्च विचर्चिकोदुम्बरपुण्डरीकनिम्ब चूर्ण १ भाग लेकर दोनों को अच्छी तरह कापालदकिटिभालसादि । मिला लें। शतारुविस्फोटविसर्पपामाः इसमें से नित्य प्रति प्रातःकाल १। तोला कफप्रकोपं विविधं किलासम् ॥ चूर्ण घी या दूध अथवा खैर और असन की छाल | भगन्दरं श्लीपदवातरक्तं के काथ के साथ १ मास तक सेवन करने से अठा- जडान्ध्यनाडीव्रणशीर्षरोगान्। . रह प्रकार के कुष्ठ, त्वग्दोष, नीलिका, व्यङ्ग, तिल, भा. प्र. में इसका नाम 'पञ्चनिम्बावलेह ' और कालक और सात प्रकारका क्षय रोग नष्ट होता है। च. द. में कुष्ठटरचूर्ण लिखा है । For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि सर्वप्रमेहान् पदरांश्च सर्वान् वातरक्त, जड़ता, अन्धत्व, नाडीव्रण, शिरोरोग, दंष्ट्राविषं मूलविषं निहन्ति ॥ सर्व प्रकारके प्रमेह और प्रदर, दंष्ट्राविष, मूलविष स्थूलोदरः सिंहकृशोदरश्च और मेदरोग नष्ट होता है । शहदके साथ सेवन मुश्लिष्टसन्धिर्मधुनोपयोगात् । करनेसे सन्धियां मजबूत होती हैं । समोपयोगादपि ये दशन्ति ___ इसे अधिक समय तक सेवन करने वाले सदियो यान्ति विनाशमाशु ॥ मनुष्यको यदि सर्पादि काट खाय तो वह (सादि) जीवेचिरं व्याधिजराविमुक्तः । स्वयं ही मर जाता है और उस मनुष्य पर उसके शुभेरतश्चन्द्रसमानकान्तिः ॥ विषका कोई प्रभाव नहीं होता। - पुष्प कालमें नीमके पुष्प और फल कालमें इसके अधिक समय तक सेवन करनेसे फल तथा छाल, मूल और पत्र २-२ पल तथा मनुष्य जराव्याधि-रहित दीर्घायु प्राप्त करता है। हर्र, बहेड़ा, आमला, सांठ, मिर्च, पीपल, ब्राह्मी, गोखरु, शुद्ध भिलावा, चीता, बायबिडंगकी गिरी, पञ्चनिम्बावलेहः बराहीकन्द, लोहभस्म, हल्दी, दारुहल्दी, बाबची, (भा. प्र. । कुष्ठा.) अमलतास, खांड, कूठ, इन्द्रजौ और पाठा पश्चनिम्बचूर्णम् (सं. ४२६० ) देखिये । प्रत्येक १-१ पल । सबका चूर्ण करके उसे खैर (४२६१) पञ्चवाणो रसः सार, असन और नीमके गाढ़े (अष्टभागावशिष्ट ) ( वृ. यो. त. । त. १४७; यो. र. १ वाजीकर.) काथ तथा भंगरेके स्वरसकी ७--७ भावना देकर सुखाकर सुरक्षित रक्खें। रसाभ्रनागायसगन्धवर्ष पञ्चकर्म द्वारा देह शुद्धि करनेके पश्चात् इसे कापर्दिकं तत्समभागयोजितम् । शहदके साथ अथवा तिक्तघृत या खैर और असन रसेन हेम द्विगुणं विमिश्रितं के काथके साथ या केवल गरम पानीके साथ ७॥ क्षीरेण भाव्यं च गवां त्रिवारम् ॥ माशेकी मात्रा से सेवन करना आरम्भ करें और एकाधिकाविंशजयारसस्य ततश्च धीरे धीरे बढ़ाकर १ पल (५ तोले ) की मात्रा दधात्कनकस्य सप्त । तक पहुंच जाएं। लवजातीफलकुङ्कम तथा __औषधके पच जाने पर स्निग्ध लघु और कोलकाफल्लगजेन्द्रकाप । पथ्य भोजन करना चाहिये। -योगरत्नाकरमें गन्धकके स्थानमें शंख, मौर इसके सेवनसे विचर्चिका, उदम्बर, पुण्डरीक, स्वर्ण पारदसे भाषा लिया है तथा भावना द्रव्यों में मांगके स्थानमें पोस्त लिखा है एवं मुलेठी, अर्क और कपालकुष्ठ, दु, किटिभ, अलस, शतारु, विस्फोट, | त्रिफलेकी ७-७ भावनाएं अधिक लिखी है और केसर, | गजपीपल तथा पीपलकी भावनाभोंका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणस] वृवीयो भागः। [४०९] कृष्णाहरेश्चन्दनतोयभाव्याः । पञ्चलोहं पञ्चरसं वर्तुलं भर्तमित्यपि । प्रत्येकमेकस्य च सप्त सप्त । व्यञ्जनं सूपमन्यच्च तद्भाण्डे साधितं शुभम् ॥ दर्पण चैकां च ददीत भावनां आदौ तैलादिके शोध्यं पश्चात्तप्त्वाऽजमूत्रके। सिद्धो रसः स्यादिति पश्चवाणः॥ | निषिक्तं शुद्धिमायाति पञ्चलोहं न संशयः॥ वीर्यस्य वृद्धिं च करोति पुंस्त्वं अर्कक्षीरेण सम्पिष्टगन्धतालकलेपनात् । नष्टेन्द्रियाणां हि मुखावहश्च । पश्चकुम्भिपुटैर्भत म्रियते योगवाहकम् ॥ येषां गृहे चागणिता रमण्य ___ कासी, पीपल, तात्र, सीसा और बंगको ____ स्तेनैव कार्यों रसराज एषः॥ एकत्र पिघलाने से जो धातु तैयार होता है उसे कान्तापियत्वं बहुशुक्रतां पश्चलोह, पश्चरस, वर्तुल, भर्त, व्यञ्जन और सूप च शेफाभिवृद्धि दृढतामुपैति ॥ कहते हैं। शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म, सीसा भस्म, लोह प्रथम इसे पिघला पिघला कर तैलादि (तैल, भस्म, शुद्ध गन्धक, बंग भस्म और कौड़ी भस्म तक, गोमूत्र, कांजी और कुलथी के काथ ) में १-१ भाग तथा स्वर्ण भस्म २ भाग लेकर प्रथम | पृथक् पृथक् सात सात बार बुझावें । फिर बकरे पारे गन्धकको कजली बनावें । तत्पश्चात् उसमें के मूत्र में सात बुझाव दें । इस प्रकार भर्त धातु अन्य औषधे मिलाकर उसे ३ भावना गायके शुद्ध हो जाती है। दूधको, २१ भांगके रसकी, ७ धतूरेके रसकी तथा ७-७ भावना लांग, जायफल, केसर, ककोल, ___समान भाग मिश्रित गन्धक और हरतालको अकरकरा, गजपीपल, पीपल और सफेद चन्दनके आकके दूधमें घोटकर भर्त पर लेप करके उसे काथकी एवं १ भावना कस्तूरीकी देकर सुरक्षित | गज पुटमें फूंकने से ५ पुटमें भस्म हो जाती है। रक्खें। ___ यह भस्म योगवाही है। इसके सेवनसे वीर्यवृद्धि होती और पुरुषत्व बढ़ता है। यह इन्द्रियोंकी क्षीणताको नष्ट करता (४२६३) पञ्चलोहरसायनम् तथा लिङ्गको प्रवृद्ध और दृढ़ करके अनेको त्रियों (यो. र.; वृ. नि. र. । प्रमेहा.) से रमण करनेकी शक्ति देता है। मृताभ्रकान्तलोहानां नागवङ्गौ विशोषितौ । (मात्रा २-३ रत्ती ।) यथोत्तरं भागदया खल्वमध्ये विनिक्षिपेत् ॥ (४२६२) पश्चलोहमारणम् तलपोटेन वाराखा शतावर्या हिमाम्बुना। ( आ. वे. प्र. । अ. १२) भावनाऽत्र प्रकर्तव्या याम या पृथक् पृथक् ।। कांस्य रीतिस्तथा तानं नागो वश्च पञ्चमः । चणमात्रां वटीं कृत्वा नवनीतेन सेवयेत् । एकत्र द्रावितैरेतः पञ्चलोई मजायते ॥ प्रातरुत्थाय विधिना सर्वमेहकुलान्तकः ॥ For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४१०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि शाल्यनं सपटोलं च तण्डुलीयकवास्तुकम् । । शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक ४-४ तोले मत्स्याक्षीमुद्गयूपं च अपक्ककदलीफलम् ॥ । तथा सुहागेकी खील १ तोला लेकर सबको तांबे अर्शीसि ग्रहणीदोषं मूत्रकृच्छ्राश्मरीप्रणुत् । । के खरलमें डालकर घाटें । जब कजली हो जाय कामलापाण्डुशोफांश्च अपस्मारक्षतक्षयान् ॥ तो उसे जयन्ती, हुलहुल, चमेली, पीपलामूल और रक्तकासविनाशे स्यात्पश्चलोहरसायनम् ॥ तेजपातमें से जिनके स्वरस मिल सकें उनके __ अभ्रक भस्म १ भाग, कान्तलोह भस्म २ स्वरसमें और बाकी चीजेकि काथ में पृथक पृथक भाग, सीसाभस्म ३ भाग और बंगभस्म ४ भाग | ७--७ दिन घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां लेकर सबको १-१ पहर ताड़, नल, बाराहीकन्द, | बना लें। शतावर और लालचन्दन में से जिनका स्वरस मिल इनमेंसे २ गोली खाकर ऊपरसे आककी सके उनके स्वरसमें और बाकी के काथमें पृथक जड़के काथमें त्रिकुटेका चूर्ण मिलाकर पीनेसे सन्निपृथक् घोटकर चने बराबर गोलियां बनावें। पात ज्वर नष्ट होता है। इन्हें नित्य प्रति प्रातःकाल नवनोत (नौनीघी) यदि इसके सेवनसे गर्मी अधिक हो तो के साथ सेवन करने से समस्त प्रकार के प्रमेह, | शीतल जल की धारा शिरपर, या नाभिपर कांसीका अर्श, संग्रहणी, मूत्रकृच्छू, अश्मरी, कामला, पाण्डु, | कटोरा रखकर उसमें छोड़नी चाहिये । शोथ, अपस्मार, क्षत, क्षय और रक्तवाली खांसी इसके ऊपर दूध युक्त आहार देना चाहिये । नष्ट होती है। (४२६५) पञ्चवक्त्ररसः (२)(मृत्युञ्जयो रसः१) पथ्य-शाली चावल, पटोल, चौलाई, बथुवा, (र. र. स. । अ. १२; र. रा. सु.; वृ. नि. र. । मछेछी, मूंगका यूष और कच्चा केला । ज्वरा.; र. प्र. सु. । अ. ८; र. चि.; र. च.; वृ. (४२६४) पञ्चवक्त्ररस: (१) यो. त.; भा. प्र.; वै. र.; भै. र. र. र. स.; शा. ध.; र. सा. स.; यो. र. । ज्वर.) (र. का. धे. । ज्वर.) शुद्धं सूतं विषं गन्धं मरीचं टङ्कणं कणाम् । शुद्धं मूतं समं गन्धं गन्धपादं च टङ्कणम् ।। । मर्दयेद्धतजद्रावैदिनमेकं च शोषयेत् ।। ताम्रपात्रे क्षिपेत्पिष्टं जयन्त्यालोडयेद्वैः ॥ तिलपर्णी तथा जाती पिप्पलीमूलपत्रकम् । ___र. सा. सं ; भै. र.; र. रा. मु.; र. चं; यो. र. इन ग्रन्थों में इसे 'मृत्युञ्जय' नामसे लिखा है और द्रवैरेषां च सप्ताहं शोष्यं पेष्यं पुनः पुनः॥ इसके अनुपानांका इस प्रकार वर्णन किया हैताम्रपात्रात्समुद्धत्य कृत्वा गोलं विशोषयेत् । दध्योदकानपानेन वातज्वरनिबर्हणः । पञ्चवक्त्रो रसो नाम द्विगुञ्जः सन्निपातजित् ।। आर्द्रकस्य रसैः पानं दारुणे सानिपातिके ।। अर्कमूलकषायं च सत्र्यूषमनुपाययेत् । जम्बीरद्रवयोगेन अजीर्णज्वरनाशनः । सक्षीरं दापयेत्पथ्यं जलयोगं च कारयेत् ॥ ' अजाजीगुडसंयुक्ता विषमज्वरनाशिनी ।। For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [४११] पञ्चवक्त्रो रसो नाम द्विगुञ्जः सन्निपातजित् । | कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों अर्कमूलकषायं तु त्र्यूषणं चानुपाययेत् ॥ . का महीन चूर्ण मिलाकर सबको १ दिन धतूरेके युक्तं दध्योदनं पथ्यं जलयोगं च कारयेत् । रसमें घोटकर सुखालें । ( १-१ रत्ती की गोलियां रसेनानेन शाम्यन्ति सक्षौद्रेण कफादयः॥ बनाकर छायामें सुखालें।) मधु त्वरसं चानु पिबेदनिविद्धये। इसे शहदके साथ खिलाकर ऊपरसे आककी यथेष्टं घृतमत्त्याशु दीप्तो भवति पावकः॥ | जड़की छालके काथ में त्रिकुटा ( सांठ, मिर्च, शुद्ध पारा, शुद्ध विष ( मीठातेलिया ), शुद्ध | पिप्पल ) का चूर्ण मिलाकर पीनेसे सन्निपात तथा गन्धक, काली मिर्च, सुहागेकी खील, और पीपल । कफादि नष्ट होते हैं। सब चीजें समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी अग्निकी वृद्धिके लिये इसे अर्कमूलके रस तीबज्वरे महाघोरे पुरुषे यौवनान्विते । | (या काथ ) और शहद के साथ खाना चाहिये। पूर्णमात्रा प्रदातव्या पूर्ण वटीचतुष्टयम् ॥ | तथा आहारके साथ यथेष्ट घृत खाना चाहिये । स्त्रीबालवृद्धक्षीणेषु अर्द्धमात्रा प्रकीर्तिता। पथ्य---दही भात । यदि अधिक सन्ताप अतिवृद्धे च क्षीणे च शिशौ चाल्पवयस्यपि ॥ हो तो मस्तक पर शीतल पानी डालना चाहिये । तुय्येमात्रा प्रदातव्या व्यवस्था सारनिश्चिता। पञ्चवक्त्ररसः (३) नवज्वरं महाघोरं यामैकान्नाशयेधुवम् ॥ (र. सा. सं.; र. रा. सु.; र. का. धे. । ज्वर.) मध्यज्वर तथा जीर्ण त्रिरात्रानाशयेदध्रुवम् । प्र. सं. ४२६५ में और इसमें केवल इतना सप्ताहात्सनिपातोत्थं ज्वराजीर्णकसंज्ञकम् ॥ ही अन्तर है कि इसमें विषके स्थानमें सीसा भस्म वासज्वर में दहीके पानीके साथ, घोर सन्नि- पड़ती है । गुण, अनुपानादि लगभग समान पात में अद्रक के रसके साथ, अजोर्ण उवर में ही हैं । जम्बीरीके रसके साथ तथा विषमज्वर में जीरे के | चूर्ण और गुड के साथ देना चाहिये । (र. चि. । अ. ९; वृ. नि. र.; भै. र.; भा. प्र.। सन्निपात.; वृ. यो. त. । त. ५९) महाघोर तीव्र ज्यर में पूर्ण युवा पुरुष को यह भी प्र. सं. ४२६५ के समान ही है। इस की ४ गोली, स्त्री बालक वृद्ध और क्षीण | केवल इतना ही अन्तर है कि इसमें पीपल पुरुष को २ गोली और अत्यन्त वृद्ध, अत्यन्त क्षीण नहीं पड़ती। तथा छोटे बालक को १ गोली देनी चाहिये । । (४२६६) पञ्चशरोरसः यह रस भयङ्कर नवीन ज्वर को १ प्रहर में, (भै. र.; र. रा. सु. । वाजीकरण.) मध्य ज्वर और अजीर्ण ज्वर को तीन दिन में और | रसेन सह शाल्मलिजेन सूतं । सन्निपात ज्वर को सात दिन में नष्ट कर देता है। । त्रिसप्तवाराणि बलिं विपर्य । पञ्चवक्त्ररसः (४) For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि पृथक् तयोः कजलिकां विपकां | काँचके बीज और तालमखाना । सबका समान ___ घृते रसः पञ्चशरोऽयमुक्तः॥ भाग महीन चूर्ण एकत्र मिलाकर उसे भांग, सेंभवल्लोऽहिवल्लीदलसम्पयुक्तो लकी मूसली, काले धतूरेके बीज, सौंफ, पोस्त, वीर्यातिद्धिं कुरुतेऽस्य नूनम् ॥ मुलैठी और पानमें से जिनके स्वरस मिल सकें संभलके रसमें शुद्ध पारेको सथा शुद्ध गन्धक उनके स्वरसकी और शेषके काथकी पृथक् पृथक को पृथक् पृथक् सात सात बार घोटकर दोनोंकी १-१ भावना देकर उसमें चौथाई भाग ( पारद कजली बनावें और फिर एक कड़ाहीमें जरासा भस्मसे चौथाई ) कपूर मिलाकर घोटकर रक्खें । घी डालकर उसमें उस कजली को मन्दाग्नि पर मात्रा--६ रत्ती । अनुपान-शहद और भूनें । (घीमें भूनकर पर्पटी बना लेनी चाहिये ।) | त्रिफलेका काथ । इसमें से ३ रत्ती दवा पानमें रखकर खानेसे पथ्य-दूध इत्यादि सात्म्य पदार्थ । वीर्यको अत्यन्त वृद्धि होती है । इसे सायंकालके समय खाना चाहिये । इसपर भैंसका कढ़ा हुवा दूध पीना और इसके सेवनसे अनेक स्त्रियों से रमण करनेकी शक्ति गुरु (पौष्टिक ) आहार करना चाहिये। प्राप्त होती है। (४२६७) पश्चसायक परहेज़-अम्ल पदार्थ । (वृ. यो. त. । त. १४७) (४२६८) पञ्चसारो रसः ( पश्चाननः )' सूतं भस्मीकृतं शुद्धं गगनं दरदं तथा। | (र. चं. र. र. । दो.; र. चि. म. । अ. ९; अधिशोषं नागफेनं जातीपत्रीफलं तथा॥ र. सा. सं.; र. रा. सु. र. का. धे.; करहाटांस्तथा गोषावानरीकोकिलाक्षकान् ।। भै. र. । हृदोग.) एतानि समभागानि खल्वे चूर्णीकृतानि वै ॥ | शुद्ध सूतं समं गन्धं धात्रीफलद्रावैदिनम् । विजयाशाल्मलीमूलैरसितस्वर्णवीजकैः। यष्टीखर्जूरद्राक्षाणां कायेन मर्दयेद् दिनम् ॥ शताहापोस्तमधुकनागवल्लीदलद्रवैः ॥ पञ्चसाररसो नाम भक्षयेन्माषमात्रकम् । भागांशकर्पूरयुतो रसोऽयं पञ्चसायकः । धात्रीचूर्ण सितां चानु पित्तहद्रोगनिद्भवेत् ।। मात्रावल्लद्वयं चास्य मधुत्रितयसंयुतः ॥ शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक समान भाग पथ्यं क्षीरं यथासात्म्यं गच्छेच्च प्रमदाशतम् । लेकर दोनोंकी कजली करके उसे १-१ दिन निशामुखे रसो ग्राखोऽम्लवर्ग च वजेयेत् ॥ आमलेके रस और मुलैठी, खजूर तथा मुनक्काके पारद भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध हिंगुल, सम- | कायमें पृथक् पृथक् घोटकर सुरक्षित रक्खें । न्दर सोख, शुद्ध अफीम, जावत्री, जायफल, अक- र.वि. म.; र. सा. सं., र. रा. सु.; र.का. रकरा, वटपत्री (पाषाण भेदकी एक जाति), .; मै. र. में इसे " पचानन " नाम दिया गया है। For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम्] हतीयो भागः। [४१३] इसमें से प्रति दिन १ माशा चूर्ण खाकर । पथ्य-उर्द, ईख, पिट्टीके पदार्थ, भारी अन्न ऊपरसे आमले और मिश्रीका चूर्ण ( दूधके साथ) और गाय का दूध । खानेसे पित्तज द्रोग नष्ट होता है। (४२७०) पचाननवटी (१) (व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती ।) (वृ. यो. स. । त. ९३) (४२६९) पश्चात्मको रसः प्रत्येकं पिचुरंशजं च तपनीपाटाणं सैन्धवम् । (र. सा. सं । शूला. र. रा. सु. । शूला.) तुत्य तीक्ष्णहलाहलावथ पले वैश्वानरश्रेष्ठयोः । सतसूताभ्रक चाम्लवेतसं साम्रगन्धकम् । विर्ष फलत्रयाच्चूर्ण तुल्यं मर्थे दिनावधि ॥ शुदो गुग्गुलरञ्जलिं घृतयुतामेषा द्विभाषावटी। जयन्ती मुण्डिरी वासा वृहसी च गुइचिका । सश्रेष्ठाकथनामवातपवनातङ्केभपश्चानना ॥ महाराष्ट्री जम्नु रसैस्तथा नीलोत्पलस्य च ॥ सोनामक्खी भस्म, सुहागा, सेंधा नमक, शुद्ध पतिद्रावैदिन भान्यं ततः संशोष्य यत्नतः। नीहाथोथा, तीक्ष्णलोह भस्म और शुद्ध मीठा भदौवं पक्षलवणं दत्त्वाकरसेन च ॥ तेलिया १५-१। तोला तथा चीता और त्रिफला दिन पेष्यं ततः कुर्यादटिकां चणसभिभाम् । । (हर्र, बहेड़ा, आमला ) ५-५ तोले और शुद्ध मातमध्याइने रात्रौ च भक्षयेटिका त्रयम् ॥ | गूगल २० तोले लेकर, कूटने योग्य चीजों को मापेक्षुपिष्टगुर्वषं गोपयश्च हितं तथा। कूट छानकर सब को एकत्र मिलाकर पीके साथ घोट सेवेत वावशूलाश्चिायं पश्चात्मकः स्मृतः॥ | कर २-२ माशे की गोलियां बनावें । पारद भस्म, अभ्रक भस्म, अमलबेत, ताम्र इन्हें त्रिफला के काथके साथ सेवन करनेसे भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग तथा हरे, बहेड़ा | आमवात और वातव्याधि नष्ट होती है। और मामले का चूर्ण समान-भाग लेकर सब को एकत्र मिलाकर एक दिन खरल करें। फिर (४२७१) पश्चाननवटी (२) उसे जयन्ती, गोरखमुण्डी, बासा, कटेली, गिलोय, (भै. र.; र. र. । अम्लपित्ता.) जलपीपल, जामनकी छाल और नीलोत्पलमें से | शुद्धं सूतं पलार्धश्च तत्समं शुद्धगन्धकम् । जिन के स्वरस मिल सकें उनके स्वरस के और तयोः समं ताम्रपत्रं लिप्त्वा मृषान्तरे क्षिपेत् ॥ शेष चीज़ों के काथ के साथ १-१ दिन घोटकर | आच्छाध पञ्चलवणेलिप्त्वा गजपुटे पचेत् । छाया में सुखावें । तत्पश्चात् उसमें उससे आधा सिद्धं तानं समादाय पलमेकं विमर्दयेत् ॥ पश्चलवण का चूर्ण मिलाकर १ दिन अद्रक पारदस्य पलञ्चैव गन्धकस्य पलन्तथा। के रस में घोटकर चनेके समान गोलियां बना लें। पुटदग्धस्य लोहस्य गगनस्य पलंपलम् ।। इनमें से ३-३ गोली प्रातः, दोपहर भार | यमानी शतपुष्पा च त्रिकटु त्रिफलापि च । सायंकालके समय खानेसे वातज शूल नष्ट होता है। त्रिता चविका दन्ती शिखरी जीरकद्वयम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - [४१४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि एतेषां पलिकैर्भागैर्घण्टकर्णकमानकम् । पञ्चाननवटी (३) ग्रन्थिकं चित्रकश्चैव कुलिशानां पलार्धकम् ॥ (भै. र.; र. चं. । अर्श.; र. सा. स. । अर्श.) आईकस्वरसैः पिष्ट्वा गुटिकां माषकोन्मिताम् । नित्योदित रस देखिये । इसमें और उसमें केवल यही अन्तर है कि पञ्चाननवटी ख्याता सर्वरोगविनाशिनी ॥ उसमें विष पड़ता है और इसमें नहीं पड़ता। अम्लपित्तमहाव्याधिनाशिनी च रसायनी । (१२७२) पश्चाननावटी महाऽग्निकारिका चैषा परिणामव्यथापहा ॥ (भै. र. र. सा. सं., र. रा. सुं.; र. र. । पाण्डु.) शोथपाण्डामयानाहप्लीगुल्मोदरापहा ॥ शुद्धमूतं समं गन्धं मृतताम्राभ्रगुग्गुलुः । शुद्ध पारा २॥ तोले और शुद्ध गन्धक २॥ जैपालबीजतुल्यञ्च घृतेन गुटकीकृतम् ।। तोले लेकर दोनों की कजली बनावें और उसे भक्षयेदर्धगुञ्जाभं शोथपाण्डुपशान्तये । ( नीबू के रसमें घोटकर ) ५ तोले ताम्रके बारीक | 'पश्चानना' वटी ख्याता पाण्डुरोगकुलान्तिका।। पत्रों पर लेप कर दें और उन्हें सम्पुट में पञ्चलवण ___शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, अभ्रक के बीच में रखकर बन्द कर के गजपुट में फूंक दें। भस्म, शुद्ध गूगल और शुद्ध जमालगोटा समान जब स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें से ताम्र | भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की कजली बनावें भस्म को निकालकर पीस लें । तत्पश्चात् ५--५ | फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सब को घी तोले शुद्ध पारद और गन्धक की कजली बनाकर | के साथ घोटकर आधी आधी रत्ती की गोलियां उसमें उपरोक्त ताम्र भस्म तथा लोह भस्म और बनावें। अभ्रक भस्म ५-५ तोले एवं अजवायन, सौंफ, इन के सेवन से शोथ और पाण्डु रोग नष्ट सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेडा, आमला, निसोत, | होता है। चव, दन्तीमूल, चिरचिटा तथा सफेद और काले । (४२७३) पश्चाननो रसः (१) जीर का चूर्ण ५-५ तोले; घण्टकर्ण, मानकन्द, (र. र. स. । अ. १९) पीपलामूल, चीता और हाडसंघार का चूर्ण २॥- | मृतं कान्तं सुवर्ण च शुल्बताराभ्रभस्मकम् । २॥ तोले मिलाकर सब को अद्रक के रसमें घोट पृथगक्षमितं सर्वं पटचूर्णकृतं मृदु ॥ कर १-१ माशे की गोलियां बनावें । रसगन्धककज्जल्या तुल्यया सह मर्दितम् । सार्धद्विपलमानेन ताप्य चूर्णेन मर्दितम् ॥ इन के सेवनसे अम्लपित्त, परिणाम शूल, द्विपलं मूषिकामध्ये विनिक्षिप्यालचूर्णकम् । शोथ, पाण्डु, अफारा, तिल्ली, गुल्म, और उदररोग ततस्तु कज्जली क्षिप्त्वा मनोहां तावतीं क्षिपेत्।। नष्ट होते तथा अग्नि प्रदीप्त होती है। | ततो निरुध्य यत्नेन परिशोष्य पुटेनिशि ।। यह रसायन ( जराव्याधिनाशक) औषध है। , पाण्डुसूदन रसमें और इसमें नाम मात्रका ही अन्तर है। For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४१५] पुटेन गजसंज्ञेन स्वतः शीतं विचूर्णयेत् ॥ : मूषा को बन्द कर के उस के ऊपर कपरमिट्टी कर चतुर्गुणेन गन्धेन निर्मितां रसकज्जलीम् । के मुखा लें और रात में गजपुटमें फूंक दें। जब क्षिप्त्वा पूर्वरसे लुङ्गवारिणा परिमर्दयेत् ॥ सम्पुट स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें से औषध पचेत्क्रोडपुटेनैव दशवारमतः परम् ।। को निकालकर पीस लें। फिर ११ तोला पारद एवं तालककज्जल्या दशवारं पुटेत्ततः॥ और ५ तोले गधन्क की कज्जली बनाकर उसे ततश्च मृतवैक्रान्तभस्मना च कलांशतः । उपरोक्त चूर्ण में मिलाकर १ दिन जम्बीरी नीबूक ततो विचूर्ण्य यत्नेन करण्डान्तर्विनिक्षिपेत् ॥ रस में घोटें और टिकिया बनाकर सुखाकर उन्हें अयं पञ्चाननो नाम देवराजेन कीर्तितः।। सम्पुट में बन्द करके बराहपुट में फूंक दें। इसी श्रेष्ठः सर्वरसेन्द्रेषु महारससमो गुणैः ।।। प्रकार दस आंच लगावें । हर बार कज्जली मिला पथ्यामरणशुण्ठीभिः सघृताभिनिषेवितः ।। कर जम्बीरी के रस में धोटना चाहिये । इस के सर्वान्पाण्डगदान्हन्ति कृतघ्न इव सन्कृतिम् ॥ । पश्चात् १। तोला हरताल को ५ तोले पारदमें यक्ष्माणं जठरं हलीमकरुजं वातातिविड्वन्धनं, | मिलाकर घोटकर कज्जली बनावें और इसे उक्त कुष्ठं च ग्रहणीं ज्वरातिसरणं श्वासं च कासा तैयार औषध में मिलाकर एक दिन नीबू के रस में घोटें और टिकिया बनाकर, सुखाकर उन्हें सम्पु चा।। बन्द करके बगह पट में पं । इसी प्रकार श्लेष्मव्याधिमशेषतो गलगदान्दु ममन्दाग्नितां, हरताल और परिकी कजलीके साथ १० पुट दें। मेहं गुल्मरुजं च किं वहुगिरा हन्याद्गदान्दु स्तरान् ॥ तत्पश्चात् उसमें उसका १६ वां भाग सेव्यमाने रसे चास्मिन्बिलमेकं च वर्जयेत । वैक्रान्त भस्म मिलाकर सुरक्षित रक्खें । स्वस्थः सर्व समश्नीयाद्गदी पथ्यं गदापहम् ॥ । इसमें से नित्य प्रति १ रत्ती औषध हर्र, ___ कान्तलोह भस्म, सोने की भस्म, ताम्र भस्म, सूरण (जमीकन्द) और सेठके (३ माशे) चांदी भरम और अभ्रक भस्म ११-१। तोला तथा चूर्णको धीमें मिलाकर उसके साथ सेवन करने से पारे और गन्धक की कज्जली इन सब के बराबर समस्त प्रकारके पाण्ड, राजयक्ष्मा, उदररोग, ह्लीलेकर सब को एकत्र मिलाकर घोटें । तत्पश्चात् मक, वातव्याधि, मलावरोध, कुष्ठ, संग्रहणी, ज्वराउसमें २॥ पल (१२॥ तोले) शुद्ध सोनामक्खीका तिसार, श्वास, खांसी, अरुचि, सब प्रकारके कफचूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटें । तत्पश्चात् एक रोग, गलरोग, अर्श, मन्दाग्नि, प्रमेह और गुल्म मूषामें १० तोले हरताल का चूर्ण बिछाकर उसके आदि दुस्साध्य रोग नष्ट हो जाते हैं । इसके ऊपर उक्त कजली को रक्खें और फिर उसपर सेवन कालमें बेलके सिवाय समस्त पथ्य १० तोले शुद्ध मनसिल का चूर्ण बिछा दें । इस पदार्थ खाने चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४१६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - (४२७४) पश्चाननो रसः (२) (पश्चाननवटी) । खल्वे तत्परिमर्दित रविजलै कमात्र ददेव, ( र. मं. । अ. ६; यो. चि. । अ. ३.; वै. र. । सिद्धोऽयं ज्वरहस्तिदर्पदलनः पञ्चाननाख्योरसः।। . प्रमे.; न. म. । त. ७) पथ्यश्च देयं दधितक्रभक्तं सिन्धृत्यमौद्गसिक्या सूतं गन्धकचित्रकं त्रिकटुक मुस्ता विषं त्रैफली, समेतम् । चैतेभ्यो द्विगुणैर्गुडैश्च गुटिका वल्लममाणा | गन्धानुलेपो हिमतोयपानं दुग्धश देयं त्वय दाडिमाभ्मः॥ कुष्ठाष्टादशवायुशूलमुदरं शोषप्रमेहादिक, शुद्ध बछनाग २ भाग, मरिच ४ भाग, शुद्ध रोगानीककरीन्द्रदर्पदलने ख्यातो हि पश्चाननः।। गंधक २ भाग, शुद्ध हिंगुल ( शिंगरफ) १ भाग शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, चीता, सोंठ, मिर्च, | तथा ताम्रभस्म १२ भाग लेकर सबको १ दिन पीपल, नागरमोथा, शुद्ध बछनाग, हर्र, बहेड़ा भाकके स्वरसमें खरल करके १-१ रत्तीकी और आमला एक एक भाग लेकर प्रथम पारे और | गोलियां बनावें। यह रस समस्त ज्वरोको नष्ट गन्धककी कज्जली बनावें फिर उसमें अन्य ओष- करता है। घियोका महीन चूर्ण मिलाकर घोटें तत्पश्चात् । पथ्य-दही, तक, भात, सेंधानमक, मूंगका उसमें उस सबसे २ गुना गुड़ मिलाकर ३-३ यूष और मिश्री। रत्तीकी गोलियां बना लें।। यदि इससे अधिक दाह हो तो शरीर पर इनके सेवन से १८ प्रकारके कुष्ठ, वायु, चन्दन अगर आदिका लेप करना और ठंडा पानी, शूल, उदररोग, शोष और प्रमेहादि अनेक रोग दूध तथा अनारका रस पिलाना चाहिये । नष्ट होते हैं। | (४२७६) पश्चाननो रसः (४) (४२७५) पश्चाननो रसः (३) । ( मै. र. । प्रमेह.) ( मै. र. । ज्वर.; र. सा. सं. । ज्वर.; यो. चिं. | म.; र. म. । अ. ६; र. रा. सु. । ज्वरा.; | सूतं गन्धं मृतं लौहं मृतम, समांशिकम् । | सर्वेषां द्विगुणं व मधुना मर्दयेहिनम् ॥ यो. त. । त. २०) शम्भोः कण्ठविभूषणं समरिचं दैत्येन्द्ररक्तं रविः, प्रमेहान विशति हन्ति मूत्राघात तथाश्मरीम् ।। | भक्षयेत्मातरुत्याय शीततोयं पिवेदनु । पक्षौ सागरलोचनं शशियुतं भागाऽकेसाया- मूत्रकृच्छ्रे हरेदुग्रमयं पश्चाननो रसः॥ न्वितम् ।। | शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म और यो. चि. म. में त्रिफलेकी जगह विडंग और अभ्रक भस्म १-१ भाग तथा बंग भस्म ८ भाग गुहकी जगह सबके बराबर भाकका रस लिखा है। २-बेच रहस्य तथा नपुंस्का मृतार्णवमें गुडका | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कन्जली बनावें तत्पअभाव है। श्चात् उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम्] तृतीयो भागः। [४१७] १ दिन शहदके साथ घोटकर ( २-२ रत्ती की)। कि उसमें पानके साथ खानेको लिखा है और गोलियां बना लें। इसमें तुलसीदल तथा मिर्चका अनुपान लिखा है। इन्हें प्रातःकाल शीतल जलके साथ सेवन | उसकी अपेक्षा इसमें निम्न लिखित पाठ अधिक है करनेसे २० प्रकारके प्रमेह, अश्मरी, मूत्राघात | तच्छीत ताम्रभस्मापि गृहणीयात्सुरसा जलैः। और उग्र मूत्रकृच्छू आदि रोग नष्ट होते हैं। याम मर्च ततो वल्लं तुलसीमरिचैर्युतम् ॥ (४२७७) पचाननो रसः (५) इन्ति सर्वज्वरं घोरं विषमश त्रिदोषजम् । धात्रीकल्केन वा युक्त दाहाख्यं विषम जये। (र. रा. सु. । कुष्ठ.) पथ्यं दुग्धोदनं दद्यान्मुद्गयूष सशर्करम् । शुदस्त समं गन्धं त्र्यूषणमुस्ताफलत्र्यम् । ज्वरे धातुगते दधात्पिप्पलीक्षौद्रसंयुतम् ॥ गुइचीचूर्णयेत्तुल्यं चूर्णाच द्विगुण गुडम् ॥ अयं पञ्चाननो नाम विषमज्वरनाशनः॥ द्विगुञ्जां वटिकां खादेन्मासैकागजचर्मनु । सम्पुटके स्वांग शीतल हो जाने पर उसमेंसे रसः पश्चाननो नाम्ना अनुस्यात्तौद्रवाची ॥ औषधको निकाल लें और ताम्रके भस्मीभूत भाग शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सांठ, मिर्च, पीपल, | को भी उसीमें मिलाकर सबको १ पहर तुलसीके नागरमोथा, हरे, बहेड़ा, आमला और गिलोय एक | रसमें घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें। एक भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली तुलसीके रस और काली मिर्चके चूर्णके बनावें तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण | साथ खानेसे घोर सन्निपात और विषम ज्वर नष्ट मिलाकर धोटें फिर उसमें उस सबसे २ गुना | होता है। गुड़ मिलाकर २-२ रत्तीकी गोलियां बनावें।। आमलेके कल्कके साथ सेवन करनेसे दाहयुक्त विषम ज्वर नष्ट होता है। इसे १ मास तक सेवन करनेसे गजचर्म धातुगत ज्वरमें पीपलके चूर्ण और शहनामक कुष्ठ नष्ट होता है। दके साथ देना चाहिये। इसे खाकर ऊपरसे शहद के साथ बाबचीका | यह रस विषम ज्वरेके लिये विशेष उपचूर्ण खाना चाहिये। योगी है। पशाननो रसः (६) (दाह युक्त ज्वरमें ) पथ्य-दूध भात (शीतभञी रसः) तथा मिश्रीयुक्त मूंगका यूष। (र. सा. सं.; र. र. स.; मै. र.; र. रा. सं.; र. (४२७८) पञ्चाननो रसः (७) च.; र. चि.; र. सं. क.; भा. प्र.; शा. ध.; ___(पश्चाननरसलौहम् ) र. प्र. सु. । ज्वरा.) (भै. र.; र. र. । आमवातरो.) ज्वरारिरस सं. २१७० देखिये। जारितं पटित लौरचूर्ण पापलन्ततः । उसमें और इसमें केवल इतना ही अन्तर है । गुग्गुलोः पलपवाय लोहा एतमभ्रकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४१८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि शुद्धस्तमभ्रसमं गन्धक तथा मतम् । करछीसे चलाते हुवे मन्दाग्नि पर पकावें । जब त्रिगुणामयसश्चूर्णात् कृत्वाता त्रिफलां नयेत् ।। अवलेह तैयार हो जाय तो उसमें २॥ तोले शुद्ध दत्वा हिरष्टपानीयमष्टभागावशेषयेत् । पारद और २॥ तोले शुद्ध गन्धककी कज्जली तेन चाटावशेषेण पचेल्लोहाभ्रगुग्गुलम् ॥ तथा बायबिडंग, सेठ, धनिया, गिलोयका सत, घृततुल्यं शतावर्या रसं दत्त्वा तथा शुभम् । जीरा, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, प्रस्थं प्रस्था दुग्धस्य शनैर्मदमिना मिषक् ॥ | निसोत, दन्तीमूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, इलालोहमय्या पचेदा पात्रे चायसि मृण्मये। यची और नागरमोथे में से हरेकका चूर्ण २॥ २॥ ततः पाकविधिज्ञस्तु पाकसिद्धे विनिक्षिपेत् ॥ तोले मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर सुरक्षित रसकजलिकां कृत्वा दत्वा चापि विशुद्धयेत् । रक्खें। विडा नागरं धान्यं गुडूचीसत्वजीरकान् ॥ पञ्चकर्म द्वारा शरीर शुद्धि करनेके पश्चात् पञ्चकोल त्रिदन्ती त्रिफलैला च मुस्तकम्। । इसे जरासे घी और शहदमें मिलाकर गिलोय, सांठ मुचूर्णितं च प्रत्येकं चूर्णमर्द्धपलन्तथा ॥ और अरण्ड मूलके कायके साथ सेवन करनेसे उत्तार्य स्थापयेद्भाण्डे सिद्धे चापि सुरक्षितम् । आमातका नाश होता है। घृतेन मधुना पश्चान्मईयित्वानुपानतः॥ सन्धिवात, कर्णशूल, दारुण कुक्षिशूल, गुचीनागरैरण्डं काथयित्वा जलं पिबेत् ।। भक्षयेच्छुद्धदेहस्तु शुभेऽहनिसुरार्चकः ।। जंघाशूल, पादाङ्गुली-शूल, गृध्रसी, अग्निमांध, आमवातमहाव्याधिविनाशाय महौषधम् । | गुल्म, शोध, कामला और दुःसह पाण्डु रोगके सन्धिवात कर्णशूलं कुतिशूलं सुदारुणम् ॥ लिये यह एक उत्तम औषध है। जापादाङ्गुलीशूलगृध्रसीममिमान्यताम् ।। (४२७९) पचाननो रसः ( ८ ) गुल्मं शोथ कामलाच पाण्डुरोग सुदुःसहम् ।। ( भै. र. । गुल्म.; र. चिं. । अ. ९; र. रा. सु.; आमवातगजेन्द्रस्य केसरी मुनिनिर्मितः ॥ र. सा. सं. । गुल्म.) हर, बहेड़ा और आमला १५ पल (७५ | पारदांशकतुत्या गन्धं जैपालपिप्पली। तोले ) लेकर अधकुटा करके उसे ३० सेर पानीमें | आरवधफलान्यज्ज वजीतीरेण भावयेत् ॥ पकावें और जब आठवां भाग ( ३॥ सेर ) पानी | धात्रीरसयुतं खाद्भक्तगुल्मपशान्तये। शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें लोहभस्म | चिश्वादलरसखानु पर्थ्य दध्योदनं हितम् ॥ ५ पल ( २५ तोले ), शुद्र गूगल २५ तोले शुद्ध पारा, शुद्ध नीलाथोथा, शुद्ध गन्धक, और अभ्रक भस्म १२॥ तोले तथा २ सेर गायका शुद्र जमालगोटा, पीपलका चूर्ण और अमलतासका मी, २ सेर शतावरका रस और २ सेर गायका गूदा समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की दूध मिलाकर लोहे या मिट्टीके पात्रमें लोहेकी | कजली बनावें फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] सतीयो भागः। [४१९] कर सबको १ दिन सेंड ( सेहुंड-थोहर ) के | तदा तु पञ्चामृतपर्पटीति दूधमें घोटकर ( २-२ रत्तीकी ) गोलियां बनालें। स्मृतं ज्वराशेषविशेषहारि । इन्हें आमलेके रसके साथ सेवन करनेसे | कासक्षयार्ध्वग्रहणीगदनं । रक्तगुल्म नष्ट होता है। वल्लद्वयं क्षौद्रकणावलीढम् ॥ दवा खाकर ऊपरसे इमलीके पत्तोंका रस ताम्रभस्म, शुद्ध पारा, सीसाभस्म, लोहभस्म पीना चाहिये। और बंगभस्म १-१ भाग तथा शुद्ध गन्धक सबसे २ गुना लेकर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली पथ्य-दही भात । बनावें फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर खूब (४२८०) पञ्चामृतचूर्णम् घोटें । तत्पश्चात् एक लोहेके पात्रमें जरासा घी (र. र. । अजीर्णा.) चुपड़ कर उसमें इस कज्जलीको मन्दाग्नि पर पारद गन्धकं लौह ताम्रमभ्रकमेव च। पिघलावें और फिर उसे गायके ताजे गोबर पर एषां माषकमेकैकं जम्बीरद्वभावितम् ॥ | केलेका पत्ता बिछाकर उसपर फैला दें और जल्दीसे देयं त्रिकटुना तुल्यं सम्पगुनाचतुष्टयम् । उसके ऊपर दूसरा पत्ता ढककर उसे गोबरसे दबा दें। तमतोयानुपानेन वहिमान्यहरं परम् ॥ जब स्वांगशीतल हो जाय तो पर्पटी को निकाल शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, ताम्र कर सुरक्षित रक्खें। भस्म और अभ्रकभस्म १-१ माषा लेकर कज्जली । इसे ६ रत्तीकी मात्रानुसार पीपलके चूर्ण बनाकर उसे जम्बीरी नीबूके रसमें घोटकर चार और शहदके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकार के चार रत्तीकी गोलियां बना लें। ज्वर, खांसी, क्षय, अर्श और संग्रहणी आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। इन्हें त्रिकुटे ( सेठ, मिर्च, पीपल ) के चूर्णके साथ मिलाकर गर्म पानीके साथ सेवन (४२८२) पञ्चामृतपर्पटी (२) (भैरवनाथी) करने से अग्निमांद्य नष्ट होता है। ( र. र. स. । उ. ख. अ. १४; र. रा. सु. । राजय.) (न्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती।) सुवर्ण रजतं तानं सत्त्वाऽभ्रं कान्तलोहकम् । (४२८१) पश्चामृतपर्पटी (१) क्रमवृद्धमिदं सर्व शाणेयौ नागवङ्गको । द्रावयित्वैकतः सर्व रेतयित्वा ततश्चरेत् । (वै. र. । ज्वरचि.) पृथक पलमितं गन्धं शिलाऽऽलं विनिधाय च ।। रविरसभुजगायोवन्तो गन्धकस्य सर्व खल्वे विनिक्षिप्य मईयेदम्लवर्गतः । द्विगुणरचितमागं द्रावयेल्लोह उष्णम् । ताप्यं नीलाअनं तालं शिलां गन्धश्च चूर्णितम् ॥ समविनिहितपकास्थायिरम्भादलस्य दत्त्वा दत्त्वा पुटेतावद्यावदिशतिवारकम् । तदितरदलयोगात्मसं यत्समन्तात् ॥ कोहाद् द्विगुणसूतेन ततो द्विगुणगन्धतः ॥ For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - [४२०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि विषाय कज्जलीं श्लक्ष्णां क्षिप्त्यात लोहपात्रके अग्निमान्य विशेषेण इन्तीयं पर्पटी ध्रुवम् । द्वाक्येहदराबादुमिश्वाऽथ निक्षिपेत् ॥ एवं समूब दातव्या रोगेषु भिषगुत्तमैः ।। हेमादिपालोहाना भस्म चाऽय बिलोरयेत् । | वत्तद्रोगहरेर्योगैस्तत्तद्रोगाऽनुपानतः । अथ तत्कदलीपत्रे गोमयस्ये विनिक्षिपेत् ॥ क्षयादिसर्वरोगनी स्यात्पञ्चामृतपर्पटी। पत्रेणान्येन संच्छाय कुर्याधत्नेन पर्पटीन् । | तेलसर्पपविलाऽम्लकारवेल्लकुमुम्भकम् । तस्योपरि क्षिपेत्सयो गोमयं स्तोकमेव च ॥ त्यजेत्पारावतं मांसं वृन्ताक कुक्कुटं तथा ॥ ततः शीतं समाहत्य पटपूतं विधाय च ।। ___शुद्ध स्वर्ण १ कर्ष (१। तोला ), शुद्ध निक्षिपेवंदडायां पालिकायां ततः परम् ॥ । चांदी २ कर्ष, शुद्ध ताम्र ३ कर्ष, अभ्रक सत्व ४ पूर्वपदरागामिः द्रावयेच्छनैः। कर्ष और शुद्ध लोह ५ कर्ष तथा ५-५ माशे शुद्ध तुल्याऽऽलकशिलागन्ध पलार्धविरभावितम् ।। सीसा और बंग लेकर सबको एकत्र गलाकर ठण्डा पूर्वपर्पटिका तुल्यं तस्मादल्प मुहुर्मुहुः ।। करें और फिर उसे रेतीसे रितवाकर बारीक पूर्ण जारयेत्पालिकामध्ये दखेत च न पर्पटी॥ | करावें । तत्पश्चात् उसमें ५-५ तोले शुद्ध गन्धक पालिकेतिविनिर्दिष्टा स्नेहक्षेपणयन्त्रिका । मनसिल और हरतालका चूर्ण मिलाकर १ दिन जीर्णे सालादिके चूर्णे पटपूतं विधीयताम् ।। अम्लवर्ग में घोटकर छोटी छोटी टिकिया बनाकर पूतीकरअषट्कोलव्याघ्रीशोभाअनातिभिः । सुखा लें और फिर उन्हें ५-५ तोले सोनामक्सी, इतः पचपलैः कायं षोडशांशाऽवशेषितम् ॥ सुरमा, हरताल, मनसिल भऔर गन्धकके पूर्णक तेन काणेन संस्वेद्य शोषयेत्सप्तपा हि ताम् । बोच में रखकर शरावसम्पुट करके गजपुटमें फूंक विपतिन्दुफलोद्भूत रसैनिर्गुण्डिकोत्यितैः॥ | दें। जब स्वांग शीतल हो जाय तो सम्पुटमें से विभाज्य पलिकामध्ये लिप्त्या बदरपाबके। टिकियों को निकालकर नीबू आदिके रसमें पोटईपत्मस्वेदनं कृत्वा स्थापयेदतियत्नतः ॥ कर पुन: टिकिया बनाकर सुखा लें और उन्हें उक्ता भैरवनायेन स्यात्पशामृतपर्पटी। । उपरोक्त सोनामक्खी आदि पांचों चीजों के ५-५ म्योपाज्यसहिता लीडा गुलाबीजेन सम्मिता॥ तोले मिश्रित चूर्णके मध्यमें रखकर शराव सम्पुट सर्वलक्षणसम्पूर्ण विनिहन्ति क्षयाऽऽमयम् । करें और गजपुट में फूंक दें । इसी प्रकार इन पांच भासं कासं विसूचीज प्रमेहमुदराऽऽमयान् ॥ चीज़ोंके चूर्ण के साथ कुल मिलाकर २० पुट दें। अरोपका दुःसाध्यं प्रसेकं छर्दिहन्दम् । अब १० कर्ष (१२॥ तोले ) शुद्ध पारद सर्वज गुदरोगा शूलकुष्ठान्यशेषतः॥ और २० कर्ष शुद्ध गन्धककी कजली बनाकर पातज्वरश विड़पन्ध ग्रहणी कफनान्गदान् । उसे लोहे को कढ़ाई में (जरासा घी चुपड़कर) एकत्रिदोषोत्यान् रोगानन्यान्महागदान ॥ बेरीके कोयलेकी मन्दाग्नि पर- पिपलावें। For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ]] तृतीयो भागः। [४२१] अब वह अच्छी तरह पिघल जाय तो उसमें उप-। इसमें से १ रत्ती दवा त्रिकुटे के चूर्ण और रोक्त स्वर्णादि की भस्म डालकर उसे अच्छी तरह | घीके साथ सेवन करनेसे सम्पूर्ण लक्षणयुक्त चलावें और फिर गायके ताजे गोबर पर केलेका | क्षयरोग, श्वास, खांसी, विसूचिका, प्रमेह, उदररोग, पत्ता बिछाकर उसपर इस पिघले हुवे रस को डाल दें। अरुचि, दुःसाध्य प्रसेक, छर्दि, हृद्रोग, सर्वदोषज और उसपर दूसरा पत्ता रखकर उसे गोबरसे ढक | अर्श, शूल, कुष्ठ, वातज्वर, मलबन्ध, ग्रहणी, कफज दें। जब स्वांग शीतल हो जाय तो पर्पटी को रोग तथा एक दोषज द्विदोषज और सन्निपातज निकालकर पीसकर कपड़ेसे छान लें। | अनेक महान रोग और विशेषतः अग्निमांप नष्ट इस चूर्ण को लम्बे डंडे वाली घी तैल आदि | होता है । निकालने की पलो में डालकर पूर्ववत् बेरीकी मन्दाग्नि इसे जिस रोगमें देना हो उसी को नष्ट करने पर पिघलावें और उसमें शुद्ध हरताल, मनसिल | वाले योगके साथ मिलाकर रोगोचित अनुपानके और गन्धकका समभाग मिश्रित, तथा बछनागके | साथ देना चाहिये। काथमें घोटकर सुखाया हुवा, चूर्ण थोड़ा थोड़ा डालकर जलावें। ध्यान रखना चाहिये की पर्पटी परहेज़-सरसों, तैल, बेल, खटाई, करेला, न जल जाय । जब हरतालादिका मिश्रित चूर्ण कुसुम, कबूतरका मांस, बैंगन और मुरगेका उस पर्पटीके बराबर जल चुके तो पालीमेंसे औष मांस । यह चीजें अपध्य हैं। धको निकालकर ठण्डा करके कपड़छन चूर्ण करले। (४२८३) पञ्चामृतपर्पटी रसः (३) तत्पश्चात् प्रतिकरञ्ज, पिप्पली, पीपलामूल, | (वै. जी. । वि. ५; वृ. नि. र. । ज्वराति.; यो. चव, चीता, सांठ, काली मिर्च, कटैली और सह र. । ग्रह.; र. रा. सुं. । अतिसा.) जनेकी जड़की छाल २५--२५ तोले लेकर सबको अधकुटा करके ८ गुने पानीमें पकावें और जब | लोहाभ्रार्करसं समं द्विगुणितं गन्धं पचेको१६ वां भाग पानी शेष रह जाय तो उसे छान लिकालें और फिर उसके सात भाग करके १ भाग काष्ठाग्नौ मृदुले निधाय सकलं लोहस्य पात्रे उपरोक्त पर्पटीके चूर्णमें मिलाकर मन्दाग्नि पर भिषक् ॥ जलावें । इसी प्रकार सात बारमें समस्त काथ सर्व गोमयमण्डले विनिहिते रम्भादले विन्यसेजला दें। | तस्यो? कदलीदलं द्रुततरं वैधेश्वरो निक्षिपेत्।। इसके बाद उसे कुचले के स्वरस और संभा- | स्यात्पशामृत्पर्पटी ग्रहणिकायक्ष्मातिसारज्वरलूके रसकी एक एक भावना देकर पलीमें डालकर स्त्रीरुक्पाण्डुगराम्लपित्तगुदजान्मान्धविध्वंसिनी बेरोकी मन्दाग्नि पर गर्म करें। जब सब पानी सूख / ग्रहण्यामनुपानं च हिसैन्धवजीरकम् । जाय तो पीसकर सुरक्षित रखें। | जीरक पाण्डुगरयोरितरेषु स्वयुक्तितः॥ For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि लोहभस्म, अभ्रकभस्म, ताम्रभस्म और शुद्र नानावर्णग्रहण्यामरुचिसमुदये दुष्टदुर्नामकादौ, पारा १-१ भाग तथा शुद्ध गन्धक २ भाग लेकर छौँ दीर्घातिसारे ज्वरभरकलिते रक्तपित्ते सब की कजली बनाकर उसे लोहेके पात्रमें जरासा क्षयेऽपि । घी लगाकर उसमें डालकर बेरीकी लकड़ीकी मन्दाग्नि दृष्याणां वृष्यराशी बलिपलितहरा नेत्ररोगपर पिघलावें । जब अच्छी तरह पिघल जाय तो कहन्त्री , गायके ताजे गोबरको ज़मीनपर फैलाकर उसपर तुन्दं दीप्तस्थिराग्नि पुनरपि नवकं रोगिदेह केलेका पत्ता बिछाकर उसपर वह पिघली करोति ॥ हुई कजली डालकर उसके ऊपर दूसरा पत्ता रख पाकोऽस्यास्त्रिविधः प्रोक्तो मृदुमध्यः खरस्तथा, दें और उसे गोबरसे ढक दें । जब स्वांग शीतल आधयोश्यते मृतः खरपाके न दृश्यते । हो जाय तो पर्पटीको निकालकर सुरक्षित रक्खें । मृदौ न सम्यग्भङ्गोऽस्ति मध्ये भङ्गश्च रौप्यइसके सेवनसे संग्रहणी, राजयक्ष्मा, अतिसार, वत् ॥ ज्वर, स्त्रीरोग, पाण्डु, विष, अग्लपित्त, अर्श और खरेऽलघुर्भवेभङ्गो रूक्षः श्लक्ष्णोऽरुणच्छविः। अग्निमांद्यका नाश होता है। मृदुमध्यौ तथा खाद्यौ खरस्त्याज्यो विषोपमः॥ इसे संग्रहणीमें भुनी हुई हींग, जीरा, और सेंधा नमक के साथ तथा पाण्डु और विषरोगमें शुद्ध गन्धक ८ तोले, शुद्ध पारा ४ तोले, जीरेके साथ एवं अन्य रोगोंमें रोगोचित अनुपानके लोहभस्म २ तोले, अभ्रकभस्म १ तोला और ताम्रभस्म आधा तोला लेकर सबको लोहेके खरल साथ देना चाहिये। (४२८४). पञ्चामृता पर्पटी (४) | में लोहेकी मूसलीसे घोटकर कजली बनावें । और ( मै. र.; र. च.; र. सा. सं.; र. र. । ग्रह.; र. फिर लोहेकी कढ़ाई में ज़रासा घी लगाकर उसमें इस कज्जली को बेरी की मन्दाग्निपर पकावें । जब रा. सु. । अति.; रसें. चिं. म. । अ. ९) कज्जली पिघल जाय तो उसे गायके ताजे गोबरपर अष्टौ गन्धकतोलका रसदलं लौहं तदई शुभम्, | केलेका पत्ता बिछाकर उसपर फैला दें और उसके लौहार्द्धश्च वराभ्रकं सुविमलं तानं तदभ्रार्द्धरावमल तात्र तदनाद ऊपर दूसरा पत्ता रखकर गोबरसे दबा दें। जब | स्वांग शीतल हो जाय तो निकालकर पीस लें । पात्रे लौहमये च मर्दनविधौ चूर्णीकृतश्चैकतः, दळ वादरवह्निनातिमृदुना पाकं विदित्वा दले। इसे शहद और घीके साथ लोहपात्रमें खरल रम्भाया लघु ढालयेत् पटुत्यिं पञ्चामृता पर्पटी, करके सेवन करना चाहिये । ख्याता क्षौद्रघृतान्विता प्रतिदिनं गुञ्जाद्वयं वृद्धितः इसे २ या ३ रत्तीसे प्रारम्भ करके ४ दिन लौहे मर्दनयोगतः सुविमलं भक्ष्य क्रिया लौहवत् तक रोज़ाना २-२ रत्ती बढ़ाकर और फिर रोजाना गुआष्टावथवा त्रिकं त्रिगुणितं सप्ताहमेवं भजेत्।। २-२ रत्ती घटाकर सेवन करनेसे १ सप्ताहमें For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४२३] अनेक प्रकारकी संग्रहणी, अरुचि, दुष्ट अर्श, छर्दि, । वज्रीक्षीरेण सम्पिष्य प्रक्षिपेच्च शरावके । पुराना अतिसार, ज्वर, रक्तपित्त और क्षयका नाश | भूमावेव पुटो देयो लावकः पुटसप्तकम् ॥ होता है। युक्त्याऽनया मृतं हेम चूर्ण कृत्वा सुसूक्ष्मकम् । __यह अत्यन्त वृष्य, बलिपलित और नेत्ररोग पीतानां च कपर्दीनां गधाणा वेदसङ्ख्यकाः ।। नाशक तथा अग्निदीपक है। इसके सेवनसे रोगी । शसस्यापि हि चत्वारो मिश्रितं सूक्ष्मचूणितम्। मनुष्यका शरीर पुनः नवीन हो जाता है। द्वयहं सेहुण्डदुग्धेन हयर्कदुग्धेन च व्यहम् ।। पर्पटीका मृदु, मध्यम और खर तीन प्रकार चित्रकारसेनैव द्वयहं खल्वे प्रमदयेत् ।। का पाक होता है । मृदु और मध्यम पाकमें पारा एवं षड्वासरं पिष्ट्वा गद्याणान्वसुसङ्ख्यकान्।। दिखलाई देता है और खरपाकमें नहीं देता। मृदु मृतकान्तायसो वेदा वेदाश्च मृतहेमजाः। पाक पर्पटी अच्छी तरह नहीं टूटती, मध्यम पाक एवं षोडशगवाणांश्च हयाचित्ररसेन च ॥ तोड़ने से चांदीकी सी चमक दिखलाई देती है | दिनैकं मर्दयेत्खल्वे गुटीः कृत्वाऽथ शोषयेत् । और खरपाक पर्पटी तोड़नेपर कुछ कुछ ललाई ततश्चूर्णेन मृदुना पककुल्हरिकान्तरम् ॥ दीख पड़ती है। लिप्त्वा शुष्के वटीः क्षिप्त्वा चूर्णलिप्सपिधानया। __ मृदु और मध्यम पाक पर्पटी सेवनोपयोगी दत्त्वा वस्त्रमृदा लिप्तं देयं गर्ने पुटद्वयम् ॥ होती है और खरपाक विषके समान त्याज्य है। पेषयेच समाकृष्य शीतकुल्हरिकाद् गुटीः । (४२८५) पञ्चामृतपोटलीरसः | रसोऽसौ जायते श्रेष्ठः पञ्चामृतसुपोटली ॥ (र. चि. म. । अ. ७) | वल्लोऽस्य च रसस्य स्याद द्वात्रिंशमरिचैः प्रत्येकमेकगद्याणं शुद्धमूतस्वर्णयोः। ___ समम् । खल्वे पिष्ठा त्र्यई कार्या पिष्टी सूक्ष्मा सुवर्णजा।। धृतमिश्रः प्रदातव्यो हयतिसारे ज्वरे तथा ।। वखे क्षिप्त्वाऽथतां पिष्टी ग्रन्थि दद्यादृढं ततः । देयः सर्वातिसारेषु शूलेषु विविधेषु च । मृन्मयी गोस्तनाकारा मूषा तस्यां तिपेच्च ताम्।। बलक्षीणेषु मन्दानौ वातव्याप्तेषु रोगिषु ॥ भाण्डं च बालुकापूर्ण मूषां तत्रान्तरे क्षिपेत् । अष्टादशममेहेषु सर्वाजीर्णगदेषु च । चुल्यामारोप्य ते भाण्ड हठानि ज्वालयेदधः। एते रोगा विलीयन्ते क्रमात्संसेविते रसे ॥ शुद्धगन्धकगद्याणानष्टौ मृषान्तरे क्षिपेत् । कांस्यपात्रे न भोक्तव्यं क्षाराम्लं वर्जयेत्सदा । गलिते गन्धके जाते तिलतैलस्य सनिभे ॥ शालयो दधिदुग्धं च भोजनं मधुरं स्मृतम् ।। पक्षिपेदेमजां पिष्टी ग्रन्थिबद्धां च गन्धके । । शुद्ध पारा और शुद्ध स्वर्णके कण्टकवेधी क्षेप्यं गन्धकगधाणं मुहुर्दग्धे च गन्धके ॥ पत्र ६-६ माशे लेकर दोनोंको ३ दिन तक एवमेवमहोरात्रं स्वेद्या पिष्टी च हेमजा। घोटकर सूक्ष्म पिट्ठी बनावें और उसे कपड़ेमें बांध शुद्धगन्धकगधाणं द्वययुकां दिनद्वयम् ॥ कर मज़बूत गांठ लगा दें। For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४२४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - अब एक गोस्तनाकार मिट्टीकी मूषाको रेतसे । के मुखको चूनेसे पुते हुवे ढकनेसे बन्द करके भरी हुई हाण्डीमें रखकर चूल्हे पर चढ़ा दें और उसपर ४-५ कपडमिट्टी कर दें। तत्पश्चात् नीचे तीब्राग्नि जलावें । जब मूषा गर्म हो जाय तो उसे सुखाकर गढ़ेमें रखकर २ लघुपुट लगावें । उसमें ४ तोले गन्धक डाल दें और उसके पिघल | और फिर कुल्हड़के स्वांग शीतल हो जानेपर उस कर तेलके समान हो जाने पर उसमें उपरोक्त पोटली मेंसे गोलियों को निकालकर पीस लें । इसका नाम डाल दें तथा उसके ऊपर ६ माशेगन्धकका चूर्ण और "पञ्चामृतपोटलीरस" है। डाल दें। जब ऊपरवाला गन्धक जलने लगे तो । इसमें से ३ रत्ती रस ३२ काली मिर्चों के फिर ६ माशे गन्धक और डालें इसी प्रकार बारबार | चूर्ण में मिलाकर घीके साथ देनेसे ज्वर, अतिसार, गन्धकका चूर्ण डालते हुवे २४ घण्टे तक पाक शूल, बलकी क्षीणता, अग्निमांद्य, वातव्याधि अठाकरें । तत्पश्चात् १-१ तोला गन्धक डालते हुवे | रह प्रकारके प्रमेह और अजीर्णका नाश होता है । २ दिन और पकावें । तत्पश्चात् हांडीके स्वांग पथ्य-शाली चावल, दही, दूध और मधुर शीतल होनेपर उसमें से स्वर्ण पिष्टीको निकालकर | | पदार्थ । उसके ऊपरकी गन्धक छुड़ाकर पीस लें और उसे सेंड अपथ्य-क्षार और अम्ल पदार्थों का त्याग (सेहुंड) के दुधमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखा लें करना तथा कांसीके पात्रमें भोजन न करना चाहिये। एवं यथाविधि शरावसम्पुट में बन्द करके सुखाकर लावकपुटमें फूंक दें । इसी प्रकार सेंडके दूधकी ७ पञ्चामृतमण्डूरम् पुट देनेसे स्वर्णभस्म तैयार हो जायगो । (पञ्चामृतलोहमण्डूर देखिये । ) ___ अब पीलीकौड़ी २ तोले और शंख दो तोले । (४२८६) पञ्चामृतरसः (१) लेकर दोनों को एकत्र पीसकर २ रोज सेंडके दूध (रसे. मं. । सर्वरोगा.) में, २ रोज़ आकके दूधमें और १-१ दिन चीते मृतरसपलमेकं सस्वमेकं गुहूच्याके काथ तथा अद्रकके रसमें घोटें। इस प्रकार ६ त्रिकटुकपलयुग्म रक्तचित्रस्य चैव । रोज़ मर्दन करनेके पश्चात् उसमें २ तोले कान्त | त्रिफलपुरकटुकीनेप्रसन्यापलानि लोहभस्म और २ तोले उपरोक्त स्वर्ण भस्म मिला इति मिलितसमस्तं सौरसारण घृष्टम् ॥ कर सब को १-१ दिन चीतेके काथ और अद्रक | घृतमधुसितमिश्रं मर्दितश्चैकरात्रं के रसमें घोटकर छोटी छोटी गोलियां बनाकर | प्रतिदिनमिह खादेन्माषकाणां दशैव । सुखा लें। हरति विविधरोगान् राजरोगश पाण्इं तत्पश्चात् मिट्टीकी एक पक्की कुल्हिया हृदयजठरशूलं वासकासाऽमिमान्धम् ॥ (कुल्हड़) के भीतर पत्थरके चूनेका लेप करके | शिरसिजगुदरोगाऽभौसि गुल्मोदराणि सुखा लें और उसमें उपरोक्त गोलियां भरकर उस | हरति किल चिरोत्थान्याच कुष्ठादिकानि । For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४२५] बलिपलितविनाशो वज्रकायो बलिष्ठो स्वर्णभस्म १ भाग, चांदी भस्म २ भाग, रविशशिसमकालं चाऽऽयुराप्नोति विद्वान्।। ताम्रभस्म ३ भाग, कृष्णाभ्रक भस्म ४ भाग, शुद्ध पारद भस्म १ पल ( ५ तोले ), गिलोयका | पारद ५ भाग और गन्धक ६ भाग लेकर प्रथम सत्व १ पल, त्रिकुटा, लाल चीता, त्रिफला, कुटकी पारे गन्धकको कन्जली बनावें और फिर उसमें और शुद्ध गूगल २-२ पल लेकर सबका महीन अन्य औषधे मिला कर उसे १-१ दिन संभालु, चूर्ण बनावें और उसे तुम्बरुके काथमें घोटकर दशमूल, चीता, हल्दा, त्रिकुटा और अदरक में उसमें उसके बराबर धी शहद आर खांड मिलाकर से जिनके स्वरस मिल सकें उनके स्वरस के तथा एकदिन घोटफर चिकने पात्र में भरकर रख दें। | शेष ओषधियोंके काथके साथ घोट कर गोलियां ___ इसमेंसे १० माशे दवा प्रति दिन खानेसे | बनाकर रख छोड़ें। राजयक्ष्मा, पाण्डु, हृच्छूल, उदरशूल, श्वास, खांसी, यह रस समस्त रोगोंको नष्ट करता है। अग्निमांद्य, शिरोरोग, गुदरोग, अर्श, गुल्म, उदर ( वृहयोग तरङ्गिणी के पाठके अनुसार रोग और पुराने कुष्ठ शीघ्र ही नष्ट होकर मनुष्य इसमें पारद भस्म ४ भाग और अभ्रक सत्व ५ बली पलित रहित, बलिष्ठ और दीर्घायु हो जाता है। भाग पड़ना चाहिये तथा गन्धक न डालकर सेठ, (४२८७) पञ्चामृतरसः (२) मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, दालचीनी, (र. चं. । वाजीकरणा.; र. र. । रसायन. ) इलाय वी, तेजपात, बायबिडंग और नागरमोथेका | चूर्ण १-१ भाग डालना चाहिये तथा अन्य भस्मीभूतसुवर्णतारदिनकृतकृष्णाभ्रसूतैः क्रमात् । द्रव्यांकी भावनासे पूर्व १ भावना कायफलके काथ गन्धानां खलु भागवृद्धिरपि तत् कृत्वा शुभां | को देनी चाहिये ।। (४२८८) पञ्चामृतरसः (३) निर्गुण्डीदशमूलवहिरजनीव्योषाकैर्भावितैः । (र. का. धे. । रा. य.) गोलीकृत्य विशोष्य तनिगदितः पञ्चामृतः गन्धकः पारदः शुद्धो मृतं नाग विषं तथा । स्याद्रसः॥ मरिचं शहनामित समानेतान् विचूर्णयेत् ॥ नानेन सदृशः कोऽपि निवसेभुवनत्रये ।। गुञ्जाद्वयमितो देयो नासाकर्णप्रपूरणे । निहन्ति सकलान् रोगान् भवरोगमिवाच्युतः॥ श्रावेरसेनायं त्रिदोषक्षयकासनुत् ।। अयं पञ्चामृतो नृणां त्रिदशानामिवामृतम् ।। | ज्वरितस्य हितः मूतो रोगनः स्तम्भनाशकः । -वृहद्योगतरङ्गिणी तथा योगरत्नाकरमें-दिनकृत्सू- | रसः पञ्चामृतो नाम सर्वरोगहरो भवेत् ॥ ताभ्रसत्वेः क्रमात् ' पाठ है तथा प्रथम श्लोकका उत्त शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारट सीसा भस्म, शुद्ध राचं इस प्रकार है " संवृस्त्रितयं त्रिभिः कृमिहराम्भोदैयुतः कट्फलैः । " इसका नाम भी “ पञ्चामृताख्यरस" | बछनागका चूर्ण, काली मिर्चका चूर्ण और शंख भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४२६] [ पकारादि कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधांका गुडपाकसमानेन च वहिस्थे तान्यौषधानि चूर्ण मिलाकर खरल करके रखें । भिषक् । भारत - भैषज्य - इसमें से २-२ रत्ती चूर्ण अदरक के रसमें मिलाकर नाक और कान में भरनेसे त्रिदोषज क्षय, खांसी, ज्वर और स्तम्भादिका नाश होता है । (४२८९) पञ्चामृतरस: (४) ( रसे. मं. । रसा. ) पूर्वं यानि विशोधितानि च पुनः कान्तावानि च कान्येव हरेच्च गन्धकसभान्येतानि सम्भेलयेत् । तच्चूर्ण सघृतञ्च शोधितरसं उत्तारणीयमग्नेर्भूमौ संस्थापनीयञ्च ॥ attarai free, तस्मिथ स्थिरमानसः सुविधिना कार्य सुतसंक्षिपेत् ॥ पञ्चामृतमूलेन दशमूलेनवर्गमूलेन । मधुसञ्जीवनीमात्र विदारिमूलेन च काथः ॥ गुडूची हस्तिकर्णी च मुशली श्रावणी तथा । शतावरी च पञ्चैताः क्वाथः पञ्चामृतो मतः ॥ ऋषभकजीवकयुक्तं मेदायुग्मञ्च ऋद्धिवृद्धी च काकोलीयसहितं वाथः कथितोऽष्टवर्गस्य ॥ श्रीपर्णिका च बृहती च वसन्तदूती, कान्त लोहभस्म, अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म १- १ भाग शुद्ध गन्धक ३ भाग तथा शुद्ध पारद ३ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की कज्जली बनायें और फिर उसमें अन्य चीजें मिलाकर उसमें जरासा घी डालकर अच्छी तरह खरल कर लें। और फिर उसे लोहे की कढ़ाई में डालकर आग पर चढ़ा दें एवं उसमें क्रमशः पञ्चामृतमूल, दशमूल, अष्टवर्गमूल, जीवन्ती, भंगरा और विदारीकन्दका काथ थोड़ा थोड़ा डालकर २-२ घण्टे पकावें । ( हरेक चीज के काथमें २ घण्टे पकाना चाहिये | कुल काथ एक साथ न डालकर थोड़ा थोड़ा डालकर जलाना चाहिये और एक काथमें पका चुकनेके बाद दूसरा काथ थोड़ा थोड़ा करके डालना चाहिये ।) इस प्रकार प्रात: काल से सन्ध्याकाल तक इन छः काथोंमें पकायें और अन्तमें जब औषध अवलेहके समान गाढ़ी हो जाय तो उसमें चीता, काकड़ासिंगी और सांठ, मिर्च तथा पीपलका समान भाग मिश्रित चूर्ण ९ भाग मिलाकर गुड़ के समान गाढ़ा करके उतार लें और ठंडा करके चिकने बरतन में भरकर रख दें। । व्याघ्रयग्निमन्थशुकनासकशालपर्ण्यः । - रत्नाकरः । बिल्वञ्च गोक्षुरकमेव सुपृष्टपर्णी, क्वाथो बुधैश्च कथितोदशमूलसज्ञः ॥ ज्वलनस्थं तत्सर्वं शनैः शनैरेव पचनीयम् । प्रभाततश्चाऽऽरम्भितमस्तं याति दिवाकरो यावत् । पाकाऽवसानसमयं ज्ञात्वा तत्रैव चित्रकं शृङ्गीम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह योग रसायन ( जराव्याधि - नाशक ) है । पञ्चामृत -- गिलोय, हस्तिकर्णपलाश, मूसली, गोरखमुण्डी और शतावर । अष्टवर्ग--ऋषभक, जीवक, मेदा, महा त्रिकटुकचूर्णञ्च तथा रसमानं तद्विनिक्षिपेत्प्राज्ञः ।। मेदा, ऋद्धि, वृद्धि, काकोली और क्षीरकाकोली । For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४२७] दशमूल-खम्भारी, कटेली, पाढल, बड़ी । सप्तवारं ततो युभुयाद्वातरक्ते त्रिवल्लकम् । कटेली ( कटेला ), अरणी, अरल, शालपर्णी, बेल, कोकिलाक्षस्य मूलानां पानीयमनुपाययेत् ॥ गोखरु और पृष्टपर्णी ! विधिवत् शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक (४२९०) पश्चामृतरसः (५) १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग, शुद्ध गूगल ४ ( भै. र. । कास.) भाग और गिलोयका सत्व ८ भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बनावें और फिर शुद्धस्तस्य भागैकं भागौ द्वौ गन्धकस्य च । उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको संभालु, गोखरु, भागद्वयं मृतं तानं मरिचं दशभागिकम् ॥ गिलोय और तालमखानेकी जड़के काथकी पृथक् मृताभ्रस्य चतुर्भागं भागमेकं विषं क्षिपेत् । पृथक् सात सात भावना देकर ९-९ रत्तीकी अम्लेन मर्दयेत्सर्व मापैकं वातकासनुत् ॥ । गोलियां बना लें। अनुपानं लिहेत्सौदैविभीतकफलत्वचम् ।। इन्हें तालमखानकी जड़के काथके साथ शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, सेवन करनेसे वातरक्तका नाश होता है । ताम्रभस्म २ भाग, कालीमिर्चका चूर्ण १० भाग, अभ्रक भस्म ४ भाग तथा शुद्ध बछनागका चूर्ण । (४२९२) पञ्चामृतरसः (७) १ भाग लेकर, प्रथम पारे गन्धकी कज्जली | ( र. र. स. । राजय अ. १४; र. चं.; र. र.; बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर __ वृ. नि. र. । राजय.) सबको नीबूके रसमें धोटकर १-१ माशेकी सममृताभ्रलोहानां शिलाजतु विषं समम् । गोलियां बना कर रख छोड़ें! गुडूचीत्रिफलाकाथैः शोधितं गुग्गुलं तथा ॥ इनमें से १-१ गोली शहदमें बहेड़े का मृतं नेपालतानं च मूतस्थाने नियोजयेत् । चूर्ण मिलाकर उसके साथ सेवन करने से वातज एकीकृत्य द्विगुझं तद्भक्षयेद्राजयक्ष्मनुत् ॥ खांसी नष्ट होती है। पञ्चामृतरसो नाम ह्यनुपानं च पूर्ववत् । ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती) हरेत्क्षीराजगन्धाभ्यां जयन्ती वा क्षयापहा॥ (४२९१) पञ्चामृतरसः (६) पारद भस्म, अभ्रक भस्म और लोह भस्म (यो. र. । वा. र.; वृ. नि. र. । वातर.) १-१ भाग तथा शुद्ध शिलाजीत, शुद्ध बछनाग पारदं च क्रियाशुद्धं तत्तुल्यं शुद्धगन्धकम् । और गिलोय तथा त्रिफलेके काथमें शुद्ध गूगल अभ्रकं तु द्वयोस्तुल्यं त्रिभिस्तुल्यस्तु गुग्गुलुः ॥ ३-३ भाग लेकर सबको एकत्र धोटकर २-२ सर्वाशममृतासत्वं भावयेदौषधैः पृथक् । रत्तीकी गोलियां बना लें । निर्गुण्डीगोक्षुरछिन्नाकोकिलाक्षाडिजे रसः।। । इन्हें बनतुलसीके रस और दूधके साथ अथवा For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ४२८ ] पूर्वोक्त ( राजमृगाङ्क रसमें कथित ) अनुपानके साथ देने से राजयक्ष्माका नाश होता है । www.kobatirth.org -भैषज्य - इस रसमें पारदभस्मके स्थानमें नेपाली ताम्र की भस्म भी डाल सकते हैं । (४२९३) पश्चामृतरस: (८) ( भै. र. । शोधा. र. चं. र. रा. सु. र. सा. सं । नासारो.) १ भारत " गन्धं भागद्वयं ततः शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १-१ भाग तथा सुहागे की खील, शुद्ध बछनाग और काली मिर्च का चूर्ण ३ - ३ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधिका चूर्ण मिलाकर पानीके साथ घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना 1 "" शुद्धं मृतं समादाय गन्धकं भागतः समम् ' । त्रिभागं टङ्गणं देयं विषभागत्रयं तथा ॥ भागत्रयं तथा देयं मरिचस्प प्रयत्नतः । (र. प्र. सु. । अ. ७; र. चं. । कास. मृतं सूतं तथा चाभ्रं वङ्ग ताम्रं च कान्तकम् । मेलितं च समांशेन मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः ॥ afi जलयोगेन वटिमेकां च चूर्णयेत् । चूर्णीकृतं जलेनापि पिष्ट्वा रक्तिमितां वटीम् ॥ भक्षितो वलमात्रं हि कृष्णाक्षौद्रेण संयुतः ॥ शृङ्गवेररसेनैव भक्षयेद्वटिकामिमाम् । कासश्वासान्निहन्त्याशु तमः सूर्योदये यथा ॥ जलदोषोद्भवे शोथे घोरेऽत्युग्रे जलोदरे सनिपातेषु घोरेषु विंशतिश्लैष्मिके गदे । ज्वरातिसारसंयुक्ते शोभे चैव जलोदरे ।। शिरःशूलगदे घोरे नासारोगे सपीनसे । पञ्चामृतरसो ह्येष सर्वरोगोपशान्तिकृत् ॥ इति पाठान्तरम् २ भागचतुष्टयमिति पाठान्तरम् । ३ पञ्चभागमिति पाठान्तरम् किन्हीं किन्हीं पुस्तकों में गन्धक २ भाग, विष ४ भाग और मिर्च ५ भाग लिखी हैं एवं अदरक के रस से ५-५ रत्तीकी गोलियां बनाने को लिखा है । - रत्नाकरः । [ पकारादि इन्हें अद्रक के रसके साथ सेवन करने से जलदोषसे उत्पन्न हुवा भयङ्कर शोथ, अत्युग्र जलोदर, धोर सन्निपात, बीस प्रकारके कफरोग तथा ज्वरातिसार युक्त शोथ और जलोदर, भयङ्कर शिरशूल और पीनसादि नासारोग नष्ट होते हैं । (४२९४) पञ्चामृतरस: (९) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारदभस्म, अभ्रक भस्म, बंगभस्म, ताम्र भस्म और कान्तलोहभस्म समानभाग लेकर सबका १ दिन घीकुमार के रस में तथा १ दिन सुगन्धवालाके रसमें घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बनावें । इनमें से १--१ गोली पीपलके चूर्ण और शहद के साथ खाने से खांसी और ख़ास शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । (४२९५) पञ्चामृतरस: (१०) ( र. र. स. । उ. ख. अ. ३०) हेममाक्षिककान्ताभ्रवज्रभस्म प्रवेशयेत् । रसे सहेम्नि सप्ताहं मूलिकारसमर्दितम् ॥ तां पिष्टीं यन्त्रयोगेन पचेत्पश्चामृताह्वयः । रसोऽयं मधुसर्पिर्भ्यां युक्तः पूर्वाधिकोगुणः ॥ स्वर्णमाक्षिक भस्म, कान्तलोहभस्म, अभ्रकभस्म और हीराभस्म १-१ भाग लेकर सबको एकत्र घोटें । फिर ? भाग शुद्ध पारद और १ भाग For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [४२९] - शुद्ध स्वर्णके पत्रोंको कई दिन तक घोटकर एक जायफल, जायत्री, लौंग, केसर, दालचीनी, जीव करके उसमें उपरोक्त मिश्रण मिलाकर सबको | इलायची, तेजपात, नागकेसर, सेठ, पीपल, कालीसात दिन मूलीके रसमें घोटकर शरावसम्पुटमें बन्द | मिर्च, चीता, पीपलामूल, शतावर और बंसलोचनका करदें और उसे बालुकायन्त्रमें रखकर एक दिन कपड़छन चूर्ण ४-४ तोले तथा लोहभस्म, अभ्रकतीमाग्नि पर पका । जब स्वांग शीतल हो जाय | भस्म, ताम्रभस्म, बंगभस्म, पारदभस्म और सीसा तो औषधको निकालकर पीस लें। भस्म ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर (यदि स्वर्ण कच्चा हो तो मूलीके रसमें पानके रस अथवा शहदमें घोटकर २-२ माशेकी घोटकर एक दिन और पकावें।) गोलियां बना लें। इसे धी और शहदके साथ सेवन करनेसे इसे यथोचित मात्रानुसार उष्ण दूधके साथ जरा (बुढ़ापा) और समस्त रोगोंका नाश होता है। सेवन करनेसे सप्तधातु, बल, बुद्धि, कान्ति, रुचि (४२९६) पत्रामृतरसः (११) और अग्निकी वृद्धि तथा कफरोगांका नाश होता है। (व. से. । रसायन.) इसके सेवनसे वन्ध्या स्त्री गर्भ धारण करती जातीफलं जातिपत्रं लवर केसरं तथा । है और नपुंसक पुरुषमें पुरुषत्व आ जाता है। चातुर्जातकण्ठचौ च पिप्पली मरिचानि च ॥ इसे १ वर्ष तक सेवन करनेसे मनुष्य जरा चित्रकं पिप्पलीमूलं बरीमूलन्तु वैशनम् । व्याधिरहित हो जाता है। सर्व पिष्टा सुमुक्ष्म वाससा परिशोधयेत् ॥ । (४२९७) पञ्चामृतरसः (१२) लोहवणे तथाघ्रश्च ताम्रभस्म च वाकम् । (ग. नि. । परिशिष्ट चू.) रसराजा नागा चूर्णस्यादै प्रयोजयेत् ॥ कर्ष रसाद गन्धकस्तथैव नागवल्लीरसेनैव हययवा माक्षिकेण च । विमर्थ खल्वेऽभ्रकमेव तावत् । गुटिका तत्र संकार्या माषद्वयप्रमाणिका ॥ दद्यात्तथा ताप्यमयोरजश्च दोषमग्नि बलं वीक्ष्य यथोक्तं भक्षयेदवुषः। | गन्येन चाज्येन विमृश्य किश्चित् ।। गोदुग्धस्यानुपाना खुष्णं चैव विशेषतः॥ पात्रे मन्द बहिना ज्वालयेत्तबर्दनं सप्तधातूनां वीर्यदिवलपदम् । द्यान्मात्रां रक्तिकैकपदया। बल्लभाकान्तिरुचिरमग्नेः सन्दीप्तिकारकम् ॥ यावन्माषो नाधिक मानवेभ्यः कफरोगहरश्चैव बुद्धिज्ञानस्पकारणम् । कृत्वा बहनेर्दीपनं हन्ति रोगान् । बन्ध्या च लभते गर्भ षण्ढोऽपि पुरुषायते ॥ | पाण्डुप्लीहोन्माददुर्नाममेहान् नपुंसको थाति पुंस्त्वं रामाः कामयते शतम् । पित्तं साम्लं सातिसारं ज्वरश्च । वज्रकायः शुचितुर्दिव्यदृष्टिस्तु जायते ॥ सद्यः शूलान् त्वग्रहण्यामयं च जराव्याधिविनिर्मुक्तो वर्षसेवी यदा भवेत् ॥ । सथैव रोगान् खलु सूतिकायाः ॥ For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४३०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि अयं हि पञ्चामृतनामधेयो सूतकान्तरविव्योम्नां शुद्धानां भस्मकं शुभम् । रसेन्द्रराजः क्षयरोगहारी। मारित माक्षिकं चैव प्रत्येकं च पलं पलम् ॥ वातास्रमुग्रं श्वयर्थं च हन्यात् गन्धं पञ्चपलं दत्वा श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । स्वयोगयुक्तः सकलान् विकारान् ॥ | आर्द्रकस्य रसं दत्वा त्रिदिनं मईयेत्ततः ॥ शुद्ध पारा १ कर्ष ( १। तोला ) और शुद्ध | काथे च दशमूलस्य वहिमूलरसेन वा । गन्धक १ वर्ष लेकर दोनोंकी कजली बनावें और | युक्त्या तु कथितेनापि मद्देयेच्च दिनत्रयम् ॥ फिर उसमें १-१ कर्ष अभ्रकभस्म, स्वर्णमाक्षिक | | शोषयित्वा ततो धर्मे चूर्णयेत्तदनन्तरम् । भस्म और लोहभस्म मिलाकर जरासे घीके साथ त्रिवर्गत्रितयाम्भोदतिन्दुनुम्बुरुरेणुकम् ॥ घोटें और तदनन्तर उसे ( पर्पटी बनानेकी विधिके | भाङ्गोभूनिम्बतिक्ता च जातीफलकशेरुकम् । अनुसार ) मन्दाग्निपर पकाकर पर्पटी बना लें। । पलार्द्धमानं सर्वाणि प्रत्येकैकं भवन्ति हि ।। निधाय श्लक्ष्णचूर्णानि रसेन सह मेलयेत् । इसे १ रत्तीकी मात्रासे आरम्भ करके प्रति काकमाच्याश्च निर्गुण्डया वर्षाभूमुण्डिका तथा।। दिन १-१ रत्ती दवा बढ़ाते हुवे खिलावें और कपायेणाकाम्भोभिर्भावनाः परिकल्पयेत् । जब १ माशे तक पहुंच जायं तो फिर प्रति दिन कषायेण गुडूच्याश्च शिग्रुमूलरसेन वा॥ १-१ रत्ती घटाकर खिलावें। | पुनराईकतोयेन भावयित्वा विमर्दयेत् । इसके सेवनसे अग्नि दीप्त होती और पाण्डु, बदरास्थिप्रमाणेन कर्तव्या गुटिका ततः ॥ प्लीहा, उन्माद, अर्श, प्रमेह, अम्लपित्त, अतिसार, मरिचानान्तु विंशत्या वटीमेकान्तु भक्षयेत् । ज्वर, शूल, त्वग्विकार, ग्रहणी विकार, सूतिका | तत्तद्रोगहरो योगः सर्वरोग विनाशयेत् ।। रोग, क्षय, वातरक्त और शोथका नाश होता है । हन्यात्सर्वविधं ज्वरक्षयकरं पञ्चामृतरस: (१३) पाण्डुश्च शूलामयं, (र. र.; धन्व. । अर्श.) मन्दाग्निं ग्रहणीं गदांश्च कफजान् नित्योदितरस देखिये। वातोद्भवांश्चाऽऽमयान् । गुल्मव्याध्यरुची च पित्तजनितान् (४२९८) पञ्चामृतरसः (१४) द्वन्द्वोद्भवान् स्रोतजान , (र. र. रसा.; र. र. । रसायना.) कासश्वासयथासमांश्च विविधान् अथातः संप्रवक्ष्यामि रसं परमदुर्लभम् । पञ्चामृतो देहिनाम् ॥ पश्चामृतमिदं ख्यातं सर्वरोगहरं परम् ॥ यस्य रोगानुरूपेण पेयमत्र भिषग्वरैः । शास्त्रे सौख्यमदं नृणां भुवि रोगनिवारणम् । | तक्रभक्तं प्रदातव्यं पध्याय परिनिर्मितम् ॥ पथ्यापथ्यविनिर्मुक्तं विष्णुना परिकीर्तितम् ॥ देयः स्तनन्धयस्यापि सोऽयं पञ्चामृतो रसः ॥ For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४३१] शुद्ध पारा, कान्तलोहभस्म, ताम्रभस्म, अभ्रक- (४२९९) पञ्चामृतलोहगुग्गुलु: भस्म और स्वर्णमाक्षिकमस्म १-१ पल (५-५ (भै. र. । परि.) तोले ) तथा शुद्ध गन्धक ५ पल लेकर प्रथम पारे रसगन्धकताराऽभ्रमाक्षिकाणां पलं पलम् । गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य | लोहस्य द्विपलश्चापि गुग्गुलोः पलसप्तकम् ।। औषधे मिलाकर उसे ३-३ दिन अद्रकके रस, मर्दयेदायसे पात्रे दण्डेनाऽप्यायसेन च । दशमूलके काथ और चीतेके काथमें घोटकर धूप कटुतैलसमायोगाधामद्वयमतन्द्रितः ॥ में सुखाकर पुनः घोटें जब महीन चूर्ण हो जाय माषमात्र योगेण गदा मस्तिष्कसम्भवाः । तो उसमें सांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, | स्नायुजा वातजाश्चापि विनश्यन्ति न संशयः।। दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागरमोथा, कुचला, | यं पञ्चामृतलौहाख्यो गुग्गुलुर्न हरेदगदम् । तुम्बरु, रेणुका, भरंगी, चिरायता, कुटकी, जायफल नासौ सञ्जायते देहे मनुजानां कदाचन ॥ और कसेरुका आधा आधा पल (२।।-२॥ तोले) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, चांदी भस्म, अभ्रक चूर्ण मिलाकर उसे १-१ दिन क्रमशः मकोय, | भस्म और सोनामक्खी भस्म ५-५ तोले, लोह संभाल, पुनर्नवा (निसखपरा) और मुण्डीके काथ भस्म १० तोले और शुद्ध गूगल ३५ तोले तथा अदरकके रसकी एवं गिलोय, और सहजने लेकर सबको लोहेके खरलमें लोहेकी मूसलीसे की जड़की छालके काथ तथा अदरकके रसकी ज़रा ज़रासा सरसेका तैल लगा लगाकर २ पहर १-१ भावना देकर बेरकी गुठलीके बराबर तक घोटें और फिर १-१ माशे की गोलियां बनागोलियां बना लें। कर सुरक्षित रक्खें। इनमेंसे १-१ गोली २० काली मिर्चीके इनके सेवनसे मस्तिष्क रोग, स्नायुरोग और चूर्णके साथ मिलाकर रोगोचित अनुपानके साथ वातव्याधि आदि समस्त रोग नष्ट होते हैं। (४३००) पञ्चामृतलौहमण्डूरम् देनेसे समस्त रोग नष्ट होते हैं। (पञ्चामृतमण्डूरम् ) यह रस सर्व प्रकारके ज्वर, पाण्डु, अर्स, (भै. र.; र. रा. सु.; र. चं. 1 पाण्डु.; भै. र. । अग्निमांच, संग्रहणी, समस्त कफज रोग, वात ग्रहणी.) व्याधि, गुल्म, अरुचि, पित्तज रोग, स्रोतोजविकार, लौह तानं गन्धमभ्रं पारदश्च समांशकम् । खांसी तथा श्वासादिको नष्ट करता है। त्रिकटु त्रिफला मुस्तं विडङ्ग चित्रकं कणा ॥ | किरात देवकाष्ठश्च हरिद्राद्वयपुष्करम् । यह रस दूध पीनेवाले बच्चों के लिये भी | यमानी जीरकं युग्मं शटीधान्यकचव्यकम् ॥ हितकर है। प्रत्येकं लौहभागच श्लक्ष्णचूर्णन्तु कारयेत् । पथ्य-तक भात। सर्वचूर्णस्य चाीशं मुरदं लौहकिट्टकम् ।। For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४३२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि गोमूत्रे पाचयेद्वैधो लौहकिट्टाचतुर्गुणे । । (४३०१) पञ्चामृतवटी पौनर्नवाष्टगुणितं कार्य तत्र प्रदापयेत् ॥ (र. सा. सं.; र. र.; र. रा. सु. । अजीर्ण.) सिद्धेऽवतारिते चूर्ण मधुनः पलमात्रकम् ।। भक्षयेत्मातरुत्थाय कोकिलाख्यानुपानतः॥ अभ्रक पारदै तानं गन्धकं मरिचानि च । ग्रहणी चिरजां हन्ति सशोथां पाण्डुकामलाम् । | समभागमिदं चूर्ण चाङ्गेरीरसमर्पितम् ॥ अग्निश्च कुरुते दीप्तं ज्वरं जीर्ण व्यपोहति ॥ मर्दिते हि रसे भूयो जयन्तीसिन्धुवारयोः । प्लीहानं यकृतं गुल्ममुदरश्च विशेषतः। भावनापि च कर्त्तव्या गुञ्जापरिमिता वटी ।। कासं श्वास प्रतिश्यायं हन्ति पुष्टिविवर्द्धनम ॥ ततोदकानुपानेन चतस्रस्तित्र एव वा। ____ लोहभस्म, ताम्रभस्म, अभ्रकभस्म, शुद्ध गन्धक | वहिमान्ये मदातव्या वट्यः 'पञ्चामृतास्तथा ॥ और शुद्ध पारद तथा सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, ताम्रभस्म, शुद्ध बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, बायबिडंग, चीता, गन्धक और काली मिर्च का चूर्ण समान-भाग लेकर पीपल, चिरायता, देवदारु, हल्दी, दारुहल्दा, प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बनावें तत्पश्चात् पोखरमूल, अजवायन, सफेद और काला जीरा, उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको चांगेरी शटी (कचूर), धनिया और चवका कपड़छन महीन (चूका ), जयन्ती और संभालके रसकी १-१ चूर्ण १-१ भाग (५-५ तोले ) लेकर प्रथम पारे भावना देकर १-१ रत्ती की गोलियां बनावें। गन्धककी कज्जली बना और फिर उसमें अन्य इनमें से ३-४ गोली उष्णजल के साथ देने चाजाका चूणे मिला लें। से अग्निमांद्य रोग नष्ट होता है। तदनन्तर इस समस्त चूर्णसे आधा शुद्ध मण्डूरका चूर्ण लेकर उसमें उससे ४ गुना गोमूत्र (४३०२) पश्चास्यरसः और आठ गुना पुनर्नवाका काथ मिलाकर पकावें । ( कामलाप्रणुद्रसः ) जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो अग्जिसे (र. चं.; र. र. । कामला.) नीचे उतारकर उसमें उपरोक्त चूर्ण मिला दें और तीक्ष्णमाक्षिककान्ताभ्रशुल्बसूतकतालकम् । उसके ठंडा होने पर १० तोले शहद मिलाकर | चिकने पात्र में भरकर रख दें। देवदालीरसैः पिष्टं वालुकायन्त्रसाधितम् ॥ इसे तालगखानेके काथके साथ सेवन करने अमृतोत्पलकहारकन्दद्राक्षासमन्वितम् । से शोथयुक्त पुरानी संग्रहणी, पाण्डु, कामला, जीर्ण मी | पिष्टं यष्टयम्भसा क्षौद्रसिताभ्यां कामलामणुद् ।। ज्वर, तिल्ली, यकृत् , गुल्म, विशेषतः उदररोग, तीक्ष्णलोह भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, कान्तखांसी, श्वास और प्रतिश्यायका नाश होता तथा लोहभस्म, अभ्रक भस्म, ताम्रभस्म, शुद्ध पारद अग्नि दीप्त होती और बल बढ़ता है। और शुद्ध हरताल समान भाग लेकर सबको एकत्र ( मात्रा-३ माशे ।) घोटकर १ दिन बिन्दालके रसमें खरल करें और For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४३३] - - - - फिर उसे सुखाकर आतशी शीशीमें भरकर ४ ! आमलेका चूर्ण १--१ भाग तथा खांड सबके पहर तक बालुकायन्त्र में पकावें । | बराबर लेकर चूर्ण बनावें ! तदनन्तर शीशीके स्वांग शीतल हो जाने इसे घी और तैलके साथ सेवन करनेसे वृद्धापर उसमें से रसको निकाल कर उसे गिलोय, वस्था नहीं आती। सफेदकमल का कन्द, लालकमलका कन्द, मुनक्का (४३०५) पथ्यादिचूर्णम् (२) और मुलैठीके काथकी १-१ भावना देकर सुरक्षित ( भा. प्र. । वातव्या.) रक्खें । पथ्याविभीतधात्रीणां चूर्ण चूर्ण मृतायसः । इसे शहद और मिश्री के साथ सेवन करने से मधुना सह संलीढं बहुमूत्रणशान्तिकृत् ॥ कामलाका नाश होता है। हरं, बहेड़ा और आमलेका चूर्ण १-१ भाग (४३०३) पतङ्गयोगः तथा लोहभस्म ३ भाग मिलाकर शहदके साथ (३. यो. त. । त. १४७) सेवन करने से बहुमूत्र रोग नष्ट हो जाता है। टङ्क पतङ्गचूर्णस्य जातीपत्रस्य टङ्ककम् । । (४३०६) पथ्यादियोगः अहिफेनस्य टई हि दरदं टङ्कयुग्मकम् ॥ (ग. नि. । रसाय ) अद्वै वाऽप्यथवा सर्व चूर्ण खादेद्यथाबलम् । पथ्याचित्रकयात्रीणां चूर्ण लोहरजोन्वितम् । पिबेदनु पयः स्वल्पं वीर्यस्तम्भं करोति हि ॥ साता" | पलिहयान्मधुसर्पियो जरारोगनिषूदनम् ॥ महायोगोऽयमुदितः शुक्रस्तम्भकरः परः॥ हरं, चीता और आमलेका चूर्ण १-१ भाग पतङ्गका चूर्ण, जावित्री और अफीम १-१ | तथा लोहभस्म ३ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाटंक तथा शुद्ध शिंगरफ २ टंक लेकर सबको कर शहद और धीके साथ सेवन करनेसे बुढ़ापा घोटकर चूर्ण बनावें। दूर हो जाता है। इसे यथोचित मात्रानुसार थोड़े दूधके साथ (४३०७) पथ्यादिलोहम्। सेवन करने से वीर्यस्तम्भन होता है । (कृ. यो. त. । त. ९५; वृ. नि. र.; र. चि. म.; शुक्रस्तम्भनके लिये यह एक महान योग है। र. र.; च. द.; भा. प्र.; यो. र.; वं. से.; (४३०४) पथ्यादिचूर्णम् (१) ___. मा. । परिणा. शूल.; ग. नि. । परिशि.) (ग. नि. । रसाय.) पथ्यालोहरजः शुण्ठी तच्चूर्ण मधुसर्पिपा । पथ्याकृष्णाविडङ्गायोधात्रीचूर्ण सशर्करम् । । सर्पिस्तैलयुतं खादञ्जरया नाभिभूयते ॥ १-भाव प्रकाश में इस योगमें पीपल भी हर, पीपल, बायबिडंग, लोहभस्म और | लिखी है । For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४३४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि हर्र, लोहभस्म और सांठ के समान भाग श्वेता अपराजिता (सफेद फूलकी कोयल) मिश्रित चूर्णको शहद और घीके साथ सेवन | पाठामूल, बच और सफेद साठी (पुनर्नवा ) को करनेसे त्रिदोषज परिणाम शूल नष्ट होता है। पानीके साथ पीसकर उसकी एक लम्बी मूषा बनावें पथ्यादिलोहम् और उसमें शुद्ध पारद अलकर उसे एक कपड़ामट्टी की हुई हांडीमें रखकर उसके ऊपर ४० तोले (च. सं.; च. द. । कामला) पिसा हुवा नमक डाल दें एवं हांडीके मुखको किसी " अयोरजादियोग" प्र.सं. ७४ देखिये। | गहरे ढकनेसे अच्छी तरह बन्द कर के उसे पथ्यादिरस: | आगपर चढ़ा दें। हाण्डीके ऊपरवाले ढकनेमें( वृ. नि. र. । शूल.) पानी भर दें और फिर उसके नीचे ३ पहर शूलगजकेसरी ( शूलद्विपन्नीवटी ) देखिये। तक तेज़ आंच जलावें । तदनन्तर हाण्डीके स्वांग (४३०८) परहितरसः शीतल होने पर उसमेंसे मूषाको निकाल कर उसके भीतरसे सुवरके बालोंके बुरुशंसे पारदभस्म को ( र. र. स. । अ. २. ) निकाल लें। श्वेता पाठाजटा श्वेता श्वेता चैव पुनर्नवा। यदि पारद की भस्म अच्छी तरह न हुई हो तो पिष्टवा जलेन तत्कल्कैः प्रकुर्यान्त्रालमूषिकाम् ॥ एकबार फिर ऐसे ही अग्नि दें। स्थालीमध्ये च तां क्षिप्त्वा क्षिपेत्संशोधितं । तदनन्तर वह रस, अतीस, शुद्ध बछनाग, रसम् । त्रिकुटा, त्रिफला और शुद्ध गन्धक का समान-भाग क्षिपेदुपरि सम्पेष्य द्वयञ्जलिममितं पटुम् ।। मिश्रित चूर्ण १२ भाग लेकर उसे ३२ भाग गुड़ पिधानं तन्मुखे दत्त्वा सनिरुध्याऽतियत्नतः। में मिलाकर १२-१२ रत्तीकी गोलियां बनालें । अधस्ताज्ज्वालयेद्वहिं पिधान्यामम्बु निक्षिपेत् ।। । इसके सेवनसे समस्त रोग और विशेषतः यामत्रितयपर्यन्तं जातेऽथ शिशिरे ततः।। | समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं। क्रोडकेशैः समाकृष्य मृतं पारदमाहरेत् ॥ । (४३०९) पर्णखण्डेश्वरः न चेदेतावता भस्म पुनरेव पुटेद्रसम् ।। तस्मातिविष विषं कृमिहरं व्योषोत्तमा गन्धर्ज, (र. रा. सु.; भै. र. । ज्वरा.) चूर्ण द्वादशहाटकं खलु गुडो द्वात्रिंशदंशोन्मितः। समांशं मर्दयेत्खल्ले रसं गन्धं शिलां विषम् । तत्सर्व परिचूर्णितं प्रतिदिनं वल्लैश्चतुभिर्मितं, निर्गुण्डीस्वरसैर्भाव्यं त्रिवार चाकद्रवैः ।। चेत्यं हन्ति समस्तरोगनिवहं नागं गरुत्मानिव। गुञापादं स्थितं पणे ज्वरं हन्ति महाद्भुतम् ॥ विशेषात्सर्वकुष्ठन्नो रसोऽयं परिकीर्तितः। शुद्धपारा, गन्धक, मनसिल और बछनागका ख्यातः परहितो नाम्ना भानुना भूरिभानुना ॥ चूर्ण समान-भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम] तृतीयो भागः। [४३५ - बनावें फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको । मासत्रयं च सेवेत कासश्वासनिवृत्तये । संभाल और अदरकके रसकी ३-३ भावना दें। | सजीरहिङ्गकव्योषैः शमयेद्ग्रहणी रसः॥ इसमें से चौथाई रत्ती औषध पानमें रखकर | दशमूलाम्भसा वातज्वरं त्रिकटुना कफम् । ज्वरं मधुकसारेण पञ्चकोलेन सर्वजम् ॥ खानेसे ज्वर अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है।। | यक्ष्माणं मधुपिप्पल्या गोमूत्रेण गुदाकरान् । ( यह रस वातकफज्वरमें उपयोगी है । ) शूलमेरण्डतैलेन पाण्डुशोफे सगुग्गुलुः ॥ (४३१०) पर्पटीरसः (१) कुष्ठानि भृङ्गभल्लातबाकुचीपञ्चनिम्बकैः ।। | धत्तूरबीजसंयोगान्मेहोन्मादविनाशनः ।। ( र. र. स. । अ. १३) | अपस्मारं निहन्त्याशु व्योपनिम्बुदलैः सह । रसं द्विगुणगन्धेन मर्दयित्वा सभृङ्गकम् । स्तनन्धयशिशूनां तु रसोऽयं नितरां हितः॥ लोहपात्रे घृताभ्यक्ते द्रावितं बदराग्निना ॥ पथ्याक्षचूर्णादिवशाद्वयाधींवान्यान्सुदुस्तरान् । ऊर्धाधो गोमयं दत्त्वा कदल्या कोमले दले। सजातीफलशीतोदं योजयेत्पर्पटीरसम् ॥ स्निग्धया लोहदा च पर्पटाकारतां नयेत् ॥ पित्ताजीणे शिरश्चास्य शीततोयेन सेचयेत् । लोहपात्रे विनिक्षिप्ता लोहपर्पटिका भवेत् । नस्य निष्ठीवनं धूमं तीक्ष्णं वमनरेचनम् ॥ ताम्रपाने विनिक्षिप्ता ताम्रपर्पटिका भवेत ॥ । अन्नं रूक्षाल्पतीक्ष्णोष्णं कटुतिक्तकषायकम् । विषपादं च युञ्जीत तत्साध्येष्वामयेषु च । चिरकालस्थितं मद्यं योजयेत्कफरोगिणे॥ मुरसाया जयन्त्याश्च कन्यकाऽऽटरूषकयोः ॥ शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध गन्धक २ त्रिफलाया मुनेर्भाझ्या मुण्डयास्त्रिकटुचित्रयोः।। भाग लेकर दोनोंकी कजली बनाकर उसे भंगरे के भृङ्गराजस्य वढ्नेश्च प्रत्यहं द्रवभावितम् ॥ रसमें घोटकर सुखा लें । फिर एक लोहेकी कढ़ाई आर्द्रकस्य रसेनापि सप्तधा भावयेत्पुनः।। में जरासा घी लगाकर उसमें इस कन्जलीको डाल झारैः स्वेदयेदीपत्पर्पटीरसमुत्तमम् ॥ कर बेरीकी मन्दाग्नि पर पिघलावें । तदनन्तर भूमिपर गुआष्टकं ददीतास्य ताम्बूलीपत्रसंयुतम् । गायका ताजा गोबर बिछाकर उसपर केले का पता पिप्पलीदशकैः काथं निर्गुण्ड्याश्चानु पाययेत् ॥ बिछावें और उसपर उपरोक्त पिघली हुई कज्जली स्वरभङ्गे कफे श्वासे प्रयोज्यः सर्वदा रसः। डालकर उसे घृत लगी हुई लोहे की करछी से अच्छी त्रिकण्टकस्य मूलानि शुण्ठी संक्षुध निक्षिपेत् ॥ तरह फैलाकर उसपर दूसरा पत्ता रखकर उसे अजाक्षीरे सनीरार्धे यावत्क्षीरं विपाचयेत् ।। गोबरसे दवा दें। थोड़ी देर बाद जब वह स्वांगतत्क्षीरं पाययेद्रात्रौ सकणं भोजनेऽपि च ॥ शीतल हो जाय तो पत्तों के बीचमें से पर्पटीको कूष्माण्डं वर्जयेच्चिञ्चां वृन्ताकं कर्कटीमपि। निकालकर पीस लें। आरनालं च तैलं च संसर्ग च विवर्जयेत् ॥ । यदि यह पर्पटी लोहे के पात्रमें बनाई जाती For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । [ ४३६ ] [ पकारादि हैं तो लोहपर्पटी और ताम्रके पात्रमें बनाई जाती । मुलैठीके काथके साथ देनेसे ज्वर, पञ्चकोल (पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सांठ) के काथके साथ देनेसे सर्वदोषज ज्वर; शहद और पीपलके चूर्ण के साथ खिलाने से क्षय; गोमूत्र के साथ देनेसे अर्श; अरण्डीके तेलके साथ देनेसे शूल; शुद्ध गूगलके साथ मिलाकर खिलानेसे पाण्डु और शोथ; भंगरा, शुद्धभिलावा, बाबची और नीमके पञ्चाङ्गके काथके साथ खिलाने से समस्त कुष्ट; धतूरेके बीजके साथ देने से प्रमेह और उन्माद; त्रिकुटेके चूर्ण और नींबू के पत्ते के साथ देनेसे अपस्मार तथा हर्र और बहेड़े के चूर्णके साथ देने से अन्य अनेक रोग नष्ट होते हैं । भारत है तो ताम्रपर्पटी कहलाती है । अब इसमें इसका चौथा भाग शुद्ध बछनाग का चूर्ण मिलाकर उसे तुलसी, जयन्ती, घीकुमार, अडूसा, त्रिफला, अगथिया, भरंगी, गोरखमुण्डी, त्रिकुटा, चीता, भंगरा और चीतेके काथकी पृथक् पृथक् १ - १ भावना देकर अन्त में अदरकके रसकी ७ भावना दें और फिर उसे जरा देर अग्निपर गर्म करके बिल्कुल खुश्क कर लें 1 इसमें से ८ रत्ती औषध पानके साथ खिला - कर ऊपरसे दश पीपल का चूर्ण संभालुके रस के साथ खिलाने से स्वरभंग, श्वास और कफका नाश होता है । गोखरुमूल और सोंठ बराबर बराबर लेकर दोनो अधकुटा करके १६ गुने बकरीके दूध में डा और उसमें समान भाग पानी मिलाकर पकावें । जब पानी जलकर केवल दूध बाकी रह जाय तो उसे छान लें । उक्त पर्पटी सेवन काल में रात्रिको पीपल के साथ यह दूध पिलाना तथा रात्रिके भोजनमें भी यही दूध देना चाहिये । है परहेज - कुम्हड़ा ( पेठा ), इमली, बैंगन, ककड़ी, कांजी और तैल । इन चीज़ों का परित्याग करना चाहिये । इस प्रकार ३ मास तक सेवन करने से खांसी और श्वास नष्ट हो जाता 1 इसे .. जीरा, भुनी हुई हींग और त्रिकुटेके साथ देने से संग्रहणी; दशमूलके काथके साथ देने से वातज्वर, त्रिकुटे क्वाथ के साथ देने से कफ; Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह पर्पटी दूध पीने वाले बालकोंके लिये विशेष उपयोगी है । इसे पित्ताजीर्ण में जायफलके साथ खिलाकर शीतल पानी पिलाना और शिर पर ठंडा पानी डालना चाहिये । कफज रोगों में नस्य, निष्ठीवन, धूम्रपान, तीक्ष्णवमन तथा विरेचन, और रूक्ष अल्प तीक्ष्ण उष्ण तथा कटुतिक्तकषाय रसयुक्त भोजन एवं पुराना मध देना चाहिये । पपेटीरस: (२) ( नवज्वरारण्यकृशानुमेघरस : ) ( र. रा. सुं. 1 ज्वरा. ) प्रयो. सं. २७७८ त्रैलोक्यसुन्दर देखिये | 66 For Private And Personal Use Only " पर्पटीरस: (३) ( र. रा. सु. । कुष्ठा. ) कुष्टान्तकपर्पटीरस ” देखिये "" Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् तृतीयो भागः। [४३७] सप्तधा ॥ (४३११) पर्पटीरसः (४) ( मल्लपर्पटी) । मन्दी मन्द। आंचसे लोहेकी कढ़ाई में पकावें । (सि. भे. म. । ज्वर.) जब गोमूत्र सूख जाय तब इन भस्मांकी बराबर राले चतुःपलमिते द्रावितेऽग्नियोगा- (१६ तोले ) हंसमण्डूर मिलाकर कपड़ छन त्सम्मेल्य शुक्ल विषमर्धपलप्रमाणम् । करलें । इसकी मात्रा ३ मासे से छः मासे तक खल्वे क्षिपेत्सपदि पपेटिका रसोऽयं, गौकी छाछके साथ सेवन कर तो पाण्डुरोग और ___ हन्यात्कफानिलमतिभ्रमवान्तिवेगान् । हलीमक रोग नष्ट हे। ( रसायनसार ) २० तोले रालको अग्निपर पिघलाकर (४३१३) पाण्ड्डकुठाररसः१ उसमें २॥ तोले शुद्ध. संखियेका चूर्ण मिलाकर (र. प्र. सु. । अ. ८; रसें. चिं. म. | अ. ९; अच्छी तरह घोटें। वृ. नि. र.; र. रा. मुं. । पाण्डु.) इसके सेवनसे कफ, वायु, मतिभ्रम और वमनका नाश होता है तथा ज्वरका वेग रुक गन्धकाभ्ररसलोहभस्मकं शाल्मलीमुसलिकाजाता है। ___ गुडूचिभिः । भावयेत्रिफलकाकन्यकावह्निशक्रजरसैश्चर ( नोट----इसे बनाने और सेवन कराने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये । रालमें संखियेको मिलाकर खूब घोटना चाहिये कि जिससे दोनों जायते हि भुविजोऽमृतस्रवः प्लीहपाण्डुविनिचीज़ों के परमाणु अच्छी तरह मिल जायं । इसे वृत्तिदायकः। अधिकसे अधिक आधी रत्ती मात्रामें देना चाहिये वल्लयुग्मपरिमाणतस्त्वयं लेहितश्च घृतमाक्षिऔर जिस शीशी में रक्खें उस पर “ विष" शब्द कान्वितः॥ लिख देना चाहिये। शोफपाण्डुविनिवृत्तिदायकः सेवितश्च यवचि चिकाद्रवैः ॥ (४३१२) पाण्डुकथाशेषरसः शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारा और ( रसायनसार । पाण्डुरो.) लोहभस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक तुत्थताम्राभ्रलोहानां वस्त्रपूतेषु भस्मसु ।। की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य चीजें तुल्यहारिद्रचूर्णपु गोमूत्रं पड्गुणं पचेत् ॥ मिलाकर सबको सेंभलकी छाल, मूसली, गिलोय, हंसमण्डूरतुल्यं तद् गव्यतक्रेण चेद्भजेत् । त्रिफला, अद्रक, घीकुमार, चीता और इन्द्रजौके पाण्डुईलीमकं चापि कथामात्रेण शिष्यते ॥ काथकी सात सात भावना देकर रक्खें । तूतिया, तांबा, अभ्रक, लोह; इन चारों -रसेंद्रचिन्तामणि इत्यादि में इसे “ पाण्डुनिग्रह" चीजोंकी कपड़छन की हुई २-२ तोले भस्मों में | नामसे लिखा है। ८ तोले हल्दी का चूर्ण मिलाकर सवा सेर गोमूत्रमें । २- शिग्रुजरनैश्चेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । [ ४३८ ] इसे घृत और शहद के साथ सेवन करने से प्लीहा और पाण्डु तथा खिरनीके काथके साथ सेवन करनेसे शोथयुक्त पाण्डु का नाश होता है । मात्रा --- ६ रत्ती । भारत (४३१४) पाण्डुगजकेशरीरसः ( रखें. चिं. म. । अ. ९ ) रविभागं तु मण्डूरं तत्समं लौहभस्मकम् । शिलाजतु तदर्द्ध स्यात् गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् ॥ पञ्चकोलं देवदारु मुस्ता व्योषं फलत्रयम् । पृथग विडङ्गञ्च पाकान्ते चूर्णितं क्षिपेत् ॥ पायये दक्षमात्रन्तु तक्रेणाल्पाशनो भवेत् । पाण्डुग्रहणिमन्दानिशोथाशसि हलीमकम् ॥ ऊरुस्तम्भकृमिप्लीहगल रोगान् विनाशयेत् ॥ ताम्र भस्म, मण्डूर और लोहभस्म १ - १ भाग तथा शुद्ध शिलाजीत सबसे आधी लेकर सबको आठ गुने गोमूत्र में पकावें और जब पाक तैयार हो जाय तो उसमें पञ्चकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सांठ), देवदार, नागरमोथा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा आमला और बायबिरंगका चूर्ण आधा आधा भाग मिलाकर सुरक्षित रखें । इसे १| तोलेकी मात्रानुसार तक्रके साथ सेवन करने और लघुभोजन करने से पाण्डु, ग्रहणी, मन्दाग्नि, शोथ, अर्श हलीमक, ऊरुस्तम्भ, कृमिरोग, प्लीहा और गल रोगोंका नाश होता है । ( व्यवहारिक मात्रा ३ माशे । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि | (४३१५) पाण्डुनाशनरस: (१) (र. प्र. सु. । अ. ८ । र च । पाण्डु. ) स्वर्णरूप्यमथ शाणमात्रकं शुद्धताम्रमथ तत्समं कुरु । रसवरं सकलेन समं हि वै पिष्टिकi कुरु विम गोलकम् ॥ गन्धकेन परिवेष्ट गोलकं पाचयेच्च मतिमान् भिषक् सदा । भूमिमध्यनिहितं सुयन्त्रितं यामपट्कथवाष्टकं ततः ॥ गन्धमन्यमपि निक्षिपेत्पुटे एवमत्र परिजारयेद्बुधः । निम्बुजेन परिपेष्य पड्गुणं गन्धचूर्णमथ लोहचूर्णकम् ॥ योजयेच्च पलमानतस्ततो लौहपात्रकुहरे पुत्रयैः । पाचच चिरबिल्ववह्निना पाण्डुनाशनरसस्ततो भवेत् ॥ बल्लमस्य मधुपिप्पलीयुतं लेहितं सकलपाण्डुनाशनम् ॥ स्वर्णभस्म, चांदी भस्म और ताम्र भस्म ५-५ माशे तथा शुद्ध पारा सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें । जब पिट्ठीसी हो जाय तो उसका गोला बनाकर उसपर ( सबके बराबर ) नीबूके रसमें घुटा हुवा गन्धकका बारीक चूर्ण लपेट दें और उसे सम्पुटमें बन्द करके ६ या ८ पहर भूधर यन्त्र में पकायें । जब स्वांग शीतल हो जाय तो गोलेको निकाल कर उस पर पुनः नीबू के रसमें घुटा हुवा समान भाग गन्धक लपेट For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४३९] कर उसे पहिलेकी भांति भूधर यन्त्रमें पकावें। दें और उसे सुखाकर २ पहर तक तीब्राग्नि पर इसी प्रकार ६ बार पाक करके षड्गुण गन्धक पकावें । जब हाण्डी स्वांग शीतल हो जाय तो जारण करें। उसमें से ताम्र भस्मको निकालकर पीस लें । तदनन्तर उसमें ५--५ तोले लोहभस्म और तदनन्तर सीसे को गन्धकके साथ पुट देकर शुद्ध गन्धक मिलाकर उसे लोहे के सम्पुटमें बन्द उसकी भस्म बनावें; और अन्त में उक्त ताम्रकरके करञ्जकाष्ठ की अग्निमें पुट दें । इसी प्रकार | भस्म तथा यह सीसाभस्म बराबर बराबर लेकर हर बार ५ तोले गन्धक मिलाकर दो पुट और दें, | दोनोंको एकत्र मिलाकर चीतेके काथ और अदरक और फिर स्वांग शीतल होनेपर निकालकर पीस- | के रसमें १-१ दिन घोटकर चूर्ण बनावें । कर सुरक्षित रखें। इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार यथोचित अनुइसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार पीपलके चूर्ण पानके साथ सेवन करनेसे शोथ, पाण्डु और कफ और शहदके साथ सेवन करनेसे सर्व प्रकार के तथा वायुका नाश होता है । पाण्डुरोग नष्ट होते हैं। इसके सेवनकालमें लधुभोजन करना और (४३१६) पाण्डुनाशनरसः (२) तेल, खटाई, लवण तथा मांससे परहेज करना (र. प्र. सु. । अ. ८) चाहिये । सूक्ष्मं ताम्रदलं विलिप्य वलिना मूतेन चापि । पाण्डुनिग्रहो रसः तथा (रसें. चि. म.; र. रा. मुं.; वृ. नि. र. । पाण्डु.) स्थालीमध्यगतं सुपाचितमिदं यामद्वयं वह्निना। पाण्डुकुठाररस देखिये । नागं गन्धकसंयुतं च पुटित चित्रासंमिश्रितम् (१३१७) पाण्डुपङ्कशोषणरसः चूर्णीकृत्य समं सुशोभनरसं संयोजयेच्छा (र. चं. । पाण्डु.; र. र. स. । अ. १९) स्ववित् ॥ शोफपाण्डुकफवातनाशनो रक्तिकैकपरिमाणत- म्रभस्मरसभस्मगन्धक स्त्वयम् । वत्सनाभमथ तुल्यभागतः । सेवयेच्च लघु चान्नभोजनं, तैलमम्ललवणामिर्ष | वहितोयपरिमर्दितं पचे बिना ॥ धामपादमथ मन्दवहिना ॥ समान भाग पारे गन्धककी कजलीको नीबूके रक्तिकायुगलमानतोभवे रसमें घोटकर ताम्रके कण्टकवेधी पत्रोंपर लेप करदें च्छोफपाण्डुघनपङ्कशोषणः ।। और फिर उन्हें हाण्डी में रखकर उसकी सन्धि ताम्रभस्म पारदभस्म, शुद्ध गन्धक और शुद्ध बन्द करके उसके ऊपर ४-५ कपड़मिट्टी कर बछनाग समान भाग लेकर सबको चीतेके रसमें For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४४०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि घोटकर पौन घण्टा मन्दाग्नि पर पकावें । तद- | करनेसे हलीमक, शोथ, पाण्डु, ऊरुस्तम्भ, प्लीहा, नन्तर चूर्ण करके रख लें। | यकृत् और गुल्मका नाश होता तथा बल वर्ण इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे । और अग्निकी वृद्धि होती है। शोथ और पाण्डुरोग नष्ट होता है । यह एक श्रेष्ठ रसायन ( जरा व्याधि नाशक) (४३१८) पाण्टुपश्चाननरस: योग है। ( भै. र.; र. चं. । पाण्डु. ) (४३१९)पाण्डुसूदनरसः (१) लौहमभ्रश्च ताम्रश्च प्रत्येकं पलसम्मितम् । (र. प्र. सु. । अ. ८; र. चं. । पाण्डु.) त्रिकटु त्रिफला दन्ती चयिकाकृष्णजीरकम् ॥ | मृतं तीक्ष्णकमेव गन्धसहितं भागेन संवर्द्धितम चित्रकञ्च निशे द्वे च त्रिवता मानमूलकम् । पश्चात्खल्वतले विमर्थ विधिना चूर्णीकृतं कुटजस्य फलं तिक्ता देवदारु वचा घनम् ॥ गालितम्। प्रत्येकमेषां कर्षन्तु निक्षिपेत्पाकविद् भिषक् । कूप्यां संविनिवेश्य सुमृदया संलेपितायां पचेत् सर्वस्य द्विगुणं देयं शुद्धमण्डूरचूर्णकम् ॥ यामद्वादशमात्रकं हि सिकतायन्त्रेण वैद्यः सदा॥ गोमूत्रेऽष्टगुणे पक्त्वा सिद्धे शीतलतां गते । प्रक्षिपेच्च वरशाल्मलीरसं त्रैफलं च गुडवल्लिभक्षयेत्मातरुत्थाय चोष्णतोयानुपानतः ॥ काद्रवम् । हलीमकं शोथपाण्डुमूरुस्तम्भश्च नाशयेत् । पाचयेच मृदुवहिना दिनं स्वांगशीतलमयं प्लीहानं यकृतं गुल्मं सर्वरोगहरः परः ।। प्रगृहय च ॥ रसायनवरश्चैव बलवर्णाग्निकारकः॥ यूपाणाकरसेन भावयेत्पाण्डुसूदनरसोऽयमीलोहभस्म, अभ्रकभस्म और ताम्रभस्म ५-५ रितः। तोले; सेांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, | शुष्कपाण्डुविनिवृत्तिदायको रोगराजहरणः प्रदन्तीमूल, चव, काला जीरा, चीतामूल, हल्दी, कीर्तितः॥ दारुहल्दी, निसोत, मानकन्द, इन्द्रजौ, कुटकी, शुद्ध पारद १ भाग, तीक्ष्ण लोह २ भाग देवदारु, बच और नागर मोथे का चूणे १-१। और शुद्ध गन्धक ३ भाग लेकर सबकी महीन तोला । इन सब चीजेांसे दो गुना शुद्ध मण्डूका | कजली बनावें । तत्पश्चात् उसे कपरमिट्टी की चूर्ण लेकर उसे आठ गुने गोमूत्र में पकावें और हुई आतशी शीशीमें भरकर उसे १२ पहर बालुका जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसे ठण्डा करके यन्त्रमें पकावें । इसके बाद जब शीशी स्वांग उसमें उपरोक्त समस्त चीजें मिलाकर ( १॥-१॥ शीतल हो जाय तो उसमें सेंभलकी छालका रस, माशेकी ) गोलियां बना लें। त्रिफलेका काथ और गिलोयका स्वरस ६-६ भाग इन्हें उष्ण जलके साथ प्रातःकाल सेवन | डालकर पुनः १ दिन मन्दाग्नि पर पकावें । For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४४१] - - तदनन्तर शीशीके स्वांग शीतल होने पर । एतत्काथे पचेत्सम्यग्घरीतक्या शतत्रयम् । उसमें से औषधको निकालकर उसे त्रिकुटेके क्वाथ | षष्टयधिकं ततः शुष्कं गव्यदुग्धेन पाचयेत् ।। और अद्रकके रसकी १-१ भावना देकर (२-२ शोषयित्वा शनैहत्वा वटिकाभिः प्रपूरयेत् । रत्तीकी ) गोलियां बना लें। रसस्य त्रिपलं दत्त्वा गन्धके त्रिपलात्मके ।। इनके सेवनसे पाण्डुरोग नष्ट होता है । पक्वाथ पातयेत्पत्रे चूर्णयित्वा ततः पुनः । (४३२०) पाण्डुसूदनो रसः (२) गुडूचीसत्वं समादाय शुष्कं सप्तपलात्मकम् ।। चूर्णयित्वा ततः सर्वे मधुना गुटिका किरेत् । (पञ्चाननवटी) तास्तु सूत्रे समाबध्वा मधुभाण्डे विनिक्षिपेत् ।। ( भै. र.; र. चं.; र. रा. सुं.; र. सा. सं.; वृ. नि. एकैकां भक्षयेन्नित्यं शुष्कपाण्डुविनाशिनीम् ॥ र. । पाण्डु.; रसें. चिं. म. । अ. ९; र. का. पीली कटसरैया, भंगरा, शतावर और पुनधे.; ध.; र. र. स. । पाण्डु.) नवा ३५-३५ तोले लेकर सबको बारीक कूटरसं गन्धं मृतं तानं जयपालञ्च गुग्गुलुः । कर १६ गुने पानीमें पकावें और चौथा भाग समांशमाज्यसंयुक्तां गुडिकां कारयेद्भिषक् ।। पानी शेष रहने पर छानकर उसमें ३६० हर्र, एकैकां भक्षयनित्यं पाण्डुशोथपणुत्तये ।। डालकर पकावें । जब हर्र उसीज जाएं तो उनको शीतलञ्च जलश्चाम्लं वर्जयेत्पाण्डुमुदने ॥ निकाल कर जरा शुष्क कर लें और फिर (४ गुने) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, शुद्ध | गोदुग्धमें पकायें और फिर उन्हें चाकूसे चीरकर जमालगोटा और शुद्ध गूगल समान भाग लेकर | सावधानी पूर्वक उनकी गुठलियां निकाल दें। प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लें, फिर उसमें| तदनन्तर निम्न लिखित गोलियों में से १-१ अन्य चीजें मिलावें और सबके बराबर घी मिला- गोली प्रत्येक हर्रमें भरकर उस पर कचा सूत कर अच्छी तरह घोटकर (२-२ रत्तीकी) लपेट कर सबको शहदमें डाल दें। गोलियां बना लें। शुद्ध पारद १५ तोले और शुद्ध गन्धक __इनके सेवनसे पाण्डु और शोथ का नाश | १५ तोले लेकर दोनेांकी कजली करके उसे घृत होता है। पुती हुई लोहेकी कढ़ाई में पिघलाकर विधिवत् ____ इसके सेवन कालमें शीतल जल और अम्ल | पर्पटी बनावें और फिर उसे पीसकर उसमें ३५ पदार्थोसे परहेज करें। तोले गिलोय का सत मिलाकर शहदके साथ (४३२१) पाण्डहारीहरीतकी घोटकर सबकी ३६० गोलियां बना लें और एक (र. र. स. । अ. १९) | एक गोली १-१ हर्रमें भर दें। कोरण्टो भृङ्गराजश्च शतावरीपुनर्नवे । इनमें से नित्य प्रति १-१ हर्र खानेसे शोष एते सप्तपला ग्राहयाः प्रत्येक सूक्ष्मचूर्णिताः ॥ और पाण्डुरोग नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४४२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि ___ नोट-उपरोक्त प्रमाणसे बनी हुई गुटिका । अभ्राचतुष्पलं चूर्णमेकीकृत्वाकाम्बुना।। में लगभग १ माशा कज्जली आती है जो बहुत त्रिफलापयसा भाव्या कोलार्द्धमानकी वटी । अधिक है अत एव ४-४ रत्तीकी गोलियां | भक्तोदकानुपानेन सेव्या वहिपदीपनी । बनानी चाहिये। | अम्लपित्तामवातादीन्हन्ति पयसान्नभोजनम् ।। (४३२२) पाण्ड्वरिरसः शुद्र पारा और शुद्ध गन्धक १-१ कर्ष (र. रा. सुं.; वृ. नि. र. । पाण्ड.: रसें. चिं. (१०-११ तोला); बायबिडंग, कालीमिर्च, अद रक, हरे, बहेड़ा, आमला, निसोत, चीतामूल, म. । अ. ९) पीपल, दन्तीमूल, पुनर्नवा ( बिसखपरा-माटी) रसगन्धाभ्रलोहैक्यं पाण्ड्वरिः पुटितस्त्रिधा। थोहर (सेंड) का दूध, मानकन्द, हड़संघारी, कुमार्याक्तश्चतुर्वल्लः पाण्डुकामलपूर्वनुत् ॥ | यवक्षार, कूट और खांड ५-५ तोले तथा अभ्रक शुद्ध पारा, शुद्ध गधक, अभ्रक भस्म और | भस्म २० तोले लेकर चूर्ण योग्य चीजेका महीन लोहभस्म समान भाग लेकर सबको घीकुमार | चूर्ण बनाकर सबको एकत्र मिलाकर उसमें ५ तोले ( ग्वारपाठे ) के रसमें घोटकर टिकिया बनाकर | गर्म पानो और ५ तोले घी मिलाकर घोटें तदनसुखा लें और शरावसम्पुट में बन्द करके लघुपुटकी । तर उसे अद्रकके रस, त्रिफलेके काथ और दूधको आंच दें । इसी प्रकार ग्वारपारे के रसमें घोटकर १-१ भावना देकर आधे आधे तोलेकी गोलियां तीन पुट दें। बना लें। इसे १२ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे इन्हें कालीके साथ सेवन करनेसे अग्नि पाण्डु और कामला का नाश होता है। दीप्त होती और आमवात तथा अम्लपित्तादिका ( व्यवहारिक मात्रा २ रत्ती ।) नाश होता है। पानीयकुमाररस: पथ्य- दूध भात । " पानीयवटिका (सिद्धफला) ” देखिये । । (व्यवहारिक मात्रा--१ माशा तक) (४३२३) पानीयभक्तवटी (१) (४३२४) पानीयभक्तवटी (२) (मध्यम) (वं. से. । रसायन.) (भै. र. । अम्लपि.; र. र.; र. का. धे.; र. चि. शुद्धौ गन्धरसौ कर्फ विडङ्गमरिचाईकाः । म.; र. सा. सं. । ग्रह.; रसें. चि. म. । त्रिफलात्रिहतावह्निः कणा दन्ती पुनर्नवा ॥ अ. ९) स्नुक्क्षीरं मानकुलिशयावाग्ररोगखण्डिकाः । कृष्णाभ्रलोहमलकुष्ठविडङ्गचूर्ण प्रत्येकैकं पलं चूर्णमुष्णपानीयकं हविः ।।। प्रत्येकमेकपलिकं विधिवद्विधाय । For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४४३] चव्य कटुत्रयफलत्रयकेशराज परिणामशूल, अग्निमांद्य, कुष्ठ, पलित,बलि(शरीरकी दन्तीपयोदचपलाऽनलघण्टकर्णाः ॥ झुर्रियां ) श्वास, खांसी और पाण्डुका नाश होता मानोल्वकन्दवृहतीत्रिवृताःससूर्या | तथा जठराग्निकी वृद्धि होती है। ___ वर्ताः पुनर्णविकया सहितास्त्वमीषाम् । परहेज---सिंघाड़ा, बेल, गुड़, चौलाई, नारिमूलं प्रति प्रतिविशोधितमक्षमेकं । यल, दूध और हर प्रकारकी दालका परित्याग चूर्ण तदर्द्धरसगन्धकमेकसंस्थम् ॥ | करना चाहिये। कृत्वाकीयरससम्वलितश्च भूयः | (४३२१.) पानीयभक्तवटी (३) सम्पिष्य तस्य वटिका विधिवद्विधेया। (भै. र.; र. चि.; र. सा. सं.; र. रा. सु.; र. चं.; हन्त्यम्लपित्तमरुचिं ग्रहणीमसाध्यां वं. से.; र. का. थे. । रसायन.) दुर्नामकामलभगन्दरशोथगुल्मान् ॥ त्रिता चित्रकं मुस्तं त्रिफला यषणं तथा । शूलञ्च पाकजनितं सततामिमान्य । एकैकशो मतो भागस्तदर्धे रसगन्धयोः ।। __ सद्यः करोत्युपचयं चिरनष्टवह्नः। । लोहाभ्रकविडङ्गानां भागश्च द्विगुणो भवेत् । कुष्ठानि हन्ति पलितञ्च बलिं विश्रद्धां एतत्सकलचूर्णन्तु चूर्णयित्वा विचक्षणः॥ ___श्वासश्च कासमपि पाण्डुगदं निहन्ति ।। त्रिफलाया कषायेण गुटिकां कारयेद्भिषक् । शृङ्गाटबिल्वगुडकञ्चटनारिकेल तत्रैकां भक्षयेत्पातर्भक्तवारिपिबेदनु । दुग्धानि सर्वविदलानि विवर्जयेत्तु ॥ पक्तिशूलं त्रिदोषोत्थमम्लपित्तं वर्मि तथा । कृष्णाभ्रक भस्म, मण्डूरभस्म, कूठ और बाय- हृच्छूलं पार्श्वशूलश्च वस्तिकुक्षिगुदारुजम् ॥ बिडंगका चूर्ण ५-५ तोले । चव, सांठ, मिर्च, । कासं श्वासं तथा कुष्ठं ग्रहणीदोषमामजम् । पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, भंगरा, दन्तीमूल, | यकृत्प्लीहोदरं गुल्मं यक्ष्माणं ग्रहमेव च ॥ नागरमोथा, पीपल, चीता, घण्टकर्ण, मानकन्द, । विष्टम्भमामदौर्बल्यमग्निसादं नियच्छति । सूरण ( जमीकन्द ), कटेली की जड़, निसोत, सर्वानेताञ्छमयति भास्करस्तिमिरं यथा ॥ सूर्यावर्त (हुलहुल ) की जड़ और पुनर्नवा- ! निसोत, चीता, नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा, मूलका वस्त्रपूत महीन चूर्ण ११-१। तोला तथा आमला, सेांठ, मिर्च और पीपल १-१ भाग, शुद्ध पारे और गन्धककी कन्जली इन सबसे आधी पारद और शुद्ध गन्धक आधा आधा भाग तथा लेकर सबका एकत्र मिलाकर १ दिन अदरकके लोहभस्म, अभ्रकभस्म और बायबिडंग २-२ भाग रस में घोटकर (४-४ रत्तीकी ) गोलियां | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और बनावें । फिर उसमें अन्य ओषधियोंका कपड़छन चूर्ण इनके सेवनसे अम्लपित्त, अरुचि, कष्टसाध्य | मिलाकर सबको १ दिन त्रिफलाके काथमें घोटसंग्रहणी, अश, कामला, भगन्दर, शोथ, गुल्म, । कर (१-१ माशेकी ) गोलियां बनावें । For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४४४ ] इनमें से १-१ गोली नित्य प्रति प्रातः काल कांजी के साथ सेवन करनेसे पक्तिशूल, त्रिदोषज अम्लपित्त, वमन, हृदयशूल, पसलीकी पीड़ा, बस्ति कुक्षि और गुदाका दर्द, खांसी, श्वास, कुए, आमजन्य ग्रहणी विकार, यकृत्, तिल्ली, उदररोग, यक्ष्मा, विष्टम्भ, आम, दुर्बलता, और अग्निमांद्य का नाश होता है । (४३२६) पानीयभक्तवटी (४) भारत - भैषज्य - ( च. द. | अग्निमां. ) रसोर्द्धभागिकस्तुल्या विडङ्गमरिचाभ्रकाः । भक्तोदकेन सम्मर्थ कुर्याद् गुञ्जासमां गुटीम् ॥ भक्तोदकानुपानैका सेव्या वह्निप्रदीपनी । वार्यन्नभोजनं चात्र प्रयोगे सात्म्यमिष्यते ॥ पारद भस्म १ तोला तथा बायबिडंग और काली मिर्चका चूर्ण एवं अभ्रक भस्म २ -२ तोले लेकर सबको १ दिन काञ्जीमें घोटकर १-१ रत्ती की गोलियां बनावें । इन्हें कांजीके साथ सेवन करनेसे अग्नि प्रदीप्त होती है । इसके सेवन काल में मांडयुक्त भात खिलाना चाहिये । (४३२७) पानीयभक्तवटी (५) ( व. से. । रसायना. ) विडङ्गं पिप्पलीमूलं त्रिफलामुनिजं फलम् । लोहकं गन्धकं चित्रं पलार्द्ध चूर्णितं पृथक् ॥ यूषणं चूर्णितं ग्राहचं सार्द्धं द्विपलिकं पृथक् । अशुद्धाभ्रपकर्षार्धं पारदस्य च ॥ अस्थिसंहारनिर्गुण्डीनागवल्ल्यार्द्रकैः शुभैः । [ पकारादि रसैश्चतुष्पलैरेवं भावयित्वा पृथक् पृथक् ॥ यथाग्निं भक्षयेदेनां वटीमनुपिवेज्जलम् । वारिभक्तञ्च भुञ्जीत कुर्य्यात्पूर्वोक्त कान्गुणान्।। - रत्नाकरः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बायबिडंग, पीपलामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, हिंगोटके फलकी गिरी, लोहभस्म, शुद्ध गन्धक और चीतामूल २॥ - २॥ तोले तथा सोंठ, मिर्च और पीपल २||२|| पल ( प्रत्येक १२|| तोले ); अम्लपदार्थों के योगसे मारा हुवा अभ्रक ५ लोले और शुद्ध पारा ७|| माशे लेकर प्रथम पारे गन्धक की कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियेांका चूर्ण मिलाकर उसे क्रमश: हड़जोड़ी, संभाल, पान, और अदरकके २०-२० तोले रस में पृथक् पृथक् धोटें । तदनन्तर (१ - १ माशेकी ) गोलियां बनाकर सुरक्षित रखखे । इन्हें पानी के साथ सेवन करनेसे आमवात, ग्रहणी, गुल्म और शूल नष्ट होता है । इसके सेवनकाल में मांड सहित भात खिलाना चाहिये ! (४३२८) पानीयभक्तवटी (६) (व. से. । रसायना.) त्रिफला त्रिकटुकमुस्त कविडङ्गभल्लातककेशराजा नाम् । करिवर्त्तच्छददन्ती तण्डुलिका पुनर्नवा त्रिवृता ।। चित्रद्विजीरकचूर्णान्येकत्र कर्षमितानि कार्याणि । गन्धशिलाकर्षार्धं गगनपलं शोधितं विधिवत् ॥ अम्शुक्तभक्त पयसि पक्त्वा कुर्य्यादर्धमाषिकां टिकाम् । अम्लं वानुपेयं कार्यं तदनुविहितं पथ्यम् || For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसमकरणम् ] कफातिदुष्टवनेर्नातः परमत्र भेषजं दृष्टम् । हन्यात्तदामवातं ग्रहणीगद्गुल्म शूलरुजः || [ ४४५ ] पीपलामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चीतामूल, निसोत और पद्मगुग्गुलु (गूगल भेद, जिसका रंग लाल माणिक्यके समान होता है ) आधा आधा कर्ष; त्रिकुटा ( समान भाग-मिश्रित सांठ, मिर्च और पीपल ) ३॥ कर्ष, सेंधा नमक, सवल (काला नमक) और बायबिडंग १ -१ कर्ष (१४-१ | तोला) और सम्पुटमें भस्म किया हुवा अभ्रक ५ तोले लेकर सबका अत्यन्त महीन चूर्ण बनाकर उसे चिरचिटा (अपामार्ग), अदरक, संभालू, नागरवेलके पान और हड़जोड़ी १० - १० तोले रसमें पृथक् पृथक् घोटकर कमलगे के बराबर गोलियां बना लें। हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, बायबिडंग, शुद्र भिलावा, कालाभंगरा, गजपीपल, तेजपात, दन्तीमूल, कांटे वाली चौलाईकी जड़, पुनर्नवामूल (साठी), निसोत, चीतामूल और दोनों जीर । इन सबका कपड़छन चूर्ण १-१ क (११--१1 तोला) तथा शुद्ध गन्धक का चूर्ण आधा कर्म एवं अभ्रक भस्म ५ तोले लेकर सबको ४ गुने खड्डे सिरके या चावलोकी कांजी में पकावें । जब पाक तैयार हो जाय तो ठंडा करके आधे आधे माशेकी गोलियां बना | 1 इसे काञ्जीके साथ सेवन करना चाहिये । कफसे अत्यन्त दुष्ट जरामिके लिये इससे उत्तम अन्य कोई भी औषध नहीं है । इसके अतिरिक्त यह संग्रहणी, आमवात, गुल्म और शूलको भी नष्ट करती है 1 (४३२९) पानीयभक्तवटी (७) (व. से. । रसायना.) ग्रन्थिकं त्रिफला चित्रं त्रिवृलोहितकुम्भकम् । एषां कर्द्धकं चूर्णे प्रत्येकं तावदुन्मितम् ॥ sri raj giri fasङ्ग कार्षिकं पृथक् । पलं कृष्णाभ्रकञ्चैवमन्तरदग्ध्वा विनिःक्षिपेत् || शिलायां पेषणं कृत्वा सर्वमेकत्र योजयेत् । शिखर्याक निर्गुण्डी नागवल्यस्थिसंहृता ॥ रसैर्द्विपलिकैरेषां भावयित्वाऽक्षसम्मिताम् । कृत्वैकां भक्षयेत्मातरम्लवारि पिवेदनु || वातश्लेष्मामयान् हन्ति वह्निसादं ज्वरं वमिम् आमवातं जरत्पित्तं वारिभक्तवटी मता ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्हें प्रातःकाल काञ्जी साथ सेवन करने से वातकफज रोग, अग्निमांद्य, ज्वर, वमन, आमवात और परिणामशूलका नाश होता है । ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती । ) (४३३०) पानीयभक्तवटी (८) (व. से. । रसायना.) मानन्दोऽश्वकर्णश्च ता मुस्तकं तुणिः । त्रिकटु त्रिफला भृङ्गमपामार्गश्च दाडिमम् ॥ तुम्बीबृहतिका जातीद्वयञ्च शतपुष्पिका । सूर्यावर्त्तस्तालमूली चूर्णमेषाश्च कार्षिकम् ।। कर्पद्वयं विडङ्गानां बलेः पादोनकर्षकम् । गुडूच्यभ्रकमण्डूरान् प्रत्येकं वेदकार्षिकान् ।। सुचूर्णमाकं वस्त्रपातितं काञ्जिके क्षिपेत् । अम्ले पयसि वा पश्चादुद्धरेत्पश्च मेऽहनि । निर्वापयेच मण्डूरं त्रिफलाया रसे शुभे । सूर्यावर्तसे वाऽथ चोभयत्र च वा भिषक् ॥ For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त-भैषज्य रत्नाकरः । [ ४४६ ] ततः पुटानि देयानि वक्ष्यमाणैर्महौषधैः । वंशपरसैः पूर्वं पुटयेदातपे भिषक् ॥ मण्डूकपर्णी चित्रञ्च दन्तीरसपुनर्नवे । त्रिता तालपटोलं चास्थिसंहार एव च ॥ आर्द्रकं तालमूली च सूर्य्यावर्त्तञ्च शिम्बिका । केशराजो भृङ्गराजः शतमूली च मुस्तकम् ॥ ततः प्रक्षिप्य चूर्णानि हिङ्गुकर्षचतुष्टयम् । सप्तधा पेषयेद्गाढं त्रिफलाकाथवारिणा ॥ तेनैव गुटिकां कुर्यान्मापैकैकप्रमाणिकाम् । बटिकाद्वितयं भक्ष्यमम्लवानुपानतः ॥ वयोवस्थामग्निवलं व्याधिं प्रकृतिमेव च । दृष्ट्वा मात्रां प्रयुञ्जीत यथाक्षेपं प्रदीयते ।। ग्रहणीमम्लपित्तञ्च पित्तश्लेष्माणमेव च । असि वहूनिसादञ्च लीहानमरुचिन्तथा ॥ afrai निहन्त्याशु नात्र कार्या विचारणा || भारत मानकन्द, अश्वकर्णपलाशकी छाल, निसोत, नागरमोथा, तुनकी छाल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आभला, भंगरा, चिरचिटा (अपामार्ग), अनारदाना, तुम्बी, कटैली, जावित्री, जायफल, सौंफ, हुरहुर और तालमूलीका चूर्ण १-१ कर्ष (१। - १| तोला), बायबिडंगका चूर्ण २ कर्ष, शुद्ध गन्धक पौन कर्म तथा गिलोयका चूर्ण ४ कर्ष लेकर सबको एकत्र मिलावें । | तदनन्तर ४ कर्ष शुद्ध अभ्रकके कपड़छन चूर्णको खट्टी कांजी अथवा दूध में डाल दें और पांचवें दिन निकाल लें । इसी प्रकार शुद्ध मण्डूरके ४ कर्ष चूर्णको तपा तपाकर (७ बार ) त्रिफलाके काथ अथवा हुरहुर स्वरस या इन दोनों में बुझावें । [ पकारादि तदनन्तर उपरोक्त अभ्रक और मण्डूरको एकत्र मिलाकर उन्हें वंशपत्री, मण्डूकपर्णी, (ब्राह्मी), चीता, दन्तीमूल, पुनर्नवा, निसोत, ताड़, पटोल, अस्थिसंहार, अद्रक, तालमूली, हुरहुर, सेम, कालाभंगरा, मंगरा, शतावर और नागरमोथे में से जिनके स्वरस मिल सकें उनके स्वरसकी और शेषके काथे की धूपमें पृथक् पृथक् १ - १ भावना दें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसके बाद इसमें पूर्वोक्त ओषधियांका चूर्ण तथा ५ तोले भुनी हुई हींग मिलाकर सबको त्रिफला काथकी सात भावना देकर १-१ माशे की गोलियां बना लें । इनमें से २-२ गोली काञ्जी के साथ सेवन करने से ग्रहगीरोग, अम्लपित्त, शीतपित्त, अर्श, अग्निमय, तिल्ली और अरुचिका नाश होता है। इसकी मात्राका निर्णय रोगीकी आयु, रोगकी दशा और अग्नि, बल तथा प्रकृति आदिका विचार करके करना चाहिये । नोट- उपरोक्त विधिसे अभ्रक कच्चा रहता है इस लिये अभ्रक और मण्डूर के चूर्ण को मिलाकर बंशपत्री आदिके रस में घोट घोटकर पृथक् पृथक् १-१ गज पुट लगा देनी चाहिये । ( ४३३१) पानीयवटिका (१) ( र. रा. सुं.; मैं. र. । ज्वरा. ) रसमाषकचत्वारि इष्टकागुण्डके ग्रहम् । शोधयित्वा ततः शोध्यं तीक्ष्णपर्णे तथाके ॥ स्वर्णस्तूरसत्वे च वृद्धदारद्रवे तथा । कन्यकानिजसत्वे च रसशोधनमुत्तमम् ॥ गन्धकं रसतुल्यन्तु प्रक्षाल्य तण्डुलाम्बुना । कृत्वा तैलसमं दय निर्वाप्य चित्रकद्भवे ॥ For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसमकरणम् ] द्वाभ्यां कज्जलिकां कृत्वा लौहचूर्णस्य माषकम् सुवर्णमाक्षिकमपि तत्र लौहसमं ददेत् ॥ कृत्वा कण्टकवेध्यन्तु ताम्रं कज्जलले पितम् । मुहूर्त्त धम्यतस्ता द्रुतं चूर्णत्वमाप्नुयात् ॥ एकीकृत्य तु तत्सर्वं ततः प्रस्तरभाजने । मर्दयेत्ताम्रदण्डेन दत्त्वा चैषां निजद्रवम् ॥ प्रथमे केशराजश्च द्वितीये ग्रीष्मसुन्दरः । तृतीये भृङ्गराजश्च चतुर्थे भेकपर्णिका || पञ्चमे च निसुन्दारः षष्ठे च रसपूर्तिका । सप्तमे पारिभद्रव अष्टमे रक्तचित्रकः ।। शक्राशनच नवमे दशमे काकमाचिका । एकादशे तथा नीला द्वादशे हस्तिशुण्डका || अमीषामौषधानाञ्च प्रत्येकन्तु पलद्रवम् । मर्दयेत्तु प्रयत्नेन द्वादशाहेन साधकः ॥ ततः पारदमानन्तु दत्त्वा त्रिकटुगुण्डकम् । afai राजिकातुल्यां छायाशुष्कां समाचरेत् ततः शम्बूकजे पात्रे कर्त्तव्या त्रुटिका त्वियम् । शरावे शङ्खपात्रे वा कृत्वा सलिलगोलितम् ॥ अत्यन्तदोषदुष्टाय ज्ञानशून्याय रोगिणे । ऊर्ध्वयोनिं समभ्यर्च्य प्रदद्याद्वटिकाद्वयम् ॥ ढक्कयेत्तं ततः पश्चान्नरं स्थूलपटादिभिः । मलमूत्रागमात्सद्यः स साध्यो भवति द्रुतम् ।। दध्यन्नन्तु ततो दद्यात् पिबेत् वारि यथेच्छया दधाद्वातहरं तैलमभ्यङ्गाय सदैव हि ॥ चिरज्वरे पिवेद्वारि पञ्चमूलीमसाधितम् । ग्रहण्यां रक्तपित्ते च पिवेदतिविषां गदी || पिबेत्पर्पजं वारि घोरे कम्पज्वरे तथा । तथा ज्वरातिसारे च जीरकस्य जलं पिबेत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४४७ ] मन्दाग्नौ कामलायां च संग्रहे ग्रहणीगदे । कासे श्वासे सदा कार्या पानीयव टिका त्वियम् ॥ ५ माशे साधारण शुद्ध पारदको प्रथम ईंटके चूर्ण के साथ अच्छी तरह घोटें और फिर उसे उससे अलग करके १-१ दिन कमरख, अदरक, धतूरा, बिधारा और घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ) के रस में पृथक् पृथक् घोटकर कांजीसे धो डालें । एवं ५ माशे शुद्ध गन्धकको चावल के पानी में धोकर उसे करछी में पिघलाकर चीतेके बाथमें बुझावें । तदनन्तर इस प्रकार शुद्ध पारद और गन्धक की कज्जली बनाकर उसमें १-१ माशा शुद्ध लोह और स्वर्ण माक्षिकका महीन चूर्ण मिलाकर नीबू आदि के रस में घोटकर उसे ५ माशे शुद्ध ताम्र कण्टकवेधी पत्रों पर लेप कर दें और उन्हें दृढ़ मूपा में बन्द करके तीत्राग्नि में धमावें । इससे थोड़े समय में ही ताम्रकी भस्म हो जायगी । इस भस्मको पत्थरके खरल में शुद्ध ताम्बेकी मूसलीसे काला भंगरा, गूमा, भंगरा, मण्डूकपर्णी, संभालु, मालकंगुनी, पारिभद्र ( फरहद), लालचीता, कुड़ा, मकोय, नील और हाथीसुण्डीके ५-५ तोले स्वरसमें क्रमश: १-१ दिन घोटें । तत्पश्चात् उसमें ५ मा त्रिकुटेका चूर्ण मिलाकर राईके बराबर गोलियां बना कर छाया में सुखा लें 1 । जब सन्निपात ज्वरमें दोषों की अधिकताके कारण रोगी संज्ञा हीन हो तब इनमेंसे २ गोली शंख या मिट्टीके कोर शरावमें शीतल जलमें घिस - For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४४८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि कर पिला दें और उसे गर्म कपड़ा उढ़ाकर । त्रैलोक्यविजया चैव तथा श्वेतापराजिता । लिटा दें। प्रत्येकं कार्षिकं चैव रसमाकृष्य भाजने ॥ यदि यह औषध खिलानेके बाद रोगीको एकैकञ्च रसं दत्त्वा मर्दयेल्लौहदण्डतः । मलमूत्र आ जाय तो रोगको साध्य समझना चाहिये चण्डावपे च संशोष्य क्षीरं तत्र पुनः क्षिपेत् ॥ अन्यथा नहीं। | स्नुहीक्षीरं चार्कदुग्धं वटदुग्धं तथैव च । मलमूत्र आनेके पश्चात् यथोचित समयपर प्रत्येकं कार्षिकं दत्त्वा मदेयेच्च पुनः पुनः॥ दही भातका पध्य और रोगीकी इच्छानुसार जल | सुमर्दितश्च तं ज्ञात्वा यदा पिण्डत्वमागतम् । पिलाना चाहिये । तथा नित्य किसी वातनाशक | द्रव्याण्येतानि संचूर्ण्य वस्त्रपूतानि कारयेत् ॥ तैलकी मालिश करानी चाहिये । दग्धहीरं चातिविषा कोचिला चाभ्रकं तथा । जीर्णज्वरमें वृहत्पञ्चमूलसे पका हुवा पानी; पारदं शोधितश्चैव गन्धक विषमाधुरम् ॥ ग्रहणी रोगमें मलमार्गसे रक्त जाता हो तो अतीस | हरितालं विषश्चैव माक्षिकञ्च मनःशिला । का काथ, घोर कम्पज्वरमें पित्तपापड़ेका पानी प्रत्येकञ्च चतुर्मापं सर्व चूर्णीकृतश्च तत् ॥ और ज्वरातिसारमें जीरका पानी पिलाना चाहिये। प्रक्षिप्य मर्दयेत् सर्वं शोधयित्वा पुनः पुनः । ___ यह वटी मन्दाग्नि, कामला, संग्रहणी, खांसी, | सम्मर्दितं च तं दृष्ट्वा चाङ्गेरीस्वरसेन तु ॥ और श्वासको भी नष्ट करती है । उत्थाप्य भेषजं दृष्ट्वा यदा पिण्डत्वमागतम् । (४३३२) पानीयवटिका (२) (सिद्धफला) तिलप्रमाणा गुटिकाः कारयेन्मतिमान् भिषक् ।। (र. र.; र. रा. सुं.; भै. र. । ज्वरा.) त्रिदोषज्वरितो वैद्यमुक्तोऽपि बहुसम्मतः । अनाथनाथो जगदेकनाथः लङ्घनेवालुकास्वेदैः प्रक्रान्तो दीनदर्शनः ॥ श्रीलोकनाथः प्रथमः प्रसन्नः । सम्पूज्य करुणाधारं प्रणम्य च खसपेणम् । जगाद पानीयवटीं सुपट्वी पलेन वारिणा घृष्ट्वा चतस्रो वटिकाः पिबेत् ॥ ___ तामेव वक्ष्यामि गुरुप्रसादात् ।। पीततद्भेषजं पश्चाद्वस्त्रैराच्छादयेन्नरम् । जयार्कस्वरसञ्चैव-निर्गुण्डी वासकं तथा । रसलग्न वपुर्ज्ञात्वा दद्याद्वारि सुशीतलम् ॥ वाटयालकं करञ्जश्च सूर्यावर्त्तकचित्रको ।। शरावप्रमितं वारि पातव्यञ्च पुनः पुनः। ब्राह्मी वनसर्षपञ्च भृङ्गराजं विनिक्षिपेत् । सनिपातन्वरश्चैव दाहश्चैव सुदारुणम् ।। दन्ती च त्रिता चैव तथारमधपत्रकम् ।। कासश्वासश्च हिकाश्च विग्रहं चाश्मरी जयेत् । सहदेवामरं भण्टी तथा त्रिपुरभण्टिका। मूत्ररोधविबन्धे तु दातव्यं क्षीरसंयुतम् । मण्डूकपर्णी पिप्पल्यौ द्रोणपुष्पकवायसी । | पञ्चतृणकृतं काथं दातव्यश्च पुनः पुनः । गुञ्जाकिनी केशराजस्तथा योजनमल्लिका। पानीयवटिका ह्येषा लोकनाथेन निर्मिता ॥ आसारणेति विख्यातो धुस्तूरकनकस्तथा ॥ । लोकानामुपकाराय सर्वसिद्धिपदायिनी ।। For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् तृतीयो भागः। [४४९] - wan a mummmmmmmmmunis अरनी, आक, संभाल, बासा, नागबला, सन्निपात ज्वरकी घोर दाह, खांसी, श्वास, हिक्का करञ्ज, हुलहुल, चीता, ब्राह्मी, बनसरसों, भंगरा, (हिचकी), मलावरोध, अश्मरी और मूत्राघात को दन्ती, निसोत, अमलतास, तेजपात, सहदेवी, भी नष्ट करती हैं। अमरकन्द, सिरस, सदजटा, मण्डूकपर्णी, पीपल, मूत्राघातमें इन्हें दूधके साथ देना और बार गजपीपल, गूमा, मकोय ( काकमाची), गुना, बार तृणपञ्चमूलका हाथ पिलाना चाहिये। कालाभंगरा, योजनमल्लिका (हाफरमाली), आसारण, पापरोगान्तको रसः धतूरा, नागकेसर, भांग और सफेद कोयल; इनमें (पापायोगः) से प्रत्येकका स्वरस १-११ तोला लेकर क्रमशः (र. चं. । क्षुद्रशे., रसें. चिं. म. ! अ. ९) १-१ रसको पत्थरके खरलमें लोहे की मूसलीसे दुर्लभरस ३२१६ देखिये । घोटें; जब एकरस घोटते घोटते गाढ़ा हो जाय। तो उसे तेज धूप में सुखाकर उसमें दूसरा रस डाल । (४३३३) पारदगुटिका कर घोटें । अन्तमें ( सब रसेकि सूख जाने पर, (र. र. रसाय. ख. । उपदे. ७) उसमें ११-१। तोला सेंड (थूहर) का दूध, आकका कृष्णधत्तूरतैलेन पारदं घपयेदिनम् । दूध और बड़का दूध एक एक करके डालकर घोटें। त्रिलोहर्वेष्टितं बद्धं तत्कटयां वीर्यधारकम् ॥ जय लुगदी सी बन जाय तो उसमें हीरकी भस्म, शुद्ध पारदको एक दिन काले धतूरेके तैलमें अतीसका चूर्ण, शुद्ध कुचलेका चूर्ण, अभ्रक भस्म, घोटे फिर उसमें समान भाग त्रिलोह ( स्वर्ण, चांदी शुद्ध पारद और गन्धक, (दोनेांकी पृथत कजली और तान ) का बारीक चूर्ण मिलाकर धोटकर बनाकर), मीठा विष (शुद्ध वछनागका चूर्ण), शुद्ध गोली बनावें । हरतालका अत्यन्त महीन चूर्ण, सर्पविष, सोनामक्खी भरम और शुद्ध मनसिलका चूर्ण ५-५ । इसे कमरमें बानेसे वीर्यस्तम्भन होता है । माशे मिलाकर अच्छी तरह घोटें और फिर उसे | (४३३४) पारदद्रुतिः चांगेरी ( चूके ) के रसमें घोटकर तिलके भमान (र. का. धे. । गुल्गा. अ. २१ ) गोलियां बना लें। | नो नरस्य केशांस्तु विमृद्योपलया धिया । सन्निपातके जिस रोगीको अनेक वैध अनेक निर्मलीकृत्य नीरेण गुममूक्ष्मान्हि खण्डकान् ।। प्रकारके उपचार करके जवाब दे चुके हैं। उसको भी । कृत्वा शरावमध्ये च स्थापयेदेकरात्रकम् । इसकी ४ गाली शीतल जलके साथ देकर गर्म कपड़ा नीहारे सम्पुटीकृत्य मृदाधश्छिद्रसंयुतम् ।। उढ़ाकर लिटा देना चाहिये और प्यास, शीतल आकाशयन्त्रके वहि कुक्कुटेन पुटेन तु। जल देना चाहिये । इससे पसीना आकर ज्वर दत्त्वा तच्छिद्रतो बिन्श्छ्वे त पीतमुलोहितान् ।। नष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त थे गोलियां गृहणीयान च तान्क शान्केशलमितीरितम् । For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४५०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि सलमर्धसेहुण्डक्षीरेण परिमृद्य च ॥ | इस तैलमें इससे आधा सेंड (सेहुंड-थूहर) तधन्त्रेणैव सङ्गह्य तुर्याशं नवसादरम्। | का दूध मिलाकर घोटें और फिर पूर्वोक्त विधिसे सम्पर्घ तेन संलिप्य काचसम्पुटकान्तरम् ।। इसका तैल निकालें । अब इस तेलमें इसका पारदं च विमृद्गीयाधामद्वितयकावधि । चौथा भाग नसद्दर मिलाकर अच्छी तरह घोटें और कांचके खरलमें उसका लेप करदें । इस रुद्धा सम्पुटके तस्मिंस्स्थापयेद्गर्भगर्तके ।। खरलमें पारद डालकर उसे दो पहर तक कांचकी सद्यो युवाश्चमलके संरुध्य दिवसत्रयम् । या चीनीकी मूसलीसे खरल करें । इसके पश्चात् सञ्चित्याजशकृत्सप्त दिनान्येवं स्थितिर्भवेत् ।। उस खरलपर उतनाही बड़ा दूसरा कांच का खरल अष्टमे दिवसे तत्तु गृह्णीयाद्भिपजां वरः। उलटा करके ढक दें और दोनेके जोडको अच्छी स्वच्छा सलिलरूपा सा पारदस्य तिर्भवेत् ॥ तरह बन्द कर दें । तदनन्तर एक अच्छा गहरा गुझा तुरीयभागेन यथारोगानुपानतः। गढ़ा खोदकर उसमें आधे तक जवान घोड़ेकी सर्वरोगहरी ख्याता शूलगुल्मादिकागदान् ॥ ताज़ी लीद भरवा कर उसपर यह कांचका सम्पुट शिमं विनाशयत्येव शङ्करोक्तमितीरितम् ।। रख दें और उसके ऊपर भी लीद डलवाकर ___ जवान मनुष्यके बालोंको थोड़ी देर बालू गढ़ेको भर दें। एवं ३ दिन पश्चात् उसमें से रेतके साथ मलकर पानीसे धो डालें । इससे वह | वह लीद निकलवाकर उसकी जगह बकरीको स्वच्छ हो जायंगे । तत्पश्चात् उन्हे कैंचीसे काटकरे मींगनी भरवा दें और उसे सात दिन तक बन्द बारीक कर लें । उन्हे एक शरावेमें डालकर रात- रहने दें । तथा आठवें रोज गढ़े में से खरलको भर ओसमें रक्खा रहने दें और दूसरे दिन उस निकालकर उसे सावधानी पूर्वक खोलकर उसमें शरावकी तलामें थोडेसे बारीक बारीक छेद कर दें से पानीके समान दुत पारदको निकाल कर सुरऔर उसके ऊपर दूसरा शराव ढककर दोनोंके | क्षित रक्खें। जाड़को अच्छी तरह बन्द करके सुखा लें । तद- इसमें से चौथाई रत्ती भर दवा यथोचित नन्तर मिट्टीके एक मजबूत कँडेकी तलीमें छेद | अनुपानके साथ देनेसे शूल गुल्मादि समस्त रोग करके उसमें उपरोक्त सम्पुट रख दें और उसे चूल्हे । पर रखकर कूडे में अरने उपले भरकर आग लगा (४३३५) पारदबुभुक्षाविधिः (१) दें। इस क्रियासे कूडेके छेदमेंसे पहिले सफेद (रसायनसार ) रंगका फिर पीला और फिर लाल रंगका प्रवाही | हालाहलो ब्रह्मसुतः प्रदीपः टपकेगा । उसे कांच या चीनीके पात्रमें इकट्ठा कर हारिद्रकः शृङ्गिकवत्सनाभौ । लें । अन्तमें जब काले रंगकी बूंदें टपकने लगे तो | सौराष्टिकः सक्तुककालकूटाउन्हें छोड़ दें। यह प्रवाही " केशतैल " है। वेतद्यथालाभविषेषु सूतम् ।। For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ]] तृतीयो भागः। [४५१] सम्पर्घ सम्म पृथकस्थितेषु सप्ताथवा त्रीण्डमरूकयन्त्रे । उत्थाप्य चोत्थाप्य पुनःपुनस्तं क्षाराम्लवर्गे परिपाचयेत ॥ क्षाराम्लवगैविषमष्टमांशं सूते प्रदायोत च षोडशांशम् । मददृश्यावधि सूतराज शुष्के द्रवे पात्यमिमं वदन्ति ॥ वारांश्च सप्तोपविषेषु मर्दे स्पृथक्पृथक् चास्य बुभुक्षणार्थम् । स्नुमत्तौ हलिनी हयारि गुंजाहिफेनोऽनु विषाणि सप्त ॥ सम्मर्दितं तं गरले तु पश्चा दुत्थापयेदुत्थितियन्त्रकेण । क्षाराम्लकैर्जागरितोऽथ जात वक्त्रः क्षमोऽसौ कवलाय सूतः ।। शवद्रुटङ्कमतिसारणीयाः पानीयसंज्ञो नवसादरोपि । गवादिमूत्रोद्भवधातुशुद्धि क्षारास्तथान्ये मुखयन्ति मूतम् ॥ ऐरावताम्लातकबीजपूर जम्बीरिकातिन्तिडिनिम्युचुक्राः । आम्राम्लसारौ करमर्दकाधाः श्रीसूतराजं खलु बोधयन्ति । औदर्यवहिः खलुमन्दतायां ग्रासो गृहीतो न जरां यथैति । सम्यक्फलं यच्छति वा न किन्तु स्वयं स वान्त्यादिगतैर्निरेति ॥ सुप्तो यथा जातबुभुक्षकोपि ग्रास ग्रहीतुं क्षमते न यद्वत् । संजाग्रदप्यस्तरुचिर्मनुष्यो गृहन्न दृष्टः कवलं च यद्वत् ।। तद्वश्च भूतः परिपक्ष्यमाणो प्रासं पुरातः क्षुधितो विधेयः। उभिद्रतायै रुचये च मूतः संस्वेदनीयो मुनिभिः पदिष्टः॥ दोषापहृत्याविव पञ्चकर्मा युधिरादीनि यथा क्रियन्ते । तथोर्द्धपातादिविधिश्च मूते - संस्कारनाम्ना कथितो मुनीन्द्रैः ॥ सम्मईनं चाप्युभयत्र तुल्यं तुल्यं परीपाकविधानकं च । कर्मानुसारेण वियोगयोगी कर्मण्यशकेनेरमूतयोश्च ॥ पारदकी बुभुक्षाविधि अर्थ-हालाहल, ब्रह्मपुत्र, प्रदीपन, हलदिया, | सीगिया, वछनाभ, सौराष्ट्रिक, सक्तुक, कालकूट; इन नौ विपोंमेंसे प्रत्येकमें सात सात बार अथवा तीन २ बार शुद्धपारदको घोट घोटकर ( ताजेउम्र वीर्य विष मिल जाय तो तीन तीन बार घोटनाही पर्याप्त है, और यदि पुराने मन्दवीर्य विष मिलें तो सात सात बार घोटना चाहिये) डमरुयन्त्रमें बारंबार उड़ाता जाय और क्षारवर्ग तथा अम्लवमें दोलायन्त्रसे स्वेदन करता जाय । यहां पर मर्दन करनेकी ऐसी पदति है कि यदि : सेर पारद होय तो उग्रविध अष्टमांश ( पा . For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४५२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [पकारादि मन्दवीर्य चतुर्थांश ( आधासेर) डाले । और क्षार ! हैं जिससे सर्पभी नहीं मरे और विषभी निकल तथा अम्लका पानी डालकर तबतक घोटे कि जब | आवे । मुझे भी उन ही लोगोंसे प्राप्त हुआ तक पारद दीखना बन्द न हो जाय और द्रवपदार्थ | था। शङ्खद्राव, सुहागा, प्रतिसारणीय और न सूख जाय फिर उसको डमरुयन्त्रमें उड़ाने योग्य पानीयक्षार१, और सुवर्णादि समस्त धातुओंके समझे । इस विधिसे नौ विषेमें और सात उप- शोधनेमें जिन जिन औषधियोंके स्वरसादि निकाले विषोंमें ६३ बार पारदको घोटना पड़ता है और गये हैं उनका क्षार, सैंन्धवादि सर्वलवण भी क्षारके तिरसठ बार ही डमरुयन्त्रमें उड़ाना पड़ता है तथा अन्तर्गत ही हैं। इनमें पारदको घोटने या स्वेदित तिरसठ बार ही दोलायन्त्रमें स्वेदन करना होता करनेसे ग्रास ग्रहण करनेके लिये पारदके है । परन्तु इतने विष तो मुझे प्राप्त हुए नहीं थे मुख ( रुचि ) हो जाता है और नारङ्गी, किन्तु वछनाभ, सींगिया, और हलदिया बस ये ही अम्बाड़ा ( अमड़ा-जिनका अचार डाला जाता है तीन स्थावर विष मिले थे इनही में तिरसठ बार घोट- मोरछलीके समान छोटेछोटे फल होते हैं ), बिजौ घोटकर उक्त संख्या समाप्त करनी पड़ी थी। मैंने । रानीबू, जमीरीनीबू , कागजीनीबू, 'चूका, कच्चे नो विषको इस वास्ते लिख दिया है कि शायद आम, अमलबेंत ( जिसके रस्से के समान बटे हुए किसी वैद्यराजको अन्य विष भी प्राप्त हो जायं बाजारमें मिलते हैं ) और करौंदा, इत्यादि अम्लतो केवल तीन ही विषोंमें घोटनेकी क्या जरूरत वर्गकी कांजीमें पारदका मर्दन स्वेदन करनेसे पारद है ? बाद सात उपविषोंमें भी पूर्ववत् । ग्रास ग्रहण करने के लिये जागरुक हो जाता है । क्षाराम्ल योगसे सात सात बार घोटे, और प्रत्येक जैसा कि “क्षारामुखकराः सर्वे सर्वे ह्यम्लाः बार डमरूयन्त्रमें उड़ा उड़ाकर स्वेदन करता रहे; | प्रबोधकाः ” पारदके ग्रास ग्रहण करनेमें जिसमें पारंदमें बुभुक्षा उत्पन्न होय । उपविषेके | बुभुक्षा, जागरण, मुखीकरण, कारण हैं इस बातको ये नाम हैं-थूहरका दूध, आकका दूध, धतूरेकी युक्तियोंसे सिद्ध करता हूं कि-जैसे जो मनुष्य जड़, कलिहारी, कनेरकी जड़, चिरमिठी (बूंघची) । मन्दाग्नि है अर्थात् जिसको भूख नहीं लगी है की जड़ या बीज, और अफीम, इनमें कोई चीज उसको ग्रास ( भोजन ) कराया जाय तो वह ऐसी नहीं है जो नहीं मिले । इतनी क्रियाके | पचता नहीं और अपना फल प्रदान (बलवर्द्धनादि) बाद सर्पके विष और काजी में घोटकर डमरूय- | भी यथार्थ रूपसे नहीं कर सक्ता किन्तु वमन रेचन्त्रमें रखकर उड़ाले, और क्षाराम्लमें स्वेदन करले नके द्वारा स्वयं कच्चे का कच्चा ही निकल तो सुप्तोत्थित मनुष्यकी तरह पारद अति बुभुक्षित जाता है और जैसे कोई मनुष्य भूखा भी होकर ग्रासग्रहणके लिये समर्थ होता है । सर्पका १-इन दोनों क्षारोंकी विधि "पकारादि मिश्र प्रकरण" में देखिये। विष सपेरेसेि मिल सक्ता है। वे लोग ऐसी होशि २-क्वाथादि छान लेने के बाद बचे हुवे फोकों को यारीसे सर्पके गलेसे विषकी थैली को निकाल देते / जमा करके सुखाकर उनका क्षार बना लिया जाता है । For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसप्रकरणम् ] [ ४५३] है पर सुप्त (सोया हुआ ) है, तो भी भोजन में समर्थ नहीं होता । तथा कोई मनुष्य भूखा भी है और जग भी रहा है परन्तु उसको मुखीकरण ( अन्नमें रुचि ) नहीं है तो उस हालत में भी वह भोजन नहीं करता अर्थात् जबरदस्ती से उसे भोजन दिया जाय तो वमनादि द्वारा निकल जायगा | तात्पर्य यह हुआ कि बुभुक्षा जागरण रुचि ये तीनों ग्रास ग्रहण में कारण हैं तैसे ही पारद भी विषोपविषके योगसे बुभुक्षित, क्षा के योग से रुचिमान्, अम्लवर्ग के योगसे जागरुक होकर ग्रासको पचा सका है । इसी लिये महर्षियोंने पारद बुभुक्षादि संस्कार कहे हैं । अर्थात् जो वैद्य परिश्रम और द्रव्यके लोभसे पार - ah बुभुक्षादि संस्कार नहीं करके स्वर्णग्रास देकर चन्द्रोदय रस बनाते हैं, वे पूर्णफलके भागी इस लिये नहीं हो सक्ते कि चन्द्रोदयपाक करते समय सम्पूर्ण सुवर्ण शीशी तलभागमें रह जाता है और सुवर्णसिन्दूर शीशीके गले पर जा लगता है । जो ग्रास पचनेको दिया गया है वह जब नहा पचकर निकल गया तो चन्द्रोदय प्रबलशक्तिक कैसे हो सक्ता है ? और जैसे कफदोष के नाशार्थ वमन, पित्तदोपके नाशार्थ विरेचन, वातदोषके नाशार्थ बस्ति ( पिचकारी ) आदि पञ्चकर्म मनुष्यके होते हैं, वैसे ही पारदके भी ऊर्द्धपातन, तिर्य्यक् पातन, आदि १८ संस्कार किये जाते । इस रसायनसारके प्रथम भाग में मैंने १८ संस्कार इस लिये नहीं लिखे हैं कि संपूर्ण संस्कारोंका मैंने अभी तक अनुभव नहीं किया है परन्तु ईश्वरकी कृपा और परिश्रमके आगे १८ संस्कार कुछ दुष्कर नहीं हैं। अनुभव करके अग्रिम भागों में लिखूंगा । बिना अनुभूत किये लिखना मेरी आदत नहीं है और जैसे 'स्नेहस्वेदोपपादनैः पञ्चकर्माणि कुर्वीत " इस चरकवचनानुसार बमन विरेचनादि पञ्चकर्मों से पहिले स्नेह स्वेद (तैलमालिश बफारा ) दिया जाता है वैसे ही पारदका मर्दन स्वेदन किया जाता है । जिससे पारदके सर्व दोष शिथिल हो जायं बाद ऊर्द्वपातनादिसे पृथक् निकल जायं । और जैसे वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, नस्य, कर्म में प्रवृत्त वैद्यराज दृष्टकर्मा और शास्त्रज्ञ होय तो यथावत्प्रयुक्त उन पञ्चकर्मों के प्रतापसे मनुष्य रोगसे निर्मुक्त होकर सर्व कार्यकरण में समर्थ हो सक्ता है, यदि अज्ञ वैद्यके पाले पड़ जाय तो वह मनुष्य अपने शरीरका भी सत्यानाश कर बैठे। तैसे ही पारद बुभुक्षादि संस्कार कोई चतुर, परिश्रमी, रसक्रिया प्रेमी, खर्चीला, मनुष्य करे तो आप भी यशका भागी बने और पारदको भी बलिष्ट बनाकर अनेक प्राणियोंका उपकार करे । यदि उक्त गुणरहित मनुष्य रसक्रियामें प्रवृत्त हो जाय तो पारदसिद्धि तो दूर रही ढीलीढाली मुद्रा देकर पारद को भी खो बैठे। इस लिखनेका तात्पर्य यह है कि यह क्रिया मेरी अनुभूत की हुई है, बिलकुल सत्य है, वैद्य लोग सावधानीके साथ कार्यारम्भ करेंगे तो अवस्य सफलमनोरथ | 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देयग्रासमीमांसा - बुभुक्षुभूतस्य चतुर्थभागं ग्रासं सुवर्णस्य सुशोधितस्य । For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ४५४ ] दत्त्वा विमर्देrपरिलग्नता दिनद्वयं ग्रासविपाचनाय ॥ केचिदन्ते केवलं सुवर्ण पत्राणि शुद्धीरनवेक्षमाणाः । तैः सूतराजो मलनीक्रियेत दुष्टrated faशुद्धकोष्ठः || धात्वन्तरस्येव न दुष्टिरस्य कुट्टाद्यैरपि नश्यतीव । अतः फलश्रावि वचोऽस्तिभोक्तुस्तथापि सूतग्रसनाय नेष्टे ॥ अल्पव्ययेनापि समर्जनीयं स्वोद्योगलभ्यं परितोषहेतुः । शास्त्रोक्तरीत्या परिशुद्धहेम फलेऽतिशेते तु ततोप्यवश्यम् ॥ संशोधितं कृत्रिमम चापि भारत सातां नैव विपत्ति सूते । सूते यतो नैव फलं स्वकीयं किन्तु हेतूत्थगुणं प्रसूते ॥ कार्ये न हेतूत्थगुणा अहात www.kobatirth.org adhvaभावितसूतराजः । तत्समस्तांश्च गुणान्ददानो - भैषज्य रत्नाकरः । निदर्शनं चात्र सुयुक्तियुक्तम् ॥ पारदमें ग्रासदेनेका विचार अर्थ - पूर्वोक्त रीतिसे पारदको बुभुक्षित करके उसमें चतुर्थांश ग्रास दे, अर्थात् पारदको तोलकर देखले जो एक सेर बुभुक्षित पारद होय तो शुद्ध किये हुए सुवर्णको कूटकर पत्र बनाले, उनको पावभर तोलकर उस पारदमें घोटे । घोटते ही तुरन्त सर्वपत्र पारद में मिल जायंगे । यथपि | [ पकारादि बुभुक्षित पारदमें सुवर्णकी डलीको भी डालकर घोटे तो भी मिल जाती है परन्तु पत्र करने से घोटने में सुभीता रहता है, पारद छलकता नहीं है। बाद बहुत होशियारीके साथ ( जिसमें पारद उछलकर बाहर न गिर जाय ) दो दिन तक घोटे, जिसमें ग्रास बिलकुल पच जाय । आज कल कितने ही वैध बाज़ारसे सुवर्णपत्र खरीदकर पारदमें घोटकर सुवर्णसिन्दूर, सुवर्णपर्पटी हिरण्यगर्भपोटली, आदि अनेक रस बनाया करते हैं, और शास्त्रकारांने जो सुवर्णकी शुद्धियां लिखी हैं उनपर ध्यान नहीं देते कि यदि बजारु सुवर्णपत्रोंसे ही काम चलता तो शास्त्रकार सुवर्णशुद्धि क्यों लिखते । वैद्य परम विशुद्ध पारदको भी सुवर्ण के दोषोंसे दूषित करते हैं । जैसे वमन विरेचनादि कर्मसे बहुत परिश्रम करके किसी मनुष्यके कोष्ठको शुद्धकिया होय फिर उसको दुष्टान सेवन कराके अनभिज्ञ वैद्य अशुद्ध कर देते हैं । यद्यपि ताम्रादि धातुओं में जितना दोष है उतना सुवर्ण में नहीं है और वह दोष भी पत्रोंके बनाते समय सुवर्णको कूटनेसे, तथा औषधान्तरके योगसे नष्टप्राय हो जाता है । इसी वास्ते सुवर्ण पत्र सेवन करनेवालेको शास्त्रकारोंने “सिद्धं स्वर्णदलं समस्तविषहृच्छूलाम्लपित्तापहम् हृद्यं पुष्टिकरं क्षयत्रणहरं कायाग्निमायं जयेत् हिक्कानाहविनाशनं कफहरं भ्रूणां हितं सर्वदा तत्तद्रोगहरानुपानसहितं सर्वामयध्वंसनम् ” ( अर्थात् सुवर्ण वर्कों के सेवन करने से सम्पूर्ण विषरोग, शूल, अम्लपित्त नष्ट हो जाते हैं और वे हृदयको हितकारी, पुष्टि कारक हैं । तथा क्षय, व्रण, मन्दाग्नि, हिचकी, आनाह, कफरोग नष्ट होते 1 | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [४५५] हैं गर्भको हितकारी हैं और अनेक अनुपानसे सभी | दृष्टान्त यह है कि पारदगन्धककी कजलीमें सैकनों रोगोंको नष्ट करते हैं ) ये गुण लिखे हैं । तथापि औषधियोंकी भावना देकर सिन्दूरादि रस बन पारदमें ग्रास देनेके लिये बजारु सुवर्णपत्र ठीक | जाते हैं और उनमें पृथक् पृथक् सैकड़ी ही प्रका. नहीं किन्तु सुवर्ण प्रकरणमें लिखी हुई विधिके । रके गुण भी देखे जाते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ अनुसार शुद्ध किये हुए सुवर्ण को ही ग्रास देना | कि कृत्रिम सुवर्णग्राससे पारदमें सुवर्णके गुण नहीं उचित है क्योंकि वोंकी अपेक्षा शोधा- | आवेंगे किन्तु मूलधातु ताम्रादिके ही गुण आयेंगे । हुआ सुवर्ण कम दाममें ही पड़ जाता है, और बुभुक्षितपर क्षिा-- वोंको बाजार में खरीदते फिरो, शोधना तो अपने | विमर्दनादृष्टसुवर्णमृतो हाथका काम है, जब चाहे शोध ले, और अपने ___घनेन वस्त्रेण च गालनीयः । हाथकी बनी हुइ वस्तुमें सन्तोष भी रहता है, निःशेषतां यन्न वस्त्रशिष्टः और सब से अधिक बात यह है कि शास्त्रोक्त | शिष्टैः स दिष्टश्च बुभुक्षुरेव ॥ विधिसे शुद्ध किया हुआ सुवर्ण वर्केकी अपेक्षा | समाल्यमानोपि पटेन मूतो। अवश्य गुणमें कहीं अधिक होगा। इत्यादि युक्ति- | याशिष्यते चेद्गुलिकात्मकस्तु । यांसे शोधित सुवर्णका ही प्रास देना चाहिये । | स्वेद्यश्च मर्यश्च पुनःपुरोध अब दूसरी बात यह और है कि सुवर्ण जहयाधतोसौ निजशेषभावम् ।। दो प्रकारका होता है, एक खानसे निकला हुआ, संशेरते केचन बुद्धिपश्याः दूसरा कृत्रिम ( रसायन विधिसे तांबा चांदी आदि सूतातिसंघर्षितहेमधातुः। धातुओंका बनाया हुआ)। इन दोनों में से खान- सूक्ष्मस्वरूपेण घनेपि वस्त्रे के सुवर्ण को शोधन करके पारदको ग्रास देना निर्याति चेदत्र किमस्ति चित्रम् ॥ चाहिये । कृत्रिम सुवर्ण शोधा हुआ भी पारदमें उद्धृत्य मूतं डमरुक्रियातः ग्रास योग्य नहीं है । क्योंकि कृत्रिम सुवर्ण के | पश्येदधस्तास्थितहण्डिकायाम् । प्राससे पारदमें सुवर्णका गुण नहीं आसक्ता, किन्तु । स्वर्ण न यायाधदि दृक्पथ ज्ञो वह सुवर्ण यदि ताम्रका बना होगा तो ताम्रके | जीर्ण रसे वेत्तु हिरण्यमत्र ॥ गुण आवेंगे, यदि चांदीका बना होगा तो चांदीके | चेच्छिष्यते किञ्च न इण्डिकायां गुण आवेंगे, यदि सीसेको चांदी बनाकर उस तन्मर्दनस्वेदनकर्म कुर्यात् । चादीका सोना बनाकर ग्रास दिया जायगा तो एवं विधानरुपपञ्चवारै पारदमें सीसेके गुण आवेंगे इसमें युक्ति निःशेषतामेति समादधामि ॥ यह है कि कार्य अपने कारणके गुणको कभी स्वर्ण यतो नोडयितुं क्षमेत नहीं छोडता है । इस बातकी पुष्टिके लिये स्पष्ट सूतेन्द्रवत्कश्च न येन शङ्की । For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि न पाप्य जीर्णत्वमितं हिरण्यं सुवर्णकी गोलीसी बच जाय तो समझ ले कि अभी स्यादृर्द्धहण्ड्यास्तलधाम नूनम् ॥ पूर्ण बुभुक्षित नहीं हुआ है, तो फिर पूर्वकी तरह हेमापि सूतेन सहैति हण्डी क्षारवर्ग तथा अम्लवर्ग ( काजी आदि) में स्वेदन मनेकसंस्कारयुतेति शङ्का । मर्दन करे जिससे कि बाकी बचा हुआ सुवर्ण भी कृताकृतग्राससमानमानं निःशेष हो जाय । यहां पर कितनेक विद्वासूतेन्द्रमालोक्य निवर्त्तनीया ॥ ने की यह शङ्का है कि वस्त्र के द्वारा सुवर्णसहित केचित्तु संस्कारगृहीतशक्तिं सम्पूर्ण पारद निकल जानेसे बभुक्षित नहीं समझा श्रीमृतराज परिगृह्य हेम । जा सकता, क्योंकि पारद एक ऐसी सूक्ष्म वस्तु सहैव तेन स्थितिमन्तमाहु है कि जिसके साथ सुवर्णको अत्यन्त घोटनेसे बुभुक्षितं हैमनगौरवाट्यम् ।। सुवर्ण इतना सूक्ष्म हो जा सकता है कि पारदके जैनागमस्त्वाह शतककर्षा साथ ही साथ वस्त्रसे निकल जाय तो कौन आहेनो रसे कर्पमिते व्रजन्ति । श्चर्य है ! तब ऐसी दशामें बुभुक्षित पारदकी लयं यथा मूर्च्छति नापि भारो पराक्षा किस प्रकार हो? इसका समानिष्कास्यते चापि ततः सुवर्णम् ॥ धान यह है कि उस पारद को डमरुयन्त्रमें रखतथात्मदेशे निचितस्वरूपाः कर एक पहरकी अग्नि देकर उठाले । जब यन्त्र शुभाऽशुभाः पौद्गलकर्मवर्गाः ।। स्वाङ्गशीतल हो जाय तब उसकी मुद्राको खोल निरस्तभाराः पुनरात्मदीपे कर डमरुयन्त्रकी नीचेकी हांडीमें देखे, जो सुवर्ण दीप्ते तमांसीव पृथग् भवन्ति ॥ नहीं मिले तो बुद्धिमान् समझ ले कि पारद सम्पूर्ण बुभुक्षितपारदको परीक्षा- सुवर्णको खागया है, अर्थात् असली बुभुक्षित हो अर्थ--पूर्वोक्त विधिके अनुसार पारदको । गया है, क्योंकि यदि कुछ भी सुवर्ण बाकी रहा बुभुक्षित करके इस प्रकार परीक्षा करे कि बुभु- होता तो नीचेकी हाँडीमें जरूर मिलता, कारण क्षित पारदमें शुद्ध किया हुआ चौथाई सुवर्ण डाल- कि पारदकी तरह सुवर्ण तो उड़नेवाली चीज है कर दो दिन तक घोटे, बाद गाढ़े कपड़ेमें छाने ।। नहीं, जो कि पारदके साथ साथ उड़ जाती यदि वस्त्रके ऊपर कुछ भी बाकी नहीं रहे, किन्तु यदि मुद्रा खोलनेके बाद नीचेकी हाँडीमें कुछभी सम्पूर्ण वस्त्र से निकल जाय तो उसको बुभुक्षित सुवर्ण मिल जाय तो समझ लेना चाहिये कि पारसमझे । क्योंकि जो पारद बुभुक्षित नहीं हुआ। दके बुभुक्षित होने में अभी कुछ कसर है। तब होता तो कपड़ेके ऊपर कुछ न कुछ सुवर्ण अवश्य | फिर पूर्वकी तरह स्वेदन मर्दन करे । इसप्रकार बचता । यदि वस्त्रमें छाननेके समय पारद चार छः बार करनेसे सम्पूर्ण स्वर्ण जीर्ण हो जायगा, तो वस्त्र से निकल जाय और कपड़े के ऊपर कुछ और डमरुयन्त्रकी नीचेकी हांडीमें मलस्थानापन्न For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ४५७ ] ऊपरकी हांडी में जा लगे | कुछ निस्सार भस्म बचेगी । जब यह बात । सुवर्णको लेकर पारद स्थिर है कि पारदकी तरह सुवर्ण ऊपर की और फिर सुवर्णका भार बढ़ भी जाय तो उसके हाँडीमें उड़कर नहीं जा सक्ता तब यहांपर कोई बुभुक्षित होने में शङ्का नहीं । यह बुभुक्षावधि विद्वान् यह शङ्का नहीं कर सक्ता है कि पारदमें जैसी मैंने अनुभूत की थी वही वैद्यकी सेवामें सुवर्ण जीर्ण नहीं होकर ऊपरकी हाँडीके तलस्थालिखी है । नमें उड़कर जा लगा है। यहां पर कितने ही विद्वानों की यह शङ्का है कि यह बात तो ठीक है कि सुवर्ण उड़नेवाली चीज नहीं है परन्तु विषोपविषमें मर्दन करनेसे तथा क्षारवर्ग और अम्लवर्ग में स्वेदन करनेसे पारद इतना प्रबलशक्तिक हो गया है कि इसकी सहायता पाकर सुवर्ण भी ऊपरकी हांडी में पारदके साथ ही साथ जा लगे तो बुभुक्षितपारदकी क्या परीक्षा ? इस शङ्काका समाधान यह है कि जिस समय पारदमें सुवर्णग्रास नहीं दिया था उस समय जितनी पारदकी तौल थी उतनी ही तौल पारद में सुवर्णमास | देनेके तथा डमरुयन्त्रमें पारदको उड़ानेके बादभी बनी रहे तो उक्त शङ्काका अवकाश नहीं हो सकता । अर्थात् मेरा अनुभव ऐसा है कि पारद में जहां तक सुवर्णका भार रहेगा वहां तक पारदकी बुभुक्षाविधिमें अवश्य कुछ न्यूनता है । परन्तु कितने विद्वान् तो ऐसा मानते हैं कि पूर्वोक्त प्रकारसे सम्पूर्ण बुमुक्षाविधि सम्पादन करनेके बाद पारदको डमरुयन्त्र में रखकर उड़ावे, वह पारद सुवर्णको लेकर ऊपर की हाँडीमें जा लगे उस अवस्था में सुवर्णका भार बढ़ भी जाय तो भी वह पारद उत्तम बुभुक्षित समझा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि पारद में सुवर्णको घोटनेपर भार बढ़ जाय तो उसको बुभुक्षित नहीं कह सकते किन्तु | की गई है । ) ( यह हिन्दी टीका रसायनसार से | उद्धृत ५८ पाठकवृन्द ! पारद की अपार महिमा है। देखिये भगवती सूत्र आदि जैनसिद्धान्तके आ ग्रन्थ क्या कह रहे हैं। जैन सिद्धान्त शुभाशुभ कर्म - वर्गणाओंको मूर्तिस्वरूप मानता है, इसलिये वहांपर शङ्का हुई कि यदि कर्म वर्गणा मूर्त्तिस्वरूप हैं तो आत्मा प्रदेश पर बैठकर संघातरूप क्यों नहीं हो जाती तथा उनका भार आत्मामें क्यों नहीं बढ़ता ! इसके उत्तर में लिखा है कि जैसे १ तोला पारदमें १०० तोले सुवर्ण लीन हो जाता है। तथापि सुवर्णका भार बढ़ता नहीं है, और भी बढ़कर बात यह है कि फिर उस सुवर्णको निकालना चाहें तो निकाल भी सक्ते हैं; तैसे ही आमा प्रदेशों पर कर्मवर्गणा इकट्ठी होती जाती हैं और परस्पर लीन होती जाती हैं तथापि उनका भार नहीं बढ़ता, और केवल ज्ञानरूपी दीपक जब जागरूक होता है तब अन्धकारकी तरह वे कर्म - वर्गणा आत्मा से निकल कर दूर हो जाती हैं । ऐसी ऐसी बातें शात्रोंसे तथा विद्वानांसे मैंने बहुत सुन रक्खी हैं, परन्तु यह ग्रन्थ अनुभूत बातको लिख रहा है इस लिये मैं उन समस्त बातांको लिखकर आप लोगों का समय नष्ट नहीं कर सक्ता । For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४५८] भारत-भैषज्य-रत्नाकर। [पकारादि (४३३६) पारदबुभुक्षाविधिः (२) । | ऊर्ध्वस्थवहिं पिदर्धात नान्या ( रसायनसार) सच्छिद्रया वहिनिरोषहेन्गेः॥ विधाप्य कुण्डं मणपश्चफाम्भो तृतीयकोणे विदधीत कोष्ठी मानं कुलालेन तदाणोतु । चन्द्रोदयादेः परिपाचनार्थम् । पटेन शाणेन दृढीकरोतु पुटेषु लोहाभ्रकभस्मपाका संसीवनेनापि समृत्पटेन ।। सम्पच्यमाना भिषजा भवेयुः॥ तयोग्यगर्ने निखनेद् गलान्तं रसक्रियैवं खलु मासषट्कं भरेन्मृदा तस्य महावकाशम् । प्रवर्ततां मूतबुभुक्षणन्तु । तत्राव पेताग्रनिदर्शितानि विना प्रयासैःस्वयमेव सिद पदार्थजातानि बुभुक्षणार्थम् ॥ ___स्यादभ्रकादेर्भसितार्थसिदौ । दिक्सेटमानं विषवत्सनाभ उद्घाव्य मुद्रामवलम्बमानं तदर्धमानं विषङ्गिकञ्च । कुण्डे रसेन्द्रं समुपाददीत । हारिद्रकं तावदपि प्रपूर्य स्वर्ण सुशुद्धं च चतुर्थभार्ग मणार्द्धमानश्च पलाण्डुकन्दम् ॥ ग्रासाय तत्राऽय विमईयेत ।। चतुर्थभागं लशुनं मणाई लीने सुवर्णे घनवस्त्रकेण सिन्धूद्भवं निम्बुरसं चतुर्थम् । सङ्गाल्य सूतस्तु परीक्षणीयः । धत्तुरपञ्चाङ्गमयो मणस्य शिष्येत वस्ले गुलिकात्मकश्वे___ पादश्च वज्रार्कजमूलमर्द्धम् ॥ स्वेयश्च मर्धश्च पुनः पुरोवत् ।। स्वर्जी यवाहोपरगुञ्जिकाश्च नोचेपुनश्वोत्यितियन्त्रण सेटद्वयोन्मानमितास्तथैषु । परीक्षणीयः खलु सूतराजः । सकुव्य तद्योग्यमयात्र कुण्डे अधास्थहण्डयामवशिष्यते चेभृत्वाऽवशिष्टन्तु गवां जलेन ॥ स्वर्ण पुनः पूर्ववदेव कुर्यात् ॥ वलम्बयेत्सूतमयो भृतश्च नोचेत्तुलायामथ तोलनीयः कुण्ड्यामयःशिक्यदृढीकृतायाम् । कृताकृतग्राससमानमानः । शिलापिधानेन पिधायकुण्डं मुमुक्षुरेवास्ति रसेन्द्रराजो __ मृदा निरोध्यापि सवस्त्रया तत् ॥ मूर्णा विधानेन मुमूर्च्छनीयः॥ इतस्ततो हस्तिपुटोलवड्ने कुण्डस्यकल्क परिशोष्य सम्यक् स्तापं विदध्यादितराग्निनाऽपि। । क्षारं विदध्यादिडसंज्ञकश। For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसाकरणम्] तृतीयो भागः। [४५९] पुनईलाकरणेप्ययं स्यात् तारोंके छीकेमें रखकर मजबूतीके साथ बांध दे बहुपयोगी प्रबलप्रभावः॥ जिसमें कुण्डी टेढी होकर पारद कुण्डेमें गिर न पण्मासान् रसराजस्य स्वेदनं पावकोष्मतः। जाय । परन्तु यह भी स्मरण रहे कि पारदको भविषायूष्मतश्चैव हेमनासाय जायते ॥ चार तह कपड़ेमें बांधकर रखे, और कुण्डेके ऊपर सुगमरीतिसे पारदकी बितीय अपने मुख आदि अङ्गको न ले जाय, नहीं तो बुभुक्षा विधि: विष क्षार आदि की ऊष्मासे मुख जल जायगा । अर्थ-कुम्हारसे एक ऐसा कुण्डा ( हौद ) | उस छीकेको दोलायन्त्रविधिसे कुण्डे के मध्य बनवावे जिसमें पांच मन पानी अट जाय; उसको भागमें लटकादे और कुण्डेके मुखपर उसके मापकी बोरीके टाटसे मढदे और सूजा (सूआ ) सुतलीसे | शिला रखकर मुद्रा करदे । अर्थात् कुण्डे और शिला सीमकर मजबूत करदे और उसके ऊपर एक की दर्ज को चारों तरफसे बाल रेती मिली हुइ, कपरमट्टी भी चढ़ाकर सुखा ले । बाद एक चिकनी मट्टीसे ल्हेसदे, जिसमें कुण्डेकी उष्मा बाहर ऐसा गढ़ा खोदे जिसमें वह कुण्डा आ जाय । नहीं निकलने पावे । उस मट्टीके ऊपर एक कपरउस गढ़ेमें कुण्डेको गले तक गाढ़ कर चारों तरफके मट्टी और करदे इस गढ़ेके इधर उधर भवकाशको मट्टीसे अच्छी तरहसे भरकर ठस करदे, कोनोंपर दो गजपुट बनादे जिनमें अभ्रक लोह बाद उस कुण्डेमें पारदके बुभुक्षित करनेवाली आदिके हमेशा पुट लगते रहे जिससे उनकी अग्नि आगे लिखी हुइ चीजोंको भरदे । दश सेर की ऊष्मा कुण्डेमें पहुंचती रहे । और उस शिलाके बनाम विष, पांच सेर सींगिया विष, पांच सेर ऊपरभी दश बारह सेर गोइठाकी अग्नि लगादे, और हल्दीया विष, (किसीको अन्य भी विष यदि मिल | जब अग्नि निर्धमप्राय हो जाय तब अग्निको लोह सकें तो वे भी दो दो सेर डालने चाहियें ) बीस की नांदसे ढक दे । यदि मट्टीकी नांदसे ढकना सेर प्याज, पांच सेर लशुन, बीस सेर सेंधा- हो तो उस के किनारेपर लोहेके तारेसे चार पांच नॉन, पांच सेर नीबूका रस, दश सेर धतूरेका लपेटा देकर बांध दे, और तीन चार कपरमट्टी भी पञ्चाङ्ग (फल पुष्पादि), पांच पांच सेर सेहुंड कर दे, जिसमें नांद अग्निकी तेजीसे फूटने नहीं भौर मंदारकी जड़, सज्जी, जवाखार, कलमीसोरा, पावे । अग्निको नांदसे ढकने का यह अभिप्राय है बूंघची, दो दो सेर । इन चीजोंमें जो कूटने योग्य कि आग जल्दी बुझे नहीं । परन्तु इस नांदके तल वस्तु हैं उनको कूटकर अन्य वस्तुओंको योही भागमें इतना बड़ा छिद्र भी करदे कि जिसमें होकर भरकर बाकी बचे हुवे कुण्डेको गोमूत्रसे भरकर रुपया निकल जाय । छिद्र करनेका यह अभिप्राय है लकड़ीसे सब चीजोंको चला दे, जिसमें सब चीज कि इस छिद्रके द्वारा वायुका सञ्चार रहनेसे अग्नि मिल जायं बाद हिंगुलोत्थ एक सेर पारद | बुतने नहीं पावे, परन्तु यह भी स्मरण रहे कि को पत्थरकी कुण्डीमें भरकर उस कुण्डीको लोहेके | शिलाके ऊपर पांचसेर मट्टी बिछा कर गोइठे मुल For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४६०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि गावे, नहीं तो शिला फूट जायगी इस | तोले दो तोले बच रहे तो पूर्वोक्त विधिके अनुगढ़े तीसरे कोने पर चन्द्रोदयादि रसेांकी भट्टी | सार क्षारवर्ग और अम्लवर्गमें स्वेदन मर्दन करके भी जारी रहे जिसमें भट्टीकी ऊष्मा भी कुण्डेमें | उस अवशिष्ट सुवर्णको भी पचा दे यदि पहुंचती रहे, अर्थात् गढ़ेके दो कोनों पर गजपुटांकी | कपड़ेमें सुवर्णकी गोली नहीं बचे तो उस पारद आंच कुण्डेमें लगती रहेगी, तीसरे कोने पर भट्ठी- | को डमरूयन्त्रमें रखकर दो पहरकी आंच देकर की आंच पहुंचती रहेगी, चौथा कोना खाली रहेगा, परीक्षित करले । यदि डमरुयन्त्रकी नीचेकी हांडी और मुखपर ढकी हुई शिलापर सुलगे हुवे गोइ- में दो चार मासे सुवर्ण रह जाय तो उसको भी ठेकी आंच लगती रहेगी, और कुण्डेके तलभागमें | उक्त विधिके अनुसार क्षाराम्लवर्गमें स्वेदन मर्दन पृथ्वीकी गरमी रहेगी और कुण्डेके अन्दर विष | करके पचा दे यदि डमरूयन्त्रकी नीचेकी और क्षारांकी अग्नि भबकती रहेगी इस हांडीमें बिलकुल सुवर्ण नहीं बचे तो उसको तौल प्रफार छः महीने तक रसायनशलाका कार्य जारी करके भी परीक्षा करले कि स्वर्णग्रास देनेसे पहिले रखनेसे सैकड़ों रस भी तैयार हो जायंगे और जितना भार पारदका था, उतनाही ग्रासके पचनेपारद तो बिना ही परिश्रम अपने आप बुभुक्षित पर मिले तो निश्चय करले कि यह पारद अत्यन्त हुवा पावेगा । अर्थात् सर्च धातुओंकी भस्म तथा बुभुक्षित हो गया है । तब वक्ष्यमाण विधिक सिन्दूरादि रस बनानेके लिये छः महीने तक कार्या- | अनुसार इसका चन्द्रोदय बनावे और कुण्डेमें रम्भ किया गया है, परन्तु पारद बुभुक्षित करनेके | जितना सामान ( विषादिका कल्क ) बचा लिये कोई नवीन क्रिया नहीं करनी पड़ती। हुआ है उस सबका भी क्षार बनाकर रख ले । छः महीनेके बाद कुण्डेकी मुद्राको खोलकर बहुत | यह भी एक प्रकारका “ बिड" तैयार होजायगा, होशियारीके साथ कुण्डेमें लटकते हुवे पारदके | जो कि पुनः पारदबुभुक्षाविधिमें अत्यन्त उपयोगी शिक्य ( छीके ) को निकालकर पारदको निकाल | उग्रप्रभाव होगा। ले । परन्तु यह स्मरण रहे कि मुद्राको खोलते- सारांश यह हुआ कि छ: महीने तक उक्तसमय आंख नाक को बचावे, नहीं तो कुण्डेसे | विधिके अनुसार अग्निकी ऊष्मा पृथ्वीकी ऊष्मा बहुत तेजीके साथ ऊष्मा (भाफ) निकलकर | तथा बिषादिकी ऊष्मासे पारदका स्वेदन करनेसे अवश्य अङ्गभङ्ग कर देगी । इस पारदको तौलकर | वह सुवर्णग्रासके योग्य होता है। देख ले, यदि तीन पाव पारद हो तो चतुर्थांश (४३३७) पारदस्य प्रचण्डबुभुक्षातृतीय (तीन छटांक) शास्त्रोक्त विधिसे शोधे हुवे सुवर्ण विधिः का ग्रास देकर मर्दन करें जब पारदमें (रसायनसार.) सुवर्ण लीन हो जाय तब उसको कपड़ेमें छान श्यामाभ्रक हाटकमाक्षिकश्च कर परीक्षा करे, यदि कपड़ेमें सुवर्णकी गोलीसी । द्वयेकांशकं सत्वमुतापि भस्म For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४६१ ] विमईयेनिम्बुरसेन पश्चात् | पारदकी प्रचण्डबुभुक्षा सेटं रसं सूतबिडाष्टमांशैः॥ तीसरी विधिअवाप्य योगं खलुमूतराजो काली वज्राभ्रकका सत्व अथवा भस्मके दो बिडस्य सत्त्वानि बुभुक्षतेऽयम् ।। सत्त्वं च तद्योगविलीनमूर्ति भाग (आधसेर), सुवर्णमाक्षिकका सत्त्व अथवा पलीय मूतात्मनि जारितं स्यात् ॥ भस्मका एक भाग (पाव भर) लेकर दोनोंको नीबू के रसके साथ दो तीन दिन तक खूब घोटे; बादको सम्मईनै तविशोषकल्कं उसके साथ एक सेर हिंगुलोत्थ या शुद्ध पारदको यन्त्रे डमर्वाख्यक उद्धरेत । भूयश्च काञ्जीपतिसारणीयैः बिडयोगसे खूब धोटे पारदसे अष्टमांश बिडी डाला पाच्येत सूतेऽभ्रकसत्त्वकश्च ।। जाता है। बिडके सम्बन्धसे पारद अभ्रकादिके एवं विमर्नेदुपपश्चवारान् सत्त्वोंको अच्छी तरह खा जाता है, और सत्व भी जीर्णेऽभ्रसत्वे क्षतपक्षता स्यात् । बिडके सम्बन्धसे द्रुत होकर पारदमें मिलकर जीर्ण सपर्षितोत्यापितमूतराजो हो जाता है । पूर्वोक्त पांचों चीजों (अभ्रक भ्रभस्मयोगैस्तु भवेद् बलीयान् ।। सत्त्व या भस्म, स्वर्ण माक्षिक सत्व या भस्म, शिवारजो गन्धकमभ्रसत्त्वं नीबूका रस, पारद, बिड,) का कल्क जब मर्दन तच्छुक्रमेवर्षय आमनन्ति । करते करते सूख जाय तब डमरूयन्त्रमें रख समाभ्रक्यासमवाप्य मूतो कर चार पहरकी अग्नि दे । स्वाङ्ग शीतल होनेके बलेऽतिशेते शतजीर्णगन्धात् ॥ विडविधिः सत्त्वरधानं खलु वनमनं मूलार्द्रवहीन ज्वलने प्रदाह्य तद्भस्मयोगेन मयाऽपि सूतः । क्षारैर्गवां मूत्रकृतैश्च तेषाम् । बलेऽनुभूतोऽतिशयान ईशात् शतं शतं भावितगन्धकोऽयं षड्जीर्णगन्धाद् बिडयोगयुक्तः ॥ बिडो मतो जारणकर्मकारी ॥ अतोऽभ्रसत्त्वं ननु मूतराजे __एक मन मूली, एक मन अदरक (आदा), एक __ सारयेयुर्यदि वैद्यराजाः। मन चित्रक | तीनोंको सुखाकर जलालें, उस भस्मको प्रचण्डक्षुत्खादितसर्वधातुं नांदमें डालकर १० सेर गोमूत्र भर दें। ४ दिनके बाद "क्षारविधि" में कही हुई विधिके अनुसार निर्मल मन्ये तमन्येऽपि फलं नयन्ते । गोमूत्रको निकाल लें। पश्चात् उसी क्षारमिश्रित गोमूत्र चराचरव्यापिरसेन्द्रभूमा से सैकड़ों बार भावना देकर गन्धकको तैयार कर लें। निषेव्यमाणस्सततं यदि स्यात् । इसी गन्धकको “बित ' कहते हैं। जब पारदमें (चन्द्रोदय मेत्येह चानन्तसुखं दवीयो बनाने के लिये ) स्वर्ण ग्र.स देते हैं तब इस बिडके नास्तीति वैश्येन मयानुभूतम् ॥ साथ घोटनेसे स्वर्ण पारदमें शीघ्र पच जाता है। For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः । [ पकारादि 1 | शुक्र तो रस, रक्त, मांस, मेदस, अस्थि, मज्जा, इन छः धातुओंका सार हुवा करता है, और आतव तो शरीरका विकारस्वरूप है । इसलिये समगुण अभ्रकप्रासको जीर्ण करके पारद, शतगुणगन्धकजीर्ण - पारदसे भी बलवान् होता है । तात्पर्य्य यह है कि गन्धकजारणकी अपेक्षा अभ्रकसत्त्वजारण कहीं अधिक गुणकारी है। वज्राभ्रक में नागात्रक, दर्दुराभ्रक, पिनाकाभ्रक की अपेक्षा अधिक सत्त्व हुवा करता है । यद्यपि मैं अभ्रकसे सत्वको जुदा निकालकर अभी तक पारदमें जीर्ण नहीं कर सका हूँ किन्तु कृष्णवज्राभ्रककी भस्मके साथ विडयोगसे पारदको घोट घोटकर मैने परीक्षा की है तो षड्गुणगन्धक जीर्ण पारद से उसमें कहीं अधिकगुण अनुभूत किया है | इसवास्ते सभी वैद्यराजांसे भी हमारी प्रार्थना है कि अभ्रकसे सत्व निकालकर बिडयोगसे पारदमें यदि उसको जीर्ण करेंगे तो पारद प्रचण्डबुभुक्षित होकर सुवर्णादि सर्वधातुओंको जीर्ण करसकेगा और उस क्रियासे अन्य लोग भी उत्तम फल उठावेंगे । “प्रिया मे मानुषी प्रजा इस श्रुतिके अनुसार जब हमको भगवत्प्रिय मनुष्यजन्म मिला है तो इसके सम्बन्धसे अवश्य कुछ असाधारण कार्य करना चाहिये इसलिये मेरा यह मन्तव्य है कि इश्वरके समान चराचर व्यापि पारदकी यदि निरन्तर सेवा की जाय तो ऐहलौकिक तथा पार लौकिक अनन्तसुख बहुत दूर नहीं है। यह सर्वविद्वत्संवादी सिद्धान्त है कि जिसका जन्मान्तरमें भारी कल्याण होनहार होता है वही पुरुष जगत्कल्याणकारी पदार्थों में मनोयोग दिया करता है। 19 तात्पर्य यह है कि पारलौकिक फलका भागी वही [ ४६२ ] बाद फिर कांजी और प्रतिसारणीय क्षारके योगसे जब अभ्रकसत्व पचजाय तब स्वाङ्ग शीतल करके डमरूयन्त्रसे सब चीजोंको निकाल ले इस प्रकार चार छः बार घोटकर डमरूयन्त्रमें उड़ाने से अभ्रकका सब सत्त्व जीर्ण हो जायगा । परन्तु जो पारद के साथ उक्तविधिसे अभ्रकका सत्त्व जीर्ण किया जायगा तो “नाधः पतति न चोर्ध्वम्” इत्यादि रसहृदयग्रन्थके प्रमाणसे पारद छिन्नपक्ष हो जायगा (अनि डालने परभी नहीं उड़ेगा ) और यदि उक्त विधिसे पारदको अभ्रक भस्मके साथ घोटा जायगा तो पारद छित्रपक्ष नहीं हो सकेगा किन्तु अति बलिष्ठ अवश्य होगा । इसमें हेतु यह है कि अभ्रक भस्मके साथ पारदको घोटकर उड़ानेसे पारदको अभ्रकसत्वका उतना ग्रास नहीं मिल सक्ता जिससे कि वह छिन्नपक्ष हो, क्योंकि अभ्रक भस्ममें थोड़ा सत्व होता है उतने प्राससे पार - दकी तृप्ति नहीं हो सकती। इसमें युक्ति यह है कि जैसे कोई भूखा मनुष्य आध सेर अन्न खाता है उसको यदि छटांक भर अन्न दिया जाय तो कुछ आधार मात्र होगा। पर्याप्त भोजन जन्य आलस्य निद्रादि नहीं आ सक्ते । यद्यपि पारदमें गन्धक जीर्ण करनेसे भी वह बलवान् होता है परन्तु अभ्रकसत्व- जीर्ण पारदका मुकाबिला नहीं कर सकता, क्योंकि शास्त्रकार महर्षियोंने गन्धकको सो पार्व्वतीजीका आर्त्तव माना है और अभ्रकको उनका शुक्र माना है, शिवशुक पारदकेलिये पार्व्वतीजीका रज और शुक्र दोनोंही प्रिय हैं, परन्तु पुरुषका शुक्र जितना स्त्रीके शुकसे बलिष्ठ होता है उतना आर्त्तवसे बलिष्ठ नहीं हो सकता, क्योंकि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरण हतीयो भागः। [४६३] - महात्मा हो सकता है जो कि लोभवासनाको छोड- । (४३३९) पारदभस्मविधिः (२) कर पारदकी सेवासे समस्त लोकका कल्याण । (र. र. स. 1 पू. खं. अ. ११; र. रा. सुं) चाहता है और जिस क्रियाका अपनेको अनुभव | अपामार्गस्य बीजानि तथैरण्डस्य चूर्णयेत् । हो उसका मार्ग सब किसीको बतला देता है। । तच्चूणे पारदे देयं मृषायामधरोत्तरम् ।। रुध्वा लघुपुटैः पच्याश्चतुर्भिर्भस्मतां नयेत् ॥ सक्षेपेण बुभुक्षितपरीक्षा __ अपामार्ग (चिरचिटे) के बीज और अरण्डीके गालनेरूलपातशेत स्वर्ण नायाति हक्रपथम। | बीजोंकी मींग समान भाग लेकर दोनोंको एकत्र मूलमानं च यत्रास्ते जानीयात्तं बुभुक्षितम् ॥ कूट लें । तत्पश्चात् शुद्ध पारदके नीचे ऊपर यह चूर्ण रखकर उसे शरावसम्पुट में बन्द करके लघुपुट संक्षेपसे बुभुक्षितपारदको पहिचान में फूंक दें।इससे ४ पुट में पारदकी भस्म बन जाती है। बुभुक्षाविधिके अनुसार पारदको बुभुक्षित | | (४३४०) पारदभस्मविधिः (३) करके उसमें स्वर्णग्रास देकर कपड़ेमें छानकर (यो. र.) परीक्षा करे यदि कपड़ेमें सोना नहीं बचे तो उसको शुद्धसूतं समं गन्धं वटक्षीरैर्विमर्दयेत् । डमरुयत्रमें रखकर अग्नि लगाकर उड़ा ले, यदि | पाचयेन्मृत्तिकापात्रे वटकाठैविघट्टयेत् ।। नीचेकी हांडीमें भी सुवर्ण दृष्टि नहीं आवे तो लध्वाग्नना दिनं पाच्य भस्मसूतं भवेधुवम् । फिर तौलकर भी देखले, सुवर्णप्रास देनेसे पहिले द्विगुञ्ज पर्णखण्डेन पुष्टिमग्निं च वर्धयेत् ॥ जो पारदका वज़न था वही बज़न यदि ग्रासके समान-भाग शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धककी जीर्ण होनेपर भी मिले, यानी सुवर्णका भार नहीं कज्जली बनाकर उसे (१ दिन) बड़के दूधमें धोटें, बढ़े तब उसको बुभुक्षित समझे । तदनन्तर उसे मिट्टीके मजबूत पात्रमें डालकर (४३३८) पारदभस्मविधिः (१) मन्दाग्नि पर पकावें ओर पकाते हुवे बड़की (हरी) (र. र. स. । पू. खं. अ. ११) लकड़ीसे घोटते रहें । इस क्रिया से १ दिनमें ही पारदभस्म बन जाती है । अकोलस्य शिफावारिपिष्टं खल्वे विमर्दयेत् । इसमेंसे २ रत्ती दवा पानमें रखकर खानेसे सूतं गन्धकसंयुक्तं दिनान्ते तं निरोधयेत् ॥ शरीर पुष्ट होता और अग्निकी वृद्धि होती है । पुटयेदभूधरे यन्त्र रात्रैकेन मृतो भवेत् ॥ (४३४१) पारदभस्मविधिः (४) ___ समानभाग पारद और गन्धककी कज्जलीको (र. रा. सु. । रसा. वाजी.) अकोलकी जड़के रसमें १ दिन घोटकर शराव- | शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं लोहपात्रेमिसंस्थिते । सम्पुट में बन्द करके भूधरयन्त्रमें पकानेसे १ दिनमें | आर्द्रन्यग्रोधदण्डेन चालयेद्भस्मतां नयेत् ।। ही भस्म हो जाती है। रक्तिकाद्वितयं भुक्तं रेतः पुष्टिकरं परम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४६४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध । द्रोणपुष्पीपमूनानि विडङ्गमरिमेदकः। गन्धककी कज्जलीको लोहेकी कढ़ाई में डालकर | एतच्चूर्णमधोश्चोर्द्ध दत्वा मुद्रा प्रदीयते ॥ अग्नि पर रक्खें और उसे हरे (ताजे) बड़के डण्डे | तद्गोलं स्थापयेत्सम्यङमृन्मूषासम्पुटे पचेत् । से चलाते हुवे उस समय तक पकावें जब तक मुद्रां दत्त्वा शोषयित्वा ततो गजपुटे पचेत् ।। कि पारदकी भस्म न हो जाय । ( अग्नि तेज़ न होनी चाहिये ।) एवमेकपुटेनव सूतकं भस्म जायते । | तत्पयोज्यं यथास्थाने यथामात्रं यथाविधि ॥ इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे वीर्य पुष्ट होता है। अपामार्ग ( चिरचिटे ) के बीजोंको पीसकर | उसकी दो मूषा बनाकर सुखा लें फिर पारदको (४३४२) पारदभस्मविधिः (५) (भा. प्र. । प्र. खं.; शा. ध. सं. । खं. २ कठूमर ( कठगूलर ) के दूधमें घोटकर उनमें से एक मूषामें नीचे ऊपर गूमाके फूल, बायबिडंग अ. १२; र. रा. सुं.) | और अरिमेदका समान भाग-मिश्रित चूर्ण रखकर काकोदुम्बरिकादुग्ध रसं किञ्चिद्विमर्दयेत् । रक्खें और दूसरी मूषा उसके ऊपर ढककर दोनों तहग्धघृष्टहिङ्गोश्व मृषायुग्मं प्रकल्पयेत् ।। की सन्धिको अच्छी तरह बन्द करदें एवं इस क्षिप्त्वा तत्सम्पुटे मूतं तत्र मुद्रां प्रदापयेत् ।। सम्पुटको मिट्टीके सम्पुट में बन्द करके उसके धृत्वा तद्गोलकं प्राज्ञो मृन्मूपासम्पुटेऽधिके । ऊपर ४-५ कपड़मिट्टी करदें और उसे सुख,कर पचेद्गजपुटेनैव मूतकं याति भस्मताम् ॥ गजपुटकी आंच दें । इस प्रकार १ पुटमें ही काकोदुम्बर ( कठूमर--कटगूलर ) के दूधमें | पारदकी भस्म बन जाती है ।। होगको घोटकर उसकी दो मूषा बनावें और फिर इसे यथोचित मात्रासे यथोचित विधि के एक मूषामें कठूमरके दूधमें घुटे हुवे पारदको रख- | अनुसार सेवन कराना चाहिये । कर दूसरी मूषा उसके ऊपर ढककर दोनों के (४३४४) पारदभस्मविधिः (७) जोड़को ( उसी हींगसे ) अच्छी तरह बन्द कर दें। तदनन्तर उसे एक मिट्टीके सम्पुटमें बन्द करके । (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड ) गजपुटमें पकावें तो पारदकी भस्म बन जायगी। | देवदाली हसपादी यमचिश्चा पुनर्नवा । (४३४३) पारदभस्मविधिः (६) | एभिः सूतो विघृष्टव्यो पुटनान्म्रियते ध्रुवम् ॥ (भा. प्र. । प्र. खं.) देवदाली ( बिंडाल ), हंसपादी, खट्टी इमली अपामार्गस्य बीजानां मूषायुग्मं प्रकल्पयेत् । । | और पुनर्नवा ( साठी ) के स्वरस में घोट घोटकर तत्सम्पुटे क्षिपेत्सूतं मलपूदुग्धमिश्रितम् ॥ 'पुट देनेसे पारदकी भस्म वन जाती है । For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] हतीयो भागः। [४६५ (४३४५) पारदभस्मविधिः (८) । स्याल्यामुत्यापनं कृत्वा अप्रियामाष्टकं ददेव । (र. सा. सं. । पू. ख.; र. मं. । अ. २: र. रा. | स्वागशीतं समुदत्य भस्मसूतोद्धपातनम् ॥ सु.; भा.प्र.; शा. ध.) योजयेत्सर्वरोगेषु कुर्य्याद्वहुतरं क्षुषाम् । भुजङ्गवल्लीनीरेण मईयेत्पारदं दृढम् । पुष्टिदं वर्द्धते कामः योजयेद्रक्तिकाद्वयम् ॥ कर्कटीकन्दमूषायां सम्पुटस्थ पुटेद्जे ॥ ___शुद्ध पारा १ भाग, सेंधानमकका चूर्ण १ भस्मतधोगवाहि स्यात्सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ भाग, सोमल ( संखिया ) आधा भाग, मीठा विष (बछनाग) चौथाई भाग तथा हींग, फटकी, ___ पारेको नागरबेलके पानके रसमें अच्छी तरह गेरु आर समुद्र लवणका समानभाग-मिश्रित घोट कर ककोड़े की जड़की मूषामें रखकर उसे चूर्ण इन सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिला शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंकनेसे कांजी में अच्छी तरह घोटें फिर इन्द्रायणकी उसकी योगवाही भस्म बन जाती है । जड़के स्वरसमें घोटफर डमरु यन्त्रमें रखकर ८ (४३४६) पारदभस्मविधिः (९) | पहरकी आग दें और यन्त्रके स्वांग शीतल हो (र. मं. । अ. २) जाने पर उसे खोलकर ऊपरकी हांडीमें लगी हुई पारद भस्मको निकाल लें। द्वपलं शुद्धमूतं च सूतार्दै शुद्धगन्धकम् ।। इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे कन्यानीरेण सम्म दिनमेकं निरन्तरम् ॥ अत्यन्त क्षुधा वृद्धि होती, शरीर पुष्ट होता और रुद्धा तद्भूधरे यन्त्रे दिनैकं मारयेत्पुटात् ॥ | कामशक्ति बढ़ती है । १० तोले शुद्ध पारद और ५ तोले शुद्ध | (४३४८) पारदभस्मविधिः (११) गन्धककी कज्जली करके उसे १ दिन निरन्तर (र. रा. सु.) घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ) के रसमें घोटकर शराव- वटक्षीरेण सूताभ्रौ मर्दयेत्महरद्वयम् । सम्पुट में बन्द करके भूधरयन्त्रमें पकानेसे १ दिन | पाचयेत्तेन काठेन भस्मीभवति तद्रसः ॥ में.ही पारदभस्म बन जाती है। शुद्ध पारद और अभ्रकको दो पहर तक बड़के दूधमें घोटकर लोहेकी कढ़ाई में बड़की हरी (४३४७) पारदभस्मविधिः (१०) लकड़ीसे घोटते हुवे पकानेसे पारदकी भस्म बन (र. रा. सुं) जाती है। शुद मृतं समं सिन्धुं सोमलं च तदर्धकम् ।। (४३४९)पारदभस्मविधिः (१२) सोमलादै विषं लिप्त्वा हिस्फटिकगैरिकम् ॥ (र. रा. सु.) सामुद्रलवणं चैव सर्वतुल्यं विनिक्षिपेत् । कृष्णधतूरतैलेन सूतो मयों नियामकैः । काधिकेन पुटं दद्यात्पुटित्वा चेन्द्रवारुणीम् ॥ ' दिनैकं तं पचेयन्त्रे कच्छपाख्ये न संशयः ।। For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४६६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि मृतःमूतो भवेत्सद्यो सर्वयोगेषु योजयेत् । । रसमें एक एक दिन घोटें और फिर उस कल्कशुद्ध पारदको काले धतूरेके बीजेोके तेल को एक कपड़े पर लपेट कर उसकी बत्ती बना लें। और नियामक ओषधियोंके स्वरसमें १-१ रोज़ मर्दन करके १ दिन कच्छपयन्त्रमें पकानेसे उसकी मत्स्याक्षी यमचिश्चा हरिद्रे द्वे पुनर्नवाद्वितयम् ॥ भस्म हो जाती है। धुस्तूरः काकजसा शतावरी कञ्चुकी चैव (४३५०) पारदभस्मविधिः (१३) वन्ध्या । तिलभेकपर्णीके दुर्वा मूळ हरीतकी तुलसी॥ (कृष्णभस्म ) गोकण्टकाखुपयौँ कर्कटीकन्दवर्गलता च । (र. सा. सं.; र. रा. सु. । पूर्वखण्ड) मूसली हिज गुडूची शिग्रु गिरिकर्णिका महाराष्ट्री धान्याभ्रकं रसं तुल्यं मारयेन्मारकद्रवैः। दिनैकं तेन कल्केन वस्त्रं लिप्त्वा तु वर्तिकाम् ।। | मार्कवसैन्धवसरणौ सोमलता श्वेतसर्षपासनश्च। विलिप्य तैलैवेति तामेरण्डोत्यैः पुनः पुनः।। हंसपदीव्याघ्रपदीकिंशुकभल्लातकेन्द्रवारुणिका ॥ प्रज्वाल्य तदाज्यभाण्डे गृह्णीयात्पतितश्च यत् ।। सर्वश्चादीशं वा अष्टादशाधिका वापि द्रव्यम् । कृष्णभस्म भवेत्तच्च पुनर्मथै नियामकैः । समारणमूर्छादौ च युक्तिविधिवदुपयोज्यम्॥ दिनैकं पातयेद्यन्त्रे कन्दुकाख्ये न संशयः॥ | नागरमोथा, बच, चित्ता, गोखरु, कड़वी, मृतः मूतो भवेत्सत्यं तत्तद्रोगेषु योजयेत् ।। | तूंबी, दंती, चमेली, नाकुलीकंद, सरफेका, धीकुश्वेतं पीतं तथा रक्तं कृष्णश्चेति चतुर्विधम् ।। | मार, चाण्डालनीकंद, विषमुष्टी ( डोडी ), वज्रवल्ली लक्षणं भस्ममूतानां श्रेष्ठं स्यादुत्तरोत्तरम् ॥ ( हडफोड़ी), लाजवन्ती, बंदालडोडा, लाख, सहदेवा (शारिवा ), नीप ( कदंब ), पीपल, धान्याभ्रक और शुद् पारा समान भाग संभालु, चक्र ( तगरपुष्प या पनवाड़), लांगलीकंद, लेकर दोनोंको एकत्र घोटकर मारक, द्रव्योंके मानकंद, आक, चंद्ररेखा ( बाबची ), रविभक्ता (१) मारकगणः । ( हुलहुल ), काकमाची, श्वेतार्क, विष्णुक्रांता घनवचाचित्रकगोक्षुरकटुतुम्बीदन्तिकाजाति । ( कोयल ), कौवाडोडी, वज्री ( थोहर ), बला, साक्षी शरपुडा कन्या चाण्डालिनीकन्दम् ॥ सोंठ, कड़वी तोरी, जयंती, वाराहीकंद, हाथिशुण्डी, विषमुष्टिवज्रवल्ल्यौ लज्जा देवदाली लाक्षा। केलाकंद, मत्स्याक्षी, यमचिंचा ( खट्टी इमली ), सहदेवा नीपकणा निर्गुण्डी चक्रं लाङ्गलिका ।। हलदी, दारुहल्दी, लाल पुनर्नवा, श्वेत पुनर्नवा, माणार्कचन्द्ररेखा रविभक्ता काकमाचिका चार्कः। धतूरा, काकजंघा, शतावर, कंचुकी ( क्षीरीवृक्ष ), विष्णुक्रान्ता वायसतुण्डी वत्री बला शुण्ठी चैव ॥ बांझककोड़े की जड़, तिल, मण्डूकपर्णी (ब्राह्मी), कोपातकी जयन्ती वाराही इस्तिशुण्डिका दूर्वा, मूर्वा, हरड़, तुलसी, गोखरु; मूषाकर्णी, रम्भा। कर्कटीकंद, वर्गलता, (पाठा), मूसली, हींग, गिलोय, For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ४६७ ] इस बत्तीको अण्डीके तेलमें अच्छी तरह । ओषधियों के रसमें १-१ दिन घोट कर कन्दुक यन्त्र में पान कर लें | इस विधिसे पारदकी उत्तम भस्म बन जाती है । भिगो लें और उसके एक सिरेमें आग लगाकर दूसरे सिरेको चिमटेसे पकड़कर उसे उलटा लटकावें और उससे जो तैल गिरे उसे चीनी या कांच आदिके पात्रमें इकट्ठा कर लें । तदनन्तर उस तेलके नीचे बैठी हुई कृष्ण भस्मको नियामक २ सुहांजना, गिरिकर्णिका ( अपराजिता ), महाराष्ट्री ( जलपिप्पली), मार्केव ( भांगरा ), सेंधा नमक, सरणी (प्रसारणी - पसरन), सोमलता, पीली संसी, असन (विजैसार), हंसपदी, व्याघ्रपदी, कंटाई केशु, भिलावे और इंद्रायण । यह मारक वर्ग है । इन सब ओषधियांका या इनमें से किन्हीं १८ या ततोधिक ओषधियांका चूर्ण पारदसे आधा मिलाकर पारदको मूर्च्छित करने या भस्म करने के लिये प्रयुक्त करना चाहिये । २- नियामकगण । सर्पाक्षी वन्यकर्कोटी कचुकी यमचिञ्चिका । शतावरी शङ्खपुष्पी शरपुङ्खा पुनर्नवा ॥ मण्डूकपर्णी मत्स्याक्षी ब्रह्मदण्डी शिखण्डिनी । अनन्ता काकजङ्घा च काकमाची कपोतिका ॥ विष्णुक्रान्ता सहचरा सहदेवी महाबला । बला नागवला मूर्ध्ना चक्रमर्दः करञ्जकः ।। पाठा तामलकी नीली जालिनी पद्मचारिणी । घण्टा त्रिकण्टगोजिहा कोकिलाक्षघनध्वनिः ॥ आखुपर्णी क्षीरिणी च त्रिपुषी मेषशृङ्गिका । कृष्णवर्णा च तुलसी सिंहिका गिरिकर्णिका ।। एता नियामकौषध्यः पुष्पमूलदलान्विताः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारदकी भस्म श्वेत, पीली, लाल और काली इस प्रकार ४ रंगकी बनती है । इनमें से श्वेत सबसे निकृष्ट, पीली उससे अच्छी, लाल पीलीसे अच्छी और कृष्णभस्म सर्वोत्तम होती है । नाकुलकंद, वांझककोड़ा, कंचुकी ( शिरीषवृक्ष ), खट्टी इमली, शतावर, शंखाहुली, सरफोंका, पुनर्नवा ( साठी ), मंडूकपर्णी (ब्राह्मी), मत्स्याक्षी ( सोमलता या हुलहुल), ब्रह्मदण्डी, शिखंडिनी ( पीले वर्ण की जूही ), शारिवा, काकजंघा, मकोह, कपोतिका ( नलिका), विष्णुक्रान्ता ( कोयल ), सहचरा ( पीया वांसा ), सहदेवी, महाबला, बला, नागबला (खरैटी के भेद), मूर्वा, ( मरोड़फली ), चक्रमर्द ( पनवाड़ ), लताकरंज, पाटला, पाठा, भूमीआमला, नीलनी, जालनी ( कड़वी तोरी ) पद्मचारिणी (गेंदा), घंटा ( कठपाडर ), गोखरु, गोजिह्वा ( गोजियाघास ), तालमखाना, चौलाई, मूसाकन्नी, क्षीरिणी (सत्या नाशी ), त्रिपुपी (खीरा), मेडासिंगी, काली तुलसी, सिंहिका (बड़ी कटेली ) और अपराजिता । ये सब नियामक ओषधियां हैं । इनके पुष्प, मूल और पत्र लेने चाहियें । इन में मर्दन करने से पारा स्थिर हो जाता है । For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [४६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि (४३५१) पारदभस्मविधिः (१४) | इसके पश्चात् शीशीके स्वांग शीतल होने पर उसे ( भा. प्र. । प्र. खं.; शा. ध. सं. । फोड़कर ऊपरके भागमें लगे हुवे गन्धकको अलग खं. २ अ. १२) कर दें और नीचेकी भस्मको निकालकर सुर क्षित रक्खें। धूमसारं रसं तुवरी गन्धकं नवसादरम्। यामक मर्दयेदरलैर्भागं कृत्वा समं समम् ।। इसे यथोचित अनुपानके साथ सेवन कराने काचकूप्यां विनिक्षिप्य ताश्च मृदस्खमुद्रया। से समस्त रोग नष्ट होते हैं । विलिप्य परितो वक्त्रे मुद्रां दत्त्वा विशोषयेत् ॥ ( मात्रा--१ रत्ती ।) अधः सच्छिद्रपिठरीमध्ये कूपी निवेशयेत् । । (४३५२) पारदभस्मविधिः (१५) पिठरी वालुकापूरै त्वा चाकूपिकागलम् ॥ (तलभस्म) निवेश्य चुल्ल्यां तदधो वहिं कुर्याच्छनैः शनैः। (वृ. यो. त. । त. ४२) तस्मादप्यधिक किश्चित्पावकं ज्वालयेत्क्रमात् ।। एवं द्वादशभिर्यामैम्रियते रस उत्तमः। सूतश्चतुष्पलमितः समशुद्धगन्धः स्फोटयेत्स्वाङ्गशीतं तमूर्द्धगं गन्धकं त्यजेत् ।। | स्यामसारपिचुरेकमिदं क्रमेण । अवस्थश्च मृतं मृतं गृह्णीयात्तं तु मात्रया। | सम्मर्दयेद्विमलदाडिमपुष्पतोये यथोचितानुपानेन सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ घस्र विमिश्रय सितसोमलमापकेण ।। ___घरका धुवां, शुद्ध पारा, फिटकी, शुद्ध एतभिधाय सकलं जलयन्त्रगर्भ सम्मद्रय सन्धिमुदितेन पुरा क्रमेण । गन्धक और नौसादर समान भाग लेकर प्रथम | आपूर्य यन्त्रमुदकेन दिनानि चाष्टी। पारे गन्धककी कजली बनावें फिर उसमें अन्य वन्हि क्रमेण तदधो विदधीत विद्वान् ॥ ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर सबको १ पहर सक नीबू आदिके रस में घोटकर सुखाकर उसे पश्चाच तज्जलमुदस्य रसं तलस्थ मादाय भाजनवरे सुभिषनिदध्यात् । कपरौटी ( कपड़मिट्टी ) की हुई आतशी शीशीमें भर दें और एक हाण्डीकी तलीमें छोटासा (पैसेके सम्पूज्य शम्भुगिरिजागिरिजातनूज मधाच्छुभेऽहनि रसं वरमेकगुनम् ।। बराबर ) छिद्र करके उसमें इस शीशीको रखकर हण्डीमें रेत भर दें । रेत शीशीके गले तक आ | ताम्बूलिकादलयुतं ससितं पयोऽनु जाना चाहिये । तदनन्तर शीशीके मुखमें खिरिया | पीत्वाऽम्लमाषलवणे रहितं सदभम् । मिट्टी आदिका डाट लगाकर उसे भट्टी पर चदादें अधात्कियन्त्यपि दिनानि ततो यथेच्छ और उसके नीचे मन्दाग्नि जलावें तथा धीरे धीरे । भक्ष भजेदय नरो विगतामयः स्यात् ॥ अमिको तेज करते हुवे १२ पहरकी आंच दें। शुद्ध पारद २० तोले, शुद्ध गन्धक २० For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [ ४६९] तोले, घरका धुवां ११ तोला तथा शुद्ध सफेद | पारद भस्म निकालकर सुरक्षित रक्खें । यह योगसंखिया १॥ माशा लेकर प्रथम पारे गन्धकको | वाही भस्म सर्वरोग-नाशक है । कज्जली बनावें तत्पश्चात् उसमें अन्य चीजें मिला ( मात्रा–१ रत्ती) कर सबको १ दिन अनारके फूलोंके रसमें घोट (४३५४) पारदभस्मविधिः (१७) कर उसे जलयन्त्रमें रखकर मुद्रा बन्द कर दें और उसे पानीमें रखकर उसके नीचे ८ दिन तक (पीतभस्म ) क्रमशः मृदु मध्यम और तीन अग्नि जलावें । ( वृ. नि. र. । आमवा.) तदनन्तर यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमें से | शरावनिहितं सूतं द्विगुणवर्ष मूहुर्मुहुः । पारदभस्मको निकालकर सुरक्षित रखें । दत्त्वाग्निं सूर्ययामान्तं निम्बकाष्ठेन घट्ठयेत् ।। इसमें से नित्य प्रति १ रत्ती रस पानमें एवं भवेत्पीतवर्णा रसराजस्य भूतिका । खाकर ऊपरसे मिश्रीयुक्त दूध पीने और खटाई, यथानुपानं रोगेषु पदद्यात् भिषगुत्तमः॥ उर्द तथा लवण रहित भोजन करनेसे मनुष्य सर्व- अर्जितं विविधोपार्जङ्गमाद्भिपजान्मया । रोगरहित हो जाता है। इदं तत्त्वं प्रलब्धं तु पालनीयं चिकित्सकैः ॥ (४३५३) पारदभस्मविधिः (१६) । १ भाग शुद्ध पारा और २ भाग शुद्ध बंग को एकत्र मिलाकर मिट्टीके पात्रमें डालकर चूल्हे ( तलभस्म) पर रक्खें और उसके नीचे १२ पहर अग्नि जलावें (र. रा. मु.) तथा उसे निरन्तर नीमके सोटेसे घोटते रहें । इस गन्धकं नवसारं च शुद्धसूतं समं त्रयम् । । | क्रियासे पारदको पीतवर्ण भस्म बन जाती है। यामैक चूर्णयेत्खल्वे काचकुप्यां विनिक्षिपेत् ॥ | इसे यथोचित अनुपानके साथ देनेसे समस्त रुध्वा द्वादशयामान्तं बालुकायन्त्रगं पचेत् । | रोग नष्ट होते हैं । यह विधि एक महान वैद्यसे स्फोठयेत्स्वागशीतं तवं गन्धकं क्षिपेत् ॥ बड़े यत्नसे प्राप्त हुई है। तलमस्मरसो योगवाही स्यात्सर्वरोगहृत् । । (मात्रा-१ रत्ती ।) शुद्ध गन्धक, नौसादर और शुद्ध पारद | (४३५५) पारदभस्मविधिः (१८) समान भाग लेकर तीनोंको १ पहर तक निरन्तर खरल करके कपड़मिट्टी की हुइ आतशी शीशी में (पीतभस्म ) भरकर उसका मुख बन्द करदें और उसे १२ | (र. रा. सु.) पहर तक बालुकायन्त्रमें पकावें । तत्पश्चात् । भूधात्रीहस्तिशुण्डीभ्यां रसगन्धं च मर्दयेत् । शीशीके स्वांग शीतल होने पर उसे फोड़कर | काचकुप्यां चतुर्यामं पकः पीतो भवेद्रसः॥ ऊपर वाले गन्धकको अलग करदें और नीचे से पारे गन्धककी कजलीको १-१ दिन भुई For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [४७०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः । [पकारादि आमला और हाथी सुण्डीके स्वरसमें घोटकर कपड़ ! कण्टकारीकषायेण पिप्पल्या च सकासजिन् । मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरकर उसे बालु- अजायाः क्षीरसिद्धेन कणायुक्तेन सर्पिषा ॥ कायन्त्रमें रखकर ४ पहरकी अग्नि दें । तदनन्तर त्रिफलागन्धकव्योपगुडेवा क्षपयेत्क्षयम् । शीशीके स्वाङ्ग शीतल होनेपर उसे तोड़कर उसमें । हिकां निहन्ति रुचकबीजपूराम्लमाक्षिकैः ।। से पारदभस्मको निकाल लें । यह पीले रंगकी छर्दिदाहौ मधुसिता लाजामुद्गसिताम्मुभिः । भस्म होगी। अर्शासि तैलसिन्धूत्यपुटपाचितसूरणैः ।। (४३५६) पारदभस्मविधिः (१९) त्वपल्लवैः कषायेण शृतेनोदश्चिदम्भसा । ( श्वेतभस्म) सीरिण्या वाप्यतीसारं विपूचीं कहिङ्गुना ।। (र. र. स. । पृ. खं. अ. ११) अजीर्ण काजिरण्डकाथपथ्यावलेहतः। देवदाली हरिक्रान्तामारनालेन पेपयेत् । विल्वकर्कटिकागर्भ मसूरकथिताम्बु वा ॥ तद्रवैः सप्तधा सूतं कुर्यान्मर्दितमूर्छितम् । । कृच्छू मृतरसमीरक्षीरिणीपुरमाक्षिकैः ॥ तत्सूतं खर्परे दद्याहत्वा दत्वा तु तद्रसम् । पारदभस्मशिलाजतुकृष्णाचुल्योपरि पचेचाहि भस्म स्याल्लवणोपमम् ॥ लोहमलत्रिफलाकुलिबीजम् । ___बिंडाल और कृष्ण अपराजिता ( कोयल ) | ताप्यनिशारजतोपलकान्तको काझीमें पीसकर कपड़ेसे निचोड़कर उसका | व्योपरजः खपुरश्च कपित्यात् ।। रस निकालें और इस रसमें सात बार (सात दिन) | सर्वमिदं परिचूर्ण्य समांशं शुद्ध पारदको घोटें । तदनन्तर उस पारदको मिट्टी भावितभृारसं दिवसादौ । के पात्रमें डालकर अग्नि पर चढ़ा दें और उसमें | विंशतिवारमिदं मधुलीढं उपरोक्त दोनों पदार्थोंका रस थोड़ा थोड़ा डालते विशतिमेहहरं हरिदृष्टम् ॥ हुवे १२ पहर तक पकावें । न्यग्रोधाद्यसनाद्यैर्वा काययुक्तो मृतो रसः । ____ इस क्रियासे लवणके समान पारदभस्म तैयार | पथ्यालशुनगोमूत्रैः प्लीहगुल्मनिबर्हणः ।। होती है। फलाययूषशम्यूकसाराभ्यां पक्तिशूलनुत् । (४३५७) पारदभस्मानुपानानि सत्र्यूषणतिलकाथेनामशूलस्य नाशनः ।। (र. र. स. । अ. २०) नवनीतसुधाक्षीरभावितोऽभययोदरे । रोगोक्तयोगयुक्तोऽयं तत्तद्रोगहरो भवेत् । स हितः सहितो यष्टीवारिणा कामलामये ।। समुस्तपर्पटकाथो भस्मसूतो हरेज्ज्वरम् ॥ फलत्रिकादिकायेन पाण्डुशोफे सकामले । दशमूलकषायेण पिप्पल्या च समस्तनम् ॥ । शोफे सविश्वभूनिम्बकायगोमूत्रसंयुतः॥ माक्षिकाऽभयया वासापिप्पल्या चात्रपित्तनुत । निम्बामलकककुष्ठैः प्रशस्तः स मृतो रसः॥ For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४७१] फेनिलफलाहिदींकन्दरसं खादतोऽनुदिनम् ।। शहदमें मिलाकर उसके साथ; फेनिलमूलोद्वर्तनमाचरतोपि च कुतः कुष्ठम् ॥ खांसीमें-पीपलके चूर्ण और कटेलीके काथ चित्रकवानरिवायसितुण्डी के साथ; बाकुचिकाद्विगुणाः परिपीताः। क्षयों-बकरीके दूधसे सिद्ध घृतमें पीपलका मूत्रयुता मृतस्तसमेता | चूर्ण मिलाकर उसके साथ अथवा त्रिफला, त्रिकुटा, स्तक्रभुनः शमयन्ति किलासम् ॥ शुद्ध गन्धक और गुड़के समान भाग-मिश्रित सनिम्बपल्लवक्षौद्रः कृमीन्हन्ति मृतो रसः। चूर्णके साथ; पीतो लशुनसिद्धेन तैलेनानिलजान्गदान् ॥ हिचकीमें-सञ्चल ( काला नमक ), विजौर विधरण्डभृतक्षीरसहितो गृध्रसीं जयेत् ।। | का रस और शहदके साथ; गुडाभयागुडूच्यम्बुयुक्तः पवनशोणितम् ॥ त्रिकटुत्रिफलावेल्लैः समांशो गुग्गुलुर्जयेत् । छर्दि और दाहमें-मिश्री, शहद और धान की खीलोंके साथ अथवा मिश्रीके शर्बत कौर मूंग वातारितैलसंयुक्तः स्थौल्यं भस्मरसान्वितः ॥ मधुदकाभ्यां युक्तो वा काश्य तु शर्करान्वितः।। के यूषक साथ; हिसौवर्चलव्योषमूत्रसिद्धन सपिंपा ॥ अर्शमें-पुटपाकविधिसे पक्क सूरण (जिमिरसो हन्यादपस्मारमुन्मादं च तथाअनात् ॥ | कन्द), और सेंधा नमकके चूर्णको तेल में मिलाकर मधूककुनटीतायपारावतमलैयुतः ॥ उसके साथ; धान्याम्लपिष्टाष्टम पिप्पलीका अतिसारमें-खिरनीकी छाल और उसके कार्पासबीजान्करमर्दनेन। पत्तोंको तक्रके पानीमें पकाकर उसके साथ; आदाय तैलं मृतसूतयुक्त विसूचिकामें-हींग और पीपल के चूर्ण के मक्ष्णि प्रयुञ्जीत विशीर्णरोम्णि ॥ साथ; पारद भस्म जिस रोगको नष्ट करने वाले अजीर्णमें-कानी या अरण्डमूलके काथ किसी योगके साथ खिलाई जाती है उसीको नष्ट | अथवा “ हरीतकीअवलेह "के साथ; करती है। मूत्रकृच्छ्रमें-बेलगिरी, ककड़ीका गूदा, मसूपारद भस्मः रका काथ, दूध, दुद्धी, तालमखानेका चूर्ण और ज्वरमें मोथे और पित्तपापड़ेके काथके साथः | शहद को एकत्र मिलाकर उस के साथ खिलानी त्रिदोष ज्वरमें-पीपलके चूर्ण और दशमूल चाहिये । के काथके साथ; प्रमेहमें-पारदभस्म, शिलाजीत, पीपल, मरक्तपित्तमें-हर्र, बासा और पीपलके चूर्णको । सूर भस्म, त्रिफला, कटेली के बीज, स्वर्णमाक्षिक For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः । [ ४७२] भस्म, हल्दी, चांदीभस्म, सूर्यकान्तमणि भस्म, त्रिकुटे का चूर्ण, अभ्रकभस्म, शुद्ध गूगल और कैथका फल समान-भाग लेकर सबका महीन चूर्ण बनाकर उसे १ दिन भंगरेके रसमें घोट लें । इसे यथोचित मात्रानुसार शहद में मिलाकर चाटने से बीस दिनमें बीस प्रकारके प्रमेह नष्ट हो जाते हैं । लीहा और गुल्ममें--प्रोधादिगण अथवा असनादि गणके काथके साथ पारद भस्म खाकर हर्र और ल्हसनको गोमूत्र में पीसकर खाना चाहिये । पतिशूल - मटरके काथमें शंख भस्म मिलाकर उसके साथ और आमलमें- तिलके काथमें त्रिकटुका चूर्ण मलाकर उसके साथ पारद भस्म सेवन करनी चाहिये । कामला में - पारद भस्मको नवनीत और थोहर ( सेंड ) के दूधकी १-१ भावना देकर उसे हरके चूर्ण में मिलाकर खाना और ऊपर से मुलैठीका काथ पीना चाहिये । पाण्डु शोथ और कामलामें- त्रिफलादिके काथके साथ; शोथ-साठ और चिरायतेके काथमें गोमूत्र मिलाकर उसके साथ अथवा नीमकी छाल, आमला - और कंकुष्ठके चूर्णके साथ खानी चाहिये । कुष्ठमें - ठेके फल और नागदमनके कन्दके चूर्णके साथ पारद भस्म सेवन करनी और शरीर पर ठेकी जड़का चूर्ण (कांजी में मिलाकर) मलना चाहिये । [ पकारादि किलासकुष्ठ- चीता १ भाग, कौंच के बीज २ भाग, मकोय ४ भाग, जंगली कन्दुरी ८ भाग और बाबची १६ भाग लेकर सबको गोमूत्र में पीस कर उसके साथ पारदभस्म सेवन करनी और पथ्यमें तक पीना चाहिये । कृमिरोग - नीम के पत्तोंको शहदके साथ मिलाकर उसके साथ; वातव्याधिमें-- हसनसे सिद्ध तैलके साथ; सीमें- सोंठ और अरण्डमूलसे सिद्ध दूध के साथ; Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वातरक्तमें - गुड़, हर्र, गिलोय और सुगन्धबाला चूर्ण के साथ; स्थूलतामें- त्रिकुटा, त्रिफला और बायबिड़ङ्गके चूर्ण में सबके बराबर गूगल मिलाकर उसे अण्डीके तैलमें मिलाकर उसके साथ अथवा शहदके शर्बत के साथ और कृशतामें-खांडके साथ पारद भस्म खानी चाहिये । उन्माद और अपस्मारमें- हींग, सञ्चल ( काला नमक ) और त्रिकुटाके कल्क तथा गोमूसे सिद्ध घीके साथ पारदभस्म खिलानी चाहिये तथा महुवेकी गुठलीकी मींग, मनसिल, रसौत, कबूतरकी बीट और पारदभस्मको पीसकर आंखों में लगाना चाहिये । नेत्ररोग में आठ भाग पीपलके चूर्ण और १ भाग बिनौलेकी गिरीको काञ्जी में पीसकर ( धूप में रखदें और उसे) हाथोंसे रगड़े, इससे जो तैल निकले उसमें पारद भस्मको घोटकर आंखोंकी For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४७३] पलकों पर लेप करनेसे पलकेकि बाल गिरने बन्द । एवं निपत्य यात्यूर्व रसो दोषविवर्जितः । हो जाते हैं। अयोर्ध्वपिठरीमध्ये लग्नो ग्राह्यो रसोत्तमः ।। (४३५८) पारदविकारहरो योगः ___ समान भाग राई और ल्हसनको एकत्र कूट(र. रा. सु । पूर्व ख.) कर उसकी मूषा बनावें और उसमें पारा डालकर | उसे कपड़ेमें बांधकर ३ दिन तक दोलायन्त्र विधि विकारा यदि जायन्ते पारदान्मलसंयुतान् । से काजीमें स्वेदित करें । तत्पश्चात् उस पारदको गन्धकं सेवयेद्धीमान् पाचितं विधिपूर्वकम् ॥ ।। १-१ दिन ग्वारपाठाके रस, चीतेके काथ, मकोय ___अशुद् पारद सेवनसे उत्पन्न हुवे विकार शुद्ध के रस और त्रिफलाके काथमें पृथक् पृथक् घोटकर गन्धक सेवन करनेसे नष्ट हो जाते हैं। काजीसे अच्छी तरह धो डालें । तदनन्तर उसमें (४३५९) पारदशोधनम् (१) उससे आधा सेंधा नमकका चूर्ण मिलाफर १ दिन (आ. वे. प्र. । अ. १; शा. ध. । खं. २ अ. १२) | नीबूके रसके साथ घोटें । तत्पश्चात् उसमें पिसी हुई राई, ल्हसन और नवसादर समान-भाग-मिश्रित राजीरसोनमूषायां रसं क्षिप्त्वा विवन्धयेत् । पारदके बराबर मिलाकर १ दिन काजीके साथ वस्त्रेण दोलिकायन्त्रे स्वेदयेत्काअिकैस्म्यहम् ॥ घोटें और फिर उसकी गोल टिकिया बनाकर दिनैकं मर्दयेत्पश्चात् कुमारीसम्भवैवैः ।। सुखा लें और उनके ऊपर होगका लेप कर दें। तथा चित्रकजैः काथैमर्दयेदेकवासरम् ॥ तत्पश्चात् उन्हें एक हांडीमें रखकर उसे नमकसे काकमाचीरसैस्तद्वदिनमेकं तु मर्दयेत् । भर दें और उसके ऊपर दूसरी हांडी उलटी रखकर त्रिफलायास्ततः काथै रसो मद्यः प्रयत्नतः ॥ दोनोंकी सन्धिको गुड़चूने आदिसे बन्द कर दें ततस्तेभ्यः पृथक्कुर्यात् मूतं प्रक्षाल्य काजिकैः। और सुखाकर इस यन्त्रको चूल्हे पर रखकर इसके ततः क्षिप्त्वा रसं खल्वे रसादधं च सैन्धवम् ॥ नीचे ३ पहर तक तीवाग्नि जलावें । इस बीचमें ऊपर मर्दयेनिम्बुकरसैदिनमेकमनारतम् । की हांडी पर भीगा हुवा कपड़ा रक्खे रहना ततो राजी रसोनश्च मुख्यश्च नवसागरः ॥ चाहिये और उसे बार बार बदल कर ऊपर वाली एतै रससमैस्तद्वत् सूतो मर्यस्तुपाम्बुना। हांडीको ठण्डा रखना चाहिये । ततः संशोष्य चक्राभं कृत्वा लिप्त्वा च हिङ्गना।। ३ पहर बाद यन्त्रके स्वांग शीतल होनेपर द्विस्थालीसम्पुटे धृत्वा पूरयेल्लवणेन च । । जोड़को आहिस्तासे खोलकर ऊपर वाली हांडीमें अधः स्थाल्यां ततो मुद्रां दधादृढतरां बुधः ॥ | लगे हुवे पारेको सावधानीपूर्वक छुड़ा लेना चाहिये। विशोष्यामिं विधायाधो निषिश्चेदम्बु चोपरि। यह पारद सर्व-दोष-रहित और अत्यन्त ततस्तु दद्यात्तीवाग्निं तदधः प्रहरत्रयम् ॥ शुद्ध होगा । For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४७४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ पकारादि (४३६०) पारदशोधनम् (२) । (४३६२) पारशोधनम् (४) (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड) (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड) जयन्त्या वर्द्धमानस्य चाकस्य रसेन च। रसम्य द्वादशांशेन गन्धं दत्त्वा विमर्दयेत् । वायस्याश्चानुपूर्येण मर्दनं रसशोधनम् ॥ जम्बीरोत्/ वैर्याम पाच्यं पातनयन्त्रके ॥ एषां प्रत्येकशस्तावन्मदयेत्स्वरसेन च । | पुनर्मघे पुनः पाच्य सप्तवार विधानतः ॥ यावच्च शुष्कतां याति सप्तवारं क्रमेण च ॥ | पारदमें उसका बारहवां भाग गन्धक मिलाउद्धत्योष्णारणालेन मृद्भाण्डे क्षालयेत्सुधीः। कर कजली बनावें और फिर उसे १ पहर तक सर्वदोष विनिर्मुक्तः सप्तकञ्चुकवर्जितः॥ नीबूके रसमें घोटकर ऊर्ध्वपातन यन्त्र द्वारा उड़ा जायते शुद्धसूतोऽयं युज्यते सर्वकर्मसु॥ | लें । इसी प्रकार गन्धकके साथ घोट घोटकर __पारदको जयन्ती, अरण्ड, अदरक और मकोय सात बार उड़ानेसे पारद शुद्ध हो जाता है । के रसमें क्रमशः पृथक् पृथक् सात सात बार घोटकर | (४३६३) पारदशोधनम् (५) सुखा लें । तदनन्तर उसे मिट्टीके पात्रमें डालकर (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड ) गर्म काजीसे धो डालें तो पारद सप्त कञ्चुकी और कुमा- च निशाचूर्णैर्दिनं सूतं विमर्दयेत् । सर्वदोष रहित हो जाता है । इसे समस्त योगोमें पातयेत्पातनायन्त्रे सम्यक् शुद्धो भवेद्रसः ॥ डाल सकते हैं। नोट-पारदको हर बार धोटकर सुखाकर ___ पारदमें उसका सोलहवां भाग हल्दीका काञ्जीसे धोना चाहिये अर्थात उक्त ४ ओषधियों चूर्ण मिलाकर दोनोंको १ दिन ग्वारपाठा के के रसमें २८ बार घोटकर सुखाना और २८ बार रसमें घोटकर उर्ध्वपातनयन्त्र द्वारा उड़ानेसे वह काजीसे धोना पड़ेगा। शुद्ध हो जाता है। (४३६१) पारदशोधनम् (३) (४३६४) पारदशोधनम् (६) (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड) (र. सा. स. । पूर्वखण्ड ) रसोनस्वरसैः सूतः नागवल्लीदलोत्थितैः । श्रीखण्डं देवकाष्ठश्च काकजङ्घा जयाद्रवैः । त्रिफलायास्तथा काथे रसो मर्यः प्रयत्नतः ॥ कर्कटीमूषलीकन्याद्रवं दत्त्वा विमर्दयेत् ।। ततस्तेभ्यः पृथक् कृत्वा मूतं प्रक्षाल्य काञ्जिकैः । दिनैकं पातयेत्पश्चात्तं शुद्धं विनियोजयेत् ॥ सर्वदोषविनिर्मुक्तं योजयेद्रसकर्मम् ॥ ____पारदको १-१ दिन क्रमशः लहसन और पारदको सफेद चन्दन, देवदारु, काकजंघा, पानके स्वरस तथा त्रिफलाके काथमें घोटकर काञ्जी जयन्ती, बांझककोड़ा ( या देवदाली--बिंडाल ), से धो डालें । इस क्रियासे पारद सर्वदोषरहित शुद्ध । मूसली और ग्वारपाठामें से जिन के स्वरस मिल हो जाता है। सकें उनके स्वरसके और शेष द्रव्योंके काथके For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [४७५] साथ १-१ दिन घोटकर ऊर्ध्व पातनयन्त्रसे उड़ा , भेद ), नागबला ( गंगेरन ), चौलाई, बिसखपरा लें । इस क्रियासे पारद शुद्ध हो जाता है। ( साठी ), मेढासिंगी, चीता और नसदर समान (४३६५-४३७९ ) पारदसंस्काराः | भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर या पृथक् (र. चं.; र. रा. सु.) पृथक् काजीमें पीस लें और फिर उस कल्कका एक वस्त्र पर १ अंगुल मोटा लेप करदें । तत्पस्वेदनं मर्दनञ्चैव मूच्छनोत्यापने तथा । श्चात् इस वस्त्रमें पारदकी पोटली बनाकर उसे पातनं रोधनं चैव नियामनमतः परम् ॥ | दोलायन्त्र विधिसे ३ दिन तक काञ्जीमें पकावें । दीपनं चेति संस्काराः मृतस्याष्टौ प्रकीर्तिताः। इसीका नाम स्वेदन संस्कार है। पारदके ८ संस्कार होते हैं यथा:-स्वेदन, पारदस्वेदनम् (आ) मर्दन, मूर्छन, उत्थापन, पातन, रोधन, नियामन ( भा. प्र. । प्र. खं) और दीपन संस्कार । मूलकानलसिन्धूत्यत्र्यूषणाकराजिकाः । (यह आठो संस्कार क्रमपूर्वक करनेसे पारद | रसस्य पोडशांशेन द्रव्यं युझ्यात्पृथक पृथक् ॥ सर्वदोष-रहित हो जाता है। नीचे इन | | द्रवेष्वनुक्तमानेषु मतं मानमितं बुधैः । आठांका यथाक्रम वर्णन किया जाता है । जो वैद्य | पट्टाहतेषु चैतेषु मूतं पक्षिप्य काञ्जिके । यह आठो संस्कार न कर सकें वे पीछे बतलाई । | स्वेदयेदिनमेकञ्च दोलायन्त्रेण बुद्धिमान् । हुई पारद--शोधन की किसी विधिसे पारद शुद्ध स्वेदात्तीवो भवेत्सूतो मर्दनाच मुनिर्मलः॥ करके काम चला सकते हैं। मूली, चीता, सेंधानमक, सांठ, मिर्च, पीपल, अदरक और राई; इनमें से हरेक पदार्थ पारेका (१) पारदस्वेदनम् ( अ ) सोलहवां भाग लें, क्यों कि पारद-शोधनमें जहां ( भा. प्र. । प्रथम खं.) ओषधियोंका परिमाण न बतलाया हो वहां हरेक श्रूषणं लवणं राजी रजनी त्रिफलार्द्रकम् । पदार्थ पारदसे सोलहवां भाग लेनेका नियम है। महाबला नागबला मेघनादः पुनर्नवा ॥ तदनन्तर इन सब चीजोंको कानीमें पीसकर एक मेषभनी चित्रकच नवसारं समं समम् ।। कपड़ेपर लेप कर दें और उसमें पारद को बांधकर एतत्समस्तं व्यस्तं वा पूर्वाम्लेनैव पेषयेत् ॥ १ दिन दोलायन्त्र-विधिसे काजीमें पकावें । पलिम्पेत्तेन कल्केन वस्त्रमङ्गुलमात्रकम् ।। स्वेदन करनेसे पारद तीव्र और मर्दन करनेसे | निर्मल होता है। तन्मध्ये निक्षिपेत्सूतं बद्धा तत्रिदिनं पचेत् ।। पारदस्वेदनम् (इ) दोलायन्त्रेऽम्लसंयुक्ते जायते स्वेदितो रसः ॥ (र. रा. सु. । पूर्वखण्ड; रसें. चि. म. । अ. ३) . सांठ, मिर्च, पीपल, सेंधानमक, राई, हल्दी, रसं चतुर्गुणे वस्त्रे बद्धा दोलाकृतं पचेत् । हर, बहेड़ा, आमला, अदरक, महाबला ( खरैटी- दिन व्योषवरावहिकन्याकल्केषु कालिके ।। For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४७६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि दोषशेषापनुत्त्यर्थमिदं स्वेदनमुच्यते ॥ ___ इसी प्रकार उसमें चीतेका चूर्ण मिलाकर पारदको चार तह किये हुवे वस्त्रमें बांधकर घोटनेसे वह्निदोष, काले धतूरेके रसमें घोटनेसे दोलायन्त्र विधिसे १-१ दिन त्रिकुटा, त्रिफला, चाश्चल्य और त्रिकुटाके रसमें घोटनेसे उसका गिरि चीता और ग्वारपाठाके कल्कको काञ्जीमें मिलाकर | दोष नष्ट हो जाता है। उसके साथ स्वेदन करें। प्रत्येक ओषधिका चूर्ण पारदका सोलहवां नोट---स्वेदन संस्कारकी तीन विधियां भाग लेना चाहिये और हरेकमें १-१ दिन घोटबतलाई गई हैं इनमें से किसी एकके द्वारा स्वेदन नेके पश्चात् पारदको काञ्जीसे धो डालना चाहिये । कर लेना ही पर्याप्त है। (२) मर्दनम् (३) मूर्छनम् ( अ ) ( यो. र. । पारदप्रकरण) ( र. रा. सु. । पूर्वखण्ड ) रक्तष्टिकानिशाधूमसारोर्णाभस्मचूर्णकैः। गृहकन्यामलं हन्यात् त्रिफलावहिनाशिनी । जम्बीरद्रवसंयुक्तैनांगदोषापनुत्तये ॥ चित्रमूलं विषं हन्ति तस्मादेभिः प्रयत्नतः॥ विशालाकोलमूलानां रजसा काञ्जिकेन च । मिश्रितं मृतकं द्रव्यैः सप्तवाराणि मर्छयेत । शनैः शनैः स्वहस्तेन वदोषविमुक्तये ॥ | इत्थं सम्मूञ्छितः मूतो दोषशून्यः प्रजायते ॥ राजवृक्षस्य मूलोत्थचूर्णन सह कन्यका। ___ पारदको ग्वारपाठा, त्रिफला और चीतामूलके मलदोषापनुत्यर्थ चित्रको वहिदूषणम् ॥ | साथ पृथक् पृथक् ७-७ बार घोटनेसे उसके मल, चाश्चल्यं कृष्णधतूरो गिरि हन्ति कटुत्रयम् ॥ असह्याग्नि और विष दोष नष्ट हो जाते हैं। परिमें उससे सोलहवां भाग लाल इंटका प्रत्येक द्रव्य पारदका सोलहवां भाग लेना चूर्ण, हल्दीका चूर्ण, घरका धुवां, ऊनकी भस्म चाहिये। और चूना मिलाकर उसमें नीबूका रस डालकर १ दिन घोटें और फिर गरम काजीसे धो डालें । मूच्र्छनम् ( आ ) इस क्रियासे पारद नागदोषमुक्त हो जाता है। ( भा. प्र.। खं. १) इसके पश्चात् उस पारदमें उसका सोलहवां | यूपणं त्रिफला बन्ध्याकन्दैः क्षुद्राद्वयान्वितैः । भाग इन्द्रायन मूल और अंकोलका चूर्ण मिलाकर चित्रकोर्णानिशाक्षारकन्यार्ककनकद्रवैः ।। काजीके साथ १ दिन घोटकर गर्म काञ्जीसे धो सूतं कृतेन यूषेण वारान्सप्तविमर्दयेत् । डालें। इससे पारद बंगदोष-रहित हो जाता है। इत्यं सम्मूच्छितः सूतस्त्यजेत्सप्तापि कभुकान् ॥ इसके पश्चात् उसमें अमलतासकी जड़का सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चूर्ण मिलाकर ग्वारपाठाके रसके साथ घोटकर धो बांझककोड़ेकी जड़, छोटी और बड़ी कटेली, चीताडालें । इससे उसका मल दोष दूर हो जाता है। मूल, ऊन, हल्दी, यवक्षार, ग्वारपाठा, आक और For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [ ४७७ ] धतूरेके काथमें पारदको सात बार घोटनेसे वह उतनी ही बड़ी पानीसे भरी हुइ हाण्डीपर उलटी सप्तकञ्चुकी-रहित हो जाता है। रखकर दोनोंके जोड़को गुड़ चूने आदिसे अच्छी नोट---मूछन कर्मके जो २ प्रयोग लिखे तरह बन्द कर दें और उसे सुखाकर भूमिमें गये हैं उनमें से किसी एकसे ही मूर्छन-संस्कार | गाढ़ दें। कर लेना पर्याप्त है। पानी वाली हाण्डी भूमिमें और ऊपर वाली हाण्डी भूमिके बाहर रहनी चाहिये । अब ऊपर (४) उत्थापनम् वाली हाण्डीके चारों ओर तथा उसके ऊपर अरने ( र. र. स. । अ. ११) उपले लगाकर उनमें आग लगा देनी चाहिये । अस्माद्विरेकात्संशुद्धो रसः पात्यस्ततः परम् । । | इस क्रियासे पारद उड़कर नीचेवाली हाण्डी उद्धृतः काञ्जिककाथात्पूतिदोषनिवृत्तये ॥ में पानीमें चला जायगा । इसीका नाम अधःपातन __ मूर्छनके पश्चात् पारदको ऊर्ध्वपातनयन्त्र | संरकार है। द्वारा उड़ाकर गर्भ कांजीसे धो डालना चाहिये । (२) पारदोर्ध्वपातनम् (अ) इसीका नाम उत्थापन-संस्कार है। (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड; र. रा. सु. । पूर्वखण्ड) (५) पातनम् भागास्त्रयो रसस्याकै भागमेकं विमर्दयेत् । (१) पारदाधः पातनम् जम्बीरद्रवयोगेन यावदायाति पिण्डताम् । (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड; र. चि. म. । अ. ३) तत्पिण्डं तलभाण्डस्थमूर्द्धभाण्डे जलं क्षिपेत् । नवनीताद्वयं मूतं घृष्ट्वा जम्बाम्भसा दिनम् । कृत्वालवालं केनापि ततः सूतं समुद्धरेत् ॥ वानरीशिग्रुशिखिभिः सैन्धवासुरि संयुतैः ॥ | उर्द्धपातनमित्युक्तं भिषग्भिः सूतशोधने॥ नष्टपिष्टं रसं कृत्वा लेपयेर्द्धभाण्डके। १ भाग ताम्रके बारीक पत्र और ३ भाग ऊर्वभाण्डोदरं लिप्त्वाऽधोभाण्डं जलसंयुतम्॥ पारदको एकत्र मिलाकर नीबूका रस डालकर सन्धिलेपं द्वयोः कृत्वा तयन्त्रं भुवि पूरयेत् । इतना घोटें कि दोनोंका एक पिण्ड बन जाय । उपरिष्टात्पुटे दत्ते जले पतति पारदः॥ इस गोलेको कपरमिट्टी की हुई हाण्डीमें रख कर अधःपातनमित्युक्तं सिद्धाधे मूतकर्मणि ॥ उसके ऊपर दूसरी हांडी उल्टी ढककर दोनों के समान भाग गन्धक और पारदकी कजली जोडको गुड़ चूने आदिसे अच्छी तरह बन्द कर में कौंचके बीज, सहंजनेके बीज, चीता, सेंधानमक | दें। तदनन्तर ऊपर वाली हाण्डीकी तली पर मुल और राईका चूर्ण मिलाकर उसे १ दिन जामनके तानी मिट्टी आदिसे एक आलबाल (घेरा ) बनारसमें घोटकर पिट्टी बना लें और फिर उसे एक कर उसमें पानी भर दें। अब इस यन्त्रको चूल्हे हाण्डीके भीतर लेप कर दें । इस हाण्डीको दूसरी । पर चढ़ाकर उसके नीचे मृदु मध्यम और तीब्र अग्नि For Private And Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि जलावें । ऊपर वाली हाण्डीके पानीको बारबार बद- । चला जायगा । इसीका नाम “ तिर्यकपातन लकर उसकी तलीको ठंडा रखना चाहिये। | संस्कार" है। इस क्रियासे (३ पहरमें ) पारद उड़कर नोट---पातनके जो तीन भेद-अधः पातन, ऊपर जा लगेगा । हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर | ऊर्द पातन और तिर्यकपातन लिखे गये हैं वे उसे सावधानी पूर्वक निकाल लेना चाहिये । तीनों आवश्यक हैं । एक एक विधिके जो कई पारदोर्द्वपातनम् (आ) कई प्रकार लिखे गये हैं उनमें से कोई एक किया ( भा. प्र. । खं. १ ) जा सकता है। मयूरग्रीवताप्याभ्यां नष्टपिष्टीकृतस्य च । (६) रोधनसंस्कारः यन्त्र विद्याधरे कुर्याद्रसेन्द्रस्योर्द्धपातनम् ॥ (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड; र. रा. सु. । पूर्वखण्ड) पारद में नीला थोथा और स्वर्णमाक्षिकका | एवं कथितः सूतः षण्ढत्वमधिगच्छति । चूर्ण मिलाकर उसे घी कुमार (ग्वारपाठे ) के, तन्मुक्तयेऽस्य क्रियते बोधनं कथ्यते हि तत् ॥ रस के साथ इतना घोटें कि पारद दिखलाई न | विश्वामित्रकपाले वा काचकूप्यामथापि वा। सूते जलं विनिक्षिप्य तत्र तन्मज्जनावधि ॥ दे और सबकी पिट्टी सी हो जाय । इसे डमरु | पूरयेत्रिदिनं भूम्यां गजहस्तपमाणतः । यन्त्रमें रखकर उड़ा लेना चाहिये । | अनेन सूतराजोयं षण्ढभावं विमुञ्चति ॥ (३) पारदस्य तिर्यकपातनसंस्कारः पूर्वोक्त संस्कारोंसे पारदमें षण्ढत्व आ जाता ( र. सा. सं. । पूर्वखण्ड; र. चि. म. । अ. ३; है उसे नष्ट करने के लिये यह रोधन संस्कार ___र. रा. सु. । पूर्वखण्ड.) | करना चाहिये। घटे रसं विनिक्षिप्य सजलं घटमन्यकम् ।। नारयल या काचकी शीशीमें पारेको डालकर तिर्यमुखं द्वयोः कृत्वा तन्मुखं रोषयेत्सुधीः॥ उसमें इतना पानी डालें कि जिससे पारद डूब रसाधो ज्वालयेदमिं यावत्सूतो जलं विशेत । जाय । तत्पश्चात् उसका मुख अच्छी तरह बन्द तिर्यक् पातनमित्युक्तं सिद्धर्नागार्जुनादिभिः ॥ करके उसे डेढ़ हाथ नीचे भूमिमें गाढ़ दें और एक घड़ेमें पारा डालें और दूसरे उतने ही | ३ दिन पश्चात् निकाल लें। इससे पारेका नपुंस्कबड़े घड़ेमें पानी भर दें। तदनन्तर दोनांके मुखां| त्व दोष दूर हो जाता है। को तिरछा मिलाकर सन्धिको गुड़ चूने आदिसे | (७) नियमनसंस्कारः (अ) अच्छी तरह बन्द कर दें, और फिर पारद वाले (र. रा. सु । पूर्वखण्ड) घड़े के नीचे आग जलावें । उत्तराशाभवः स्थूलो रक्तसैन्धवलोष्टकः । इस विधिसे पारा उड़कर पानी वाले घड़े में तद्गर्भे रन्धकं कृत्वा सूतं तत्र विनिक्षिपेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - दिनैः। रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४७९] ततस्तु चणकक्षारं दत्त्वा चोपरि निम्बुकम् । आलोड्य काजिके दोलायन्त्रे पाच्यो त्रिमिरसं लिप्त्वा दातव्यं तादृग् सैन्धवखोटकम् ॥ गर्ने कृत्वा धरागर्भे दत्वा सैन्धवसंयुतम् । दीपनं जायते सम्यक सूतराजस्य चोत्तमम् ।। धूलिमष्टाङ्गुलं दत्वा कारिपं दिनसप्तकम् ॥ ___कसीस, पांचो नमक, राई, काली मिरच, वर्हि मज्ज्वाल्य तदग्राह्यं क्षालयेत्काञ्जिकेन तु । सहजनेके बीज और सुहागेके चूर्णको कांजीमें अयं नियमनो नामसंस्कारो गदितो वुधैः ॥ । मिलाकर उसमें पारदको ३ दिन तक दोलायन्त्र अभावे चणकक्षारादर्पयेनवसादरम् ॥ | विधिसे पकार्वे । इसे दीपन संस्कार कहते हैं । लाल रंगके सेंधेका एक बड़ासा पत्थर लेकर | (४३८०) पारदस्याग्निस्थायीकरणम् उसके बीचमें एक गढ़ा करके उसमें पारद भर दें (२. चि. म. । स्तबक ५) और उसके ऊपर चनेका खार (अभावमें नसहर) ताम्रेण वा समं पिष्टी चतुर्भागां विधीयताम् । डालकर ऊपरसे नीबूका रस डाल दें। तत्पश्चात् पातयेड्डमरूयन्त्रे त्रिवार निम्बुकद्रवैः॥ उस छिद्रको सेंधेके टुकड़ेसे ढककर जोडको अच्छी ततो रक्तगणनायं रसराजो यथा दृढम् । तरह बन्द कर दें और फिर उसे भूमिमें आठ | मर्दितो जायते वदिस्थायी विघ्नविवर्जितः॥ अंगुल नीचे गाढ़कर उसके ऊपर सात दिन तक शुद्ध पारदमें उससे चौथाई शुद्ध ताम्रके अरण्य उपलोंकी अग्नि जलावें । तत्पश्चात् पारद कण्टकवेधी पत्र डालकर दोनोंको नीबूके रसके साथ को निकालकर कांजीसे धो डालें। अच्छी तरह घोटकर पिट्टी सी बना लें और उसे नियमनसंस्कारः (आ) ३ बार डमरुयन्त्रसे उड़ाकर रक्तगणके रसमें अच्छी (र. रा. सु । पूर्वखण्ड ) तरह खरल करें। इस क्रियासे पारद अग्निस्थायी सर्पाक्षीचिश्चिकावन्ध्याभृङ्गाब्दकनकाम्बुमिः। हो जाता है। दिनं संस्वेदितः सूतो नियमात्स्थिरतां व्रजेत् ॥ (४३८१) पारदादिगुटिका (रसादिगुटिका) सर्पाक्षी (नाकुली कन्द), इमली, बांझ (वै. र.; र. रा.सु.। दाह; वृ. यो. त. । त. ८७; र. चं. । दाह.) ककोड़ा, भंगरा, नागरमोथा और धतूरेके रसमें रसबलियनसारचन्दनानां पारदको १-१ दिन स्वेदित करनेसे उसकी चच सनलदसेन्चपयोदजीवनानाम् । लता दूर हो जाती है। | अपहरति गुटी मुखस्थितेयं(८) दीपनसंस्कारः सकलसमुत्थितदाहमाशु वाति ॥ (र. रा. सु. । पूर्वखण्ड) . रकगण-कुसुम ( कसुम्भा ); खैर, लाख, काशीस पञ्चलवणं राजिकामरिचानि च ।। मजीठ, लाल चन्दन, रतनजोत, गुलदुपहरिया, कर्पूरभूशिग्रुवीजमेकत्र टङ्कणेन समन्वितम् ॥ गन्धिनी और शहद । For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४८०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कपूर, सफेद चन्दन, खस, . पारे गन्धककी कज्जली बनावें फिर उसमें अन्य सेव्य (खसभेद), नागरमोथा और जीवनीय गणकी ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको चन्दनके काथ ओषधियोंका चूर्ण समान-भाग लेकर प्रथम पारे | में घोटकर सुरक्षित रक्खें । गन्धककी कज्जली बनावें, तत्पश्चात् उसमें अन्य इसमेंसे १ माषा चूर्णमें (७ नग) काली ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको पानीके साथ । मिर्चका चूर्ण मिलाकर उसे शहद में मिलाकर चाटने से प्रबल वमनका भी नाश हो जाता है । अत्यन्त महीन पीसकर १-१ माशेकी गोलियां । (४३८३) पारदादिचूर्णम् (२) बना लें। (रसादिचूर्णम् ) इनमेंसे १-१ गोली मुंहमें रखनेसे त्रिदोषज (र. रा. सुं. । तृषा.; र. चं । तृषा.; वृ. यो. त.; दाह अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है । ___ यो. र. । तृष्णा.) (४३८२) पारदादिचूर्णम् (१) | रसगन्धककर्पूरैः शैलेयोशीरचित्रकैः । (र. रा. सु. । वमना.; यो. र. । छर्दि.; वृ. नि. ससितैः क्रमवृद्धश्च मूक्ष्मं चूर्णमहरमुखे । र. । छर्दि.; वृ. यो. त.। त. ८४) त्रिगुञ्जापमितं खादन् पिबेत्पर्युषिताम्बु च । भृष तृषां निहन्त्येवमश्विनेय प्रकाशितम् ॥ रसवलिघनसारकोलमज्जा शुद् पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, ऽमरकुमुमाम्बुधरप्रियङ्गलानाः। कपूर ३ भाग, भूरिछरीला ४ भाग, खस मलयजमगधात्वगेलपत्रं ५ भाग, चीता (पाठान्तरके अनुसार काली मिर्च) दलितमिदं परिभाव्य चन्दनादभिः ॥ ६ भाग और मिश्री सात भाग लेकर प्रथम पारे मधुमरिचयुतं रजोस्य मापं गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य जयति वर्मि प्रबलां विलिहाय मर्त्यः । ओषधियांका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर रक्खें । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कपूर, बेरकी गुठ । इसमें से नित्य प्रति प्रातःकाल ३ रत्ती लीकीगिरी,लैंौंग,नागरमोथा,फूलप्रियङ्गु,धानकी खील, चूर्ण बासी पानीके साथ सेवन करनेसे प्रवृद्ध तृषा सफेद चन्दन, पीपल, दालचीनी, इलायची और | नष्ट हो जाती है। तेजपात (पाठभेदके अनुसार इलायची और तेज पारदादिमलहरम् पातके स्थानमें इन्द्र जौ) समान-भाग लेकर प्रथम लेपप्रकरणमें देखिये। (४३८४) पारदादिधूपः (१) १जीवनीय गण- जीवक, ऋषभक, मेदा, महा (भै. र..। उपदंशा.) मेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपण, माषपर्णी, जीवन्ती और मुलैठी । इनमेंसे जितनी ओषधियां मिल रसं ताल शिला मुद्राशङ्ख सिन्दूरतुत्यके । सकें उतनी ही डालकर काम चलाना चाहिये। स्फटिकारियवक्षारौ विडटङ्गणमूषणम् ।। २ त्वगिन्द्रयवमिति पाठान्तरम् । , “शैलोशीरमरीचकैः" इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] हतीयो भागः। [४८१] श्वेतार्कमृलखक चैव देया माषमिता ततः। मासमात्रन्तु पथ्याशी शाकाम्लदधिवर्जनम् । हिलं तोलकं सार्द्ध सर्वमेकत्र चूर्णितम् ॥ | गुर्वन्नपायसादीनि चाऽपथ्यानि विवर्जयेत् ॥ घृतप्लुतं संविधाय धूपं दद्यायथाविधि। दिनत्रये व्यतीते तु स्नानमुष्णाम्बुना चरेत् । एभिः प्रधूपनं हन्याद् व्रणं लिङ्गसमुत्थितम् ॥ एवं धूमे कृते शान्तिर्बणाश्च पिडिका अपि ।। पारद, हरताल, मनसिल, मुर्दासिंग, सिन्दूर, तथा शोथश्चामवातः खअता पङ्गुताऽपि च । नीलाथोथा, फटकी, जवाखार, बिडनमक, सुहागा, कुष्ठोपदंशशान्त्यर्थ भैरवेण प्रकीर्तितः ॥ कालीमिर्च और सफेद आककी जड़की छाल १-१ पारद, बंगभस्म, कत्था, हर्रकी भस्म, केलेके माषा तथा हिंगुल (सिंगरफ) १॥ तोला लेकर | कोमल पत्तोंकी मस्म और सुपारीकी भस्म १-१ सबका एकत्र कूटकर चूर्ण बनावें । इसमें घी | तोला तथा हिंगुल ( सिंगरफ), हरताल, गन्धक, मिलाकर यथाविधि धूप देनेसे लिंगके घाव नष्ट | तूतिया, पद्माक, सरलकाष्ठ ( चीरका बुरादा), हो जाते हैं। सफेद चन्दन, लाल चन्दन, देवदारु, पतङ्गकी (४३८५) पारदादिधूपः (२) लकड़ी और हल्दूकी लकड़ी १-१ माशा लेकर सबको कूटकर चूर्ण बनावें और उसे चूकें तथा (धन्व.; भै. र. । उपदंश.) तुलसीके पत्तोंके रसमें और गुड़के पानीमें १-१ रसं वङ्गश्च खदिरं हरीतक्याश्च भस्मकम् । रोज़ घोटकर सुखाकर धीमें मिलाकर ६ गोलियां तरुणीकदलीभस्म पूगस्य फलजन्तथा ॥ बनावें । एकतोलकमानं स्यादिङ्गुलं हरितालकम् । जिस समय उपदंशके रोगीको अत्यन्त पीड़ा गन्धकं तुत्यकञ्चाऽपि पद्मकं सरलन्तथा। हो रही हो उस समय इनमेंसे १ गोली चार तह द्वे चन्दने देवदारु बकर्म काष्ठमेव च। किये हुवे सफेद वस्त्र में बांधकर निर्धम अग्नि पर तथा केशरकाष्ठश्च माषमान प्रकल्पयेत् ॥ रखें और रोगीको बिस्तर रहित छिद्रयुक्त (बानों एकीकृत्य विचूाऽथ सर्व चाङ्गेरिकाद्रवैः । से बुनी हुई या लोहेके तारोंकी) खाट पर लिटाकर तुलसीपत्रजरसैः पुरातनगुडेन च ॥ उसके नीचे वह अग्नि रख दें एवं रोगीको वस्त्र घृतेन सह षट् कार्या वटिका मन्त्ररक्षिताः। उढ़ा दें । वस्त्र इतना बड़ा होना चाहिये कि रोगी वेदनायामुत्कटायां चतुर्भिः शुक्लवस्त्रकैः ॥ की चारपाईके चारों ओर भूमि तक लटकता रहे वेष्टयित्वा च निघूमाऽङ्गारोपरि प्रदापयेत् । । कि जिससे धूम बाहर न निकल सके । रोगीको तं धूमं प्रतिगृह्णीयानरो वस्त्रादिवेष्टितः ॥ अपना मुख भी वस्त्रसे ढांप लेना चाहिये । इससे मुखनासाकर्णबहिनिःश्वासस्य निरोधनात् ।। उसके शरीरसे पसीना निकलकर रोग नष्ट हो स्वेदे जातेऽस्य नैरुज्यं सायं प्रातर्दिनत्रयम् ॥ ' जायगा । For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४८२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि इसी प्रकार ३ दिन तक प्रातः सायं धूम । पारदादियोगः लेना चाहिये और १ मास तक पथ्य पालन (र. चं.: र. सा. सं.: वृ. नि. र. । कृमिरो.) करना चाहिये। ___कृमिहरो रसः " सं. १०४६ देखिये। धूम लेनेके दिनोंमें स्नान न करना चाहिये | (४३८७) पारदादिरसः ( श्वासान्तकरसः ) बल्कि ३ दिन तक धूम लेनेके बाद चौथे दिन मन्दोष्ण जलसे स्नान करना चाहिये। (र. रा. सुं.; र. चं.; र. र. स. । श्वासा.) मूतः षोडश तत्समो दिनकरस्तस्यार्द्धभागो इस प्रकार धूम लेनेसे आतशकके घाव, पिडि | वलिः । का, शोथ, आमवात, खञ्जता, पंगुता और कुष्ठ का सिन्धस्तस्य समः सुमुक्ष्ममृदितः पपिप्पलीनाश हो जाता है। चूर्णितः॥ इस प्रयोगमें १ मास तक शाक, खटाई, जम्बीरस्वरसेन मर्दितमिदं तप्तं सुपकं भवेत् । दही और दूधपाकादि भारी पदार्थोंसे परहेज़ । कासश्वाससशूलगुल्मजठरं पाण्डु प्लिहं नाशयेत्।। करना चाहिये। शुद्ध पारा और ताम्रभस्म १६-१६ भाग, (पध्य-घी और बेसनकी लवणरहित रोटी) | शुद्ध गन्धक ८ भाग, सेंधानमक ८ भाग तथा (४३८६) पारदादियोगः पीपल ६ भाग लेकर पारे गन्धकको कजली (र. र. । रसायन.) बनाकर उसमें अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण सूर्त स्वर्ण व्योमसत्त्वं तारं तानं च रोचनम् । मिलाकर सबको १ दिन जन्भीरी नीबूके रसमें बीजं वै शरपुत्रायाः कृष्णधत्तूर बीजकम् ॥ घोट लीजिये। फिर उसका गोला बनाकर उसे अरण्ड सर्व मधे वटक्षीरैः कुबेराक्षस्य बीजके। इत्यादिके पत्तों में लपेटकर पुटपाक विधिसे पकाइये तक्षिप्ता धारयेद्वको वीर्यस्तम्भकरं चिरम ॥ और उसे पीसकर सुरक्षित रखिये। ___ शुद्ध पारा, स्वर्णभस्म, अभ्रकसत्व, चांदी- इसके सेवन से ग्वांसी, स्वास, शूल, गुल्म, भस्म, ताम्रभस्म, गोरोचन तथा सरफोंके और काले उदररोग, पाण्डु और तिल्लीका नाश होता है ! धतूरे के बीज समान भाग लेकर प्रथम पारे और ( मात्रा-२ रत्ती।) भस्मों को मिलाकर घोटें फिर उसमें अन्य ओष नोट--पुटपाक करनेकी विधि भा. भै. र. घियोंका चूर्ण मिलाकर सबको बड़के दूधके साथ । घोटकर गोलियां बना लें। भाग १ के पृष्ठ ३५३ पर देखिये । इनमेंसे १-१ गोली करञ्जके फलमें रखकर पारदादिलेपः मुंहमें रखनेसे बहुत देर तक वीर्यस्तम्भन होता है। लेपप्रकरणमें देखिये। For Private And Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४८३] - - - - - (४३८८) पारदादिवटी (१) । | (४३८९) पारदादिवटी (२) ( सिद्धभेषजमणिमाला । ग्रहण्य.) (र. रा. सु.; वृ. नि. र. । ग्रहणी.) शुद्ध शिवांशमेकांशमेकांशं फणिफेनकम् ।। पारदं गन्धकं तारममृतं चानु शुल्वकम् । दुर्थशं गन्धमिति त्रीणि पिष्टवा कुर्वीत पर्पटीम्॥ त्रिफला त्रिसुगन्धं च चित्रकोशीररेणुकाः ॥ विषमुष्टिकधत्तूरबीजजातीफलान्यपि। रजनी द्वयसंयुक्तं सम्पेष्य वटकीकृतम् । एकांशानि पृथक्तत्र दत्त्वा ममुणतां नयेत् ॥ | ग्रहण्यष्टविध शूलं शायातासारनाशनम् ।। दाडिमीतिन्तिडीतोयैर्भावयेत्सप्तधा पृथक् । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, चांदीभस्म, शुद्ध वटीनीत जरणक्षौदैस्ता ग्रहणीच्छिदः ।। बछनाग, ताम्रभस्म, हर्र, बहेड़ा, आमला, तेजपात, शुद्ध पारा १ भाग और शुद्ध गन्धक २ दालचीनी, इलायची, चीतामूल, खस, रेणुका, हल्दी भाग लेकर दोनोंकी कजली बनाकर उसमें १ . और दारु हल्दीका चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम भाग अफीम डालकर अच्छी तरह घोटें और फिर पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें | अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सबको पानी उसे लोहेकी करछीमें डालकर मन्दाग्नि पर पकावें जब वह पिघल जाय तो उसकी यथाविधि पर्पटी | आदिके साथ घोटकर (१-१ माशेकी) गोलियां बना लें। बना लें। इनके सेवनसे आठ प्रकारकी ग्रहणी, शूल, (भूमिपर ताज़ा गोबर फैलाकर उसपर केले शोथ और अतिसारका नाश होता है । का पत्ता बिछा दें और उसके ऊपर वह पिघली (नोट-यदि अजवायनके काथके साथ घोटहुई कज्जली फैलाकर उसे दूसरे पत्ते से ढक दें कर गोलियां बनाई जावें और उसीके साथ खिलाई और फिर उसके ऊपर ताजा गोबर डालकर उसे दबा दें। तथा स्वांग शीतल होने पर दोनों जावें तो शीघ्र लाभ होगा।) पत्तेके बीचमेंसे पर्पटीको निकाल लें। (४३९०) पारदादिवटी (३) तदनन्तर इस पर्पटीको पीसकर उसमें १-१ (वृ. नि. र. । श्वास.) भाग शुद्ध कुचला, धतूरेके बीज और जायफलका पारदं गन्धक नागं तानं व्योषानलैः समम् । चूर्ण मिलाकर खूब घोटें । जब वह अत्यन्त महीन स्वीरसेन सञ्चूर्ण्य प्रदेया भावना दश ॥ हो जाय तो उसे अनारकी छाल या फूलेके स्वरस पुनः पर्णरसैः सम्यक् चाकस्य रसैस्तथा । और तितडीकके पानीको पृथक् पृथक् ७.-७ भावना | मिरिप्रमाणा कफजित् कार्या सा गुटिकोत्तमा । देकर (१-१ रत्तीकी ) गोलियां बना लें। मन्दाग्निकफरोगेषु श्वासकासे विशेषतः । इन्हें जीरेके चूर्णमें मिलाकर शहदके साथ । आध्मानपतिनाहेषु प्रदेया सुखकारिणी॥ चटाने से संग्रहणी नष्ट होती है। शुद्ध पारा, शुद्र गन्धक, सीसाभस्म, ताम्र For Private And Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४८४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल और चीतेका चूर्ण | बछनाग और ८ पल काली मिर्चका चूर्ण मिलासमाम भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की कज्जली कर खूब घोटें और फिर उसे कपड़े से छानकर बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण | सहजने और अदरकके रसकी ३-३ भावना मिलाकर सबको सज्जीके पानी, पान और अदर- देकर मटरके बराबर गोलियां बना लें। कके रसकी १०-१० भावना देकर काली मिर्चक इनके सेवनसे कफ, खांसी, श्वास, शीतवात बराबार गोलियां बना लें। और शूलरोग नष्ट होता है। इनके सेवनसे फफ, मन्दाग्नि और विशेषतः । (४३९२) पारिजातटङ्कणम् ( तालकेश्वरः ) श्वास खांसी तथा अफारा और प्रतिनाह आदि रोग (र. का. धे. । स्वरभेदे.) नष्ट होते हैं। दिनैकं कदलीद्रावैष्टङ्कणं मर्दयेदिनम् । (४३९१) परदादिवटी ( ४ ) | हरिद्राया द्रवे द्रावे निशापामार्गभस्मजे ॥ तृतीयांशं च तालं च दत्त्वा पालाशपुष्पजे । (र. रा. सु. । कास.) समाहं च रविक्षीरैः श्वेतैरण्डजस्य बीजतः ॥ पारदस्य पलं चैव यशदं नागरगके। यामद्वादशकं वह्निः काचकूप्यां गतस्य च । पृथक् पलमितं प्रोक्तं त्रयाणाश्च विशेषतः॥ तत्रिधा जायते सत्त्वमूर्ध्वाधो भेदतः पुनः॥ अयं तु मृत्तिका पात्रे द्रावं कुर्य्याधयाविधि। । ऊर्ध्वसत्त्वमधः किटं पुष्पितं च प्रजायते । सूतं च प्रक्षिपेत्तस्मिन् पुनर्भूम्यां तु प्रक्षिपेत् ॥ पुष्पितं चोर्ध्वसत्वं च पूर्वोक्तविधिना पुनः॥ खल्वे धृत्वा मर्दयेत्तु कज्जली कारयेद्बुधः। विमर्च काचकूप्यां च निक्षिप्याग्निं प्रदापयेत् । शुद्धामृतं पलमितं मरिचस्य पलाष्टकम् ॥ त्रिवारमेवं हि कृते तलस्थं तत्पयोजयेत् ॥ सूक्ष्मचूणे विधायाय वस्त्रपूत समाचरेत् । अथ तस्य चतुर्थांशं दरदं न्यस्य मदयेत् । शिग्रुजस्य रसैमधे पुटानि त्रीणि दापयेत् ॥ | भृङ्गामार्कवदुःस्पर्शधत्तूरकपलाशजैः॥ आर्द्रकस्य रसेनैव त्रिपुटं तु पुनर्ददेत् । प्रत्यहं च शिवाम्भोभिः सप्ताह मर्दयेभृशम् । कालायसदृशी कार्या वटिका कफनाशिनी ॥ | काचकृप्यां विनिक्षिप्य वहिं यामांस्तु षोडश ॥ कासवासौ निहन्त्याशु शीतवातं तथैव च। दत्त्वैवं हि त्रिवारं च पलाण्डुस्वरसैस्ततः । शूलरोगहरी प्रोक्ता रसादि वटिकात्तियम् ॥ | रसोनमानरसतः प्रत्यहं मर्दयेदलम् ॥ शुद्ध जस्त, सीसा और बंग ५-५ तोले लेकर एकोनविंशतिविधाः शङ्खद्रावस्य भावनाः । तीनांको मिट्टीके पात्रमें एकत्र पिघलावें और फिर | काचकूप्यां विनिक्षिप्य यामद्वादशकं पचेत् ॥ उसमें ५ तोले पारा मिलाकर सबको खरल में डाल- त्रिवारमेवं हि कृते दिव्यं तलगतं भवेत् । कर घोटें । जब सबका महीन कजलके समान रक्तिका सर्वरोगनी स्वरभेदक्षयादयः॥ चूर्ण हो जाय तो उसमें १ पल ( ५ तोले ) शुद्ध दत्तमात्रेण नश्यन्ति तूलराशिरिवाग्निना ॥ For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [४८५] सुहागेको १ दिन केलेकी जड़के रसमें, १ / काथमें घोटकर सुखाकर आतशी शीशी में भरदें दिन हल्दीके स्वरसमें और १-१ दिन हल्दी | और फिर उसे बालुकायन्त्रमें रखकर उसके तथा अपामार्गके क्षारजल में घोटकर उसमें उसका | नीचे १६ पहर अग्नि जलावें । तदनन्तर शीशीके तीसरा भाग शुद्ध हरितालका महीन चूर्ण मिलावें । स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल और फिर दोनोंको ७-७ दिन पलाश पुष्प | कर इन्हीं चीज़ाके रस में घोटकर इसी प्रकार पुनः ( टेसू ) के स्वरस, आकके दूध और सफेद अर- १६ प्रहरकी अग्नि दें । इस प्रकार इन ण्डके बीजोंके स्वरस में घोटकर सुखाकर कपड़- चीजेांके रसमें घोटकर कुल ३ बार पकावें । मिट्टी की हुइ आतशी शीशी में भरकर उसे बालुका- तदनन्तर उसे प्याज, लहसन और मानकन्द यन्त्रमें रखकर उसके नीचे १२ पहर तक अग्नि के रसकी १-१ तथा शंखदावकी १९ भावना जलावें । तदनन्तर शीशीके स्वांग शीतल होनेपर | देकर १२ पहर तक बालुका यन्त्रमें पकावें । उसे सावधानी पूर्वक तोड़ लें । शीशीको कांच इसी प्रकार ३ बार पाक करनेके पश्चात् शीशीकी काटनेकी कलमसे तोड़ा जाय तो अच्छा है। तली में जो पदार्थ मिले उसे निकालकर सुरइसके भीतर सबसे ऊपर सत्व, बीचमें पुष्प और क्षित रख । नीचे किट मिलेगा । इनमें से किट्ट भागको छोड़ । इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार यथोचित अनुकर शेष दोनों भागोंको खरलमें डालकर पहिलेकी | योजनालका पहिली पानके साथ सेवन करनेसे स्वरभंग और क्षय भांति ही पलाश पुष्प के रसादि तीनों चीजोंमें | इत्यादि समस्त रोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । ७-७ दिन घोटकर उसे उपरोक्त विधिसे १२ पहरकी अग्नि दें और फिर शीशीमें से सत्व तथा | (४३९३) पारिभद्रो रसः पुष्पको निकालकर इसी प्रकार घोटकर पुनः १२ / ( रसें. सा. सं.; र. रा. सु. । कुष्ठा. र. म. । पहर पकावें । अ. ६; रसें. चिं. म. । अ. ९) मूछितं सूतकं धात्री फलं निम्बस्य चाहरेत् । इस प्रकार ३ बार पाक करने के पश्चात् । सत्व और पुष्प के साथ तीसरे पाकके अन्तमें जो तुल्यांशं खादिरकाथैर्दिनं मर्यश्च भक्षयेत् ॥ के शीशीकी तलीमें मिले उसे भी मिला लें. निष्कैकं दुद्रुकुष्ठनः पारिभद्राहयो रसः ॥ और फिर तीनोंको खरलमें डालकर उसमें इन मूछित पारद (कजली ), आमला और सबसे चौथाइ शुद्ध शिंगरफ़ मिलाकर सबको १-१ नीमके फलेांकी मज्जा ( गिरी ) समान भाग लेकर दिन भांग, भंगरा, धमासा, धतूरा और पलाश- सबको १ दिन खैरके काथमें घोटकर ४-४ पुष्पके स्वरसमें तथा ७ दिन हर्रके स्वरस या | माशेकी गोलियां बना लें। इसके सेवनसे दाद और कुष्ठ नष्ट होता है। १-क्षारजल (क्षारोदक) बनाने की विधि भा. भै. र. भाग के पृष्ठ ३५३ पर देखिये । ( व्यवहारिक मात्रा-६ रत्ती ।) For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ४८६ ] (४३९४) पार्वतीरस: www.kobatirth.org भारत-भैषज्य - रत्नाकरः । (रसें. सा. सं.; र. रा. सुं. । मुख.; रसें. चि. म. ! अ. ९ ) पार्वती काशीसम्भूतो दरदो मधुपुष्पकम् । गुडूची शाल्मली द्राक्षा धान्यभूनिम्बमार्कवम् ॥ तिलमुद्गपटोलञ्च कूष्माण्डं लवणद्वयम् । यष्टिका धान्यकं भस्म चान्तर्दग्धं समं समम् ।। मुखरोगं निहन्त्याशु पार्वतीरस उत्तमः । पित्तज्वरं चिरं हन्ति तिमिरञ्च तृषामपि ॥ | शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा, शुद्ध सिंगरफ, महुवेके फूल, गिलोय, संभलकी मूसली, द्राक्षा, धनिया, चिरायता, भंगरा, तिल, मूंग, पटोल, पेठा (कुम्हड़ा ), सेंधा नमक, कालानमक, मुलैठी और धनिये की अन्तर्धूमदग्ध ( बन्द बरतन में बनाई हुई ) भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारेगन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सबको अच्छी तरह घोटकर रख लें । इसके सेवनसे मुखरोग, पुराना पित्तज्वर, तिमिर और तृषाका नाश होता है । (४३९५) पाशुपतो रसः (पाशुपतास्त्ररसः ) ( यो. र.; वृ. नि. र. र. सा. सं.; र. रा. सु. । अजीर्ण.; यो. त. । त. २४; र. चि. म. । स्त. ११) शुद्धतं द्विधा गन्धं त्रिभागं तीक्ष्णभस्मकम् । त्रिभिः समं विषं देयं चित्रकक्काथभावितम् || बीजस्य भस्मापि द्वात्रिंशद्भागसंयुतम् । कटुत्रयं त्रिभागं स्याल्लवङ्गैला च तत्समम् ॥ [ पकारादि जातीफलं तथा कोषमर्द्धभागं नियोजयेत् । तथार्द्ध लवणं पञ्च स्तुार्कैरण्डतिन्तिडी ॥ अपामार्गाश्वत्थञ्च क्षारं दद्याद्विचक्षणः । हरीतकी यवक्षारं स्वर्जिका हिङ्गुजीरकम् ।। टङ्कणञ्च सुततुल्यं चाम्लयोगेन मर्दयेत् । भोजनान्ते प्रयोक्तव्यो गुआफलप्रमाणतः ॥ रसः पाशुपतो नाम सद्यः प्रत्ययकारकः । दीपनः पाचनो हृद्यः सद्यो हन्ति विसूचिकाम् || तालमूलीरसेनैव उदरामयनाशनः । मोचरसेनातीसारं ग्रहणी तक्रसैन्धवैः ॥ सौवर्चलकणाशुण्ठीयुतः शूलं विनाशयेत् । अर्शो हन्ति च तक्रेण पिप्पल्या राजयक्ष्मकम् ।। वातरोगं निहन्त्याशु शुण्ठीसौवर्चलान्वितः । शर्कराधान्ययोगेन पित्तरोगं निहन्त्ययम् ।। पिप्पलीक्षौद्रयोगेन श्लेष्मरोगञ्च तत्क्षणात् । अतः परतरो नास्ति धन्वन्तरिमतो रसः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, तीक्ष्ण-लोह भस्म ३ भाग और शुद्ध बछनाग ६ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें; फर उसमें अन्य दोनों ओषधियांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको १ दिन चीतामूलके काथमें घोटें और फिर धतूरे के बीज की भस्म ३२ भाग; सोंठ, मिर्च, पीपल, लौंग और इलायची ३ - ३ भाग; जायफल और जावत्री आधा आधा भाग; पांचों नमक ( समान भाग मिश्रित ) २ ॥ भाग, तथा सेहुंड (सेंड --- थूहर ), आक, अरण्डमूल, तिन्तड़ीक, अपामार्ग (चिरचिटे ) और पीपलवृक्षका क्षार, हर्र, जवाखार, सज्जीखार, भुनी हुई हींग, जीरा और सुहागेकी खील १-१ भाग लेकर सबका बारीक For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । चूर्ण करके उसे उपरोक्त कज्जली में मिलाकर सबको मिलाकर तीनोंको सफेद १ दिन नीबू के रसमें घोटकर रक्खें । स्वरसमें ३ दिन घोटकर इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार भोजन के अन्तमें शरावसम्पुट में बन्द करके खाना चाहिये । यह दीपन पाचन हृय और शीघ्र ही फल दिखलाने वाली औषध है । इसके सेवनसे विसूचिका शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । इसे उदररोगों में तालमूलीके रसके साथ; अतिसारमें मोचरसके साथ; संग्रहणीमें सेंधानमकमिश्रित तक्रके साथ; शूलमें सल, पीपर और Rich चूर्णके साथ; अर्श तकके साथ; राजयक्ष्मा में पीपरके चूर्णके साथ; वातव्याधिमें सेट और सञ्चलके चूर्णके साथ; पित्तरोगों में मिश्री और धनियेके चूर्णके साथ और कफज रोगों में पीपल के चूर्ण और शहदके साथ देना चाहिये । (४३९६) पाषाणभिन्नः ( र. र.; भै. र.; २. चं. | अश्मरी. ) शुद्धसूतं द्विधा गन्धं शिलाजतुरसः पलम् । श्वेतपुनर्नवावासारसैः श्वेतापराजितैः ॥ प्रतिद्रावैस्त्र्यहं म शुष्कं तद्भाण्डसम्पुटे । स्वेदयेद्दोलिकायन्त्रे संशुष्कं तद्विचूर्णयेत् ॥ रसः पाषणभिन्नः स्याद् द्विगुञ्जश्चाश्मरीं हरेत् भूधात्रीफलविशालां पिष्ट्वा दुस्खेन पाययेत् ॥ कुलत्थकाथसम्पीतमनुपानं मुखावहम् ॥ । शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग और शुद्ध शिलाजीत १ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें फिर उसमें शिलाजीत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४८७ ] पुनर्नवा ( साठी ) के सुखा लें और फिर उसे दोलायन्त्र - विधिसे १ दिन पुनर्नवा रसमें पकावें । तदनन्तर उसे इसी प्रकार ३-३ दिन बासा और सफेद कोयलके रसमें घोटकर एक एक दिन इन्हींके रसमें दोलायन्त्रविधिसे खेदित करें। अन्तमें पीसकर सुखाकर सुरक्षित रखें । भुई आमला और इन्द्रायनकी जड़को दूधमें पीसकर उसमें २ रती यह रस मिलाकर रोगीको पिला दें और फिर उसके ऊपर कुलथीका काथ पिलावें । इसके सेवन से अश्मरी नष्ट होती है । (४३९७) पाषाणभेदी रसः (१) ( पाषाणवज्ररसः ) For Private And Personal Use Only ( रखें. चि. म. । अ. ९; र. सा. स.; र. रा. सु.; धन्व.; भै. र.; वृ. नि. र.; यो. र. र. च. । अश्म. ) ३ शुद्ध द्विधा पौनर्णवद्रवैः । भावना त्रितयं देयं रुद्धा तं भूधरे पुटेत् || पाषाणभेदी चूर्ण तु समं योज्यं विमर्दयेत् । निष्कमश्मरिकां हन्ति पूर्वोक्तादनुपानतः ॥ योगवाहान् प्रयुञ्जीत रसानश्मरिशान्तये ॥ १ भाग शुद्ध पारा और २ भाग शुद्ध गन्धकी कज्जलीको श्वेत पुनर्नवाके रसकी तीन भावना देकर शराव सम्पुटमें बन्द करके १ दिन भूधर यन्त्रमें पकावें । एवं उसके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकालकर उसमें उसके बराबर Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि पखानभेदका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर । (४३९९) पाषाणभेदी रसः (३) सुरक्षित रक्खें। (र. र. स. । अ. १७.) इसे ४ माशेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे | रसं द्विगुणगन्धेन मर्दयित्वा प्रयत्नतः । अश्मरी नष्ट होती है। वसुः पुनर्नवा वासा श्वेता ग्राहया प्रयत्नतः ॥ (व्यवहारिक मात्रा २-३ रत्ती । अनुपान | तवैर्भावयेदेनं प्रत्येकं तु दिनत्रयम् । कुलथीका काथ या पित्तपापड़ेका रस ।) पकं मूपागतं शुष्कं स्वेदयेज्जलयन्त्रतः॥ नोट-योगरत्नाकर आदिमें गन्धक तीन भाग तथा एक दिन पोटनेको लिखा है। एवं इसीको पाषाणवज्रनाम पाषाणभेदीनामायं नियुभीतास्य वल्लकम् । दिया है। किन्ही किन्ही ग्रन्थों में पाषाणभेदके स्थानमें | गोपालककेटीबीज भूम्यामलकमूलिकाम् ॥ गुड़ लिखा है । कुलत्थकाथतोयेन पिष्ट्वा तदनु पाययेत् ॥ (४३९८) पाषाणभेदी रसः (२) १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध (र. र. स. । अ. १७) गन्धककी कजलीको सफेद और लाल पुनर्नवा रसेन सितवर्षाभ्वा रसं द्विगुणगन्धकम् । (साठी), बासा और सफेद कोयलके रसमें ३-३ घृष्टं पचेच मूषायां द्वौ माषौ तस्य भक्षयेत् ॥ दिन घोटकर मूषामें बन्द करें और उसे १ दिन गोपालकर्कटीमूलं कुलत्योदैः पिबेदनु । भाण्डपुटमें पकानेके पश्चात् जलयन्त्रमें स्वेदित गोकण्टकसदाभद्रामूलकाथं पिबेनिशि ॥ करके पोसकर सुरक्षित रखें। अयं पाषाणभिन्नामा रसः पाषाणभेदकः॥ इसमें से ३ रत्ती रस खिलाकर ऊपरसे गोपाल१ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध | कर्कटी के बीज और भुई आमलेकी जड़का चूर्ण गन्धककी कजलीको सफेद पुनर्नवा (साठी) के | कुलथी के काथके साथ पीनेसे अश्मरी नष्ट होती है। स्वरसकी १ भावना देकर शरावसम्पुटमें बन्द कर | के भाण्डपुटी में पकायें और फिर उसके स्वांग | (४४००) पिङ्गलेश्वररसः शीतल होनेपर उसमेंसे रसको निकालकर पीस लें।। (र. रा. सु.; र. का. । कुष्ठा.) ___ इसमेंसे २ माषा औषध खाकर ऊपरसे गोपाल- भस्ममृतं विषं शुण्ठी वचा वह्निः फलत्रिकम् । कर्कटी (जंगली ककड़ी) की जड़का चूर्ण कुलथीके | ब्रह्मवीजं विडङ्गानि भृङ्गिभल्लातगन्धकम् ॥ काथके साथ पीना तथा रात्रिको गोखरु और शिखितुत्थं कणातुल्यं सर्वमेकत्र मर्दयेत् । गम्भारीकी जड़की छालका काथ पीना चाहिये । त्रिफलाकाथसंयुक्तं कान्तपात्रे स्थितं निशि ॥ इसके सेवनसे पथरी टूटकर निकल जाती है। कर्षमात्रं लिहेल्मातः सर्वकुष्ठनिवृत्तये । (व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती।) | षण्मासात्पलितं हन्ति रसोऽयं पिङ्गलेश्वरः॥ १-भाण्डपुट- एक बड़ी सी हाण्डीमें धानकी भसी | पारदभस्म, शुद्ध बछनाग, सोंठ, बच, चीताभर कर उसके बीचमें सम्पुट रख कर पकावें । - । मूल, हर, बहेड़ा, आमला, पलाशके बीज, बाय For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .ग्सप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [४८९] विडंग, भंगरा, शुद्ध भिलावा, शुद्ध गन्धक, तुत्थ- इसे मिश्री और शहदके साथ सेवन करनेसे भस्म और पीपल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। पित्त शान्त होता है। इसमेंसे १ कर्ष औषधको त्रिफलाके काथमें मिला- | (४४०२) पित्तपाण्डुरिरसः (लोहगर्भरसः) कर रातके समय कान्तलोहके पात्रमें रख दें और (र. रा. मु.; र. का. । पाण्ड. र. र. स. । अ. १९) प्रातःकाल सेवन करें। इसके सेवनसे समस्त प्रकारके कुष्ट नष्ट होते रसस्य भागाश्चत्वारो लोहस्याष्ट प्रकीर्तिताः । हैं । इसे ६ मास तक सेवन करनेसे पलितरोग वहिमुस्ताविडङ्गानां त्रिकटुत्रिफलस्य च ।। नष्ट हो जाता है । (व्यवहारिक मात्रा १ माशा) भागास्त्वनेकशो ग्राह्या कुटजस्य तथाऽपरः । चूर्णयित्वा ततः सर्व मधुना गुटिकाः किरेत् ।। पिण्डीरसः एकैकां भक्षयेत्मातः पित्तपाण्डपनुत्तये॥ कम्पवातहररस देखिये। पारद-भम्म ४ भाग, लोह-भस्म ८ भाग पित्तकासान्तकरसः तथा चीतामूल, नागरमोथा, बायबिडंग, सांठ, मिर्च, ( कासनाशनरसः, कासारिः, तिक्तत्रयरसः ) । पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला और कुड़ेकी छालका (ध.; र. र. र. चं.; र. रा. सु. । कासा.) चूर्ण १-१ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर 'त्रिनेत्रग्स' सं. २७२५ देखिये । शहदके साथ घोटकर ( ४-४ रत्तीकी ) गोलियां . (४४०१) पित्तकृन्तनो रसः बना लें। (र. चं.; र. प्र. सु. । पित्तरो.) इनमेंसे १-१ गोली प्रातःकाल सेवन करने मूतकश्च मृततारभस्मकं से पित्तजपाण्डु नष्ट होता है। गन्धकेन सहितं समांशकम् । (४४०३) पित्तप्रभञ्जनो रसः मर्दितं हि खलु भृङ्गवारिणा (र. चं. । पित्तरो.) चार्धयाममपि कुक्कुटे पुटे । प्रवालं माक्षिकं तुल्यं त्रिवारमार्दवारिणा । पाचितं हि सकलं विचूर्णितं मर्दितं दुग्धसितया सेव्यं पित्तनिवारणे ॥ लिहितं हि मधुशर्करायुतम् । मध्वाज्येन सितायुक्तं सेवितं वातपित्तनुत् । पित्तदोपशमनं मयोदितं पित्तकृन्तनमिदं प्रशस्यते ॥ पित्तप्रभञ्जनो योगः पित्तं नाशयति क्षणात् ।। शुद्ध पारा, चांदी भस्म और शुद्ध गन्धक | प्रवालभस्म और स्वर्णमाक्षिकभस्म समानसमान भाग लेकर कज्जली बवावें और उसे आधा | भाग लेकर दोनोंको अदरकके रसकी ३ भावना पहर भंगरेके रसमें खरल करके शराव सम्पुटमें बन्द | देकर सुरक्षित रखें । करके कुक्कुटपुटमें फूंकें। इसे मिश्रीयुक्त दूधके साथ सेवन करनेसे For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४९० ] पित्त और शहद, घी तथा मिश्री में मिलाकर चाटने से वातपित्तका नाश होता है । (४४०४) पित्तलभस्मविधिः ( र. र. स. । अ. ५ ) निम्बूरसशिलागन्धवेष्टिता पुटिताऽष्टधा । रीतिरायाति भस्मत्वं ततो योज्या यथायथम् ॥ ताम्रवन्मारणं तस्याः कृत्वा सर्वत्र योजयेत् ॥ भारत - भैषज्य रत्नाकरः । मनसिल और गन्धक समान-भाग-मिश्रित ( पीतल के बराबर ) लेकर दोनोंको नीबूके रसमें घोटकर पीतलके पत्रोंपर लेप कर दें और उन्हें सम्पुटर्मे बन्द करके गजपुटमें फूंक दें । इसी प्रकार ८ पुट देनेसे पीतलकी भस्म बन जाती है । पीतल की भस्म ताम्र भस्म की विधिसे बनाकर सर्वत्र प्रयुक्त कर सकते हैं । (४४०५) पित्तलरसायनम् ( र. र. स. । अ. ५ ) मृतारकूटकं कान्तं व्योमसत्त्वं च मारितम् । त्रयं समांशकं तुल्यव्योषजन्तुघ्नसंयुतम् ॥ ब्रह्मबीजाजमोदाऽभिल्लाततिलसंयुतम् । सेवितं निष्कमात्रं हि जन्तुघ्नं कुष्ठनाशनम् ॥ विशेषाच्छ्रुतकुष्ठनं दीपनं पाचनं हितम् ॥ पीतलभस्म, कान्तलोहभस्म और अभ्रकसत्वभस्म १ - १ भाग तथा सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, पलाशके बीज, अजमोद, चीतामूल, शुद्ध भिलावा और तिलका समान भाग मिश्रित चूर्ण ३ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह खरल करके रखें । | [ पकारादि इसमें से ४ माशे चूर्ण नित्य प्रति सेवन करनेसे कृमि, कुष्ठ और विशेषतः श्वेतकुष्ठ नष्ट होता है यह प्रयोग दीपन और पाचन है । ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती । ) (४४०६) पित्तलशोधनम् ( र. र. स. | अ. ५ ) रीतिका काकतुण्डी च द्विविधं पित्तलं भवेत् । सन्तप्त्वा काञ्जिके क्षिप्ता ताम्राभा रीतिका मता । एवं या जायते कृष्णा काकतुण्डीति सा मता । रीतिस्तिक्तरसा रूक्षा जन्तुघ्नी सास्रपित्तनुत् || कृमिकुष्ठहरा योगात्सोष्णवीर्या च शीतला । aragust गतस्नेहा तिक्तोष्णा कफपित्तनुत् ॥ यकृत्प्लीहहरा शीतवीर्या च परिकीर्तिता । गुर्वी मृद्वी च पीताभा साराङ्गी ताडनक्षमा ॥ सुस्निग्धा मसृणाङ्गी च रीतिरेतादृशा शुभा । पाण्डुपीता खरा रूक्षा बर्बराडताडनक्षमा || पूतिगन्धा तथा लघ्वी रीतिर्नेष्टा रसादिषु । तप्त्वा क्षिप्त्वा च निर्गुण्डीरसे श्यामारजोन्विते पञ्चवारेण संशुद्धिं रीतिरायाति निश्चितम् ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीतल दो प्रकारकी होती है एक 'रीतिक' और दूसरी ' काकतुण्डी ' । अग्नि में तपाकर कांजी में बुझानेसे जिसके रंगमें ताम्रकी सी झलक आजाय वह 'रीति' और जिसका रंग काला हो जाय वह 'काकतुण्डी' कहलाती है । रीति -- रसमें तिक्त; रूक्ष; कृमि, रक्तपित्त और कुष्ट नाशक तथा योगवाही है For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४९१] - m ments : ___काकतुण्डी-रुक्ष, तिक्त, कफ पित्त तथा | इनके सेवनसे कोष्ठ और शाखाश्रित पित्त, यकृत्प्लोह रोग नाशक और योगवाही है। शूल, अम्लपित्त, पाण्डु, हलीमक, अर्श, भ्रान्ति ___जो पीतल वजनमें भारी, मृदु और रंगमें | और वमन का शीघ्र ही नाश हो जाता है। पीली हो, चोट सहन कर सके, स्निग्ध हो और । यदि इस योगमें स्वर्णमाक्षिकके स्थानमें जो स्पर्श में चिकनी हो वह उत्तम मानी जाती है। स्वर्णभस्म डाली जाय तो इसका नाम " महा जो पीतल रंगमें भूरी पीलो, खरदरी, रूक्ष, | पित्तान्तकरस" हो जाता है।। कमज़ोर, पीटनेसे टूट जाने वाली, दुर्गन्धियुक्त | (४४०८) पित्तान्तकरसः (२) और हल्की होती है वह अच्छी नहीं मानी जाती। (र. चं. । पित्तरो.; र. र. स.; अ. १८) ऐसी पीतल रसोंमें प्रयुक्त न करनी चाहिये ।। मृतसूताभ्रमुण्डाकैतीक्ष्णमाक्षिकतालकम् । संभालके रसमें हल्दीका चूर्ण मिलाकर उसमें गन्धकं मर्दयेत्तुल्यं यष्टिद्राक्षाऽमृताद्वैः॥ पीतलके पत्रोंको तपा तपाकर ५ बार बुझानेसे जलमण्डपजैः पाठावैः क्षीरविदारिजैः । वह शुद्ध हो जाती है। मर्दयेञ्च दिनं खल्वे सिताक्षौद्रयुता वटी॥ (४४०७) पित्तान्तकरसः (१) | बल्लमात्रा निहन्त्याशु पित्तं पित्तज्वरं क्षयम् । (र. सा. सं.; र. चं.; र. रा. सु. । पित्तरो.) | दाहतृष्णाश्रमांश्छोषं हन्ति पित्तान्तको रसः ॥ जातीकोषफले मांसी कुष्ठं तालीसपत्रकम् । । | सिताक्षीरं पिबेञ्चानु यष्टिकाथं सिताऽन्वितम् । माक्षिकं मृतलोहं च ह्यभ्रं दिव्यं समांशकम् ॥ | पिबेद्वा पित्तशान्त्यर्थ शीततोयेन वालकम् ॥ सर्वतुल्यं मृतं तारं समं निष्पिष्य वारिणा ॥ पारदभस्म, अभ्रकभस्म, मुण्डलोहभस्म, द्विगुञ्जाभा वटी कार्या पित्तरोगविनाशिनी ॥ ताम्रभस्म, तीक्ष्णलोह-भस्म, स्वर्णमाक्षिकभस्म, कोष्ठाश्रितं च यत्पितं शाखाश्रितमथापि वा। हरताल-भस्म और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर शुलं चैवाम्लपित्तं च पाण्डुरोगं हलीमकम् ॥ सबको एकत्र घोटकर मुलैठी, दाख (मुनक्का), दुर्नामभ्रान्ति वान्तिं च क्षिप्रमेव विनाशयेत् । गिलोय, शैवाल ( सिरवाल ), पाठा और क्षीररसः पित्तान्तको ह्येष काशिराजेन भाषितः ॥ बिदारी के स्वरस की १-१ भावना देकर ३-३ यद्यत्र माक्षिकं त्यक्त्वा सुवर्णमपि दीयते । । रत्तीकी गोलियां बना लें। महापित्तान्तको नाम सर्वपित्तविनाशनः॥ इनमेंसे १-१ गोली मिश्री और शहदके ___ जायफल, जावित्री, जटामांसी, कूठ, तालीस | साथ खिलानेसे पित्त, पित्तज्दर, क्षय, दाह, तृषा, पत्र, स्वर्णमाक्षिकभस्म, लोहभस्म और अभ्रकभस्म, | थकान और शोष नष्ट होता है।। १-१ भाग तथा चांदी भस्म ८ भाग लेकर अनुपान-गोली खानेके बाद मिसरी मिलाकर सबको एकत्र मिलाकर पानीके साथ घोटकर २-२ । दूध या मुलैठीका काथ अथवा शीतल जलमें पीसरत्तीकी गोलियां बनावें। कर सुगन्धबाला पीना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ ४९२ ] (४४०९) पित्तार्शोहररसः ( र. र. स. | अ. १५ ) मृतमूतार्कमा तीक्ष्णमुण्डं सगन्धकम् । मण्डूरं माक्षिकं तुल्यं मये कन्याद्रवैर्दिनम् ॥ अन्धभूषागतं पाचयं त्रिदिनं तुपवह्निना । चूर्णितं सितया मापं खादेत्पित्तार्शसां जयेत् ॥ पारदभस्म, ताम्र भस्म, स्वर्णभस्म, अभ्रक भस्म, लोहभस्म, मुण्डलोहभस्म, शुद्ध गन्धक, मण्डूरभस्म और स्वर्णमाक्षिक भस्म समान भाग लेकर सबको १ दिन घृतकुमारी ( ग्वारपाठा ) के रस में घोटकर अन्धमूषा में बन्द करके ३ दिन तक तुषामें पकावें । ( एक बड़े हण्डेमें आधी दूर तक धानकी भूसी खूब दबा दबाकर भर दें और फिर उसमें मूषाको रखकर उसके ऊपर भी भूसी भरकर हण्डेको चूल्हेपर रखकर पकायें । ) तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे रसको निकाल कर पीस लें । इसे १ माशेकी मात्रानुसार मिश्री के साथ खानेसे पित्तार्शका नाश होता है । (४४१०) पिप्पलीलोहयोगः (ग. नि. । उदर. ) पिप्पलीलोहचूर्ण वा पयसाप्लीहनाशनम् । पीपल के चूर्ण और लोह भस्मको दूधके साथ सेवन करनेसे तिल्ली नष्ट होती है । ( मात्रा - ४ रत्ती ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (४४११) पिप्पल्यादिलोहम् (१) (भै. र. र. रा. सु. र. चि.; र. चं.; र. सा. सं.; धन्व; र. र. । हिक्काश्वासा. ) पिप्पल्याम लकीद्राक्षाको लाऽस्थिमधुशर्कराविडङ्गपुष्करैर्युक्तं लौहं हन्ति सुदारुणाम् || छर्दि हिक्कां तथा तृष्णां त्रिरात्रेण न संशयः ॥ पीपल, आमला, दाख (मुनक्का), बेरकी गुठली की गिरी, शहद, मिश्री, बायबिडंग और पोखरमूल १ - १ भाग तथा लोहभस्म आठ भाग लेकर चूर्ण योग्य चीज़ोंका चूर्ण करके सबको एकत्र मिलाकर सेवन करनेसे भयङ्कर छर्दि, हिचकी और तृष्णा ३ दिनमें अवश्य शान्त हो जाती है । ( मात्रा ४ रत्ती | अनुपान शहद । ) (४४१२) पिप्पल्यादिलोहम् (२) (र. सा. सं.; र. चि.; र. र. र. रा. सुं. । उदरा.) पिप्पलीमूलचित्राऽभ्रत्रिकत्रयेन्दुसैन्धवम् । सर्व चूर्णमं लौहं हन्ति सर्वोदरामयम् ॥ पीपलामूल, चीतामूल, अभ्रक भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, तेजपात, इलायची, दालचीनी, कपूर और सेंधा नमकका चूर्ण १ - १ भाग तथा लोहभस्म सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह खरल करके रखें । इसके सेवन से समस्त उदररोग नष्ट होते हैं । ( मात्रा - ४ रत्ती । अनुपान - शहद । ) (४४१३) पिष्टोरस: ( र. चं. । वातरो.; रसे. चि. । अ. ९ ) बाणभागं शुद्धभूतं द्विगुणं गन्धमिश्रितम् । नागबल्लिदलैः पिष्टं ततस्तेन प्रलेपयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [४९३] ताम्रापात्री प्रलिप्यैतां रुध्वा गजपुटे पचेत् ।। पध्य---तक भात । दस्त बन्द करनेके लिये द्विगुजं त्र्यूषणेनार्धवपुर्वातं सकम्पकम् ॥ । शीतल क्रिया करनी चाहिये । ( व्यवहारिक मात्रा निहन्ति दाहं सन्तापं मृ पित्तसमन्वितम् ॥ १ रत्तीसे २ रत्ती तक । ) १ भाग शुद्ध पारे और २ भाग शुद्ध गन्ध पीतकं चूर्णम् ककी कजलीको १ दिन पानेकि रसमें घोटकर चूर्णप्रकरणमें देखिये । ३ भाग शुद्ध ताम्रकी कटोरी पर लेप कर दें और (४४१५) पीयूषघनरसः (१) उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी आंच (र. चं. । ज्वरचि.) देकर भस्म बनावें। हेमाभ्रताराणि मृतानि सूते ___ इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार त्रिकुटेके चूर्णके दत्त्वा तु मूतन समं च गन्धम् । साथ सेवन करनेसे अर्दित, कम्पवात, दाह, सन्ताप, गन्धेन तुल्यं दरदञ्च दत्त्वाऽ और पित्तज मूर्छा नष्ट होती है। मृतारसेनैकदिनं विमर्थ ।। (४४१४) पीडाभञ्जीरसः कौरण्टभृङ्गानिविषैदिनैकं (पीडारिरसः) मूतेन तुल्येऽथ विनिक्षिपेत्तु । (वृ. नि. र.; र. का. धे. । शूला.) पुटे सुताम्रस्य मृदा च लिप्त्या व्योमपारदगन्धाश्मजयपालकटङ्कणम् । सामुद्रपूर्णेऽथ पुटेत भाण्डे ॥ पहिचन्द्रशशिद्वित्रिभागान् जम्भाम्भसा व्यहम्।। ससम्पुट । पिष्ट्वा कोलमिता कृत्वा गुडकालिकतो वटिः। गुइचिकात्यूषणशृङ्गवेरैः। ददीत वलं गदिताऽनुपानवितरेदामशूलादौ कृमिशूले विशेषतः॥ ज्वरेषु पीयूपघनो रसेन्द्रः ॥ पथ्यं तक्रोदनं चात्र स्तम्भाथै शीतलक्रिया ॥ स्वर्णभस्म, अभ्रकभरम, चांदीभस्म, शुद्धपारा, ___ अभ्रकभस्म ३ भाग, शुद्ध पारद १ भाग, | शुद्ध गन्धक और शुद्ध हिंगुल (शिंगरफ) १-१ शुद्ध गन्धक १ भाग, शुद्ध नमालगोटा २ भाग | भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और सुहागेकी खील ३ भाग लेकर प्रथम पारे और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको गन्धकको कजली बनावें और फिर उसमें अन्य चीजें मिलाकर सबको ३ दिन नींबूके रसमें घोट | १-१ दिन गिलोय, कुरण्टा (कटसरैया ), भंगरा, कर झड़बेरीके बेरकी गुठलीके बराबर गोलियां | चीता और बछनाग में से जिनके स्वरस मिल बना लें। सकें उनके स्वरसमें और बाकी के काथमें घोटकर इसे गुड्युक्त काजीके साथ देनेसे विरेचन १ भाग शुद्ध ताम्रके सम्पुटमें बन्द करदें और होकर आमशूल और विशेषतः कृमि-शूल नष्ट । फिर उसके ऊपर ५-७ कपरामट्ठा करक उस होता है। १ दिन लवणयन्त्रमें पकावें । हर । For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४९४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि तदनन्तर यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर । पित्तोत्तरे चामलशर्कराभ्यां उसमें से सम्पुटको निकालकर ताम्र सहित पीस . गव्येन दुग्धेन घृतेन पकम् ।। लें। और फिर उसे १-१ पहर गिलोयके स्वरस, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, शुद्ध शिंगरफ त्रिकुटेके काथ और अदरकके स्वरसमें घोटकर | (हिंगुल ) और मोती समान भाग लेकर प्रथम पारे सुखाकर रक्खें। गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार यथोचित अनुपान | ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको १-१ दिन के साथ देनेसे ज्वर नष्ट होता है। गिलोय, कटसरैया, भंगरा, चीता और बछनागके नोट-यदि १ दिन की अग्निके बाद भी स्वरस या काथमें धोटकर १ भाग शुद्ध ताम्रके ताम्र कच्चा रह जाय तो उसे पुनः इसी प्रकार | सम्पुटमें बन्द करके उस पर कपड़मिट्टी कर दें पकाना चाहिये। और फिर उसे १ दिन लवणयन्त्रमें पकावे ।। (४४१६) पीयूषघनरसः (२) तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर उस (र. चं. । ज्वर.) मेंसे सम्पुटको निकालकर ताम्रसमेत पीस लें; और फिर उसे गिलोय, त्रिकुटा और अदरकके गन्धं रसेन्द्र दरदं च मुक्तां विमर्थ ताम्रस्य पुटे पुटेत । रस या काथमें १-१ पहर घोटकर रखें । पूर्वभकारेणगतौषधीभि इसे यथोचित अनुपानके साथ देनेसे ज्वर, विमर्दितस्याऽथ ददीत वल्लम् ।। शूल, अग्निमांद्य और कृशताका नाश होता है। ज्वरेषु सर्वेषु यथाऽनुपानः शीतज्वरमें-तुलसीके रसमें काली मिर्च शूलेषु सर्वेष्वपि मान्धकार्ये । घोटकर उसके साथ ३ रत्ती यह रस देना चाहिये। शीतज्वरे श्रीतुलसीरसेन उष्णज्वरमें-१ भाग दूधमें ४ भाग धनिये पिष्ट्वा मरीचानि ददीत वल्लम् ॥ का काथ मिलाकर दूध मात्र शेष रहने तक पकावें नीरस्य पादेन नियोज्य दुग्धं और उसमें पीपलका चूर्ण डालकर उसके साथ __कुस्तुम्बुरीनीरथुतं पचेत । यह रस खिलावें। दुग्धावशेष कणया युतश्च इकतरे ( एकाहिक ) ज्वरमें---चौलाईकी ददीत चोष्णज्वरनाशनाय ।। जड़को चावलों के पानीके साथ पीसकर उसके एकाहिके तण्डुलवारिपिष्टं साथ खिलावें। ददीत मेघध्वनिमूलचूर्णम् । चातुर्थिकज्वरमें----१ कर्ष भांग और त्रिकुटे चातुर्थिकादौ विजया विडाल के चूर्णके साथ खिलावें । ( भाग १ माशा और पादप्रमाणं कटुकत्रयेण ॥ त्रिकुटा १ माशा लेना चाहिये ।) For Private And Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसप्रकरणम् ] पित्तज्वर में --- आमले के चूर्ण और खांडके साथ खिलाकर ऊपरसे घृतयुक्त पका हुवा गोदुग्ध पिलावे | मात्रा - ३ रत्ती । (४४१७) पीयूषवल्लीरस: ( भै. र. र. सा. सं.; र. रा. सु. 1 ग्रह. ) मृतमभ्रं गन्धकञ्च तारं लौहं सटङ्कणम् । रसाञ्जनं माक्षिकञ्च शाणमेकं पृथक् पृथक् ।। लवङ्गं चन्दनं मुस्तं पाठाजीरकधान्यकम् । समङ्गाऽतिविषा लोधं कुटजेन्द्रयवं स्वचम् ॥ जातीफलं विश्वबिल्वं कनकं दाडिमीच्छदम् । समङ्गा धातकी कुष्ठं प्रत्येकं रससम्मितम् ॥ भावयेत्सर्वमेकत्र केशराजरसैः पुनः । चणकाभा वटी कार्या छागीदुग्वेन पेषिता ॥ अनुपानं प्रदातव्यं दग्धबिल्वं सभं गुडैः । हन्ति सर्वातीसारान ग्रहणीं चिरजामपि || आमसम्पाचनो सम्यग्वह्निवृद्धिकरस्तथा । पीयूषवल्ली नामाऽयं ग्रहणीरोगनाशनः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४९५ ] | काले भंगरे और बकरीके दूधकी १-१ भावना देकर चनेके बराबर गोलियां बना लें। इसके सेवन से समस्त प्रकारके अतिसार और पुरानी ग्रहणी नष्ट होती है । यह रस आमको पचाता और अग्निको दाप्त करता है । अनुपान --- बेलगिरीकी राख समान भाग गुड़ मिलाकर दवा खिलाने के बाद खिलावें । (४४१८) पीयूषसिन्धुरस: ( रसे. चि. अ. ९; २. चं. र. रा. सु.; र. का. । अर्शो.) शुद्धं मृतं टङ्गणं जीर्णगन्धं काचे पात्रे वालुकायन्त्रयोगात् । भस्मीभूतं योजयेदत्र हेम तत्तुल्यांशं भस्म लोहाऽभ्रयोश्व ॥ मृता ल्यं गन्धकं मेलयित्वा वे मसूरणस्य द्रवेण । दन्तीमुण्डीकाकमाची हलाख्या भृङ्गाsaणामभिजातं द्रवञ्च ॥ क्षिप्त्वा पश्चाद्धान्यराशौ त्रिवस्त्रं चूर्णीभूतं मामात्रं ददीत । अशरोगे दारुणे च ग्रहण्यां शूले पाण्ड्वाम्लपित्ते क्षये च ।। रोगो वा मासषट्कमयोगात् । शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, चांदीभस्म, लोहभस्म, सुहागेकी खील, रसौत, श्रेष्ठं क्षौद्रं चाऽनुपानं प्रशस्तं स्वर्णमाक्षिक भस्म, लौंग, सफेद चन्दन, नागरमोथा, पाठा, जीरा, धनिया, मजीठ, अतीस, लोध, कुड़ेकी सर्वे रोगा यान्ति नाशं जरायां छाल, इन्द्रजौ, दालचीनी, जायफल, सांठ, बेलगिरी, वर्षद्वन्द्वं सेवनीयं प्रयत्नात् ॥ धतूरे के बीज (शुद्ध), अनारकी छाल, लज्जालु, पथ्यं दद्यादम्लतैलादियोषिधायके फूल और कूठ समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें पुष्टिं कान्ति वीर्यवृद्धिं सुदाद अन्य ओषधियांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको द्वयं देयं सर्वरोगप्रशान्त्यै । सेवायुक्तो मानव संलभेत ॥ For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि ____ आतशी शीशीमें षड्गुणगन्धक जारण किया | पुनः संस्वेध तं मूतं वटशुङ्गाऽहिवल्लिजैः । हुवा पारद, स्वर्णभस्म, लोहभस्म, अभ्रकभस्म और काकमाच्या च जीवन्त्या रसः स्याधामयुग्मशुद्ध गन्धक समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक कात् ॥ की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे | दिनं शीताऽम्बुकुम्भस्थं दिनैकं दनि माहिषे । मिलाकर सबको सूरण ( जिमीकन्द ), दन्ती, एवं सिद्धरसादल्लं प्रत्यहं ब्रह्मचर्यधृ०॥ गोरखमुण्डी, मकोय, लांगली ( कलिहारी ), भंगरा, मासैकं सेवते भर्ता सितादुग्धौदनमियः । अर्क और चीतेके स्वरस या क्वाथकी १-१ भावना | त्रिफलानिम्बकासीरसैनारी क्रमात्पृथक् ॥ देकर गोला बनाकर उसे अरण्ड आदिके पत्तों में | सप्त सप्तदिनं पीत्वा पश्चाहतुसमागमे ।। लपेट कर अनाजके ढेर में दबा दें । और ३ दिन रसं वल्लं व्यहं चैकं कार्पास्यम्बुसितायुतम् ॥ पश्चात् निकाल कर पीस लें। टङ्कणः स्फटिका मूतः पकाम्लिकरसान्वितः । इसे १ माशेकी मात्रानुसार सेवन करने से | त्रिदिनं मधुना योनौ लेपः शुद्धिकरः परः ॥ भयङ्कर अर्श, ग्रहणी, शूल, पाण्डु, अम्लपित्त और महिष्या दधिमध्यस्थं दिवा मूतं त्रिमाषकम् । क्षयका नाश होता है। स्त्रीसेवासमये रात्रौ भक्षयेद्दधिसंयुतम् ॥ सम्भोगान्ते तथा स्थेयं यामाध सम्पुटेन च । अनुपान---शहद या रोगोचित पदार्थ । । सर्वलक्षणसम्पन्नं सुतं जनयते वरम् ॥ इसे ६ मास तक सेवन करनेसे समस्त रोग तापादिके समुत्पन्ने देय द्राक्षासितादिकम् । नष्ट हो जाते हैं। २ वर्ष तक सेवन करने से कार्यः शीतोपचारश्च युवत्या भिपजा सदा ।। बुढ़ापा नहीं रहता। आयुर्वृद्धिं बलं कान्ति नष्टवीर्यविवर्धनम् । इसके सेवन से पुष्टि, कान्ति और वीर्यकी | कुर्याद्रोगहरः पुत्रपदो रुद्रविनिर्मितः ॥ वृद्धि होती है। शुद्ध पारेको ३ दिन भैसके दहीमें मन्दाग्नि इसके सेवन कालमें खटाई, तैल और स्त्री- पर दोलायन्त्र विधिसे स्वेदन करें । व्यों ज्यों दही प्रसंग से परहेज़ करना चाहिये । सूखता जाय त्या त्यों और डालते जायं । चौथे दिन पारेको निकालकर उसमें उसका चौसठवां (४४१९) पुत्रप्रदोरसः भाग स्वर्ण मिलाकर नीबूके रसके साथ इतना (र. सं. क. । उल्लास ४) घोटें कि जिससे वे दोनों मिलकर एक जीव शुद्धसूतं त्र्यहं स्वेद्यं मन्दाग्नौ दधि माहिषे ।। हो जायं । त्रुटिते त्रुटिते दद्यादधि तुर्येऽनि चोद्धरेत् ॥ तदनन्तर उसे दोलायन्त्र विधिसे बड़के अंकुर, तस्मिन् स्वर्ण क्षिपेत्याशश्चतुःषष्टितमांशकम् ।। पान, मकोय और जीवन्तीके रसमें २-२ पहर मर्दयेन्निम्नुनीरेण यावदैक्यं हि जायते ॥ । स्वेदन करें । For Private And Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [४९७] तत्पश्चात् उस रसकी पोटलीको ठण्डे पानीके। इसके सेवनसे आयु, बल, कान्ति और वीर्यघड़ेमें डाल दें और एक दिन उसीमें पड़ा रहने की वृद्धि होती है । दें। फिर उसे १ दिन भैसके दहीमें डाले रक्खें। (४४२०) पुनर्नवामण्डूरम् (१) वस रस तैयार है। (वृ. नि. र.; भा. प्र.; र. रा. सु. । पाण्ड.) __इसमें से ३ रत्ती रस नित्य प्रति १ मास तक पुरुषको खाना चाहिये तथा आहारमें दूध पुनर्नवा त्रिद्वयोपं विडङ्गं दारु चित्रकम् । भात और खांड खानी और ब्रह्मचर्यका पालन कुष्ठं हरिद्रा त्रिफला दन्ती चव्यं कलिङ्गकम् ॥ करना चाहिये। कटुका पिप्पलीमूलं मुस्तं शृङ्गी च कारवी । __साथ ही स्त्रीको भी ३ रत्तीकी मात्रानुसार यवानी कट्फलश्चेति पृथक् पलमितं समम् ॥ त्रिफला, नीम और कपासके काथके साथ ७ मण्डूरं द्विगुणं चूर्णाद्गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् । सप्ताह तक सेवन करना चाहिये । एवं ऋतुकाल में गुडेन वटकान् कृत्वा तक्रेणाऽऽलोड्य तान् पिबेत् ।। ३ दिन तक केवल कपास के क्वाथ में मिश्री मिलाकर उसके साथ सेवन करना चाहिये । पुनर्नवादिमण्डूरवटकोऽश्विविनिर्मितः । फिर सुहागा, फटकी और पांग्को एकत्र घोटकर पाण्डुरोग निहन्त्याशु कामलाश्च हलीमकम् ॥ श्वासं कासश्च यक्ष्माणं ज्वरं शोथं तथोदरम् । पक्की इमलीके रसमें मिलाकर उसमें थोडासा शहद शूलं प्लीहानमाध्मानम सि ग्रहणी कृमीन् । डालकर स्त्रीको अपनी योनिमें ३ दिन तक उसका | लेप करना चाहिये । इससे योनि शुद्ध हो | वातरक्तश्च कुष्ठश्च सेवनान्नाशयेद् ध्रुवम् ॥ जाती है। पुनर्नवा, निसोत, सेांठ, मिर्च, पीपल, बाय__इसके बाद ३ माशे उपरोक्त रसको प्रातः- बिडंग, देवदारु, चीता, कृठ, हल्दी, हरे, बहेड़ा, काल भैसके दहीमें मिलाकर रख देना चाहिये आमला, दन्तीमूल, चव, इन्द्रजी, कुटकी, पीपलाऔर रात्रिको स्त्री-समागमके समय पुरुषको यह मूल, नागरमोथा, काकड़ासिंगी, कालाजीरा, अजरस दही समेत खा लेना चाहिये । तदनन्तर गर्भा - वायन और कायफलका चूर्ण ५-५ तोले तथा धान करके स्त्री पुरुष दोनों को आध पहर तक शुद्ध मण्डूर इन सबसे २ गुना लेकर सबको आठ वैसे ही रहना चाहिये। गुने (१६ गुने ) गोमूत्र में पकावें । जब सब चीजें यदि इसके सेवन से तापादि हो तो द्राक्षाका अच्छी तरह मिल जायं और पाक तैयार होनेमें रस और मिसरी आदिका सेवन करना चाहिये थोड़ी कमी हो तो उसमें सबके बराबर गुड़ मिलातथा स्त्रीको शीतल उपचार करने चाहिये। कर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो (२-२ इस प्रयोगसे समस्त शुभ लक्षणयुक्त पत्र । माशेकी) गोलियां बनाकर सुरक्षित रक्खें । उत्पन्न होता है। इन्हें तनके साथ सेवन करनेसे पाण्डु, कामला, For Private And Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४९८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि हलीमक, श्वास, खांसी, क्षय, ज्वर, शोथ, उदररोग, (४४२२) पुनर्नवादिमण्डूरम् । शूल, प्लीहा, आध्मान् , अर्श, ग्रहणीरोग, कृमिरोग, । (बं. से. । परिणामशूल.; र. का. धे. । शूला.) वातरक्त और कुष्टका नाश होता है। वर्षाभूवरुणो मानो लोहकिटन्तु पूतकम् । (४४२१) पुनर्नवामण्डूरम् (२) भानी च समभागानि मूत्रे दशगुणे पचेत् ।। अन्तर्धमविपकेन मधुसर्पियुतं लिहन । (भै. र.; वृ. मा.; च. सं.; ग. नि.; नि. र.; | वाताधिकं तथा पित्तं द्वन्द्वजं श्लेष्मजे तथा ।। च. द.; वृ. मा.; र. र. । पाण्ड.) एष त्रिदोपज हन्ति शूलं हि परिणामजम् ।। पुनर्नवा त्रिवृच्छण्ठी पिप्पली मरीचानि च । पुनर्नवा, (बिसखपरा), बरनेकी छाल, मानविडङ्गं देवकाष्ठं च चित्रकं पुष्कराहयम् ।। कन्द, शुद्ध मण्डूर और भरंगीका चूर्ण समान-भाग हरिद्राद्वितयं दन्ती त्रिफला चविका तथा। लेकर सबको दस गुने गोमूत्रमें पात्रका मुंह ढककुटजस्य फलं तिक्ता पिप्पलीमूलमुस्तकम् ।। । कर पकावें और जब गाढ़ा हो जाय तो स्निग्ध एतानि समभागानि मण्डूरं द्विगुणं ततः। पात्रमें भरकर सुरक्षित रक्खें । मूत्रे चाष्टगुणे पक्त्वा स्थापयेस्निग्धभाजने ॥ । इसे शहद और घीमें मिलाकर सेवन करनेसे पाण्डुशोषोदरानाहशूलार्शः कृमिरोगनुत् ॥ एकदोषज, द्वन्द्वज और सन्निपातज परिणामशूल नष्ट होता है । ___ पुनर्नवा, निसोत, सांठ, मिर्च, पीपल, बाय ( मात्रा २ माशे ।) बिडंग, देवदारु, चीता, पोखरमूल, हल्दी, दारु (४४२३) पुरन्दरवटी हल्दी, दन्तीमूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चव, इन्द्रजौ, कुटकी, पीपलामूल और नागरमोथा १-१ (र. चं.; र. सा. स.; र. रा. सु.; धन्व. कासा.) भाग तथा शुद्ध मण्डूर सबसे २ गुना लेकर सब मूत्काविगुणं गन्धमेकधा कज्जलीकृतम् । को कूट छानकर आठ गुने ( १६ गुने ) गोमूत्र में त्रिकटुत्रिफलाचूर्ण प्रत्येकं मूतसम्मितम् ॥ पकावें और जब गाढा हो जाय तो उसे स्निग्ध अजाक्षीरेण सम्भाव्य वटिकां कारयेत्ततः । पात्रमें भरकर सुरक्षित रखें। आईकस्य रसैः सेव्या शीतं तोयं पिबेदनु । कासश्वासप्रशमनी विशेषादमिवर्द्धिनी । इसके सेवनसे पाण्डु, शोष, उदररोग, आनाह, इयं यदि सदा सेच्या तदा स्याद् योगवाहिका।। शूल, अर्श और कृमिरोगका नाश होता है। वृद्धोऽपि तरुणः शक्तः स्त्रीशतेषु वृषायते ॥ (मात्रा-१ माशा । अनुपान तक ।) १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गन्धक १च. सं.; और र. र. में पोखरमूलकी जगह । | की कज्जली बनाकर उसमें सेट, मिर्च, पीपल, हर्र, कुछ और कुटकीकी जगह पीपल लिखी है। १ लोहकिटं मयूरकमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] बहेड़ा और आमलेका चूर्ण १-१ भाग मिलाकर सबको १ रोज़ बकरीके दूधमें घोटकर (१-१ माकी) गोलियां बना लें । तृतीयो भागः । इन्हें अद्रक रस में मिलाकर चाटकर ऊपर से थोड़ा ठण्डा पानी पीनेसे खांसी और स्वास नष्ट होते और विशेषतः अग्निकी वृद्धि होती है । इसे निरन्तर अधिक समय तक सेवन करनेसे वृद्ध पुरुष भी तरुणके समान शक्तिमान् हो जाता है । (४४२४) पुष्पधन्वारस: (१) ( र. र. स. अ. २७; र. चं. । वाजीकरणा . ) रम्भादे मार्क पिष्टि पक्त्वा यन्त्रे भूधरे तां पचेत । गन्धं दत्त्वा षड्गुणार्द्धं क्रमेण पश्चात्कान्तं तेन तुल्यं क्रमेण ॥ दत्त्वा खल्वे शाल्मलीयष्टितोयैः पक्षैकं तन्मर्दयेनागवल्ल्याः । नीरैर्यामं पुष्पधन्वा रसः स्या द्वलं दद्यादस्य पूर्वोक्तयुक्त्या || पुष्टिं वीर्य दीपनं सोऽत्र दद्या- न्याद्रोगान् रोगयोग्याऽनुपानैः ॥ शुद्ध स्वर्ण, शुद्ध चांदी और शुद्ध ताम्रके अत्यन्त बारीक पत्र या चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर केलेकी जड़में रखकर उसपर कपड़मिट्टी करके उसे भूधरयन्त्र में ( १ रोज़ ) पकावें । तदनन्तर उसमें उसके बराबर शुद्ध गन्धक मिलाकर पुनः इसी प्रकार पकावें । इस प्रकार ३ बार बराबर बराबर गन्धक मिलाकर पकायें और जब ३ गुना गन्धक जारण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४९९ ] कर चुके तो उसमें उसके बराबर कान्तलोह - भस्म मिलाकर उसे सेंभलकी मूसली और मुलैठीके काथ में १५ दिन खरल करें। तदनन्तर १ पहर पान के रस में घोटकर ३ - ३ रत्तीकी गोलियां बना लें । इसे घृत मधु और मिश्री युक्त दूधके साथ सेवन करनेसे बल वीर्य और अग्निकी वृद्धि होती है तथा रोगोचित अनुपान के साथ देनेसे अनेक रोग नष्ट होते हैं। (४४२५) पुष्पधन्वारस: (२) (भै. र. यो. र. । रसायनवाजी.; आ. वे. वि. । अ. ६९; वृ. यो. त. । त. १४७; यो त । त. ८० ) हरजभुजगलौहञ्चाभ्रकं वङ्गभस्म, कनकविजययष्टयः शाल्मलीनागवल्ल्यौ । घृतमधुसितदुग्धं पुष्पधन्वा रसेन्द्रो, रमयति शतरामा दीर्घमायुर्बलश्च ॥ पारदभस्म, सीसाभस्म, लोह भस्म, अभ्रकभस्म, बंगभस्म, धतूरे के बीज (शुद्ध), विजयसार, मुलैठी, भलकी मूसली और पान समानभाग लेकर सबका यथाविधि चूर्ण बनावें । इसे घृत मधु और मिश्री युक्त दूधके साथ सेवन करने से बल और आयुको वृद्धि होती तथा सैकड़ों स्त्रियोंसे रमण करनेकी शक्ति प्राप्त होती है। ( मात्रा - ३ रत्ती । ) १ इस प्रयोगमें योगतरंगिणीमें पारद तथा बंग नहीं हैं । वृहद्योगतरंगिणी में बंगकी जगह बीता है और धतूरे आदि ५ पदार्थोंसे भावना देनेके लिये लिखा है । योगरत्नाकरमें बंग नहीं है तथा इसका नाम ' लघुपुष्पधन्वा ' लिखा है । For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [५०० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि (४४२६) पुष्पधन्वारसः (३) रसाञ्जनं टङ्कणश्च शिलाजतु फलन्तथा । (या. र. । वाजीकरणा.) अभ्रांशश्च फलं ग्राहयं प्रत्येकं तोलकत्रयम् ॥ कनकहरजकान्तं ताप्यकं वृद्धिभागं, भेकपर्णी पञ्चमूली बलाकञ्चटदाडिमम् । | पृङ्गाट केशरं जम्बू दधिमस्तु जयन्तिका ॥ द्विजकुवलययष्टीशाल्मलीनागिनीभिः । घृतमधुपयखण्डैः पुष्पधन्वा द्विवल्लो, केशराज भाराज प्रत्येकं तोलकद्वयम् । | द्विमाषा वटिका कार्या तक्रेण परिसेविता ॥ रमयति बहुकान्ता दीर्घमायुर्विधत्ते ॥ इयं पूर्णकला नाम ग्रहणीगदनाशिनी । स्वर्णभस्म १ भाग, पारदभस्म २ भाग, शूलनी दाहशमनी वहिदा ज्वरनाशिनी ॥ कान्तलोहभस्म ३ भाग और स्वर्णमाक्षिकभस्म ४ भ्रमच्छबिच्छेदकारी सङ्ग्रहग्रहणीं जयेत् ॥ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके तुम्बुरु, कमल, मुलैठी, सेंभलकी मूसली और पानांके रसमें शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रकभस्म, लोह१-१ दिन घोटकर ६-६ रत्तीकी गोलियां भस्म, धायके फूल, बेलगिरि, शुद्ध बछनाग, इन्द्र बना लें। जौ, पाठा, जीरा, धनिया, रसौत, सुहागा, शिलाइन्हें घृत मधु और मिश्रीयुक्त दूधके साथ जीत, जायफल, हर्र, बहेड़ा और आमला ३-३ तोले; मण्डूकपर्णी, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, सेवन करनेसे अनेक स्त्रियांसे रमण करनेकी शक्ति और दीर्घायु प्राप्त होती है। कटेला, गोखरु, बला (खरैटी), चौलाईकी जड़, अनारका छिलका, सिंघाड़ा, केसर, जामनकी छाल (४४२७) पूतीकराचं चूर्णम् (या गुठली), दहीका पानी, जयन्ती तथा सफेद (वं. से. । उदर.) और काला भंगरा २-२ तोले लेकर प्रथम पार पूतीकरजबीजं मूलकबीजं गवादनीमूलम् ।। गन्धककी कजली बनाकर उसमें भस्में मिलावें शभस्म च कानिकपीतं शमयेजलोदरमपि ॥ और फिर अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सब __ पूतीकरा (कांटा करञ्ज ) के बीज, मूलीके को पानीके साथ अच्छी तरह घोटकर २-२ बीज, इन्द्रायणकी जड़, और शंखभस्म समान-भाग | माशेकी गोलियां बनावें। लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें। इन्हें छाछके साथ सेवन करनेसे ग्रहणीरोग, इसे कालीके साथ सेवन करनेसे जलोदर शूल, दाह, ञ्चर, भ्रम और छर्दिका नाश होता नष्ट होता है। तथा अग्नि दीप्त होती है। (४४२८) पूर्णकलावटी (४४२९) पूर्णचंद्रोदयरस: (र. सा. सं । ग्रहणीरो.) (र. सा. सं.; र. चं । अतिसा.) रसं गन्धं घनं लौह धातकीपुष्पविल्वकम् । शुद्धश्च तालकं लौई गगनश्च पलं पलम् । विषं कुटजबीजश्च पाठा जीरकधान्यकम् ॥ । कर्पूरं पारदं गन्धं प्रत्येक बटकोन्मितम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५०१] जातीकोपो मुरा पत्रं शटी तालीसकेशरम् । । भाजनेऽच्छलवणोदरे क्षिपेव्योपं चोचं कणामूलं लवङ्गं पिचुसम्मितम् ।। दङ्गुलीत्रितयमानतस्तु तत् । भक्षयेत्पातरुत्थाय गुरुदेव द्विजार्चकः। गोमयेन परिवेष्टय भाजने नानारूपमतीसारं ग्रहणीं सर्वरूपिणीम् ॥ शोषयेत पुटयेत्तृणाग्निना ।। अम्लपित्तं तथा शूलं शूलञ्च परिणामजम् । पूर्णचन्द्र इति कीर्तितो रसो रसायनवरश्वाऽयं वाजीकरण उत्तमः ।। राजयक्ष्मरवितापनाशनः। शुद्ध हरताल, लोहभस्म और अभ्रकभस्म ५-. पथ्यमत्र कुमुदेश्वरे यथा। ५ तोले, कपूर, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, जावित्री, तद्वदेव हि विवj वर्जनम् ॥ मुरामांसी, तेजपात, कचूर, तालीसपत्र, केसर, सेठ, अम्लपित्तपरिणामशूलहा मिर्च, पीपल, दालचीनी,पीपलामूल और लौंग११-१। सेवितो मधुकणाज्यमिश्रितः । तोला लेकर प्रथम पारे गन्धकको कजली बनावें । पैत्तिकज्वरविचिकापहा . और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका अत्यन्त महीन जीरकद्वयगुडूचिकान्वितः॥ चूर्ण मिलाकर खरल करके सुरक्षित रक्खें। शाल्मलीद्वयगुडूचिकाकणैः इसके सेवनसे अनेक प्रकारके अतिसार, सर्व शुष्कपाण्डुहरणः सितायुतैः । प्रकारकी संग्रहणी, अम्लपित्त, शूल और परिणाम | शाल्मलीद्वयगुइँचिकासिता .. शूल नष्ट होता है। यह रस रसायन और वाजी वानरीकणपयोविमिश्रितैः ।। करण है। पुष्टिदृष्टिबलकामवीर्यदो जायतेऽखिलगदापहारकः ॥ ( मात्रा--३ रत्ती।) स्वर्णभस्म, शुद्ध पारा, मोतीभस्म, शुद्ध बछनाग (४४३०) पूर्णचन्द्रो रसः (१) विष और शुद्ध गन्धक समान-भाग लेकर प्रथम पारे (र. चं.; र. प्र. सु. । राजय.१ ) गन्धक की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य हेमभस्मसमतो रसं लिम “ओषधियां मिलाकर सबको १-१ दिन चीतेके मौक्तिकं तु विपगन्धकं कुरु । काथ और अदरक के रसमें घोटकर गोला बनावें चित्रकाकरसेन पेषये और उसे सुखाकर चार तह किये हुवे कपड़ेमें स्थापयेच्च परिवेष्टयन्मृदा ॥ लपेटकर उस पर मिट्टीका लेप कर दें और उसके ऊपर ३ अंगुल मोटा गायके गोबरका लेप करके १ रस चण्डांशुम यह रस राजयक्ष्मा प्रकरणमें २ | सुखाकर उसे एक हाण्डीमें नमकके बीचमें रख दें स्थानोंमें लिखा है। उनमेंसे एक पाठ ऊपर दिया गया है दूसरे पाठमें मोती और विषके स्थानमें नागभस्म | तथा उसका मुंह बन्द करके सुखा लें । तदनन्तर लिखी है तथा भावना द्रव्यांमे अदकका अभाव है। उसे नृणाग्निमें १ दिन पकावें और फिर उसके - For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५०२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर । चूर्ण कृत्वा नागवल्लीरसेन पीस लें। दद्यादेवं मदेयित्वैकयामम् ॥ इसके सेवनसे राजयक्ष्माका नाश होता है। मध्वाज्याभ्यां पूर्णचन्द्रो रसेन्द्रः इसे अम्लपित्त और परिणामशूलमें पीपलके | पुष्टिं वीर्य दीपनश्चैव कुर्यात् । चूर्ण और शहद तथा घीके साथ; पित्तज्वर और मायो योज्यः पित्तरोगे ग्रहण्याविषूचिकामें स्याह और सफेद जीरेके चूर्ण तथा | मझेरोगे पित्तजे चोलयुक्तः ॥ गिलोयके क्वाथके साथ; तथा शोषयुक्त पाण्डुरोगमें स्त्रीणां रोगे शाल्मलीनीरयुक्तो सफेद और लाल सेंभलकी छाल, पीपल, गिलोय शैलेयं वा शर्करातुल्यभागम् । और मिश्रीके साथ देना चाहिये ।। शुद्धं गन्धं वाजिगन्धाञ्च यष्टीं ____ इसे दोनों प्रकारके सेंभलकी छाल, गिलोय, एक्त्वा दुग्धे तच्च कार्ये ददीत ।। मिश्री, कौंचके बीज और पीपलके चूर्ण तथा दुध एवश्वाऽऽज्यं पाचयित्वा प्रदद्याके साथ सेवन करनेसे पुष्टि, दृष्टि, बल, वीर्य, और यद्वा यष्टी मागधी चाऽश्वगन्धा । कामशक्तिकी वृद्धि होती है। मध्वाज्याभ्यां शाल्मलीसत्वमुक्ताः पथ्य-मधुर पदार्थ, शाली चावल, मंग, घी शम्बूकैर्वा भर्जितैराज्यमित्रैः ॥ दूध, मस्तु, घीमें बनाये हुये अधिक क्षार और ___ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, असगन्ध और हींग रहित पदार्थ तथा शीतल पदार्थ हितकारी | गिलोय १-१ भाग लेकर पार गन्धककी कजली हैं । भोजन दो तीन बार करना चाहिये। बनाकर उसमें अन्य दोनों ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सबको १ दिन मुलैठीके काथमें घाटें और फिर परहेज-तेल, बेलफल, करेला, राई, सत्तू । उसमें १-१ भाग क्षुद्रशंख (घोंघा ), मोती और और काम क्रोधादिसे बचना चाहिये । मण्डूरकी भस्म मिलाकर १ दिन बिदारीकन्दके (४४३१) पूर्णचन्द्रो रसः (२) रसमें घोटकर गोला बनावें और उसे १ दिन (र. चं.; र. र.; र. र. स.; रसे. चि.; धन्य.; भूधरयन्त्रमें पकाकर स्वांग शीतल होनेपर निकाल र. रा. सु. । वाजीकरणा.) कर १ पहर पानके रसमें घोटकर सुरक्षित मृतं गन्धश्चाऽश्वगन्धां गुडूची रक्खें । यष्टीतोयैर्मदयेदेकघस्रम् । इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे क्षुद्रं शङ्ख मौक्तिकं लोहकिट पुष्टि, वीर्य और अग्निकी वृद्धि होती है । भस्मीभूतं मूततुल्यञ्च दद्यात् ॥ इसे पित्तरोग, पित्तज ग्रहणी और पित्तज भूकूष्माण्डैवासरं तद्विमर्थ । अर्श में बोल के चूर्णके साथ तथा स्त्री रोगोंमें गोलं कृत्वा भूधरे तं पुटेत्तु । सेभलकी छालके रसके साथ अथवा शिलाजीत For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [५०३] उसके साथ देना चाहिये । यदि कृश पुरुषको सेवन कराना हो तो रस खिलानेके बाद उसे शुद्ध गन्धक, असगन्ध और मुलैठीको दूधमें पकाकर पिलाना चाहिये। अथवा इन्हीं चीज़े से घृत पकाकर पिलाना चाहिये। या रस खिलानेके पश्चात् मुलैठी, असगन्ध और पीपलका चूर्ण घी और शहदमें मिलाकर चटाना चाहिये; या मोती और घांघेकी भस्म में सेंभलका गोंद और घी मिलाकर देना चाहिये । और मिश्री (आधा आधा माशा ) एकत्र मिलाकर | ( ४४३३) पूर्णचन्द्रो रसः (४) ( बृहत् ) (र. रा. सु., ध.; र. चं. र. र. र. सा. सं.; भै. र. । वाजीकरणा . ) fai शुद्धस्तस्य गन्धकञ्च द्विकाषिकम् । लोहभस्म पलञ्चाऽभ्रं जारितञ्च पलांशिकम् ॥ द्वितोलं रजतञ्चैव वङ्गभस्म द्विकार्षिकम् । सुवर्ण तोलकञ्चैव ताम्रं कांस्यञ्च तत्समम् जातीफलञ्चेन्द्रपुष्पमेलाभृङ्गञ्च जीरकम् । कर्पूरं वनिता मुस्तं कर्षं कर्षं पृथक् पृथक् ।। सर्वं खल्वतले क्षिप्त्वा कन्यारसविमर्दितम् । भावयित्वा वरातोयैः केबुकानां रसेन च ॥ It (४४३२) पूर्णचन्द्रो रस: (३) ( र. सा. सं.; भै. र. र. चं. र. र. स. र. रा. एरण्डपत्रैरावेष्ट्य धान्ये रात्रिदिनोपितम् । सु. । रसायना. ) मृत लोहं वै शिलाजतुविडङ्गकम् । ताप्यं क्षौद्रघृतं तुल्यमेकीकृत्य विमर्दयेत् ॥ पूर्णचन्द्ररसो नाम्ना माकं भक्षयेत्सदा । शाल्मली पुष्पचूर्णञ्च क्षौद्रैः कर्षं पिवेदनु || दुर्बलो बलमाप्नोति मासैकेन यथा शशी । कृशानां बृंहणं देयं सर्वं पानान्नभेषजम् ॥ उद्धृत्य मर्दयित्वा तु वटिकां चणसम्मिताम् ।। खादेच्च पर्णखण्डेन संयुक्तां व्याधिनाशिनीम् । सर्वव्याधिविनाशाय काशीनाथेन भाषितः ।। पूर्णचन्द्ररसो नाम सर्वरोगेषु योजयेत् । बल्य रसायनो वृष्यो वाजीकरण उत्तमः ॥ अयमष्ठीलिकां हन्ति कासश्वासमरोचकम् । आमशूलं कटीशूलं हृच्छूलं पित्तशूलकम् ॥ अग्निमान्धमजीर्णश्च ग्रहणों चिरजामपि । आमवातमम्लपित्तं भगन्दरमपि द्रुतम् || कामलां पाण्डुरोगश्च प्रमेहं वातशोणितम् । नातः परतरः श्रेष्ठो विद्यते वाजिकर्मणि ॥ रसस्यास्य प्रसादेन नरो भवति निर्गदः । मेधाञ्च लभते वाग्मी तुष्टिपुष्टिसमन्वितः ।। मदनस्य समां कान्ति मदनस्य समं बलम् । गीयते मदनेनैव मदनस्य समं वपुः || प्रियाश्च मदनमायाः पश्यन्ति मदनाऽऽकुलम् । स्त्रीणां तथाऽनपत्यानां दुर्बलानाञ्च देहिनाम् || पारदभस्म,अभ्रकभस्म, लोहभस्म, शिलाजीत, बायभिड़ंग, स्वर्णमाक्षिक भस्म, घी और शहद समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके १- १ माशेकी गोलियां बना लें 1 इनमें से १ गोली नित्य प्रति खाकर १ | तोला सेंभलके पुष्पोंका चूर्ण शहद में मिलाकर खानेसे दुर्बल मनुष्य चन्द्रमाकी भांति ९ मासमें बलवान हो जाता है । दुर्बल व्यक्तियोंको बृंहण अन्न पानादि देना चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५०४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि क्षीणानामल्पशुक्राणां वृद्धानां वातरेतसाम् । इसके सेवनसे मेधा और वाचा शक्तिकी ओजस्तेजस्करश्चाऽयं स्त्रीपु कामविवर्धनः॥ वृद्धि होती तथा मनुष्य अत्यन्त बलवान, कान्तिअभ्यासेन निहन्ति मृत्युपलितं सर्वामयध्वंसकः, युक्त और रूपवान हो जाता है। वृद्धानां मदनोदयोदयकरः प्रौढाङ्गनासङ्गमे । यह रस पुत्रहीन स्त्री तथा दुर्बल, क्षीण, नित्यानन्दकरः सुखाऽतिसुखदो भूपैः सदा | अल्पवीर्य और वृद्ध पुरुषोंके लिये अत्यन्त हित सेव्यते, कारी है । ओज, तेज और काम-शक्तिको दृष्टः सिद्धफलो रसायनवरः श्रीपूर्णचन्द्रो रसः।। बढ़ाता है। शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक २॥-२| तोले; इसके अभ्याससे पलितरोग नष्ट होता और लोहभस्म और अभ्रकभस्म ५-५ तोले; चांदी वृद्ध पुरुपेमें तरुणांके समान शक्ति आ जाती है। और बंगभस्म २॥-२॥ तोले; स्वर्ण भस्म, ताम्र- यह श्रेष्ठ रसायन और शीघ्र फल देनेवाला भस्म, कांसीभस्म, जायफल, लांग, इलायची, / अनुभूत प्रयोग राजाओंके सदैव सेवन करने भंगरा, जीरा, कपूर, फूलप्रियंगु और नागरमोथा, योग्य है। ११-११ तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली (४४३४) पूर्णेन्दुरसः बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका महीन का महान (र. मं. । अ. ६; वृ. यो. त । त. १४७; चूर्ण मिलाकर सबको ग्वारपाठा, त्रिफला र. र.। वाजीकरणा.; यो. र. । रसायना.) और केमुक ( केऊआ ) के रसकी पृथक् पृथक् ! शाल्मल्युत्थैर्देवैमा पक्षकं शुद्धपारदम् ।। १-१ भावना देकर अरण्डके पत्तोंमें लपेटकर यामद्वयं पचेचाऽपि वस्त्रे बद्धाऽथ मर्दयेत् ।। अनाजके ढेर में दबा दें और फिर २४ घण्टे बाद दिनैकं शाल्मलीद्रावैर्मर्दयित्वा वटीकृतम् । पत्तोंमें से औषधको निकालकर खरल करके चनेके वेष्टयेन्नागवल्ल्याऽथ निक्षिपेत् काचभाजने ॥ बराबर गोलियां बना लें। भाजनं शाल्मलीद्रावैः पूर्ण यामद्वयं पचेत् । __इसे पानमें रखकर खानेसे समस्त रोग नष्ट वालुकायन्त्रमध्यस्थं द्रवे जीणे समुद्धरेत् ॥ होते हैं। द्विगुझं भक्षयेत्पात गवल्लीदलान्तरे । यह रस बल्य, रसायन और वाजीकरण है मुसलों ससितां क्षीरं पलैकं पाययेदन ॥ तथा अष्ठीलिका, खांसी, श्वास, अरुचि, आमशूल, रसः पूर्णेन्दुनामाऽयं सम्यग्वीर्यकरो भवेत् । कटिशूल, हृच्छूल, पित्तजशूल, अग्निमांद्य, अजीर्ण, । कामिनीनां सहस्रैकं नरः कामयते ध्रुवम् ॥ पुरानी संग्रहणी, आमवात, अम्लपित्त, भगन्दर - शुद्ध पारदको १५ दिन सेंभलके रसमें खरल कामला, पाण्डु, प्रमेह और वातरक्तका नाश | करें । तत्पश्चात् उसे वस्त्रमें बांधकर २ पहर तक करता है। यथाविधि दोलायन्त्र विधिसे संभलके रसमें स्वेदन For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५०५] करें । फिर उसे १ दिन सेंभलके रसमें घोटकर ( मात्रा--३ रत्ती ) गोला बनालें और उसे पानांमें. लपेट कर कपड़ नोट--भाण्डपुटकी विधि 'पाषाणभेदी मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें डाल दें तथा रस' के फुटनोट में देखिये । शीशीको सेंभलके रससे भरकर दो पहर बालुकायन्त्रमें पकावें । इतने समय में वह समस्त द्रव (४४३६) प्रचण्डभैरवो रसः सूख जायगा । ( यदि न सूखे तो अधिक देर (र. र. । अपस्मा.) पकावें । दो पहर से कम न पकाना चाहिये।) कासीसं गन्धकं सूतं दरदं मधुपुष्पकम् । तदनन्तर शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से | गुडूची शाल्मली धान्यं भूनिम्बोऽमरतुम्बुरु ॥ औषधको निकालकर पीस लें। | तिलमुद्गपटोलानि द्राक्षां कूष्माण्डभस्म च । इसमें से २ रत्ती रस पानमें रखकर खाने | झिण्टिका कन्यका भाङ्गो बलाद्वयसमायुतम् ।। और उसके बाद ५ तोले मूसली के चूर्णको सर्वमेतत्समाहृत्य मध्वाज्ये गुटिकाः शुभाः। मिश्रीयुक्त दूधके साथ फांकनेसे अत्यन्त वीर्यवृद्धि छर्घपस्मारमुन्मादवातरोगांश्च दुस्तरान् । और बहुसंख्यक स्त्रियोंसे रमण करनेकी शक्ति कासं श्वासं क्षयं हिक्कां दुर्नामश्च प्रमेहकम् । प्राप्त होती है। पित्तज्वरारुचिञ्चैव तिमिरं चक्षुरामयम् ।। (४४३५) पोटलीरसः गलरोगेषु सर्वेषु कर्णस्तम्भं हरेछुवम् ॥ (र. र. स. । अ. १६) ___ शुद्ध गन्धक, कसीस, पारद, सिंगरफ, महुकपर्दतुल्यं रसगन्धकल्क वेके फूल, गिलोय, संभलकी मूसली, धनिया, चिरालोहं मृतं टङ्कणकं च तुल्यम् । यता, देवदारु, तुम्बुरु, तिल, मूंग, पटोल, जयारसेनैकदिनं विमर्य मुनक्का, पेठेकी भस्म, पियाबांसा, घीकुमार, भारंगी चूर्णेन सम्पेष्य पुटेत भाण्डे ॥ खरैटी और कंघी समान भाग लेकर प्रथम पारे ददीत तां पोटलिकां च दोष गन्धककी कज्जली बनावें फिर उसमें अन्य चीजों ___ त्रयप्रधानग्रहणीनिवृत्यै ॥ का महीन चूर्ण डालकर सबको आवश्यकतानुसार कौड़ीभस्म ५ तोले, शुद्ध पारा और गन्धक | घी और शहदमें घोटकर (१-१ माशेकी) गोलियां २॥ २॥ तोले, लोहभस्म ५ तोले तथा सुहागेकी | बना लें । खील ५ तोले लेकर सबको १-१ दिन जयाके इनके सेवनसे छर्दि, अपस्मार, उन्माद, वातरस और चूनेके पानीमें घोटकर शरावसम्पुटमें | रोग, खांसी, स्वास, क्षय, हिचकी, अर्श, प्रमेह, बन्द करके भाण्डपुटमें पकावें । पित्तज्वर, अरुचि, तिमिर, नेत्ररोग, गलरोग औ इसके सेवनसे त्रिदोषज संग्रहणी नष्ट होती है। । कर्णस्तम्भ का अवश्य नाश हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५०६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - (४४३७) प्रचण्डरस: [ शुद्ध हरताल, शुद्ध पारद, लोहभस्म, सुहागेकी (नवज्वरविनाशनरसः) खील; खपरियाभस्म, सज्जीक्षार, मजीठ और ( भै. र.; र. चि.; र. रा. सु.; वै. क. द्रु. । शुद्ध हिंगुल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक स्क. २ ज्वर.) की कजली बनावें फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको १-१ दिन संभालू और अमृतं पारदं गन्धं मर्दयेत् महरद्वयम् । सिन्धुवाररसैः पश्चाद्भावयेदेकविंशतिम् ।। हाथी सुण्डीके रसमें घोटकर गोला बना लें और तिलप्रमाणं दातव्यं नवज्वरविनाशनम् । उसे आतशी शीशीमें डालकर आठ पहर बालुका यन्त्रमें पकावें । तदनन्तर शीशीके स्वांग शीतल उद्वेगे मस्तके तैलं तक्रं चापि प्रदापयेत् ॥ होने पर उसमें से रसको निकाल कर पीस लें । शुद्ध मीटा तेलिया, शुद्ध पारा और शुद्ध इसमें से १ रत्ती रस अद्रकके रसके साथ गन्धक समान भाग लेकर कजली करके उसे २ | देनेसे सन्निपात ज्वर नष्ट होता है । पहर तक घोटें तत्पश्चात् संभालके रसकी २१ (४४३९) प्रतापमार्तण्डो रसः भावना दें। ( भै. र.; र. रा. सु.; र. सा. सं. । ज्वर. ) इसमें से १ तिलके बराबर रस देनेसे नवीन विपहिङ्गलजैपालटङ्गणं क्रमवदितम् । ज्वर नष्ट होता है। इसके खानेके प.चात् यदि बेचैनी हो तो रसः तापमार्तण्डः सद्यो ज्यरविनाशनः ।। शिरपर तैलकी मालिश करानी और तक पिलाना शुद्ध बछनाग १ भाग, शुद्ध हिंगुल (शिंगचाहिये। रफ ) २ भाग, शुद्ध जमालगोटा ३ भाग और ( अनुपान--शहद । ) मुहागेकी खील ४ भाग लेकर सबको एकत्र पीस कर रक्खें । (४४३८) प्रतापतपनो रसः इसके सेवनसे ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो (र. रा. सु.; भै. र. । यर.) जाता है। गन्धकं हिङ्गलं तालं मृतकं लौहटङ्गणम् । ( मात्रा...-: रत्ती) खपरं साचिकाक्षारं मनिष्ठां हिङ्गलं समम् ।। (४४४०) प्रतापलङ्केश्वररमः (१) रसेन मदितं पिण्डं निर्गुण्डीहस्तिशुण्डयोः । (र. र. स. । अ. २० कुष्ट.) अष्टयामं पचेत् कूप्यां निरुध्य सिकताहये । विपादिकानं रसगन्धटङ्कणं ततः सिद्धं समादाय रक्तिकामाईकेन च ॥ सताम्रकुष्ठायसपिप्पलीरजः। सन्निपातविनाशाय प्रतापतपनो रसः ॥ विमर्दितं काञ्चनपत्रवारिणा शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल ( शिंगरफ), प्रतापलङ्केश्वरसज्ञको रसः॥ For Private And Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । रसप्रकरणम् ] शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, ताम्रभस्म, कूठ, लोहभस्म और पीपल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनायें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको कचनार के पत्तों के रसमें घोटकर सुरfor tra | [५०७ ] दिनं विमर्दयित्वाऽथ रक्षयेत्कूपिकान्तरे । गुजैकं वह्निनीरेण शृङ्गवेररसेन वा ।। प्रदद्याद्रोगिणे तीव्रमोहविस्मृतिशान्तये । शस्त्रेण तालुमाहत्य मर्दयेदाईनीरतः ॥ नोटन्ते यदा दन्तास्तदा कुर्यादमुं विधिम् । सेचयेन्मन्त्रयित्वाऽथ धारां कुम्भशतैर्मुहुः ॥ है । ( मात्रा --- ४ रत्ती | ) इसके सेवन से विपादिकाका नाश होता भोजनेच्छा यदा तस्य जायते रोगिणस्तदा । दयोदनं सितायुक्तं दद्यात्तक्रं सजीरकम् ॥ पाने पानं सितायुक्तं यदीच्छति तदा ददेत् । एवं कृते न शान्तिः स्यात्तापस्य रसजस्य च ॥ सचन्द्रचन्दनरसालेपनं कुरु शीतलम् । तूलिकामलिका जातीपुन्नागवकुलावृताम् ।। विधाय शय्यां तत्रस्थं लेपयेचन्दनैर्मुहुः । हावभावविलासोक्तिकटाक्षचञ्चलेक्षणैः ॥ पीनोत्लुङ्गकुचोत्पीडैः कामिनीपररम्भणैः । रम्यवीणा निनादाद्यैनैिः श्रवणामृतैः ॥ पुण्यश्लोक पुराणानां कथासंभाषणैः शुभैः । एभिः प्रकारैस्तापस्य जायते शमनं परम् ॥ वर्जयेन्मैथुनं तावद्यावन्नो बलवान् भवेत् । दद्याद्वातादिरोगेषु सिन्धुगुग्गुलुवह्निभिः || दद्यात्कणामा क्षिकाभ्यां कामलाक्षयपाण्डुषु । तत्तद्रोगानुपानेन सर्वरोगेषु योजयेत् ॥ अयं प्रतापलङ्केशः सन्निपातनिकृन्तनः ।। (४४४१) प्रतापलङ्केश्वररसः (२) (र. मं. । अ. ६; र. रा. सु. । ज्वरा. ) अपामार्गस्य मूलस्य चूर्ण चित्रकमूलजैः वल्कलैर्मर्दयित्वा च रसं वस्त्रेण गालयेत् तेन मूतसमं गन्धमभ्रकं दरदं विषम् । टङ्कणं तालकं चैत्र मर्द्दयेद्दिनसप्तकम् || त्रिदिनं मुशलीकन्दैर्भावयेदूधर्मरक्षितम् । मूषां च गोस्तनाकारामापूर्य परिकयेत् ॥ सप्तभिर्मृत्तिका वस्त्रैर्वेष्टयित्वा पुटेलघु रसतुल्यं लोहभस्म मृतं बङ्गमहिस्तथा ॥ मधूकसारजलद रेणुका गुग्गुलुः शिला । चव्यकं च समांशं स्याद्भागार्द्धं शोधितं विषम्॥ तत्सर्वं मयेत्खल्वे भावयेद्विषनीरतः । आतपे सप्तधा ती मर्दयेद्घटिकाइयम् ॥ कदुकत्रयकपायेण कनकस्य रसेन च । फलत्रयकपायेण मुनिपुष्परसेन च ॥ समुद्रफलनीरेण विजयावारिणा तथा । चित्रकस्य कषायेण ज्वालामुख्या रसेन च ॥ प्रत्येकं सप्तधा भाव्यं तद्वत्पिष्टश्च भावयेत् । सर्वस्य समभागेन विषेण परिधूपयेत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ( चिरचिटे) की जड़के चूर्णको चीतामूलकी छाल स्वरस में घोटकर उसे कपड़े में डालकर निचोड़कर रस निकालें | तत्पश्चात् पारा, गन्धक, अभ्रक भस्म, हिंगुल ( शिंगरफ), बनाग, सुहागेकी खील और हरताल १ - १ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें, फिर For Private And Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः । [५०८] उसमें अन्य ओषधियोंका अत्यन्त महीन चूर्ण | मिलाकर सबको उपरोक्त रसमें सात दिन खरल करें फिर मूसलीके रस में धूपमें ३ भावना दें | तदनन्तर उसे गोस्तनाकार मूपामें रखकर उसका मुख बन्द करके उसपर ७ कपरमिट्टी करदें और फिर उसे सुखाकर लघुपुटमें फूंक दें । [ पकारादि यदि इतना करने पर भी औषधी गरमी शान्त न हो तो चन्दनके पानी में कपूर मिलाकर उसके शरीर पर लेप करें तथा रुई, मोगरा, चमेली, पुन्नाग और मौलश्रीके फूल चारपाई पर बिछाकर उस पर रोगीको लिटा दें और उसके शरीर पर बार बार चन्दनका लेप करते रहें। इसके अतिरिक्त सुन्दरी युवतिके आलिंगन, वीणाके मधुर स्वर, गायन और मनोहर धर्मकथाओंके श्रवणसे भी ताप कम हो जाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसके बाद उसमें पांके बराबर लोहभस्म, बंगभस्म, सीसाभस्म, महुवेका सार, नागरमोथा, रेणुका, गूगल, मनसिल और चयका चूर्ण तथा पारसे आधा शुद्ध नागका चूर्ण मिलाकर सबको बछनागके स्वरस या काथसे तेज धूपमें ७ भावना दें । तदनन्तर उसे २ घड़ी तक खरल करनेके बाद त्रिकुटे काथ, धतूरे के रस, त्रिफलाके काथ, अगस्ती ( अगथिया स्वरस, समन्दरफलके काथ, भांग स्वरस या काथ, चीतामूलके काथ और कलिहारीके स्वरसमें ७-७ बार घोटकर उसे उस सबके बराबर विषकी धूप देकर रक्खें । ज्वरके रोगीको ज्वर जानेके बाद भी अच्छी तरह बल आने तक स्त्रीप्रसंगसे बचना चाहिये । | इसे वाया सेंधानमक, गूगल और चंतिके 'चूर्णके साथ तथा कामला पाण्डु और क्षय में पीपल चूर्ण और शहद के साथ सेवन करना चाहिये । यदि सन्निपात में संज्ञानाश और विस्मृति हो ता इसमेंसे ? रत्ती रस चीतामूलके काथ या अदरक के रसके साथ देना चाहिये । | यदि रोगी की बाड़ी बन्द हो तो उसके ताक से जरा एक खुरचकर उस पर यह रस अदरक के रस में मिलाकर मलना चाहिये। इससे उसे होश आ जायगा । यदि उस विधि से भी होश न आवे तो रोगी के मस्तक पर मन्त्रपूत १०० घड़े शीतल जल धार बांधकर छोड़ें। और होश आने पर रोगीको भूख लगे तो उसे दही भात और खांड अथवा जीरका चूर्ण मिलाकर तक दें । प्यासमें मिश्रीका शरबत पिलायें । यह रस सन्निपातको तो नष्ट करता ही है पर साथ हो रोगोचित अनुपान के साथ देनेसे अन्य • समस्त रोगोंको भी नष्ट करता है 1 (४४४२) प्रतापलङ्केश्वररस: (३) ( वृ. यो त । त. १४२; यो. र. र. चं । सृतिका ; यो त । त. ७५ ) एकेन्दुचन्द्रानवाधिदन्ती कलैकभागं क्रमशो विमिश्रम् । मृताभ्रगन्धोपणलोहशङ्ख वन्योत्पलाभस्मविषं च पिष्टम् ॥ प्रभूतिवातेऽनिलदन्तबन्धे सार्द्राम्भसा वल्लममुष्य लिह्यात् । For Private And Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५०९] वातामये श्लेष्मगदेऽसि स्यात शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सेट, मिर्च, पीपल, पुरामृतात्रिफलायुतोऽयम् ॥ शुद्ध बछनाग, कनेरको जड़, कायफल, अकरकरा, सशृङ्गबेरद्रव एष हन्ति जावत्री और जायफल समान-भाग लेकर प्रथम ससन्निपातं ज्वरमुग्ररूपम् । पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें निजानुपानैनिजपथ्ययुक्तः अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर सबको सर्वातिसारान् ग्रहणीविकारान् ॥ चित्रकके काथ और अदरकके रसमें ३-३ भावना 'प्रतापलङ्केश्वर' नामधेयः देकर सुरक्षित रखें। मूतः प्रयुक्तो गिरिराजपुत्र्या ॥ इसके सेवनसे वातादि सर्व दोषज पाण्डुका शुद्ध पारा, अभ्रकभस्म, शुद्ध गन्धक और नाश होता है। शुद्ध बछनागका चूर्ण १-१ भाग, कालीमिर्चका (मात्रा-६ रत्ती) चूर्ण ३ भाग, लोहभस्म ४ भाग, शंखभस्म ८ भाग और अरने उपलांकी भस्म १६ भाग लेकर (४४४४) प्रतापाग्निकुमाररस: प्रथम पार गन्धककी कञ्जली बनावें, फिर उसमें (यो. र. । वात.) अन्य ओपधियांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको | पारदं शुल्ब भस्म विषं मरिचनागरम् । एकत्र घोटकर सुरक्षित रक्खें । त्रिक्षारं पश्चलवणान्विमर्यादाईजैः ॥ इसमेंसे ३ रत्ती रस अदरकके स्वरसके साथ काचकूप्यन्तरे क्षिप्त्वा मृदा संलेपयेद्वहिः । देनेसे प्रसूतिवात, दन्तबन्ध और भयंकर सन्निपात; शनैर्मेद्वग्निना पाच्य बालुकायन्त्रके दिनम् ॥ तथा शुद्ध गूगल, गिलोयका रस, अदरकका रस स्वाङ्गशीतलमुद्धत्य दशांशं च विषं क्षिपेत् । और त्रिफलाके काथके साथ देनेसे वातव्याधि, | मूक्ष्मचूणे कृतं खल्वे गुञ्जामात्र प्रदापयेत् ।। कफरोग और अर्शका नाश होता है । सन्निपातानिहन्त्याशु आर्द्रकद्रवसंयुतः । ___ इसे यथोचित अनुपानके साथ सेवन करने प्रतापाग्निकुमारोऽयं सर्ववातहरः परः ॥ और पथ्य पालन करनेसे समस्त प्रकारके अतिसार पारदभस्म, ताम्रभस्म, शुद्ध बछनाग, कार्ल. और ग्रहणीविकार नष्ट होते हैं । मिर्च, सांठ, यवक्षार, सजीखार, सुहागा और पांचों नमक समान-भाग लेकर सबका महीन चूर्ण (४४४३) प्रतापलङ्कश्वरो रसः (४) बनाकर उसे १ दिन अदरख के रसमें घोटकर (र. का. धे. । पाण्डु. ८) कपड़मिट्टीकी हुई आतशी शीशीमें भरकर उसे १ रसगन्धकत्र्यूषणविषहयकट्फलकारभम् । दिन बालुकायन्त्रमें मन्दाग्नि पर पकावें । और फिर जातीफलदलं चित्राईजलत्रिकभावितम् ॥ शीशीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे रसको अयं प्रतापलङ्केशः सर्ववातादिपाण्डनुत् ॥ निकालकर उसमें उसका दसवां भाग शुद्र बछ For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५१०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि नागका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर रक्खें । मज़बूत हाण्डीमें रखकर उसके ऊपर एक प्याला इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार अदरकके रसके ढक दें और जोड़को अच्छी तरह बन्द करके साथ सेवन करनेसे सन्निपात ज्वर शीघ्र ही नष्ट हाण्डीमें मुंहतक अरने उपलेांकी राख दाब दाब कर हो जाता है। भर दें और उसके ऊपर थोडासा बारीक पिसा हुवा सेंधा नमक डालकर दबा दें । तदनन्तर इस (४४४५) प्रतिज्ञावाचको रसः हाण्डीको चूल्हेपर चढ़ाकर उसके नीचे १ दिन (र. प्र. सु. । अध्याय ८ ) अरने उपलेांकी मन्दाग्नि जलावें । यह ध्यान रखना शुद्धं सूतं भागमेकं तु तालाद् चाहिये कि हाण्डीमेंसे किसी जगहसे धुवां न द्वौ भागौ चेद्वेदसङ्ख्या शिलायाः । निकलने पावे । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल ताम्रस्यैवं भागयुग्मं प्रकुर्या होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर पानीके साथ भल्लातं वै वेदभागं तथैव ।। घोटकर गोला बनावें और उसे पहिलेकी भांति ही अर्कक्षीरैर्भावयेच त्रिवार हाण्डीमें रखकर एक दिन मन्दाग्नि पर पकावें । कृत्वा चूर्ण कारयेद्रोलकं तत् । जब हाण्डी म्यांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे स्थालीमध्ये स्थापितं तच्च गोल रसको निकालकर पीसकर सुरक्षित रखें। दत्त्वा मुद्रां भस्मना सैन्धवेन ॥ ___इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार खांड अथवा धूमस्यैवं रोधनं च प्रकुर्या पीपलके चूर्ण और शहदके साथ खिलानेसे सब __च्छाणैर्दद्यात् स्वेदनं मन्दवह्नौ । प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं। पश्चात्तोयेनैव भाव्यं च चूर्ण (४४४६) प्रतिमेषरसः गोलं कृत्वा मन्दवह्नौ विपाच्य । (र. र. स. । अ. २५) पश्चादेनं भक्षयेद्वै रसेन्द्रं ब्राह्मीपलाशयोः काथे रीतिपत्रं विनिक्षिपेत् । वल्लं चै शर्कराचूर्णमिश्रम् । दिनद्वयं ततस्तानि पुनस्तेनैव घर्पयेत् ।। तद्वत्कृष्णामाक्षिकेणैव जूति लघुभाण्डे समादाय चूर्ण कुष्माण्डवारिणा । हन्यादेतत्सर्वदोषोत्थितां वै ॥ | महत्रिवारं कुर्वीत पुटं ककुभवारिणा ॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध हरताल २ भाग, | मर्दयित्वा पुटं दद्यादजामूत्रेण भावयेत् । शुद्ध मनसिल ४ भाग, ताम्रभस्म २ भाग और ततोऽप्येकं पुटं दत्त्वा तिस्रस्त्रिकटुभावना ॥ शुद्ध भिलावा ४ भाग लेकर भिलावेको कूटकर | अमर्यजाविडङ्गाऽनिगोजलैरथ भावितः । उसमें अन्य ओषधियोंको एकत्र घोटकर मिला दें। प्रतिमेपः सुसंसिद्धो रसो वल्मीकमृद्रसैः ।। फिर उसे आकके दृधकी ३ भावना देकर उसका बल्लत्रयमितो देयो वल्मीके तस्य मृत्स्न्या । एक गोला बनावें और उसे कपडमिटीकी हुई एक वल्मीकं संविलिप्यैतत्कृमिसङ्घप्रशान्तये ॥ For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५११] - शुद्ध पीतलके कण्टकबेधी पत्रांको ब्राह्मी और (४४४८) प्रदान्तकलोहम् पलाशके काथमें २ दिन तक डाले रहें और फिर (र. सा. सं.; र. रा. सु. । प्रदर.) उसीमें घोटकर गजपुटमें फूंकें । जब तक भस्म लौहं तानं हरितालं वंगमभ्रं वराटिका । न हो जाय इसी प्रकार पुट देते रहें । तदनन्तर | त्रिकटु त्रिफला चित्रं विडङ्ग पटुपञ्चकम् ॥ उसे पीसकर पेठेके रसमें घोटकर ३ पुट दें; फिर चविका पिप्पली शङ्ख वचा हवुषपाकलम् । १-१ पुट अर्जुनके काथ और बकरीके मूत्रमें | शटी पाठा देवदारु एला च वृद्धदारकम् ।। घोटकर दें। फिर उसे ३ भावना त्रिकुटेके काथकी एतानि समभागानि सञ्चूर्ण्य वटिकां कुरु । और १-१ भावना दुब, अजा ( ओषधि विशेष), शर्करामधुसंयुक्तां घृतेन भक्षयेत्पुनः॥ वायबिडंग, चीता और गोमूत्रकी देकर चूर्ण करके रक्तं श्वेतं तथा पीतं नीलं प्रदरं दुस्तरम् । रक्खें। कुक्षिशुलं कटिशूलं योनिशूलश्च सर्वजम् ।। ___ इसे ९ रत्तीकी मात्रानुसार दीमककी मिट्टीके | मन्दानिमरुचि पाण्डुं कृच्छ्रश्वासञ्च कासनुत् । पानीके साथ खिलाने और उसी मिट्टीका लेप आयुःपुष्टिकरं बल्यं बलवर्णप्रसादनम् ॥ करनेसे कृमियुक्त बल्मीकरोग नष्ट हो जाता है। लोहभस्म, ताम्रभस्म, शुद्ध हरताल, वंगभस्म, ( व्यवहारिक मात्रा २-३ रत्ती।) अभ्रकभस्म, कौड़ीभस्म, सेट, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, चीतामूल, बायबिडंग, पांचों नमक, (४४४७) प्रतिश्यायहरो रसः चव, पीपल, शंख भस्म, बच, हाऊबेर, कुठ, कचूर, (रसेन्द्रमं. । प्रतिस्याये) पाठा, देवदार, इलायची और विधारा; सब चीजें समान-भाग लेकर एकत्र घोटकर (१-१ माशेकी) सुलभासमगन्धकमूतवरं गोलियां बना लें। गिरिकणिरसे कृतमर्दनकम् । इन्हें शकर, शहद और घीके साथ मिलाकर चपलारसशुण्ठिरसैखिदिनं सेवन करनेसे लाल, सफेद, पीला और काला मृदितं घणघोणरुजातिहरम् ॥ दुस्साध्य प्रदर तथा कुक्षिशूल, कटिशूल, सर्वदोषज १-१ भाग शुद्ध पारे और गन्धककी कजली योनिशूल, मन्दाग्नि, अरुचि, पाण्डु, मूत्रकृच्छ, में १ भाग तुलसीका वर्ण मिलाकर उसे कोयलके श्वास और खांसीका नाश होता तथा आयु, पुष्टि ग्स और पीपल तथा मटके कायमें 3-3 दिन और बलवर्णकी वृद्धि होती है। घोटकर मुरक्षित बग्ने । (४४४९) प्रदान्तको रस: (भै. र. र. चं.; र. सा. सं.; र. र.; ध.; र. रा. इसके सेवनसे प्रवृद्ध नासारोग भी नष्ट हो | सु. । प्रदरा.; रसें. चि. म. । अ. ९) जाता है। शुद्धमूतं तथा गन्धं शुद्धवङ्गकरूप्यकम् । (मात्रा--३ रत्ती ।) खर्परञ्च वराटश्च शाणमानं पृथक् पृथक् ॥ For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि तोलकत्रितयं चैव लौहचूर्ण क्षिपेत्सुधीः। । (४४५१) प्रदरारिलोहम् कन्यानीरेण सम्म दिनमेकं भिषग्वरः ॥ (भै. र.; धन्व. । स्त्रीरो.) असाध्यं प्रदरं हन्ति भक्षणान्नात्र संशयः॥ वत्सकस्य तुलां सम्यग्जलद्रोणे विपाचयेत् । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, वंगभस्म, चांदी । अष्टभागावशिष्टन्तु कषायमवतारयेत् ॥ भस्म, खपरियाभस्म और कौड़ीमस्म ५-५ माशे | वस्त्रपूते घनीभूते द्रव्याणीमानि दापयेत् । तथा लोहभस्म ३॥ तोले लेकर प्रथम पारे गन्धक | समगां शाल्मलं पाठां बिल्वं मुस्तश्च धातकीम। की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे / अरुणां व्योमकं लौहं प्रत्येकन्तु पलंपलम् । मिलाकर सबको १ दिन ग्वारपाठा ( घीकुमार) | माषद्वयं प्रयुञ्जीत कुशमलपयो ह्यन । के रसमें धोटकर (३-३ रत्तीकी) गोलियां श्वेतं रक्तं तथा नीलं पीतं प्रदरं दस्तरम् । बना लें। कुक्षिशूलं कटिशूलं देहशूलश्च सर्वगम् ॥ इनके सेवनसे असाध्य प्रदर भी निस्सन्देह | प्रदरारिरय लोहो हन्ति रोगान् मुदुस्तरान् । नष्ट हो जाता है। आयुःपुष्टिकरश्चैव बलवर्णाग्निवद्धनः॥ ६। सेर कुड़ेकी छालको ३२ सेर पानीमें (४४५०) प्रदरारिरसः ( प्रदररिपु ). पकावें और ४ सेर पानी शेष रहने पर छानकर ( र. चं.; वैद्य र.; यो. र. । प्रदर.; वृ. यो. त. ।। उसे पुनः पकाकर गाढ़ा करें और फिर उसमें त. १३५; वृ. नि. र. । स्त्रीरो.) मजीट, मोचरस, पाठा, वेलगिरी, नागरमोथा, धायरसं गन्धं सीसं मृतमिति समं तैस्तु रस । केफूल और अतीसका चूर्ण तथा अभ्रकभस्म और समानं सर्वैः स्यात्तुलितमपि लोधं वृषरसैः॥ | लोहभस्म ५-५ तोले मिलाकर २-२ माशेकी गोलियां बनालें। दिनं पिष्टं नाम्ना प्रदररिपुरेपोऽपहरति ।। द्विवल्लः क्षौद्रेण प्रदरमतिदुःसाध्यमपि च ॥ इन्हें कुशके काथके साथ सेवन करनेसे श्वेत लाल काला और पीला दुस्साध्य प्रदर, कुक्षिशूल, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और सीसाभस्म कटिशूल और शरीरकी पीडाका नाश होता तथा १-१ भाग तथा रसौत ३ भाग और लोधका आयु, बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है । आय. बल महीन चूर्ण ६ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी प्रदीपनरसः कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका (र. सा. सं.) " राजवल्लभरस ” देखिये चूर्ण मिलाकर सबको १ दिन बासा (अडूसा) (४४५२) प्रभाकरवटी के रसमें घोटकर ६--६ रत्तीकी गोलियां बनालें । ( भै. र. । हृद्रोगा.) इन्हें शहदके साथ सेवन करने से दुःसाध्य | माक्षिकं लौहमभ्रश्च तुगाक्षीरी शिलाजतु । प्रदर भी नष्ट हो जाता है। क्षिप्त्वा खल्लोदरे पश्चाद् भावयेत् पार्थवारिणा ॥ For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तमकरणम् ] हतीयो भागः। [५१३] - - - राजाइयमिता र्याद वटी छायाविशोषिताम् । (४४५४) प्रभावतोगुटिका (वृकोदरीवटी) प्रभाकरवटी सेयं द्रोगान् निखिलान् जयेत् ॥ (र. चं.; र. रा. सु.; र. र. स. । वातरो.) स्वर्णमाक्षिक भस्म, लोहभस्म, अभ्रकभस्म, | सूतगंधकतीक्ष्णाभैः सताप्यैः समभागिकैः । बंसलोचन और शिलाजीत समान भाग लेकर | रसांशमपरं सर्वं षट्कोलं जीरकद्वयम् ॥ सबको एक दिन अर्जुनकी छाल के रसमें घोटकर | सौवर्चलं च सिन्धत्थं विडङ्गं च हरीतकी । २-२ रत्तीकी गोलियां बना कर छाया में सुखालें। अम्लवेतसकं सर्व बीजपूराम्लमर्दितम् ॥ इसके सेवनसे हृद्रोग नष्ट होते हैं। | गुटिकास्तेन कल्केन कार्याः कोलास्थिमात्रिकाः योगिन्या बहुधातिनामयुतया त्रैलोक्यविख्या(४४५३) प्रभावतीगुटिका तया ॥ (२. चि. म. । स्तब. ९) निर्दिष्टा हि वृकोदरीति गुटिका सोष्णाम्भुना सेविताः। यवचूर्णमतिश्लक्ष्णं वब्रीदुग्वेन संयुतम् । निःशेषानिलदोषरोगजरुजः श्लेष्मामरोगोद्भवम्।। शुदजैपालसञ्चूर्ण विभागमरिचान्वितम् ॥ | न्वितम् ।। | मन्दानि ग्रहणी चतुर्विधमहाजीर्ण च तूर्ण बिमर्थ गुटिकाः कार्याष्टकमाषाश्च शोषिताः। . जयेत् ॥ एकैच दीयते साकं शुभरखण्डेन रेचने ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, तीक्ष्णलोहभस्म, निहन्ति सोदरानष्टो गुल्मप्लीहादिकान्गदान् । अभ्रकभस्म और सोनामक्खीभस्म तथा पीपल, अचिरेणैव वेगेन नरं सारयते ध्रुवम् ।। पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, कालीमिर्च, दोनों पातयेदामदोष पित्तरोगं भिनत्यसो। जीरे, सञ्चल ( काला नमक ), सेंधा नमक, बायपाषाणमपि दुर्भे भिनत्येष प्रभावती॥ बिडंग, हर्र और अम्लबेतका चूर्ण समान भाग बारीक जौका आटा, थूहरका दूध और शुद्ध लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और जमालगोटा १-१ भाग तथा कालीमिर्चका चूर्ण | फिर उस फिर उसमें अन्य ओपधियांका चूर्ण मिलाकर ३ भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर १-१ टक | सबको बिजौरके रसमें घोटकर बेर के बराबर गोलियां बनाकर सुखाले । की गोलियां बनावें। __इन्हें गरम पानीके साथ सेवन करनेसे समस्त ( व्यवहारिक मात्रा--३ रत्ती।) | वातजरोग, कफजरोग, आमविकार, मन्दाग्नि, ग्रहणी इनमेंसे १ गोली मिश्रीके साथ देनेसे शीघ्र | और अजीर्णका नाश होता है। ही वेगपूर्वक विरेचन होकर आम निकल जाती हैं। (४४५५) प्रमदानन्दो रसः (१) और उदररोग, गुल्म, प्लीहा तथा पित्त रोगोंका | ( आ. वे. वि. । जरायु. अ. ७९) नाश हो जाता है । यह गोलियां पत्थरके समान | अयो रौप्यं तथा हेम रसं गन्ध शिलाजतु । कठिन मलको भी तोड़कर निकाल देती हैं। 'बहिद्रवेण सम्मघ रक्तिमाना वटीश्वरेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५१४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि नानासौ प्रमदानन्दो रसो ह्याशु विनाशयेत् ।। पीपल, जायफल, शुद्ध हिंगुल (शंगरफ), त्रिफलातोययोगेन सञ्जिरायुजान् गदान् ॥ सुहागेको खील, कौड़ीभस्म, शुद्ध बछनाग, शुद्ध जरायुरोगिणी नारी न च सेवेत पूरुषम् ।। धतूरेके बीज और सॉटका महीन चूर्ण लेकर सबको न खादेदुग्रवीर्याणि नापि कुर्यादतिश्रमम् ॥ | एकत्र मिलाकर १-१ पहर नीबू, धतूरा और लोहभस्म, चांदीभस्म, स्वर्णभस्म, शुद्ध पारा, भंगरेके रसमें घोटकर सुखाकर चूर्ण करके शुद्ध गन्धक और शिलाजीत समान भाग लेकर | रक्खें । प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और फिर इसे मिश्रीके साथ सेवन करनेसे भयङ्कर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको चीतेके काथमें प्रमेह, ग्रहणी, कफ, वातशूल और मधुमेहका घोटकर १-१ रतीकी गोलियां बना लें। नाश होता तथा वीर्य और कामशक्तिकी वृद्धि इन्हें त्रिफलाके काथके साथ देनेसे स्त्रियोंके होती है । समस्त जरायुरोग नष्ट हो जाते हैं। । (४४५७) प्रमदेभानुशरसः जरायु रोगसे पीड़ित स्त्रीको पुरुषसमागम, (वृ. यो. त. । त. १४७) उपवीर्य पदार्थ और अति परिश्रमसे बचना विशुद्धो रसो मासमुन्मत्ततैले चाहिये। दशाहानि तैले तथोपर्बुधेषु । (४४५६) प्रमदानन्दो रसः (२) विपाच्योऽहनिशं तच तैले (वृ. यो. त. । त. १४७ ) पलं जीयते तत्समो गन्धनामा । कणाजातिज हिलं टङ्कणं च कृतां कज्जलिं तां विनिक्षिप्य कूप्यां वराट विष हेमवीनं च विश्वम् । मृदुस्वर्णपत्राणि सूताष्टमांशात् । भृशं मर्दयेनिम्बुनीरेण याम ततो भस्मसादर्कयामं विधाय तथा धूर्ततोयेन भृशीरसेन ॥ स्वशीतं समादाय सिन्दूरकल्पम् ।। अद्रभे च मेहे विकारे ग्रहण्यां यह खाखसलक्कपार्यविमर्थ कफे वातशूले मृतौ खण्डमेहे। यह वैजयौर्जातिसारैदिनैकम् । मशस्तः सितासेवितः शुक्रकारी तथा कोकिलाक्षस्य घर्स कपायरसः सर्वदाऽऽनन्दनामा प्रसिद्धः॥ विदार्याथ भूमौ क्षिपेद्गोलकं तम् ।। चपलानवयौवनभिन्नमदा मृदा द्वयलोन्मानयाच्छाध पश्चाममदाशतदर्पहरः सहसा। दरण्योपलद्वन्द्ववन् िविधाय । कथितो भृगुणा मुनिना शतशो | मुशीतं मृदुस्वेदमात रसेन्द्र ऽनुमितो रसिके रसराजपरः ॥ गृहीत्वा ततो भागमानं वदामः॥ For Private And Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम्] तृतीयो भागः। [५१५] रसादचोमवैकान्तजातीपसून पठित्वा च पञ्चाक्षरं मन्त्रराज लवा द्विभार्ग त्रिमागं भुजङ्गम् । कुमारीश्च यन्त्राणि च पूजयित्वा । सितं कान्तमस्म विर्ष केसराख्यं निषेवेत पूर्वोक्तरीत्या रसेन्द्र त्रिजातं तथा बङ्गभस्म समस्तम् ॥ निषवेदसौ कामिनीसङ्गमं च ॥ अहे:फेनतापीजयोरर्धभागं त्रिदोषघ्न एषोऽवलागर्वहारी विमर्थाथ याम मरुद्भूप्रसूनैः । वशीकार्यकारी महास्तम्भकारी। विदारीवरावासकैर्नागवल्ली सदा ध्वजोत्थानकारी नराणां बलाशाल्मलीमर्कटीमूलजातैः॥ ___ तथा पातकारी न चार्वाक च कारी॥ पयोभिश्च गोधाङ्किरम्भासमुत्थैः यधेकरात्रादपि नूत्नयोपा शताहासहादीप्यमुण्डीसमुत्यैः । सङ्गाच्च्युतं वीर्यबलाद्विरिच्यते । महापत्रिकायष्टिहस्तिद्रवैश्च तथाऽपि तुल्यो द्रवकालयुक्तेविभाव्य त्रिवार ततो गोलमस्य । स्तेजोवलं नैव जहाति किञ्चित् ।। दिन स्वेदयेत्वाखसत्वकषायै- रसमेनं सेवयित्वा न सेवेत स्त्रियं यदि । निषध्याम्बरे दोलिकायन्त्रमध्ये।। निर्गच्छेन्नेत्रयोवीय नेत्रनाशस्तदा भवेत् ॥ अकूपारशोषस्य तैलेन भान्यो । नाझं शैथिल्यभावं ब्रजति न च कटिद्विवार तथा स्वर्णवीजस्य तैलैः ।। स्त्रुट्यते तस्य कान्तितथा वैजयैातिसारस्य तैलै हेमाभा जायतेऽष्टादशविधमतुलं दिवारं विभाव्योऽथ गोलं निबध्य । नाशमेति प्रमेहम् ।। ततो मृत्पटैस्त्रिर्धराधारयन्त्रे नष्टं वीर्य प्रपन्नं प्रभवति यदि पुमान् पवेत्पूर्ववत्स्वाशीतं ततत्रिः ॥ सेवते रम्यकान्तां, उधीरेण भाष्यः सुगन्धेन तद्व पण्ढो वा बाजितुल्यो जनयति च महा तथाजोगकेनाथ कस्तूरिकाद्भिः। वाजितुल्यांश्च पुत्रान् । विमान्य शिवद्विट्कुचाद्भिः शिफाली- एन रसं च प्रमदा निषेवेत् द्रवैः शातपत्रोद्भवैः सिद्ध एपः॥ __ कुमारितुल्याऽऽप्तवयाऽपि सा स्यात् तमेनं स्वतूयाँशकर्पूरयुक्तं एतद्रसास्वादनतः पुमान्स्तां निषेवेत बल्लद्वयं वाऽस्य मात्रा। युवाऽपि यातुं न समर्थ एव ।। सवा सितापुष्पसारोऽनुपानं गर्भाशयगतान्दोपान्दन्ति वातकफोद्भवान् । हितं क्षीरपानं विवर्योऽम्लवर्गः॥ । प्रमदेभानुशो नाम रसराजः सुसिद्धियः ।। For Private And Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५१६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - - शुद्ध पारेको १ मास तक रातदिन निरन्तर | त्रिफला, बासा, पान, बला (खरैटी ), सेभलकी धतूरेके तैलमें और १० दिन लाल चीतेके तैलमें | भूसली, कांचकी जड़, गोदुग्ध, लज्जाल, केलेकी पकावें । अग्नि इतनी होनी चाहिये कि जिससे | जड़, सौंफ, घृतकुमारी, अजमोद, गोरखमुण्डी, १ दिन रातमें ५ तोले तेल जल जाय । तत्पश्चात् | नागबला, मुलैठी और हाथीके मदमें घोटकर गोला उस शुद्ध पारे में उसका आठवां भाग सोनेके वर्क | | बनावें । और उसे कपड़ेमें बांधकर दोलायन्त्र मिलाकर इतना घोटें कि वर्क पारेमें मिल जायं । विधिसे १ दिन पोस्तके डोदेके काथमें पकावें। फिर उसमें पारेके बराबर गन्धक मिलाकर कज्जली तदनन्तर उसे २-२ दिन समुद्रशोषके तेल, बनावें और उसे आतशी शीशीमें डालकर मकर- | धतूरेके बीजेकि तैल, गांजेके बीजेकि तैल और प्वज बनानेकी विधिके अनुसार १२ पहर बालुका जायफलके तैलमें घोटकर गोला बनावें और उसपर यन्त्रमें पकावें । एवं बालके बिल्कुल शीतल हो | तीन कार मिट्टी करके पहिलेकी भांति हो गढ़ेमें जाने पर उसमें से शीशीको निकालकर उसे साव- रखकर २ उपलेकी अग्निमें स्वेदित करें । और धानी पूर्वक तोड़कर उसमें से सिन्दूरके समान फिर स्वांग शीतल होने पर निकालकर उसे खस, लाल रंगके रसको निकाल लें। त्रिसुगन्ध, (दालचीनी, इलायची, तेजपात ), इसे पीसकर ३ दिन पोस्तके डोदेके काथमें, अगर, कस्तूरी, केतकी, हारसिंहार और कमलके ३ दिन भांगके बीजेकि तेलमें और १ दिन जाय- स्वरस या काथमें ३-३ दिन घोटकर सुरफलके तेल में एवं १-१ दिन ताल मखाने और | क्षित रक्सें। बिदारी कन्दके रसमें घोटकर गोला बनावें और | इसमें से ६ रत्ती औषधमें १॥ रत्ती कपूर उसे अरण्ड आदिके पत्तों में लपेटकर भूमिमें गढ़ा और १॥ रत्ती लांगका पूर्ण मिलाकर मिश्री और खोदकर उसमें रख दें तथा गोलेपर २ अंगुल शहद के साथ खाकर ऊपरसे दूध पीना चाहिये। मिट्टी चढ़ा दें। और फिर उस पर २ अरने उपले इसके सेवन काल्में दूध अधिक पीना और रखकर उनमें आग लगा दें। | अम्ल पदार्थोसे परहेज करना चाहिये। तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर उसे निकाल कर पीस लें और उसमें अभ्रकभस्म, ___ यह रस त्रिदोष नाशक, कामिनी मदभजक, बैकान्तमस्म, जावित्री और लौंग २-२ भाग, | वशीकरण, अत्यन्त स्तम्भक, नपुंसकता नाशक और सीसाभस्म ३ भाग, चांदीभस्म, कान्तलोहमस्म, वाजीकरण है। शुद्ध बम्नाग, केसर, दालचीनी, इलायची, तेज- इसे सेवन करने वाले पुरुष, स्त्रीसमागम पात, बंगभस्म, अफीम और स्वर्णमाक्षिक भस्म करने पर भी बलहीन नहीं होते। आधा आधा भाग मिलाकर सबको १ पहर शंख- इसे सेवन करनेवाला पुरुष यदि बीसमागम पुष्पीके रसमें और ३-३ दिन विदारीकन्द, | नहीं करता तो उसके नेत्र बिगड़ जाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] हतीयो भागः। [५१७] - इसे सेवन करनेसे न तो कभी अङ्गों में । खादेवल्लाय प्रातः शीतं चानु पिबेजलम् । शिथिलता आती है और न कमर टूटती है। अष्टादशममेहांश्च जयेन्मासोपयोगतः ।। तथा शरीरकी कान्ति स्वर्णके समान दीप्तिमान तुष्टिं तेजो बलं वर्ण शुक्रवद्धिमनुत्तमाम् । हो जाती है। इसके अतिरिक्त यह रस समस्त प्रमे- अग्नेलं वितनुते मेहकुञ्जरकेसरी॥ हेको भी नष्ट करता है। दिव्यं रसायनं श्रेष्ठं नात्र कार्या विचारणा ॥ यदि इसे नपुंसक मनुष्य भी सेवन करे तो शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, अभ्रकवह भी अत्यन्त बलशाली सन्तान उत्पन्न करने में | भस्म, नाग (सीसा) भस्म, बंगभस्म, स्वर्णभस्म, समर्थ हो जाता है। हीराभस्म और मोतीभस्म समानभाग लेकर प्रथम यदि इसे वृद्धा स्त्री सेवन करे तो वह भी पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें युवतीके समान हो जाती है। अन्य औषधे मिलाकर सबको एक दिन शतावरके इसके अतिरिक्त यह रस गर्भाशयके वातज रसमें घोटकर गोला बना लें और उसे सुखाकर और कफज रोगोको भी नष्ट करता है। शरावसम्पुटमें बन्द करें एवं गढ़ेमें रखकर अरने (४४५८) प्रमेहकुठारो रसः उपलांकी आगमें पकायें । उपले इतने डालने (यो. त. । त. ५१; र. रा. सु. । प्रमेह.; वृ. चाहिये कि अग्नि ४ पहर में शान्त हो जाय । तत्पश्चात् सम्पुटके स्वांग शीतल हो जाने पर ___ यो. त. । त. १०३) उसमेंसे गोलेको निकाल कर खूब खरल करके चन्द्रकलावटी सं. १८८६ देखिये । शीशीमें भर लें। (४४५९) प्रमेहकुञ्जरकेसरीरसः __इसमें से नित्य प्रति ६ रत्ती दवा शीतल (र. चं. । प्रमेहा.) जलके साथ १ मास तक सेवन करनेसे १८ प्रका रके प्रमेह नष्ट हो जाते हैं। रसगन्धायसाभ्राणि नागवङ्गौ सुवर्णकम् । वनकं मौक्तिकं सर्वमेकीकृत्य विचूर्णयेत् ॥ यह रस उत्साह, तेज, बल, वर्ण, शुक्र और | अग्निकी वृद्धि करता है । तथा एक श्रेष्ठ रसाशतावरीरसेनैव गोलकं शुष्कमातपे। यन है। बुद्धा शुष्कं समुदत्य शरावे सुदृढे क्षिपेत् ।। । ( व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती । ) सन्धिलेपं मृदा कुर्याद्गर्ने च गोमयामिना। (४४६०) प्रमेहकुलान्तको रसः पुटेधामचतुःसल्यमुद्धृत्य स्वांगशीतलम् ॥ (मेहकुलान्तकः) श्लक्ष्णं खल्वे विनिक्षिप्य गोलं ते मर्दयेद (र. र.; र. का. धे. । प्रमेहा.) दृढम् । मृतं व मृत तुल्यं मृताभ्रं मृतकाविधा। देवब्राह्मणपूजाश कृत्वा धृत्वाऽथ कूपिके ॥ । लशुनं सर्वतुल्यांशं सर्वमेकत्र पेषयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५१८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - बदराभा वटी कुर्यात् प्रमेहस्य कुलान्तकः । । उसमें अन्य ओषधियांका महीन चूर्ण मिलाकर लशुनं छागमत्रेण वसामेही पिबेदनु॥ सबको १ दिन गोपालकर्कटी ( जंगली ककड़ी) पारदभस्म और वंगभस्म १-१ भाग तथा । के रसमें घोटकर ( १-१ माशेकी) गोलियां बना लें। अभ्रकभस्म ३ भाग और ल्हसन ५ भाग लेकर प्रथम ल्हसनको पीसकर महीन लुगदी बनावें और । इन्हें बकरीके दूध, पानी या आमलेके स्वरस फिर उसमें भस्में मिलाकर सबको अच्छी तरह । अथवा कुलथीके काथके साथ सेवन करनेसे २० घोटकर जंगली बेरके बराबर गोलियां बना लें। प्रकारके प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, हलीमक, अश्मरी, कामला, इनमेंसे नित्यप्रति १ गोली खाकर ऊपरसे पाण्डु, मूत्राघात और अरुचिका नाश होता है। बकरीके मूत्रमें ल्हसन पीसकर पीनेसे वसामेह नष्ट । (४४६२) प्रमेहकेतूरसः ( प्रमेहसेतुः ) होता है। (र. चि. ! अ. ९; र. चं; र. सा. ; । र. का. (४४६१) प्रमेहकुलान्तको रसः (२) धे.; र. रा. सु. । प्रमेह.) (मेहकुलान्तकः) मूतानं च वटक्षीरैमर्दयेत्महरद्वयम् । (भै. र.; धन्व. । प्रमेह.) | विशोष्य पक्वं मूषायां सर्वरोगे प्रयोजयेत्॥ मृतं वङ्गं मृतश्चाभ्रं शुद्धपारदगन्धकम् ।। विशेषान्मेहरोगेषु त्रिफलामधुसंयुतम् ।। भूनिम्बं पिप्पलीमूलं त्रिकटु त्रिफला त्रिवत् ॥ युञ्जीत वल्लमेकं तु रसेन्द्रस्यास्य वैद्यराट ॥ रसाधनं बिडङ्गाब्दबिल्वगोक्षुरदाडिमम् । पारदभस्म और अभ्रकभस्म बराबर बराबर प्रत्येक तोलकं ग्राहयं शुद्धमश्मजतोः पलम् ॥ लेकर दोनेांको २ पहर बड़के दूधमें घोटकर गोला गोपालकर्कटीमलस्वरसैटिकां कुरु। बनावें और उसे मूषामें बन्द करके भूधरयन्त्रमें प्रमेहान्विशति हन्ति मूत्रकृच्छ्रे हलीमकम् ॥ पकावें। अश्मरी कामलां पाण्डु मूत्राघातमरोचकम् । इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे अनुपानं प्रयोक्तव्यं छागीदुग्धं पयोऽथवा ॥ समस्त रोग और विशेषतः प्रमेह नष्ट होता है। धात्रीफलस्य निर्यासं काथं कौलत्थजं पिबेत् ॥ इसे खानेके बाद त्रिफलाका चूर्ण शहदमें बंगभस्म, अभ्रकभस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध | मिलाकरचाटना चाहिये। गन्धक, चिरायता, पीपलामूल, सेांठ, मिर्च, पीपल, प्रमेहकेतुरसः हर्र, बहेड़ा, आमला, निसोत, रसौत, बायबिडंग, ___हरिशङ्कररस ' देखिये । नागरमोथा, बेलगिरी, गोखरु और अनारकी छाल प्रमेहगजकेसरी रसः ११-१। तोला तथा शुद्ध शिलाजीत ५ तोले लेकर (र. सा. स.; र. च.; र.रा. सु.; र. चि.। प्रमेह.) प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर ! मेहकेसरीरस देखिये । For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - रसपकरणम् ] तृतीयो भागः। [५१९] प्रमेहगजसिंहो रसः निष्कमा हरेन्मेहान्मेहबद्धरसो महान् । (र. र. । प्रमेह.) महानिम्बस्य बीजानि पिष्ट्वा षट्सम्मितानि च। " मेहद्विरदसिंहरस” देखिये । पलतन्दुलतोयेन घृतनिष्कद्वयेन च । (४४६३) प्रमेहगजसिंहो रस: एकीकृत्य पियेचानु हन्ति मेहं चिरन्तनम् ॥ पारदभस्म, कान्तलोहभस्म, मुण्डलोहभस्म, (र. र. स. । अ. १७; र. रा. सु. । प्रमेह.) शिलाजीत, सोनामक्खीभस्म, शुद्ध मनसिल, सेठ, चाण्डालीराक्षसीपुष्परसमध्वाज्यटङ्कणम् ।। मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, अकोलके बीज रसं समांशोपरसं समं हेम्ना विमर्दितम् ॥ कैथ और हल्दी समान-भाग लेकर प्रथम कूटने समांशं पूतिलोहं वा मूषायां विपनेत्क्रमात् । योग्य ओषधियोंको कूटकर चूर्ण बना लें फिर सब प्रमेहगजसिंहोयं रसः क्षौट्टैद्विमाषकम् ॥ को एकत्र मिलाकर भंगरेके रसकी २० भावना शिवलिंगी और चोरकके फूलोंका रस, घी, देकर ४-४ माशेकी गोलियां बना लें। शहद, सुहागा, शुद्ध पारा, और उपरस१ समान इसे शहदके साथ खाकर ऊपरसे बकायनके भाग तथा सोनाभस्म या नाग अथवा वङ्गभस्म इन ६ बीजोंको ५ तोले चावलेोके पानीके साथ पीससबके बराबर लेकर सबको खरल करके एक गोला कर उसमें ८ माशे घी मिलाकर पीनेसे समस्त बनावें और उसे शराब सम्पुट में बन्द करके १ प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं। दिन भूधरयन्त्रमें पका। (व्यवहारिक मात्रा-१ माशा) इसमेंसे २ माशे दवा शहदके साथ सेवन नोट-र. र. स.; र. चि.; र. म. और धन्वकरनेसे समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं। | न्तरिमें इसे 'प्रमेहवन' नामसे लिखा है। वृ. (व्यवहारिक मात्रा–१ रत्ती।) । यो. त. में इसीको ‘मेघनादरस' नाम दिया (४४६४) प्रमेह बहरसः (प्रमेहबजरसः) गया है । वृ. यो. त. में मुण्डलोहकी जगह तीक्ष्ण (शा. ध. । म. ख. अ. १२; र. र. स.; र. म.; लोह तथा गन्धक अधिक लिखा है । र. का.; र. प्र. सु.; वृ. नि. र.; र. रा. सु.।। रसमञ्जरीमें मुण्डभस्मकी जगह ताम्रभस्म प्रमेहा.; वृ. यो. त. । त. १०३) लिखी है। रसेन्द्रसारसंग्रह आदि कई ग्रन्थों में भस्ममूतं मृतं कान्तं मुण्डभस्म शिलाजतु ।। - अकोलकेबीजोंके स्थानमें बेल और जीरा लिखा है। शुद्धं ताप्यं शिला व्योष त्रिफलाङ्कोलबीजकम् ।। (४४६५) प्रमेहसिन्धुतारकरसः कपित्यं रजनीचूर्ण भूराजेन भावयेत् ।। (र. का. धे. । अ. २९) विशद्वारं विशोप्याथ मधुयुक्तं लिहेत्सदा ॥ रसो निष्काष्टादशको गन्धफस्य च विंशतिः । 1 उपरस-गन्धक, सोनागेरु, कसोस, फटकी, | हरताल, मनसिल, सुरमा, मुर्दासिंग । तालसत्वाश्च दशद्वौ तद्वत्सोममलस्य च ॥ For Private And Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५२०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि बास्य षटू षड्रसकाच्छीसकादय चाभ्रकात् ।। (४४६६) प्रमेहहरो रसः अर्कक्षीरेण सम्मघु पुटेद्गजपुटेन च ॥ | (र. का. धे. । अघि. २९) त्रिरष्टौ द्वादश तथा द्वात्रिंशत्महरं पुनः। रससौम्यशिला तानं मर्दयवेदयामकम् । बहिनिधाऽक्षीरेण भावयित्वा पुनः पुनः॥ कुमार्या च कदल्या च छिकाकूष्माण्ड रसैः ॥ एवं पुटैखिभिः सिद्धः कपोतग्रीवसनिमः। तद्रसैरेव संस्वेध मर्दयेद्रजनीद्रवैः। मेहरोगहरोऽयं स्याद्रसो मेहाधितारकः॥ | पुटेद्गजपुटेऽभत्थपलाशोदुम्बरेन्धनैः ।। शुद्ध पारा १८ निष्क, शुद्ध गन्धक २० चित्राक्षारान्तरेऽयं तु रसो मेहहरो भवेत् ॥ निष्क, हरताल सत्व तथा शुद्ध सोमल १२-१२ पारदभस्म, चांदीभस्म, शुद्ध मनसिल और निष्क तथा बंगभस्म, खपरियाभस्म, सीसाभस्म, ताम्रभस्म बराबर बराबर लेकर सबको चार पहर और अभ्रकभस्म ६-६ निक लेकर सबको एकत्र तक ग्वारपाठाके रसमें घोटकर १ दिन उसीके घोटकर १ दिन आकके दूधमें खरल करके छोटी रसमें दोलायन्त्र विधिसे पकायें तत्पश्चात् उसे इसी छोटी टिकिया बना लें और उन्हें सुखाकर शराव प्रकार केलेकी जड़, नकछिकनी और पेठेके स्वरसमें सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें ३ पहरकी अग्नि पृथक् पृथक् ४-४ पहर घोटकर इन्हींके रसेमें दें अर्थात् गढ़े में इस अन्दाजसे उपले डालें कि ३ ४-४ पहर स्वदित करे और अन्तम हल्दीक रस पहरमें अग्नि शान्त हो जाय । तदनन्तर पुटके में घोटकर यथाविधि शरावसम्पुटमें बन्द करके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर गजपुटमें पलाश, पीपल, या गूलरकी लकड़ियोंकी पुनः आकके दूधमें घोटें और पहिलेकी भांति ही आगमें फूंक दें। औषधको सम्पुट में बन्द करते गजपुटमें ८ पहर आंच दें। एवं इसी प्रकार आक समय ऊपर नीचे इमलोका क्षार रखना चाहिये। के दूध में घोटकर तीसरी पुट १२ पहरकी और इसके सेवनसे प्रमेह नष्ट होता है । चौथी पुट ३२ पहरकी लगावें। इसके पश्चात् ( मात्रा-१ रत्ती।) उसे पुनः आकके दूध घोट घोटकर तीन पुट और दें। इस प्रकार कुल सात पुट लगानेसे रस (र. प्र. सु. । अ. ८; र. चं. । प्रमेह.) तैयार हो जायगा । उसका रंग कबूतरकी गर्दनके हेमबीजविषवनसूतकं समान होगा। इसके सेवनसे समस्त प्रमेह नष्ट होते हैं। बलिवसाऽप्यथ चाभ्रभस्मकम् । नागवल्लिजरसेन मर्दित (मात्रा-१ रत्ती।) कामदं सकलमेहजित्तथा ॥ प्रमेहसेतुरसः शुद्र धतूरेके बीज, शुद्ध बछनाग, वंगभस्म, 'प्रमेहकेतूरस' तथा 'हरिशङ्कररस' देखिये। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और अभ्रकभस्म समान For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - --- रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५२१] भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें । मेहामयं मूत्ररोग मूत्रकृच्छू तयाऽश्मरीम् । और फिर उसमें अन्य औषधेका महीन चूर्ण नाशयेमात्र सन्देहो सत्यं गुरुवचो यथा ।। मिलाकर सबको १ दिन पानके रस में घोटकर पथ्याश्रितं भोजनमादरेण सुरक्षित रखें। समाचरेभिर्मलचित्तवृत्या । इसके सेवनसे प्रमेह नष्ट होता है। प्रवालपश्चामृतनामधेयो (मात्रा-१-२ रत्ती।) .. योगोत्तमः सर्वगदापहारी ॥ प्रवाल (मूंगा ) भस्म २ भाग, मोतीभस्म, सूचना शंखभस्म, शुक्ति (मोतीको सीप ) भस्म और कौड़ी जिन रसोंके नाम 'प्रमेह' शन्दसे भस्म १-१ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर प्रारम्भ होते हैं उनमें से जो रस यहां न उसमें सबके बराबर आकका दूध डालकर एक मिलें उन्हें मकारादि रस प्रकरणमें देखना चाहिये वहां वे 'मेह' शब्दसे आरम्भ दिन घाटें और फिर उसे यथाविधि शरावसम्पुट में होने वाले रसोंमें मिलेंगे। बन्द करके गजपुट में फूंक दें एवं सम्पुटके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे भस्मको निकालकर पीसकर (४४६८) प्रवालपश्चामृतरसः सुरक्षित रक्खें। (वृ. नि. र.; र. चं.; यो. र. 1 गुल्म.) इसमेंसे नित्य प्रति ३ रत्ती भस्म प्रातः प्रवालमुक्ताफलशमशुक्ति सायं खिलानेसे आनाह, उदररोग, गुल्म, प्लीहा, कपर्दिकानां च समांशभागम् । खांसी, श्वास, अग्निमांद्य, कफ और वातजरोग, प्रवालमत्र द्विगुणं प्रयोज्यं अजीर्ण, डकारें आना, हृद्रोग, ग्रहणीविकार, अतिसर्वैः समांशं रविदुग्धमेव ॥ सार, प्रमेह, मूत्रदोष, मूत्रकृच्छू और अमरी एकीकृतं तत्खलु भाण्डमध्ये आदि अनेक रोगोंका नाश होता है। क्षिप्त्वा मुखे बन्धनमत्र योज्यम् । (४४६९) प्रवालप्रयोगः (१) पुटं च दद्यादतिशीतले च (भा. प्र. | हिक्का.) ___ उद्धत्य तद्भस्म क्षिपेत्करण्डे ॥ प्रवालशात्रिफलाचूर्ण मधुघृतप्लुतम् । नित्यं द्विवारं प्रतिपाकयुक्तं पिप्पलीगरिकश्शेति लेहो हिकानिवारणः॥ बल्लप्रमाणं हि नरेण सेव्यम् । प्रवालभस्म, शंखभस्म, हर्र, बहेड़ा, आमला, आनाहगुल्मोदरप्लीहकास पीपल और गेरुका चूर्ण समान-भाग लेकर सबको श्वासाग्निमांद्यान्कफमारुतोत्यान् ॥ | एकत्र मिलाकर रक्खें। अजीर्णमुद्गारहदामयनं इसे घी और शहदके साथ मिलाकर चाटग्रहण्यतीसारविकारनाशनम् ॥ । नेसे हिचकी नष्ट होती है। For Private And Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५२२] भारत-भैषज्य-रलाकरः। [पकारादि (४४७०) प्रवालप्रयोगः (२) । (४४७३) प्रवालमारणम् (२) (सु. सं. । उत्त. त. अ. ४४ पाण्डु चि. ) (र. रा. सु. । पूर्वखण्ड) मवालमुक्ताअनशचूर्ण मौक्तिकस्य विधिप्रोक्तः लिह्यात्तथाकाञ्चनगैरिकोत्त्यम् ॥ पवालेऽपि तथा विधिः। प्रवाल (मूंगा), मोती, सुरमा, शंख और गेरु मुक्ताभस्मकी विधिसे ही प्रवाल की भी भस्म का चूर्ण समान भाग लेकर सबको गुलाबजल बनती है। आदिमें पीसकर पिष्टी बनावें। ('मुक्ताभस्म विधि' मकारादि रसप्रकरणमें इसके सेवनसे पाण्डु नष्ट होता है। | देखिये।) (मात्रा-१ माशा) । (१४७४) प्रवाललक्षणगुणाः (४४७१) प्रवालप्रयोगः (३) । ( आ. वे. प्र. । अ. १३; र. र. स.; र. चं.) (च. सं. । चि. अ. २६ त्रिमर्मीय.) पकविम्बीफलच्छायं वृत्तायतमवक्रकम् । पित्तथा तण्डुलधावनेन स्निग्धमत्रणकं स्थूलं प्रवालं सप्तधा शुभम् ।। पाण्डुरं धूसरं सूक्ष्मं सत्रणं कण्डरान्वितम् । प्रवालचूर्ण कफमूत्रकृच्छे। निर्भारं शुभ्रवर्णश्च मवालं नेष्यते सप्तधा ।। प्रवाल (मूंगे ) के चूर्णको चावलांके पानी प्रवालं मधुरं साम्लं कफपित्तादिदोषनुत् । के साथ सेवन करनेसे कफज मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता वीर्यकान्तिकरं स्त्रीणां धृते मङ्गलदायकम् ।। क्षयपित्तात्रकासनं दीपनं पाचनं लघु । (मात्रा-१ माशा) विपभूतादिशमनं विद्रुमं नेत्ररोगहत् ।। (४४७२) प्रवालमारणम् (१) जिस मुंगेका रंग पकी कन्दूरीके समान चम(र. सा. सं । पूर्वखण्ड) कदार लाल हो, जो आकारमें गोल बड़ा और वीदग्धेन प्रवालञ्च भावयित्वा तु हण्डिके। अवक्र (सीधा ) तथा स्थूल हो एवं स्पर्श में मध्येऽपि तक्रसहितं स्थापयेत्तां निरोधयेत् ॥ चिकना हो और जिसमें व्रण न हो वह उत्तम चुल्ल्यामग्निप्रतापेन म्रियते प्रहरद्वये ॥ होता है। ____ मुंगेको स्त्रीके दूधमें घोटकर एक हाण्डीमें जो मूंगा हल्का पीला, धुंधला या सफेद हो, थोडासा तक डालकर उसमें रखें और उसका | जो बारीक और वजनमें हल्का हो तथा जिसमें मुख बन्द करके उसे चूल्हे पर चढ़ाकर उसके छिद्र और रेखाएं हां वह मूंगा अच्छा नहीं नीचे २ पहर तक अग्नि जलावें तो मूंगेकी भस्म ! माना जाता । बन जायगी। मूंगा मधुर, किश्चिदम्ल, कफपित्तनाशक, For Private And Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] हतीयो भागः। [५२३] - वीर्य और कान्ति वर्द्धक, यदि खियां धारण करें। अच्छी तरह खरल करें । तदनन्तर एक लोहेकी तो उनके लिये मंगलकारी तथा क्षय, रक्तपित्त, कदाईमें जरासा घी लगाकर उसमें इस कज्जलीको खांसी, विष, भूतविकार और नेत्ररोगनाशक एवं डालकर बेरीके कोयलांकी मन्दाग्नि पर पिघलावे दीपन और पाचन है। और फिर भूमि पर गायका गोबर फैलाकर उसपर प्रवालशोधनम् केलेका पत्ता बिछावें एवं उसके ऊपर वह पिपली (मुक्ताशोधन देखिये।) हुई कज्जली फैलाकर उसपर दूसरा पत्ता ढककर शीघ्रता पूर्वक गोबरसे दबा दें .। थोड़ी देर बाद प्राणत्राणरस: जब वह बिल्कुल शीतल हो जाय तो दोनों पत्तों ( र. र. । राजयक्ष्मा.) के बीच में से पर्पटीको निकाल लें । ('प्राणनाथरस' सं. ४४७६ देखिये।) इसके सेवनसे पाण्डु, अतिसार, ग्रहणी, (४४७५) प्राणदापर्पटी ज्वर, खांसी, यक्ष्मा, प्रमेह और अग्निमांधका (वृ. यो. त. । त. ७६; वृ. नि. र.; यो. र.; .. नाश होता है । इसके अतिरिक्त उचित अनुपान र. चं. । क्षय.) ' के साथ देनेसे यह अन्य समस्त रोगोंको भी नष्ट करती है। सूताभ्रायोहिनङ्गोषणविषमखिलांशेन गन्धेन लौह्यां (साधारण मात्रा-३ रत्ती । विशेष सेवन कोलानौ विद्रतेन क्षणमथ मिलित विधि ‘पञ्चामृत पर्पटी ' में देखिये । ) दालितं गोमयस्थे। (४४७६) प्राणनाथरसः (१) रम्भापत्रेऽमुनाऽन्येन च दृढपिहितं (प्राणत्राणरसः) पाणदा पर्पटीस्या- ( वृ. नि. र. । क्षय.; र. र.; र. का..। क्षय.) त्पाण्डौ रेके ग्रहण्यां ज्वरारुचिकसने लोहभस्म पलैकन्तु द्विपलं भृङ्गजद्रवम् । यक्ष्ममेहामिमान्धे॥ वराभागीभवं द्रावं पलैकैकं नियोजयेत् ।। पाणदा पर्पटी सैषा भाषिता शम्भुना स्वयम् । पलैकं त्रैफले काथे सर्व भज्यं च खर्परे। तत्तद्रोगानुपानेन सर्वरोगविनाशिनी ॥ लोहांश माक्षिक शुद्धं मधु पूर्वोदितैर्देवैः ॥ शुद्ध पारद, अभ्रकभस्म, लोहभस्म, सीसा- | रुद्धा त्रिभिः पुटैः पाच्यं द्रवैर्मर्थे पुनः पुनः । भस्म, बंगभस्म तथा काली मिर्च और शुद्ध पछ मृतं मृतं मृतं वङ्ग निष्कं निष्कं विमिश्रयेत् ॥ नाग का चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गन्धक ७ -रसरत्नाकर में इसे “प्राणप्राण" नाम दिया भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनार्वे | गया है। उसमें "बराभाषी...नियोजयेत्” यह श्लोकार्य और फिर उसमें अन्य औषधं मिलाकर सबको । नहीं तथा बंग की जगह नाग लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य - रत्नाकरः । इसके सेवन से दुस्साध्य राजयक्ष्मा, शोथ, उदररोग, अर्श, ग्रहणी, ज्वर और गुल्मका नाश होता है। मात्रा-आधा माशा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५२४ ] (४४७७) प्राणनाथरस: (२) ( र. र. स. । उ. खं. अ. १४; र. चि. म. । स्तबक ११ ) द्वौ निष्कौ शुद्धगन्धस्य चतुर्निष्का वराटिका । एक कृत्य पुढे पाचयं पूर्व लोहविमिश्रितम् ॥ पूर्वोक्तस्तु द्रवैर्मर्य पुटेनैकेन पाचयेत् । चूर्णयेन्मरिचं सप्त तुत्थङ्कणयोर्दश ॥ मेलये पृथङ् निष्कं प्राणनाथाइयो रसः । भक्षयेन्निष्कपादार्द्धमसाध्यराजयक्ष्मनुत् || शोफोदराशग्रहणीज्वरगुल्महरं तथा ॥ अयोरजो विंशतिनिष्कमानं विभावितं भृङ्गरसाढकेन । धत्तूरभाङ्ग त्रिफलारसार्धं तुल्यांशताप्यं विपचेत्पुटेषु ॥ सूतस्य निष्कं समभागतुत्थं गन्धोपलौ द्वौ चतुरो वराटान् । पक्त्वा पुटा । समलोह चूर्णा ५ तोले त्रिफलेका काथ एक मिट्टीके शरावे में डालकर उसमें ५ तोले लोहभस्म डालकर मन्दाग्निपर सेकें । जब समस्त रस शुष्क हो जाय तो लोह भस्मको खरल में डालकर उसमें ५ तोल शुद्ध सोनामक्खीका चूर्ण मिला कर सबको १० तोले भंगरेके रस और ५-५ तोले त्रिफले और भरंगीके रसमें घोटें । तदनन्तर उसका एक गोला बनाकर उसे शराब–सम्पुटमें बन्द करके गजपुट मैं फूंकें। इसी प्रकार उसे उक्त तीनों रसों में घोट घोट कर तीन पुट दें । तत्पश्चात् उसमें ५-५ माशे पारे और बंग की भस्म तथा १० माशे शुद्ध गन्धक और २० माशे कौड़ीभस्म मिला कर पूर्वोक्त तीनों रसों में घोटकर गजपुट में फूंक दें। जब पुट स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें पवेत्तथा पूर्वसैर्विमिश्रान् ॥ चूर्णेऽस्मिन् मरिचाः सप्ततुत्थटङ्कणयोर्दश । संसृजेत्तत्पृथ‌निष्कान्प्राणनाथाइयोदितः ॥ अर्धपादो रसाद्भक्ष्यो केवलाद्राजयक्ष्मभिः । शोषोदरार्शोग्रहणीज्वरगुल्माद्युपद्भुतैः ॥ १००-१०० माशे शुद्ध लोह और सोनामक्खीके चूर्णको ८ सेर भंगरे के रस में थोड़ा थोड़ा रस डालते हुवे घोटें । तत्पश्चात् उसकी टिकिया बनाकर सुखाकर, शरावसम्पुट में बन्द करके यथाविधि गजपुटमें फूंकें । इसी प्रकार उसे क्रमशः धतूरा, भारंगी और त्रिफलाके ४-४ सेर रसमें घोट कर एक एक पुट दें । औषधको निकाल कर उसमें ३५ माशे काली मिर्चका चूर्ण तथा ५० माशे तुत्थभस्म और इतना ही सुहागा मिलाकर अच्छी तरह धोटकर रखें । | तत्पश्चात् उसमें ५ माशे शुद्ध पारा, ५ माशे शुद्ध तूतिया, १० माशे शुद्ध गन्धक और २० माशे कौड़ीका चूर्ण मिलाकर सबको उपरोक्त रसोंमें खरल करके गजपुटमें फूंकें । और फिर उसमें ३५ माशे काली मिर्चका चूर्ण तथा ५०-५० माशे सुहागेकी स्वील और तुत्थभस्म मिलाकर घोटकर सुरक्षित रक्खें । For Private And Personal Use Only [ पकारादि Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] हतीयो भागः। [५२५] - - इसे ४ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे कामला, पाण्डु, आनाह, स्लीपद, अर्बुद ( रसौली), राजयक्ष्मा, शोष, उदररोग, अर्श, ग्रहणी, ज्वर | गलगण्ड, गण्डमाला, व्रण, हलीमक, अपची (गण्डऔर गुल्मादिका नाश होता है। मालाभेद ), वातरक्त, खुजली, विस्फोटक और (४४७८) प्राणवल्लभो रस, कुष्ठका नाश होता है। (र. चं. । गलगं.; रसें. सा. सं. । प्लीह.; रसें. चि. कामला रोगके लिये इससे अच्छी अन्य एक म. । अ. ९; र. चं. । गुल्मा.; रसें. सा. सं.। भी औषध नहीं है। गुल्मा.; मैं. र. । गुल्मा.) इसको मात्रामें रोगीके बलाबल का विचार लौहं ताम्र वराटं च तुत्यं हि फलत्रिकम्। | करके न्यूनाधिकता भी कर सकते हैं। स्नुहीमूलं यवक्षारं जैपालं टङ्कण त्रिहत् ॥ | (४४७९) प्राणिकल्पद्रमगोलरसः प्रत्येकं च पलं ग्राह्य छागीदुग्धेन पेषितम् । ( आ. वे. प्र.। अ. १) चतुर्गुञ्जा वटी खादेद्वारिणा मधुनाऽपि वा । मृतं गन्ध कान्तपाषाणमिश्र प्राणवल्लभनामायं गहनानन्दभाषितः। ब्राझै/जैर्मर्दयेदेकघसम् । दोष रोगं च संवीक्ष्य युक्तया वा त्रुटिवद्धनम्॥ गोलं कृत्वा टङ्कणेन प्रवेष्टय निहन्ति कामलां पाण्डमानाहं श्लीपदार्चुदम् । पश्चान्मृत्स्नागोमयाभ्याम् धमेत्तम् ॥ गलगण्डं गण्डमालां व्रणानि च हलीमकम् ॥ शुष्के यन्त्रे सत्चपातप्रधाने अपची वातरक्तं च कण्डुविस्फोटकुष्ठकम् ।। किटे सूतो बद्धतामेति नूनम् । नातः परतरः श्रेष्ठः कामलातिभयेष्वपि ॥ बई पश्चात्क्षारकाचप्रयोगा___ लोहभस्म, ताम्रभस्म, कौड़ीभस्म, तुत्थमस्म, देम्ना तुल्यं मूतमावर्तयेत्तु । मुनी हुई हींग, हर्र, बहेड़ा, आमला, सेंड (थूहर) वक्त्रे खोटः स्थापितो वत्सरार्धे की जड़, जवाखार, शुद्ध जमालगोटा, सुहागेकी रोगान् सर्वान् हन्ति सौख्यं करोति । खील और निसोत ५-५ तोले लेकर कूटने | यद्वा दुग्धे गोलकं पाचयित्वा योग्य चीजेांको कूटकर चूर्ण बनावें और फिर | | दद्यादग्धं पिप्लीभिः क्षये तत् ।। सबको एकत्र मिलाकर १ दिन बकरीके दूधमें लोहे पात्रे पाचयित्वा तु देर्य घोटकर ४-५ रत्तीकी गोलियां बना लें। शुष्के पाण्डौ कामले पित्तरोगे । इन्हें पानी या शहदके साथ सेवन करनेसे वाते गोलं व्योषवातारितैले । रसेन्द्रसारसंग्रह, रसण्डा तथा रसराजसुन्दर पक्त्वा तैलं गन्धयुक्तं ददीत ।। में यह रस पाण्डरोगाधिकार में भी लिखा है। उसमें गुलसे निकला हुवा पारा, गन्धक और केसर द्रावैर्गोलं पाचयेच्लेष्मनुत्यै। For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५२६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि कासे श्वासे तं च दद्यात्कार्य इस गोलीको भरंगी, गोरखमुण्डी, कसौदी माध्वीकाक्तं पिप्पलीचूर्णयुक्तम् ॥ और अडूसे (बासे ) के रसमें पकाकर पिलानेसे यस्मिन् रोगे यः कषायोऽस्ति चोक्त- कफजरोग नष्ट होते हैं। स्तस्मिन् गोल पाचयित्वा कषाये। खांसी और श्वास में उपरोक्त भारंगी इत्यादि दद्यातत्तद्रोगनाशाय पथ्य औषधेकि काथमें यह गोली डालकर थोड़ी देर तत्तद्रोगे कीर्तितं यसदेव ॥ पकाकर उसमें माध्वीक सुरा और पीपलका चूर्ण उक्तो गोलः माणिकल्पद्रमोऽयं मिलाकर पीना चाहिये। पूजां कृत्वा योजयेद्भक्तियोगात् ॥ । इसे जिस रोगमें देना हो उसीको नष्ट करने शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, कान्तपाषाण और वाले किसी कषायके साथ पकाकर पिलाना और पलाशके बीज समान भाग लेकर सबको एक तद्रोगोचित पथ्य पालन करना चाहिये । दिन अच्छी तरह घोटकर पानीकी सहायतासे प्राणेश्वररसः (१) (सिद्धाधः ) गोला बनायें और उस पर सुहागेका लेप करके (र. सा. सं.; र. चं.; भै. र. र. का. ; र. रा. सुखा लें। तत्पश्चात् उसपर मिट्टी और गोबर सुं । उवरातिसा.) का लेप करके उसे सुखा कर सत्वपातन यन्त्रमें 'सिद्धप्राणेश्वररस ' देखिये । धमावें । इससे पारा अवश्य बद हो जायगा। तदनन्तर उसे फाचलवण और सुहागे के साथ (४४८०) प्राणेश्वररसः (२) ( लघुः ) पिघलाकर उसमें उसके बराबर स्वर्ण पत्र मिला (र. का. धे. । ज्वर.) त्रितारं ग्रन्थिकं यूपद्विजीरकयवानिकाः । इस गोलीको ६ मास तक मुंहमें रखनेसे तेजोवती धर्तपीजलवाऽर्ककराऽनलम् ।। समस्त रोग नष्ट होकर सौख्यकी वृद्धि होती है। रसगन्धौ विष शिग्रु निर्गुण्डयाकधूर्तः । इसे दूधमें डालकर उसे गर्म करके उसमें विधाय भावना गुजाद्वयं द्विगुणशर्करम् ॥ पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे क्षयरोग नष्ट | सपोजसाऽनुपानेन रसः शीतज्वरापरः। होता है। लघुः माणेचरः सोऽयं रसो सो ज्वरे मतः ॥ लोहे के पात्रमें दूध डालकर उसमें यह सुहागा, जवाखार, सजीवार, पीपलामूल, गोली डालकर पकावें, इस दूधके पीनेसे शोषयुक्त सेठ, मिर्च, पीपल, दोनों जीरे, अजवायन, तेजपाण्डु, कामला और पित्तरोगांका नाश होता है। बल, धतूरेके बीज, लांग, अकरकरा, चीता, पारा, अरण्डीके तेलमें त्रिकुटेका पूर्ण और यह गोली गन्धक, बछनाग और सहेजने की छाल एक एक डालकर थोड़ी देर तक पकायें । इस तेलमें गन्धक भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनायें मिलाकर पिलानेसे वातव्याधि नष्ट होती है। । और फिर उसमें अन्य ओषधियांका महीन पूर्ण कर गोली बना For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसमकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ५२७ ] रसकी १–१ भावना देकर २ - २ रत्ती की गोलियां बनावें । मिलाकर सबको संभालु, अद्रक और धतूरेके | भोजने वर्जयेत्तत्र शाकाम्लं द्विदलं तथा । | तैलाभ्यां ब्रह्मचर्यं वर्जयेच्छयनं दिवा ॥ हितं तत्सेवयेत्पथ्यमहितं च विवर्जयेत् । अनेनव प्रकारेण योजयेत्प्रतिवासरम् ॥ यस्त्वचेतनतां याति सन्निपाती कथं च न । तस्य नातिप्रयोक्तव्यो रसो यत्नाद्भिषग्वरैः ॥ ; देवाऋिपिविमांश्व कुमारीयोगिनीगणान् । पूजयित्वा यथा शक्त्या सेव्यः प्राणेश्वरो रसः ॥ गुल्मं चाष्टविधं वातं शूलं च परिणामजम् । सभपातज्वरं चैव प्लीहानमपकर्षति ॥ htami पाण्डुरोगं च मन्दानि ग्रहणों तथा । शिववत्सेविता हन्ति रसः प्राणेश्वरस्त्वयम् || इनमें से १-१ गोली ४ रत्ती शक्कर मिलाकर ताजे पानीके साथ देनेसे शीतज्वर नष्ट होता है । (४४८१) प्राणेश्वरो रसः (३) (सर्वाङ्गसुन्दररसः ) ( र. र. स. । उ. अ. १८ ) शुद्धमभ्रं रसं गन्धं मेलयित्वा समांशकम् । तालमूली रसैर्मर्थ कल्कं सम्पादयेच्छुभम् ॥ तत्कल्कं कूपिकामध्ये कृत्वा वक्त्रं निरुन्धयेत् । खटिया मुखमाच्छाद्य मृदा खर्परसंज्ञया ॥ कूvिni लेपयेत्सर्वो शोषयेदातपे खरे । कृषिका भूमिगतयां कृत्वा तां पुटयेत्ततः ॥ कूपिकां मर्दयेत्कृत्स्नां खटिन्या सह संयुताम् । त्रिभिः क्षारैस्तु तच्चूर्ण पञ्चभिर्लवणैस्तथा ॥ त्र्यूषणं त्रिफला हिङ्गु पुरमिन्द्रयवास्तथा । गुञ्जाकिनी तथा चित्रमजमोदा यवानिका ।। एतानि समभागानि समादाय विचूर्णयेत् । योजयेत्सह सूतेन ततः सिद्धयति सूतकः ॥ सिद्धस्तस्य पर्णेन मा सर्वरुजापहम् । भक्षयेत्प्रातरुत्थाय रसः सर्वाङ्गसुन्दरः ॥ उष्णोदकानुपानं तु पाययेच्चुलुकद्वयम् । भक्षयेदेकवारं तु द्विवारं न कथं च न ॥ दिनमध्ये वारमेकं दातव्यो भिषजा रसः । शीतोदकं सकृद्देयं तुडभावेप्यहर्निशम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध पारद और गन्धक तथा अभ्रक भस्म १-१ भाग लेकर तीनोंको तालमूलीके रस में घोटकर कल्क बनावें और उसे कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भरकर उसके मुखमें खिड़ियाका डाट लगाकर उस पर भी कपड़ मिट्टी करके सुखा दें । इसके पश्चात् उस शीशीको गढ़े में रखकर भूधर में पकायें और फिर स्वांग शीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर पीस लें तथा सुहागा, सज्जीखार, जवाखार, पांच नमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ी, आमला, भुनी हुई हींग, गूगल, इन्द्रजौ, भांग, चीता, अजमोद और अजवायनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलावें और उपरोक्त रसमें उसके बराबर यह चूर्ण मिलाकर सुरक्षित रक्खें । इसमें से १ माशा औषध पानमें रखकर स्वानेसे समस्त रोग नष्ट होते हैं । इसे प्रातः काल खाकर ऊपरसे दो एक चुल्लू For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - उष्ण जल पीना चाहिये । इसे दिन भरमें केवल । पूरयेस्तूपिकान्ते व मुद्रयित्वा च शोषयेत् । एक बार ही खिलाना चाहिये, दो बार भूलकर भी सप्तभिर्मत्तिकावस्त्रैर्वेष्टयित्वा च शोषयेत् ॥ न देना चाहिये । यदि प्यास न लगे तो भी २४ | पुटेत कुण्डप्रमाणेन स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । घण्टेमें एक बार शीतल जल पिलाना चाहिये। । गृहीत्वा कूपिकामध्यान्मर्दयेच्च दिनं ततः ॥ __ इसके सेवनकालमें शाक, खटाई और दाल अजाजी जीरकं हि सर्जिका टङ्कणं जगत् । न खानी चाहिये; दिनमें सोने से भी बचना चाहिये । शरीरपर तैलकी मालिश करनी और गुग्गुलुः पञ्चलवणं यवक्षारो यमानिका ॥ ब्रह्मचर्यवतका पालन करना चाहिये। मरिच पिप्पली चैव प्रत्येक रसमानतः । ___ इसके सेवनसे आठ प्रकारके गुल्म, वायु, एषां कषायेण पुनर्भावयेत् सप्तधातपे॥ परिणाम शूल सन्निपात ज्वर, प्लीहा, कामला, पाण्डु, । नागवल्लीदलयुतं द्विगुजं च रसेश्वरम् । मन्दाग्नि और ग्रहणीरोगका नाश होता है। दद्याभवज्वरे तीब्रे सोष्णं वारि पिवेदनु । यदि सम्निपातका रोगी अचेत हो तो उसे | माणेश्वरो रसो नाम समिपातप्रकोपनुत् । यह रस अधिक सेवन न कराना चाहिये। शीतज्वरे दाहपूर्वे गुल्मशूले त्रिदोषजे ॥ ___ नोट---. र. समुच्चय के बारहवें अध्यायमें | वाग्छितं भोजनं दद्यात् कुर्याचन्दनलेपनम् । तथा र. का.धे.; र.रा. सु. स्वराधिकारमें जो प्राणेश्वर | | तापोद्रेकस्य शमनं बलाधिष्ठान कारकम् ।। रसका योग दिया है वह भी लगभग इसके समान ही भवेश्च नात्र सन्देहः स्वास्थ्यश्च लभते नरः॥ है । उसमें पारदादि तीनों औषधेको बाराहीकन्द | शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रकमस्म और के रस घोटकर बालकायन्त्रमें पकानेको लिखा | शुद्ध बछनाग समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धहै तथा मांगका अभाव है और जीरेकी जगह की कग्जली बनावें और फिर उसमें अभ्रक तथा अजमोद है एवं सुहागा इत्यादि प्रत्येक औषध | बछनागका चूर्ण मिलाकर सबको ३ दिन तालमूली पारेकी बराबर लिखी है। र. का. थे. और र. रा. | के रसमें घोटकर सुखाकर सात कपड़मिट्टी की हुई सु. वाले प्रयोगमें अभ्रक के स्थानमें ताम्रभस्म है।। आतशी शीशीमें भर दें और उसकी डाट बन्द तथा बाराहीकन्द और मूसली की भावना अधिक | करके उसपर भी कपड़मिट्टी करके सुखा दें। इसे लिखी है । एवं सुहागा आदि सब मिलाकर कूपी- गढ़ेमें रखकर पुट लगाने और उसके स्वांग शीतल पक रसके बराबर लिखे हैं। होनेपर शीशीमेंसे औषधको निकालकर एकदिन (४४८२) प्राणेश्वरोरसः (४) निरन्तर खरल करें । तत्पश्चात् सफेद और काला (मै. र.; र. रा. सुं; रसे. सा. सं., । र. का. धे. । जीरा, हींग, सज्जी, सुहागा, फिटकरी, गूगल, पांचो ज्वरा.; रस. मं. । अ. ६) नमक, जवाखार, अजवायन, काली मिर्च और शुदं सूतं तथा गन्धं मृतानं विषसंयुतम् । | पीपल में से प्रत्येक औषध पारेके बराबर लेकर समं तन्मदयेत्तालमूलीनीरैस्त्रह बुधः॥ ! सबको एकत्र पकाकर काथ बनावें और उस काथसे For Private And Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] हतीयो भागः। [५२९] - - - उपरोक्त तैयार रसको धूपमें सात भावना देकर । (४४८४) प्लीहशार्दूलो रसः । सुखाकर पीस लें। (भै. र.; र. रा. सुं.; रसें. सा. सं. । प्लीहा.; . इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार पानमें रखकर रसें. चिं. म. । अ. ९) खाना चाहिये। और नवीन तीब्र ज्वरमें देना हो तो सूतकं गन्धकं व्योष समभाग पृथक् पृथक् । ऊपरसे उष्ण जल भी पिलाना चाहिये। एभिः समं ताम्रभस्म योजयेद्वैधसत्तमः ॥ इसके सेवनसे सन्निपातका प्रकोप, शीत ज्वर, मनःशिला वराटश्च तुत्यं रामठलौहकम् । दाहपूर्व ज्वर, गुल्म, त्रिदोषज शूल और ज्वरका जयन्ती रोहितश्चैव क्षारटङ्कणसैन्धवम् ।। प्रचण्ड ताप शान्त होता है। विडं चित्रं कानकञ्च रसतुल्यं पृथक् पृथक् । भावयेत्रिदिनं यावत् त्रिवृच्चित्रकणार्द्रकैः ।। इस रसके ऊपर रोगीकी इच्छानुसार भोजन | गुजामात्रां वटी खादेत्सद्यःप्लीहविनाशिनीम् । देना चाहिये । तथा उसके शरीरपर चन्दनादिका मधपिप्पलिसंयुक्तां द्विगुआं वा प्रयोजयेत् ।। लेप करना चाहिये । प्लीहानमग्रमांसश्च यकृद्गुल्मंसुदुस्तरम् । (४४८३) प्राणेश्वरो रसः (४) आमाशयेषु सर्वेषु चोदरे शोथविद्रधौ ।। अग्निमांधे ज्वरे चैव प्लीहि सर्वज्वरेषु च । (भै. र. । ज्वराति.; र. चं.; रसें. सा. सं. । ज्वरा.) | श्रीमद्गहननाथेन भाषितः प्लीहशार्दलः॥ रसगन्धकमभ्रश्च टङ्कणं शतपुष्पकम् । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सेांठ, मिर्च और यमानी जीरकाख्यञ्च प्रत्येकं कर्षयुग्मकम् ॥ पीपल १-१ भाग, तात्रभस्म ५ भाग तथा मनकर्षमेकं यवक्षारं हि पटुकपञ्चकम् । सिल, कौड़ीभस्म, तुत्थभस्म, भुनी हुई हींग, लोह विडजेन्द्रयवं सर्जरसकं चामिसङ्गितम् ॥ भस्म, जयन्ती, रुहेड़ेकी छाल, यवक्षार, सुहागेकी धृष्टदा च वटिका कार्या नाम्ना प्राणेश्वरो खील, सेंधानमक, बिडनमक, चीतामूल और धतू. | रेके बीज १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य जोषियोंशुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रकभस्म, सुहा- | स्म, सुहा- का महीन चूर्ण मिलाकर सबको ३-३ दिन गेको खील, सौंफ, अजवायन और जीरा २-२ निसोत, चीता और पीपलके काथ तथा अद्रकके कर्ष तथा जवाखार, हींग, पांचों नमक, बायवि- रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। डंग, इन्द्रजौ, राल और चीता १-१ कर्ष लेकर इनमेंसे २-२ गोली पीपलके चूर्ण और प्रथम पारे गन्धककी कम्जली बनावें और फिर शहदके साथ सेवन करनेसे प्लीहा, अप्रभास, उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर पानीके | यकृत् दुस्साध्य गुल्म, आमाशय रोग, उदररोग, साथ घोटकर (१-१ माशेकी ) गोलियां बना लें। शोध, विद्रधि, अग्निमांद और परका नाश (इनके सेवनसे ज्वरातिसार नष्ट होता है।) होता है। For Private And Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५३०] भारत-भैषज्य-लाकरः। [पकारादि (४४८५) प्लीहान्तको रसः (४४८६) प्लीहारिरसः (१) (भै. र. । प्लीह.) (भै. र.; र. सा. सं.; र. रा. सु. । प्लीहा.) कक तालचूर्णस्य तत्पादांशं सुवर्णकम् । गृतं शुल्वञ्च तारञ्च गगनायसमौक्तिकाः। पला मृतताम्रञ्च तत्सम शुद्धमभ्रकम् ॥ दरदं पुष्करं मृतं गन्धकं नवमं तथा ॥ मृगाजिनस्य भस्मापि कर्षमत्र प्रदापयेत् । गुग्गुलस्विकट रास्ना तथा जैपालबीजकम् । लिम्पाकात्विचस्तद्वत्सर्वमेकत्र कारयेत् ।। प्रिफला कटुका दन्ती देवदाली तु सैन्धवम् ।। गुमाद्वयं प्रमाणेन वटिकां कारयेत्ततः । पिता तु यवक्षारं वातारितैलमर्दितम् ।। मधुना वहिपूर्णेन खादेन्नित्यं यथावलम् ॥ अशोदराणि पाण्डत्वमानाहं विषमज्वरम् ।। असाध्यमपि प्लीहानं हन्त्यवश्यं न संशयः। अजीर्णमाम कर्फ क्षयन सर्वशूलकम्।। यकृतं पाण्डुरोगच गुल्मादिकभगन्दरान् । कास श्वास शोथञ्च सर्वमाशु व्यपोहति ॥ शुद्ध हरताल १ कर्ष (२१ तोला), स्वर्णप्लीहान्तको रसो नाम प्लीहोदरविनाशनः॥ भस्म चौथाई कर्ष ( ३॥ माशे), ताम्रभस्म २॥ ___ ताम्रभस्म, चांदीभस्म, अभ्रकभस्म, लोहभस्म, तोले, अभ्रकभस्म २॥ तोले, मृगचर्मकी भस्म १॥ मोतीभस्म, शुद्ध हिंगुल, पोखरमूल, शुद्ध पारद, तोला और बिजौ रेनीबूफी जड़की छालका चूर्ण । शुद्ध गन्धक, शुद्ध गूगल, सेांट, मिर्च, पोपल, तोला लेकर सबको एकत्र मिलाकर पानीके साथ राला, शुद्ध जमालगोटा, हरं, यहेड़ा, आमला, | घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। कुटकी, दन्तीमूल, बिंडालडोढा, सेंधानमक, निसोत । इन्हें चित्रकमूलकी छालके चूर्ण और शहदके और जवाखार समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक- साथ सेवन करनेसे असाध्य प्लीहा भी अवश्य नष्ट की कज्जली बनावें और फिर उसमें नमालगोटा । हो जाती है। इसके अतिरिक्त ये यकृत् , पाण्डु, तथा गूगल डालकर थोडा थोड़ा अण्डीका तेल | गुल्म और भगन्दर को भी नष्ट करती हैं। डालते हुवे अच्छी तरह घोटें । जब गूगल कज्ज- (४४८७) प्लीहारिरसः (२) लीमें मिल जाय तो अन्य समस्त चीजोका महीन (भै. र. । प्लीहा.) चूर्ण मिलाकर आवश्यकतानुसार अण्डीका तेल पारदं गन्धकं टकं विषं व्योष फलत्रयम् । डालकर घोटकर (६-६ रत्तीकी) गोलियां बनालें। तोलकस्य समोपेतं जैपाल तदर्द्धकम् ॥ गोलियां आट प्रकार के उदर रोग. पाण्ड. किंशुकस्य रसेनैव याममात्रन्तु मर्दयेत् । मानाह, विषमज्वर, अजीर्ण, आम, कफ, क्षय, सब ! गुआमात्रां वटीं कृत्वा छायायां सोषयेत्ततः॥ प्रकारले शूल, खांसी, श्वास, शोथ और विशेषतः वटिकैका प्रदातव्या शृङ्गवेररसेन च । गिल्लीका नाश करती हैं । | गुदाकरे गुल्मशूले प्लीहशोथे कफात्मके । For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] इतीयो भागः। [५३१] - नष्ट ह उदावते वातशूले श्वासकासज्यरेषु च। चूर्ण ५ तोले लेकर प्रथम पारेगन्धककी कज्जली रसः प्लीहारिनामाय कोष्ठामय विनाशनः॥ बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको आमवातगदच्छेदी श्लेष्मामयविनाशनः ॥ | पानीके साथ घोटकर ९-९ रत्तीकी गोलियां ___ शुद्ध पारद, शुंद्र गन्धक, सुहागेकी खील, | बनावें । शुद्ध बछनाग, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और इनके सेवनसे प्लीहा, यकृत् , और गुल्म अवश्य आमला १-१ तोला तथा शुद्ध जमालगोटा सबसे | आधा लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनायें | (व्यवहारिक मात्रा ४-६ रत्ती) और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण | (४४८९) प्लीहारिवटिका मिलाकर सबको १ पहर केसूके फूलेकि रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बनाकर छायामें (भै. र. । प्ली.) सुखालें। महासाराभ्रकासीसलशुनानि समानि च । इनमेंसे १-१ गोली अदरकके रसके साथ द्रोणपुष्पीरसेनैव मर्दयेत्महरत्रयम् ॥ देनेसे अर्श, गुल्म, शूल, प्लीहा, कफजशोथ, उदा बल्लद्वयं प्रदातव्यं भदोषे सलिलं हनु। वर्त, वातजशूल, श्वास, खांसी, ज्वर, समस्त उदर प्लीहानं यकृतं गुल्ममनिमान्ध सशोथकम् ॥ विकार और आमवात तथा कफविकार नष्ट कासं श्वासं तृषां कम्पं दाह शीतं वर्मि भ्रभिम् । होते हैं। प्लीहारिवटिका ह्येषा नाशयेन्नात्र संशयः ।। एलवा, अभ्रकभस्म, कसीस और ल्हसन (४४८८) प्लीहारिरसः (३) समान भाग लेकर सबको ३ पहर गूमाके रसमें (र. सा. सं.। प्लीह.; रसें. चिं. म. । अ.. घोटकर ६-६ रत्तीकी गोलियां बनावें। ९; र. रा. सु.। प्ली.) इन्हें सायकालके समय पानीके साथ सेवन द्विकर्ष लौहभस्मापि कर्ष तानं प्रदापयेत् । करनेसे प्लीहा, यकृत् , गुल्म, अग्निमांद्य, शोथ, शुबसूतं तथा गन्धं कर्षमानं भिषग्वरः ।।। खांसी, श्वास, तृषा, कम्प, दाह, शीत, वमन और मृगाजिनं पलं भस्म लिम्पाकाङ्गित्वचः पलम् । भ्रमका नाश होता है। एवं भागक्रमेणैव कुर्यात्प्लीहारिका वटीम् ।। नव गुञ्जामितां खादेचाथ नित्यं हि पूतवान् । (४४९०) प्लीहार्णवो रस: प्लीहानं यकृतं गुल्मं हन्त्यवश्यं न संशयः।। (भै. र.; र. रा. .: र. . . . . . - प्लीहा.: रसें. 4. . ॐ ___लोहभस्म २॥ तोले, ताम्रभस्म ११ तोला, । . शुद्ध पारद और गन्धक ११-१। तोला, मृगचर्म- । हिलं गन्धक समकालिन भस्म ५ तोले और बिजौरकी जड़की छालका : प्रत्येक पलिका : For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५३२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि पिप्पलीमरिचञ्चैव प्रत्येकञ्च पलार्द्धकम् । | लेकर सबको एकत्र घोटकर अत्यन्त महीन चूर्ण मदेयित्वा वटीं कुर्यात् वल्लमात्रां प्रयत्नतः॥ । बनावें और उसे पानीमें खरल करके ३-३ रत्तीकी सेव्या शेफालिदलजैवटी माक्षिकसंयुता। गोलियां बना लें। प्लीहानं पट्मकारश्च इन्ति शीघ्रं न संशयः ॥ इन्हें शहद में मिलाकर हारसिंगार के रसके ज्वरं मन्दानलं चैव कासं श्वासं वर्मि भ्रमिम् । साथ सेवन करनेसे ६ प्रकारका तिल्ली रोग शीघ्र प्लीहार्णव इति ख्यातो गहनानन्दभाषितः॥ ही नष्ट हो जाता है। शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, इसके अतिरिक्त यह गोलियां ज्वर, मन्दाअभ्रकभस्म और शुद्ध बछनागका चूर्ण ५-५ तोले | मि, खांसी, श्वास वमन और भ्रमको भी नष्ट तथा पीपल और कालीमिर्चका चूर्ण २॥ २॥तोले | करती हैं। इति पकारादिरसपकरणम् अथ पकारादिमिश्रप्रकरणम् । (४४९१) पञ्चकोलसिद्धपैया ___ गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोघृत और गाय (वं. से. । शूल.) का दही । इन पांचोंको “पागम्य" कहते हैं। श्लेष्मशूलहरा पेया पञ्चकोलेन साधिता॥ । (४४९३) पञ्चमित्रम् १ तोला पञ्चकोलको २ सेर पानीमें पका- (यो. र. । लोहमारण प्र.) कर आधा शेष रहने पर छान लें और फिर उस | मधुगुडघृतगुञ्जाटणं पञ्चमित्रम् । पानीमें चावलांकी पेया (कणयुक्त मांड ) बनावें। शहद, गुड़, घी, चौंटली और सुहागा । यह पेया कफज शूलका नाश करती है । | इन पांचोंके योगका नाम " पथमित्र" है। (४४९२) पञ्चगव्यम् (४४९४) पत्रमूल्यादिपेया (भै. र. । परिभाषा.) (इ. मा. । रक्तपि.) गोमूत्रं गोमय क्षीरं गव्यमाज्यं दधीति च। । शालिपादिना सिदा पेया पूर्वमधोगते । युक्तमेतद्यथायोगं पञ्चगव्यमुदाहृतम् ॥ रक्तातिसारहन्ता च योज्यो विधिरशेषतः ॥ For Private And Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५३३) शालपणी, पृष्ठपर्णी, फटेली, कटेला और | नीसे मथकर पीनेसे विषमज्वर, हृद्रोग, खांसी, गोखरु समान भाग मिला कर १। तोला लें और श्वास और क्षयका नाश होता है। २ सेर पानीमें पकाकर १ सेर पानी शेष रक्खें ।। (४४९७) पश्चाम्लम् इस पानीमें चावलांकी पेया बनाकर पिलानेसे (भै. र. । परिभाषा.) रक्तातिसार और अधोगत रक्तपित्तका नाश | कोलदाडिमवृक्षाम्लैः साम्लवेतससंगतैः । होता है। चतुरम्लन्तु पश्चाम्ल मातुलुङ्गसमायुतम् ॥ ( पेया बनानेके लिये १ सेर पानी में ५ बेर, अनार, इमली और अम्लबेतके योगको "चतुराम्ल" कहते हैं । यदि इसमें बिजौ रेको तोले चावल डालने चाहिये। ) भी सम्मिलित कर लिया जाय तो उसका नाम (४४९५) पञ्चशिरीषोऽगदः " पश्चाम्ल" हो जाता है। (च. स. । चि. अ. । २३ विष.; ग. नि.।। (४४९८) पटोलादियस्तिः सर्पविष.) (च. सं. । चि. अ. ३) पटोलारिष्टपत्राणि सोशीरश्चतुरङ्गलः । शिरीषपुष्पपनत्वक्फलमूलकृतोऽगदः।। हीवेरं रोहिणी तिक्ता श्वदंष्ट्रा मदनानि च ॥ सिद्धः पञ्चशिरीषोऽयं चरस्थिरविषापहः॥ स्थिरा बला च तत्सर्व पयस्यौंदके श्रृतम् । सिरसके पुष्प, पत्र, छाल, फल और मूल क्षीरावशेष निमूह संयुक्तं मधुसर्पिषा ॥ समान भाग लेकर कूट लें। कल्कैर्मदनमुस्तानां पिप्पल्या मधुकस्य च । यह चर ( सर्पादि ) और अचर ( संखिया, वत्सकस्य च संयुक्त बस्ति दधाज्वरापहम् ॥ बछनाग आदि ) विष को नष्ट करनेके लिये पटोल और नीमके पत्ते, खस, अमलतास, अत्युत्तम अगद है। सुगन्धवाला, मजीठ, कुटकी, गोखरु, मैनफल, ( इसे धीमें मिलाकर पिलाना चाहिये ।) | शालपर्णी और खरैटी को आधा भाग जलयुक्त दूधमें पका और जब दूध मात्र शेष रह जाय (४४९६) पञ्चसारम् तो उसे छानकर उसमें शहद, घी तथा मैनफल, ( वृ. नि. र.; ग. नि. । ज्वरा.) नागरमोथा, पीपल, मुलैठी और इन्द्रजौका कल्क मिला सर्पिः क्षौद्रं शृतं क्षीरं पिप्पल्यः सितशर्कराः। कर उसकी बस्ति दें। इससे ज्वर नष्ट होता है। पिबेत्खजेनोन्मथितं पश्चसारमिति स्मृतम् ॥ | ( यह बस्ति विषम ज्वरमें हितकारी है।) विषमज्वरहद्रोगकासश्वासक्षयापहम् ।। (४४९९) पथ्यायोगः घी, शहद, पकाहुवा दूध, पीपलका चूर्ण । (वै. म. र. । पट. ४) और सफेद खांड समान भाग लेकर सबको मथ- | प्रसेकशमनी पथ्या भुक्तस्योपरि चर्विता । For Private And Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६३४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि भोजनके बाद हर्र चबानेसे प्रसेक (मुंहसे । भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें और १ लार बहना ) नष्ट होता है। | मास पश्चात् निकालकर छान लें। (४५००) पद्मिनीपत्रयोगः यह आसव पाण्डु, गुल्म, उदर, अष्ठीला, ( वृ. नि. र.; वं. से. । क्षुद्ररो.) कामला, हलीमक, प्लीहा, यकृत् , शोथ और विषम ज्वरको नष्ट करता है। पबिनीकोमलं पत्रं यः खादेच्छर्करान्वितम् । एतनिश्चित्य निर्दिष्टं न तस्य गुदनिर्गमः॥ ( यह प्रयोग आसवारिष्ट प्रकरणमें आनेसे कमलिनीके कोमल पत्तों को खांड मिलाकर | छूट गया था इस लिये यहां दिया गया है।) सेवन करनेसे कांच निकलना बन्द हो जाता है। (४५०१) पलाशवृन्तयोगः (ग. नि. । नेत्ररो.) पर्पटाचरिष्टः पलाशद्वन्तमाहत्य दन्ना कांस्ये निधापयेत् । ( भै. र.) आश्च्योतनं श्लेष्महरं पक्ष्मणाश्च प्ररोहणम् ॥ पर्पटें तुलामेकां चतुर्दोणे जले पचेत् । पलाशके डंठलों ( अंकुरों ) को कांसीकी काये पादावशेषे च शीते पलशतद्वयम् ॥ थालीमें दहीके साथ घिसकर पतला पानीसा बना दद्याद गुडस्य धातक्याः पलषोडशिका मता। लें। इसकी रोजाना २-३ बूंद आंखों में डालगुडूची मुस्तकं दावी दारु व्याघ्री दुरालभा॥ | नेसे आंखेोके कफज विकार नष्ट होते और पलचव्य चित्रकमूलश्च त्रिकटु क्रिमिनाशनः । | कांके बाल जम आते है। सर्वाण्येतानि सञ्चूर्ण्य पलांशेन विनिक्षिपेत् ॥ (४५०२) पाचनीयक्षारः (रसायनसार) स्थापयित्वा ततो भाण्डे मासादय पिबेदमम। रसशालौषधीनाश्च क्षारा भागाष्टकास्तथा । पाण्डुगुल्मोदराष्ठीलाकामलाच हलीमकम् ॥ शुक्तिशम्यूकशङ्खानां गोमूत्रेषितात्मानम् ॥ प्लीहानं यकृतं शोथं सर्वश्च विषमज्वरम् । चत्वारः क्षारभागाश्च द्वौ भागौ प्रतिसारणात् । एषोऽरिष्टो निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यया ॥ यस्ते मिलिताः क्षाराः पाचनीयतमा मताः॥ | गुल्मप्लीहोदरख्याधीमाशयन्तीति पूजिताः । ६। सेर पित्तपापड़ेको ४ द्रोण ( १२८ सेर ) पानीमें पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह | अनिशं सेव्यमानास्तु बहनर्थकरा नृणाम् ।। जाय तो ठण्डा करके उसमें १२॥ सेर गुड, १ पाचकक्षारसेर धायके फूलोंका चूर्ण तथा ५-५ तोले अर्थ-रसायनशालाकी औषधियोंको जला. गिलोय, नागरमोथा, दारुहल्दी, देवदारु, कटेली, कर जो मैं उनके क्षार बनानेकी विधि लिख चुका धमासा, चत्र, चीतामूल, सेांठ, मिरच, पीपल और हूं उन क्षारांके आठभाग, और सीप, सुकला (धांघा), बायबिडंगका चूर्ण मिलाकर चिकने मटके में | शंख; इनकी भस्मको चार दिन तक गोमूत्र में For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रमकरणम् ] तृतीयो भागः । [५३५ ] डालकर तिरे हुवे जलको आगसे कढ़ाइमें पूर्वकी । पिच्छावस्तिरयं सिद्धः सघृतक्षौद्रशर्करः । तरह पकाकर गाढ़ा कर इस क्षारके चार भाग, प्रवाहिकागुदभ्रंशरक्तस्रावज्वरापहः || और प्रतिसारणीय क्षारके दो भाग, ये तीनों क्षार मिलकर अत्यन्त पाचनीय होते हैं गुल्म प्लीहा आदि अनेक उदर व्याधियोंको नाश करते हैं । चाहे इनको किसी चूर्णके योग में देवे या ऐसे ही जलमें डालकर पिलावे । मात्रा इसकी चार रत्तीसे दो मासे तककी बलाबल देखकर कल्पना करे । यद्यपि इस क्षारमें बहुत गुण हैं तथापि बहुत दिन तक सेवन करनेसे नपुंसकता आदि अनेक को पैदा करता है इस लिये इस क्षारको बिना रोगके अधिक सेवन नहीं करे । (४५०३) पारावतपुरीषादियोगः ( वं. से. । विषरोगा. ) पारावतः शकृत् पथ्या तगरं विश्वभेषजम् । atryररसोपेतः परमो वृश्चिकागदः ॥ कबूतरकी बीट, हर्र, तगर और सेठ । सबके समान भाग चूर्णको बिजौरे नीबूके रसमें मिलालें । जवासामूल, कुशाकी जड़, कासकी जड़, सेंभलके फूल तथा बड़, गूलर और पीपलके अंकुर २ - २ पल ( २०-२० तोले ) लेकर सबको एकत्र कूट कर ६ सेर पानी और २ सेर दूधमें एकत्र मिलाकर पकायें । जब दूधमात्र शेत्र रह जाय तो उसे छानकर उसमें सेंभलका गोंद, मजीठ, लालचन्दन, नीलोत्पल, इन्द्रजौ, फूलप्रियङ्गु और कमलकेसरका कल्क तथा घी, शहद और खांड मिलाकर उसकी बस्ती करावें । यह बस्ती प्रवाहिका, गुदभ्रंश, रक्तस्राव और ज्वरको नष्ट करती है । (४५०५) पिच्छाबस्ति: (२) ( वृ. यो त । त. ६४ ) अल्पाल्पं बहुशो रक्तं सथूलमुपवेश्यते । यदा वायुविद्धश्च पिच्छावस्तिस्तदा हितः || शाल्मले रार्द्रपुष्पाणि पुटपाकीकृतानि च । सङ्कटघोलूखले सम्यगृह्णीयात्पयसि शृते ॥ यह बिच्छूके विषके लिये अत्युत्तम अगद है। गृहीत्वा पट्पलं तस्य त्रिपलं घृततैलयोः । (४५०४) पिच्छाबस्तिः (१) युक्तं मधुककल्केन माक्षिकत्रिपलेन च ॥ तैलाक्तवपुषो दद्यादस्तौ प्रत्यागते रहे । भोजयेत्पयसा वापि पित्तातीसारपीडितम् ॥ ( च. सं. । चि. स्था. अ. १४ अर्थ. ) यवासकुशकाशानां मूल पुष्पञ्च शाल्मलम् । न्यग्रोधोडुम्बराश्वत्थशुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः || त्रिस्थे सलिलस्यैतत् क्षीरप्रस्थे च साधयेत् । क्षीरशेषं कषायं च पूतं कल्कैर्विमिश्रयेत् ॥ कल्काः शाल्मलि निर्याससमङ्गा चन्दनोत्पलम् । पिच्छावस्तिका योग-वत्सकस्य च बीजानि प्रियङ्गुपद्मकेसरम् ॥ पित्तातिसार में जब पीड़ाके साथ बार बार थोड़ा थोड़ा रक्त निकलता हो और वायु रुका हुवा हो तो पिच्छा बस्ति देनी चाहिये । मलके ताजे फूलको बड़ आदिके पसों में For Private And Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५३६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि लपेट कर उस पर कपड़मिट्टी करके कण्डोकी । (४५०८) पिप्पल्यादिपेया निघूम अग्निमें पकावें | जब ऊपर वाली मिट्टीका (च. स. । चि. अ. १४ अर्श.) रंग लाल हो जाय तो फूलांको कूटकर आठ गुने पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्लीम् । दूध और ३२ गुने पानीमें पानी जलने तक पका भृङ्गवेरमजाजीच कारवीं धान्यतुम्बुरुम् ॥ कर छान लें फिर ६० तोले यह दूध, १५-१५ तोले घी और तेल, १५ तोले मुलैठीका कल्क बिल्वं कर्कटकं पाठां पिष्ट्वा पेयां विपाचयेत् । और १५ तोले शहद लेकर सब को एकत्र मिला फलाम्लां यमकैर्भृष्टां तां दद्याद्गुदनापहाम् ॥ कर बस्ति दें। एतैश्चैव खडं कुर्यादेतैश्चैव पाचयेज्जलम् । (४५०६) पिप्पलदलादियोगः एतैश्चैव घृतं साध्यमर्शसां विनिवृत्तये ॥ (वै. म. र. । पट. १६) पीपल, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, अद्रक, जीरा, कालाजीरा, धनिया, तुम्बरु, बेलगिरी, पिप्पलदलकुवलयदल काकड़ासिंगी और पाठाको पीसकर ३२ गुने मास्येन चर्बणं चिरं कृत्वा । पानीमें पकावें जब आधा पानी शेष रह जाय तो दृढधवलाम्बरनिहितं छान कर उसमें चावलांकी पेया ( कणयुक्त मांड) सिञ्चेशि तिमिरनाशाय ॥ | बनाकर उसमें रुचि अनुसार बिजौ रेका रस पीपल और नीलकमलके पत्तोंको बहुत देर मिलाकर और उसे घी तैलसे बधार कर पिलाने से तक मुखमें चबाकर स्वच्छ और मजबूत सफेद अर्श नष्ट होती है। कपड़ेमें बांधकर आंखोंमें निचोड़नेसे तिमिर रोग ___ अर्श में इन्हीं ओषधियोंसे बनाया हुवा नष्ट होता है। खडयूष, इन्हीसे पकाया हुवा जल और इन्हीं से (नोट---जिनके दांत मैले हो या दांतों, | सिद्ध घृत देना चाहिये । मसूढों अथवा मुंहमें कोई रोग हो उन्हें यह क्रिया न करनी चाहिये ।) (४५०९) पिप्पल्यादिवतिः । (४५०७) पिप्पलीशोधनम् (व. मा.; वं. से.; भा. प्र.; यो. र. । योनिरो.) ( यो. र. । भाग. १) पिप्पल्या मरिचर्मावः शताहाकुष्ठसैन्धवैः। वैदेही चित्रकरसैरातपे भावयेत् पुटे । वर्तिस्तुल्या प्रदेशिन्या धार्या योनिविशोधिनी ॥ सम्यक शुद्धा भवत्यत्र रसयोगेषु योजयेत् ।। पीपल, कालीमिरच, उडद, सौंफ, कूठ और पिपलियों में चीतेका काथ डालकर उसे | सेंधा नमकके महीन चूर्णको पानीके साथ पीस धूपमें सुखा देने से वे शुद्ध हो जाती हैं । रसांमें | कर प्रदेशिनी ( तर्जनी ) अंगुलीके बराबर मोटी यही शुद्ध पीपल डालनी चाहिये । । बत्ती बना लें। For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५३७] इसे योनिमें धारण करने से योनिस्राव बन्द | अनेन क्रमयोगेन मलमाम विरेचनम् । होकर योनि शुद्ध हो जाती है। करोति सकलं देहं शुद्धवर्ण निरामयम् ।। (४५१०) पुनर्नवामूलधारणम् बिंडालडोढा, अमलतासका गूदा और गुड़ (रा. मा. । स्त्री. रो.) समान भाग लेकर तीनोंको अच्छी तरह बारीक मूल पुनर्नवायाः सतैलमीपत्कृतं गुह्ये ।। पीसकर बत्ती बनावें । गर्भ प्रवेपमान सहसा स्त्रीणां वहिः कुरुते ॥ इसे गुदामें रखनेसे पेट से आम (कच्चा मल) निकलकर देह शुद्ध हो जाती है। पुनर्नवा ( साठी ) की जड़को तैलसे चिकना करके योनिमें प्रविष्ट करनेसे मूढ़ गर्भ तुरन्त बाहर ____ आमके साथमें बत्ती भी बाहर निकल आती आ जाता है। है, उसे पानीसे धोकर पुनः लगा लेना चाहिये । (४५११) पीलुरसायनम् इसी प्रकार बार बार लगानेसे सब आम निकल जाती है । ( यह प्रयोग प्रवाहिका में अत्यन्त (ग. नि.) | उपयोगी है।) पोलून्या णि सेवेत पतं पक्षार्टमेव वा । न चान्न शीलयेत्किश्चित्तेभ्यः सौख्य (४५१३) पूतीकपत्रादियोगः मवाप्नुयात् ।। (वं. से. । गुल्म., अम्लपित्त.) एतदीशि शमयेच्छ्रेष्ठं पीलरसायनम् । खादेद्वाप्यकुरान् भृष्ट्वा पूतीकनृपक्षयोः । ग्रहणीकृमिदोषाणां गुल्मिनाममृतोपमम ॥ | पिवेत्रिसन्नागरं वा सगुडां वा हरीतकीम् ।। १५ दिन या ७ दिन तफ अन्नादि बन्द करा और अमलतासकी कॉपलेको (धीमें) करके केवल पीलके ताजे फलों पर रहने से अर्श भूनकर खानेसे अथवा निसोत और सांठके चूर्णको ग्रहणी, कृमि और गुल्मका नाश हो कर मनुष्य ! ( गरम पानीके साथ) पीनेसे अथवा हरके चूर्णको सुखी हो जाता है। गुड़में मिलाकर खानेसे गुल्म और अम्लपित्तका यह एक श्रेष्ठ रसायन प्रयोग है और उक्त | नाश होता है। रोगांमें अमृतके समान गुणकारी है। (४५१४) पूपकयोगः (ग. नि. । क्रिमि.) (४५१२) पुष्परेचनी गुटिका आखुपर्णीदलैः पिष्टैः पिष्टकेन च पूपकान् । (र. चं.; र. सा. सं. । विरेका.) पक्त्वा सौवीरकं चानु पिबेत् क्रिमिहरं परम् ॥ देवदाली स्वर्णपुष्पं गुडेन वटकीकृतम् । ___मूषाकर्णी के पत्तोंको पीसकर पुराने चावलों गुदमध्ये प्रदेयैषा पातयेच्य महागदम् ॥ की पिट्टी में मिलाकर उसके पूड़े बनवावें । अधश्च साममायाति पुनः सा दीयते गुदे। इन्हें खाकर ऊपरसे सौवीरक कांजी पीनेसे प्रक्षाल्य वारिणा चैषा वारं वारं प्रयच्छति ॥ । कृमि रोग नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५३८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि (४५१५) पूपलिकायोगः | दिने दिने तत्परिचालयेच्च (ग. नि. । ग्रन्थ्याध.) ___स्वच्छं जलं लोहकटाइमध्ये ॥ वनकार्पासिकामूलं तन्दुलैः सह योजितम् । | निधाय चुल्ल्याश्च पचेत पश्यन् पक्त्वा पूपलिकां खादेदपचीनाशनाय च ।।। सेटार्धशिष्टत्वमवेक्ष्य तत्र । बनकपासकी जड़को पीसकर चावलों की जलं रसोनस्य पलं ददीत पिट्ठी में मिलावें और फिर उसके पूड़े बनवा कर चतुःपलश्चान्ववतारयेत ॥ खावें। वर्णेन रक्तं ममृणं च तीक्ष्णं इनके सेवन से अपची (गण्डमाला भेद ) । क्षारं भरेताथ च काचकूप्याम् । नष्ट होती है। ग्रन्थीनशेषांश्च भिनत्ति कुर्या कोयत्रणांश्चापि कथावशेषान् ॥ (४५१६) पृश्निपादिपेया श्वेतञ्च कुष्ठं गजचर्म दद्न् (. मा.; ग. नि. । ज्वरातिसा.) पृश्निपीबलाविल्वनागरोत्पलधान्यकैः।। क्षारः क्षिणोत्येष विलेपनेन । देशश्च कालं बलमातुरस्य ज्वरातिसारी पेयां वा पिबेत्साम्लां भृतां नरः॥ समीक्ष्य कुर्यात्मतिसारयोगम् ।। ___पृष्ठपर्णी, खरैटी, बेलगिरी, सांठ, नीलोत्पल अर्थ--सुश्रुत सूत्रस्थान ११ ग्यारहवें अध्याऔर धनिये के पानीमें पेया ( कण सहित मांड) | हत माड | यमें ग्रन्थि आदि को बहानेवाला प्रतिसारणीय बनाकर उसमें अनारका रस मिलाकर पिलानेसे और पाचनीय दो प्रकारके क्षार लिखे हैं परन्तु और ज्वरातिसार नष्ट होता है। | उन औषधियोंका संग्रह करना बहुत परिश्रमसे साध्य (समस्त ओषधियां समान भाग मिश्रित १। तोला । पाकार्थ जल २ सेर । शेष १ सेर ।) है इस लिये काम चलाने के लिये अपना अनुभूत प्रतिसारणीय नामक (प्लेगआदि रोगांकी गाठेको (४५१७) प्रतिसारणीय फोड़कर बहाने वाला ) क्षार लिखता हूं(ग्रन्थिभेदन)क्षारः एकसेर (लोटिया) सज्जी, दोसेर विनाबुझा(रसायनसार) या हुवा चूना, दोनोंको कूट कर एक नांदमें डाल दे सेटोन्मिता स्वर्जिरथो सुधापि और उसी नांदमें एक मन पक्का पानी भरदे; फिर द्विसेटिका तद्वयकुट्टनेन । डंडेसे चूना सज्जी और पानी तीनोंको खूब मिलादे, चूर्ण विधायाथ निधाय नान्यां परन्तु यह स्मरण रहे कि इसको हाथसे कभी न मणप्रमाणेन जलेन साकम् ॥ मिलावे नहीं तो हाथका चमड़ा उतर जायगा। सन्नीय दण्डेन निराहते चो फिर खुलेहुवे मैदान में इसको पांच दिन तक पेक्ष्येत देशे दिनपश्चकं तत् । । छोड़दे, जिसमें धूप और चन्द्रमाकी चांदनी इसपर For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मिश्रप्रकरणम् ] पड़ती रहे । दिनमें एक दो बार पांच दिन तक डंडेसे इसको चला दियाकरे, जिससे नांदके पैदेमें जम न जाय । बाद छठे दिन गंगाजलके माफिक नितरे हुवे (थहरायेहुवे ) निर्मल जलको दूसरी स्वच्छ लोहेकी कढ़ाइमें निकाल लेवे; इस कढ़ाईको भठ्ठीपर चढ़ाकर पकावे, जब आधा सेर मात्र पानी बाकी रहे तब इसमें लहसुनका चार तोला स्वरस डाल दे और मन्दी २ आंच से पकाना शुरूकरे । जब अन्दाज सोलह तोले पानी रह जाय तब कढ़ाईको भहीसे उतारकर ठंडी कर लेवे । बस प्रतिसारणीय क्षार बन गया, इसका रंग लाल हो जाता है, और यह बहुत चिकना होता है। जहां पर लग जायगा उस जगह तुरन्त घाथ कर देगा । यदि थोडासा लगाया जायगा तो फलक पैदा कर देगा। इस क्षारको शीशी में भरकर रख छोड़े। प्लेगकी गांठ या और फोड़ेकी गांठ जहांपर शस्त्र लगाने की आवश्यकता हो उन सब गाठोंको फोड़कर यह क्षार बहा देगा और उस जगहको काली कर देगा, जो कुछ समय (महीना पन्दरह दिन) में स्वयं चमड़े के रंगमें मिल जायगी । इसके लगानेपर तृतीयो भागः । [५३९] इतना भारी मरीज़को दुःख भी नहीं होता है । यदि रोगी इतना दुःख भी नहीं सह सके तो सौ बार धोया हुवा घी लगा देने से पोड़ा तुरन्त बन्द हो जाती है । और जो घाव ऐसे सड़े हुवे हैं कि जिनका अच्छा होना बहुत मुशकिल है उनके ऊपर लगा देने से भी उनको तत्काल जलाय देगा, परन्तु घाव में लगानेसे कुछ अधिक पीड़ा मालूम होगी इसलिये कुछ इसमें पानी मिलाकर लगावे, जब घाव कमजोर पड़ जाय तब बिनाही पानी मिलाये थोड़ा थोड़ा लगावे | बवासीर के मस्से जो बाहर होयं अथवा और शरीर में जहां कहीं मस्से हों या सफेद कुष्ठका कोई दाग हो या गजचर्म दाद अर्थात् जिस जगहको साफ करना हो उसी जगह लेप कर देनेसे उतनी जगह को उपाड़कर फेंक देगा और अपना घाव कर देगा, इस घावके ऊपर गरम घी चुपड़ने से पीड़ा भी शान्त हो जावेगी और घाव भी अच्छा हो जावेगा । इस क्षारका स्वभाव गरम है इसलिये गरम देश, गरमकाल, रोगीकी पित्तप्रकृतिको बचा कर इसका प्रयोग करे । (रसायनसारसे उद्धृत ) इति पकारादिमिश्रप्रकरणम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५४०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ फकारादि अथ फकारादिकषायप्रकरणम्। (४५१८) फलत्रिकादिक्काथः (१) (४५२०) फलत्रिकादिकाथः (३) ( वृ. नि. र. । सन्निपाता.) (बं. से. । स्त्रीरो.) फलत्रिकं दारु वचा सवासा फलत्रिकत्र्यूषणमुस्तकट्टी ___ लाजा सदूर्वा कलशी समझा। कलिङ्गसिंहाननशर्वरीभिः । लौद्रान्वितं काथमिदं सुशीतं कायः कृतः कृन्तति कण्ठकुब्ज सर्वात्मके पेयममुग्दरे हि ॥ ___कण्ठीरवः कुञ्जरमाशु यद्वत् ॥ हर, बहेडा, आमला, देवदारु, बच, बासा, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, धानकी खील, दूर्वा, पृष्ठपी और मजीठके काथको नागरमोथा, कुटकी, इन्द्रजौ, बासा और हल्दीका ठण्डा करके उसमें शहद मिलाकर पीनेसे सन्नि. काथ कण्ठकुन्ज सन्निपातको नष्ट करता है। पातज रक्तप्रदर नष्ट होता है। (४५१९) फलत्रिकादिक्काथः (२) (४५२१) फलत्रिकादिकाथः (४) ( यो. त. । त. ५१; वृ. मा. । प्रमेहा.) (यो. चि. । अ. ४) फलत्रिकं दारुनिशां विशाला फलत्रिकामृतातिक्तानिम्पकैरातवासकाः । मुस्तां च निष्क्वाथ्य निशांशकल्कम् । हरिद्रे पनकं मुस्तापामार्ग चन्दनं कणा ॥ पिबेत्कषायं मधुसंयुतं च पटोल पर्पटं चैषां काथः कमलवातहा॥ ___ सर्वप्रमेहेषु समुत्थितेषु ॥ हर, बहेड़ा, आमला, गिलोय, कुटकी, नीमकी हर, बहेड़ा, आमला, दारुहल्दी, इन्द्रायन | छाल, चिरायता, बासा, हल्दी, दारुहल्दी, पाक, और नागरमोथा; इनके काथमें शहद और हल्दीका | नागरमोथा, अपामार्ग ( चिरचिटा ), लालचन्दन, कल्क मिलाकर पीनेसे सब प्रकारके प्रमेह नष्ट | पीपल, परवल और पित्तपापड़ेका काथ कामलाको नष्ट करता है। For Private And Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] तृतीयो भागः। [५४१] - (४५२२) फयादिकषायः भरंगी, छोटी तुलसी, हरै, बहेड़ा, आमला, (ग. नि. । क्रिमिरो.) मूषाकर्णी, बायबिडंग, पीपल, चीता और सहजनेफजीफणिज्जकफलत्रितयाखुपर्णी- की छालका अथवा पीपल और बायबिडंगका काथ कायः क्रिमिनमगधाशिखिशिग्रुयुक्तः। पीनेसे कृमि और तजन्य रोग नष्ट होते हैं। पीतः क्रिमीनपहरेत् क्रिमिजा रुजश्च जन्तोर्जयेदय कणाक्रिमिजित्कषायः ॥ इति फकारादिकपायप्रकरणम् । अथ फकारादिचूर्णप्रकरणम्। १४५२३) फलत्रिकादिपूर्णम् (१) । (४५२४) फलत्रिकादिचूर्णम् (२) (इ.नि. र. । स्वरभेद.; दू. यो. (व. से.; वृ. नि. र. । मेदारो.) त. । त. ८१) फलत्रयं त्रिकटुकं सतैलं लवणान्वितम् । षड्मासमुपभुक्तं चेत्कफमेदोनिलापहम् ॥ फलत्रिकत्र्यूषणयावशूक हर्र, वहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल __ चूर्णानि हन्युः स्वरमामाशु । और सेंधा नमकके चूर्णको तेलके साथ ६ मास किंवा इलित्य बदनान्तरस्य तक सेवन करनेसे कफ, मेद और वायु नष्ट हो स्वरामयं हन्त्यय पौष्करं वा॥ जाता है। हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल और (४५२५) फलिन्यादिवर्णम् जवाखारका चूर्ण ( शहदमें मिलाकर) चाटनेसे (वृ. नि. र. । बालरो.) | फलिन्यञ्जनमुस्तानां चूर्ण पीतं समाक्षिकम् । स्वरभंग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। तृष्णां छर्दिमतीसारं बालानां तत्वतो हरेत् ।। ___ अथवा कुलथी या पोखरमूलको मुंहमें रख- फूलप्रिया, सुरमा और नागरमोथेका चूर्ण नेसे भी स्वरभंग (गला पड़ना रोग ) नष्ट हो शहदमें मिलाकर चटानेसे बालकांकी तृष्णा, छर्दि जाता है। और अतिसारका नाश होता है। इति फकारादिचूर्णमकरणम् For Private And Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५४२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [फकारादि अथ फकारादिगुटिकाप्रकरणम्। (४५२६) फलत्रयगुटी | (४५२७) फलत्रिकायो मोदक (वृ. नि. र. । श्वासकर्म.) (ग. नि. । परिशिष्ट गुटिका ४ ) फलत्रयं नागरदारुकृष्णा फलत्रिकगुडव्योषशर्करात्रितादिकम् । विषानपावेल्लसुवर्णवीजैः। मोदकं भक्षयित्वाऽनुपिबेत्कोष्णं जलं पुनः । दिनत्रयं भृङ्गरसैविमर्च पार्श्वशूलेऽरुचौ कासे ज्वरे चानिलसम्भवे ॥ कार्या गुटी श्वासकफापहारी॥ हरै, बहेड़ा, आमला, गुड़, सांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेडा, आमला, सेठ, देवदारु, पीपल, | खांड और निसोतका चूर्ण समान भाग लेकर शुद्ध बछनाग, सुगन्धबाला, बायबिडंग और धतू- ( सबसे २ गुने गुड़की चाशनीमें मिलाकर ) रेके बीजोंका समानभाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र | उसके मोदक बना लीजिये। मिलाकर ३ दिन भंगरेके रसमें घोटकर ( १-१ इन्हें उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे पस. माशेको ) गोलियां बना लीजिये। लीका दर्द, अरुचि, खांसी और वातज ज्वरका नाश इनके सेवनसे श्वास और खांसीका नाश होता है । होता है। (भात्रा-६ माशेसे १ तोले तक ।) इति ककारादिगुटिकाप्रकरणम् । अथ फकारादिघृतप्रकरणम्। (४५२८) फलघृतम् अजमोदा हरिद्रे द्वे प्रियङ्ग र कटुरोहिणी। ( वं. से.; र. र.; वृ. मा.; भा. प्र. म. ख.; यो. उत्पलं कुमुदं लाक्षा३ काकोल्यौ चन्दनद्वयम् ।। र. । योनि रोगा.; भै. र. । स्त्रीरो.; ग. नि.। एतेषां कार्षिकैर्भागघृतप्रस्थं विपाचयेत् । घृता.; वा. भ. । उ. स्था. अ. ३४) शतावरीरसं क्षीरं घृताइयम् चतुर्गुणम् ॥ मनिष्ठा मधुकं कुष्ठं त्रिफला शर्करा बला।। सपिरेतभरः पीत्वा स्त्रीषु नित्यं वृषायते । मेदे पयस्या काकोली मूलं चैवाश्वगन्धनम् ।। | पुत्राञ्जनयते वीरान्मेधादयान्मियदर्शनान् ।। चेति पाठान्तरम् । २-हिङ्गविति पाठान्तरम् । ३ ब्राक्षेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] सृतीयो भागः। [५४३] या चैवास्थिरगर्मा स्यात्पुत्रं वा जनयेन्मृतम् । इस घृतको नित्य प्रति सेवन करनेसे मनुअल्पायुषं वा जनयेथा च कन्यां मसूयते ॥ । प्यमें स्त्री समागम करनेकी शक्ति बढ़ती है और योनिरोगे रजोदोषे परिस्राये च शस्यते। वह वीर, मेधावी तथा सुन्दर पुत्रोत्पादनमें समर्थ प्रजावर्धनमायुष्यं सर्वग्रहनिवारणम् ॥ होता है। नाम्ना फलघृतं ह्येतदश्विभ्यां परिकीर्तितम् । | जिस स्त्रीका गर्भ स्थिर न रहता हो, जो अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिपन्त्यत्र चिकित्सकाः ।। | मृत पुत्रोंको जन्म देती हो, या जिसके बच्चे जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतं तत्र प्रयुज्यते। | थोड़ी उमरमें ही मर जाते या जिसके कन्या आरण्यगोमयेनेह वह्निज्वाला च दीयते ॥ । ही कन्या उत्पन्न होती है। उसके लिये यह घृत कल्क---मजीठ, मुलैठी, कूठ, हरे, बहेड़ा, । अत्यन्त हितकारी है । आमला, खांड, खरैटी (पाठान्तरके अनुसार बच ) मेदा, महामेदा, क्षीरकाकोली, काकोली, असगन्ध यह घृत योनिदोष, रजोदोष, गर्भस्राव और ग्रहदोषोंको नष्ट करता है । तथा इसके मूल, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, फूलप्रियङ्गु सेवनसे आयु बढ़ती और सन्तान वृद्धि होती है। (पाठान्तरके अनुसार हींग ) कुटकी, नीलोत्पल, कुमुद, लाख ( पाठान्तरके अनुसार मुनक्का ) इस घृतमें चिकित्सक लक्ष्मणामूल भी डालते काकोली, क्षीरकाकोली, लालचन्दन और सफेद हैं । इसे गायके उपलोंकी अग्नि में पकाना चाहिये। चन्दन प्रत्येक ११-१। तोला लेकर पानीके (४५२९) फलघृतम् ( वृहत् ) साथ पीस लें। (वृ. यो. त. । त. १३९; वृ. मा. । योनिरोगा.; ___ जिसका बच्चा जीता हो ऐसी १ रंगकी शा. ध. । म खं. अ. ९) गायका घी २ सेर । तथा शतावरका रस और गायका दूध ८-८ सेर लेकर सबको एकत्र मिला- मुस्तं कुष्ठं हरिद्रे द्वे पिप्पली कदरोहिणी । कर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो काकोली क्षीरकाकोली विडङ्ग त्रिफला वचा॥ छान लें। मेदा रास्ना विशाला च देवदारु प्रियङ्गका । ४.-गदनिग्रहमें द्वे सारिवे शताहा च दन्ती मधुकमुत्पलम् ।। काकोली, क्षीरकाकोली दुबारा न लिख कर उनकी | अजमोदा महामेदा चन्दनं रक्तचन्दनम् । जगह जीवक ऋषभक लिखे हैं। तथा रेणुका, देवदारु जातीपुष्पं तुगाक्षीरी कट्फलं हिङ्गु शर्करा ।। और कटेली तथा कटेला अधिक लिखा है। एवं कुमुदकी अगह पाक लिखा है और सफेदचन्दन तथा शतावरीके रसका अभाव है। चतुर्गुणेन पयसा विपचेद्गोमयाग्निना ॥ वाग्भट में कल्कमें तगर और शतावर अधिक है। तथा खांद, नीलोत्पल, कुमुद, लाख, चन्दन और सफेद चन्दन एवं शतावरीके रस और दूधका अभाव है। 'सपिरेतन्नरः पीत्वा स्त्रीषु नित्यं वृषायते ॥ नाप For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५४४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [फकारादि याच वन्ध्या पिबेनारी या च कन्यामजायिनी।। यदि इस घृतको पुरुष सेवन करता है पीत्वैतत्स्थिरगर्भा स्याधा च मूता पुनः तो उसमें स्त्रीसमागमकी शक्ति बढ़ती है। स्थिता ॥ | जिस स्त्रीके सन्तान न होती हो या जिसके अनायुषं या जनयेधा वा जनयते मृतम् । कन्या ही कन्याएं होती है, जिसके बार बार सा च सञ्जनयत्पुत्र दाघायुषमरागणम् ।। गर्भ रहकर नष्ट हो जाता हो, जो खी मृत या वेदवेदानशास्त्रज्ञ सर्वावयवसुन्दरम् । अल्पायु सन्तान उत्पन्न करती हो वह यदि इसे नानेन सदृशं किश्चिदौषधं चान्यदुसमम् ॥ सेवन करे तो दीर्घायु और रोग-रहित पुत्रको वर्तते मर्त्यलोकेऽत्र योषितां पुत्रदं परम् । | जन्म देने में समर्थ हो जाती है । नाम्ना फलघृतं ह्येतद्भारद्वाजेन निर्मितम् ॥ पुत्र प्राप्त कराने वाला स्त्रियों के लिये संसार अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिप्यन्त्यत्र चिकित्सकाः। | में इससे उत्तम एक भी औषध नहीं है । जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतमस्मिन् प्रशस्यते ॥ आरण्यगोमयेनात्र वहिज्वालाविधिः स्मृतः॥ इस प्रयोगमें १ वर्णकी जीवद्वत्सा (जिसका बच्चा जीता हो ऐसी ) गायका घी लेना चाहिये कल्क द्रव्य-नागरमोथा, कुठ, हल्दी, और उसे जंगली उपलों की अग्निपर पकाना दारुहल्दी, पीपल, कुटकी, काकोली, क्षीरकाकोली, चाहिये। बायबिडंग, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ), बच, मेदा, रास्ना, इन्द्रायनकी जड़, देवदार, फूल (४५३०) फलघृतम् प्रियङ्ग, दोनों सारिवा, सौंफ, दन्तीमूल, मुलैठी, ( यो. चि. । घृता. ५.; बं. से. । स्त्री रो.; नीलोत्पल, अजमोद, महामेदा, सफेदचन्दन, लाल शा. घ. । म. ख. अ. ९) चन्दन, चमेलीके फूल, बंसलोचन, कायफल, सहचरे द्वे त्रिफलां गुडूचीं सपुनर्नवाम् । हींग और खांड ११-११ तोला लेकर सबको शुकनासां हरिद्रे द्वे रास्नां मेदां शतावरीम् ।। पानीके साथ पीस लें। कल्कीकृत्य घृतपस्थं पचेत्सीरे चतुर्गणे । ____ नोट-वृन्द माधव में दन्तीका अभाव है। तत्सिद्धं पाययेनारी योनिशूलनिपीडिताम् ।। शारजघरमें देवदारु और महामेदा का अभाव है। पीडिता चलिता या च निःस्ता विकृता २ सेर गोघृतमें उपरोक्त कल्क और ८ सेर च या। गायका दूध मिलाकर अरण्य उपलोंकी अग्नि पर पित्तयोनिश्च विभ्रान्ता षण्ढयोनिश्च या स्मृता॥ पकावें। जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे प्रपद्यन्ते हि ताः स्थानं गर्भ गृहन्ति चासकद । छान लें। एतत्फलघृतं नाम योनिदोपहरं परम् ॥ इसे पुष्य नक्षत्रमें पकाना और स्वर्णादिके पीले और नीले फूलका पियानांसा, हरे, पात्रमें भरकर रखना चाहिये। । बहेड़ा, आमला, गिलोय, पुनर्नवा ( साठी ), अर. For Private And Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेलमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५४५] - लुकी छाल, हल्दी, दारुहल्दी, रास्ना, मैदा और इसे सेवन करनेस खियांका योनिशूल, योनि शतावर १०-१। तोला लेकर सबको पानीके साथ विभ्रंश, योनिका बाहर निकल आना, विवृता पीस लें । तत्पश्चात् २ सेर धीमें यह कल्क और योनि, पित्तदूषित योनि और षण्ड योनि आदि ८ सेर गोदुग्ध मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र / समस्त योनिविकार नष्ट होकर स्त्री गर्भधारण करने शेष रह जाय तो उसे छान लें। .. योग्य हो जाती है। इति फकारादिघृतपकरणम् । अथ फकारादितैलप्रकरणम्। (४५३१) फणिज्जका तैलम् मोथा, सेठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, (ग. नि. । तैला.) आमला, बच, सजी और हींग । प्रत्येक ओषधि फणिजकः सक्षवको नादेयं नवमालिका । | ११-१। तोला लेकर पानी के साथ पीसकर अश्मन्तको विडङ्गानि मयूरकफलानि च ॥ कल्क बनावें । फिर यह कल्क, २ सेर तैल और ८ सेर बकरीका दूध एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर वितुम देवदारु सहदेवा च कटलः । पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे बीज कारजपालाशं मूलकस्याजेकस्य च ।। छान लें। महापर्पटको मुस्तं त्रिकटु त्रिफला वचा । इसकी नस्य लेनेसे कण्ठमाला, विदारिका, सुवर्चला च हिमश्च समभागानि कारयेत् ।। गलग्रन्थि और गलगण्डका नाश होता है । अक्षमाः पचेदेभिस्तैलमस्य मुखामिना । । (४५३२) फलवत्तितेलम् अजातीरेण संयुक्तमजाक्षीरे चतुर्गुणे॥ (व. से. । अशे. ) सदस्प नस्य दद्याच गण्डमालाविनाशनम् । | तिक्ततुम्न्युद्भवं तैलं तैलबालसिसम्भवम् । विदारिका गलग्रन्थि गलगण्डं च नाशयेत् ॥ , आक्षोटकरसश्चैव रसं निर्गुण्डीगोमयैः।। छोटी तुलसी, सहजनेके बीज, जलबेत, नव- प्रत्येकैकन्तु सर्वेषां ग्राा पलचतुष्टयम् । मल्लिका ( वासन्ती-नेवारी ), पखानभेद, बायवि- कर्षकं सैन्धवं दयाहन्तीमूलं द्विमाषकम् ।। डंग, चिरचिटेके बीज, धनिया, देवदार, सहदेवी, द्विमाष सर्जिकाक्षारमेतत्तैलं विपाचयेत् । कायफल, करजबीज, ढाक (पलाश ) के बीज, तिक्ततुम्बीकृतावत्तियवेन्द्रस्वरसेन च॥ मूलीके बीज, तुलसीके बीज, पित्तपापड़ा, नागर- तैनाभ्यञ्जनेनैव दद्यादर्नामशान्तये ॥ For Private And Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः [५४६] कड़वी तूम्बीके बीज का तेल, अलसीका तेल, अखरोटका रस, संभालु का रस और गायके गोबरका रस ४०-४० तोले तथा सेंधा नमक १ | तोला, दन्तीमूल २ || माशे और सज्जीखार २ ॥ [ फकारादि माशे लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब ले 1 तेलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान aat तूम्बीके गर्भ (गूदे को इन्द्रयवके रस में पीसकर बत्ती बनावें और उसे इस तैलसे तर कर लें। इसे गुदामें रखने से अर्श का नाश होता है । इति फकारादितैलप्रकरणम् । अथ फंकाराद्यरिष्टप्रकरणम् । (४५३३) फलारिष्टः ( च. सं. । चि. अ. १४ अर्श चि.; ग. नि. । ग्रहण्य. ) हरीतकीफलं प्रस्थं प्रस्थमामलकस्य च । विशालाया दधित्थस्य पाठाचित्रकमूलयोः ॥ द्वे द्वे पले समापोथ्य द्विद्रोणे साधयेदपाम् । पादावशेषे पूते च रसे तस्मिन् प्रदापयेत् ॥ seisi dei वैद्यः संस्थाप्य घृतभाजने । पक्षस्थितं पिवेदेनं ग्रहण्यर्शो विकारवान् ।। हृत्पाण्डुरोगं प्लीहानं कामलां विषमज्वरम् । वर्चोमूत्रानिलकृतान् विबन्धानग्निमाईवम् ॥ कासं गुल्ममुदावर्त्त फलारिष्टो व्यपोहति । अमिसन्दीपनो ह्येष कृष्णात्रेयेण भाषितः || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरे और आमला १-१ सेर, इन्द्रायन के फल, थका फल, पाठा और चीतामूल १०-१० तोले लेकर सबको कूटकर ६४ सेर पानी में पकावें । जब १६ सेर पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें ६ | सेर गुड़ मिलाकर यथाविधि मिट्टीके चिकने बरतमें भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें । एवं १५ दिन पश्चात् छानकर बोतलों में भर लें । यह अरिष्ट ग्रहणी, अर्श, हृद्रोग, पाण्डु, प्लीहा, कामला, विषमज्वर, वायु तथा मलमूत्रका अवरोध, अग्निमांद्य, खांसी, गुल्म और उदावर्तका नाश तथा अग्निको दीप्त करता है । इति फकाराचरिष्टप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूपमकरणम् ] [५४७] - - - - - - - - - - - तृतीयो भागः। अथ फकारादिधूपप्रकरणम् । (४५३४) फिरङ्गशमनीवटी (धूपः) । स सप्तभिर्वा दिवसैश्च तस्मा (भै. र. । परिशिष्टे) द्विमुच्यतेऽम्लं लवणं त्यजेश्चेत् ।। ११-१॥ तोले शुद्ध पारद गन्धककी कजली कर्षद्वयं श्रीशिवयोश्च वीर्य | बनाकर उसमें १। तोला चावलांका महीन चूर्ण मक्षपमाणानि च तण्डुलानि । मिलावें और फिर उसे खरैटीके स्वरस में घोटकर पिष्ट्वा वलायाः स्वरसैश्च सप्त सबकी २१ गोलियां बनावें। विना वटी: सप्तदिनैनियोज्याः॥ इनमें से १-१ गोलीकी धूनी नित्य प्रति ३ वटीत्रयस्यापि निषेव्य नित्यं बार लेनेसे आतशकके घाव भर जाते हैं । खटाई धूमन यो बाब फिरणरोगी। । और नमकसे परहेज़ करना चाहिये । इति फकारादिधूपभकरणम् । अथ फकारादिरसप्रकरणम् । (४५३५) फिरङ्गवातकेसरीरसः कलौंजी का चूर्ण और मुरदासिंग ३-३ टंक (वै. २. । फिरङ्ग.) (१५-१५ माशे) लेकर दानांको अच्छी तरह खरल करें और फिर उसमें ४५ माशे पुराना गुड़ कालाजाजी च कष्ठ टङ्कयामत एयर। | मिलाकर सबको १५ गोलियां बनार्वे । उभयोः सार्द्वगुणितं गुर्ड जीर्ण विनिःक्षिपेत् ।। इनमेंसे प्रति दिन प्रातः तथा सायङ्काल सञ्चयॆ सर्वमेकत्र गुटीः पञ्चदशाचरेत् । १-१ गोली निगलने से ७ दिनमें आतशकके मातः सायं च भोक्तव्या गुटिका सप्तवासरम् ।। | समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं । आतशक के लिये गोधूमरोटिकासपियुक्ता भक्ष्या तु केवला।। इससे उत्तम और कोई औषध नहीं है । फिरजनिताः सर्वोपद्रवा यान्ति संक्षयम् ॥ । पथ्य-केवल गेहूंकी रोटी और घी खाना नास्त्यनेन समो योगः फिरङ्गजनिते गदे ।। । चाहिये । अन्य कोई चीज़ भी न खानी चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५४८] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [फकारादि AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA A AA (नोट----इस पर तनिक भी कुपथ्य होनसे । रजनीकेशरत्रुटयो जारयुग्मं वानिका। मुंह आ जाता है।) चन्दनद्वितय कृष्णा वांसा मांसी च पत्रकम् ।। (४५३६) फिरणशमनीवटी अर्द्धकर्षमितं सर्व चूर्णयित्वा च निक्षिपेत् । (भै. र. । परिशिष्टे) तत्सर्वं मधुसर्पियो द्विपलाभ्यां पृथक्य ।। उडेकपारदमित खदिराद्विटर मदयेदय तत्लादेददकमित नरः । माकारकादिकरमा विघृष्य सप्त। व्रणः फिरङ्गरोगोत्यस्तस्यावश्यं विनश्यति ॥ कृत्वा वटीश्च खलु माक्षिकरामट अन्योऽपि चिरजातोऽपि प्रशाम्यति महा घणः। मातः फिरणशमनाय गिलेच नित्यम् ।। एतद्भक्षयतः शोथो मुखस्यान्तन जायते ॥ कटम्ले च परित्याज्ये भोज्यं रूक्ष विशेषतः। वर्जयेदत्र लवणमेकं विशतिवासरान् ।। समिदिवसनणां फिरतो नश्यति ध्रुवम् ॥ ___ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और कत्था १-१ शुद्ध पारद ५ माशे, कत्था १० माशे और कर्ष ( ११-१।) तोला लेकर तीनोंकी कजली अकरकरेका चूर्ण १० माशे लेकर तीनोंको एकत्र बनावें तत्पश्चात् उसमें आधा आधा कर्ष हल्दी, मिलाकर खरल करें फिर उसमें १५ माशे शहद केसर, छोटी इलायची, दोनों जीरे, अजवायन, सफेद डालकर अच्छी तरह घोटकर सबकी ७ गोलियां और लाल चन्दन, पीपल, वंसलोचन, जटामांसी बना लें। और तेजपातका पूर्ण मिलाकर सबको अच्छी तरह इनमें से नित्य प्रति प्रातः काल १-१ गोली खरल करें और फिर उसमें १०-१० तोले शहद निगलनेसे ७ दिनमें फिरंगरोग (आतशक) अवश्य और घी मिलाकर सुरक्षित रखें । नष्ट हो जाता है। अपथ्य-तीक्ष्ण और स्पट्टी चीज़ों से । इसमें से नित्यप्रति आधा कर्ष औषध सेवन परहेज़ और विशेषतः रूक्ष भोजन करना चाहिये। करनेसे आतशकके घाव तथा अन्य प्रकारके पुराने (४५३७) फिराररसा और बड़े बड़े धाय भी अवश्य नष्ट हो जाते हैं । (भा. . म. खं. फिरारोगा.) इसके सेवनसे मुखमें शोथ उत्पन्न नहीं होता। पारदः कर्षमात्रः स्वातावमात्र तु गन्धकम् । परहेज--२१ दिन तक लवण न खाना सावन्मात्रस्तु खदिरस्तेषां कुर्यात्तु कज्जलीम् ॥ चाहिये । इति फकारादिरसमकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिभप्रकरणम् तृतीयो भागः। [५४९] अथ फकारादिमिश्रप्रकरणम्। (४५३८-३९) फलद्राव: (ग. नि. । वाजीनारणा.) सञ्चूर्ण्य शुण्ठी सगुडां च निस्त्वचं ___ कृत्वा च पकाम्रफलं हि निप्कुलम् । घर्मे धृतं तद्रवति द्वियामात सशर्करं पानकयोग्यमुत्तमम् ।। जम्बूत्वचावहिमरीचदूर्वा चूर्णेनपक्वं कदलीफलं च । श्रेष्ठेन युक्तं प्रविलिप्य निस्त्वचं घर्मे धतं द्वावमुपैति यामात ॥ (१) पके आमेको छीलकर उनका गूदा उतार लें और उसमें मोठ तथा गुडका चूर्ण मिलाकर | धूप में रख दें। २ पहरमें आम्रद्राव तैयार हो जायगा। इसे शीशीमें भरकर सुरक्षित रक्खें । इसे खांडके शर्यतमें डालकर पीना चाहिये । (२) जामनकी छाल, चीता, कालीमिर्च, दूरघास और त्रिफलाके समान भाग मिश्रित चूर्णको केलेकी छिलकेरहित फलियों पर लेप करके धूपमें रख दें तो १ पहरमें उनका पानी हो जायगा। इति फकारादिमिश्रप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५५०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [बकारादि अथ बकारादिकषायप्रकरणम्। (४५४०) यकुलप्रयोगः रक्तातिसारके रोगीको दिनमें बेरीके पत्तोंका (वै. म. र. । पटल ६) | रस और रात्रिको सेठि तथा कदम्बकी छालका काथ बकुलजटाभवकल्कः पयसा पीत: प्रगे त्रिदिनम्। | पाना चाहिये । दृढतरमूलान् कुरुते दन्तान् वृद्धस्य किमुत इससे ३ दिनमें रक्तातिसार नष्ट हो जाता है। बालानाम् ॥ (४५४३) पदरीमूलकल्कः मौलसिरीकी जड़की छालको दूधके साश्च । (शा. ध. । खं. २ अ. ५; व. से. । अति.) पीसकर उसीमें मिलाकर ३ दिन तक प्रातःकाल | बदरीमूलकल्केन तिलफल्कश्च योजितः । सेवन करनेसे वृद्धोंके दांत भी दृढ़ हो जाते हैं। मधुक्षीरयुतः कुर्याद्रक्तातीसारनाशनम् ॥ (४५४१) बदरीपत्रयोगः बेरीकी जड़की छाल और तिलांको पीसकर दूधमें मिला लें और उसमें शहद डालकर रोगीको (वृ. मा. । स्वर.; यो. र. । स्वरभे.; यो. पिला दें। त. । त. ३१) इससे रक्तातिसार नष्ट होता है। बदरीपत्रकल्कं वा घृतभृष्टं ससैन्धवम् ।। । (४५४४) पन्नूलपल्लवयोगः स्वरोपघाते कासे च लेहमेनं प्रयोजयेत् ॥ (रा. मा. । राजयक्ष्मा.) ___ बेरीके पत्तोंको पीसकर घीमें भून लें और | बबूलपल्लवचयं सलिलेन सार्थउसमें सेंधानमक मिलाकर रोगीको चटावें। मापिष्य यः पिवति तस्य कुतोऽतिसारः। इससे स्वरभंग (गलाबैठना) और खांसीका कोकर ( बबूल ) के पत्तोंको पानीके साथ नाश होता है। पीसकर पीनेसे अतिसारका नाम भी नहीं रहता। (४५४२) यदरीपल्लवरसयोगः (४५४५) बन्यूलरसक्रिया (वै. म. र. । पटल ६) (व. से. । उदररो.) बदरीपल्लवरसं पिबेद्रक्तातिसारवान् । | बन्यूलस्य त्वचं श्रेष्ठां काथयेत्सलिलेन तु । शुण्ठीकदम्बत्वक्काथं पिबेद्रात्रौ दिनत्रयम् ॥ । पुनः पचेत्कषायन्तु यावत्सान्द्रत्वमागतम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५५१] - तत्पिमेत्तक्रसंयुक्त तक्रभोजी मिताशनः । गवां स्तनीसंयुतकल्कमेतत् निहन्यादाशु योगोऽयं जलोदरमपि ध्रुवम् ॥ पानं हितं पित्तकफात्मके च ॥ कीकरकी छाल और त्रिफलेको कूटकर आठ | खरैटी, छोटी और बड़ी कटेली, मुलैठी, गुने पानीमें पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष । बासा, कूठ, नीमकी छाल और मुनक्काका कल्क रह जाय तो उसको छानकर पुनः पकाकर गाढ़ा | सेवन करनेसे पित्तकफज खांसी नष्ट होती है। कर लें। (४५४९) बलादिकल्क: (३) इसे तकके साथ पीने और केवल तक पर (यो. र.; उरःक्ष.; ग. नि.; वृ. मा. । रा. य.; ही संयमके साथ रहने से जलोदर तक भी अवश्य ___ भा. प्र. म. ख.; वृ. नि. र.। क्षय.) । शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। | बला विदारी श्रीपर्णी बहुपुत्री पुनर्नवा । (४५४६) यन्चूल्यादिस्वरसयोगः पयसा नित्यमभ्यस्ताः शमयन्ति क्षतक्षयम् ॥ (वृ. नि. र. । अतीसा.) । खरैटी, विदारीकन्द, खम्भारीकी छाल, शतावर स्थूलबन्धूलिकापत्ररसः पानाद्वधपोहति ।। और पुनर्नवा को दुधमें पीसकर पीनेसे क्षत क्षयका सर्वातिसारान् श्योनाककुटजत्वग्रसोय वा ॥ नाश होता है। ___बड़े बबूल के पत्तोंका रस अथवा अरलु या कुड़ेकी छालका रस पीनेसे सर्व प्रकारके अतिसार (४५५०) बलादिकल्कः (४) नष्ट होते हैं। __(वृ. नि. र. । स्त्रीरो.) (४५४७) बलादिकल्कः (१) बलाचांशुमतीद्राक्षा उशीरं तिक्तरोहिणी । (यो. र. । प्रदर.; वृ. मा. । प्रदर; | लवणं चन्दनं कृष्णा सारिवा लोधसंयुता ॥ व. से. । स्त्रीरो.) एतत्कल्कं समधुकं पाययेत्तन्दुलाम्बुना। प्रदरं हन्ति बलाया मूलं दग्वेन संयुतं पीतम्। त्र्यहात्मशमयत्येष योषितां पैत्तिकारुजः॥ कुशवाटयालकमूलं तण्डुलसलिलेन रक्ताख्यम् ॥ खरैटी, शालपर्णी, मुनक्का, खस, कुटकी, खरैटीकी जडको दूध के साथ पीसकर उसीमें सेंधानमक, लाल चन्दन, पीपल, सारिवा, लोध मिलाकर पीनेसे प्रदर नष्ट होता है। | और मुलैठी समानभाग लेकर सबको एकत्र पीसकर कुश और खरैटीकी जहको चावलेोके धोवन | चावलेकि धोवनके साथ पिलानेसे स्त्रियोंका पित्तज के साथ पीसकर पीनेसे रक्तप्रदर नष्ट होता है । प्रदर ३ दिनमें ही नष्ट हो जाता है। (४५४८) यलादिकल्क: (२) (४५५१) बलादिकाथ: (१) (हा. सं. । स्था. ३ अ. १२) (व. से. । वाता.) बलाबृहत्यौ मधुकं वृषं च बलामूलभृतं तोयं सैन्धवेन समन्वितम् । तथैव कुष्ठं पिचुमन्दकं च । । बाहुशोषगते वायौ मन्यास्तम्भे च शस्यते ॥ For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५५२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [रकारादि खरैटीकी जड़के काथमें सेंधा नमक मिला- खरैटी, पुनर्नवा ( बिसखपरा ), अरण्डकी कर पीनेसे बाहुशोष और मन्यास्तम्भ का नाश जड़, दोनों प्रकारकी कटैली और गोखरुके काथमें होता है। सेंधा नमक और हींग मिलाकर पीनेसे वातजशूल (४५५२) बलादिकाय: (२) | नष्ट होता है। (वृ. मा.; व. से.; व. नि. र.; ग, नि.; यो. र.। (४५५५) बलादिफायः (५) कासा.; वृ. यो. त. । त. ७८) ( भा. प्र.; व. से. । वातव्याधि.) बलाद्विपृहतीद्राक्षावासाभिः कथितं जलम। | मूलं बलायास्त्वय पारिभद्रं पित्तकासापहं पेयं शर्करामधुयोजितम् ॥ __ तथात्मगुप्तास्वरसं पिबेद्वा। ___ खरैटी, दोनों प्रकारकी कटेली, मुनक्का और नस्यन्तु यो मापरसेन बासेके काथमें शहद तथा मिश्री मिलाकर पीनेसे दद्यान्मासादसौ वज्रसमानबाहुः॥ पित्तज खांसी नष्ट होती है। खरैटीकी जड़ और नीमकी छालका अथवा (१० तोले काथमें ११-१। तोला शहद । कांचका स्वरस पीने और उड़दके काथकी नस्य और मिश्री मिलाने चाहिये । ) | लेनेसे १ मासमें बाहशोष रोग नष्ट होकर बाहु वनके समान दृढ़ हो जाता है। (४५५३) बलादिकाथः (३) (४५५६) पलादिकाय: (६) (वं. से. । ज्वरा.) (ग. नि. । ज्वरा.) बलाभार्यमृतैरण्डचन्दनोशीर पर्पटैः। बलापटोलत्रिफलायष्टयाहानां वृषस्य च । उपकुल्यान्दहीवेरैः कषायश्च पिवेत्ततः॥ कायो मधयुतः पीतो हन्ति पित्तकफज्वरम् ॥ पर्वभेदशिरःकम्पं वातपित्तज्वरं जयेत् ॥ खरैटी, परवल, हरी, बहेड़ा, आमला, मुलैठी खरैटी, भरंगी, गिलोय, अरण्डकी जड़, | और बासेके काथमें शहद मिलाकर पीनेसे पित्तलालचन्दन, खस, पित्तपापड़ा, पीपल, नागरमोथा | | कफज ज्वर नष्ट होता है। और सुगन्धबालाका काथ पीनेसे पर्वभेद ( जोड़ों (४५५७) बलादिक्षीरम् का टूटना), शिर कांपना और वातपित्तज्वर का (व. से. । अतिसारा.) नाश होता है। बलाविश्वशृतं क्षीरं गुडतेलानु योजितम् । (४५५४) बलादिकाय: (४) दीप्लानि पाययेत्यातः सुखदं वर्चसातये॥ (वृ. यो. त. । त. ९४; वृ. मा.; व. से.; यदि अतिसारमें मलक्षय हो गया हो और यो. र. । शूला.) रोगीकी अग्नि दीप्त हो तो उसे खरैटी और सांठसे बलापुनर्नवैरण्डबृहतीद्वयगोक्षुरैः। पकाये हुवे दूधमें गुड और तैल मिलाकर पिलाना कायः सहिछुलवणः पीतो वातरुजं जयेत् ॥ चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५५३] (४५५८) पलासिद्धक्षीरम् । भिगोकर रख दें और उसे प्रातःकाल पीसकर ( हा. स. । तृ. स्था. अ. १०) तैलमें मिलाकर रोगीको पिलावें। बलाश्चदंष्ट्रामलकीफलानि ___ यह प्रयोग श्वेत कुष्ठको नष्ट करता है। द्राक्षा मधुकं मथुयष्टिकानाम् । (४५६१) बाकुचीबीजयोगः सिद पयः पानमिदं हितं स्यात् । (ग. नि. । कुष्ठा.; वृ. यो. त. । त. १२०) पित्ते सरते मनुजस्य शान्त्यै ॥ विभीतकत्वङ्मलयजटानां खरैटीकी जड़, गोखरु, आमला, मुनक्का, । काथेन पीतं गुडसंयुतेन । महुवा और मुलैठीसे सिद्ध दूध पीनेसे रक्तपित्त आवलगुजं बीजमपाकरोति रोग नष्ट हो जाता है। चित्राणि कुष्ठान्यपि पुण्डरीकम् ।। ( समान भाग मिश्रित ओषधियां ५ तोले, ! बहेड़ेकी छाल और कठूमर ( कठगूलर )की दूध १ सेर, पानी ४ सेर । सबको एकत्र मिला- जडको छालके काथमें गुड़ मिलाकर उसमें बाबकर पानी जलने तक पकायें।) चीके बीजोंका कल्क डालकर पीनेसे श्वेतकुष्ठ और पुण्डरीक कुष्टका नाश होता है । (४५५९) यल्यमहाकषायः (४५६२) यालकादिकल्कः ( च. सं. । सूत्रस्थान अ. ४ ) (ग. नि. । अर्श.) एन्द्रपभ्यतिरसर्घ्यप्रोक्तापयस्याश्वगन्धास्थिरा बालकं शृङ्गबेरं च पाययेत्तण्डुलाम्बुना । रोहिणीबलातिबला इति दशेमानि बल्यानि नि मधुयुक्तं प्रशमयेदर्शः पित्तसमुद्भवम् ॥ भवन्ति । ___इन्द्रायन, कांच, शतावर, मापपर्णी, विदारी- | सुगन्धबाला और सांठको चावलेोके पानीमें कन्द ( या क्षीरकाकोली ), असगन्ध, शालपर्णी, । | पीसकर उसमें शहद मिलाकर पीनेसे पित्तज अर्श कुटकी, बला ( खरैटी) और अतिबला ( कंघी)। का नाश होता है। इन दश चीज़ोंके योगको ‘बल्यमहाकपाय' (४५६३) बिभीतकपुटपाक: कहते हैं। (शा. ध. । ख. २ अ. १; वृ. मा.। कासा.; (४५६०) याकुचिकाप्रयोगः ग. नि. । कास.; वै. र. । ज्वर.) (वै. म. । पटल ११) बिभीतकं घृताभ्यक्तं गोशकृत्परिवेष्टितम् । कलित्वक साधिते तोये वासिता निशि बाकुची। स्विममनौ हरेत्कासं ध्रुवमास्यविधारितम् ।। पिष्ट्वा तैलेन पीता च चित्रशत्रुविनशिानी ॥ बहेड़ेके फलेको घीमें तर करके उनके ऊपर रात्रिको बहेडेको छालके काथमें बाबचीको गायका गोबर लपेट दें और फिर उन्हें कण्डोंकी For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ५५४] मन्दाग्निमें दबा दें । जब वे अच्छी तरह स्वेदित हो जायं तो निकालकर उनकी छाल उतार लें । इसमें से जरा जरासा टुकड़ा मुंह में रखकर रस चूसनेसे खांसी नष्ट होती है । (४५६४) विभीतकादिकाथः भारत - भैषज्य रत्नाकरः । (ग. नि. । ज्वर. ) बिभीतो व्याधिघातथ कटुका त्रिफला निशा । काथो हन्ति तृषां दाहं ज्वरं च विषमं द्रुतम् ॥ बहेड़ा, अमलतास, कुटकी, हर्र, बहेड़ा, आमला और हल्दोका काथ तृषा, दाह और विषमज्वरको नष्ट करता है । (४५६५) बिभीतकादिकाथः (बृ. मा.; व. से.; वृ. नि. र. | नेत्र.; यो. र. नेत्र. ) farida शिवाधात्री पटोलारिष्टवासकैः । काथो गुग्गुलुना पेयः शोफशूलाक्षिपाकहा ।। | बहेड़ा, हर्र, आमला, परवल, नीमकी छाल और बासेके क्वाथमें गूगल मिलाकर पीनेसे शोध और शूयुक्त नेत्रपा नष्ट हो जाता है । (४५६६) बिल्वपञ्चकक्काथः (भै. र. । ज्वरा. ) शालपर्णी पृश्निपर्णी बला विल्वं सदाडिमम् । विल्वपञ्चकमित्येतत् काथं कृत्वा प्रदापयेत् ॥ अतिसारे ज्वरे छद्य शस्यते विल्वपञ्चकम् ॥ शालपर्णी, पृष्टपर्णी, खरैटी, बेलछाल और अनारकी बकलीका काथ अतिसार, ज्वर और छार्दका नाश करता है 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । (४५६७) बिल्वपत्ररसादियोगः [ बकारादि (बृ. मा. व. से., यो. र.; वृ. नि. र. 1 शोथा.) बिल्वपत्ररसं पूतं सोषर्ण श्रययौ त्रिदोषजे । विट्स चैव दुर्नाम्नि विदध्यात्कामलालु च ॥ बेलपत्र रसको छानकर उसमें काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर पीने से त्रिदोषज शोथ, मलावरोध, अर्श और कामलाका नाश होता है । (४५६८) बिल्वमूलादिकषायः ( ग. नि. । मूत्राघात . ) बिल्वारग्वधमूलानां मूत्रकृच्छ्री दिनत्रयम् । शृतं शीतं पिबेत्सम्यक्कषायं सम्प्रसाधितम् ॥ बेल और अमलतासकी जड़के काथको ठण्डा करके ३ दिन तक पीने से मूत्रकृच्छ्र रोग नष्ट हो जाता है I (४५६९) बिल्वमूलादिकाथ: ( व. से. । बाल. ) बिल्वमूलकषायेण लाजाचैव सशर्कराः । आलोय पाययेद्वालं छतीसारनाशनम् ॥ वेलकी जड़की छालके काथमें धानकी atitar चूर्ण और खांड मिलाकर उसे अच्छी तरह आलोडित करके पिलाने से बालकोंकी छर्दि और अतिसारका नाश होता है । (४५७०) बिल्वशलाटुयोगः ( ग. नि.; वृ. मा. । ग्रहण्य. ) श्रीफलशलाटुकल्को नागरचूर्णेन मिश्रितः For Private And Personal Use Only सगुडः । ग्रहणीगदमत्युग्रं तक्रभुजां सम्मतो जयति ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५५५] बेलगिरीके कल्कमें सांठका चूर्ण और गुड़ । सलाईसे एक बिन्दूके बराबर दाग देना चाहिये । मिलाकर सेवन करने तथा तक पर रहनेसे भयङ्कर एवं बालकको बेलकी जड़की छाल, नागरमोथा, ग्रहणी रोग भी नष्ट हो जाता है। पाठा, हर, बहेड़ा, आमला और छोटी तथा बड़ी (४५७१) बिल्बादिकषायः कटेलीके काथमें गुड़ मिलाकर पिलाना चाहिये। (ग. नि.; व. से.; वृ. नि. र.; यो. र. । अतिसारा.), (४५७४) बिल्वादिकाथः (३) बिल्वसकयवाम्भोदवालकातिविषाकृतः।। (हा. स. । तृ. स्था. अ. ७) कपायो हन्त्यतीसारं सामं पित्तसमुद्भवम् ।। बिल्वाग्निमन्पचित्रकनागराश्च बेलगिरी, इन्द्रजौ, नागरमोथा, सुगन्धवाला। एरण्डहिङ्गु सह सैन्धवकं समांशम् । और अतीसका काथ आमयुक्त पित्तातीसारको | काथो निहन्ति कफजोद्भवशुलसङ्घ नष्ट करता है। सद्यस्तथैव जठरानलवर्धनं च ॥ (४५७२) पिल्वादिकाथः (१) बेलछाल, अरणी, बासा, चीता, सोंठ, अर(व. से. । अतीसारा.) ण्डकी जड़, हींग और सेंधा नमकका काथ सेवन करनेसे कफजशूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता तथा बिल्वं वत्सकबीनानि पाठाहिङ्गशिवान्विता । अग्नि दीस होती है। वातश्लेष्मातिसारेषु कषायं पाचनं पिबेत् ॥ ___ बेलगिरी, इन्द्रजौ, पाठा और हरके काथमें (४५७५) बिल्वादिकाथः (४) हींग डालकर पीनेसे वातकफज अतिसारका नाश (च. सं. । चिकि. स्थान अ. १९) होता है । यह काथ पाचक है। बिल्वं कर्कटिका मुस्तमभया विश्वभेषजम् । (४५७३) बिस्वादिकायः (२) | वचा विडङ्ग भूतीकं धान्यकं देवदारु च ॥ ( यो. र.; वृ. नि. र. । बालरो.) कुष्ठं सातिविषा पाटा चव्यं कटुकरोहिणी । अमिना स्वेदयेद्वापि दाहयेच शलाकया । पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्पली । जठरे बिन्दुकाकारं पृष्ठभागे यथा ध्रुवम् ॥ योगाः श्लोकाविहिताश्चत्वारस्तान् प्रयोजयेत्। बिल्वमूलकं नीरदो की गृतालेष्मातिसारेषु कायाग्निबलवर्धनान् ॥ फलं तथा सिंहिकाद्वयम् । (१) बेलगिरी, काकड़ासिंगी, नागरमोथा, गौडमिश्रितं कायितं समं हर्र और सेठ। पाययेच्छि फुल्लिकापहम् ॥ (२) बच, बायबिडंग, अजवायन, धनिया उत्फुल्लिका रोगमें बालकके पेट पर सेक और देवदार । करनी चाहिये तथा उसके पेट और पीठपर गर्म (३) कूठ, अतीस, पाठा, चव, कुटकी । For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि (४) पीपल, पोपलामूल, चीतामूल और । बेलछाल, अरणीकी छाल, अग्लु और खम्भागजपीपल । ये चारों काथ कफातिसारका नाशरी तथा पाढलकी छाल के काथमें शहद मिलाकर और अग्नि तथा बलकी वृद्धि करते हैं। पिलानेसे मेदविकार नष्ट होता है। (४५७६) बिल्वादिकाथः (५) (४५७९) बिल्वादिकाथ: (८) ( व. से.; च. द.; भा. प्र.; बालरो.; यो. चि. । (व. से.; वृ. मा.; वृ. नि. र. । तृषा. ) काथा.; यो. त. । त. ७७ ) बिल्बाढकीधातकीपञ्चकोलबिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनां । दर्भेषु सिद्धं कफजां निहन्ति । जलं सलोधं गजपिप्पली च। हितं भवेच्छर्दनमेव चात्र काथावलेहौ मधुना विमिश्री तप्लेन निम्बप्रसवोदकेन ।। बालेषु योज्यावतिसारितेषु ॥ बेलछाल, अरहर, धायके फूल, पीपल, पीपबेलगिरी, धायकेफूल, सुगन्ध बाला, लोध लामूल, चव, चीता, सेांठ और दाभका काथ सेवन और गजपीपलके काथमें शहद मिलाकर पिलाने करनेसे कफज तृषा नष्ट होती है। या इनके वर्णको शहद में मिलाकर चटानेसे बाल- कफज तृषामें नीमके फूलांका उष्ण काथ केांका अतिसार नष्ट होता है। पिलाकर वमन कराना भी हितकारक है। (४५७७) विल्वादिकाथः (६) (४.५८०) चिल्वादिकाथः (९) ( भा. प्र.; यो. र. । छर्दिरो.; वृ. यो. त.। त. (वृ. नि. र.; वृ. मा.; ग. नि.; ब. से. । अति८३; शा. ध. । द्वि. ख. अ. २) सारा.; यो. र. । शोफातिसार. ) बिल्वत्वचो गुडूच्या वा काथा क्षौद्रेण संयुतः। बिल्वचूतास्थिनियूहः पीतः सक्षौद्रशर्करः । छर्दि त्रिदोषजां हन्ति पर्पटः पित्तजां तथा ॥ निहन्याच्छर्यतीसारं वैश्वानर इवाहुतिम् ॥ बेलकी छाल या गिलोयके काथमें शहद बेलगिरी और आमकी गुटलीके काथमें शहद मिलाकर सेवन करनेसे त्रिदोषज छर्दि, और पित- और खांड मिलाकर पीनेसे छर्दि और अतिसार पापडेके काथमें शहद मिलाकर पिलाने से पित्तज | तुरन्त नष्ट हो जाते हैं। छर्दि नष्ट होती है। (४५८१) बिल्वादिक्काथः (१०) (४५७८) विल्वादिकाथः (७) (वृ. नि. र.; । अजीर्णा, ) ( शा. ध. । ख. २ अ. २) बिल्वनागरनिःकायो हन्याच्छदिविचिकाम् । बिल्वोमिमन्यःस्योनाकः कायमरी पाटला तथा। बिल्वनागरकैडर्यकाथः स्यादधिको गुणैः ॥ काय एषां जयेन्मेदोदोषं सौद्रेण संयुतः॥ बेलगिरी और सेठिका काथ छर्दि और विसू For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् तृतीयो भागः । {५५७] चिकाको नष्ट करता है । तथा बेलागर्ग, सांट (४५८५) बिल्वादिकाथ: (१४) और कायफलका काथ छर्दि और विसूचिकामें | ( यो. र.) इससे भी अधिक गुणकारी है। विल्वानिमन्यपकं वा पाटल्या नागरेण वा। (४५८२) पिल्वादिकाय: (११) सिद्धमम्बु पिबेच्छीत गर्भिणी वातरोगनुत् ।। (५. २.; यो. २.; ३. न. र.; व. से. । आत बार बलछाल और अरणीका अथवा पाढल और सार.; वृ. यो. त. । त. ६५) सेठिका काथ ठण्डा करके पिलानेसे गर्भिणीके । वातजरोग नष्ट होते हैं। विल्वयालकभूनिम्बगुडचीधान्यनागरैः। । कुटजाब्दयुतः काथो ज्वरातीसारशूलनुत् ॥ । (४५८६) विल्वादिक्षीरम ___बेलगिरी, सुगन्धबाला, चिरायता, गिलोय, (व. से. । ज्वरा.) धनिया, सोंठ, कुड़ेकी छाल और नागरमोथेका साधितं बिल्व पेशीभिर्मलेनाऽमण्डकस्य च । काथ ज्वरातिसार तथा शूलको नष्ट करता है। सधो हन्ति पयः पीतं ज्वरं सम्परिवर्तिकम् ॥ (४५८३) दिल्यादिकायः (१२) बेलगिरी और अरण्डकी जड़से सिद्ध दूध पिलानेसे जीर्णज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। (ग. नि. । ज्वरा.; भै. र. । ज्वरा.)। विल्वादिपश्चमूली च गुडूच्यामलकं तया। ( दोनों ओषधियां १।-१। तोला, गोदुग्ध । ४० तोले, पानी २ सेर । सबको एकत्र मिलाकर कुस्तुम्मरुयुतो थेप कपायो वातिके ज्वरे ॥ पानी जलने तक पकाकर छान लें।) बेल, अग्लु, खम्भारी. पाढल और अरनीकी (४५८७) यिल्वादियोगः छाल तथा गिलोय, आमला और कुस्तुम्बरु । ( नैपाली धनिये ) का काथ दातज्वरको नष्ट | ( वृ. नि. र.; व. से.; यो. र. । अतिसारा.) करता है। बिल्वं छागपयः सिद्धं सितामोचरसान्वितम् । | कलिङ्गचूर्णसंयुक्तं रक्तातीसारनाशनम् ॥ (४५८४) विल्वादिकायः (१३) । बेलगिरीसे बकरीका दूध पकाकर उसमें ( यो. र. । योनिरो.; व. से. : स्त्री. ) मिश्री और मोचरस तथा इन्द्रजौका चूर्ण मिलाकर बिल्वमार्कवज बीजकल्कं मद्येन पाययेत् । । पीनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है। तेन योनिगतं शूलमाशु शाम्यति योषिताम् ॥ (बेलगिरी २॥ तोले । दूध ४० तोले । वेल और भंगरके बीजांको पीसकर मद्यके पानी २ सेर । सबको एकत्र मिलाकर पानी जलने साथ पीनेसे स्त्रियोंका योनिशूल तुरन्त नष्ट हो तक पकाकर छान लें । गोचरस और इन्द्रजौका जाता है। चूर्ण १-१ माशा ।) For Private And Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५५८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [सकारादि - - - -- - (४५८८) विस्वादिसिद्धपयः (४५९०) बिल्वाधाइच्योतनम् (ब. से. । प्रह.; यो. र. । प्रहण्य.) (यो. र.) बिल्बाब्दशक्रयवबालकमोचसिद्ध- विल्वादिपञ्चमूलेन बृहत्येरण्डशिशुभिः । ___माजं पयः पिबति यो दिवसाया। कायश्चाऽऽइच्योतन कोष्णो वाताभिष्यन्दनाशनः॥ सोऽतिमद्धचिरज ब्रहणीविकार बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और अरणीकी शोष सशोणितमसाध्यमपि क्षिणोति ।। | छाल तथा कटेली, अरण्डमूल और सहजनेकी बेलगिरी, नागरमोथा, इन्द्रजौ, सुगन्धवाला | छालके काथको अत्यन्त स्वच्छ वस्त्रसे छानकर और मोचरस से सिद्ध बकरीका दूध तोन दिन उसके मन्दोष्ण रहते हुवे उसकी बूंदें आंखमें तक पीनेसे अत्यन्त प्रवृद्ध और रक्तयुक्त पुरानी टपकावें। ग्रहणी भी नष्ट हो जाती है। __इससे वाताभिस्यन्द नष्ट होता है। ( प्रत्येक ओषधि १ तोला । दूध १ सेर । (४५९१) बीजपूरकादिकषायः पानी ४ सेर । सबको मिलाकर पानी जलने तक (ग. नि. । ज्वरा.; वृ. नि. र. । सन्निपात.) पकावें) बीजपूरकविल्वाश्मभेदकं बृहतीद्वयम् । (४५८९) पिल्वादिस्वेदः एकैकांशमयेरण्डमूल चाष्टगुणीकृतम् ॥ (व. से. । कर्ण.) कायो गोमूत्रसंयुक्तो विडसौवर्चलान्वितः। बिल्वैरण्डार्कवर्षाभूदधियोन्मत्तशिभिः। हस्तिशूले सानाहे त्वभिन्यासज्वरे तथा ॥ वस्तगन्धाश्वगन्धाभ्यां सर्कारीयवरेणुभिः॥ बिजौ रेकी जड़की छाल, बेलछाल, पखान भेद, आरनालभृतेरभिर्नाडीस्वेदः प्रयोजितः। और दोनों प्रकारकी कंटेली १-१ भाग तथा कफवातसमुत्यानं कर्णशूलं निवारयेत् ॥ अरण्डमूल ८ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर बेलछाल, अरण्डकी जड़, अर्कमूल, पुनर्नवा | कूट ले । ( साठी ), कैथ, धतूरा, सहजनेकी छाल, अज- इनके काथमें गोमूत्र और विडनमक तथा मोद, असगन्ध, अरणी, इन्द्रजौ और रेणुका सञ्चल ( काला नमक ) मिलाकर पिलानेसे हृदय और समान भाग लेकर कूटकर सबको ८ गुनी कांजी बस्तीकी पीड़ा, अफारा और अभिन्यास ज्वर नष्ट में पकावें । जब आधा भाग कांजी शेष रहे तो | होता है । उसे छानकर उससे कानको नाडी स्वंद दे।। (४५९२) योजपूरमूलयोगः ( कानमें रखर आदिकी नलीकी सहायता से उसकी । (ग. नि. । मूत्रा.) भाप पहुंचावें ।) | शीतेन वारिणा घृष्टा बीजपूरस्य मूलिका । इससे कफवातज कर्णशूल नष्ट हो जाता है। पीता पातयते वेगान्मेहनान्मूत्रशर्कराम् ।। For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायपकरणम् ] तृतीयो भागः। [५५९] बिजौरे नीबूकी जड़को शीतल जलमें घिस- अलबेतके काथमें बिडनमक मिलाकर पीने कर पीनेसे शर्करा शीघ्र ही पेशाबके साथ निकल या हींग और सज्जीवारको तक्रके साथ सेवन करने जाती है। से भी गुल्म नष्ट हो जाता है। (४५९३) बीजपूररसयोगः (४५९६) बीजपूरस्वरसयोगः (वृ. नि. र. । कर्ण.) | (शा. ध. । खं. २ अ. १; यो. र. । शूला.) स्वर्जिकाचूर्णसंयुक्त बीजपूररसं क्षिपेत् । बीजपूररसः पानान्मधुक्षारयुतो जयेत् । कर्णसावरुजादौ तु प्रशस्तं नात्र संशयः॥ पाहद्वस्तिशूलानि कोष्ठवायुं च दारुणम् ।। भिजो रेके रसमें सज्जीखार मिलाकर कानमें बिजोर नीबूके रसमें शहद और जवाखार डालनेसे कर्णवाव और कर्णपीड़ा आदिका अवश्य | मिलाकर पीनेसे पसली, हृदय और बस्तिका शूल नाश हो जाता है। | तथा कोटेकी दुस्साध्य वायुका नाश होता है । (४५९४) यीजपूररसयोगः (४५९७) वीजपूरादिपाचनकषायः (ग. नि. । शूला.) (शा. घ. । अ. २.; वृ. यो. त. । त. ५९) सुपकबीजपूरस्य रसः सैन्धवमिश्रितः। वीजपूरशिवापथ्यानागरग्रन्थिकैः शृतम् । पीतः पथ्याशिनो हन्ति हृच्छूलमतिदारुणम् ॥ सक्षारं पाचनं श्लेष्मज्वरे द्वादशवासरे ॥ __बिजौरे नींबूके रसमें सेंधा नमक मिलाकर बिजौरे नीबूकी जड़की छाल, आमला, हर्र, पीने और पथ्य पालन करनेसे दारुण हृच्छुल भी सांट और पीपलामूलके काथमें जवाग्वार मिलाकर नष्ट हो जाता है। कफवरमें बारहवें दिन पीना चाहिये । यह काथ ज्वरपाचक है। (४५९५) बीजपूररसादियोगः (४५९८) योजपूरादिपुटपाक: (ग. नि. । गुल्मा.) (यो. र. । छार्द.; गा. ध. । खं. २ अ. १) बीजपूररसो हिङ्ग सैन्धवं विडपूर्वकम् । बीजपूराम्रजम्यूनां पल्लवानि जटाः पृथक् । लवणं दाडिमं शुक्तं सितया वातगुल्मजिन् ॥ विपचेत पुटपाकन क्षौद्रयुक्तश्च तद्रसः ॥ अम्लवेतसनिर्यासो लवणं विडपूर्वकम् ।। | छर्दि निवारयेद् घोरां सर्वदोपसमुद्भवाम् ।। रामठं स्वर्जिकाक्षारस्तकपीतं च गुल्महत् ।। बिजौरा, आम और जामनमें से किसी एकके बिजौ रके रसमें हींग, सेंधा और बिनमक | पत्तों या छालको पुटपाक विधिसे पकाकर उसका मिलाकर पीनेसे या सिरके में सेंधानमक, अनारका | रस निकालें। रस और मिश्री मिलाकर पीनेसे वातज गुल्म नष्ट | इसमें शहद मिलाकर पीनेसे सर्वदोषज भयहोता है। कर छार्द भी नष्ट हो जाती है। For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५६० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [वकारादि (पुटपाक करनेकी विधि भारत भै. र. भाग लेकर काथ बनाकर पिलानेसे भयङ्कर पित्तज शूल १ में पृष्ठ ३५२ पर देखिये ।) | भी तुरन्त नष्ट हो जाता है । (४५९९) बृहणीयमहाकषायः (४६०२) बृहत्यादिक्काय: (३) (च. सं. । सूत्रस्था. अ. ४) (ग. नि.; . यो. त. : त. १००; . नि. क्षीरिणी राजक्षवर्क बला काकोली क्षीरका-1 २. व. स.; वृ. मा.; यो. र. । मूत्रकृच्छ्) कोली वाट्यायनी भद्रौदनी भारद्वाजी बृहतीधावनीपाठायष्टीमधुकालिङ्गकान् । पयस्यर्ण्यगन्धा इति दशेमानि ईहणीयानि पक्या काथं पिबेन्मयो कृच्छ्रे दोपत्रयोद्भवे ॥ भवन्ति ॥ कटेली, पृश्निपर्णी, पाठा, मुलैठी और इन्द्रक्षीरलता, दद्दी, खरैटी, काकोली, क्षीरकाको- | जोका काथ त्रिदोषज मूत्रकृच्छूको नष्ट करता है। ली, महाबला, नागबला (गुलशकरी), बनकपास, | (४६०३) बृहत्यादिकायः (४) बिदारीकन्द और विधारा । (च. सं. । अ. ३) इन दश ओषधियोंका समूह बृहणीयमहा / वृहत्यौ वत्सकं मुस्तकं देवदारु महौषधम् । कषाय कहलाता है । अर्थात वीर्य वर्द्धक ओषधि- कोलवल्ली च योगोऽयं सन्निपातज्वरापहम् ॥ यमेिं ये ओषधियां मुख्य हैं। __छोटी और बड़ी कटेली, कुडेको छाल, नागर (४६००) बृहत्यादिकायः (१) मोथा, देवदारु, सेांठ और गजपीपल ( या चव) (वं. से.; वृ. मा.; वृ. नि. र. । मुखरो.) का काथ सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है। बृहतीभूमिकदम्बकपश्चाङ्गलकण्टकारिकाकायः। (४६०४) बृहत्यादिकाय: (५) __(व. से.; ग. नि. । चरा.) गण्डूषस्तैलयुतः कृमिदन्तकवेदनोपशमः ॥ ___ बनभंटा, भूमिकदम्ब, अरण्डमूल और कटेली | | बृहती पीकर भाणि शटी शृशी दुरालभा। पक्वा पानं प्रशंसन्ति श्लेष्मा तेनोपशाम्पति॥ के काथमें तैल मिलाकर उसके कुल्ले करनेसे कृमिदन्त की पीड़ा नष्ट होती है। कटेली, पोखरमूल, भरंगी, शठी ( कचूर ), काकडासिंगी और धमासा । इनका काथ कफको (४६०१) बृहत्यादिकाय: (२) नष्ट करता है । यह काथ ज्वरमें उपयोगी है। (वृ. मा. । शूला.; यो. र. । शूला.) (४६०५) वृहत्यादिगणः बृहत्यौ गोक्षुरैण्डकुशकाशेक्षुबालिकाः। (भा. प्र. । ज्वरा; व. से.; वृ. मा.; च. द.; ग. पीताः पित्तभवं शूलं सधो हन्युः सुदारुणम् ॥ नि.। ज्वरा.; च. सं. । अ. ३) __ छोटी और बड़ी कटेली, गोखरु, अरण्डकी । बृहती पौष्करं भाी शठी शृङ्गी दुरालभा। ड, कुश, कांस और तालमखाना समान भाग 'वत्सकस्य तु बीजानि पटोले कटुरोहिणी ॥ For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५६१] - बृहत्यादिगणः शस्तः सनिपाते कफोत्तरे। निम्बाहकोशातकिहारहूरा श्वासादिषु च सर्वेषु हितः सोपद्रवेष्वपि ॥ द्विपञ्चमूलीभिरसौ कषायः॥ कटेली, पोखरमूल, भरंगी, कचूर, काकडा- पीतो हि चित्तभ्रमसन्निपातं सिंगी, धमासा, इन्द्रजौ, परवल और कुटकी । इन निहन्ति रुग्दाहमपि प्रभूतम् ॥ ओषधियोंके समूहको 'बृहत्यादिगण' कहते हैं। ब्राह्मी, बच, खस, हर्र, बहेड़ा, आमला ,कुटकी, इनका काथ कफप्रधान सन्निपात तथा श्वासादि खरैटी, अमलतास, चिरायता, नीमकी छाल, कड़वी में हितकर है। तोरी, मुनक्का और दशमूलका कषाय पिलानेसे (४६०६) वृहत्यादिगणः (२) | चित्तभ्रम तथा रुग्दाह नामक सन्निपात नष्ट (सु. । सूत्रस्थान अ. ३८) होते हैं। बृहतीकण्टकारिका कुटजफलपाठामधुकं चेति। (४६०८) ब्राहयादिस्वरसयोगः पाचनीयो बृहत्यादिर्गणः पित्तनिलापहः॥ । (वृ. मा.; यो. र.; वृ. नि. र. । उन्माद.; शा. ध. कफारोचकहल्लासमूत्रकृच्छ्रुजापहः ॥ सं. । खं. २ अ.१) बड़ी कटेली, छोटी कटैली, इन्द्रजौ, पाठा और ब्राह्मीकूष्माण्डीफलपड्ग्रन्थाशङ्खपुष्पिकास्वरसाः मुलैठी। इन ओषधियों के समूहको 'बृहत्यादिगण' दृष्टा उन्मादहराः पृथगेते कुष्ठमधुमिश्राः ॥ कहते हैं । इनका काथ पित्त, वायु, कफ, अरुचि, ब्राह्मी, पेटा, बच, और शंखपुष्पी । इनमें से हलास ( जी मचलाना) और मूत्रकृच्छूको नष्ट | किसी एकके रसमें कूठका चूर्ण और शहद मिलाकरता है। कर पिलानेसे उन्माद नष्ट होता है। (४६०७) ब्राह्मयादिक्काथ: ( स्वरस ५ तोले । कूटका चूर्ण १॥ माशा। (वृ. नि. र.; यो. र. । सन्निपात.) शहद २ तोले ।) ब्राह्मीवचाभीरुफलत्रिकेण तिक्तावलारग्वधतिक्तकेन । योगरलाकरमें इस प्रयोगमें नागरमोधा अधिक है। इति बकारादिकषायप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि -- अथ बकारादिचूर्णप्रकरणम्। (४६०९) पदचूर्णयोगः (मात्रा-~६ माशे ) (रा. मा. । स्त्री.) (४६११) बन्दाकयोगः समघृतगुडभार्ग श्लक्ष्णकर्कन्धुचूर्ण ( वै. म. र. । पटल १) प्रदरशमनमुक्तं खाधमानं वधूनाम् ।। मुक्त खाधमान वधूनाम् ।। बन्दाको बिल्वभवस्तक्रेण घृतेन वा प्रगे पीतः। बेरों के बारीक चूर्णमें समान भाग गुड़ और विषमज्वरस्य विकृति जयेनिःशेषमतिविषमाम्।। घी मिलाकर सेवन करानेसे स्त्रियांका प्रदररोग बेलके बन्देके चूर्णको तक्र या घृतके साथ नष्ट होता है। सेवन करनेसे विषमज्वरके कष्टसाध्य विकार भी (४६१०) बदराय चूर्णम् | नष्ट हो जाते हैं। . (ग. नि. । परिशि. चू.) बदरप्रिफलानां च व्योषस्य च पलद्वयम् । (४६१२) बबूरादिप्रयोगः (व. से. । रसाय.) कर्पूरकर्षों लाजानां पलद्वादशकं भवेत् ॥ आभाश्च सोमराजीश्च समभागविणिताम् । एलात्वपत्रकाणां तु पलं स्याद्वंशरोचना । | नरः क्षीरेण सम्पीत्वा स कृशः स्थूलतां व्रजेत् ।। पलाष्टका वेतसाम्लश्चतुष्पलमुदाहतः ।। चूर्ण द्विगुणखण्डं तु हृद्यं वमिहरं परम् ।। देहकम्पे च शोषे च योगमेतत् प्रयोजयेत् । यक्ष्माण रक्तपित्तं च ज्वरं च कासं . | मासमात्रोपयोगेन मतिमात्रायते नरः।। च नाशयेत् ॥ मेधावी स्मृतिमांश्चैव वलीपलितनाशनः ।। बेर, हरे, बहेड़ा, आमला, सांठ, मिर्च, और कीकर (बबूल ) की फली और बावची पीपल १०-१० तोले, कपूर ११ तोला, धानकी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। खील ६० तोले तथा इलायची, दालचीनी और इसे दूधके साथ सेवन करनेसे कृश पुरुष तेजपात ५-५ तोले, बंसलोचन-४० तोले और स्थूल हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह चूर्ण अम्लबेत २० तोले तथा खांड इन सबसे दो। देहकम्प और शोष रोगमें भी हितकारी है। गुनी लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें। इसे लगातार १ मास तक सेवन करनेसे यह चूर्ण हृदयके लिये हितकारी है । तथा मनुष्य बुद्धिमान् , स्मृतिमान् , मेधावी और बलिपलित वमन, राजयक्मा, रक्तपित्त, ज्वर और खांसीको | रहित हो जाता है । नष्ट करता है। (मात्रा-३ से ६ माशे तक।) For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] तृतीयो भागः। [५६३] - - (४६१३) यन्यूलादियोगः (४६१६) बलादिचूर्णम् (३) (वृ. नि. र.। अति.) (यो. त. । त. ८०) चम्बलपत्रं सम्पिट रात्रौ जीरद्वय हितम। । सघृतमधुबलात्रयस्य चूणे कर्षमा भवेद्भक्ष्यं कफातीसारनाशनम् ॥ समधुसिताघृतमुचटोद्भवं वा । बबूलके पत्ते और दोनों जीरे समान भाग समधुकमय माषमुद्गपण्योंलेकर चूर्ण बनावें। रमृतलतामलकत्रिकण्टकं वा।। इति कथितमिदं हि पुष्पिताग्रा इसमेंसे नित्य प्रति रात्रिके समय ११ तोला । चरणचतुष्टयवेष्टनेन शिष्टैः। चूर्ण सेवन करनेसे कफातिसार नष्ट होता है। अभिमतमसकृव्यवायभाजा(अनुपान-उष्ण जल ।) मिह खलु योगचतुष्कमाविकल्प्य ॥ (४६१४) बलादिचूर्णम् (१) काम शक्तिकी वृद्धि के लिये:(व. से. । श्लीपद.) (१) बला (खरैटी), अतिबला (कंघी) और नागबला (गंगेरन-गुलशकरी) के समान भाग मिश्रित क्षीरेण प्रातरुत्याय पिवेद्यस्तु बलाद्वयम् । चर्णको घी और शहदमें मिलाकर सेवन करें । सक्षीरं श्लीपदाजन्तुरसाध्यादपि मुच्यते ॥ अथवा -- प्रातःकाल बला और अतिबला (खरैटी तथा । (२) उटङ्गणके बीजोंके चूर्णको समान भाग कंघी) के चूर्णको दूधके साथ सेवन करनेसे असाध्य | खांडमें मिलाकर उसे घी और शहदके साथ सेवन स्लीपद भी नष्ट हो जाता है। करें। या(मात्रा-३ माशे । ) (३) मुलैठी और माषपणी तथा मुद्गपर्णीका चूर्ण अथवा (४६१५) बलादिचूर्णम् (२) (४) गिलोय, आमला और गोखरुका चूर्ण ( यो. र. । प्रदर.; भा. प्र. । म. खं. प्रदर.) सेवन करें। बलाकतिकाख्या या तस्या मूलं सुचूर्णितम्।। यह चारों प्रयोग कामी पुरुपोंके लिये हितलोहितप्रदरे खादेच्छर्करामधुसंयुतम् ॥ कारी हैं । कंघी (अतिबला) के चूर्णको समानभाग (४६१७) बलादिचूर्णम् (४) खांडमें मिलाकर शहदके साथ सेवन करनेसे रक्त (व. से. । स्त्री. ) प्रदर नष्ट होता है। | बलामतिबलां चैव शर्करां मधुयष्टिकाम् । (मात्रा-बलाचूर्ण ३ माशे, खांड ३ माशे। ) । क्षीरं मधुघृतं चैव पीतं गर्भपदं भवेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५६४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि ___ बला (खरैटी), अतिबला (कंघी), खांड और | तुगासमांशं सिततन्दुलानां मुलैठीके समानभाग मिश्रित चूर्णको शहद और | पिष्टं सशृङ्गाटकमिश्रितं तु । धोके साथ चाटकर ऊपरसे दूध पीनेसे स्त्रियां गर्भ | पाकचूर्णकार्धन वियोजनीयं धारण कर लेती हैं। सर्वाशकेनाय सिता प्रयोज्या ।। ( मात्रा-३ माशे से ६ माशे तक ।) | विभावयेच्चामलकीरसेन (४६१८) बलादिचूर्णम् (५) । वारत्रयं गोपयसा विभाव्यम् । ततोस्य सः समशर्करा वा (भा. प्र. । म. खं. सोम.; यो. र. । योनि.) घृतेन चैवं पुनरेव भाव्यम् ।। बला सिताब्या मधुकं बला च तं भक्षयेत्क्षौद्रयुतं पलार्दै शृ वटोत्यं गजकेशरं च । जीर्ण च भोज्यं कटुकाम्लवय॑म् । एतन्मधुक्षीरघृतैर्निपीतं क्षीरं घृतं वा सितशर्कर वा वन्ध्या सुपुत्रं नियतं प्रमते ॥ यवानगोधमकशालिमघान् ।। बला (खरैटी ), मिश्री, मुलैठी, अतिबला, ज्ञात्वाग्निपार्क जठरे नरस्य (कपी), बड़के अङ्कुर और नागकेसरके समान- देयो विधिज्ञैः क्षयरोगशान्त्यै । भाग मिश्रित चूर्णको शहद और धीमें मिलाकर पथ्यः क्षये श्रान्तचिराभितापदूधके साथ सेवन करनेसे वन्ध्या स्त्री सुपुत्रको सम्पीडितानां च तथा शिरोऽौ । जन्म देती है। पित्तातुराणां रुधिरक्षयाणां ( मात्रा-३ से ६ माशे तक ।) __ श्रमाध्वसम्पीडितकामलानाम् । | श्वासातुराणां मधुमेहिनाम (४६१९) बलादिचूर्णम् (६) क्षीणेन्द्रियाणां बलकारि शस्तम् ।। (वृ. नि. र. । क्षय.; हा. सं. । स्था. ३. अ. ९.) | गर्भो गृहीतश्च यया स्त्रिया च । बला विदारी लघुपञ्चमूली तस्याः प्रशस्तं तु बलादिचूर्णम् ।। __ पञ्चैव क्षीरीद्रुमत्वक प्रयोज्या । बला (खरैटी ) के बीज, बिदारीकन्द, लघु पुनर्नवामेघतुगारजश्च पश्चमूल (शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला, सजीवनीथैर्मधुकैः समांशैः॥ गोखरु ), बड़की छाल, पीपलकी छाल, गूलरकी अक्षममाणानि समानि कानि छाल, पिलखनकी छाल, बेतकी छाल, पुनर्नवा ___सर्वाणि चैतानि विचूर्णयित्वा । ( बिसखपरा ), नागरमोथा, बंसलोचन, जीवन्ती, निमश्रयेत्तत्र कणाशतानि मुद्गपर्णी, माषपर्णी, काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, पशाशगोधूमयवाच पिष्ट्वा ॥ | महामेदा, जीवक, और ऋषभक १०-११ तोला - For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५६५] तथा मुलैठी २॥ तोले एवं १०० नग पीपल । भिलावा, शतावर, संभालू, असगन्ध और नीमका और ५०-५० दाने जौ और गेहूं, तथा १। पञ्चाङ्ग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। तोला सफेद चावल और सब औषधोंसे आधा इसे' १ मास तक सेवन करनेसे समस्त सिंघाड़ा लेकर सबको कूट छानकर बारीक चूर्ण | प्रकारके कुष्ट और वातरोग नष्ट होते हैं । बनावें और उसे आमलेके स्वरस और गायके (४६२१) बादचूर्णयोगः दूधकी ३-३ भावना देकर सुखा लें । तत्पश्चात् उसमें उसके बराबर खांड मिलाकर सबको धीमें (बृ. मा. । मूसूरि.) घोटकर सुरक्षित रक्खें । लिह्याद्वा बादरं चूर्ण पाचनार्थ गुडेन वा। इसमें से नित्य प्रति २॥ तोले चूर्ण शहदमें | | अनेनाऽशु विपच्यन्ते वातपित्तकफात्मिका ।। मिलाकर सेवन करना चाहिये तथा औषध पचनेपर बेरोके चूर्णको गुड़में मिलाकर सेवन करानेसे कटु तथा अम्ल पदार्थीको त्यागकर पध्य भोजन | वातज, पित्तज और कफज मसूरिका शीघ्र पक करना चाहिये। जाती है। इसके सेवनसे क्षय, थकान, जीर्णज्वर, शिर बालचातुर्भद्रिका शूल, पित्तविकार, रुधिरक्षय, मार्ग चलने या अधिक ( भै. र.; र. र.) श्रमसे उत्पन्न थकान, कामला, श्वास, मधुमेह और प्र. सं. १६३२ देखिये । इन्द्रियोंकी क्षीणता नष्ट होकर शरीरमें बल | (४६२२) बिडलवणयोगः बढ़ता है। (ग. नि. । अरोचका.) यह चूर्ण गर्भिणी स्त्रीके लिये भी उप- | विडचूर्णसमायुक्तं मधु मात्रासमन्वितम् । योगी है। असाध्यामपि संहन्यादरुचि वक्त्रधारितम् ॥ पथ्य--दूध, घी, सफेद खांड, जौ, गेहूं बिडनमकके चूर्णको शहदमें मिलाकर मुखमें और चावल । धारण करनेसे असाध्य अरुचि भी नष्ट हो जाती है (४६२०) बाकुचिकाद्यं चूर्णम् (४६२३) बिडलवणादिचूर्णम् (ग. नि. । चूर्णा.) ( वृ. नि. र. । अजीर्णा.; यो. चि. म. । अ. २) बाकुचि त्रिफला वहिर्भल्लातं च शतावरी। बिडं चित्रकमजाजियुग्मं यवानी सिन्दुवारोऽश्वगन्धा च निम्बः पञ्चाङ्गसंयुतः॥ शिवा त्र्यूषणं धान्यसौवर्चलं च । मासैकं भक्षितं हन्ति चूर्णमेषां समांशकम। | त्वचा तिन्तडीकाजमोदाम्लवेतं । सर्वकुष्ठानि वातांश्च रोगिणां नात्र संशयः ॥ समं योज्यमेतत्समं च विडङ्गम् ।। बाबची, हर्र, बहेड़ा, आमला, चीतामूल, शुद्ध १-योगचिन्तामणिमें विडंगका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [५६६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [बकारादि बिडादिरोगदारकं गदार्तिनां च तारकं । (४६२५) विभीतकफलचूर्णम् घनेन जीयते धरा कथं न जानते नराः॥ (ब. से. । अति.) बिडनमक, चीतामूल, दोनों जीर, अजवायन, विभीतकफलं दग्धं इन्याल्लवणसंयुतम् । हर्र, सांठ, मिर्च, पीपल, धनिया, सञ्चल ( काला महान्तमप्यतीसारं चक्रपाणिरिवाऽसुरान् ।। नमक ), दालचीनी, तिन्तडीक, अजमोद और ___ बहेड़ेके फलेकी भस्म में सेंधा नमक मिलाअम्लबेत १-१ भाग तथा बायबिडंग सबके | कर सेवन कराने से प्रवृद्ध अतिसार भी नष्ट हो बराबर लेकर कूट छानकर चूर्ण बनावें । ___ यह चूर्ण अत्यन्त पाचक है । आश्चर्य है | जाता है। कि मनुष्य यह नहीं जानते कि इसके सेवन से तो | __ ( मात्रा--३ माशे । दिनमें २-३ बार ।) पृथ्वी भी पच सकती है, भोजनकी तो बात ही । (४६२६) बिभीतकफलचूर्णम् क्या है ? (रा. मा. । रक्तपित्ता.) (४६२४) बिभीतकचूर्णम् मध्वाक्तमक्षफलकल्पितचूर्णकर्ष(हा. सं. । स्था. ३ अ. १२) मुधंसिकां हरति भुक्तवताऽवलीढम् । विभीतकं घृतभृष्टं चूर्ण कृत्वा भिषग्वरः। वासं च सन्ततविकाशविकारभावं भावितं चाटरूपस्य दलानां च रसेन तु ।। दुःस्थीकृतोदरमिदं सततं नियुक्तम् ॥ हितं चार्कपत्रैस्तु कर्दमेन तु लेपयेत् ।। बहेड़ेके फलकी छालका चूर्ण १। तोलेकी स्विनमनौ मुखे धार्य कासं नाशयते ध्रुवम् ॥ मात्रानुसार शहदमें मिलाकर भोजनके बाद सेवन बहेड़ेके फलोको घीमें भूनकर चूर्ण बनावें | करनेसे खांसी और श्वासका नाश होता है। और फिर उसे १ दिन बासेके पत्तोंके रसमें । (व्यवहारिक मात्रा--३ माशे । ) घोटकर उसका गोला बना लें एवं उसे आकके । (४६२७) विभीतकादिचूर्णम् पत्तों में लपेटकर उस पर आध अंगल मोटा (वृ. नि. र. । कास.) मिट्टीका लेप कर दें तथा उसे सुखाकर कण्डोंकी मन्दाग्नि में स्वेदित करें। जब ऊपर वाली मिट्टीका दो भागौ च विभीतक्या भागैकं पिप्पलीयतम। रंग लाल हो जाय तो गोलको अग्निसे निकालकर सूर्ण मधुयुतं लेह्यं कासरोगहरं परम् ॥ ठण्डा करके उसके ऊपरकी मिट्टी छुड़ा दें और | २ भाग बहेड़े और १ भाग पीपलका चूर्ण भीतरसे बहेड़े के गोलेको निकालकर पीस लें। | एकत्र मिलाकर शहदके साथ चाटने से खांसी नष्ट इसमें से ज़रा ज़रा सा चूर्ण मुंहमें रखकर | होती है । रस चूसनेसे खांसी अवश्य नष्ट हो जाती है। । ( मात्रा-२-३ माशे ।) For Private And Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५६७] (४६२८) विभीतकार्य चूर्णम् (४६३१) बिल्वप्रयोगः ( ग. नि. ! चूर्णा.; र. र. । हिका.) (व. से. । विष.) विभीतकं सातिविषं भद्रमस्तं च पिप्पली। बिल्वकाकोलयोर्मूलं गिरिकास्तिलस्य च । भार्गी च शृङ्गवेरं च सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। एतेषां मधुसर्पिभ्यों पानमाखुविधापहम् ॥ तानि चूर्णानि मद्येन पीतान्युष्णोदकेन वा।। बेल और काकोलीकी जड़, कोयलकी जड़ नाशयन्ति नृणां क्षिप्रं श्वासकासापतन्त्रकान् ।। | और तिलकी जड़ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । बहेड़ेके फलकी छाल, अतीस, नागरमोथा, इसे शहद और घीके साथ सेवन करने से पीपल, भरंगी और सेांठ समान भाग लेकर चूहेका विष नष्ट होता है। चूर्ण बनावें। (४६३२) पिल्वफलादिचूर्णम् ( वृ. नि. र. । संग्रहण्य.) इसे मद्य या उष्ण जलके साथ सेवन कर श्रीयनवालकमोचकशकं नेसे श्वास, खांसी और अपतन्त्रक रोग शीघ्र ही चूर्णमजापयसापरिपेयं । नष्ट हो जाता है। हन्ति च तद्हणीभयमाशु (मात्रा--३ माशे ।) सामगदं रुधिरेण विमिश्रम् ॥ (४६२९) बिल्वगुडादिप्रयोगः बेलगिरी, नागरमोथा, सुगन्धबाला, मोचरस (वृ. मा. । अति.; ग. नि. । अति.) और इन्द्रजौ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।। बालबिल्वं गुडं तैलं पिप्पली विश्वभेषजम् । इसे बकरीके दृधके साथ सेवन करने से लिह्याद्वाते प्रतिहिते सशूले समवाहिके ॥ | साम और रक्तवाली संग्रहणी नष्ट होती है । कच्ची बेलगिरी, गुड़, पीपल और सांठके ( मात्रा-२-३ माशे।) चूर्णको तेलमें मिलाकर चाटनेसे शूल युक्त वातज | (४६३३) बिल्वमूलाचं चूर्णम् प्रवाहिका नष्ट होती है। ( वं. से. । अध्न.; भै. र. । वृद्धि.; वृ. नि. र. । (४६३०) बिल्वगुडादिप्रयोगः अण्डवृद्धि; ग. नि. । चूर्णा.; यो. त.। (वं. से.; वृ. मा.; ग. नि. । अतिसा.) । त. ५६; वृ. यो. त. । तः १०७; वृ. बिल्वपेशी गुढ रोधं तैलं मरिचयोजितम् ।। मा. । गल. ग.; च. द. । अ. ३९) लीवा प्रवाहिका हन्ति सिमं मुखमवाप्नुयात्।। मूलं बिल्वकपित्थयोररलुकस्याबृहत्योर्द्वयोः ___ बेलगिरी, गुड़, लोध और काली मिर्च के | श्यामापूतिकरअशिग्रुकतरोविश्वौषधारुष्करम् । चूर्णको तेलमें मिलाकर चाटनेसे प्रवाहिका शीघ्र कृष्णाग्रन्यिकवेल्लपश्चलवणक्षाराजमोदान्वित ही नष्ट हो जाती है। पीतं काञ्जिककोष्णतोयमयितैश्चूर्णीकृतं ( मात्रा-२-३ माशे ।) वर्मजित ॥ For Private And Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [बकारादि बेलमूल, कैथकी जड़, अरलुकी जड़, चीता-1 बेलगिरी, नागरमोथा, धायके फूल, पाठा, मूल, दोनों कटेलियों की जड, निसोत, पूतिकरञ्ज, | सेठ और मोचरस समान भाग लेकर चूर्ण सहजनेकी जड़की छाल, सेठ, शुद्ध भिलावा, | बनार्वे । पीपल, पीपलामूल, बायबिडंग, पांचों नमक, इसे गुड्युक्त तक्रके साथ सेवन करने से जवाखार और अजमोद समान भाग लेकर कष्ट साध्य अतीसार भी नष्ट हो जाता है । चूर्ण बनावें। (४६३७) बीजपूरचूर्णम् इसे काञ्जी, मन्दोष्ण जल अथवा मथी हुई (धन्व. । शूल.) दही के साथ सेवन करनेसे ब्रन रोग नष्ट होता है। बीजपूरकमूलञ्च घृतेन सह पाययेत् । ( मात्रा---१ से ३ माशे तक । ) जयेद्वातभवं शूलं कर्षमेकं प्रमाणतः बिजौरे नीबूकी जड़के एक कर्ष (११ तोला) (४६३४) बिल्वादिचूर्णम् (१) । चूर्णको घृतमें मिलाकर खिलानेसे वातज शूल नष्ट (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३ ) होता है। पकबिल्वागुरुरोधचूर्ण मध्वादियोजितम् । (व्यवहारिक मात्रा---३-४ माशे ।) रक्तातिसारशमनं बालानां क्षीणदेहिनाम् ॥ | (४६३८) ब्राह्मयादिचूर्णम् (१) पक्के बेलकी गिरी, अगर और लोधके समान (व. से. । रसा.; भा. प्र. म. खं. २ । स्वरमे.; भाग मिश्रित चूर्णको शहद इत्यादिके साथ चटानेसे दुर्बल बालकांका रक्तातिसार नष्ट होता है। वृ. मा. । रसायना.) । (४६३५) बिल्वादिचूर्णम् (२) ब्राह्मीवचाभयावासा पिप्पलीमधुसंयुता । ( व. से.; वृ. मा.; यो. र.; वृ. नि. र. । शूला.) अस्य प्रयोगात्सप्ताहात् किन्नरैः सह गीयते ॥ बिल्वमूलमथैरण्डं चित्रकं विश्वभेषजम् । ब्राह्मी, बच, हर्र, बासा और पीपलके चूर्णको हिसैन्धवसंयुक्तं सद्यः शूलहरं परम् ॥ शहद में मिलाकर चाटनेसे गला खुल जाता है, और स्वर अत्यन्त मधुर हो जाता है। ___ बेलकी जड़, अरण्डकी जड़, चीतामूल, सेठ, हींग और सेंधा नमकके चूर्णको ( उष्ण पानी या (४६३९) ब्राहयादिचूर्णम् (२) काजीके साथ ) सेवन करनेसे शूल तुरन्त नष्ट (. नि. र. । स्वर.) हो जाता है। ब्राह्मीमुण्डीवचाशुण्ठीपिप्पली मधुसंयुता। (४६३६) बिल्वादिचूर्णम् (३) सेविता सप्तरात्रेण जायते किङ्किणिध्वनिः॥ (वं. से. । अतिसारा.) ब्राह्मी, गोरखमुण्डी, बच, सांट और पीपलके बिल्वाब्दधातकीपाठाशुण्ठीमोचरसः समः। | चूर्णको सात दिन तक शहदके साथ चाटनेसे स्वर पीतो रुन्ध्यादतीसारं गुडतक्रेण दुर्जयम् ॥ । अत्यन्त मधुर हो जाता है और गला खुल जाता है। इति बकारादिचूर्णपकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५६९] अथ बकारादिगुटिकाप्रकरणम्। (४६४०) यल्लीतर्वादिगुटिका | त्रिकदुविकटदंष्टा हिङगुजाररौद्र (ग. नि. । वात. व्या.) त्रिलवणनखमुग्रं जीरके द्वे च हस्तौ । बल्लीतरुः पुष्करमूलशुण्ठी प्रकटितकटुकाः प्रोल्लसत्केसरौघः कुष्ठं गुडूचा सुरदारु रास्ना । ___ कफमदगजहन्ताकेसरीबीजपूरः ॥ स्यात्सैन्धवं तद्विगुणो गुडश्च __ सांठ, मिर्च, पीपल, हांग, सेंधा नमक, सञ्चल सर्वाङ्गवाते गुटिका च सेव्याः ॥ नमक, बिडनमक, सफेद जीरा और काला जीरा । साल वृक्षकी छाल, पोखरमूल, सेठ, कूठ, इनके समान भाग-मिश्रित चूर्णको नीबूके रसमें गिलोय, देवदारु, रास्ना और सेंधा नमक १-१ घोटकर गोलियां बनावें । भाग लेकर चूर्ण बनावें आर उसे सबसे २ गुने यह गोलियां कफ रूपी हाथीके लिए सिंहके गुड़में मिलाकर (६-६ माशेकी ) गोलियां समान हैं। बना लें। (४६४३) वृद्धदारुमोदकः इनके सेवनसे सर्वाङ्गगत वायु नष्ट होता है। (वृ. नि. र. । संग्रहणी रो.) (४६४१) विल्वादिगुटिका | वृद्धदारुकभल्लातशुण्ठीचूर्णेन पेषितः । (वृ. नि. र. । शूला.; व. से. । शूला.) मोदकः सगुडो हन्यात्पड्विधाः कृतारुजः ॥ विधारामूल, शुद्ध भिलावा और सांठ का बिल्वैरण्डतिलैः कृत्वा गुटिकाचाम्लपिताः। चूर्ण १-१ भाग तथा गुड़ ६ भाग लेकर सबको वातशूलोपशान्त्यर्थं प्रयुज्यादुष्ट्रया तथा ।।। एकत्र मिलाकर मोदक बनावें । बेलछाल, अरण्डमूल और तिल समानभाग इनके सेवनसे ६ प्रकारका अर्शरोग नष्ट लेकर चूर्ण बनावें और उसे नीबूके रसमें घोटकर | होता है । (३-३ माशेकी) गोलियां बना लें । ( मात्रा-९ माशे । ) इन्हे वृश्चिकालीके रसके साथ सेवन करनेसे | (४६४४) योलवटिका वातज शूल नष्ट होता है। (र. चं. । सूतिका.) (४६४२) बीजपूरादिगुटिका रम्भाफलार्धसह पिप्पलजाङ्कराणि (यो. चि. । अ. ३) कर्ष गृहीतमपि मापमितं च बोलम् । For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५७०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि - - - माषं पृथग् वरुणचन्द्रलतालवानि इसे प्रातःकाल गायके दूधके साथ खिलाना सर्व विमर्थ पयसा विलिहेल्पगे च ॥ और आहारमें केवल गायका दूध और शाली चावशाल्योदन गोपयसाऽत्र भोज्यम् लका मात देना चाहिये । प्यासमें पानी न देकर दुग्धेन कार्यस्त्वतिड्विनाशः। क्षयं च पाण्डं प्रसुतीगदं च | गायका दूध ही देना चाहिये। नश्यन्ति सत्यं ह्यनुभूतमेतत् ।। इसके सेवनसे क्षय, पाण्डु और प्रसूत रोग __ केलेकी छिली हुई फली आधी, पीपल वृक्षके नष्ट होते हैं । यह सत्य और अनुभूत प्रयोग है। अंकुर ११ तोला, बोल, बरनेके पुष्प, इलायची ब्रह्मवटी और लोंगका चूर्ण १-१ माशा लेकर सबको एकत्र पीस लें। रसप्रकरणमें देखिये। इति बकारादिगुटिकाप्रकरणम् । अथबकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् । (४६४५) बिल्वाद्यो गुग्गुलः छाल, पोखरमूल, बहेड़ा, यवक्षार, काली मिरच, सांठ, (ग. नि. । गुटिका.) | अजवायन, बच, कचूर , इन्द्रजौ, अम्लबेत, छोटी विल्वैलापटुहेमचव्यहपुषाद्राक्षाकणादाडिमं इलायची, दालचीनी, तिन्तडीक, चीता, नीमके पत्ते, मूलं पौष्करमक्षपाक्यमरिचं शुण्ठी यवानी वचा। दोनों जीरे, काला नमक (सञ्चल), कटेली, सुगन्ध कर्चुरेन्द्रयवाम्लवेतसत्रुटित्वक्तिन्तडीकाग्निकं बाला, आमला, पाठा, धनिया, जवासा, अजमोद, नैम्बं पत्रमजाजियुग्मरुचकं क्षुद्राम्बुधात्रीफलम् ।। पीपलामूल, तेजपात, कलौंजी और नागरमोथा । पाठाधान्ययवासदीप्यककणामूलं दलं वाष्पिका इनका चूर्ण १-१। तोला, पुराना शहद ४० मुस्ता कर्षसमैश्चतुष्पलयुतैः क्षौद्रस्य जीर्णस्य वै। तोले और शुद्ध गूगल ४० तोले लेकर सबको दत्त्वा गुग्गुलमत्र चाष्टपलिकं कल्वा वटान्भक्षयेत् एकत्र मिलाकर अच्छी तरह कूटें और ( ६-६ ते जग्या विनिहन्ति वातकफजान् माशेके) मोदक बनाकर रखें। व्याधीनशेषानपि॥ बेलछाल, बड़ी इलायची, सेंधानमक, नाग- इनके सेवनसे समस्त वातकफज रोग नष्ट केसर, चव, हाऊबेर, मुनका, पीपल, अनारफी होते हैं। इति बकारादिगुग्गुलुमकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहमकरणम् ] हतीयो भागः। [५७१) - अथबकाराद्यवलेहप्रकरणम्। (४६४६) बादामपाक: । (४६४७) बालकुटजावलेहः (मै. र.; र. र. । बालरो.) (नपु. मृता. । त. ४) मूलत्वचं वत्सकस्य पलमेकं सुकुट्टितम् । मज्जां बातादर्ज पिष्ट्वा प्रस्थाधे मानतो बुधः। अष्टभागं जलं दत्त्वा चतुर्भागावशेषितम् ।। प्रस्थैकं च सितां पक्त्वा विधिना मेलयेत्ततः॥ अतिविषा च पाठा च जीरकं बिल्वमेव च । पलद्वयं घृतं दत्त्वा चूर्णानेतांश्च संक्षिपेत् । आम्रास्थि शतपुष्पा च धातकी मुस्तकं तथा॥ जातीफलं च सञ्चूर्ण्य निक्षिपेत्तत्र यत्नतः। एलाद्वयं जातिफलं लवर्ष केशरं त्वचम् ॥ कर्पकर्षप्रमाणेन चूर्णयित्वा विमेलयेत् । वालानामामशूलघ्नो रक्तस्राव सुदारुणम् ।। अपि वैद्यशतेस्त्यक्तं जयेदेतन संशयः॥ मज्जाद्वयं पलैकैकं दलाश्चाथ सुवर्णजान् ॥ ५ तोले कुड़ेकी जड़की छालको कूटकर १ राजताछतमानेन सम्मेल्य विधिना ततः। । सेर पानीमें पकावें । जब २० तोले पानी शेष रह ‘पञ्चकर्षप्रमाणेन मोदकान्कारयेद्बुधः ।। जाय तो उसको छानकर पुनः पकाकर गाढ़ा करें भनिनां पुरवासानां भक्षणार्थ हि शोभनम्। | और उसमें अतीस, पाठा, जीरा, बेलगिरी, आमकी बलवृद्धिकरं शश्वद्वाजीकरणमुसमम् ।। गुठली, सोया, धायके फूल, नागरमोथा और जाय | फलका चूर्ण समान भाग मिश्रित २॥ तोले बादामको आधसेर गिरीको रात्रिके समय पानी में भिगो दें और प्रातःकाल उसे छीलकर | यह अवलेह बालकांके आमशूल और रक्तपत्थरपर पीस लें । तदनन्तर उसे १० तोले धीमें | सावको नष्ट करता है । सैकड़ों वैद्योंसे त्यक्त रोगी भूनकर १ सेर खांडको चाशनीमें मिला दें और | इससे अच्छा हो जाता है। फिर उसमें छोटो बड़ी इलायची, जायफल, लौंग, बालचातुभद्रिका केसर और दालचीनीका चूर्ण ११-१॥ तोला तथा (भै. र. । बालरोगा.) पिस्ता और चिरौंजी ५-५ तोले एवं सोने चांदीके । प्र. सं. १६३२ देखिये । वर्क १००-१०० नग मिलाकर ५-५ कर्ष । (४६४८) याहुशालगुडः (१) (६। तोले) के लड्डु बना लें। (व. से. । ग्रहण्य. ३) ! प्रितिक्ता निकुम्भा च श्वदंष्टाचित्रकं शठी। यह पाक बलवर्धक और उत्तम वाजीकरण है। विद्याला मुस्तकं शुण्ठी कमिशत्रुहरीतकी ॥ For Private And Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५७२ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि द्विपलांशाः पलान्यष्टौ भल्लातकफलानि च । । __इसमें से नित्य प्रति ११ तोला अवलेह सूरणं द्वादश प्रोक्तं षट्पलं वृद्धदारुकम् ॥ | सेवन करनेसे वातज, पित्तज, कफज, द्विदोषज एतानि खण्डशः कृत्वा द्विद्रोणेऽपां विपाचयेत् । और सन्निपातज संग्रहणी तथा कामला, कुष्ठ, पादशेषन्तु कुर्वीत पचेदगुडतुलां भिषक् ॥ प्रमेह, अर्श, पाण्डुरोग, भगन्दर, शोथ और गुल्म कन्दस्तिक्तस्त्रिद्वहिर्मुस्तैलामरिचत्वचम् । का नाश होता है। नागकेसरचूर्णश्च ोकैकं द्विपलोन्मितम् ॥ इसे सभी ऋतुओं में सेवन कर सकते हैं । एतानि मूक्ष्मचूर्णानि गुडमध्ये विनिःक्षिपेत् ।। (४६४९) बाहुशालगुडः (२) भक्षयेद्गुटिकां प्राज्ञः कर्षाशां पथ्यभुङ्नरः॥ ( श्रीबाहुशालगुडः ) वातपित्तकफमायां द्विदोषां सान्निपातिकाम् ।। (शा. ध. । खं. २ अ. ७; वृ. नि. र.; यो. र.। ग्रहणी नाशयत्याशु चक्रपाणियथाऽसुरान् ॥ अर्शो.; भै. र.;* च. द.; वृ. मा.; भा. प्र.; कामलाकुष्ठमेहार्शः पाण्डुरोगभगन्दरान् ।। र.र.; धन्व.; व. से. । अर्शी.; ग. नि.।' श्वयथूदरगुल्मांश्च जयेत्सम्यक्पयोजितः ॥ लेहा.; वृ.यो. त. । त. ६९; यो. " सर्वास्तुषु कर्त्तव्यो गुडोऽयं बाहुशालिकः।" चि. म.२ । पाका. १) नोट- इस प्रयोगकी ओषधियां तो लगभग । इन्द्रवारुणिका मुस्तं शुण्ठी दन्ती हरीतकी। "बाहुशालगुड (२)" के समान ही हैं परन्तु त्रिवृत् सठी विडङ्गानि गोक्षुरश्चित्रकस्तथा ॥ उनके परिमाणमें बहुत अन्तर है, इसी लिये दोनों तेजोहा च द्विकर्षाणि पृथग् द्रव्याणि कारयेत् । मूरणस्य पलान्यष्टौ वृद्धदारु चतुष्पलम् ॥ प्रयोग पृथक् पृथक् लिखे हैं । चतुःपलं स्याद्भल्लात: काययेत्सर्वमेकतः । निसोत, कुटकी, दन्तीमूल, गोखरु, चीता, जलद्रोणे चतुर्थाशं गृह्णीयात्काथमुत्तमम् ॥ कचूर, इन्द्रायनमूल, नागरमोथा, सेठ, बायबिडंग और हर्र १०-१० तोले तथा शुद्ध भिलावा ४० * योगरत्नाकरके पश्चात् वाले ( भै र. से यो. चि. म. तकके ) ग्रन्थोंमें:तोले, सूरण (जिमिकन्द) ६० तोले, और विधारा (१) समस्त द्रव्यांका परिमाण इस पाठमें दिये हुवे मूल ३० तोले लेकर सबको कूटकर ६४ सेर परिमाणसे द्विगुण लिखा है परन्तु विधारा ६ पानी में पकावें और १६ सेर पानी बाकी रह जाय पल ही लिखा है जो उक्त पाठके अनुसार “ पल तो उसे छानकर उसमें ६। सेर गुड मिलाकर पुनः होना चाहिये। पकावें । जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें (२) त्रिकुटेकी जगह विदारीकन्द लिखा है। __विदारीकन्द, परवल, निसोत, चीता, नागर (३) शहदका अभाव है। (४) दन्तीके स्थानमें विदारीकन्द लिखा है। किस मोथा, इलायची, कालीमिरच, दालचीनी और नाग- किसी अन्यमें दन्तीके स्थानमें कुटकी भी लिखी है। केसरका चूर्ण १०-१० तोले मिलाकर ठंडा करके १-गदनिग्रहमें भिलावेका अभाव है। चिकने पात्र में भरकर रख दें। २-योगचिन्तामणिमें इसका नाम सरणपाक लिखा है For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५७३] काथ्यद्रव्यात्रिगुणितं गुडं क्षिप्त्वा पुनः पचेत् ।। (४६५०) यिभीतकावलेहः (१) सम्यक् पकं च विज्ञाय चूर्णमेतत्मदापयेत् ।। (रा. मा. । रक्तपित्ता. ९) चित्रकस्त्रिता दन्ती तेजोढा पलिकाः पृथक् । निर्णयानालेन सार्थ पृथक् त्रिपलिकाः कार्याव्योपैलामरिचत्वचः॥ निक्षिपेन्मधुशीते च तस्मिन्मस्थपमाणतः । । । कलितरुफलकृष्णासैन्धवानि पलिह्यात् । ...| अभिलपति विजेतुं यः स्वरस्य प्रणाशं एवं सिद्धो भवेच्छ्रीयान् बाहुशालगुडः शुभः॥ स पिबतु सह दुग्धेनामलक्या फलं वा। जयेदीसि सर्वाणि गुल्मं वातोदरं तथा। आमवातं प्रतिश्यायं ग्रहणीक्षयपीनसान् ।। बहेड़ा, पीपल और सेंधानमक के अत्यन्त हलीमकं पाण्डुरोग प्रमेहं च रसायनम् ॥ | महीन चूर्णको कांजी में मिलाकर चाटने से अथवा | आमले के चूर्णको दूधके साथ पीनेसे स्वरभंग इन्द्रायणमूल, नागरमोथा, सेांठ, दन्तीमूल, । (गला बैठना ) रोग नष्ट होता है । हर्र, निसोत, शठी (कचूर), बायबिडंग, गोखरु, (४६५१) बिभीतकावलेहः (२) चीतामूल और तेजबल २॥२॥ तोले; सूरण (वै. जो. । वि. ३; यो. र.; व. से. । कासा.; (जिमीकन्द) ४० तोले, विधारामूल २० तोले और शुद्ध भिलावा २० तोले लेकर सबको एकत्र ग. नि. । लेहा.) कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी / अजस्त्र मूत्रस्य शतं पलानां शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें उपरोक्त शतं पलानां च कलिद्रुमस्य । समस्त ओषधियों से ३ गुना गुड़ मिलाकर पुनः पकं समवाशु निहन्ति कासं पकावें और गाढ़ा हो जाने पर उसमें चीता, निसात, । वासं च तद्वत्सबलं बलासम् ।। दन्तीमूल और तेजबलका चूर्ण ५-५ तोले तथा ६। सेर बहेड़े के चूर्णको उतने ही बकरेके सोंठ, मिर्च, पीपल, इलायची, मिर्च और दालची- | मूत्रमें पकावे जब गादा हो जाय तो उतार कर नीका चूर्ण १५-१५ तोले मिलाकर अग्निसे नीचे | चिकने पात्र में भरकर रख दें। उतार लें एवं उसके ठण्डा हो जाने पर उसमें १ | इसे शहद में मिलाकर चाटनेसे खांसी, श्वास सेर शहद मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर रख दें। और कफका नाश होता है। इसके सेवनसे अर्श, गुल्म, वातोदर, आम- ( मात्रा-३ माशे।) वात, प्रतिश्याय, संग्रहणी, क्षय, पीनस, हलीमक, | (४६५२) वीजपूरकादिलेहः पाण्डु और प्रमेहका नाश होता है । (ग. नि. । छर्य.) यह रसायन भी है। निष्पीड्य च बीजपूरकाद्रसमेलाकनागरायुतम् । (मात्रा-आधेसे १ तोले तक ।) लेहो मधुशर्करायुतो वमथु वातकृतां नियच्छति॥ For Private And Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५७४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [सकारादि - %3 बिजौरे नीबूके रसमें इलायची, अदरक | क्षौद्रप्रमाणं स्नेहा तत्सर्व धृतभाजने । और सेठिका चूर्ण मिलाकर उसमें शहद और तिष्ठेत्सम्मृछित तस्य मात्रां काले प्रयोजयेत् ।। खांड डालकर चाटनेसे वातज छर्दि ( वमन) या नोपरुन्ध्यावाहारमेवं मात्रा जरां मति । नष्ट होती है। पष्टिकः पयसा चात्र जीर्णे भोजनमिष्यते ॥ (४६५३) ब्रास्यरसायनम् (१) वैखानसा वालखिल्यास्तथा चान्ये तपोधनाः। | रसायनमिदं भाप्य बभूवुरमितायुषः ।। (च. सं. । चि. अ.। १) मुक्त्वा जीर्ण वपुवाश्यमवापुस्तरुणं वयः । पञ्चानां पञ्चमलानां भागान्दशपलोन्मितान् ।TERTAIT माहिताः ॥ हरीतकीसहस्रं च त्रिगुणामलकं नवम् ॥ मेधास्मृतिवलोपेताश्चिररात्रं तपोधनाः । विदारिगन्धां बृहती पृश्निपणी निदिग्धिकाम् । ब्राहथं तपो ब्रह्मचर्य चेरुश्चात्यन्तनिष्ठया ॥ विद्याद्विदारिगन्धाधं वदंष्ट्रापञ्चमं गणम् ।। रसायनमिदं ब्रायमायुष्कामः प्रयोजयेत् । बिल्वानिमन्थस्योनाकं काश्मयमय पाटलाम्। दीर्घमायुर्वयवाउचं कामांश्चेष्टान् समश्नुते ॥ पुनर्नवां शूपिण्यौँ बलामैरण्डमेव च ।। जीवकर्षभको मेदां जीवन्ती सशतावरीम् । शालपणां, बनभंटा, पृश्निपर्णी, कटेली, | गोखरु, बेल, अरणी, अरलु, खम्भारी, पाढल, शरेक्षुदर्भकाशानां शालीनां मृलमेव च ॥ पुनर्नवा (बिसखपरा), मुद्गपर्णी, माषपर्णी, बला इत्येषां पञ्चमूलानां पञ्चानामुपकल्पयेत् । (खरैटो ), अरण्ड, जीवक, ऋषभक, मेदा, जीवभागान्यथोक्तांस्तत्सर्व साध्यं दशगुणेऽम्भसि ।। न्ती, शतावरी, शर, ईख, दाभ कास और शालीदशभागावशेष तु पूतं तं ग्राहयेद्रसम् । धान्य । इन पच्चीस ओषधियों में से बड़े वृक्षांकी हरीतकीच ताः सर्वाः सर्वाण्यामलकानि च ॥ | जड़की छाल और शेषकी जड़ १०--१० तोले तानि सर्वाण्यनस्थीनि फलान्यापोथ्य कूर्चनैः ।। तथा १००० पल हर्र और ३ हजार पल आमले विनीय तस्मिनियहे चूर्णानीमानि दापयेत् ।। लेकर सबको २० गुने पानीमें पका और दशवां मण्डूकपर्ष्याः पिप्पल्याः शष्प्याः प्लवस्य च । भाग पानी शेष रहने पर छान लें एवं हरे और मुस्तानां सविडङ्गानां चन्दनागुरुणोस्तथा ।। आमलेांकी गुठली अलग करके उन्हें कूट लें। मधुकस्य हरिद्राया वचायाः कनकस्य च । तदनन्तर यह काथ, हर्र, आमले और मण्डूकपणी, भागांश्चतुष्पलान् कृत्वा सूक्ष्मैलायास्त्वचस्तथा।। पीपल, शंखपुष्पी, केवटी मोथा, नागरमोथा, बायसितोपलासहस्रं च चूर्णितं तुलयाऽधिकम् ।। हस चणित तुलयाअषकम्। बिडंग, सफेद चन्दन, अगर, मुलैठी, हल्दी, बच, तैलस्य द्वथाढकं तत्र दद्यात्रीणि च सपिषः॥ नागकेसर, छोटी इलायची और दालचीनौका चूर्ण साध्यमोदुम्बरे पात्रे तत्सर्वं मृदुनाऽमिना। २०-२० तोले, खांड इन सबसे ६२॥ सेर ज्ञात्वा लेहमदग्धं च शीतं क्षौद्रेण संसृजेत् ।। अधिक अर्थात ६२॥ + ३॥ = ६६ सेर और For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहमकरणम् ] हतीयो भागः। [५७५ ] १६ सेर तेल तथा २.४ सेर घी मिलाकर तांबेके । पुनर्नागबलासहस्सपलस्वरसपरिपीतमनातपशुकढ़ावमें मन्दाग्निपर पकावें । जब अवलेह तैयार कं द्विगुणितसपिपा क्षौद्रसपिषा वा क्षुद्रगुडाहो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर रखदें कृति कृत्वा शुचौ दृढे घृतभाविते कुम्भे भस्म और उसके ठण्डा होने पर उसमें १२ सेर शहद राशेरधः स्थापयेदन्तर्भूमेः पक्ष कृतरक्षाविधानमिलाकर चिकने पात्रमें भरकर रख दें। गथर्ववेदविदा, पक्षात्यये चोद्धत्य कनकरजत इसे इतनी मात्रानुसार खाना चाहिये कि ताम्रप्रवालकालायसचूर्णाष्टभागसंयुक्तमर्धकर्षजिससे भूख बन्द न हो जाय । एवं औषध पच वृद्धया यथोक्तेन विधिना भातः प्रातः प्रयुञ्जाजाने पर साठीक चावलेोके भात और दूध का नोऽग्निबलमभिसमीक्ष्य जीर्णे च पष्टिकं पयसा आहार करना चाहिये। ससपिष्कमुपसेवमानो यथोक्तान गुणान् समइस रसायनको सेवन करके वानप्रस्थी, बाल- भुत इति ॥ खिल्य और अन्य तपस्वी लोगों ने दीर्घायु प्राप्त भवन्ति चात्र। की थी। उनके वृद्ध शरीर पुनः यौवनको प्राप्त हो गये थे एवं वे तन्द्रा, क्लान्ति और श्वासादि इदं रसायनं ब्रायं महर्पिगणसेवितम् । रोग रहित होकर बली, स्मृतिमान् और मेधावान् । भवत्यरोगो दीर्घायुः प्रयुआनो महाबलः ।। कान्तः प्रजानां सिद्धार्थवान्द्रादित्यसमुद्यतिः । होकर दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य ब्रतका पालन करते हुवे तपस्या करते रहे थे। श्रुतं धारयते सत्चमाणे चास्य प्रवर्तते ॥ धरणीधरसारश्च वायुना समविक्रमः ।। दीर्घायुकी इच्छा करने वाले व्यक्तियोंको स भवत्यविषं चास्य गात्रे सम्पद्यते विषं ।। यह रसायन सेवन करनी चाहिये । इसके सेवनसे १००० नग सर्व गुण सम्पन्न आमलेको दीर्घायु और तरुणावस्था प्राप्त होती है। दूधकी भापसे सिजाकर उनके भीतरकी गुठली (४६५४) ब्राहयरसायनम् | अलग कर दें और फिर उन्हें पीसकर छायामें (न. सं. । चि. अ. १) | सुखालें । तदनन्तर उनका चूर्ण करके उसे १ यथोक्तगुणानामामलकानां सहस्रं पिष्टा हजार आमलों के रसकी भावना दें । जब सब स्वेदनविधिना पयस ऊप्पणा मुस्विन्नमनात- रस सूख जाय तो उसमें उसका आठवां भाग पशुष्कमनस्थि चूर्णयेत, तदामलकसहस्रस्वरस- शालपर्णी, पुनर्नवा, जीवन्ती, नागबला (गुलसकरी), परिपीतं स्थिरापुनर्नवाजीवन्तीनागबलाब्रह्मसु- ब्रह्मसुवर्चला, मण्डूकपर्णी, शतावर, शंखपुष्पी, वर्चलामण्डूकपर्णीशतावरीशङ्खपुष्पीपिप्पलीवचा, पीपल, बच, बायबिडंग, कांचके बीज, गिलोय, विडङ्गस्वयंगुप्तामृताचन्दनागुरुमधुकमधुकपुष्पो- सफेद चन्दन, अगर, मुलैठी, महुवेके फूल, नीलोत्पलपबमालतीयुवतीयूथिकाचूर्णाष्टभागसंयुक्तं, त्पल, कमल, मालती, फूलप्रियङ्गु और जूहीका For Private And Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ ५७६ ] समानभागमिश्रित चूर्ण मिलाकर उसे नागबलाके १००० पल ( ६२ || सेर) रस की भावना देकर छाया में सुखा लें। और फिर उसमें उससे २ गुना घी या बराबर बराबर घी और शहद मिलाकर क्षुद्रगुड ( पतली राब ) के समान बना लें और उसे घृत रखनेके मज़बूत और चिकने पात्रमें भरकर, उसका मुख बन्द करके भूमिमें गढ़ा खोद कर उसमें रख दें और राखसे दबा दें । एवं १५ दिन बाद निकालकर उसमें उसका आठवां भाग सोना, चांदी, ताम्र, प्रवाल और कृष्णलोहका चूर्ण ( भस्में ) मिलाकर सुरक्षित रक्खे । इसे आधा कर्ष ( ७ || माशे ) की मात्रा प्रारम्भ करके धीरे धीरे मात्रा बढ़ाते हुवे विधि (४६५५) बदरीफलादिघृतम् ( ग. नि. । कासा. ) कोललाक्षारसे तद्वत्क्षीराष्टगुणसाधितम् । कल्कैः कटूबङ्गदार्वीत्वकुवत्सकत्वक्फलैर्धृतम् ॥ [ वकारादि | पूर्वक प्रातः काल सेवन करने और औषध पचने पर अग्नि- बलानुसार दूध के साथ घृतयुक्त साठी चावल का भात खानेसे रोग रहित दीर्घायु प्राप्त होती है । इति वकारादिलेहप्रकरणम् । Paris का और लाक्षारस तथा आठ गुने दूध और अरलुकी छाल, दारूहल्दीकी छाल, कुड़ेकी छाल तथा इन्द्रजौके कल्कसे सिद्ध घृत खांसीका नाश करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे प्राचीन काल में ऋषियोंने सेवन किया था । इसके सेवन से अत्यन्त बलकान्ति, सन्तति और तेजकी वृद्धि होती है । मनुष्य श्रुतिधर, चट्टान समान् दृढ़ और वायुके समान् विक्रम शाली हो जाता है । यदि शरीरमें किसी प्रकारके विषका प्रवेश हो गया हो तो वह भी इसके सेवनसे नष्ट हो जाता है । ( व्यवहारिक मात्रा - - ३ माशे । ) अथ बकारादिघृतप्रकरणम् । ( घी १ सेर; काथ और लाक्षारस २–२ सेर दूध ८ सेर; कल्ककी हरेक वस्तु २॥ तोले । लाक्षारस बनानेकी विधि भारत भैषज्य रत्नाकर भाग १ में पृष्ठ ३५३ पर देखिये । ) (४६५६) बलाघृतम् ( व. से. । वातरक्ता ; भा. प्र. | म. स्व. २ वातरक्ता.; च. सं. । चि. अ. २९ ) बलामतिबलां मेदामात्मगुप्तां शतावरीम् । काकोलीं क्षीरकाकोलीं रास्नां मृद्वीश्च पेचयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] तृतीयो भागः। [५७७] - घृतं चतुर्गुण क्षीर तैः सिद्धं वातरक्तनुत् । सेर दूध एकत्र मिलाकर पकावें । जब धृतमात्र हुत्पाण्डुरोगवीसर्पकामलादाहनाशनम् ॥ शेष रह जाय तो छान लें । बला (खरैटी), अतिबला (कंघी), मेदा, इसके सेवन से वात, पित्त और कफका काँचकी जड़, शतावर, काकोली, क्षीरकाकोली, नाश होता तथा स्त्री गर्भ धारण करती है । रास्ना और मुनक्काके कल्क तथा ४ गुने दूधके | नोट----वाग्भटमें:--- साथ घृत सिद्ध करें। (अ) पीपलामूलकी जगह पीपल तथा, यह घृत वातरक्त, हृद्रोग, पाण्डुरोग, वीसर्प, ऋषभक और जीवक के स्थानमें ऋद्धि और जीरा कामला और दाहका नाश करता है । लिखा है। ( कल्ककी सब चीजें समान भाग मिश्रित | (आ) मुद्गपणी अधिक है । २० तोले, घी २ सेर, दूध ८ सेर । ) (४६५८) बलादितम् (२) (४६५७) बलादिघृतम् (१) (ग. नि. । पाण्डु.) (च. सं. । चि. अ. ३० योनि व्या.; वा. भ. । | वलया मधुकेनापि पिप्पल्युत्पलकेसरैः। उ. अ. ३४) पूर्ववत्साधितं सर्पिदोषानपकर्षति ।। वलाद्रोणद्वयकाथे घृततैलाढकं पचेत् । बला ( खरैटी ), मुलैठी, पीपल, नीलोत्पल स्थिरापयस्याजीवन्तीवीरभकजीवकैः ।। और नागकेसरके कल्क तथा काथसे सिद्ध घृत श्रावणीपिप्पलीमूलपीलुमाषाख्यपणिभिः । मिट्टी खानेसे उत्पन्न हुये पाण्डुरोग को नष्ट शर्कराक्षीरकाकोलीकाकनासाभिरेव च ॥ करता है। पिष्टैश्चतुर्गुणक्षीरसिद्ध पेयं यथाबलम् ।। ( कल्कके लिये प्रत्येक वस्तु १ तोला ४ वातपित्तकृतान् रोगान् हत्या गर्भ दधाति तत् ॥ मागे काय के लिये प्रत्येक वस्त ३२ तोले खरैटीका काथ ६४ सेर । घृत ८ सेर । लेकर सबको १६ सेर पानीमें पकाकर ४ सेर तैल ८ सेर । पानी शेष रक्खें । घी १ सेर । ) कल्कद्रव्य----शालपर्णी, विदारीकन्द, जी. (४६५९) बलादिघृतम् (३) वन्ती, काकोली, ऋषभक, जीवक, गोरखमुण्डी, (बृ. नि. र.; यो. र.; व. से. । नेत्र.) पीपलामूल, मूर्वा, माषपर्णी, खांड, क्षीरकाकोली बलाशतावरीवीरामिताशैलेयकैः पचेत् । और काकनासा ( काकजंघा या कौवा डोढी ) त्रिफलासहितं सपिस्तिमिनमानसमम् ।। सब समान भाग मिश्रित २ सेर । बला ( ग्रेटी । कर कार का विधि--...कल्क, काथ, घी तैल और ६४ बालछन्, हर, यह का For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५७८] भारत-भैषज्य-रस्नाकरः। [षकारादि - तथा काथसे सिद्ध घृत तिमिररोगको नष्ट । (४६६१) पलाये घृतम् (२) करता है। (वा. भ. । चि. स्था. अ. ५; व. से. । राजय.) (काथके लिये---प्रत्येक वस्तु २० तोले, बलविदारिगन्धाभ्यां विदार्या मधुकेन च। पानी १६ सेर, शेष काथ ४ सेर । कल्कार्थ सिद्धं सलवणं सर्निस्य स्वयंमनुत्तमम् ।। प्रत्येक वस्तु १० माशे । घो १ सेर ।) खरैटी, शालपणी, बिदारीकन्द और मुलैठी | ( पाठान्तरके अनुसार आमला ) के काय तथा (१६६०) बलाचं घृतम् (१) कल्कसे सिद्ध घृतमें सेंधा नमक मिलाकर (व. से. । हृद्रोगा., क्षतक्षय.; वृ. नि. र. । क्षय.; उसकी नस्य लेने या पीनसे स्वरभंग और राजपन्च.; र. र.; भा. प्र. म. ख.; भै. र. । यक्ष्माका नाश होता है। हृद्रोगा.; यो. र. । उरःक्षत.; च. द.। कल्कके लिये प्रत्येक वस्तु ३ तोले ४ हृद्रोगा. ३१; वृ. मा. । राजय.; वृ. माशे । काथके लिये प्रत्येक वस्तु १ सेर । यो. त. । त. ७७) पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर । घी २ सेर । घृतं बलानागवलार्जुनाम्बुसिद्धं सयष्टीमधुकल्कपादम् । (४६६२) बलायं घृतम् (३) हृद्रोगशूलं क्षतरक्तपित्त (वै. म. र. । भूतग्रहा. पट. १६ ) ___ कासानिलामृक्छमयत्युदीर्णम् ॥ वलांशुमत्योईन्, च बृहतीगोक्षुरस्य च । काथ----बला (खरैटी ), नागबला ( गुल द्वात्रिंशन्निष्कमेतेषां क्षुण्णं प्रत्येकमाहरेत् ।। | द्रोणार्धे सलिले क्षिप्त्वा पादशेषे विपाचिते । सकरी ) और अर्जुनकी छाल समान-भाग-मिश्रित अमृतास्वस्तिकवरीमूकन्यारसं पृथक् ।। ४ सेर । पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ | कुडवं कुडवं दत्त्वा बिसात्तौद्रुमात् फलात् । ८ सेर । कदलीकन्दसाराच्च प्रत्येकं कुडवार्धकम् ।। कल्क----मुलैठीका चूर्ण २० तोले। दत्त्वा कल्याणकारख्यस्य घृतस्यौषधकल्ककम् । विधि--२ सेर घीमें काथ और कल्क | तस्मिन् विशालां हित्वा च हयगन्धां समावपेत्।। क्षीराढकेन विधिव घृतपस्थं विपाचयेत् । मिलाकर काथ जलने तक पकावें । उन्मादापस्मृती हन्यात् पित्तमत्युल्वणं तथा ॥ इसके सेवनसे हृद्रोग, शूल, उरःक्षत, रक्त- धीमेधास्मृतीकृच्चैव दाहतृष्णाहरं परम् ।। पित्त, खांसी और कष्टसाध्य वातरक्तका नाश १-चिदार्यामलकेन चेति पाठान्तरम् होता है। २-पेयमनुत्तममिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतीयो भागः। [५७९] - - - -- काय----बला (खरैटी ), अतिबला (कंघी), कृत्वा कपाय पेष्याय दधात्तामलकी सटीम् । शालपर्णी, पृष्टपर्णी, बनभंटा और गोखरु । प्रत्येक | द्राक्षां पुष्करमूलं च मेदामामलकानि च ॥ १३ तोले ४ माशे लेकर सबको कूटकर १६ / घृतं पयश्च तत्सिद्धं सर्पिरहरं परम् । सेर पानीमें पकायें और जब ४ सेर पानी शेष रह क्षयकासपशमनं शिरःपावरुजापहम् ।। जाय तो उसे छान लें। काय-खरैटी, गोखरु, बनभटा, पृश्निपर्णा, ___अन्य द्रव पदार्थ---गिलोयका रस, चांगे कटेली, शालपणी, नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, नागर रीका रस, शतावरका रस, मूका रस और घृत | मोथा, त्रायमाना और धमासा । सब चीजें समान कुमारीका रस आधा आधा सेर । कमलनालका | भाग मिश्रित २ सेर । पानी १६ सेर । शेष काथ स्वरस, नारियलका पानी और केलेकी जड़का स्वरस | ४ सेर । २०-२० तोले । दूध ८ सेर । कल्क---असगन्ध, हरे, बहेड़ा, आमला, कल्क-भुई आमला, शठी (कचूर), मुनका, रेणुका, देवदारु, एलबालक, शालपर्णी, अनन्तमूल, पोखरमूल, मेदा और आमला । सब चीजें समान हल्दी, दारुहल्दी, दोनों प्रकारको सारिवा, फूल. भाग-मिश्रित १० तोले । प्रियङ्गु, नीलोत्पल, बड़ी इलायची, मजीठ, दन्तीमूल, विधि--१ सेर घी, ४ सेर दूध, उपरोक्त अनारदाना, नागकेसर, तालीसपत्र, बनभंटा, चमे- काथ और कल्क एकत्र मिलाकर पकावें। जब लोके ताजे फूल, बायबिडंग, पृष्टपर्णी, कट, सफेद | घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। चन्दन और पाक ११-१। तोला। इसके सेवनसे वर, क्षय, खांसी, शिरशूल विधि--२ सेर घी, उपरोक्त काथ, द्रव | और पार्श्व शूलका नाश होता है । पदार्थ, और कल्क एकत्र मिलाकर पकावें । जब (४६६४) यालचारीघृतम् घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान ले। (भै. र. । बाल.; च. द. । बाल. ६३; वृ. इसके सेवनसे उन्माद, अपस्मार, प्रवृद्ध पित्त, मा. । ग्रहण्य.) दाह, और तृष्णाका नाश तथा बुद्धि, मेधा और स्मृतिकी वृद्धि होती है। चारीस्वरसे सपिश्छागक्षीरसमं पचेत् । (४६६३) बलाद्यं घृतम् (५) कपित्यव्योषसिन्धत्यसमगोत्पलबालकैः ।। (वृ. यो. त.। त. ७६; च. द.। राजय. अ. सविल्वधातकीमोचैः सिद्धं सर्वातिसारनुत् । १०; च. सं. । चि. अ. ३; वृ. मा.। । ग्रहणी दुस्तरां इन्ति बालानान्तु विशेषतः ॥ राजय.; व. से.; वृ. नि. र.; यो. कल्क---कैथका गूदा, सांठ, मिर्च, पीपल, र. । ज्वरा.) | सेंधानमक, लज्जालु, नीलोत्पल, सुगन्धबाला, बेलबसां श्वदंष्ट्रां बृहती कलशों धावनी स्थिराम् । गिरी और धायके फूल समान भाग मिश्रित १० निम्बं पर्पटकं मुस्तं त्रायमाणां दुरालभाम् ॥ । तोले । चूकेका स्वरस ८ सेर, बकरीका दूध २ For Private And Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५८०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ वकारादि - सेर, घी २ सेर | सब चीजों को एकत्र मिलाकर । कल्कके लिये सब चीजें समानभाग-मिश्रित पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें । | ६ तोले ८ माशे। यह घृत बांके और विशेषतः बालकांके सब विधि---१ सेर घी, काथ और कल्क एकत्र ग्रकारके अतिसार और कष्टसाध्य ग्रहणीको नष्ट । मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो धीको करता है। छान लें ।) (४६६५) बिडलवणादिघृतम् (४६६७) बिम्पीकृतम् (वा. भ. । चि. अ. १०) (ग. नि. । क्रिमि.) विडं कालोपलवणस्वर्जिकायावशूकजान् । | क्रिमीनामाशयगतान् पकाशयगतानपि । सप्तलां कण्टकारी च चित्रकं चैकतो दहेत ॥ सप्तकृत्वः तस्यास्य क्षारस्यार्दाढके पचेत् । पीतं बिम्बीघृतं हन्ति तरुमिन्द्राशनिर्यया ॥ आढकं सर्पिषः पेयं तदमिबलवृद्धये ।। कन्दूरीके काथ और कल्कसे सिद्ध घृत पीनेसे बिडनमक, कालानमक, ऊपर लवण, सज्जी पक्वाशय और आमाशयगत कृमि नष्ट होते हैं । खार, जवाखार, सातला, कटेली और चीता समान __(कन्दूरीका काथ ८ सेर । घी २ सेर । भाग लेकर भस्म करें और उस भस्ममें ६ गुना | कन्दूरीका कल्क १३ तोले ४ माशे । ) पानी मिलाकर उसे क्षार बनानेकी विधिसे सात (४६६८) विल्वाद्यं घृतम् (१) चार छान लें। तदनन्तर १ सेर यह पानी और २ (ग. नि.; व. से.; यो. र.; वृ. मा.; च. द. । सेर घी एकत्र मिलाकर पकावें जब पानी जल जाय __ ग्रहण्य. ४; वृ. यो. त. । त. ६७; वृ. नि. तो घीको छान लें। र.। ग्रहण्य., उदर.) इसे पीनेसे अग्निकी वृद्धि होती है। बिल्वाग्निचव्याक श्रृङ्गरैः (४६६६) बिभीतकादिकृतम् कान कल्केन च सिदमाज्यम् । ( वृ. नि. र.; यो. र. । नेत्र.) सछागदुग्धं ग्रहणीगदोत्थे विभीतकशिवाधात्रीपटोलारिष्टवासकैः। पकमेभिर्घतं सर्वानक्षिरोगान्व्यपोहति ॥ शोथाग्निसादाऽरुचिनुद्वरिष्टम् ।। __बहेड़ा, हर्र, आमला, परवल, नीम और बेलगिरी, चीता और चव १-१ भाग तथा बासेके काथ तथा कल्कसे सिद्ध घृत समस्त नेत्र- अदरक २ भाग लेकर इनके फाथ और कल्क रोगांको नष्ट करता है। तथा बकरीके दूधके साथ घृत सिद्ध करें । (काथार्थ सब चीजें समानभाग-मिश्रित २ इसके सेवनसे संग्रहणी, शोथ, अग्निमांद्य और रोर। पासार्थ जल १६ सेर । शेष काथ ४ सेर। अरुचि नष्ट होती है। For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धृतमकरणम् तृतीयो भागः। (काथ ८ सेर, घा २ सेर, दूध २ सेर, । यवक्षार, पोपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल, सेठ, कल्क १३ तोले ४ माशे ।) अजवायन, पाठा और मूलीका कल्क २० तोले (४६६९) बिल्वाचं घृतम् (२) लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृत (ग. नि. । घृता.) मात्र शेष रह जाय तो छान लें । बिल्वं पाठाऽभया धान्यं यवानी सैन्धवं विडम् इसके सेवनसे हृदय और पसलीका शूल, स्वरभंग, हिचकी, श्वास, भगन्दर, वर्म, प्रमेह, पञ्चकोलं समरिचं क्षारैश्चैभिघृतं पचेत् ॥ दना चतुर्गुणेनैव शकुद्वातविबन्धनुत् । अर्श, और वातव्याधि नष्ट होती है। समिप्लीहवातार्तिगुदभ्रंशरुजापहम् ।। (४६७१) बीजपूरावं घृतम् ( भै. र. । शूला.; व. से.; धन्व.; र. र. । शूला.) बेलगिरी, पाटा, हर्र, धनिया, अजवायन, बीजपूरकमेरण्डं रास्नां गोक्षुरकं बलाम् । सेंधानमक, विडनमक, पीपल, पीपलामूल, चव, पृथक् पञ्चपलान् भागान् यवप्रस्थसमायुतान् ।। चीता, सांठ, कालीमिर्च और यवक्षारके कल्क तथा वारिद्रोणेन संसाध्यं यावत्पादावशेषितम् । ४ गुने दहीके साथ धृत सिद्ध करें । घृतपस्थं पचेत्तेन कल्कं दत्त्वाक्षसम्मिनम् ॥ __ यह घृत मलावरोध, अपानवायुका रुकना, तुम्बरुण्यभयाव्योषं हिङ्गसौवर्चलं विडम् । आम, प्लीहा, वातज शूल और गुदभ्रंशको नष्ट सैन्धवं यावशुकश्च सर्जिकामम्लवेतसम् ॥ करता है। पुष्करं दाडिमञ्चैव वृक्षाम्लं जीरकद्वयम् । (घी २ सेर, दही ८ सेर, कल्क २० तोले और पानी ८ सेर । ) प्रस्तुमस्थद्वयं दत्त्वा स मृद्वमिना पचेत् ।। घृतमेतत्पशंसन्ति शूलं हन्ति त्रिदोषजम् । (४६७०) बीजपूरकाचं घृतम् | वातशूलं यच्छूलं गुल्मप्लीहापहं परम् ॥ (ग. नि. । घृता. १) । हृच्छूलं पाशूलञ्च अङ्गशूलञ्च नाशयेत् । घृताच्चतुर्गुणो देयो मातुलुङ्गरसो दधि । बलवर्णकरं हृधमनिसन्दीपनं परम् ।। शुष्कमूलककोलाम्लकषायो दाडिमाद्रसः। काथ---बिजौ र नीकी जड़, अरण्डमूल, विडङ्गलवणक्षारपञ्चकोलयवानिभिः ।। | रास्ना, गोखरु और खरैटी २५-२५ तोले तथा पाठामूलककल्केश्च सिद्धं पूरकसज्ञितम्। जौ १ सेर लेकर सबको कूटकर ३२ सेर पानीमें हृत्पार्श्वशूलवैस्वर्य हिमाश्वासभगन्दरान् ।। | पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो वर्मगुल्मप्रमेहा वातव्याधीन् विनाशयेत् ॥ छान लें। घी २ सेर, बिजौ रका रस २ सेर, दही २ कल्क---तुम्बरु, हरे, सांठ, मिर्च, पीपल, सेर, सूखी मूली और खट्टे बेरका काथ २ सेर तथा होग, सञ्चल (काला नमक), बिड नमक, सेंधा, अनारका रस २ सेर एवं वायबिडंग, सेंधा नमक, जवाखार, सज्जीखार, अम्लबेत, पोखरमूल, अनार For Private And Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५८२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [वकारादि mean - दाना, तिन्तडीक और दोनों जीरे । प्रत्येक ओषधि पयश्च दद्याद्विगुणं विपर्क ११-१। तोला लेकर सबको पानीके साथ पीस लें। तद्ब्रह्मजुष्टं प्रवदन्ति सर्पिः॥ विधि---२ सेर घी, ४ सेर मस्तु ( दहीका प्लीहोदरं दृष्यपथोदरच तोड़) और उपरोक्त काथ तथा कल्क एकत्र मिला आयम्यमानं जठरं निहन्ति । कर मन्दाग्निपर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह ___ मनसिल, सेठ, नाडीका शक, चैटलीकी जाय तो छान लें। जड़, कटेली, पांचों नमक, हींग और पीपल १-१ यह घृत वातज तथा त्रिदोषज शूल, यकृच्छूल | कर्ष (११-१। तोला ) लेकर सबको पानीके साथ गुल्म, प्लीहा, हृच्छूल, पार्श्वशूल और अङ्गशूलको पीसकर कल्क बनावें । तत्पश्चात् २ सेर घीमें नष्ट तथा बलवर्ण और अग्निकी वृद्धि करता है। | यह कल्क, ४ सेर दूध और ८ सेर गोमूत्र मिलाहृदयके लिये हितकारी है। | कर मन्दाग्निपर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह (४६७२) बृहतीचित्रकक्षारघृतम् जाय तो उसे छान लें। (व. से. । ग्रहण्य.) यह घृत प्लीहोदर और अन्य समस्त प्रकारके बहतीचित्रकक्षारः सप्तवारपरिस्रतः।। उदर विकारोंको नष्ट करता है। (४६७४) ब्रामीघृतम् (१) द्विगुणेन घृतं पकं वर्द्धयत्याशु पावकम् ।। बनभंटा और चीतेकी भस्मको ६ गुने पानी .(ग. नि. । घृता.; वा. भ. । उ. अ. ६) द्वौ प्रस्थौ स्वरसाहाया घृतपस्थं च साधयेत् । में मिलाकर क्षार बनानेकी विधिसे सात बार छान लें। तदनन्तर १ सेर घीमें २ सेर यह पानी मिला व्योपश्यामात्रिब्राह्मीशङ्खपुष्पीनृपद्रमैः॥ ससप्तलाकृमिहरैः कल्कितैरक्षसम्मितैः । कर पकावें । पलवृद्धया प्रयुञ्जीत यावन्मात्रा चतुष्पलं ॥ इसके सेवनसे अग्नि अत्यन्त शीव दीप्त हो उन्मादकुष्ठापस्मारहरं वन्ध्यासुतपदम् । जाती है। वाकस्मृतिस्वरमेधाकृद्धन्यं ब्राह्मीघृतं शुभम् ॥ (४६७३) ब्रह्मघृतम् (ब्राह्मं घृतम् ) ___ब्राह्मीका स्वरस ४ सेर, घी २ सेर और (व. से. । उदर.; ग. नि. । घृता.) ११-१। तोला सोंठ, मिर्च, पीपल, काली निसोत, शिलाहयं नागरकालशाकं निसोत, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, अमलतासकी छाल, काकादनीमूलनिदिग्धिका च । सातलाकी छाल और बायबिडंगका कल्क (तथा पश्चैव दद्याल्लवणानि हिङ्गु ८ सेर पानी ) एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृत कृष्णा च तैरक्षसमैः पृथक्पृथक् ॥ मात्र शेष रह जाय तो छान लें। प्रस्थं घृतं स्याच पचेच्छनैः शनै इसे ५ तोलेकी मात्रासे सेवन करना प्रारम्भ श्चतुर्गुणं मूत्रमतः पदीयते। करें और धीरे धीरे २० तोले तक मात्रा बढ़ा दें। For Private And Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तृतीयो भागः । घृतमकरणम् ] इसके सेवन से उन्माद, कुष्ठ और अपस्मारका नाश होता तथा वाचाशक्ति, स्वर, स्मृति और मेधाकी वृद्धि होती है एवं वन्ध्या स्त्रीको पुत्रप्राप्ति होती है । ( व्यवहारिक मात्रा - १ से २ तोले तक) (४६७५) ब्राह्मीघृतम् (२) (वै. म. र । पटल ३) ब्राह्मीवासासिंहलीभिः कुण्डल्या मूलकेनचा अमृतालर्ककैः सर्पिः साधितं श्वासकासजित् ॥ ब्राह्मी, बासा, पीपल, घीकुमारकी जड़, गिलोय और आकके काथ तथा कल्कसे सिद्ध घृत श्वास और खांसीको नष्ट करता है । ( घी २ सेर | काथ ८ सेर । कल्क १३ तोले ४ माशे । ) (४६७६) ब्राह्मीघृतम् (३) ( व. से.; वृ. नि. र.; वृ. मा.; यो. र. र. र. । अपस्मा; भा. प्र. म. ख. अपस्मा; च. द. । वातत्र्या.; वृ. यो त । त. ८९; वै. म. र. । पट. १५; च. सं. । चि. अ. १९; यो. चि. म. । घृता. अ. ५; हा. सं. । स्था. ३ अ. २१ ) ब्राह्मीरसवचाकुष्ठं शङ्खपुष्पिमिरेव च । पुराणं पक्कमुन्मादग्रहापस्मारहृद्घृतम् || ब्राह्मीके रस और बच, कूठ तथा शंखपुष्पीके कल्क से सिद्ध पुराना वृत उन्माद, ग्रह और अपस्मारको नष्ट करता है । ( पुराना घी २ सेर, ब्राह्मीका स्वरस ८ सेर, कल्क १० तोले । ) [ ५८३] नोट- पाककी उत्तमताके लिये ८ सेर पानी भी डालना चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४६७७) ब्राह्मीघृतम् (४) (सारस्वत घृतम् ) ( च. द. । रसायना. ६५; र. र. : स्वरभेदा. ) समूलपत्रमादाय ब्राह्मीं प्रक्षाल्य वारिणा । उलूखले क्षोदयित्वा रसं वस्त्रेण गालयेत् ॥ रसे चतुर्गुणे तस्मिन्घृतप्रस्थं विपाचयेत् । औषधानि तु पेष्याणि तानीमानि प्रदापयेत् ॥ हरिद्रा मालती कुठंत्रता सहरीतकी । एतेषां पलिकान्भागान् शेषाणि कार्षिकाणि तु ।। पिप्पल्यise विडङ्गानि सैन्धवं शर्करा वचा । सर्वमेतत्समालोड्य शनैर्मृद्वग्निना पचेत् ॥ एतत्माशितमात्रेण वाग्विशुद्धिश्च जायते । सप्तरात्रप्रयोगेण किन्नरैः सह गीयते ॥ अर्धमासप्रयोगेण सोमराजीवपुर्भवेत् । मासमात्रप्रयोगेण श्रुतमात्रं तु धारयेत् ॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानि अशसि विविधानि च । पञ्चगुल्मान् प्रमेहांश्च कासं पञ्चविधं जयेत् ॥ वन्ध्यानां चैव नारीणां नराणां चाल्परेतसाम् । घृतं सारस्वतं नाम बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ मूल और पत्र सहित ताजी ब्राह्मीको पानीसे धोकर कूटकर स्वरस निकालें | तत्पश्चात् २ सेर घी में ८ सेर यह स्वरस और निम्न लिखित कल्क तथा ८ सेर पानी एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान ले I कल्क--हल्दी, चमेली के फूल, कूठ, निसोत और हर्र ५-५ तोले तथा पीपल, बायबिडंग, सेंधा, खांड और बच १ - ११ तोला लेकर सबको पानीके साथ पीस लें । For Private And Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः । [ ५८४ ] इसे सेवन करनेसे वाणि शुद्ध हो जाती है । इसके केवल १ सप्ताह के सेवनसे स्वर किन्नरोके समान सुन्दर हो जाता है । २ सप्ताह तक सेवन करने से मुख अत्यन्त कान्तिमान् हो जाता है । यदि इसे १ मास तक सेवन किया जाय तो मनुष्य श्रुतिधर हो जाता है इसके अतिरिक्त यह अठारह प्रकारके कुष्ठ, अर्श, पांच प्रकारके गुल्म, प्रमेह और पांच प्रकारकी खांसी को भी नष्ट करता 1 यह घृत बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि करने वाला तथा बन्ध्या स्त्रियां और अल्पशुक्र मनुष्यों के लिये हितकारी है । (४६७८) ब्राह्मीघृतम् (५) ( सु. सं. । चि. अ. २८ ) ब्राह्मस्वरप्रस्थ घृतप्रस्थं विडङ्गतण्डुलानां कुडवं द्वे द्वे पले चत्रिवृतयोदशहरीतक्यामलकविभीतकानि श्लक्ष्णपिष्टान्यावाप्यैकध्यं साधयित्वा स्वनुगुप्तं निदध्यात् । ततः पूर्वविधानेन मात्रां यथाबलमुपयुञ्जीत जीर्णे पयः सर्पिरोदन इत्याहारः एतेनोर्द्धमधस्तिर्य्यकक्रमयो निष्क्रामन्ति । अलक्ष्मीरपक्रामति, पुष्कर कर्णः स्थिरवयाः श्रुतनिगादी त्रिवर्ष शतायुभवत्येतदेव कुष्ठविषमज्वरापस्मारोन्माद विषभूत ग्रहेष्वन्येषु च महाव्याधिषु च संशोधनमादिशन्ति ॥ ब्राह्मीका स्वरस ४ सेर, घी २ सेर तथा निम्न लिखित कल्क ( और १६ सेर पानी ) [ बकारादि एकत्र मिलाकर पकायें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान ले 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्क- - बायबिडंगके चावल ( गिरी ) २० तोले, बच और निसोत १०-१० तोले तथा हर्र, बहेड़ा और आमला २०-२० तोले । सबको पानीके साथ पीस लें । I इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करने और औषध पचने पर घृतयुक्त भात तथा दूधका आहार करनेसे शरीरसे कृमि निकल जाते हैं । अलक्ष्मी दूर हो जाती है । दूरकी आवाज सुनाई देने लगती है । आयु स्थिर हो जाती है । मनुष्य वेदवक्ता हो जाता है और उसे ३०० वर्षकी आयु प्राप्त होती है । यह घृत कुष्ठ, विषमज्वर, अपस्मार, उन्माद, विष, भूत, ग्रह और अन्य अनेक महाव्याधियोंको नष्ट करता है । (४६७९) ब्राह्मीघृतम् (६) ( वै. म. र. | पटल १५ ) ब्राह्मस्वरसे सिद्धं कुष्ठव चाशङ्खपुष्पिकागर्भे । आज पीतं सर्पिः सर्वापस्मारदोषघ्नम् ।। ब्राह्मीका स्वरस ४ सेर, बकरीका घी १ सेर तथा कुल, बच और शंखपुष्पीका समान भाग मिश्रित कल्क ५ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब स्वरस जल जाय तो घृतको छान लें। इसे पीने से समस्त प्रकारका अपस्मार ( मिरगी ) रोग नष्ट होता है । इति वकारादिघृतप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५८५] अथ बकारादितैलप्रकरणम् । (४६८०) बकुलाचं तैलम् लुचितानां तिलानाश्च दद्यात्तैलाढकद्वयम् ॥ ( भै. र. । मुख.; र. र.; धन्व.; व. से.; च. द. । मुखरोगा.; ग. नि. । तैला.) । वातव्याधिषु सर्वेषु रक्तपित्ताश्रयाश्च ये ।। बकुलस्य फलं लोधं वज्रवल्ली कुरण्टकम् । व्यापन्नासु च योनिषु शस्तं नष्टे च रेतसि । तालुशोषं तृषां दाई पार्श्वशूलममुग्दरम् ॥ चतुरङ्गलबबोलवाजिकर्णारिमाशनम् ॥ हन्ति शोषमस्मारं विसर्प सशिरोग्रहम् । एषां कषायकल्काभ्यां तैलं पकं मुखे धृतम्। आयर्वर्णकरं चैव बलातैलं प्रजाकरम् ।। स्थैर्य करोति चलतां दन्तानां नावनेन च ॥ ६। सेर खरैटाको अच्छी तरह कूटकर १२८ मौलसिरीके फल, लोध, हडसंघरी, पियाबा- 1 सेर पानी में पकावें और ३२ सेर पानी शेष रहने साकी जड़, अमलतासकी छाल, बबूलकी पर छान लें तथा १६ सेर तिलके तैलमें यह छाल, अश्वकर्ण (पलाशभेद ) की छाल, काथ, ५० तोले खरैटीका कल्क, ५० तोले तुषदुर्गन्धित खैर और असना वृक्षका सार समान रहित तिल और ६४ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे भाग मिश्रित ८ सेर लेकर सबको अधकुटा करके छान लें। ६४ सेर पानीमें पकावें । जब १६ सेर पानी शेष यह तैल समस्त वातव्याधि, रक्ताश्रित वात, रह जाय तो छान लें और फिर ४ सेर तेलमें । पित्ताश्रित वात, योनिदोष, तालुशोष, तृषा, दाह, यह काथ तथा उपरोक्त ओषधियोंका समान भाग पार्श्वशूल, रक्तपित्त, शोष, अपस्मार, विसर्प और मिश्रित कल्क २६ तोले ८ माशे मिलाकर काथ शिरोग्रह आदि रोगांको नष्ट करता और आयु जलने तक पकाकर छान लें। वर्ण तथा प्रजाकी वृद्धि करता है । अल्पवीर्य पुरुषोंके लिये हितकारी है। इसे मुखमें धारण करनेसे तथा इसकी नस्य (४६८२) बलातैलम् (२) ( वृहत् ) लेनेसे हिलते हुवे दांत स्थिर हो जाते हैं। ( वा. भ. । चि. अ. २१; ग. नि.१ । तैला.; (४६८१) बलातैलम् (१) च. सं. | चि. अ. २८; यो. चि. । अ. २३) (ग. नि. । तैला.) वृहदलायास्तु तुलां चतुद्रोणेऽम्भसः पचेत् । बलाया जातसारायास्तुलां कुर्यात्सुकुट्टिताम् ।। --गदनिग्रहके अतिरिक्त प्रायः अन्य सभी प्रन्यों में २५ पल गिलोय और १२॥ पल रास्ना काथ्य पलानि दश पिष्टानि बलायास्तत्र दापयेत् । । द्रव्यांमें अधिक लिखी है। For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५८६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [वकारादि समुत्तार्य ततः सम्यग्दशभागस्थिते रसे॥ ढाकका गोंद, कस्तूरी, नलिका, जावित्री, स्पृका, दधिमण्डक्षुनिर्यासयुक्तस्तैलाडकं समैः। केसर, छरीला, चमेलीके फूल, फायफल, सुगन्धपचेत्साजपयो(शैः कल्कैरेभिः पलोन्मितैः॥ । बाला, दालचीनी, कुन्दर, कपूर, सिलारस, शठीसरलदार्वेलामञ्जिष्ठागुरुचन्दनैः । पियाबासेकी जड़, लौंग, नख, ककोल, कूठ, जटापयकातिबलामुस्तामुर्यपर्णीहरेणुभिः ॥ मांसी, फूलप्रियङ्गु, थुनेर ( स्थोणेय ), तगर, यष्टयाहमुरसव्याघ्रनवर्षभकजीवकैः । सुगन्ध तृण, बच, दवना, चोरक और नागकेसर पलाशरसकस्तूरीनलिकाजातिकोशकैः ।। ५--५ तोले । ( इनमेंसे कस्तूरी, केसर और स्पृकाकुङ्कुमशैलेयमालतीकट्फलाम्बुभिः । | कपूर तेलको छाननेके बाद मिलाने चाहिये । ) त्वचाकुन्दुरुकर्पूरतुरुष्कश्रीनिवासकैः ॥ यह तैल खांसी, श्वास, ज्वर, छर्दि, शूल, लवङ्गनखकङ्कोलकुष्ठमांसीमियभिः । हिचकी, क्षत, क्षय, प्लीहा, शोप, अपस्मार, कान्तिस्थौणेयतगरध्यामवचादमनचोरकैः ॥ । हीनता और वातव्याधिको नष्ट करता है । सनागरकेशरैः सिद्धे दद्यात्पात्रावतारिते। (४६८३) पलातलम् (३) तत्र कल्कं ततः पूतं विधिना च प्रयोजयेत् ।। (ग. नि. । तैला.) कार्स श्वासं ज्वरं छर्दि शूलं हिक्कां क्षतक्षयम् । प्लीई शोषमपस्मारमलक्ष्मी च प्रणाशयेत् ॥ बलाशतकषाये तु तैलस्यार्धादकं पचेत् । कल्कैर्मधुकमनिष्टाचन्दनोत्पलपदकैः ।। चलातेलमिदं श्रेष्ठं वातव्याधिहरं परम् ॥ सूक्ष्मैलापिप्पलीकुष्ठत्वगेलागरुकेशरैः। ६। सेर महाबलाको कूटकर १२८ सेर पानी गन्धैश्च जीवनीयैश्च क्षीराढकसमायुतम् ॥ में पकायें और जब दसवां भाग पानी शेष रह | एतन्मृद्वग्निना पकं स्थापयेद्भाजने शुभे । जाय तो उसे छान लें । तत्पश्चात् ८-८ सेर सर्ववातविकारांस्तु सर्वधात्वन्तराश्रयान् ।। दधिमण्ड ( दहीका घोल ), ईखका रस और लतप्रशमयेच्छिन्नाभ्रमिव मारुतः । तिलका तैल तथा ४ सेर बकरीका दूध और उप-बलातैलं नरेन्द्राईमेतद्वातविकारनुत् ॥ रात काथ तथा निम्न लिखित चीजोंका कल्क ६। सेर खरैटीको कूटकर ३२ सेर पानीमें एकत्र मिलाकर पकावं । जब तैलमात्र शेष रह पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छानजाय तो उसे छान लें। कर उसमें ४ सेर तिलका तैल तथा ८ सेर दूध कल्क-द्रव्य-सठी ( कचूर ), घूपसरल, | और निम्न लिखित चीजोंका कल्क मिलाकर देवदारु, इलायची, मजीठ, अगर, सफेद चन्दन, | पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो छान लें। पाक, अतिबला ( कंघी), नागरमोथा, माषपर्णी, | कल्क-द्रव्य-मुलैठी, मजीठ, सफेद चन्दन, रेणुका, मुलैठी, तुलसी, नख, ऋषभक, जीवक, ! नीलोत्पल, पनाक, छोटी इलायची, पीपल, कूठ, For Private And Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] तृतीयो भागः। [५८७] दारचीनी, बड़ी इलायची, अगर, केसर, गन्धव्य ! धातुक्षीणे मर्महते मयितेऽभिहते तथा । ( इलायची, सफेद चन्दन, केसर, अगर, मुरामांसी, भने श्रमाभिपन्ने च सर्वथैव प्रयुज्यते ॥ कंकोल, जटामांसी, कचूर, चीरकी छाल, प्रन्थि- | एतदाक्षेपकादोंश्च वातव्याधीनपोहति । पर्ण, कस्तूरी, नख, जुन्बेदस्तर, खस और लवं- प्रत्यग्रधातुः पुरुषो भवेत्सुस्थिरयौवनः॥ गादि ) और जीवनीय गण । ( सब समान--भाग राज्ञामेतत्प्रकर्तव्य राजमात्राश्च ये नराः । मिश्रित आधा सेर ।) मुखिनः सुकुमाराश्च धनिनश्चापि ये नराः ।। नोट---कस्तूरी आदि तैल छाननेके बाद बला (खरैटी ) की जड़का काथ, दशम्मिलानी चाहिये । लका काथ, जौका काध, बेरका काथ, कुलथीका ___ यह तैल समस्त धातुगत सर्व वातज रोगांको | काथ आर दूध १६-१६ सेर, तिलका तेल नष्ट करता है। २ सेर तथा निम्न चीज़ोंका कल्क २० तोले (४६८४) बलातैलम् (४) लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें और जब तैल मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें । (ग. नि. । तैला.; सु. सं. । चि. अ. १५; वृ.. मा., र. र.; च.द. । वा. व्या.; शा. ध. । ख. कल्क-द्रव्य---मधुरादि गण ( काकोली, २ अ. ९) क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, बलामूलकषायस्य दशमृलोकृतस्य च ।। ऋद्धि, वृद्धि, मुद्गपणा, माषपर्णी, गिलोय, काकड़ायवकोलकुलत्यानां काथस्य पयसस्तथा ।। सिंगी, बंसलोचन, पपाक, मुनक्का, जीवन्ती, अष्टावष्टौ शुभा भागास्तैलादेकस्तदैकतः। | मुलैठी और प्रपौण्डरीक ( पुण्डरिया ), सेंधा, पचेदावाप्य मधुरं गणं सैन्धवसंयुतम् ।। अगर, राल, बलाबीज (बीजबन्द ), देवदारु, तथागरुं सर्जरसं सबलं देवदारु च । | मजीठ, सफेद चन्दन, इलायची, कूठ, सारिवा, मञ्जिष्ठां चन्दनं कुष्ठमेलां कालानुसारिवाम् ॥ | सतावर, असगन्ध, सोया और पुनर्नवा ( विसशतावरी चाश्वगन्धां शतपुष्पां पुनर्नवाम। | खपरा ) | तत्साधुसिद्धं सौवर्णे राजते मृन्मयेऽपि वा। इसके सेवनसे समस्त वातजरोग नष्ट होते प्रक्षिप्य कलशे सम्यक् स्वनुगुप्तं निधापयेत् ।। हैं । यह तैल प्रसूता स्त्री, अल्पवीर्य मनुष्यों और बलातैलमिदं ख्यातं सर्ववातविकारनुत् ॥ गर्भकी इच्छा रखने वाली स्त्रियोंके लिये हितकारी यथावलमतो मात्रां मूतिकायै पदापयेत् ।। या च गर्भार्थिनी नारी क्षीणशुक्रश्च यः पुमान्।। हैं । धातुक्षीणता, मर्माघात, भग्न, श्रम और आक्षेपवृन्द माधव में अटामांसी, शेळ्य, तेजपात और कादि वातज रोग इसके सेवनसे नष्ट होते और दोनों सारिवा अधिक लिखी है.। धातुवृद्धि होती तथा यौवन स्थिर रहता है। For Private And Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि (४६८५) बलादितैलम् पिष्टैरेतैः पचेसैलं मस्तुक्षीरं चतुर्गुणम् । (हा. सं. । स्था. ३ अ. २४) वातपित्तज्वराज्जीर्णात्तेनाभ्यक्तः प्रमुच्यते ॥ बलाकाथाढकं क्षिप्त्वा दधि तत्राढकं क्षिपेत् । खरैटीकी जड़, मुलैठी, मजीठ, कमल, पद्माक कुलत्थाढकयूषं तु सौवीरकरसाढकम् ॥ सफेद चन्दन, समुद्रफेन, सुगन्ध बाला, हल्दी, गेरु आढकं च तथैरण्डतैलं तत्र प्रदापयेत् । और नीलोत्पलका समान भाग मिश्रित चूर्ण २० एकत्र कृत्वा विपचेत योजयेदौषधं च तत ॥ तोले, तिल तैल २ सेर तथा मस्तु (दहीका तोड़) शतपुष्पा देवदारु पिप्पली गजपिप्पली।। और दूध ८-८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर त्रिसुगन्धि मुरामांसी कुष्ठं द्विपञ्चमलकम ॥ पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे चूणे विनिक्षिपेत् तत्र सिद्धं तदवतारयेत् । । छान ले । पाने चाभ्यङ्गे च योज्यं निरूहे बस्तिकर्मणि । इसकी मालिशसे वातपित्तज जीर्णज्वर नष्ट हन्ति वातामयं सर्व श्रेष्ठं गुणगणपदम् ॥ होता है। खरैटीका काथ ८ सेर, दही ८ सेर, कुलथी। | (४६८७) बलायं यमकम् का काथ ८ सेर, सौवीरक काञ्जी ८ सेर और (व. से. । शिरो.) अरण्डका तेल ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलावें और उसमें निम्न लिखित चीजोंका कल्क मिला बलाजीवन्तिनिर्यासैः पयोभिर्यमकं पचेत् । कर पकावें। जब तैलमात्र शेष रह जाय तो | जीवनीयैश्च नस्यैश्च सर्वजनू रोगजित् ॥ छान लें। ___ खरैटी और जीवन्ती १-१ सर लेकर दोनों कल्कद्रव्य--सोया, देवदारु, पीपल, गज- को २६ सेर पानीमें पकायें और ४ सेर पानी शेष पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, मुरामांसी, रहने पर छानकर उसमें आधा सेर तिलका तैल, कूठ और दशमूल का चूर्ण समान भाग मिश्रित | आधा सेर घी, १ सेर दुध और १० तोले जीव१ सेर। नीयगणका कल्क मिलाकर पकायें और तैलमात्र ___ इसे पीने तथा इसकी मालिश और बस्ति शेष रहनेपर छान लें। करनेसे समस्त वातजरोग नष्ट होते हैं। इसकी नस्य लेनेसे समस्त ऊर्ध्वजत्रुगत रोग (४६८६) बलाचं तेलम् । | नष्ट होते हैं। (व. से. । ज्वरा.; वृ. नि. र. । ज्वरा.) (जीवनीयगण--जीवन्ती, काकोली, क्षीरबलामधूकमञ्जिष्ठापद्यपद्मकचन्दनैः । काकोली, मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, मुद्समुद्रफेनहीबेररजनीगैरिकोत्पलैः ।। | गपर्णी, माषपर्णी और मुलैठी।) For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] (४६८८) बलाश्यायं तैलम् ( व. से. | नासा. ) उभे बले बृहत्यैौ च विडङ्गं साविकङ्कतम् । श्वेतामूलं महाभद्रां वर्षाभ्रं चापि संहरेत् ॥ तैलमेभिर्विपकन्तु नस्यमस्योपकल्पयेत् ॥ तृतीयो भागः । ) खरैटी और कंघीकी जड़, कटेली, बड़ी कटेली (बनभण्टा), बायबिडंग, कंट(ई, सफेद कोयलकी जड़, अरलुकी छाल और पुनर्नवा ( बिसखपरा का काथ ८ सेर; इन्हींका कल्क १३ तोले ४ माशे और तिलका तैल २ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब तेलमात्र शेष रह जाय तो उसको छान 1 इसकी नस्य लेनेसे कफज प्रतिश्याय नष्ट होता है । (४६८९) बाधिर्यनाशकतैलम् ( यो त । त. ७० ) अथवा—-शहद, अद्रकका रस, सहजनेकी जड़की छालका रस, और केलेकी जड़का रस १-१ सेर तथा तेल १ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकायें । तैलं काञ्जिकबीजपूरकरसक्षौद्रैः समुत्रैः शृतम् । स्यात्क्षौद्रार्द्रकशिग्रुमूलकदलीकन्दद्रवैर्वा समैः ॥ पदं विविधं हन्ति अन्त्रदृद्धिश्च नाशयेत् । कफवातोद्भवं शोथं ज्वरमाशु व्यपोहति ॥ कासं श्वासञ्च गुल्मञ्च पाण्डुरोगविनाशनम् । मक्कलशूलशमनं मृतिकातङ्कनाशनम् ।। मूढगर्भे च दातव्यं मूढवातानुलोमनम् । काञ्जी, बिजौरेका रस, शहद और गोमूत्र | शिरोरोगहरञ्चैव स्त्रीणां गदनिषूदनम् ॥ | १--१ सेर तथा तिलका तेल १ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पका । जब तेलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें । | रजोदुष्टाच या नार्या रेतोदुष्टाथ ये नराः । तेऽपि तारुण्यशुक्राच्या भविष्यन्ति महाबलाः ॥ वन्ध्यापि लभते पुत्रं शूरं पण्डितमेव च । बिल्वतैलमिति ख्यातमात्रेयेण विनिर्मितम् ।। इन दोनों तेलोमें से किसीको भी मन्दोष्ण करके कान में डालने से बधिरता नष्ट होती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५८९ ] (४६९०) बिल्यतैलम् (१) ( भै. र. ) ग्रहणी. ) तुला शुकविल्वस्य तुलाई दशमूलतः । जलद्रोणे विपक्तव्यं चतुर्भागावशेषितम् ॥ आर्द्रकस्य रसप्रस्थमारनालं तथैव च । तैलप्रस्थं समादाय क्षीरप्रस्थं तथैव च ।। धातकीबिल्वकुष्ठञ्च शटी रास्ना पुनर्नवा । त्रिकटुः पिप्पलीमूलं चित्रकं गजपिप्पली ॥ देवदारु वचा कुष्टं मोचकं कटुरोहिणी । तेजपत्राजमोदा च जीवनीयगणस्तथा ॥ एषामर्द्ध पलान् भागान पाचयेन्मृदुनाग्निना । एतद्धि विल्वतैाख्यं मन्दाग्नीनां प्रशस्यते ॥ ग्रहणीं विविधां हन्ति अतीसारमरोचकम् । सङ्ग्रहग्रहणीं हन्ति अर्शसामपि नाशकम् ॥ For Private And Personal Use Only सूखी बेलगिरी और दशमूल आधी आधी तुला (प्रत्येक ३ र १० तोले) लेकर सबको ३२ सेर पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। तत्पश्चात् यह क्वाथ तथा २ -२ सर अद्रकका रस, कांजी, तिलका तेल और Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य - रत्नाकरः । [ ५९० ] दूध तथा निम्न लिखित चीज़ोंका कल्क एकत्र मिलाकर पकार्बे । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। भारत कल्कद्रव्य --- घायके फूल, बेलगिरी, कूठ, कचूर, रास्ना, पुनर्जेवा (बिसखपरा), सोंठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, देवदारु, बच, कूठ, मोचरस, कुटकी, तेजपात, अजमोद और जीवनीय गणकी ओषधियां आधा आधा पल (२॥i२ तोले ( ) (जीवनीयगण -- जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षारकाकोली, मेदा, महामेदा, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती और मुलैठी । ) यह तैल मन्दाग्नि, ग्रहणीविकार, अतिसार, अरुचि, संग्रहग्रहणी, अर्श, श्लीपद, अन्त्रवृद्धि, कफवातज शोथ, ज्वर, खांसी, श्वास, गुल्म, पाण्डु रोग, मक्कलशूल, सूतिकारोग, मूढगर्भ सम्बन्धी विकार, मूढवात, शिरोरोग और स्त्री रोगोंको नष्ट करता है । जिन स्त्रियांका रज दूषित हो या जिन पुरुका वीर्य विकृत हो यदि वे इसे सेवन करें तो तरुण समान् बलशाली हो जाते हैं। यदि इसे वन्ध्या स्त्री सेवन करे तो वह अवश्य ही बुद्धिशाली पुत्रको जन्म देती है । (४६९१) बिल्वतैलम् (२) ( भा. प्र. म. स्व.; वृ.नि. र. । अतिसारा. ) तुलां सङ्कट बिल्वस्य पचेत्पादावशेषितम् क्षीरं साधयेत्तैलं लक्ष्णपरिमैः समैः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ नकारादि बिल्वं सधातकीकुष्ठं शुण्ठीरास्नापुनर्नवाः । देवदारु वचा मुस्तं लोधमोचरसान्वितम् ॥ एभिर्मृद्वग्निना पकं ग्रहण्यर्शोऽतिसारनुत् । बिल्वतैलमिति ख्यातमत्रिपुत्रेण भाषितम् ॥ ग्रहण्यशधिकारे ये स्नेहाः समुपदर्शिताः । प्रयोज्यास्तेऽतिसारेऽपि त्रयाणां तुल्यहेतुना ॥ ६ | सेर बेलगिरीको कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो उसे छान लें। तदनन्तर २ सेर तेलमें यह काथ, २ सेर दूध और निम्न लिखित कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पका । जब तेलमात्र शेष रह जाय तो छान लें। कल्क बेलगिरी, धायके फूल, कूठ, सोंठ, रास्ना, पुनर्नवा ( बिसखपरा ), देवदारु, बच, नागरमोथा, लोध और मोचरस का अत्यन्त महीन चूर्ण समानभाग - मिश्रित २० तोले । यह तेल संग्रहणी, अर्श और अतिसारका नाश करता है । यतः अतिसार, संग्रहणी और अर्श समान कारणों से ही उत्पन्न होते हैं इस लिये संग्रहणी और अर्शके प्रयोग अतिसारमें भी प्रयुक्त करने चाहिये । (४६९२) बिल्वतेलम् (३) (भै. र.; च. द. । कर्णे ; वृ. मा. र. र. | कर्ण.; शा. ध. । स्व. २ अ. ९; वं. से.; यो.र.; मै. र.; भा. प्र.; बृ. नि. र. । कर्णरो. ) फलं बिल्वस्य मूत्रेण पिष्ट्वा तैलं विपाचयेत् । साक्षीरं तद्वितरेद् बाधिर्ये कर्णपूरणे || For Private And Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेसभकरणम्] तृतीयो भागः। [५९१] - - २० तोले बेलॉगरीको गोमूत्र में पोसलें और बहड़ा, हर, आमला, पटोल, नीमकी छाल फिर २ सेर तेल में यह कल्क, ८ सेर बकरीका | और बासा समान भाग-मिश्रित १३ तोले १ दूध और ८ सेर पानी मिलाकर पकावें । जब तैल माशे, अरहरका काथ ८ सेर और तिलका तेल २ मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर काथ जलने तक इसे कानमें डालनेसे बधिरता नष्ट होती है। पकाकर छान लें। (४६९३) बिस्वतेलम् (४) यह तैल तिमिरको नष्ट करता है। (भै. र. । कर्ण.) (४६९६) वृहतीतैलम् चिल्वगर्भ पचेतैलं गोमूत्राजपयोऽन्वितम् । (नयु. मृता. । त. ६) माधिर्ये पूरयेत्तेन कौँ स कफवातजित् ।। वृहतीपश्चाङ्गमानीय अजादुग्वे विभावयेत् । तिलका तेल २ सेर, बेलगिरीका कल्क २० यन्त्रे पातालके तैलं विधिना संहरेत्पुमान् ।। तोले और गोमूत्र तथा बकरीका दूध ४-४ सेर एकविंशतियोगेन मुच्यते स्वकृतार्दनात् ।। लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब तैल मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। बड़ी कटेली के पञ्चाङ्गको कूट छानकर कई इसे कानों में डालनेसे बधिरता और कफज तथा दिन तक बकरी के दूधमें घोटें और फिर उसकी यातज कर्णरोग नष्ट होते हैं। गोलियां बनाकर सुखाकर पातालयन्त्रसे उनका तेल (४६९४) बिभीतकाचं तेलम् निकाल लें। (व. से. । बालरो.) इसकी २१ दिन तक इन्द्री पर मालिश करविभीतकं वचा कुष्ठं हरिताले मनःशिला । नेसे हस्तदोष जनित विकार (इन्द्रीकी शिथिलता आदि) नष्ट हो जाते हैं। एभिस्तैलं विपकन्तु बालानां पूतिकर्णके ।।। | (४६९७) वृहत्यादितलम् बहेड़ा, बच, कूठ, हरताल और मनसिलका घूर्ण ४-४ तोले तथा तिलका तैल २ सेर आर (वृ. मा. । क्षुद्ररोगा.) पानी ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पानी | ग्रहतारससिद्धेन तैलेनाभ्यज्य बुद्धिमान् । जलने तक पकाकर छान लें। शिलारोचनकासीसचूर्णैर्वा प्रतिसारयेत् ॥ ___यह तेल बालकेके प्रतिकर्ण रोगको नष्ट बड़ी कटेलाका रस ४ सेर और सरसोंका तेल करता है। १ सेर लेकर दोनाको एकत्र मिलाकर पकावें। जब (४६९५) पिभीतकाचं तैलम् तेलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। (व. से.। नेत्ररो.) अलस (खारवों) पर यह तेल लगाकर मनविभीतफशिवाधात्रीपटोलारिष्टवासकैः । सिल, गोरोचन और कसीसका पूर्ण मलना आदकीरससंसिद्धं तैलं तिभिरनुत्परम् ॥ ' चाहिये । इति वकारादितैलपकरणम् For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५९२] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [वकारादि अथ बकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम्। (४६९८) बब्बुल्यासवः (बब्बूल्याचरिष्टः) । पञ्चाङ्गलपलद्वन्द्वं रास्नामेलां प्रसारिणीम् । (ग. नि. । आसवा. ६; शा. ध.। खं. २ | देवपुष्पमुशारञ्च श्वदंष्टान पलांशिकाम् ।। अ. १०; भै. र. । अतीसारा.) मासं भाण्डे स्थितस्त्वेष बलारिष्टो महाफलः। तुलाद्वयं तु बब्बुल्याश्चतुद्रोणेऽम्भसः पचेत् । हन्त्युग्रान् वातजान् रोगान् बलपुष्टयग्निवर्धनः।। द्रोणशेषे रसे शीते गुडस्य त्रिशतं क्षिपेत् ॥ खरेटीकी जड़ और असगन्ध १००-१०० धातक्याः षोडशपलं पिप्पलीनां पलद्वयम् । | पल ( प्रत्येक ६। सेर ) लेकर दोनों को कूटकर जातीलवङ्गकङ्कोलमेलात्वपत्रकेसरम् ॥ | पृथक् पृथक् ६४-६४ सेर पानीमें पकावें और मरिचेन समायुक्तं पलिकांस्तत्र कल्पयेत् । १६-१६ सेर पानी शेष रहने पर छानकर दोनों मासमात्र स्थितो ह्येष बब्बुल्यासवसज्ञितः ॥ काथांको एकत्र मिला लें और फिर उसके ठंडा होने क्षयं कुष्ठं प्रमेहांश्च कासश्वासांश्च नाशयेत् ।। पर उसमें ३ तुला (१८॥ सेर ) गुड़ और १ सेर १२ सेर बबूलकी छालको १२८ सेर पानीमें । धायके फूलोंका चूर्ण तथा १०-१० तोले क्षीरपकावें और जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो विदारी और अरण्डकी छालका चूर्ण एवं ५-५ तोले छानकर ठंडा करके उसमें ३ तुला ( १८।। सेर) रास्ना, इलायची, प्रसारणी, लौंग, खस और गुड़, १ सेर धायके फूलांका चूर्ण और २ पल गोखरुका चूर्ण मिलाकर चिकने मटके में भरकर पीपल तथा १-१ पल (५-५ तोले ) जावत्री, उसका मुख बन्द कर दें और १ मास पश्चात् लैंौंग, कंकोल, इलायची, दार चीनी, तेजपात, नाग | निकालकर छान लें। केसर और काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर सबको चिकने मटके में भरकर उसका मुख बन्द कर दें; इसके सेवनसे प्रबल वातव्याधि नष्ट होती और १ मास पश्चात् निकालकर छान लें। और बल पुष्टि तथा अग्निकी वृद्धि होती है। इसके सेवनसे क्षय, कुष्ट, प्रमेह, खांसी और (४७००) बीजकासव: श्वासका नाश होता है । (ग. नि. । आसवा.; चरक । चि. अ. (४६९९) बलारिष्टः १६ पाण्डु.) (भै. र. । वातव्या.) बीजकात्षोडशपलं त्रिफलायाश्च विंशतिः ॥ बलाश्वगन्धयोयिं पृथक पलशतं शुभम् ।। द्राक्षायाः पञ्च लाक्षायाः सप्त द्रोणे तथाऽम्भसि। चतुोणे जले पक्त्वा द्रोणमेवावशेषयेत् ॥ साध्य पादावशेषे च पूतशीते प्रदापयेत् ॥ शीते तस्मिन् रसे पूते क्षिपेद् गुडतुलात्रयम् । शर्करायास्तुलां प्रस्थं क्षौद्रं दद्याच कार्षिकम् । धातकी पोडशपलां पयस्यां द्विपलांशिकाम् ॥ । व्योषव्याघनखोशीरं क्रमुकं सैलवालुकम् ।। For Private And Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् तृतीयो भागः। [५९३] मधुकं कुष्ठमित्येतच्चूर्णितं घृतभाजने। | मिर्च, पीपल, नख, बस, सुपारी, एलबालुक, यवेषु दशरात्रस्थं ग्रीष्मे, द्विः शिशिरे स्थितम् । मुलैठी और कृटका चूर्ण मिलाकर सबको चिकने पिबेत्तद्ग्रहणीपाण्डुरोगार्शःशोफगुल्मनुत् ।। मटकेमें भरकर उसका मुख बन्द करके उसे जौके मूत्रकृच्छाश्मरीकुष्ठकामलासन्निपातनुत् ॥ | ढेरमें दबा दें और ग्रीष्म ऋतुमें १० दिन पश्चात् विजयसार १ सेर, त्रिफला १। सेर, द्राक्षा | तथा शीतकालमें २० दिन पश्चात् निकालकर ( मुनक्का) २५ तोले और लाख ३५ तोले | छान लें । लेकर सबको कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें और इसके सेवनसे ग्रहणी, पाण्डु, अर्श, शोथ, ८ सेर पानी शेष रहनेपर छानकर उसमें ६। सेर गुल्म, मूत्रकृच्छू, अश्मरी, कुष्ट, कामला और खांड, २ सेर शहद तथा १२-११ तोला सेठ, सन्निपातका नाश होता है। इति वकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् । अथ बकारादिलेपप्रकरणम्। (४७०१) बदरीमूलादियोगः (४७०३) बलबीजादिलेपः (ग. नि. । शिरो.) (यो. र. । स्नायु.) ललाटे बदरीमूलपिप्पलीनां प्रलेपनम् । बब्बूलबीजं गोमूत्रपिष्टं हन्ति प्रलेपनात् । हन्ति सर्वत्रतो लग्ना रुजो दैन्यमिव व्यथाम् ॥ स्नायुकानि समस्तानि सशोथानि सरुञ्जि च ।। बेरीकी जड़की छाल और पीपलको पीसकर । बबूलके बीजांको गोमूत्रमें पीसकर लेप करलेप करनेसे मस्तक पीड़ा नष्ट होती है। नेसे शोथ और पीडायुक्त सर्व प्रकारके स्नायुक (४७०२) बदर्यादिलेपः ( नहरवा ) रोग नष्ट होते हैं। (वृ. नि. र. । सन्निपाता.) (४७०४) बन्लादियोगः बदरीपल्लवलेपः श्रीखण्डारिष्टकेन संयुक्तः।। (वं. से.; यो. र. । उपदंश. वृ. नि. र. । दातव्यः पादतलयोस्त्वरयारुग्दाहसन्निपातघ्नः।। उपदंशा.) बेरीके पत्ते, सफेद चन्दन और नीमके पत्ते बब्बूलदल चूर्णेन दाडिमत्वग्रजोऽथ वा । समान भाग लेकर सबको एकत्र पीसकर पैरोंके । गुण्डनं लिङ्गदेशस्य लेपः पूगफलेन वा ॥ तलुवोंमें लेप करनेसे रुग्दाह सन्निपातमें लाभ । आतशक सम्बन्धी लिङ्गके घावोंपर बबूलके पहुंचता है। १ बन्धकदलेति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५९४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि सूखे पत्तोंका बा अनारकी छालका अथवा सुपारीका । (२) गूगल, देवदारु, लालचन्दन और केसचूर्ण लगाना चाहिये । रके चूर्णको घीमें मिलाकर लेप करें। (४७०५) बलादिलेपः (१) (३) क्षीरकाकोली, खरैटी, बिदारीकन्द, ( यो. र.; वृ. नि. र. । शिरोरो.) सहजनेकी छाल और पुनर्नवा ( साठी ) को पीस कर लेप करें। बलानीलोत्पलं दूर्वा तिलाः कृष्णा पुनर्नवा । (४) शतावर, क्षीरकाकोली, सुगन्ध तृण और शकेऽनन्तवाते च लेपः सर्वशिरोतिनुत् ॥ | मुलैठीके चूर्णको घीमें मिलाकर लेप करें। खरैटीकी जड़, नीलोत्पल, बघास, काले तिल । ये चारों लेप राजयक्ष्मा में होने वाले शिरऔर पुनर्नवा ( साठी ) का लेप करनेसे शङ्खक शूल, अंसशूल और पार्श्वशूल में उपयोगी हैं । और अनन्तवातादि शिरोरोग नष्ट होते हैं। (४७०८) बल्यादिलेपः (४७०६) बलादिलेपः (२) (वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.) ( ग. नि. । विसर्पा.) बलिवेल्लाग्निभल्लातदन्तिशम्पाकनिम्बजैः । बलानागबलापथ्याभूर्जग्रन्थिबिभीतकम् । काजिके पेषितैलेपः श्वेतकुष्ठविनाशकृत् ।। वंशपत्राण्यमिमन्थं दद्याद्ग्रन्थिप्रलेपनम् ॥ ___ गन्धक, बायबिडंग, चीतेकी जड़की छाल, खरैटी, गंगेरन, हर्र, भोजपत्रकी गांठ, बहेड़ा, भिलावा, दन्तीमूल, अमलतासके पत्ते और नीमकी बांसके पत्ते और अरणीकी जड़की छाल समान छाल समान भाग लेकर सबको कांजीमें पीसकर भाग लेकर सबको पीसकर लेप करने से ग्रन्थि- लेप करनेसे श्वेतकुष्ठ नष्ट होता है । विसर्प नष्ट होता है। (४७०९) बाकुच्यादिलेपः (४७०७) बलादिलेपः (३) (वृ. मा. । कुष्ठा.) (च. स. । चि. अ. ८ राजय.) | कुडवोऽवल्गुजबीजाद्धरितालचतुर्थभागसंमिश्रः। | मूत्रेण गवां पिष्टः सवर्णकरणः परः श्वित्रे ।। बला रास्ना तिलाः सर्पिर्मधुकं नीलमुत्पलम् । २० तोले बाबची और ५ तोले हरतालको पलङ्कषा देवदारु चन्दनं केशरं घृतम् ॥ कूट छानकर चूर्ण बनाकर रक्खें । वीरा बला विदारी च कृष्णगन्धा पुनर्नवा । ___ इसे गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे श्वेतकुष्ट शतावरी पयस्या च कत्तृणं मधुकं घृतम् ।। नष्ट होता है। चत्वार एते श्लोकार्धेः प्रदेहाः परिकीर्तिताः । (४७१०) वाणदलादिलेपः शस्ताः ससृष्टदापाणा शिरःपाश्चासशूलिनाम् ॥ (वै. म. र. । प. ११) (१) खरैटी, रास्ना, तिल, मुलैठी और बाणदलस्य स्वरसं लिकुचस्वरसं च तैलं च । नीलोत्पलके चूर्णको घीमें मिलाकर लेप करें। । सम्मिश्रितं प्रलेपयेद्धन्यात् कुष्ठानि दुष्टानि ॥ For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लेपप्रकरणम् ] सरफेांका' स्वरस, कटहलका स्वरस और तेल एकत्र मिलाकर लेप करनेसे दुष्ट कुट नष्ट होते हैं । तृतीयो भागः । (४७११) बिडालास्थिलेपः ( वृ. यो. त. । त. ११६; यो. र । भगन्द. ) त्रिफलारससंयुक्तं बिडालास्थिप्रलेपनात् । भगन्दरं निहन्त्याशु दुष्टत्रणहरं परम् ॥ बिल्ली की हड्डीको त्रिफला काथमें घिसकर लेप करनेसे भगन्दर और दुष्ट व्रण नष्ट होते हैं । (४७१२) बिभीतकादिलेपः ( शा. ध. । उ. अ. ११; व. से.; यो. र. । शोथा. ) बिभीतकफलमज्जाया लेपो दाहार्तिनाशनः । बहेड़े की गिरी (मींग ) का लेप करनेसे शोक दाह और पीडा नष्ट होती है । (४७१३) बिल्वाद्य योगो ( वृ. यो त । त. १०४ ) बिल्वशिवे समभागे लेपाद्द्भुजमूलगन्धम पहरतः । परिणततित्तिडीकान्वितपूतिकरञ्जोत्थबीजं वा ।। बेलगिरी और हर्र समान भाग लेकर दोनों को पानीमें पीसकर लेप करनेसे या पक्की इमली और कण्टक करञ्जके बीजों का लेप करनेसे बगलकी दुर्गन्ध नष्ट होती है । (४७१४) बीजपूरक मूलादिलेपः ( ग. नि. व. मा. । ज्वर. यो. र. १; भा. प्र. । वातजशोथा. शा. ध. । ख. ३ अ. ११ ) योगरत्नाकर, शारङ्कधर और भावप्रकाशमें चीतेके स्थान पर जटामांसी लिखी हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५९५ ] बीजपूरकमूलानि वह्निमन्थस्तथैव च । सनागरं देवदारु रास्नाचित्रकपेषितम् ॥ प्रलेपनमिदं श्रेष्ठं गलशोफविनाशनम् ॥ बिजौरे की जड़, अरणी, सांठ, देवदारु, रास्ना और चीतेको पीसकर लेप करनेसे गलेकी सूजन नष्ट होती है । बृहतीन्यग्रोधादिलेप: (बृ. यो. त. व. से. ) प्र. सं. ३५६० देखिये । (४७१५) बृहत्यादिलेपः ( व. से. । क्षुद्ररोगा. शा. ध. । उ.ख. अ. ११) इन्द्रलुप्ता हो लेपान्मधुना बृहतीरसः । गुञ्जामूलफलं वापि भल्लातकरसोऽपि वा ॥ बड़ी कटेली (बनभण्टे ) के रसको शहद में मिलाकर लेप करने से अथवा चौटालीकी जड़ या फल या भिलावेके रसका लेप करनेसे इन्द्रलुप्त रोग नष्ट होता है । (४७१६) बृहत्याद्यो योगः (ग. नि. । अजीर्णा ) बृहत्थौ कट्फलं चैव मुस्तं पत्रमथोऽगुरुः । गुग्गुल्वतिविषा रास्ना मुस्तं व्याघ्रनखं वचा ।। एतैरुत्सादनं कुर्यात् प्रदेहश्चैव शस्यते । नस्यं प्रथमनं चैव विषूची तेन शाम्यति ॥ For Private And Personal Use Only छोटी और बड़ी कटेली, कायफल, नागरमोथा, तेजपात, अगर, गूगल, अतीस, रास्ना, केवटीमोथा, नख और बच समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५९६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [बकारादि पेटपर इसकी मालिश या लेप करनेसे तथा । कर लेप करनेसे स्फुटित (फूटी हुई ) गण्डमाला इसीकी प्रधमन नस्य देनेसे विसूचिका रोग शान्त अवश्य नष्ट हो जाती है । होता है। (४७१९) ब्रामणयष्टिकादिलेपः (४७१७) बोल्लजलम् (यो. र.; वृ. नि. र. । अण्डवृद्धिरो.) (यो. त.। त. ६२ ) | सुपेषितं ब्राह्मणयष्टिकाया चत्वारो बोल्लभागाः स्युौं भागौ तु मूलं समं तण्डुलधावनेन । कुलिञ्जनात् । | निहन्ति लेपाद्गलण्डमालां मस्तकी चैकभागा स्याघवानीपोटलीयुते ॥ कुरण्डमुख्यानखिलान्विकारान् ॥ जले समुचिते हण्डयां धर्ममध्ये दिनत्रयम् । भरंगीकी जड़को चावलेोके पानीके साथ संस्थाप्य तज्जलं लेपाद्धन्ति दर्दू न संशयः॥ पीसकर लेप करनेसे गण्डमाला और कुरण्डादि रोग बीजाबोल ४ भाग, कुलिंजन २ भाग, रूमी | नष्ट होते हैं । मस्तगी और अजवायन १-१ भाग लेकर सबको (४७२०) माझ्यादिलेपः पोटलीमें बांधकर हाण्डीमें ( चारगुने ) जलमें (व. से. । व्रण.) डालकर धूपमें रख दें। तीन दिन पश्चात् इस पानीका लेप करनेसे कपोतवङ्कालशुनं सशीर्ष ससैन्धवं चित्रकमूलमिश्रम् । दाद अवश्य नष्ट हो जाता है। तदश्वलेडूस्य रसेन पिष्टं (४७१८) ब्रह्मदण्डीयोगः व्रणे प्रलेपो भवने हि रोग्णाम् ॥ (वृ. नि. र. । गण्ड.; यो. र. । गण्ड.) ग्रामी, ल्हसन, अगर, सेंधानमक और चीतेकी ब्रह्मदण्डीयमूलं तु पिष्टं तण्डुलवारिणा। जड़ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । स्फुटितां हन्ति लेपेन गण्डमालां न संशयः॥ इसे घोडेकी लीदके रसमें पीसकर लेप करब्रह्मदण्डीकी जड़को चावलेोके पानीमें पीस- ' नेसे व्रणके स्थानपर बाल उग आते हैं । इति बकारादिलेपप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra धूपप्रकरणम् ] www.kobatirth.org तृतीयो भागः । अथ बकारादिधूपप्रकरणम् । (४७२१) ब्रह्मसहो धूप: (वै. म. र. । पटल १५ ) श्रीवासागरुदारु प्रियङ्गुवंशत्वगोतुविट्कुष्ठम् । साज्यं पिष्टमजाया मूत्रेण छायया शुष्कम् ॥ तैर्धूपो ब्रह्मसहो नाम्नाऽपस्मारराक्षसपिशाचान् । भूतग्रहांश्च सर्पान् ज्वरं च चातुर्थकं हन्यात् ।। गूगल, अगर, देवदारु, फूलप्रियङ्गु, बांस की (४७२२) बिभीतकादिवर्त्तिः इति वकारादिधूपमकरणम् । ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४८ ) मज्जाबिभीतकफलस्य च शङ्खनाभिघृष्टं ससैन्धवयुतं पयसाम्लकेन । डेन नयनाञ्जनकेहिता च पित्तप्रसूतपटलस्य निवारणं च ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ बकाराद्यञ्जनप्रकरणम् । बड़े फलकी मांगी ( मज्जा ), शङ्खनाभि और सेंधानमक समान भाग लेकर सबका महीन चूर्ण करके उसे काजी में घोटें और फिर समान भाग गुड़ में मिलाकर बत्तियां बना लें । छाल ( अथवा वस्रलोचन और दारचीनी ), बिल्ली की विष्टा और कूठ तथा घी समान भाग लेकर कूटने योग्य चीजों को कूटकर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको बकरीके मूत्रमें घोटकर छाया में सुखा लें | इसकी धूप देनेसे अपस्मार, राक्षस, पिशाच, भूत और समस्त ग्रहविकार तथा चातुर्थिक ज्वर ( चौथिया ) का नाश होता है । [ ५९७ ] इसे आंख में आंजनेसे पित्तज गटलरोग नष्ट होता है । (४७२३) बिभीतमज्जादियोगः For Private And Personal Use Only ( ग. नि. रा. मा. | नेत्ररो. ३ ) कलितरुफलमज्जा चातिसुश्लक्ष्णपिष्टा हरति नयनपुष्पं प्रातरेवाञ्जनेन । बहेड़े के फलकी मांगोको अत्यन्त महीन पीसकर नित्यप्रति प्रातः काल आंख में आंजने आंखाका फूला नष्ट हो जाता है । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५९८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः । [वकारादि - (४७२४) बिल्वाञ्जनम् (१) । (४७२६) बिल्वादियोगः (भै. र.; च. द.; धन्व.; वृ. मा.; र. र. । नेत्ररो.) | (वा. भ. । उ. अ. ३६; धन्वः । विसू.) बिल्वपत्ररसः पूतः सन्धवाज्यसमन्वितः । | बिल्वस्य मूलं सुरसस्य पुष्पं शुल्वे वराटिकाष्टो धुपितो गोमयाग्निना ॥ फलं करञ्जस्य नतं सुराहम् । पयसालोडितश्चाक्ष्णोः पूरणाच्छोथशूलनुत् । .. फलत्रिकं व्योपनिशाद्वयं च अभिष्यन्देऽधिमन्थे च स्रावे रक्ते च शस्यते ॥ बस्तस्य मूत्रेण सुसूक्ष्मपिष्टम् ।। बेलपत्रके स्वरसको छानकर उसमें जरासा | भुजङ्गलूतोन्दुरवृश्चिकाये-- सेंधा नमक और घी मिलावें और फिर उसे ताम्र- | विचिकाजीर्णगरज्वरैश्च । पात्रमें डालकर कौड़ीसे इतना घिसें कि जिससे वह | आन्निरान्भूतविधर्षितांश्च गाढा हो जाय । फिर उसे गायके गोबरके उपलेकी स्वस्थी करोत्यञ्जनपाननस्यैः॥ अग्निसे धूपित करके रक्खें । बेलकी जड़की छाल, तुलसीकी मञ्जरी (पुष्प), इसमें गायका (या स्त्रीका) दूध मिलाकर | करञ्जके फल, तगर, देवदारु, सोंठ, मिर्च, पीपल, पतला. करके उसे आंखमें डालनेसे आंखकी सूजन, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी और दारुहल्दी का पीडा, अभिष्यन्द (आंखें दुखना ), अधिमन्थ, अत्यन्त महीन चूर्ण समान भाग लेकर सबको बकनेत्रस्राव और आंखोकी लाली आदि विकार नष्ट रेके मूत्रमें अच्छी तरह धोटकर छायामें सुखाकर होते हैं। रक्खें । नोट-वृन्द माधव में पीपल अधिक है। इसका अञ्जन लगाने, इसकी नस्य लेने और रसरत्नाकरमें गोदुग्ध के स्थान में स्त्री दुग्ध इसे पीनेसे सांप, मकड़ी, चूहे और बिच्छू आदिका लिखा है। विष तथा विसूचिका, अजीर्ण और ज्वर एवं भूत(४७२५) बिल्वाञ्जनम् (२) विकार नष्ट होते हैं। (भै. र. । नेत्र.) | (४७२७) बृहत्यादिवतिः बिल्वपत्ररसं साम्लं निघृष्टं ताम्रभाजने। (ग. नि. । नेत्ररो. ३) सिन्धुत्थकटुतैलाक्तं कुर्यानेत्र स्रावादिषु ॥ | बृहत्येरण्डमूलत्वक्छियोर्मूलं ससैन्धवम् । बेलके पत्तोंका स्वरस, कांजी और सरसेांका अजाक्षीरेण पिष्टा स्याद्वतिर्वाताक्षिरोगनुत् ।। तेल समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला और | बड़ी कटेली, अरण्डकी जड़की छाल, सहजउसमें जरासा सेंधा नमक मिलाकर सबको ताम्र- | नेकी जड़की छाल और सेंधा नमकके अत्यन्त पात्रमें तांबेकी मूसलीसे घाटें इसे आंखमें डालनेसे | महीन चूर्णको बकरीके दूधमें पीसकर बत्तियां नेत्रनावादि रोग नष्ट होते हैं। बना लें। For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्यप्रकरणम् ] सृतीयो भागः। [५९९ ] इसे आंखमें आंजनेसे वातज नेत्ररोग (आंखें । बड़ी कटली १ भाग, हल्दी २ भाग, शंखदुखना आदि ) नष्ट होते हैं। | नाभि ४ भाग, मनसिल ८ भाग, काली मिर्च १६ (४७२८) बृहत्याद्यञ्जनम् | भाग और सेंधा नमक ३२ भाग लेकर अञ्जन (ग. नि. । नेत्ररो. ३) बनावें । वार्ताकीरजनीशलशिलामरिचसैन्धवैः । इसे आंखमें आंजनेसे आंखका फूला नष्ट अंशाद्विगुणितैरेभिरञ्जनं शुक्रनाशनम् ।। इति वकाराद्यञ्जनप्रकरणम् । अथ बकारादिनस्यप्रकरणम्। (४७२९) बृहत्यादिनस्यम् । (४७३१) ब्रह्मदण्डीनस्यम् (वं. से. । नेत्र. ।) (वृ. नि. र. । ज्वर.) बृहतीफलसैन्धवयष्टीमधुकल्कितकैर्नस्यम्। एकाहिकं ज्वरं हन्ति नस्याहा गरिकर्णिका। अतिविततामपि सततां निद्रामेव सततं हन्यात ॥ ब्रह्मदण्डीति विख्याता अधःपुप्पी तु नामतः ।। कटेलीके फल, सेंधानमक और मुलैठीको पीस- अपराजिता ( कोयल ) अथवा ब्रह्मदण्डी कर नस्य देनेसे अत्यधिक निद्रा नष्ट हो जाती है। या अधःपुष्पी की नग्य देने से एकाहिक वर नष्ट (१७३०) बृहत्याचं नस्यम् हो जाता है। _(ग. नि. । ज्वरा.) (४७३२) ब्राहृयाद्या वर्तिः एक बृहत्या फलपिप्पलीकं ( वाग्भट्ट । उ. अ. ६; ग. नि. । उन्मादा.) _शुण्ठीयुतं चूर्णमिदं प्रशस्तम् । ब्राह्मीमैन्द्री विडङ्गानि व्योपं हिॉ जटीं मुराम्। प्रध्मापयेत्प्राणपुटे विसंज्ञ राम्नां विशल्यां लशुनं विपघ्नीं सुरसां वचाम् ।। श्चेष्टां करोति क्षवथुप्रबुद्धः॥ ज्योतिष्मती नागविन्नामनन्तां सहरीतकीम् । कटेलीके फल, पीपल और सांठ के समान | काङ्क्षीं च वस्तमूत्रेण पिष्ट्वाच्छायाविशोषिता॥ भाग मिश्रित चूर्णको रोगीकी नाकमें फूंक द्वारा | वर्तिनस्याञ्जनालेपधूपैरुन्मादभूदनी ॥ चढ़ानेसे छींक आकर उसकी बेहोशी दूर हो जाती है। ब्राह्मी, इन्द्रायणमूल, बायबिडंग, सेांठ, मिर्च, For Private And Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६००] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [वकारादि पीपल, हींग, जटामांसी, मुरामांसी,रास्ना, कलिहारी, | के मूत्रमें अच्छी तरह घोटकर बत्तियां बनाकर लहसन, देवदाली (बिंडाल),तुलसी, बच, मालकंगनी, | उन्हें छायामें सुखा लें। नागदन्ती, धमासा, हर्र और फटकीका समान | इनकी नस्य लेने, धूप देने और इनका भाग मिश्रित अत्यन्त महीन चूर्ण लेकर उसे बकरे- । अञ्जन तथा लेप करनेसे उन्माद रोग नष्ट होता है। इति वकारादिनस्यप्रकरणम् । अथ बकारादिरसप्रकरणम्। (४७३३) बबूलादिगुटिका | कार्या विभीतकमिता गुटिका मधुना सह ॥ कासं पञ्चविधं हन्यादूर्ध्वश्वासं कर्फ जयेत् ॥ ( भागोत्तर गुटिका, भागोत्तरवटी, रसगुटिका, शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, कासकर्तरिवटी, सप्तोत्तरावटी, सप्तामृतवटी. ) पीपल ३ भाग, हर्र ४ भाग, बहेड़ा ५ भाग, ( यो. चि. अ. ३; मै. र.; यो. र.; र. का.धे.; बासा ( अडूसा ) ६ भाग और भरंगी ७ भाग र.सा.स.; धन्व. वै. मृ.; वै. र. । कासा.; यो. लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना और त. । त. २८; र. र. स. । अ. १३; र. रा. फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सु.; र. चं. । श्वासा.) सबको बबूलके रसकी २१ भावना देकर सुखा रसभागो भवेदको गन्धको द्विगुणो मतः।। लें और फिर शहदके साथ घोटकर बहेड़ेके फलके त्रिभागा पिप्पली ग्राह्या चतुर्भागा हरीतकी॥ | समान गोलियां बना लें। विभीतकं पञ्चभागं आटरूषश्च षट्गुणः ।। इनके सेवनसे ५ प्रकारकी खांसी और ऊर्ध्वभार्गी सप्तगुणा ग्राह्या सर्व चूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ | श्वास नष्ट होता है । बबूलकायमादाय भावना एकविंशतिः। । ( व्यवहारिक मात्रा १-१॥ माशा ।) -इसको भै. र. व. में भागोत्तर गुटिका, यो. । (४७३४) बलादिमण्डरम् र. में भागोत्तरवटी, र. रा. सु. में सप्तोत्तरा वटी, | (र. का. धे. । अम्लपित्त. अ. ११) र. सा. सं. तथा धन्वन्तरिमें रस गुटिका, यो. त. और | बला शतावरीमूलं यवैरण्डपलद्वयम् । र.का. थे. में भागोत्तरो वटकः, र. च. तथा र. र. स. में सप्तामृत घटी और वै. र. में कासकर्तरी रस | गुडस्य द्विपलं दत्त्वा पचेत्सान्द्रत्वमागतम् ॥ नामसे लिखा है । धन्वन्तरि और रसेन्द्रसारसंग्रहमें | जीरकस्य पलं चैव पिप्पल्याश्च पलं तथा । वासाके स्थानमें आमला लिखा है । चातुर्जातकचूर्णन्तु प्रत्येकं द्रङ्क्षणं क्षिपेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [६०१] यावन्त्येतानि चूर्णानि मण्डूरं द्विगुणं ततः। इनके सेवनसे बहुमूत्ररोग नष्ट होता है । गोमूत्रे त्रिफलाकाथे निषिक्तं लक्ष्णचूर्णितम् ।। ( मात्रा--१॥ माशा।) एतबलादिकं नाम मण्डूरं हन्ति दुस्तरम् । (४७३६) बहुमूत्रान्तको रसः (२) अम्लपित्तं सुदुर शूलं ती नियच्छति ॥ (र. चं. । प्रमेहा.) खरैटी, शतावर, जौ और अरण्डकी जड़का चूर्ण तथा गुड़ १०-१० तोले लेकर सबको चार सिन्दूरं च तथा लौहं वाहिफेनसारको । गुने पानीमें पकावें । जब अवलेहके समान गाढ़ा उदुम्बरभवं बीजं बिल्वमूलं सुरमिया॥ हो जाय तो उसमें ५--५ तोले जीरे और पीपल | सर्व समं जन्तुफलरसैः सम्मर्दितं भवेत् । का चूर्ण तथा साढ़े सात सात माशे दालचीनी, | रक्तिद्वयमितां खादेद्वटिकामनुपानतः ।। इलायची, तेजपात और नागकेसरका चूर्ण एवं औदुम्बरफलद्रावं दद्यान्मेहप्रशान्तये । २५ तोले, गोमूत्र और त्रिफलाके काथमें बुझा | बहुमूत्रं तथा चान्याव्रोगांश्चैव तदुद्भवान् । बुझाकर भस्म किया हुवा मण्डूर मिला कर अच्छी बहुमूत्रान्तकरसो नाशयेदविकल्पतः । तृष्णाधिक्ये प्रदातव्यं शृतशीतमिदं शुभम् ॥ तरह घोटकर सुरक्षित रखें । यह मण्डूर असाध्य अम्लपित्त और तीन सारिवा मधुकं द्राक्षा दर्भः सरलचन्दने। शूलको नष्ट करता है। पथ्या मधूकपुष्पश्च सर्वञ्च समभागिकम् ॥ जले संस्थाप्य रजनी पराहणे वस्त्रगालितम् । (मात्रा-१ माशा) प्रोक्तो गहननाथेन सद्यस्तृष्णाहरः परः ॥ (४७३५) बहुमूत्रान्तको रसः (१) (सि. भे. म. मा. । प्रमेहचिकि.) । रससिन्दूर, लोहभस्म, बङ्गभस्म, शुद्ध अफीम, बीजबन्धेक्षुरक्लीतवांशीसिहलकसालिमम् । शुद्ध जमाल गोटा, गूलरके बीज, बेलकी जड़की शुक्तिविद्रमयोर्भूती मज्जानावक्षपथ्ययोः ।। छाल और तुलसी समान भाग लेकर सबका महीन शिलाजतु श्रुटिर्वगः सर्व सञ्चूर्ण्य माक्षिकैः । | चूर्ण बनाकर उसे गूलरके फले के रसमें अच्छी वटीबंधान सुखदा बहुमूत्रप्रमेहिणाम् ॥ तरह घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। बीजबन्द, तालमखाना, मुलैठीका सत, बंस इनके सेवनसे बहुमूत्र और उसके उपद्रव लोचन, सतबिरोजा, सालममिश्री, सीपकी भस्म, | अवश्य नष्ट हो जाते हैं। अनुपान-गूलरके फलों मूंगाभस्म, बहेड़े और हर्रकी गुठलीकी मज्जा का रस । ( मींगी ). शिलाजीत, छोटी इलायचीके बीज यदि प्यास अधिक लगे तो सारिवा मुलैठी, तथा बङ्गभस्म समान भाग लेकर सबका महीन | मुनक्का, दर्भ, चीरका बुरादा, लालचन्दन, हरे और चूर्ण करके उसे शहदमें धोटकर गोलियां महुवेके फूल समान भाग लेकर काढ़ा बनाकर बना लें। ठण्डा करके पिलाना चाहिये । अथवा इन चीजों For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६०२] . भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि को रातको पानीमें भिगो दें और प्रातःकाल छान- (४७३९) बाकुच्यादिलोहम् कर पिलावें । (ग. नि. । रसायना.) (४७३७) बहुमूत्रान्तकलोहम् बाकुची त्रिफला कृष्णा विडङ्ग सुरसाऽमृता । अयोमधुस्थितं पक्कं जरामृत्युविषापहम् ॥ ( आ. वे. वि. । बहुमूत्रा. अ. ६७) बाबची, हर्र, बहेड़ा, आमला, पीपल, बायरसं गन्धमयोऽभ्रश्च वङ्गं सर्वं समं समम् ।। | बिड्ग, तुलसी, गिलोय और लोहभस्म समान भाग रसस्य पादिकं हेम रम्भापुष्परसेन च ॥ लेकर चूर्ण बनावें। मईयित्वा वटी कार्या चणकामाऽनुपानतः। इसे शहदके साथ सेवन करनेसे जरा, मृत्यु रसो गुडूच्या दातव्यो बहुमूत्रान्तकाभिधः ॥ | और विषका नाश होता है । (४७४०) बाकुच्याचं चूर्णम् शुद्ध पाग, शुद्र गन्धक, लोहभस्म, अभ्रक (ग. नि. चूर्णा. ) भरम और बङ्गभ म ४-४ भागं तथा स्वर्णभस्म १ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धकको कञ्जली पलानि संगृह्य दशेन्दुराज्या बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर फलत्रयस्यापि समानमेतत् । विडड्गसारस्य पलानि सप्त सबको केलेके फूलके रसमें घोटकर चनेके बराबर शिलाजतोऽर्धं च पुरस्य चकम् ।। गोलियां बना लें । इन्हें गिलोयके रसके साथ सेवन करनेसे बहुमूत्र रोग नष्ट होता है। शतं च भल्लातकसत्फलानां पलं तथा पुष्करमूलनाम्नः। (४७३८) बाकुच्यादिलेहः | पलत्रय लोहभवं सुचूर्ण (ग. नि. । कुष्ठा. २६) तुरी पलार्ध ह्यथ कर्षभागाः ॥ शशाङ्कलेखा सविडङ्गसारा सपत्रमुस्ताकणयष्टिकानां सपिप्पलीका सहुताशमूला। सचित्रकग्रन्थिककेशराणाम् । सायोमला सामलका सतैला न्यग्रोधमूलोषणकुङ्कुमाना मेकत्र सञ्चूये समं तु खण्डम् ॥ कुष्ठानि सर्वाणि निहन्ति लीढा ॥ | खादेद्यथाग्नि प्रयतस्तु मात्रां । बाबची, बायबिडंगकी गिरी (चावल-मींग), कुष्ठान्यशेषाण्यपयान्ति नाशम् । पीपल, चीतेकी जड़की छाल और मण्डूरभस्म तथा | अर्थोविकाराः षडपि प्रवृद्धाः आमला १-१ भाग लेकर बारीक चूर्ण बनाकर | वित्राणि चित्राण्युदराणि चाष्टौ ॥ उसमें १ भाग तिलका तेल मिलाकर रक्खें । क्षयाश्च कृच्छ्रः खलु पाण्डुरोगः इसे सेवन करनेसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं।। कण्ठामया विशतिरेव मेहाः। For Private And Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसंपकरणम् ] तृतीयो भागः। [६०३] उन्मादरोगज्वरनेत्ररोगा | (४७४१) बालज्वराङ्कशरस: नासोद्भवा पञ्चविधाश्च गुल्माः ।। (वृ. नि. र. । बालरो.) वातमशीतिविकारं चत्वारिंशत्प्रभेदजं पित्तम्। मतमताभ्रवङ्गं च रौप्य योज्यं च तत्समम् । श्लेष्माणं विंशतिक विनाशमायाति दुष्टमपि ॥ मृतताम्रस्य तीक्ष्णस्य प्रत्येकं च द्विभागिकम् ।। भवति रुचिरदीप्तिौरवर्णो मनुष्यः व्योषं विभीतकं चैव कासीसं मृतमेव च । समधिकशतवर्ष जीवतीह प्रगल्भम् । नागवल्लीदलरसैर्भावयेच्च पुनः पुनः॥ विघटितघनरोगो मासमात्रमयोगा वल्लप्रमाणो दातव्यः सर्वरोगहरः परः। धुवतिनयनहारी हृष्टपुष्टो वृषश्च ॥ गर्मिणीबालकानां च सर्वज्वरविनाशनः ।। बाबची १० पल, त्रिफला १० पल, बिडंग पारदभस्म, अभ्रकभस्म, वंगभस्म और चांदी तण्डुल (बायबिडंगको मींग) ७ पल, शिलाजीत | भस्म १--१ भाग, ताम्रभस्म और फौलादभस्म तथा ३॥ पल, शुद्ध गूगल १ पल (५ तोले ), शुद्ध । सोंठ, मिर्च, पीपल, बहेड़ा और कसीस-भस्म भिलावे १०० नग, पोखरमूल १ पल, लोहभस्म २-२ भाग लेकर सबका महीन चूर्ण करके उसे ३ पल, फटकीकी खील २॥ तोले तथा तेजपात, पानके रसकी कई भावनाएं देकर ३-३ रत्तीकी नागरमोथा, पीपल, मुलैठी, चीतेकी जड़, पीपला गोलियां बना लें। मूल, नागकेसर, बड़की जड़की छाल, कालीमिर्च इनके सेवनसे गर्भिणी और बालकों के समस्त और केसर ११-१। तोला लेकर सबका महीन चूर्ण बनावें और उसमें उसके बराबर खांड मिला प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । कर रखें। (४७४२) बालयकृदरि लोहम् इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे सम- (आ. वे. वि. । बालरो. अ. ८०) स्त प्रकारके कुष्ठ, ६ प्रकारका अर्श ( बवासीर ), सहस्रपुटितश्चानं लौहश्चैव तथा रसः । श्वित्रकुष्ठ, चित्र, ८ प्रकारके उदररोग, क्षय मूत्रकृ. जम्बीरवीजातिविषे मूलं प्लीहारिसम्भवम् ।। च्छू, पाण्डु, कण्ठरोग, २० प्रकारके प्रमेह, उन्माद, रक्तचन्दनमश्मनः प्रत्येकञ्च समांशकम् । ज्वर, नेत्ररोग, नासारोग, ५ प्रकारके गुल्म, ८० गुडूचीस्वरसेनैव धान्यद्वयमिता वटी॥ प्रकारके वातरोग, ४० प्रकारके पित्तरोग और २० । बालानां यकृतं घोरं ज्वरं प्लीहानमेव च । प्रकारके कफजरोग नष्ट होते हैं। तथा । शोथं विबन्धं पाण्डुश्च कासं मुखगदं तथा ॥ मनुष्य सुन्दर गौरवर्ण हो जाता है, एवं सौ वर्ष उदरं नाशयेदाशु भास्करस्तिमिरं यथा। तक जीवित रहता है। . इसे केवल १ मास तक ही सेवन करनेसे बालयकृदरि म लौहः श्रीशिवभाषितः ॥ समस्त जटिलरोग नष्ट हो जाते हैं। सहस्रपुटी अभ्रकभस्म, लोहभस्म, पारदभस्म, (मात्रा-३ माशे से ६ माशे तक ।) 'जम्बीरीके बीज, अतीस, सरफेकेकी जड़, लालचन्दन For Private And Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६०४] भारत-भैषज्य-रलाकरः । [बकारादि और पखानभेद समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । सफेद कोयलके रसकी १-१ भावना देकर उसमें और उसे गिलोयके रसमें धोटकर २-२ चावलकी २॥ तोले काली मिर्चोंका चूर्ण मिलाकर १ पहर गोलियां बना लें। पत्थरके खरलमें घोटें । और सरसेकेि बराबर गोलियां ये गोलियां बालकों के कष्टसाध्य यकृत, बनाकर धूपमें सुखा लें। ज्वर, प्लीहा, शोथ, विबन्ध, पाण्डु, खांसी, मुखरोग | ये गोलियां बालकों के भयङ्कर सन्निपात ज्वर और उदर रोगांको नष्ट करती हैं। | और खांसी आदि समस्त रोगांको नष्ट करती हैं। (४७४४) यालहरीतक्यादियोगः (४७४३) बालरसः (वृ. नि. र. । शूक.) (र. सा. सं.; धन्व.; भै. र.; र. च.; र. रा. पालपथ्यापलेकं च तुत्थं शाणमितं तथा। सु.; र. र. । बालरो.) निम्बद्रवेण सम्पर्ध दृढं सप्तदिनानि वै ॥ पलं शुद्धस्य सुतस्य गन्धकस्य च तत्समम् । गुटिकां चणकमायां छायाशुष्कां तु कारयेत् । सुवर्णमाक्षिकस्यापि चार्द्धभागं नियोजयेत् ।। । शीतोदकानुपानेन नित्यमेकां प्रदापयेत् ॥ ततः कज्जलिकां कृत्वा पात्रे लौहमये दृढे । घस्राणामेकविंशत्या मुच्यते तूपदंशतः । केशराजस्य भृङ्गस्य निर्गुण्डयाः पर्णसम्भवम् ॥ शालिगोधूममुद्गाश्च गोसर्पिः पथ्यमीरितम् ।। स्वरसं काकमाच्याश्च ग्रीष्मसुन्दरकस्य च । छोटी हर्रका चूर्ण ५ तोले और शुद्ध नीलासूर्य्यावतंकवर्षाभूभेकपर्णीरसैस्तथा ॥ थोथा ५ माशे लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर सात श्वेतापराजितायाश्च रसं दद्याद्विचक्षणः । दिन तक नीमके पत्तों या उसकी छालके रसमें घोटकर देयं रसार्द्धभागेन चूर्ण मरिचसम्भवम् ।। चनेके बराबर गोलियां बनाकर छायामें सुखा लें। शुभे शिलामये पात्रे यामं दण्डेन मईयेत् । इनमें से नित्य प्रति एक गोली शीतल जलके शुष्कमातपसंयोगाद्गुटिकां कारयेद्भिषक् ।। | साथ सेवन करनेसे २१ दिन में उपदंश (आतप्रमाणं सर्षपाकारं बालानाञ्च प्रयोजयेत् । । शक ) रोग नष्ट हो जाता है । हन्ति त्रिदोषसम्भूतं ज्वरश्चैव सुदारुणम् ॥ पथ्य-शाली चावल, गेहूं, मूंग और गोघृत । कासश्च विविधश्चैव सङ्घरोगं निहन्ति च ॥ | (४७४५) बालार्करसः शुद्ध पारद ५ तोले, शुद्ध गन्धक ५ तोले (वृ. नि. र. । ज्वरा.) और सोनामक्खी भस्म २॥ तोले लेकर तीनोंको | रसहिङ्गलजेपालवृद्ध यादन्त्यम्बुमर्दयेत् । अच्छी तरह घोटकर कजली बनावें । तत्पश्चात् उसे | दिनार्धन ज्वरं हन्ति तमः सूर्योदयो यथा ॥ लोहेके खरल में काले भंगरे और सफेद भंगरे तथा पारद भस्म १ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग संभालुके पत्तों के रस एवं मकोय, ग्रीष्मसुन्दर, | और शुद्ध जमालगोटा ३ भाग लेकर सबको दन्ती हुलहुल, पुनर्नवा ( बिसखपरा ), मण्डूकपर्णी और | के रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६०५] इनके सेवनसे ज्वर एक दिनमें ही नष्ट हो । (४७४७) विभीतकाचो वटक: जाता है। (ग. नि.; व. से.; र. रा. सु. । पाण्डु.) (४७४६) बिभीतकाख्यलवणम् विभीसकायोमलनागराणां (मण्डूरलवणम् ) चूणे तिलानां च गुडश्च मुख्यः । (र. रा. सु. । क्रिमि.) तक्रानुपानो वटकः प्रयोज्य: कृत्वाग्निवर्ण मलमायसं तु क्षिणोति घोरानपि पाण्डुरोगान् । मूत्रेनिषिश्चेबहुशो गर्वा तत् । बहेड़ा, मण्डूरभस्म, सांठ और तिलका चूर्ण तत्रैव सिन्धत्यसमं विपाच्य | समान भाग लेकर उसमें सबके बराबर पुराना गुड़ निरुद्धधूमश्च विभीतकानौ ॥ मिलाकर (६-६ माशे के) मोदक बना लें। तक्रेण पीतं मधुनाथ वापि · इन्हें तक्रके साथ सेवन करनेसे भयङ्कर विभीतकाख्यं लवणं प्रयुक्तं । पाण्डु भी नष्ट हो जाता है । पाण्डवामयेभ्यो हितमेतदस्मा (४७४८) बुभुक्षुवल्लभो रसः (१) त्पाण्ड्वामयन्नं न हि किश्चिदस्ति ।। | ( रसा. सार. । अजीर्णा. ) मण्डूरको बहेड़ेकी अनिमें तपा तपा कर सूतगन्धकसिन्दूरशङ्खशुक्तिवराटिकाः । अग्निके समान लाल करके बार बार गोमूत्र में बुझा- | तुचरीटङ्कणं फुल्ले पञ्चकोलाश्च तत्समाः॥ वें । जब उसका चूर्ण हो जाय तो उसमें उसके | वीजपूराम्बुना कृत्वा वटीः सेवेत मत्यहम् । बराबर सेंधा नमक और सबसे चार गुना गोमूत्र बुभुक्षार्थी मिताऽऽहारैरजी भिभूयते ॥ मिलाकर सबको हाण्डीमें भर दें और उसका मुख शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, रस सिन्दूर, शंखबन्द करके उसे चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे बहेड़ेकी भस्म, सीपभस्म, कौडाभस्म, सुहागे और फिटकीको लकड़ीकी आग जलावें । जब समस्त गोमूत्र जल खील १-१ भाग तथा पञ्चकोल (पीपल, पीपलाजाय तो अग्नि देनी बन्द कर दें और हाण्डीके मूल, चव, चीता और सोंठ ) का चूर्ण इन सबके स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको निकाल बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें कर पीसकर रख लें। और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाइसे तक अथवा शहदके साथ सेवन करनेसे कर सबको बिजौ रे नीबूके रसमें घोटकर (१-१ पाण्डु नष्ट होता है। पाण्डुके लिये यह सर्वोत्तम | माशेकी ) गोलियां बना लें। औषध है। ___यदि मिताहारी व्यक्ति इन्हें सेवन करता (मात्रा-२-३ माशे।) रहे तो उसे अजीर्ण नहीं होता। For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६०६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ वफारादि: (४७४९) बुभुक्षुवल्लभोरसः (२) (४७५२) बोलपर्पटोरसः ( सिद्धोदयः) ( रसा. सार । अजी.) (र. चं.; र. रा. सु.; र. का. धे.; वृ. नि. र.; यद्वा भल्लाततैलेन गालितं परिवापितम् । । __ यो. र. । रक्तपित्ता.; यो. र. । प्रदर.) वीजपूराऽप्सु गन्धैकं लिह्यात् क्षौद्रेण भुक्तये ॥ सूतगन्धकसुकज्जलिकायाः आमलासार गन्धकको भिलावेके तेलके साथ पर्पटी समयुता समभागम् । अग्निपर गलाकर बिजौ रेके रस में बुझावें । बोलचूर्णविहित प्रतिवाप्यं इसे सेवन करनेसे भोजन अच्छी तरह पचता स्याद्रसोऽयमसगामयहारी ॥ है और अजीर्ण नहीं होता। | वल्लयुग्मयुगलं प्रतिदेयं ( मात्रा---२-३ रत्ती ।) शर्करामधुयुतः किल दत्तः । रक्तपित्तगुदजस्युतियोनि(४७५०) बुभुक्षुवल्लभो रसः (३) सावमाशु विनिवारयतीशः ॥ ( रसा. सार । अजीणां.) समान भाग शुद्ध पारे और शुद्ध गन्धककी ईश्वरानुगृहीतश्चेच्छतगन्धेन रचितम् । कजली बनाकर उसे घी चुपड़े हुवे लोहपात्र में स्वर्णसिन्दूरमेवाऽद्यादजीर्णादिरुजाऽपहम् ॥ डालकर बेरीकी मन्दाग्निपर पिघलावें और फिर उसमें ____ यदि केवल शतगुण गन्धकजारित स्वर्ण उसके बराबर बोल ( हीरादोखी खूनखराबा ) सिन्दूर ही सेवन किया जाय तो भी अजीर्णादि का अत्यन्त महीन चूर्ण मिलाकर गायके गोबरपर रोग नष्ट हो जाते हैं। बिछे हुवे केलेके पत्ते पर फैला दें तथा उसके (४७५१) बृहत्यादिलोहम् ऊपर दूसरा पत्ता ढककर उसे गोबरसे दबा दें। (र. र. । कुष्ठा.) थोड़ी देर बाद जब वह स्वांग शीतल हो जाय तो बहतीशर्करानागतिलसारसमन्वितम् ।। पर्पटीको निकालकर पीस लें । लोहं कुष्ठं निहन्त्याशु सर्वरोगहरोऽपि सः॥ इसे ६ रत्तीकी मात्रानुसार मिश्रीमें मिला बड़ी कटैली, खांड, नागकेसर और तुष- | कर शहदके साथ चाटनेसे रक्तपित्त, बवासीरका रहित तिलका चूर्ण १-१ भाग तथा लोहभस्म रक्त और रक्तप्रदर नष्ट होता है । ४ भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर रक्खें । (४७५३) बोलबद्धो रसः (१) इसके सेवनसे कुष्ठादि समस्त रोग नष्ट | (वृ. यो. त. । त. १०३; वै. र.; र. च. । अर्श.; होते हैं। वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) ( मात्रा-४ से ८ रत्ती तक । अनुपान- गुडूचिकासत्त्वसमो रसेन्द्रो शहद या त्रिफलाकाथ ।) गन्धः समांशो निखिलेन बर्बरः। For Private And Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्सप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६०७] विमर्दयेच्छाल्मलिकाभवैवैः गुटिकां बदराकारां श्लेष्मकासापनुत्तये । स्याद्वोलबद्धो मधुयुक्त्रिवल्लः॥ भक्षयेदोलबद्धोय रसः सश्वासपाण्डुनुत् ॥ पित्ते तु चाम्ले मधुशर्कराभ्यां पारदभस्म और शुद्ध बछनाग १--१ भाग, मेहे प्रदेयो मधुपिप्पलीभ्याम् । शुद्ध गन्धक २ भाग, बोल (हीरादोखी--खूनरक्तार्शसां नाशकदेष सूतः खराबा), हरतालभस्म, भुनीहुई हींग, ककोड़ेकी ___ पित्ताशंसां चैव तु विद्रधेश्च ॥ | जड़, स्वर्णमाक्षिक भस्म, हल्दी, कटेली, जवाखार, रक्तप्रमेहस्य खुडस्य चापि कलिहारी की लड़की छाल, सफेद जीरा, सेंधास्त्रीणां गदस्यापि भगन्दरस्य ।। नमक और महुवेका सार १-१ भाग लेकर गिलोयका सत, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक | सबका अत्यन्त महीन चूर्ण बनाकर उसे ७ दिन १-१ भाग लेकर कजली बनावें और फिर उसमें | तक अदरकके रस में घोटकर बेरके बराबर गोलियां ३ भाग बाल (हीरादाखी---खूनखराबा ) का | बा लें। अत्यन्त महीन चूर्ण मिलाकर सबको एक दिन इसके संवनसे कफज खांसी स्वास और सेभलको छालके रसमें घोटकर सुखाकर रक्खें । । पाण्डुका नाश होता है। इसे ९ रत्तीकी मात्रानुसार मिश्री में मिला- (४७५५) ब्रह्मरस: कर शहदके साथ चाटनेसे अम्लपित्त नष्ट ( र. सा. सं. । कुष्टा.; र. रा सु.; र. चं. । कुष्ठा.; होता है। र. मं. । अ. ६; र. चि. म. । अ. ९; र. इसे प्रमेहमें पीपलके चूर्ण और शहदके का. धे. । कुष्ठा.) साथ देना चाहिये। भागैकं मूच्छितं सूतं गन्धकत्वग्निवागुजी । यह रस रक्तार्श, पित्तार्श, विद्रधि, रक्तप्रमेह, | चूर्णन्तु ब्रह्मबीजाना प्रतिद्वादशभागिकम् ॥ वातरक्त, रक्त प्रदर और भगन्दरका नाश करता है। त्रिंशद्भागं गुडस्यापि क्षौद्रेण गुडिका कृता । साधारण अनुपान--मधु । अयं ब्रह्मरसो नाम्ना ब्रह्महत्यादिनाशनः ।। (४७५४) बोलबद्धो रसः (२) द्विनिष्कं भक्षणाद्धन्ति प्रसुप्तिकुष्ठमण्डलम् । ( र. र. स. । उ. ख. अ. १३; र. रा. सु.; पातालगरुडीमूलं जलैः पिष्ट्वा पिवेदनु । र. का. धे. । कासा.) ___ रससिन्दूर १ भाग तथा शुद्ध गन्धक, रसभस्म विर्ष तुल्यं गन्धकं द्विगुणं मतम् । चीतेकी जड़, बाबची, और ढाकके बीजोंका चूर्ण बोलतालकबाहीककर्कोटीमाक्षिक निशा॥ १२-१२ भाग लेकर सबको ३० भाग गुड़में कण्टकारी यवक्षारं लागलीजीरसैन्धवम् । मिला और फिर उसमें आवश्यकतानुसार शहद मधुकसारं सञ्चूर्ण्य सप्ताहं चाकद्वैः॥ मिलाकर १०-१० माशेकी गोलियां बनालें । For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [बकारादि पाताल गरुडीकी जड़को पानीमें पीसकर । इन्हें काली मिर्चके चूर्ण और अदरकके रसके उसके साथ ये गोलियां सेवन करनेसे प्रसुप्ति | साथ १-१ पहरके बाद देनेसे समस्त सन्निपात (सुन्नबहरी) और मण्डल इत्यादि कुष्ठ नष्ट होते हैं। | नष्ट होते हैं। (४७५६) ब्रह्मवटी (१) (ब्रह्मप्रभावटी) पथ्य--मूंगका यूष और भात । (र. रा. सु. । सन्निपाता.; र. का. धे.। इसपर दिनमें सोनेसे परहेज करना चाहिये। ज्वरा. १) ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती।) शुदं सूतं द्विधा गन्धं रससाम्यममृतं क्षिपेत् । ब्रह्मवटी (२) कृष्णाभ्रताम्रलोहश्च मईयेत्यूषणद्रवैः ॥ ( र. चं.; र. रा. सु. । अपस्मार.) आकस्य द्रवैः पश्चात्क्रमाद्रावैदिन दिनम् । इन्द्रब्रह्मवटी प्र. सं. ४५९ देखिये । कृष्णजीरकपत्रागमजमोदा जयन्तिका ॥ । (४७५७) ब्रह्मवटी (३) यवानी तिलपर्णी च ब्राह्मी धत्तूरभृङ्गिराट् । (र. र. । उदरा.) यवानी चाकर्णी च शिग्रुहस्तिकशुण्डिके । | विडङ्गं दाडिमं कुष्ठं निम्बत्वग्दहनं वचा । श्वेतापराजितावासाचित्रकानां द्रवैश्च तम् ।। यूपं पाठा देवदारु निशा व्याघ्रनखाभया । भावयेद्वटिका कार्या बदरास्थिसमोपमा ।।। बिल्वकं रोहिणी चैला त्रित्मत्येककार्षिकम् । योज्येयं यामयामान्ते मरिचैराईकद्रवैः । जैपालबीजचूणे च दन्तीमूलं पलं पलम् ॥ इयं ब्रह्मवटी नाम सन्निपातकुलान्तकी ॥ ब्रह्मदण्डीरसप्रस्थं पलमाज्यं पुरातनम् । पथ्यं स्यान्मुद्गयूषेण दिवास्वापश्च वर्जयेत् ॥ | पूर्वकल्कयुतं पाच्यं मृद्वमिना सुपाचितम् ॥ शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग | भक्षयेद्वदराकारां नित्यं ब्रह्मवटी शुभाम् । तथा शुद्ध बछनाग, कृष्णाभ्रकभस्म, ताम्रभस्म चतुःषष्टयुत्तरव्याधीन्साध्यासाध्यानिहन्त्यलम्।। और लोहभस्म १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्ध | बायबिडंग, अनारदाना, कूट, नीमकी छाल, ककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औष- चीता, बच, सोंठ, मिर्च, पीपल, पाठा, देवदारु, धांका चूर्ण मिलाकर सबको १-१ दिन त्रिकुटा | हल्दी, नखी, हर्र, बेलगिरी, कुटकी, इलायची और ( सांठ, मिर्च, पीपल ), अद्रक, कालाजीरा, पतङ्ग, निसोतका चूर्ण १।-१। तोला तथा शुद्ध जमालअजमोद, जयन्ती ( जैत ), अजवायन, हुलहुल, | गोटे और दन्तीमूलका चूर्ण ५-५ तोले लेकर ब्राझी, धतूरा, भंगरा, अजवायन, अदरक, अमल- सबको एकत्र मिलाकर उसमें १ सेर ब्रह्मदण्डीका तास, सहजना, हाथीसुण्डी, सफेद कोयल, वासा | रस और ५ तोले पुराना घी मिलाकर मन्दाग्नि और चीतेके स्वरस या काथमें घोटकर बेरकी । पर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो बेरकी गुठलीके गुठलीके बराबर गालियां बना लें। समान गोलियां बना लें। For Private And Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कल्पप्रकरणम् ] www.kobatirth.org तृतीयो भागः । इनके सेवन से ६४ प्रकारके उदररोग नष्ट ब्राह्मीरसः स्यात्वचः सकुष्ठः सशङ्खपुष्पः ससुवर्णचूर्णः । उन्मादिनामुन्मदमानसाना होते हैं । (४७५८) ब्राह्मीरसादियोगः ( यो त । त. ३८; वृ. नि. र.; यो. र. । उन्मा. ) इति वकारादिरसमकरणम् । (४७५९) बीजपूरककल्पः (ग. नि. । औ. कल्पा.) सिन्धुत्थेन घनागमे तु सितया काले शत्सञ्ज्ञके हेमन्ते च कणार्द्रहिङ्गरुचकैः सिद्धार्थतैलान्वितैः तैस्तैः शिशिरे मधावपि युतं ग्रीष्मे गुडेनान्वितं सञ्जानामपि वीजपूरकमिदं माहुः प्रशस्तं बुधाः ॥ विश्वासैन्धवसंयुतं च शिशिरे क्षौद्रैर्व सन्तोदये ग्रीष्मे क्षौद्रणान्वितं च विमलैङ्गिष्टकै: अथ बकारादिकल्पप्रकरणम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मृतौ भूतहितात्मानां हि ॥ adset पानविधौ च शस्तो ब्राह्मीरसोऽयं सवचादिचूर्णः ॥ प्रावृषि | युक्तं शर्करा शरद्यथ च हेमन्ते सहिङ्गत्रयं सेव्यं यद्विदुषा त्रिदोषशमने श्रीमातुल सदा बिजौरेको : ॥ वर्षा ( श्रावण, भाद्रपद) में सेंधा नमक के साथ; शरदऋतु (आश्विन, कार्तिक) में मिश्रीके साथ; हेमन्त ऋतु ( अग्राहयण, पौष) में पीपल, ब्राह्मीके स्वरसमें बच, कूठ, शंखपुष्पी और स्वर्णभस्मका समान भाग- मिश्रित चूर्ण मिलाकर उसकी नस्य देने या उसका अञ्जन लगाने अथवा उसे पिलाने से उन्माद और अपस्मारादि रोग नष्ट होते हैं । [ ६०९] अद्रक, हींग और काला नमक तथा सरसों के तेल के साथ, और शिशिर (माघ, फाल्गुन) तथा वसन्त (चैत्र, वैशाख ) में भी इन्हीं चीजे के साथ एवं ग्रीष्म ( ज्येष्ठ, आषाढ़ ) में गुड़के साथ सेवन करना उत्तम है 1 । अथवा शिशिर ( माघ, फाल्गुन ) में सांठ और सेंधा नमक के साथ, वसन्त ( चैत्र, वैशाख ) में शहद के साथ, ग्रीष्म (ज्येष्ठ, आषाढ़ ) में शहद और पीपल के चूर्णके साथ, वर्षा ( श्रावण, भाद्रपद) में हिंग्वाष्टक चूर्णके साथ, शरद (आश्विन, कार्तिक) में मिश्री के साथ और हेमन्त ( अग्राहयण, पौष ) में हिंगुत्रय (हींग, नाडी हींग और हिंगुपत्री) के साथ सेवन करने से तीनों दोषों का शमन होता है । इति वकारादिकल्पप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६१०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [बकारादि - - - अथ बकारादिमिश्रप्रकरणम् । (४७६०) बकुलप्रयोगः | घावमें लगानेसे नाडीव्रण (नासूर) शीघ्र ही नष्ट हो (वै. जी. । वि. ४) जाता है। सोयं सुगन्धिमुकुलो वकुलो विभाति (४७६३) बदरीमृलयोगः वृक्षाग्रणीः प्रियतमे मदनकबन्धुः। (रा. मा. । स्त्री.) यस्य त्वचैव चिरवितया नितान्तं स्यान्मूलमाराभृगालिकायाः दन्ता भवन्ति चपला अपि वज्रतुल्याः॥ सञ्चय दन्तैधृतमास्यमध्ये । मौलसिरीकी छालको दीर्घकाल तक: चबाने से स्तन्यावह वासरसप्तकेन हिलते हुवे दांत भी वज्रके समान दृढ़ हो जाते हैं। स्तन्योत्यकीटक्षयकारणं च ॥ (४७६१) यकुलबीजचर्वणम् छोटी बेरीकी जड़को दांतों से चबाकर मुखमें (रा. मा. । मुखरो.) रखकर उसका रस चूसनेसे प्रसूता स्त्री के स्तनों में दन्तास्तु बीजैबैकुलद्रुमस्य दुग्ध पृद्धि होती और दूधके कृमि नष्ट हो जाते हैं। स्थानच्युता अप्यचला भवन्ति । . इस प्रयोगका फल सात दिनमें मालम मौलसिरीके बीज चबानेसे हिलते हुवे दांत | होता है दृढ़ हो जाते हैं। (४७६४) बब्बूलादियोगः (४७६२) बदरीफलत्वगादिवर्तिः ___ (वृ. मा. । नाडीव्रणा.) (यो. र. । मेदो.; वृ. नि. र. । मेदो.) घोण्टाफलत्वङ्मदनात्फलानि बब्बूलस्य दलैः सम्यग्वारिणा परिपेषितैः । पूगस्य च त्वग्लवणं च मुख्यम् । गात्रमुद्वर्तयेत्पश्चाद्धरीतक्या सुपिष्टया ॥ स्नुपर्कदुग्धेन सहैष कल्को भूय उद्वर्तनं कृत्वा पश्चात्स्नानं समाचरेत् । वर्तीकृतो हन्त्यचिरेण नाडीम् ।। प्रस्वेदान्मुच्यते शिमं ततस्त्वेवं समाचरेत् ।। बेरांकी छाल (. ऊपरका छिलका ), मैनफल, | बबूलके पत्तोंको पानी में पीसकर शरीरपर मलें सुपारी, दालचीनी और सेंधा नमक के समानभाग और फिर इसी प्रकार हर्र को पीसकर मलें । मिश्रित अत्यन्त महीन चूर्णको स्नुही (सेंड-सेहुंड) । तत्पश्चात् स्नान करें । इस प्रयोगसे अधिक स्वेद और आकके दूधमें घोटकर वत्ती बनाकर उसे ! आना शीघ्र ही रुक जाता है । For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६११] (४७६५) बलामूलचूर्णप्रक्षेपः स्नेहं तदीयमसकृन्मधुनोपयुज्य (रा. मा. । बालरो.) चित्रं नरो जयति तन्मथितानुपानात् ।। बाबचीके चूर्णको पानीमें पीसकर पात्रमें लेप शिरः समुत्थेषु भवन्त्यरुंषु करके उसमें दही जमा और उसे मथकर घृत ये बालकस्य क्रिमयोऽतितीब्राः । | निकाल लें। स्नातस्य तच्छान्तिकृदस्य मूर्ध्नि . भद्रौदनीमूलरजो निदध्यात् ॥ ___ इस धीमें शहद मिलाकर चाटें और ऊपरसे यदि बालकके शिरमें घाव होकर उनमें कृमि । उक्त दहीका मट्ठा पियें। पड़ जायं तो उसे स्नान कराके घावोंपर खरैटीकी इस प्रयोगसे स्वित्र (सफेद कुष्ठ ) नष्ट हो जड़का चूर्ण छिड़कना चाहिये। जाता है। (४७६६) बस्तमूत्रयोगः | (४७६९) बाकुचियोगः (३. मा. । कर्णरोगा.) (ग. नि. । कुष्ठा.) तीव्रशूलातुरे कर्णे सशब्दे क्लेदवाहिनि। तैस्तक्रपिष्टैः प्रथमं शरीरं पस्तमूत्र क्षिपेत्कोष्णं सैन्धवेन समन्वितम् ॥ तैलाक्तमुद्वर्तयितुं यतेय । बकरेके मूत्रमें सेंधा नमक मिलाकर उसे जरा | तेनास्य कण्डूः किटिभाः सपामाः निवाया (मन्दोष्ण ) करके कान में डालनेसे कानका ___ कुष्टानि शोफाश्च शमं व्रजन्ति । तीब्रशूल, कानों में धांय घांय शब्द होना और कर्ण __ शरीरपर तैल मर्दन करनेके पश्चात् बाकुची स्रावका नाश होता है। (बाबची) को तक्रमें पीसकर मलने से खुजली, (४७६७) बस्तमूत्रादियोगः किटिभ, पामा, शोफ और कुष्टादि रोग नष्ट (ग. नि. । वन्ध्या .) | होते हैं। यस्तमृत्रं सघृतं च नवनीतं च माहिषम् । (४७७०) बाष्पस्वेदः पलत्रयं पिबेनारी अपि वन्ध्या प्रसूयते ॥ ( वै. म. र. । प. १६) बकरेका मूत्र, घी और भैंसका मक्खन ५-५ तोले लेकर तीनोंको एकत्र मिलाकर सेवन करनेसे | बाष्पस्वेदेन पयसो गवां नेत्रार्तिनाशनम् । वन्ध्यत्व रोग नष्ट होता है। स्यादेरण्डशिफासिद्धपयसाऽऽश्च्योतनं तथा ।। (४७६८) बाकुचिकाप्रयोग: गायके दूध की भाप देने तथा अरण्डकी (रा. मा. | कुष्टा.) जड़के साथ पकाया हुवा गोदुग्ध डालनेसे नेत्र चूर्णेन भाण्डमुपलिप्य शशाङ्कराज्या पीड़ा नष्ट होती है। तत्र स्थितेन पयसा दधि संविदध्यात् । । । (अरण्डकी जड़ ५ तोले, गोदुग्ध १ सेर, For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ६१२ ] पानी ४ सेर | सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो स्वच्छ वस्त्रमें छान लें । ) (४७७१) बिल्वयोग: - भैषज्य रत्नाकरः । भारत (४७७२) बिल्वशलाटुप्रयोग: ( रा. मा. । अर्श.) ( व. से. । ग्रहण्य. ) स्विन्नानि बालबिल्वानि खादेत्क्षौद्रेण मानवः । तक्रेणाऽनलगर्भेण सार्द्धं तद् ग्रहणीं जयेत् ॥ कच्ची बेलगिरीको सिजाकर शहद में मिला | कर चित्रक चूर्ण मिश्रित तक्रके साथ सेवन करने से ग्रहणी रोग नष्ट होता है। यः सततं विल्वशला भोजी रक्तार्शसां नाशमसौ करोति । कृष्णैस्तिलैर्मिंश्रितमत्ति यो वा हैयङ्गवीनं सतताभियुक्तः ॥ नित्य प्रति कच्ची बेल खानेसे अथवा काले तिल गायके नवनीत में मिलाकर सेवन करनेसे रक्ताका नाश हो जाता है । (४७७३) बिल्वादियवागू ( व. से. 1 ग्रहण्य. ) वाल बिल्ववलाशुण्ठीधातकीमुस्तधान्यकैः । कषायैः साधिता हन्ति यवागृहणीगदम् ।। कच्ची बेलगिरी, खरैटी, सोंठ, धायके फूल इति [ बकारादि नागरमोथा और धनियेके काथमें यवागू बनाकर पिलाने से ग्रहणी रोग नष्ट होता है । (४७७४) बिसादिपरिषेकः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (वै.म.र. प. १६) सविसं सविदारि सोत्पलं ससिताकं मधुकेन समं त्वापयः परिषे सकशेरुचन्दनम् । गामाञ्जयेत् ॥ कमलकन्द (भिसण्डा), बिदारीकन्द, नीलोत्पल, मिश्री, कसेरु, लालचन्दन और मुलैठी के साथ बकरीका दूध पकाकर उसे नेत्रोंपर सींचने (बन्द आंख पर उसकी बारीक धार डालने) से नेत्र रोग (नेत्राभिष्यन्दादि) नष्ट होते हैं । ( ओषधियां ५ तोले, दूध १ सेर, पानी ४ सेर । एकत्र मिलाकर पकायें । जब पानी जल जाय तो दूधको छान लें 1 ) (४७७५) बीजपूरयोगः ( भा. प्र. 1 म. खं. मुखरो. ) आस्वादिता सकृदपि मुखगन्धं सकलमपनयति । स्वगबीजपूरफलजा पवनमपाच्यं वारयति ॥ कारादिमिश्रप्रकरणम् । यदि बिजौरे फलका छिलका एक बार भी चबा लिया जाय तो मुखको दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है तथा अपान वायु शुद्ध हो जाता है । For Private And Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथभकारादिकषायप्रकरणम्। (४७७६) भद्रमुस्तादिकाथः । (४७७८) भद्रोदुम्बरिकादियोगः (यो. र. । ज्वर.; भा. प्र. म. ख. । बालरोग.; (ग. नि. । कुष्ठा.) वृ. यो. त. । त. १४४) | भद्रासज्ञोदुम्बरीमूलतुल्यं भद्रमुस्ताभयानिम्बपटोलमधुकैः कृतः। दत्त्वा मूलं क्षोदयित्वा मलप्वाः। कायः कोष्णः शिशोरेप निःशेषज्वरनाशनः ॥ सिद्धं तोये पीतमुष्णे सुखोष्णं नागरमोथा, हरे, नीमकी छाल, पटोल | ___स्फोटांश्छ्त्रेि पुण्डरीके च कुर्यात् ।। ( परवल ) और मुलैठीका मन्दोष्ण काथ पिलानेसे पं दग्धं च मातङ्गजं वा बालकांके समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट हो जाते हैं । मिन्ने स्फोटे तैलयुक्तः प्रलेपः ॥ (४७७७) भद्रादिकाथः दन्तीमूल, कठूमर ( कठगूलर ) की जड़ (वृ. नि. र. । ज्वर.) और बाबचीकी जड़का मन्दोष्ण काथ सेवन करभद्राधान्याकशुण्ठीभिर्गुडूचीमुस्तपद्मकैः। नेसे स्वित्र ( सफेद कोढ़) और पुण्डरीक कुष्ठके रक्तचन्दनभूनिम्बपटोलवृषपौष्करैः॥ स्थानमें छाले पड़ जाते हैं। उन छालांको फोड़ कटुकेन्द्रयवारिष्टभाजीपर्पटकैः समम् । कर चीते या हाथीकी खालकी भस्म तेलमें मिलाकोथः पातनिषेवेत सर्वशीतज्वरापहम् ॥ कर लगानेसे कुष्ट नष्ट हो जाता है । कायफल, धनिया, सोंठ, गिलोय, नागरमोथा, (४७७९) भल्लातकक्षीरम् पपाक, लाल चन्दन, चिरायता, पटोल, बासा (च. सं । चि. अ. १) (अडूसा ), पोखरमूल, कुटकी, इन्द्रजौ, नीमकी भल्लातकान्यनुपहतान्यनामयान्यापूर्णरसछाल, भरंगी और पित्तपापड़ा समान भाग लेकर | प्रमाणवीर्याणि पक्कजाम्बवप्रकाशानि शुचौ काथ बनावें । शुक्रे वा मासे सना यवपल्वे माषपल्वे वा . इसे प्रातःकाल सेवन करनेसे समस्त शीतचर निधापयेत् , तानि चतुर्मासस्थितानि सहसि नष्ट होते हैं। सहस्ये वा मासे प्रयोक्तुमारभेत शीत For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः । [ ६१४ ] स्निग्धमधुरोपस्कृतशरीरः, पूर्व दश भल्लातकान्यापोथ्याष्टगुणेनाम्भसा साधु साधयेत्, तेषां रसमष्टभागावशिष्टं पूतं सपयस्कं पिबेत् सर्पिषाऽन्तर्मुखमभ्यज्य, तान्येकैकभल्लातको - त्कर्षापकर्षेण दश भल्लातकान्यात्रिंशतः प्रयोज्यानि, नातः परमुत्कर्षः प्रयोगविधानेन, सहस्रपर एव भल्लातकप्रयोगः ; प्रयोगान्ते च द्विस्तावत् पयसैवोपचारः, तत्प्रयोगाद्वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ भारत-भ ज्येष्ठ या आषाढ़ मास में रोगरहित, रससे परिपूर्ण, वीर्यवान् और पकी जामनके समान कृष्णवर्ण भिलावे लेकर उन्हें जौ या उड़दके ढेरमें दबा दें और ४ मास पश्चात् निकाल लें एवं अगहन या पौष मास में सेवन करें । भिलावा सेवन करनेसे पूर्व शीतल स्निग्ध और मधुर द्रव्योंके द्वारा शरीर शुद्धि कर लेनी चाहिये । प्रथम दिन दश भिलावांको कूटकर आठ गुने पानी में पकावें और जब आठवां भाग शेष रह जाय तो उसे छानकर उसके दश भाग करें और एक भाग दूधमें मिलाकर पियें । दूसरे दिन इसी प्रकार काथ बनाकर २ भाग पियें । इसी प्रकार प्रति दिन १ -१ भाग बढ़ाते हुवे १० दिन तक सेवन करें और फिर ११ वें दिन से १--१ भाग घटाते हुवे सेवन करें और एक भाग पर आजायें । इस प्रकार यह १०० भिलावांका प्रयोग हुवा । यदि यह प्रयोग अनुकूल आजाय तो फिर इसी प्रकार १० भिलावांका काथ करके उसका दसवां भाग पियें और प्रतिदिन १-१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि भाग बढ़ाते रहें । जब पूरे दश भाग पर आजायं तो उसके दूसरे दिन ११ भिलावांका काथ बनाकर वह सब जायं और फिर प्रति दिन १-१ भिलावा बढ़ाते जायं । जव तीस तक पहुंच जायं तो प्रतिदिन १-१ भिलावा कम करने लगे और १ भिलावे पर पहुंचकर प्रयोग समाप्त कर दें । इस प्रकार यह १ हजार भिलावांका प्रयोग हुवा | ( प्रथम दिनसे दसवें दिन तक १० दिनमें कुल ५५, ग्यारहवें दिनसे १९ वें दिन तक ९ दिन में कुल ४५, बीसवें दिनसे ४९ वें दिन तक कुल ४६५ और ५० वें दिनसे ७८ वें दिन तक २९ दिनमें कुल ४३५, इस प्रकार ७८ दिनमें कुल ५५ + ४५ + ४६५ + ४३५ = १००० भिलावे ।) इससे आगे और अधिक न बढ़ाने चाहियें । भल्लातक- प्रयोग-कालमें और उसके पश्चात् भी दूध पर ही रहना चाहिये । इस प्रयोगसे जरारहित १०० वर्षकी आयु प्राप्त होती है तथा रसायनके अन्य समस्त लाभ भी प्राप्त होते हैं । नोट - भिलावेका प्रयोग किसी योग्य वैद्यकी संरक्षा में ही करना चाहिये । (४७८०) भल्लातकक्षौद्रम् ( च. सं. । चि. अ. > भल्लातकानां जर्जरीकृतानां पिष्टस्वेदनं पूरयित्वा भूमावाकण्ठं निखातस्य स्नेहभाव - तस्य दृढस्योपरि कुम्भस्यारोप्योडुपेनापिधाय कृष्णमृत्तिकात्रलिप्तं गोमयाग्निभिरुपस्वेदयेत्, For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् हतीयो भागः। [६१८] D कर दें। तेषां या स्वरसः कुम्भं प्रपघेत तमष्टभागमधु- कुष्ठाः कृमिदोषघ्नं दुष्टशुक्रविशोधनम् ॥ संमयुक्तं द्विगुणवृतमघात; तत्मयोगादर्षशतम- भल्लातककाथपाने मन्त्रोऽयं पठ्यते कचित् ॥ जरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ | " वरुण त्वं हि देवानाममृतं परिकल्पसे । शुद्ध भिलावाँको कूटकर एक मजबूत और | आयुरारोग्यसिद्धयर्थमस्माकं वरदो भव ॥" स्निग्ध हाण्डीमें भर दें। इसकी तलीमें दो चार | ५ मिलावोंको* कूटकर उनका काथ बनाकर छोटे छोटे छिद्र कर देने चाहिये । तदनन्तर एक ठण्डा कर लें और ओष्ठ तथा तालुको घी लगाकर दूसरी स्नेहभावित हाण्डीको कण्ठ पर्यन्त भूमिमें पी जायं । दूसरे दिन इसी प्रकार १० भिलावोंका गाढ़कर उसके ऊपर पहिली हाण्डीको रक्खें और और तीसरे दिन १५ भिलावांका काथ पियें । दोनेके जोड़को काली मिट्टी से मजबूत कर दें इसी प्रकार प्रति दिन ५-५ भिलावे बढ़ाते रहें और तथा ऊपरवाली हाण्डीके मुख पर ढकना ढककर जव ७० पर पहुंच जायं तो प्रति दिन ५-५ उसे भी काली मिट्टीसे मजबूत कर दें। ऊपरवाली कम करने लगे और ५ पर आकर प्रयोग समाप्त हाण्डीके चारों ओर भी काली मिट्टीका लेप कर देना चाहिये । तत्पश्चात् ऊपर वाली हाण्डी पर __औषध पचने पर दूधके साथ घृतयुक्त भात अरण्य उपलेकी अग्नि जलावें । जब समझें कि अब भिलावांका सम्पूर्ण रस निकल आया होगा | खाना चाहिये। तब अग्नि बन्द कर दें और हाण्डीके स्वांग शीतल यह रसायन प्रयोग मेध्य, बलिपलित नाशक, होने पर नीचेकी हाण्डीमें जो रस जमा हुवा हो | दुष्ट-शुक्रशोधक तथा कुष्ठ, अर्श और कृमिरोगको उसे निकाल लें और उसमें उसका आठवां भाग | नष्ट करनेवाला है। शहद तथा दो गुना घी मिलाकर सेवन करें। भल्लाककाथ पीनेके समय कोई कोई इस प्रयोगसे १०० वर्ष तक वृद्धावस्था | “ वरुण........वरदो भव" मन्त्र भी पढ़ते हैं। नहीं आती। (४७८२) भल्लातकादिकायः (१) (४७८१) भल्लातकरसायनम् (व. से. । श्वासा.) (. मा. । रसायना.) भल्लातकमधुपर्णीपथ्यादशमूलनागरकायः । पश्चभल्लातकांश्छित्वा साधयेद्विधिवज्जले। तमके कफप्रधाने शस्तः श्वासे च मारुतजे ॥ कषायं तु पिबेच्छीत घृतेनाक्तोष्ठतालुकः ।। पञ्चवृद्धया पिबेधावत्सप्तति हासयेसतः। * सुश्रुत संहिता चि अ. ६ में एक भिलावेसे प्रार म्भ करके प्रतिदिन १-१ बढ़ाते हुवे ५ तक और फिर जीर्णेऽधादोदनं शीतं घृतक्षीरोपसहितम् ।। । ५-५ बढ़ाते हुवे ७० भिलावे तक सेवन करनेके लिये एतद्रसायन मेध्यं वलीपलितनाशनम् । लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६१६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [भकारादि भिलावा, मुलैठी, हरे, दशमूल और सांठका | भल्लातकामृताशुण्ठीदारुपथ्यापुनर्नवाः । काथ पीनेसे कफप्रधान तमक श्वास तथा वातज पश्चमूलीद्वयोन्मिश्रा उरुस्तम्भनिवर्हणाः॥ श्वास नष्ट होता है। ___मिलाया, गिलोय, सेांठ, देवदारु, हर्र, पुन(४७८३) भल्लातकादिक्काथः (२) । नवा ( बिसखपरा ) और दशमूलका काय पीनेसे ( ग. नि.; रा. मा.; वृ. नि. र. । ऊरुस्तम्भ.) ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है। भल्लातकोपकुल्यातन्मूलैः साधितं पिबन्नम्भः। (४७८६) भार्यादिक्काथ: (१) उरुस्तम्भादचिराद्धोरादपि मुच्यते नियतम् ॥ ( ग. नि. । ज्वरा.) भिलावा, पीपल और पीपलामूलका काथ भार्गी पथ्या वचा मुस्ता हरिद्रा च हरीतकी। पीनेसे कष्ट साध्य ऊरुस्तम्भ भी अवश्य शीघ्र ही मधुयष्टीपर्पटको काथः पित्तकफज्वरे ॥ नष्ट हो जाता है। ___ भरंगी, हर्र, बच, नागरमोथा, हल्दी, हरे, मुलैटी और पित्तपापड़ेका काथ पित्तकफज्वरको (४७८४) भल्लातकादियोगः (१) नष्ट करता है। ( ग. नि. । बाजीकरणा.) (हर्र २ भाग और अन्य सब चीजें १-१ भल्लातकैश्चतुर्भिश्च गोदुग्धस्याढकं शृतम् । भाग लेनी चाहिये । ) पीतं करोति वृषतां सुजीर्णस्यापि देहिनः॥ । (४७८७) भार्यादिकाथः (२) उचटाचूर्णमप्येवं शतावर्याश्च योजयेत् ॥ (भै. र.; वृ. नि. र. । ज्वरा.) भिलावे ४ नग, गायका दूध ४ सेर और | भार्गीगुडूचीघनदारुसिंहीपानी १६ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर शुण्ठीकणापुष्करजः कषायः । पकावें जब पानी जल जाय तो दूधको छान लें । | ज्वरं निहन्ति श्वसनं क्षिणोति यथाशक्ति यह दूध सेवन करनेसे जीर्ण मनु - क्षुधां करोति प्ररुचिं तनोति ॥ ष्य भी बलवान और वीर्यवान हो जाता है। । भरंगी, गिलोय, नागरमोथा, देवदारु, कटेली, सेठ, पीपल और पोखरमूलका काथ पीनेसे ज्वर इसी प्रकार उटङ्गणके बीजोंका चूर्ण तथा और श्वास नष्ट होते हैं तथा क्षुधा और अग्निशतावर का चूर्ण सेवन करनेसे भी बलवीर्यकी की वृद्धि होती है। वृद्धि होती है। । (४७८८) भाादिक्काथः (३) (४७८५) भल्लातकादियोगः (२) (भै. र.; धन्व. । ज्वरा. ) (ग. नि.; वृ. मा.; वृ. नि. र.; व. से.; ध. व. भार्थब्दपर्पटकपुष्करशृङ्गवेरभा. प्र. । ऊरुस्तम्भा.) पथ्याकणादशमूलकृतः कषायः। For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् तृतीयो भागः। [६१७] सधो निहन्ति विषमज्वरसन्निपात भरंगी, पित्तपापड़ा, सांठ, बासा, पीपल, जीर्णज्वरश्चयथुशीतकवहिसादम् ॥ चिरायता, नीमकी छाल, गिलोय, नागरमोथा और भरंगी, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, पोखरमूल, धामन वृक्षकी छाल समान भाग लेकर काथ सोंठ, हर्र, पीपल और दशमूल समान भाग लेकर बनावें। काथ बनावें। यह काथ जीर्णज्वर, धातुगतज्वर, विषमज्वर ___ यह काथ विषमज्वर, सन्निपात, जीर्ण और उपद्रव युक्त भयङ्कर ज्वरादि समस्त ज्वरोको नष्ट करता है। ज्वर, शोथ, शीत और अग्निमांद्यको नष्ट ___यदि इसे केवल दो दिन ही सेवन कर करता है। लिया जाय तो रोगी यमराजके फन्देसे छूट (४७८९) भाग्र्यादिकाथ: (४) | जाता है। (व. से. । कासा.; यो. र. । कासश्वासा.; वृ. । (४७९१) भाादिक्काथः (६) नि. र. । कासा.; वृ. यो. त. । त. ७८) (यो. र.; . नि. र. । ज्वर.) भार्डी सनागरां सिंहों कुलित्थं मूलकं तथा। भार्यब्दपर्पटकधन्वयवासविश्वपिबेपिप्पलीचूर्णेन कासश्वासं व्यपोहति ॥ । भूनिम्बकुष्ठकणसिंह्यमृताकषायः । भरंगी, सांठ, कटेली, कुलथी और मूली | जीर्णज्वर सततसन्ततको निहन्यासमान भाग लेकर काथ बना लीजिये। दन्येधुकं सहतृतीयचतुर्थको च ॥ इस काथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे भरंगी, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, धमासा, खांसी और श्वास का नाश होता है । सांठ, चिरायता, कूठ, पीपल, कटेली और गिलोय समान भाग लेकर काथ बनावें । (४७९०) भार्यादिकाथः (५) ___ यह काथ जीर्णज्वर, सतत, सन्तत, अन्येयुः ( यो. र.; वृ. नि. र. । ज्वरा.) तृतीयक और चातुर्थिक ज्वरको नष्ट करता है। भार्गीपर्पटविश्ववासक (४७९२) भाादिकाथः (७) ___ कणाभूनिम्बनिम्बामृता (यो. र.; वृ. नि. र. । सन्निपाता.) मुस्ताधवकभेषजैस्तु भार्गीपुष्करपथ्यानिदिग्धिकानागरामृताकाथः। । दशभिर्हन्तीह सर्वज्वरान् । अपनयति तन्द्रिकमिमं निःसंशयं प्रगे पीतः॥ जीर्णान्धातुगतांस्तथा च भरंगी, पोखरमूल, हर्र, कटेली, सोंठ, और विषमान्सोपद्रवान्दारुणान् गिलोय समान भाग लेकर काथ बनावें । क्वाथोऽयं यदि युग्मवासर-- यह काथ तन्द्रिक सन्निपातको अवश्य नष्ट मितं दत्तो यमादक्षति ॥ कर देता है। For Private And Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुaीरशृङ्गीकटुकारसाभिः www.kobatirth.org [ ६१८ ] (४७९३) भार्ग्यादिकाथः (८) ( भा. प्र. म. ख. ज्वरा ; वृ. नि. र. । सन्नि. ) भाङ्गजया पौष्करकण्टकारी कटुत्रिकोग्रावनकुण्डलीभिः भारत - मैषज्य रत्नाकरः । ( हा. सं. । स्था. ३ अ. १२ ) भार्ग्याच नागपिप्पल्याः पिबेत् कार्य सुखोष्णम् कफे का प्रतिश्याये श्वांसे हृद्रोगसञ्ज्ञके ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ अकारादि भरंगी और गजपीपलका मन्दोष्ण काथ पीनेसे कफ, खांसी, प्रतिश्याय स्वास और हृद्रोग नष्ट होता है । कृतः कषायः किल कर्णकः ॥ भरंगी, अरणी, पोखरमूल, कटेली, सोंठ, मिर्च, पीपल, बच, जंगली जिमीकन्द, काकड़ासिंगी, कुटकी और रास्ना समान भाग लेकर काथ बनावें । यह काथ कर्णक सन्निपातको अवश्य नष्ट कर देता है 1 (४७९४) भार्ग्यादिकाथ: (९) ( च. द.; ग. नि. । ज्वरा. ) भाङ्ग पुष्करमूलं च रास्नां बिल्वं यवानिकाम् । नागरं दशमूलं च पिप्पलीं चाप्सु साधयेत् ॥ सन्निपातज्वरे देयं हृत्पार्श्वानाहशूलिनाम् । कासश्वासाग्निमन्दत्वं तन्द्रीं च विनिवर्तयेत् ॥ भरंगी, पोखरमूल, रास्ना, बेलकी छाल, अजवायन, सोंठ, दशमूल और पीपल समान भाग लेकर काथ बनावें । चिरायता और सेठका कल्क खाकर ऊपरसे पुनर्नवा ( साठी - बिसखपरे ) का काथ पीने से इसके सेवनसे सन्निपात ज्वर, हृदय और सर्वाङ्गगत शोथ अवश्य नष्ट हो जाता है । पसलीका शूल, आनाह, खांसी, श्वास, और तन्द्रा नष्ट होती है । (४७९५) भार्ग्यादिकाथ : (१०) अग्निमांद्य (४७९८) भूनिम्बादिकषायः (१) (बृ. नि. र. । ज्वरा. ) (४७९६) भाग्यदिगणः (व. से. । ज्वरा. ) भाfपुष्करमूलञ्च मुस्तकं कण्टकारिका । त्रिकण्टकवृहत्यौ च कर्णिनी नागरैः श्रुतैः ॥ re भाग्यदिको नाम्ना पित्तश्लेष्मज्वरापहः । हृल्लासारोचकच्छर्दितृष्णादाहविबन्धनुत् || भरंगी, पोखरमूल, नागरमोथा, कटेली, गोखरु, बड़ी कटेली (बनभण्टा), कर्णिनी और सांठ समान भाग लेकर काथ बनावें । यह काथ पित्तकफज ज्वर, हल्लास, अरुचि, छर्दि, तृष्णा, दाह और विबन्धको नष्ट करता है । (४७९७) भूनिम्बादिकल्कः (वं. से.; वृ. नि. र. । शोथा. ) भूविम्बविश्वकल्कं जग्ध्वा पीतः पुनर्नवाकाथः । अपहरति नियतमाशु श्वयथुं सर्वाङ्गजं नृणाम् ॥ भूनिम्बतिक्काजलचन्दनं च धानेय पथ्या दशमूलसङ्काः । बेरविश्वाकरमर्दका च एषां शृतं पित्तमरुज्ज्वरेष्टम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपायकरणम् ] हतीवो भागः। [६१९] चिसयता, कुटकी, सुगन्धवाला, लाल चन्दन, | वासागुञ्चिधनयोजनपल्यनन्ताधनिया, हरी, दशमूल, खस, सांठ और करौंदा । पायन्तिकाद्विरजनी त्रिफलाजगन्धाः॥ सम्मन भाग लेकर काथ बनावें । कृष्णेन्द्रग्रलमुरवारुणिसोमराजीइसे सेवन करनेसे वातज ज्वर नष्ट होता है। बेल्लामिशृङ्गमलयूसरदारुविधाः। पत्तपयकशवावरिसप्तपणे(४७९९) भूनिम्बादिकषायः (२) रेभिः कृतो विधिवदेष महाकपायः॥ (ग. नि. । विस्फोट.) पीतो जयत्यखिलधातुगतानि कुष्ठाकर्षयं च भूनिम्बं तदर्धे निम्बमेव च। न्येतत्पशाम्यति सशोणितमामवातम् । पाण्डुप्रमेहपिटिकाकृमिशोथदुष्टकायस्तयोस्त्रहं पीतः सर्वविस्फोटनाशनः ॥ नाडीभगन्दरव्रणाऱ्यांदगण्डमालाः ॥ २॥ तो. चिरायता और ११ तोला नीमकी चिरायता, नीमकी छाल, खैरसार, असना छाल लेकर दोनोंका काथ बनाकर ३ दिन पीनेसे सर्व प्रकारका विस्फोटक रोग नष्ट होता है। वृक्षकी छाल, अमलतास, मुलैठी, पटोल (परवल), कुटकी, कूठ, पाठा, बासा, गिलोय, नागरमोथा, (४८००) भूनिम्बादिकषाय: (३) मजीठ, अनन्तमूल, त्रायमाणा, हल्दी, दारुहल्दी, (ग. नि. 1 ज्वरा.) हर्र, बहेड़ा, आमला, बन तुलसी, पीपल, इन्द्रजौ, भूनिम्बकल्याणकनिम्बच्छिन्ना ऋद्धि, भुईआमला, बाबची, बायबिडंग, चीता, रास्नाम्बुदोशीरकनिम्बकं च । भंगरा, कठूमर (कठगूलर), देवदार, सोंठ, पतङ्ग, पनाक, शतावर, और सतौना ( सप्तपर्ण) समान भिषकसुमाताकटुकायवासा भाग लेकर काथ बनावें। द्वन्द्वज्वरं हन्ति कृतः कषायः॥ चिरायता, पित्तपापड़ा, नीमकी गिलोय,रास्ना, ___इसे सेवन करनेसे समस्त धातुगत कुष्ठ, नागरमोथा, खस, नीमकी छाल, बासा, कुटकी और | वातरक्त, आमवात, पाण्ड, प्रमेह, पिडिका, कृमि, शोथ, दुष्ट नाडीव्रण, भगन्दर, व्रण, अर्बुद (रसौली) जवासा समान भाग लेकर काथ बनावें । और गण्डमाला का नाश होता है। यह काथ द्वन्द्वज ज्वरको नष्ट करता है । (४८०२) भूनिम्बादिकाथः (२) (४८०१) भूनिम्बादिकाथः (१) (वै. जी. । विला. ४; वृ. नि. र.; यो. र. । (वृ. मा. । कुष्ठा.) अम्लपित्ता.) भूनिम्बनिम्बखदिरासनराजा भूनिम्बनिम्बत्रिफलापटोली यष्टीपटोलकटुरोहिणीकृष्ठपाठाः। । वासामृतापर्पटभृजराजैः। For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६२०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [भकारादि काथो हरेत्क्षौद्रयुतोऽम्लपित्तं । (परवल), हरे, बहेड़ा, आमला, लाल चन्दन और चित्तं यथा वारवधूविलासः ॥ नीमकी छाल समानभाग लेकर काथ बनावें । चिरायता, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, यह काथ विसर्प, दाह, ज्वर, मुखशोष, विस्फोपटोलपत्र, बासा, गिलोय, पित्तपापड़ा, और भंगरा टक, तृष्णा और वमनका नाश करता है। समान भाग लेकर काथ बनावें । (४८०५) भूनिम्बादिकाथः (५) इसमें शहद मिलाकर सेवन करनेसे अम्ल (वै. र.; वृ. नि. र.; व. से. । ज्वरा) पित्त नष्ट हो जाता है। अनिम्बातिविषालोध्रमुस्तकेन्द्रयवामृताः । वालकंधान्यबिल्वे च कषायो माक्षिकान्वितः॥ (४८०३) भूनिम्बादिकाथः (३) विड्भेदश्वासकासांश्च रक्तपित्तज्वरं हरेत् ।। (ग. नि. । क्रिमिरोगा.) चिरायता, अतीस, लोध, नागरमोथा, इन्द्रजौ, भूनिम्बदन्तीत्रिफलाविशाला | गिलोय, सुगन्धबाला, धनिया और बेलगिरी समान त्रिन्निशायुग्मविडङ्गचित्राः । | भाग लेकर काथ बनावें। कृतः कषायः कफवातहन्ता इसमें शहद मिलाकर पीनेसे अतिसार, श्वास, क्रिमिज्वरच्छर्दिनिवारणोऽयम् ॥ खांसी, रक्तपित्त और ज्वर नष्ट होता है । चिरायता, दन्तीमूल, हरै, बहेड़ा, आमला, | (१८०६) भूनिम्बादिक्वाथः (६) इन्द्रायणमूल, निसोत, हल्दा, दारुहल्दा, बायबिड़ग | (वृ. यो. त.। त. ५९: वृ. नि. र. । ज्वरा.: और चीतेकी जड़ समानभाग लेकर काथ बनावें । शा. ध. । खं. २ अ. २) यह काथ कफ, वायु, कृमि, ज्वर और छर्दिका भनिम्बनिम्बपिप्पल्यः सटी शुण्ठी शतावरी । नाश करता है। गुडूची बृहती चेति काथो हन्यात्कफज्वरम् ।। (४८०४) भूनिम्बादिक्काथः (४) ___ चिरायता, नीमको छाल, पीपल, कचूर, सेठ, (ग. नि.; यो. र. : विस्फोटा.; वृ. नि. र. शतावर, गिलोय और कटेलीका काथ बनाकर पीने यो. र.; व. से. । विसर्पा.) से कफचर नष्ट होता है। भूनिम्बवासाकटुकापटोल (४८०७) भूनिम्बादिकाथः (७) फलत्रिकाचन्दननिम्बसिद्धः । (वृ. नि. र.। वातकफवरा.) विसर्पदाहज्वरवक्त्रशोष | भूनिम्बमुस्ताकटुकागुडूची _ विस्फोटतृष्णावमिनुत्कषायः ॥ दुरालभापपेटनागराख्यः । चिरायता, बासा (अडूसा), कुटकी, पटोल १ वासकं नागर बिल्वमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६२१] कायोऽनिल श्लेष्महरो वदन्ति । (४८१०) भूनिम्बादिसप्तका सूर्यों यथा नाशयतेन्धकारम् ॥ (ग. नि. । मसूरिका.) चिरायता, नागरमोथा,कुटकी, गिलोय, धमासा, | भूनिम्बनिम्बविश्वापर्पटहीबेरधान्यवरैः। पित्तपापड़ा, और सांठ समान भाग लेकर काथ बनावें। | काथः प्रातः पीतो विनिहन्ति सकष्टां शीतलीम् ॥ यह काथ वातकफ ज्वरको इस प्रकार नष्ट चिरायता, नीमकी छाल, सेठ, पित्तपापड़ा, कर देता है जैसे अन्धकारको सूर्य । सुगन्धबाला, धनिया और बासेका काथ बनाकर (१८०८) भूनिम्बादिकाथः (८) प्रातःकाल सेवन करनेसे दुखदायी शीतला नष्ट हो जाती है। (यो. र.; व. से. । विस्फोटा.; वृ. यो. त.। त. १२५) (४८११) भूनिम्बाद्यष्टादशाङ्गकाथ: भूनिम्बनिम्बवासाथ त्रिफलेन्द्रयवासकाः। (भै. र. । ज्वरा.; हा. सं.। स्था. ३ अ. २; पिचुमन्दः पटोली च काथमेषां सशर्करम् ॥ यो. त. । ज्वर. यो. चि. म. | अ. ४ पीत्वा विमुच्यते नूनं कफविस्फोटकानरः ।। काथा.; ग. नि. । ज्वरा.) चिरायता, नीमकी छाल, वासा (अडूसा), भूनिम्बदारुदशमूलमहौषधाब्द तिक्तेन्द्रबीजधनिकेमकणाकषायः । हरे, बहेड़ा, आमला, इन्द्रजौ, जवासा, नीमकी छाल तन्द्रामलापकसनारुचिदाहमोहऔर पटोल ( परवल ) समान भाग लेकर काथ | बनावें। __श्वासादियुक्तमखिलं ज्वरमाशु हन्ति ॥ ___ इसमें खांड मिलाकर पीनेसे कफज विस्फोटक चिरायता, देवदारु, दशमूल, सोंठ, नागर मोथा, कुटकी, इन्द्रजौ, धनिया और गजपीपल रोग अवश्य नष्ट हो जाता है। (नीमकी छाल २ बार आई है इस लिये २ समान भाग लेकर काथ बनावें। भाग लेनी चाहिये और अन्य पदार्थ १-१ भाग।) ___ यह काथ तन्द्रा, प्रलाप, खांसी, अरुचि, (४८०९) भूनिम्बादिकाथ: (९) दाह, मोह और श्वासादि उपद्रव युक्त समस्त ज्वरों (वं. से. । मसूरिका.) को नष्ट करता है। भूनिम्बमुस्तकं वासा त्रिफलेन्द्रयवासकम् । । (४८१२) भृगराजरसायनम् पिचुमन्दं पटोलश्च सक्षौद्रं योजितं हितम् ॥ । (वृ. मा. । रसायना.; यो. त. । त. ७९) चिरायता, नागरमोथा, बासा, हर्र, बहेड़ा, | ये मासमेकं स्वरसं पिबन्ति आमला, इन्द्रजौ, जवासा, नीमकी छाल और पटोल दिने दिने भृङ्गरजः समुत्थम् । ( परवल ) के काथमें शहद मिलाकर पीना मसू- | क्षीराशिनस्ते बलवर्णयुक्ताः रिका में हितकर है। समाः शतं जीवितमाप्नुवन्ति । For Private And Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२२] भारत-भैषज्य-रत्नाकर [भकाररादि १ मास तक भंगरेका स्वरस सेवन करने | ईख (गन्ने, को अनिमें सेककर उसका रस और दुग्धाहार पर रहनेसे बलवर्णयुक्त १०० वर्ष | निकालें और उसमें चूहेकी मीमन मिलाकर रोगी की आयु प्राप्त होती है। को पिला दें। (४८१३) भृष्टमुद्गादिकषायः यह प्रयोग मूत्रकृच्छ्रको अत्यन्त शीघ्र नर (ग. नि. । छर्य ; वृ. मा. । छZ.) कर देता है। कषायो भृष्टमुद्गस्य सलाजमधुशर्करः । (४८१५) भेदनीयकषायदशक: छर्घतीसारदाइन्नो ज्वरनः संप्रकाशितः ।। (च. सं. । अ. ४ सूत्रस्थान) भुनी हुई मूंगके काथमें धानकी खीलांका सुवहार्कोस्बूकानिमुखीचित्राचित्रकचिरचूर्ण तथा शहद और मिश्री मिलाकर पीने से छर्दि, बिल्वशक्निीसकुलादनीस्वर्णक्षीरिण्य इति दशेअतिसार, दाह और ज्वर नष्ट होता है। मानि भेदनीयानि भवन्ति ॥ (४८१४) भृष्टेक्षुरसपानम् निसोत, आक, अरण्ड, लांगली (कलिहारी), (वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छा .) दन्ती, चीता, करन, शंखिनी, कुटकी और स्वर्ण भृष्टास्वरसं ग्राह्यमाखुविद्विहितं पिबेत् । क्षीरी । इन दश ओषधियों के समूहको भेदनीय नाशयेन्मूत्रकृच्छ्राणि सब एव न संशयः ॥ । कषायदशक कहते हैं । शति भकारादिकषायप्रकरणम् । अथ भकारादिचूर्णप्रकरणम्। (४८१६) भद्रदादिचूर्णम् | सार सेवन करनेसे अफारा और उदावर्त नष्ट ( वृ. नि. र. । आनाहोदावर्ता.) होता है। भद्रदारु धनं मूवी हरिद्रा मधुकं तथा। ( व्यवहारिक मात्रा-३ माशे ।) कोलप्रमाणं तु पिवेदन्तरिक्षेण वारिणा ॥ (४८१७) भद्रमुस्तादिचूर्णम् देवदारु, नागरमोथा, मूर्वा, हल्दी और मुलैठी (वृ. नि. र.। कास.) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। भद्रमुस्ताकणाचूर्ण समांशं मधुना सह । इसे वर्षाजलके साथ आधा कर्षकी मात्रानु- निहन्ति भक्षितं शीघ्र श्लेष्मकासं न संशयः॥ For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पूर्णप्रकरणम् ] हतीपो भागः। [६१३] नागरमोथा और पीपलके समानभाग-मिश्रित | कर्ष मेथीवेल्लजीरसर्षपान्कोलमात्रतः। चूर्णको शहदके साथ सेवन करनेसे कफज खांसी । ततो यवान्यर्धपलं पिप्पलीरामठोषणम् ॥ शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। बिडसैन्धवजीरं च किर्माणीसज्ञकं तथा । (४८१८) भद्रादिपूर्णम् कर्षमयाणं विज्ञेयं वैधविधाविशारदैः ॥ (वृ. नि. र. । मूत्राघात.) सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य यथासात्म्यं तु भक्षयेत् । सदाभद्राश्मभिन्मूलं शतावर्याश्च चित्रकम् । दना सह तथा खादेत्सर्वांतीसारनाशनम् ॥ रोहिणीकोकिलाख्यौ च क्रौञ्चस्थूलत्रिकण्टकम्।। दो दो टुकड़े करके भूने हुवे मिलावे १० श्लक्ष्णं पिष्टं मुरापीतं भूत्राघातनिषूदनम् ॥ | तोले, सेठ ५ तोले, हर्र २॥ तोले, कर वे की खम्भारीकी छाल, पखानभेद, शतावर, चीते | गिरी १ तोला और मेथी, बायबिडंग, जीरा तथा की जड़, कुटकी, काकोली, कमलगट्टा और बड़े | सरसे ७॥-७॥ माशे, अजवायन २॥ तोले, पीपल, गोखरु समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । भुनी हुई हींग, काली मिर्च, बिड नमक, सेंधानमक, इसे सुराके साथ सेवन करनेसे मूत्राघात नष्ट काला जीरा और खुरासानी अजवायन १-१। तोला हो जाता है। लेकर चूर्ण बनावें। (मात्रा-२-३ माशे।) (४८१९) भर्जितहरीतकीयोगः इसे यथोचित मात्रानुसार दहीके साथ सेवन (वृ. नि. र. । ग्रहणी.) करनेसे समस्त प्रकारके अतिसार नष्ट होते हैं। घृतसम्भर्जिता पथ्या पिप्पलीगुडसंयुता। ( मात्रा-३ माशे।) भक्षयेद्वा त्रिद्धन्ति भक्षिता चानुलोमनी॥ | (४८२१) भल्लातकादिचूर्णम् (२) हर्रको धीमें भूनकर पीस लें और फिर उसमें (ग. नि. । अर्श. ) उसके बराबर पीपलका चूर्ण तथा गुड़ मिला लें । तिलारुष्करसंयोगं भक्षयेदनिवर्धनम् । इसे सेवन करनेसे ग्रहणी नष्ट होती और कुष्ठरोगहरं श्रेष्ठमर्शसां नाशनं परम् ।। वायु अनुलोम होता है। काले तिल और शुद्ध भिलावा समान भाग निसोतका चूर्ण खानेसे भी वायु अनुलोम | लेकर चूर्ण बनावें । होता है। __इसे सेवन करनेसे अग्नि दीप्त होती और कुष्ठ ( मात्रा-६ माशेसे ९ माशे तक । अनुपान उष्ण जल ।) तथा अर्शका नाश होता है। (४८२०) भल्लातकादिचूर्णम् (१) (४८२२) भल्लातकादिचूर्णम् (३) (यो. र.; धू. नि. र. । अतिसारा.) (यो. र. । क्रिमि.) भल्लातानां द्विखण्डानां द्वे पले भजिते क्षिपेत् । । भल्लातको वा दध्ना वा शुण्ठ्याः पलं तु तक्याः पलाई सुमनाफलम्॥ चिश्चाम्लेन हरेत्कृमीन् । For Private And Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६२४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [भकारादि शुद्ध भिलावेके चूर्णको दही या इमलीके पानी । इसे घीके साथ मिलाकर पीने या भोज्य के साथ सेवन करनेसे क्रिमिरोग नष्ट हो जाता है । पदार्थों में मिलाकर खानेसे हृद्रोग, पाण्डु, ग्रहणी, (४८२३) भल्लातकादिचूर्णम् (४) गुल्म, उदावर्त और शूल नष्ट होता है । (ग. नि. । अर्श.; हा. सं.१ । स्था. ३ अ. ११; ( मात्रा-१-१॥ माशा । ) वृ. नि. र.; यो. र.२ । आमवाता.) । (४८२५) भल्लातकाद्यं चूर्णम् तिलभल्लातकं पथ्या गुडश्चेति समांशकम् । (ग. नि. । कुष्ठा.) दर्नामश्वासकासन्नं प्लीहपाण्डुज्वरापहम् ॥ भल्लातको मार्कवशपुप्पी तिल, शुद्ध भिलावा, हर्र और गुड़ १-१ । ब्राह्मीवचाबाकुचिकाविडङ्गम् । भाग लेकर चूर्ण बनावें । फलत्रयं पिप्पलीका च चव्यं यह चूर्ण अर्श, श्वास, खांसी प्लीहा (तिल्ली), पाण्डु और ज्वरको नष्ट करता है । कुष्ठानि चूर्ण सघृतं निहन्ति । (४८२४) भल्लातकाद्यः क्षार: भिलावा, भंगरा, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, बच, . (ग. नि. । ग्रहणी.; यो. र. व. से.; वृ. नि.. बाबची, बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, पीपल र.। ग्रहण्य.; च. सं. । चि. अ. १९ ग्रहण्य.) । और चव समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । भल्लातकं त्रिकटुकं त्रिफलां लवणत्रयम् । इसे घृतके साथ. सेवन करनेसे कुष्ठ नष्ट अन्तर्धमं द्विपलिकं गोपुरीपाग्निना दहेत् ॥ | होता है । स क्षारःसपिषा पीतो भाज्य वाऽप्यवाणतः । (४८२६) भल्लातकामृतम् हृद्रोगपाण्डुग्रहणीगुल्मोदावर्तशूलनुत् ।। भिलावा, सांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, (वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) आमला, सेंधानमक, सञ्चल ( काला नमक ) और | गुडूचीलागलीशृङ्गीमुण्डीगुञ्जा च केतकी। बिड लवण १०-१० तोले लेकर सबको एक | षण्णां पत्ररसैध बालभल्लातबीजकं ॥ हाण्डीमें भरकर उसके मुखको बन्द कर दें और फिर दिनैकं मर्दयेद्गाद निष्काधं भक्षयेत्सदा । उसे गायके गोबरकी अग्निपर इतना पकावें कि भल्लातामृतयोगोयं सर्वार्थान् पित्तजान् जयेत् ॥ सब चीजोंकी भस्म हो जाय । तदनन्तर हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर कच्चे भिलावोंको गिलोय, कलियारी, काकपीस लें। | डासिंगी, गोरखमुण्डी, गुञ्जा ( चैटली) और १-हारीत संहितामें इसके गुण इस प्रकार लिखे केतकी; इन छः ओषधियोंके पत्तों के रसेकी हैं-इसके सेवनसे अर्श, प्रमेह, शूल और खांसी नष्ट | १-१ भावना देकर चूर्ण बना लें। होती है । इसे २ माशेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे २-यू. नि. र. और यो. र. में इसे आमवात आमवात पित्तज अर्श नष्ट हो जाती है। और कटिशल नाशक लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- - - - पूर्णप्रकरणम् तृतीयो भागः। (४८२७) भस्मार्कचूर्णम् तकेण कर्षामिदं प्रदेयं (ग. नि. 1 चूर्णा.) भस्मार्कचूर्ण दधिमस्तुना वा। युग संख्यानि दलानि पासे सकासे हृदयोपरोधे भानोश्चत्वारि काण्डानि सुधाद्रुमस्य । ___कण्ठाहे जीर्णगुडेन देयम् ।। सुरेन्द्रवल्ल्या दश सत्फलानि तेलेन शूले मधुनोदरेषु पश्चैव पत्राणि कुमारिकायाः ॥ गुल्मप्रकोपे फलपूरकेण । चत्वारि छन्ताकतरो फलानि सौवीरकेणाय सदा प्रयोज्य__व्याघ्रीचतुःषष्टिफलानि युक्त्या । मुष्णेन सर्वत्र जलेन देयम् ॥ पश्चाङ्गमेकं हरिपर्णकन्दं यथा मृगेन्द्रो द्विपदर्पहन्ता सिद्धार्थतैलं च पलप्रमाणम् ॥ वन यथा भूधरमध्यभेदि । यवाहसौवर्चलधूर्तवार्षः अयं तथा योगवरो जनानां पलं पले स्यात्क्रमशचतुर्णाम् । निहन्ति दुष्टानपि रोगसङ्घान् ॥ पलानि पश्चैव शिवाहयस्य । योगमदीपो मुनिमिः पुराणै____ गोरकं चाऽपि वदन्ति वैद्याः॥ निवेदितोमूलमसौ हितानाम् । गुरूपदेशादधिगम्य सम्य___ भाण्डे स्वबुद्धयाऽर्कदलानि मुक्त्वा । अनेन भीमादपि गाढवहिसर्वाणि चान्यानि महौषधानि नरोभवेत्पथ्यहितोपचारैः॥ ___ आकके पत्ते १२ नग, सेहुंड (सेंड-थूहर) सिद्धार्थतैलेन विमिश्रितानि ॥ प्रक्षिप्य संरुद्धय मुखं तदीयं के काण्ड ( तन्ने-डंडी) ४ नग, इन्द्रायनके मृत्कटं सन्धिषु वेष्टनीयम् । फल १० नग, ग्वारपाठा (घृप्तकुमारी ) के पत्र गम्भीरगर्ने कुहरे निवेश्य ५ नग, बैंगन ४ नग, कटेलीके फल ६४ नग, मच्छादनीय छगणैः प्रभूतः ।। पत्तों सहित मूली १ नग, सरसेका तैल ५ तोळे, उत्तार्य यत्नेन सुशीतलं तं इन्द्रजौ, सञ्चल ( कालानमक ), धतूरा और पीपल क्षारं चतुर्भिः प्रहरैः मुसिद्धम् । ५-५ तोले, हर्र २५ तोले तथा गोखरु २५ तोले सूक्ष्मीकृतं जीरककर्षषट्क लेकर एक मजबूत हाण्डीमें नीचे आकके पत्ते मध्ये क्षिपेदर्धपलं क्षवस्य ॥ बिछा दें और फिर अन्य ओषधियोंके चूर्णमें तैल तदान्यवाते ह्यथ पाण्डुरोगे मिलाकर उसे उसमें भर दें। एवं उसके मुखपर ढकना भगन्दराजीर्णविचिकाम। रखकर सन्धिपर कपरमिट्टी कर दें और उसे सुखाआनाहबन्धे ग्रहणीविकारे कर हाण्डीको एक अच्छे गहरे गढ़ेमें रखकर उसके पाषाणिके विद्रधिमूत्रकृच्छ्रे ॥ ऊपर बहुतसे उपले डालकर ४ पहरकी आग दें। For Private And Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२६] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [भकारादि - - तत्पश्चात् उसके स्वांगशीतल होने पर हाण्डीमें | इन गोलियोंको अथवा केवल बहेड़ेको से भस्मको निकालकर पीस लें और उसमें ७॥ | मुंहमें रखनेसे भी हर प्रकारकी खांसी और स्वासका तोले जी रे तथा २॥ तोले सरसेांका बारीक चूर्ण | नाश हो जाता है। मिलाकर सुरक्षित रक्खें। __ सेठ और हर्रका चूर्ण सेवन करने से भी ___ इसे तक या दहीके तोड़के साथ सेवन खांसी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। करनेसे आढयवात (वातरक्त ), पाण्डु, भगन्दर, (४८२९) भार्यादिचूर्णम् (२) अजीर्ण, विसूचिका, आनाह, विबन्ध, ग्रहणी रोग, ( यो. र. । ज्वरा.; . नि. र. । विषमज्वर. ) पथरी, विद्रधि और मूत्रकृच्छू नष्ट हो जाता है । | भाी कर्कटशृङ्गी च चव्यं तालीसपत्रकम् । श्वास, खांसी, हृदयोपरोध और कण्ठग्रहमें मरीचं मागधीमूलं प्रत्येकं द्विपलं भवेत् ॥ पुराने गुड़के साथ सेवन करना चाहिये। | षट्पलं शृङ्गबेरं च द्विपलं पिप्पलीद्वयम् । शूलमें तेलके साथ, उदरमें शहदके साथ | चातुर्जातमुशीरं च पलमेकं पृथक् पृथक् ॥ और गुल्ममें बिजौ रेके रसके साथ देना चाहिये । चातुर्जातसमा शुभ्रा शर्करा समयोजिता । - इसे सौवीरक या उष्ण जलके साथ देनेसे | ज्वरमष्टविषं हन्ति कासं श्वासं च दारुणम् ॥ भी उपरोक्त समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। शोफशूलोदराध्मानदोषत्रयहरं परम् ॥ यदि पथ्य पालन पूर्वक इसे सेवन किया जाय । भरंगी, काकड़ासिंगी, चव, तालीसपत्र, कालीतो जठराग्नि भीमसे भी अधिक तीन हो जाती है । मिर्च और पीपलामूल १०-१० तोले; सेठ ३० (१८२८) भाग्यांदिचूर्णम् (१) तोले, पीपल और गजपीपल १०-१० तोले; (यो. र.; वृ. नि. र. । कासा.) दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर और खस भार्गीशुण्ठीकणाचूर्ण गुडेन श्वासकासनुत् । ५-५ तोले और सफेद खांड २० तोले लेकर पथ्याशुण्ठीगुढ्युतां गुटिकां धारयेन्मुखे ॥ यथाविधि चूर्ण बनावें। सर्वेषु श्वासकासेषु केवलं वा बिभीतकम् । यह चूर्ण आठ प्रकारके ज्वर, भयङ्कर खांसी, नागरेणाभया तद्वत्कासमाशु व्यपोइति ॥ श्वास, शोथ, शूल, उदररोग, आध्मान और ___भरंगी, सेठ और पीपलका चूर्ण १-१ त्रिदोषको नष्ट करता है। भाग लेकर उसे ३ भाग गुड़में मिलावें। ( मात्रा--३-४ माशे । ) - यह चूर्ण श्वास और खांसीको नष्ट करता। (४८३०) भाग्र्यादिचूर्णम् (३) | ( यो. र. । गुल्मा.: वा. भ. । चि. अ. १४) हर और सांठके समान भाग-मिश्रित चूर्णको | भार्गीकृष्णाकरञ्जत्वग्रन्थिकामरदारजम् । उससे २ गुने गुड़में मिलाकर गोलियां बनावें। चूर्ण तिलानां कायेन रक्तगुल्मरुजापहम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] तृतीयो भागः। [६२७] भरंगी, पीपल, करञ्जकी छाल, पीपलामूल | पिप्पली पिप्पलीमूलं कृष्णजीरकपत्रकम् । और देवदारु समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । नागकेसरतालीसमम्लवेतसकं तथा ॥ इसे तिलके काथके साथ सेवन करनेसे रक्त- द्विकर्षमात्राण्येतानि प्रत्येकं कारयेद् बुधः । गुल्म नष्ट होता है। मरिचं जीरकं विश्वमेकैकं कर्षमात्रकम् ॥ ( मात्रा--३-४ माशे ।) दाडिमं स्याश्चतुःकर्ष त्वगेला चार्धकार्षिकी । (४८३१) भाादियोगः (१) बीजपूररसेनैव भावितं सप्तवारकम् ॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. ५७) एतच्चूर्णीकृतं सर्व लवणं भास्कराभिधम् । भार्गीरास्नाकर्कटकचूर्ण वा मधुसंयुतम् । शाणप्रमाणं देयं तु मस्तुतक्रसुरासवैः॥ लेहो वा बालकस्यापि श्वासकासनिवारणः ॥ वातश्लेष्मभवं गुल्मं प्लीहानमुदरं क्षयम् । भरंगी, रास्ना और काकड़ासिंगीके चूर्णको अर्शीसि ग्रहणी कुष्ठं विवन्धं च भगन्दरम् ।। शहदमें मिलाकर चटानेसे बालकांकी खांसी और | शोफ शूलं श्वासकासमामदोषं च द्रुजम् । स्वासका नाश होता है। मन्दाग्निं नाशयेदेतद्दीपनं पाचनं परम् ॥ (१८३२) भाग्यांदियोगः (२) सर्वलोकहितार्थाय भास्करणोदितं पुरा॥ (वृ. मा.; वृ. नि. र.; योग. र. । हिक्का.) सामुद्रलवण १० तोले, सञ्चल (कालानमक) हिकायासी पिबेद्धार्की सविश्वामुष्णवारिणा। ६। तोले, विडलवण, सेंधानमक, धनिया, पीपल, नागरं वा सिताभाीसौवर्चलसमन्वितम् ॥ पीपलामूल, कालाजीरा, तेजपात, नागकेसर, ताली___ भरंगी और सांठके समान भाग-मिश्रित सपत्र और अमलबेत २॥---२॥ ताले, काली पूर्णको गर्म पानीके साथ सेवन करने से या सेठ मिर्च, सफेद जीरा और सेठ ११-१३ तोला, मिसरी, भरंगी और सञ्चल (काला नमक ) का चूर्ण | अनारदाना ५ तोले तथा दालचीनी और इलायची खानेसे हिचकी और श्वास नष्ट होता है । ७||-७।। माशे लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें और __भास्करचूर्णम् उसे बिजौ रे नीबूके रसकी सात भावना देकर रखें। (वा. भ. । उ. अ. १३) अजनप्रकरणमें देखिये।। इसे ५ माशेकी मात्रानुसार, मस्तु, सुरा या (४८३३) भास्करलवणचूर्णम् तक्र अथवा किसी रोगोचित आसवके साथ (शा. ध.। खं. २ अ. ६; यो. र. । गुल्मा.; | | खाना चाहिये। यो. र.; वृ. मा.; व. से. । अजीर्णा.; च. द.; - मै. र. र. र. । अग्निमांध.) इसके सेवनसे वातकफज गुल्म, तिल्ली, उदसामुद्रलवर्ण कार्यमष्टकर्षमितं बुधैः। ररोग, क्षय, अर्श, ग्रहणी रोग, कुष्ठ, विबन्ध, भगपचासौवर्चलं ग्रामं विडं सैन्धवधान्यके ॥ । न्दर, शोथ, शूल, श्वास, खांसी, आमविकार, For Private And Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - [६२८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि हृदयकी पीड़ा और अग्निमांयका नाश होता है ।। सकलिङ्गवचास्तुल्या द्विगुणाश्च यथोत्तरम् । यह दीपन और पाचन है। लिह्यादन्तीत्रिवृदब्रायश्चूर्णिता मधुसर्पिषा ।। भूतभैरवचूर्णम् कुष्ठममेहमृप्तीनां परमं स्यात्तदौषधम् ॥ (र. चं.; भा. प्र. । ज्वरा.) चिरायता, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, रसप्रकरणमें देखिये। पभाक, अतीस, पीपल, मूर्वा, पटोल, हल्दी, दारु(४८३४) भूधाच्यादियोगः हल्दी, पाठा, कुटकी, इन्द्रायणकी जड़, इन्द्रजौ (कृ. नि. र. । प्रमेह.; यो. र. । प्रमेहा.) और बच १-१ भाग, दन्ती २ भाग, निसोत ४ भूधात्री च त्रिगघाणं मरीचानां च विंशतिः। भाग और ब्राह्मी ८ भाग लेकर कूट छानकर असाध्यान्साधयेन्मेहान् सप्तरात्राम संशयः॥ चूर्ण बनावें। भुईआमला ३ भाग और काली मिर्च २० इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे सात दिन तक सेवन करनेसे असाध्य प्रमेह भी नष्ट हो जाते हैं। कुष्ठ, प्रमेह और सुप्ति (सुन्नबहरी ) रोग नष्ट होता है। इन रोगांकी यह एक उत्तम औषध है। (४८३५) भूनिम्बादिक्षारः । (च. सं. । चि. अ. १९ ग्रहण्य.; वा. भ. । ( मात्रा--३-४ माशे । ) चि. अ. १० व. से. । ग्रहणी. ) (४८३७) भूमिम्बाचं चूर्णम् (१) भूनिम्बं रोहिणी तिक्तां पटोले निम्बपर्पटम् । दहेन्माहिषमूत्रेण क्षार एषोऽनिवर्दनः॥ ( ग. नि.; वृ. नि. र.; यो. र. । ग्रहण्य.; यो. चिरायता, कुटकी, पटोल, नीमकी छाल और त.। त. २२; च. स. । चि. अ. १९ ग्रहणी.; पित्तपापड़ा समान भाग लेकर अधकुटा कर लें ग. नि. । चूर्णा.; व. से.; च. द.; वृ. और फिर एक मजबूत हाण्डीमें १ भाग यह नि. र.; वृ. मा.; यो. र. । ग्रहण्य.) पूर्ण तथा ४ भाग भैसका मूत्र भरकर उसका मुख भूनिम्बकौटजकटुत्रिकमुस्ततिक्ताः बन्द करके इतना पकावे कि सब चीजें जलकर उनकी भस्म बन जाय । कर्षांशकाः सशिखिमूलपिचुद्वयाः स्युः। इसके सेवनसे अग्नि दीत होती है। त्वक्कौटजी पलचतुष्कमिता गुडाम्भ:( मात्रा-१॥-२ माशे ।) पीतं नृणामिह हरेन्द्रहणीविकारम् ।। (४८३६) भूनिम्बादिचूर्णम् .: चिरायता, कुड़ेके बीज (इन्द्रजौ ), सोंठ, (वा. भ. 1 चि. अ. । १९; ग. नि. । कुष्ठा.) | मिर्च, पीपल, नागरमोथा और कुटकी ११-१॥ भूनिम्बनिम्बत्रिफलापनकातिविषाकणाः। तोला, चीते की जड़ २॥ तोले और कुड़ेकी छाल मूर्वा पटोली द्विनिशा पाठातिक्तेन्द्रवारुणीः॥ २० तोले लेकर कूट छानकर चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चूर्णमकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ६२९] इसे गुड़के शरबतके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी सर्व वत्सकसप्तकर्षसहितं शुष्कं तु चूर्णीकृतं वासायाः स्वरसेन भावितमिदं त्रीन् पञ्च विकार नष्ट होते हैं । | नोट --- चरकादिमें इसे मस्तुके साथ पीनेके लिये लिखा है तथा लिखा है कि यह चूर्ण ग्रहणी, कामला, पाण्डु, ज्वर, प्रमेह, अरुचि और अतिसारको नष्ट करता है । (४८३८) भूनिम्बार्थ चूर्णम् (२) ( यो. र. 1 सन्निपाता. ) भूनिम्बमाक्षिकवचासहितं च कुर्या लेहं कणोषणर सोनसुराजिकाभिः । नेत्राञ्जनं च लवणोत्तमपिप्पलीभ्यां नस्यं वचामरिचहिङ्गुमधूकसारैः ॥ सन्निपात ज्वरमें- (१) चिरायता, बच, पीपल, कालीमिर्च, लहसन और राई समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसे शहदके साथ चटावें । (२) सेंधा नमक और पीपल समान भाग लेकर अत्यन्त बारीक पीसकर आंखमें उसका अञ्जन लगावें । (३) बच, कालीमिरच, हींग और महुवेका गाँदै समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसकी | नस्य दें | (४८३९) भूनिम्बाद्यं चूर्णम् (३) (ग.नि. व. से. र. र. 1 विद्रध्य.; ग. नि. । चूर्णा. ) भूनिम्बार्धपलं निशापलयुतं दार्वी पले द्वे तथा दार्धेन पुनर्नवां कुरु समां दार्वीसमः प्रग्रहः । सार्धं दुःस्पर्शपलं तु कटुका योज्या तदर्धेन वै अवाहं निशया समानममृता कर्षास्तु पञ्चैव तु ।' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वा वासरान् । भूयस्तद्गुडवारिणा प्रतिदिनं पीतं पुरस्थे रवौ पुंसां विद्रधिनाशनं तु कथितं प्रोक्तं स्वयं ब्रह्मणा ॥ चिरायता आधा पल, हल्दी १ पल (५ तोले), दारूहल्दी २ पल, पुनर्नवा ( बिसखपरा ) १ पल, अमलतास २ पल, धमासा १॥ पल, कुटकी पौन पल ( ३|| तोले ), असगन्ध १ पल, गिलोय ६। तोले और कुड़ेकी छाल ८|| तोले लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें और उसे ३ या ५ दिन बासेके रस में घोटें । इसे गुड़के शरबतके साथ सेवन करने से विद्रधि नष्ट होती है । ( मात्रा- - ३-४ माशे ) (४८४०) भूनिम्बाद्योलम् ( वृ. मा. व. से. ; वृ. नि. र. । ज्वर.; वै. र. । ज्वरा . ) भूनिम्बः कारवी तिक्ता वचा कटूफलजं रजः । एतदुद्धूलनं श्रेष्ठं सन्ततस्वेदसम्भवे ।। चिरायता, कलौंजी, कुटकी, बच और कायफल समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें । ज्वर में आवश्यकतासे अधिक पसीना निकलता हो तो शरीरपर इस चूर्णकी मालिश करनी चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ६३० ] (४८४१): भूमिकूष्माण्डादियोगः ( व. से. । स्त्री.; यो. र. । स्तनदोष . ) भूमिकूष्माण्डमूलं पिबति क्षीरेण या नारी । सशर्करेणैव पुष्टा त्यतिशयदुग्धवती सा भवति ॥ जो स्त्री बिदारीकन्दके चूर्ण में खाण्ड मिलाकर दूधके साथ सेवन करती है उसका शरीर पुष्ट हो जाता है और उसके स्तनोंमें खूब दूध आता है । (४८४२) भूम्यामलक्यादिचूर्णम् ( यो. र. । प्रदर.; वृ. नि. र. । स्त्रीरोगा; यो . त. । त. ७४; व. से. । स्त्री. ) भूम्यामलकमूलं तु पीतं तण्डुलवारिणा । द्वित्रैरेव दिनैर्नार्याः प्रदरं दुस्तरं जयेत् ॥ भारत- - भैषज्य रत्नाकरः । भुईआमलेकी जड़का चूर्ण चावलेांके पानीके साथ पीनेसे २ - ३ दिनमें ही भयङ्कर प्रदर रोग नष्ट हो जाता है । (४८४३)भृङ्गराजरसायनम् (१) (व. से. । रसायना. ) सम्यग् भृङ्गरजः क्षुण्णं वस्त्रपूतं प्रयत्नतः । क्षीरन्तु समभागेन मासमेकं नियोजयेत् ॥ वर्षेनान्धो गमनरिहतो मत्तमातङ्गगामी । मूको वाग्मी श्रवणरहितो दूरशब्दानुभावी ॥ षण्ढः पुत्री भवति पलितो नीलजीमूतकेशः । जीर्णादन्ताः पुनरपि दृढा वज्रदेहा भवन्ति ॥ १---बं. से. में भूम्यामलकी के बीज लिखे हैं और यह पंक्ति अधिक लिखी है 66 17 मेढूंग रुधिरस्रावं रक्तातिसार मुल्बणम्' अर्थात् यह योग मूत्रमार्गसे होने वाले रक्तस्राव और रक्तातिसारको भी नष्ट करता है । - [भकारादि उत्तम भंगरेको कूटकर कपड़छन चूर्ण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनावें | इसे १ मास तक समान भाग दूधके साथ सेवन करें। यदि इसे १ वर्ष पर्यन्त सेवन किया जाय तो अन्धा और लूला मनुष्य मदमत्त हाथीके समान चलने लगता है, गूंगा बोलने लगता है, बहिरा दूरके शब्दको भी सुन सकता है, नपुंसकको पुत्र प्राप्त हो जाता है, यदि बाल सफेद हो गये हों तो वे काले हो जाते हैं और कमजोर दांत पुनः दृढ़ जाते हैं । (४८४४) भृङ्गराजरसायनम् (२) ( वृ. मा. । रसायना. ) असिततिलविमिश्रान्पल्लवान्भक्षयेद्यः सततमिह पयोशी भृङ्गराजस्य मासम् । भवति स चिरजीवी व्याधिभिर्विप्रयुक्तो भ्रमरसदृशकेशः कामचारी मनुष्यः ॥ भंगरेके पत्ते और काले तिल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे १ मास तक सेवन करने और केवल दूध पर रहनेसे मनुष्य रोगरहित और दीर्घ जीवी हो जाता है और उसके बाल भर के समान काले हो जाते हैं । (४८४५) भृङ्गराजादिचूर्णम् (१) ( यो. चि. म. । अ. २ चूर्णा.; भै. र. । रसायना.) सूक्ष्मीकृतं भृङ्गनृपस्य चूर्ण कृष्णैस्तिलैरामलकैश्च सार्द्धम् । सितायुतं भक्षयता नराणां न व्याधयो नैव जरा न मृत्युः ॥ For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गुटिकाकरणम् ] भंगरा, काले तिल और आमलेका चूर्ण १-१ भाग तथा मिश्री ३ भाग लेकर सबको एकत्र मिलावें । तृतीयो भागः । इसे सेवन करनेवालों को रोग नहीं सताते, न ही उन्हें वृद्धावस्था आती है और न वे अकालमृत्यु से भरते हैं । (४८४६) भृङ्गराजादिचूर्णम् (२) ( यो. चि. म. । अ. २ चूर्णा ; रसे. चि. म. । अ. ८) समूलं भृङ्गराजं च छायाशुष्कं तु कारयेत् । भक्तपाकवटी (र. सा. सं.; र. रा. सु. । अजीर्णा. ) रसप्रकरण में देखिये । भक्तवारिगुटिका रसप्रकरणमें देखिये भक्तविपाकवटी प्रकरण में देखिये | भक्तोत्तरीयावटी प्रकरण में देखिये | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६३१] तत्समं त्रिफला चूर्ण सर्वतुल्या सिता भवेत् ॥ पलैकं भक्षयेश्चैतदल्पमृत्युजरापहम् ॥ इसमेंसे नित्य प्रति ५ तोले चूर्ण खानेसे अकाल मृत्यु और वृद्धावस्था नहीं आती । इति भकारादिचूर्णमकरणम् । छाया में सुखाया हुवा मूल सहित भंगरा और त्रिफला १-१ भाग तथा मिश्री २ भाग लेकर चूर्ण बनावें । अथ भकारादिगुटिकाप्रकरणम् । Dem (४८४७) भद्रमुस्तादिवटिका व. से. । मुखरोगा .; बृ. नि. र. । मुख.; यो. र.; भा. प्र. । दन्त; वै. र. । मुख.; वृ. यो. त. । त. १२८ ) भद्रमुस्ताभयाव्योषविडङ्गारिष्टपल्लवैः । गोमूत्रपिष्टैर्वटिकां छायाशुष्कां प्रकल्पयेत् ॥ तां निधाय मुखे सुप्याचलदन्तातुरो नरः । नातः परतरं किञ्चिच्चलद्दन्तस्य भेषजम् || नागरमोथा, हर्र, सोंठ, मिर्च, पीपल और बायबिडंगका चूर्ण १-१ भाग तथा पत्थरपर पिसे For Private And Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त- भैषज्य रत्नाकरः । भारत [ ६३२ ] हुवे नीमके ताजे पत्ते २ भाग लेकर सबको गोमूमें पीसकर गोलियां बनाकर छाया में सुखा लें । इनमें से एक एक गोली मुंह में रखकर सोनेसे हिलते हुवे दांत दृढ़ हो जाते हैं । हिलते हुवे दांतोंके लिये इससे उत्तम और कोई भी औषध नहीं है। (४८४८) भल्लातकमोदकः (व. से.; । उदरा; वृ. यो. त. । त. १०५; बृ.नि. र.; वृ. मा.; ग. नि. । उदररो.) भल्लातकाऽभयाजाजीगुडेन सह मोदकः । सप्तरात्रान्निहन्त्याशु प्लीहानमतिदारुणम् ॥ शुद्ध भिलावा, हर्र और जीरेका चूर्ण १-१ भाग तथा गुड़ ६ भाग लेकर सबको एकत्र कूटकर या चूर्णको गुड़की चाशनीमें मिलाकर गोलियां बनावें | इन्हें सेवन करनेसे सात दिनमें भयङ्कर तिल्ली भी नष्ट हो जाती है । ( मात्रा - - १ तोला । अनुपान जल । ) (४८४९) भल्लातकवटक: ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११ ) त्रिकटुकमगधानां मूलचित्रं विडङ्गं समतुलितममीषां तुल्यभल्लातकानि । सकलमिह समन्तादेकतः सम्प्रचूर्ण्य द्विगुणतुलितमात्रं योजनीयो गुडस्तु ॥ सकलमपि विकु स्निग्धभाण्डे निधाय प्रतिदिनमपि सेव्यं चाक्षमात्रं सुधीरैः । गुदजजठररोगं शूलगुल्मान् क्रिमींस्तु । जनयति वडवाग्नि हन्ति पाण्डु क्षयं वा ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि सेठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, चीतेकी जड़ और बायबिडंगका चूर्ण १ - १ भाग, शुद्ध भिलावेकी मज्जा ६ भाग और गुड़ २४ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह कूटकर चिकने पात्र में भरकर रख दें । इसे १ तोलेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्श, उदररोग, शूल, गुल्म, कृमि, पाण्डु और क्षयका नाश होता तथा अभिकी वृद्धि होती है। (४८५०) भल्लातकहरीतकी ( वृ. नि. र. । प्रहण्य. ) भल्लातकहरीतक्या पाठा कटुकरोहिणी । यवानी जाजिकुष्ठं च चित्रकोतिविषावचा ॥ कचोरं पैौष्करं मूलं हिङ्गु इन्द्रयवं तथा । शुण्ठी सैौवर्चलं तुल्यं गवां मूत्रेण पेषयेत् ॥ छायाशुष्का च वटिका माषमात्रं च भक्षयेत् । पिबेदुष्णोदकं पश्चात्कफोत्थानर्शसाञ्जये || शुद्ध भिलावा, हर्र, पाठा, कुटकी, अजवायन, जीरा, कूठ, चीता, अतीस, बच, कचूर, पोखरमूल, हींग, इन्द्रजौ, सेठ और सचल ( काला नमक ) समान भाग लेकर यथा विधि चूर्ण बनाकर उसे गोमूत्र में घोटकर १-१ माशेकी गोलियां बनाकर छाया में सुखा ले 1 इन्हें उष्ण जलके साथ सेवन करने से कफज अश नष्ट होती है । भस्मवटी प्रकरण में देखिये | For Private And Personal Use Only भागोत्तरगुटिका रसप्रकरण में देखिये । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकामकरणम् ] तृतीयो भागः। [६३३] घनम्। भागोत्तरवटकः पूतं भूयः पचेत् गुडनिगुणितं युझ्याद् भवेद्वा रसप्रकरणमें देखिये। (४८५१) भाादिगुटिका उद्धृत्य पुनरेव चित्रकत्रिवृत्तेजोवतीमरणम् ॥ (ग. नि. ।गुटिका.) एलापत्रकनागकेशरलवङ्गानां समं चूर्णितम् । भार्गी सकृष्णा द्विनिशेन्दुकान्ता एषां षोडशभागयोग्यविहितं सर्वश्च तं चैकतः।। पथ्याविभीतत्वचकुष्ठविश्वाः । स्थाप्यं स्निग्धघटे प्रभातसमये स्यादक्षमात्राशनः कन्यारसेनापि गुटिविधेया जीणे क्षीरमपि प्रभूतमतिमान् पाने तथा भोजने सश्वासकासामरुचिं निहन्ति ॥ अझैपाण्डुभगन्दरग्रहणिकाशोषं कृतं नाशयेत् । भरंगी, पीपल, हल्दी, दारुहल्दी, कपूर, बडी | शूलानाहविबन्धगुल्मकफजावोगान् जयेत् इलायची, हर्र, बहेड़ा, दालचीनी, कूठ और सेठिके कामलान् ॥ समानभाग--मिश्रित चूर्णको घृतकुमारी (ग्वारपाठा) नागरमोथा, सेट, बायबिडंग, चव, सठी के रसमें घोटकर गोलियां बना लें। (कचूर), हर्र, गजपीपल, दन्तीमूल, इन्द्रायणमूल __इनके सेवनसे श्वास, खांसी और अरुचि नष्ट और निसोत ५-५ तोले, शुद्ध भिलावा ४० तोले, होती है। विधारा ३० तोले और जिमीकन्द ८० तोले (मात्रा--१-१।। माशा।) लेकर सबको कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें। जव भास्करामृताभ्रवटी ८ सेर पानी रह जाय तो उसे छानकर उसमें रसप्रकरणमें देखिये उपरोक्त समस्त ओषधियों से ३ गुना गुड़ मिलाकर भास्वदवटी पुनः पकावें और जब गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे रसप्रकरणमें देखिये । नीचे उतारकर उसमें चीता, निसोत, गजपीपल, भीममण्डूरवटक: जिमीकन्द (सूरण), इलायची, तेजपात, नागकेसर रसप्रकरणमें देखिये और लैंसँगका समान भाग मिश्रित चूर्ण उपरोक्त (४८५२) भीमसेनवटक: गुड़ समेत समस्त औषधेका सोलहवां भाग मिला( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) कर चिकने पात्रमें भरकर रख दें। मुस्ता विश्वविडङ्गचव्यकसठी पथ्या च तेजोवती इसे प्रातः काल ११ तोलेको मात्रानुसार खाना दन्तीन्द्रा त्रिता समांशकपलीमात्रा च प्रत्येकशः और औषध पचने पर भूख तथा प्यासमें केवल तस्माचाष्टपलानि रुष्करमपि षट् वृद्धदारोः । दूध पीना चाहिये ।। पलान् । इसे इस प्रकार सेवन करनेसे अर्श, पाण्डु, युज्यात् षोडश मूरणस्य सलिलद्रोणेऽखिलं | भगन्दर, ग्रहणी, शोष, शूल, आनाह, विबन्ध, कल्कितम् ॥ | गुल्म, कामला और अन्य कफजरोग नष्ट होते हैं । For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ६३४] (४८५३) भुजङ्गीगुटिका ( वृ. नि. र. । वातव्याधि. ) तेजोहा प्रस्थमेकं पयसि गजगुणे पाकयुक्त्या विपाच्य व्योषं पथ्या शताहा कमिरिपुमनल ग्रन्थिकं चाजमोदाम् उग्रा कुष्ठाश्वगन्धौ सुरतरुममृतं । पालिकानि दद्यात्सर्वान्वातान्वटीयं घृतमधुसहिता नास्ति भावान्करोति ।। १ सेर तेजबलके चूर्णको ८ सेर गोदुग्धमें पावें । जब खोया (मावा) हो जाय तो उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, सोया, बायबिडंग, चीता, पीपलामूल, अजमोद, बच, कूठ, असगन्ध और देवदारु का चूर्ण तथा घी ५-५ तोले मिलाकर गोलियां बना लें । 1 ( मात्रा - ६ माशे । ) www.kobatirth.org भूनिम्बादिगुटी प्रकरण में देखिये - भैषज्य रत्नाकरः । इन्हें घी और शहदके साथ सेवन करनेसे समस्त वातव्याधियां नष्ट होती हैं । भारत भेकराजरसादिमोदक: रसप्रकरण में देखिये (४८५४) भेदिनीवटी ( भै. र. । उदरा. र. का. धे. । उदर.; रसे. चि. म. । अ. ९) त्रिकण्टकस्नु पयसा पिप्पल्या वटिकाकृता । भेदनी या सिद्धिमता महागदनिषूदनी ॥ गोखरू और पीपलका चूर्ण तथा स्नुही (सैंड) का दूध समान भाग लेकर तीनों को एकत्र घोटकर (१ - १ माशेकी) गोलियां बना लें । जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनके सेवन से विरेचन होकर उदररोग नष्ट हो रसप्रकरण में देखिये भैरवीगुटिका [ भकारादि] भैरवीवटी प्रकरण में देखिये भोगपुरन्दरीगुटिका रसप्रकरण में देखिये (४८५५) भ्रमनाशिनीगुटी (व. से. । मूर्च्छा. ) इति भकारादिगुटिकामकरणम् । For Private And Personal Use Only कृष्णाशताद्दाशुण्ठीनां साभयानां पलं पलम् । गुडस्य षट्पलान्येषा गुटिका भ्रमनाशिनी ॥ पीपल, शतावर, सांठ और हर्रका चूर्ण १-१ पल ( ५-५ तोले ) तथा गुड़ ६ पल लेकर सबको एकत्र कूटकर गोलियां बनावें । इनके सेवन से भ्रम नष्ट होता है ! ( मात्रा - ६ माशेसे १ तोले तक । ) Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेहमकरणम् ] तृतीयो भागः। [ ६३५] अथ भकारादिलेहप्रकरणम् (४८५६) भगोत्कटाधवलेहः भल्लातकगुडः (१) (भै. र. । स्त्रीरोगा.) ( वृ. मा.; च, द.; व. से. । अर्श.; हा. सं.। स्था. ३ अ. ११) भद्रोत्कटतुलाकाथे पादशेषे विनिःक्षिपेत् । शर्करायाः पलत्रिंशचूर्णानीमानि दापयेत् ॥ ( गुडभल्लातक सं. १३३९ देखिये) वत्सकं धान्यकं मुस्तमुशीरं बिल्वमेव च। (४८५७) भल्लातकगुडः (२) शाल्मलीवेष्टकञ्चैव पिप्पली मरिचानि च ॥ बला चातिबला मांसी हीवेरं सदुरालभम् । (. मा.; च. द. । अर्शी.) एषाञ्च पलिकैर्भागेश्शूर्णैरेनं समाचरेत् ॥ दशमूल्यमृता भागी श्वदंष्ट्रा चित्रकं शठी ॥ सङ्कहग्रहणी हन्ति सूतिकाश्च सुदुस्तराम् । भल्लातकसहस्रं तु पलांशं काथयेद्बुधः। वहिश्च कुरुते दीप्तं शूलानाहविबन्धनुत् ॥ दत्त्वा गुडतुलामेकां लेहीभूतं समुद्धरेत् ॥ माक्षिकं पिप्पली तैलमौरुबूकं च दापयेत् । ६। सेर नागरमोथेको ३२ सेर पानीमें पकावें कुडवं कुडवं चात्र त्वगेलामरिचं तथा ॥ और जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे अर्शः कासमुदावर्त पाण्डुत्वं शोफमेव च । छानकर उसमें ३० पल (१५० तोले) खांड मिला नाशयेद्वहिसादं च गुडो भल्लातकः स्मृतः ॥ कर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें इन्द्रजौ, धनिया, नागरमोथा, खस, बेलगिरी, मोच दशमूल, गिलोय, भरंगी, गोखरु, चीतामूल रस, पीपल, काली मिरच, खरैटी, कंघी, जटामांसी, | और शठी (कचूर) ५-५ तोले तथा शुद्ध भिलावे सुगन्धबाला और धमासेका ५-५ तोले चूर्ण | १ हजार नग लेकर सबको अधकुटा करके ८ गुने डालकर उसे करछीसे अच्छी तरह मिला दें और पानीमें पकावें और चौथा भाग पानी शेष रहने ठंडा होने पर चिकने पात्रमें भरकर रख दें। पर छानकर उसमें ६। सेर गुड़ और ४० तोले अरण्डीका तेल मिलाकर पुनः पकावें जब गाढ़ा हो इसके सेवनसे संग्रहणी, सूतिका रोग, शूल, जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर उसमें पीपल, अफारा और मलावरोधका नाश होता तथा अग्निकी दालचीनी, इलायची और काली मिर्चका चूर्ण २०-२० वृद्धि होती है। तोले मिलावें और जब ठण्डा हो जाय तो उसमें (मात्रा-१ तोला ।) ४० तोले शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें । For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६३६ ] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [भकारादि यह अवलेह अर्श, खांसी, उदावर्त, पाण्डु, | केसर, दालचीनी और लौंगका चूर्ण ( २०-२० शोथ और अग्निमांधको नष्ट करता है। तोले ) मिलाकर (२० ताले) धृत डालकर अच्छी ( मात्रा-१ तोला ।) तरह विलोडन करें और घृतके चिकने बरतनमें (४८५८) भल्लातकगुडः (३) भरकर रख दें तथा सात दिन पश्चात् काममें लावें । इसके सेवनसे अर्शादि गुदरोग, प्रमेह, कास, (हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) हलीमक और कामलाका नाश होता तथा अग्निकी दशमूलगुडूचिसठीक्षुरकं वृद्धि होती है। सहचित्रकभाङ्गिपलेन मितम् । प्रदिशेत् शतपश्चकमग्निमुखान् भल्लातकपाक: विपचेजलद्रोणमितेन ततः ॥ (यो. चि. म. ) गुडजीर्णशतं प्रददेत्कथित अमृतभल्लातकी प्र. सं. १४५ देखिये मवतार्य सुशीतलकं च ततः। (४८५९) भल्लातकलेहः (१) दलकेसरभृङ्गलवङ्गयुतं ( भल्लातकलौहः) कृतचूर्णमिदं सकलैकमिति ॥ घृतभावितमेकदिनं च पुन (वृ. मा. । अर्श.; ग. नि. । लेहा.; हा. सं. । घृतभाजनके दिनसप्तमिदम् । स्था. ३ अ. १०रसे. चि. म.अ. ९, च. स्निग्धघटे विदधीत मनुष्यो द. । अर्णो.; र. का. धे. । अर्शा.) दत्तमिदं च गुदामयसङ्ग्रे ।। चित्रकं त्रिफला मुस्तं ग्रन्थिकं चविकाऽमृता । मोदकमेकमुषासु ग्रसेत् हस्तिपिप्पल्यपामार्गदण्डोत्पलकुठेरकाः ॥ विनिहन्ति गुदामयमेहरुजः। एषां चतुष्पलान्भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत् । हरति कासहलीमक कामलकं भल्लातकसहने द्वे छित्त्वा तत्रैव दापयेत् ।। द्रुतमेव हुताशनदीप्तिकरम् ॥ तेन पादावशेषेण लोहपात्रे पचेद्भिषक् । दशमूल, गिलोय, सटी ( कचूर ), गोखरु, । तुलार्ध तीक्ष्णलोहस्य घृतस्य कुडवद्वयम् ॥ चीता और भरंगी ५-५ तोले तथा शुद्ध भिलावे ऋषणं त्रिफला वहि सैन्धवं विडमौद्भिदम् । ५०० नग लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर सौवर्चलं विडङ्गं च पलिकांशं प्रकल्पयेत् ॥ पानीमें पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर कुडवं वृद्धदारस्य तालमूल्यास्तथैव च । 'छानकर उसमें ६। सेर पुराना गुड़ मिलाकर पुनः मूरणस्य पलान्यष्टौ चूर्ण कृत्वा विनिक्षिपेत् ॥ पका । जब गाढ़ा हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे | सिद्धे शीते प्रदातव्यं मधुनः कुडवद्यम् । उतार लें और ठंडा होने पर उसमें तेजपात, नाग- प्रातभॊजनकाले वा ततः खादेद्यथाबलम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छेहप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६३७] अशासि ग्रहणीदोष पाण्डुरोगमरोचकम् ।। | गुडस्य तु तुलां दत्त्वा तत्र भूयो विपाचयेत् । कृमिगुल्माश्मरीमेहान् शूलं चाशु व्यपोहति ॥ त्र्यूषणं त्रिफला दन्ती चित्रको हस्ति पिप्पली ॥ करोति शुक्रोपचयं वलीपलितनाशनम् । चव्याजमोदापाठाश्च पिप्पलीमूलमेव च । रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम् ॥ एषां द्विपालिकान्भागान् सूक्ष्मचूर्णानि चीतामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, कारयेत् ॥ पीपलामूल, चव, गिलोय, गजपीपल, अपामार्ग, लेहीभूते ततः पश्चात्यक्षिपेन्मतिमाभिषक् । सहदेवी और बनतुलसी २०-२० तोले तथा २ शीतीभूते ततः पश्चाचातुर्जातपलं क्षिपेत् ॥ हजार शुद्ध भिलावे लेकर सबकोअधकुटा करके ३२ । उदुम्बरसमा मात्र खादयेच्च यथावलम् । सेर पानीमें पकाचे और ८ सेर पानी शेष रहनेपर | अशासि ग्रहणीदोषं प्लीहानं विषमज्वरम् ॥ छानकर उसमें ३ सेर १० तोले लोहभस्म और १ | दुष्टगुल्मोदरं हन्ति मन्दाग्नित्वमरोचकम् । सेर घृत मिलाकर पुनः लोहेकी कढाईमें पकावें। कासश्वासहरो हृयो भल्लातकगुडः स्मृतः ॥ जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो आगसे नीचे १ हजार शुद्ध भिलावेको ३२ सेर पानीमें उतारकर उसमें सेांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, | आमला, चीता, सेंधा, विडलवण, उद्भिद् लवण, पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो सश्चल (कालानमक) और बायबिडंगका चूर्ण ५-५ छानकर उसमें ६। सेर गुड़ मिलाकर पुनः पफावें। तोले तथा विधारेका चूर्ण २० तोले, तालमूली जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें सेठ, मिर्च, (मूसली) का चूर्ण २० तोले और जिमीकन्दका पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, चीतामूल, चूर्ण ४० तोले मिला दें और ठण्डा होनेपर उसमें गजपीपल, चव, अजमोद, पाठा और पीपलामूलका १ सेर शहद मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर चूर्ण १०-१० तोले मिलाकर अग्निसे नीचे उतार सुरक्षित रक्खें। लें और उसके ठण्डा होने पर उसमें दालचीनी, इसे प्रातःकाल या भोजनके समय यथोचित तेजपात, इलायची और नागकेसरका ५-५ तोले चूर्ण मिला दें। मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्श, ग्रहणी, पाण्डु, अरुचि, कृमि, गुल्म, अश्मरी, प्रमेह, शूल और बलि इसमेंसे नित्य प्रति गूलरके फलके समान पलितादि रोग नष्ट होकर बलवीर्य की वृद्धि होती है। सेवन करनेसे अर्श, संग्रहणी, प्लीहा, विषमज्वर, (४८६०) भल्लातकलेहः (२) दुष्ट गुल्म, उदर, मन्दाग्नि, अरुचि, खांसी और (ग. नि. । लेहा.) श्वासका नाश होता है। भल्लातक सहस्रं तु द्रोणेऽपां विधिवत्पचेत् । ततः पादावशिष्टं तु पुनरमावधिश्रयेत् ॥ । यह लेह हृदयके लिये भी हितकारी है । For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६३८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि - % 3D (४८६१) भल्लातकादियोगः | गुडस्यैकतुलां दत्त्वा लेहवसाधयेद्भिषक् । (ग. नि. । क्रिमि.) भल्लासकसहस्रस्य तत्र बीजानि दापयेत् ॥ भल्लातकास्थि स्वरसं विडगार्धन संयुतम् । | त्रिकटुं त्रिफलां मुस्तं विडॉ चित्रकं तथा । सूर्यतप्तं लिहेधुक्त्या सिद्ध क्रिमिविनाशनम् ॥ चन्दनं सैन्धवं कुष्ठं दीप्यकं च पलं पलम् ॥ चातुर्जातं च सञ्चूर्ण्य घृतभाण्डे निधापयेत् । भिलावेके बीजोंके स्वरस में उससे आधा सौगन्धिकस्य दातव्यं चूर्ण पलचतुष्टयम् ।। बायबिडंगका चूर्ण मिलाकर धूपमें रखकर खूब महाभल्लातको ह्येष महादेवेन निर्मितः । गरम कर लें। माणिनां तु हितार्थाय नाशयेच्छीघ्रमेव तु ।। इसे चाटनेसे कृमि रोग नष्ट होता है। चित्रमौदुम्बरं दद्रुमृष्यजिह सकाकणम् । (४८६२) भल्लातकावलेहः पुण्डरीकं च चौख्यं विस्फोटं रक्तमण्डलम् ॥ ( वृ. यो. त. । त.१२०; यो. र. । कुष्ठा.; वृ. नि. | कृच्छं कापालिकं कुष्ठं पामांचापि विपादिकाम् । र. । त्वग्दो.; ग. नि.। लेहा.; धन्व.; र. र.; | अशीसि षट्प्रकाराणि श्वासं कासं भगन्दरम् ।। व. से.; भा. प्र.; यो. त.। त. ६२) अनुपानेन दातव्यं छिन्नातोयेन तं भिषक् । निम्बगोपारुणाकट्वीत्रायन्तीत्रिफलाधनम् । भोजने न सदा योज्यमुष्णं चाम्लं विशेषतः ॥ पर्पटावल्गुजानन्तावचाखदिरचन्दनम् ।। अन्यान्यपि च कुष्ठानि नाशयेन्नात्र संशयः॥ पाठाशुण्ठीसटीभार्गीवासाभूनिम्बवत्सकम् । श्यामेन्द्रवारुणीमूविडङ्गातिविषानलम् ।। (१) नीमकी छाल, सारिवा, अतीस, कुटकी, हस्तिकर्णामृताब्दा पटोलं रजनीद्वयम् । त्रायमाना, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, पित्तकृष्णारग्वधसप्ताहं शिरीष चोच्चटाफलम् ।। पापड़ा, बाबची, अनन्तमूल, बच, खरसार, लालमञ्जिष्ठा लागली रास्ना नक्तमालः पुनर्नवा । चन्दन, पाठा, सेांठ, कचूर, भरंगी, बासा, चिरादन्तीबीजकसारच भृङ्गराजकुरण्टकम् ॥ यता, इन्द्रजौ, काली सारिवा, इन्द्रायणकी जड़, एषां द्विपलिकान्भागाअलद्रोणे विपाचयेत् । पूर्वा, बायबिडंग, अतीस, चीतेकी जड़, हस्तिकर्ण अष्टभागावशिष्टं च कषायमवतारयेत् ॥ पलाशकी छाल, गिलोय, नागरमोथा, पटोल, हल्दी, भल्लातकसहस्राणि क्षिपेच्छित्त्वामणेऽम्भसि। दारुहल्दी, पीपल, अमलतास, सतौना, सिरसकी चतुर्भागावशिष्टं तु कषायमवतारयेत् ॥ छाल, रक्तगुञ्जा, मजीठ, कलियारी, रास्ना, करखकी तौ कषायो समादाय वस्त्रपूतौ तु कारयेत । छाल, पुनर्नवा ( बिसखपरा), दन्तीबीज (जमालएकीकृत्य कषायौ तौ पुनरमावधिश्रयेत ॥ गोटा ), बिजयसार, भंगरा और पियाबासा १० , विजेन्द्रय जलमिति पाठान्तरम् । २ द्राक्षेति । १०तोले लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें पाठान्तरम् ३...बिल्वश्योनाकपाटलाः इति पाठान्तरम् For Private And Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमकरणम् ] तृतीयो भागः [६३९] - (२) १००० शुद्ध भिलावोंको कूटकर ३२ । (४८६३) भार्गीगुडावलेहः सेर पानीमें पका और ८ सेर पानी शेष रहनेपर | (ग. नि. । लेहा.; भै. र.; वृ. मा.; च. द. । छान लें। हिक्कावासा.; व. से. । स्वरभेद.; यो. चि. म. । (३) उपरोक्त दोनों काथोंको एकत्र मिला- अ. ९; भा. प्र. । श्वासा.) कर उसमें ६। सेर गुड़ और १००० शुद्ध भिला शतं संग्राह्य भार्यास्तु दशमूल्यास्तथा परम् ।। वेकी पिसी हुई गिरी मिलाकर पुनः पकावें और शतै हरीतकीनां च पचेत्तोये चतुर्गुणे । गाढ़ा होने पर उतार लें। पादशेषे च तस्मिस्तु रसे वस्त्रपरिसुते ॥ (४) सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, आलोड्य च तुलां पूतां गुडस्य त्वभयां ततः । नागरमोथा, बायबिडंग, चीतामूल, सफेद चन्दन, पुनः पचेत्तु मृद्वनौ यावल्लेहत्वमागतम् ।। सेंधानमक, कूठ, अजमोद दालचीनी, तेजपात, शीते तु मधुनश्चात्र षट्पलानि प्रदापयेत् । इलायची और नागकेसरका चूर्ण ५-५ तोले तथा | त्रिकटु त्रिसुगन्धं च पालिकं च पृथक् पृथक् ।। नीलोत्पलका चूर्ण २० तोले लेकर उपरोक्त अवले कर्षद्वयं यवक्षारं सञ्चूर्ण्य प्रक्षिपेत्ततः। हमें मिलावें और उसे चिकने पात्रमें भरकर भक्षयेदभयामेकां लेहस्यार्धपलं लिहेत् ॥ रख दें। श्वासं सुदारुणं हन्ति कासं पञ्चविधं तथा । __इसके सेवनसे श्वित्र, औदुम्बर, दाद, ऋष्य- स्वरवर्णपदो ह्येष जठरानलदीपनः ।। जिहब, काकण, पुण्डरीक और चर्मकुष्ठादि अनेक पलोल्लेखागते माने न द्वैगुण्यमिहेष्यते । प्रकारके कुष्ठ, विस्फोटक, रक्तमण्डल, कष्टसाध्य हरीतकीशतस्यात्र प्रस्थत्वादाढकं जलम् ।। कापालिक कुष्ठ, पामा, विपादिका, ६ प्रकारकी __भरंगीकी जड़ ६। सेर, दसमूल ६। सेर अर्श, श्वास, खांसी, भगन्दर और अन्य अनेक प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं। और हरै १०० नग ( १ सेर ) लेकर भरंगी और __इसे गिलोयके काथके साथ सेवन करना दशमूलको अधकुटा कर लें और हर्रोको कपड़ेकी चाहिये और उष्ण तथा अम्ल पदार्थ न खाने । पाट पोटलीमें बांध लें एवं सबको एकत्र मिलाकर १०८ चाहिये। सेर पानीमें पकावें और २७ सेर पानी शेष रहने (मात्रा-~६ माशे।) पर हरों को अलग निकाल लें तथा काथको नोट-~-गदनिग्रहमें काथ्य द्रव्योंमें नीमकी छान लें। छालसे प्रारम्भ करके नागरमोथे तकके पदार्थाका | इस काथमें ६। सेर गुड़ मिलाकर छानें और तथा पीपलसे लेकर पुनर्नवा तकके पदार्थ का फिर उसमें उपरोक्त हर डालकर पुनः पकावें । अभाव है एवं प्रक्षेप द्रव्योंमें बिडंग, चीता, कूठ | जब लेहके समान गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे नीचे और चन्दन नहीं लिखे । उतार लें और ठण्डा होने पर उसमें ६० तोले For Private And Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६४०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि शहद तथा ५-५ तोले सांठ, मिर्च, पीपल, दाल- गुडतैलयुतो लेहो हितो मारुतकासिनाम् ॥ चीनी, इलायची और तेजपात का चूर्ण तथा २॥ भरंगी, मुनक्का, कचूर ( पाठान्तरके अनुसार तोले जवाखार मिलाकर चिकने पात्र में भरकर गिलोय), काकडासिंगी, पीपल और सेठिके समान रख दें। भाग मिश्रित चूर्णको गुड़ और तेलमें मिलाकर इसमेंसे नित्य प्रति १ हर्र और २॥ तोले चाटनेसे वातज खांसी नष्ट होती है। अवलेह खानेसे भयङ्कर श्वास और पांच प्रकारकी (४८६६) भार्याचवलेहः खांसी नष्ट होती तथा स्वर, वर्ण और जठराग्निकी वृद्धि होती है। (ग. नि. । अवलेहा. ५) भार्गीहरीतक्यवलेहः भार्गी हरीतकी वासां कण्टकारी तथैव च । (यो. र. । श्वासा.; यो. त. । त. ३०.; ग. नि.। . प्रत्येकं प्रस्थमादाय द्रोणेऽपां साधयेद्भिषक् । __ हिक्काश्वासा. ) | काथे पादावशेषे तु गुडं प्रस्थमितं क्षिपेत् । यह प्रयोग भार्गीगुडावलेहके समान ही है | ततः पाकघनीभूते शीतेऽर्धकुडवं मधु । केवल इतना अन्तर है कि इसमें शहद ४० तोले | पिप्पली कट्फलं शृङ्गी मधुयष्टि लवङ्गकम् । पड़ता है तथा प्रक्षेप द्रव्योमें ४० तोले त्रिफला त्वक्षीरी रजनी चैव पलार्धपमितां क्षिपेत् ।। और ५ तोले नागकेसरका चूर्ण अधिक है। एषोऽवलेहः शमेत् पश्च कासान् सुदारुणान् ॥ ___ गदनिग्रहके पाठानुसार शहद ८० तोले भरंगी, हरे, बासा और कटेली १-१ सेर डालना और त्रिफला न डालना चाहिये । | लेकर सबको ३२ सेर पानीमें पकायें और ८ सेर (४८६४) भार्यादिलेहः (१) पानी शेष रहने पर छानकर उसमें १ सेर गुड़ (वृ. नि. र. । श्वासा.) मिलाकर पुनः पकावें । जब वह गाढ़ा हो जाय पलिह्यान्मधुसर्पिा भाजी मधुकसंयुताम् ।। तो उतारकर ठण्डा कर लें । तदनन्तर उसमें २० पथ्यां तिक्ताकणाव्योषयुक्तांवाश्वासनाशनीम् ।। तोले शहद और २॥ २॥ तोले पीपल, कायफल, भरंगी और मुलैठीका चूर्ण अथवा हर्र, कुटकी, काकड़ासिंगी, मुलैठी, लौंग, बंसलोचन और हल्दीका पीपल और त्रिकुटेका चूर्ण शहद और घीमें मिला चूर्ण मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर रख दें। कर चाटनेसे श्वास नष्ट होता है । (४८६५) भार्यादिलेहः (२) इसके सेवनसे ५ प्रकारकी दारुण खांसी नष्ट (व. से. । कासा.; वृ. यो. त. । त. ८७: यो हो जाती है । र. । कासा.; वृ. मा. । कास.) भूनिम्बाद्योऽवलेहः भागीद्राक्षाशठी ङ्गीपिप्पलीविश्वभेषजैः। ( ग. नि. । कुष्ठा.) १-यू. यो. त. में शटी के स्थानमें गिलोय लिखी है। " भूनिम्बादि चूर्णम्" सं.४८३६ देखिये। For Private And Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमकरणम् ] सृतीयो भागः [६४१] - (४८६७) भृगुहरीतकी । अवलेह तैयार हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार ( भा. प्र. । म. ख. कासा.) | लें और ठण्डा होनेपर उसमें सेांठ, मिर्च, पीपल, समूलवल्कच्छदकण्टकार्या दालचीनी, इलायची तेजपात और नागकेसरका __ स्तुलां ततो द्रोणमितं जलश्च । ५-५ तोले चूर्ण एवं ६० तोले शहद मिलाकर हरीतकीनां शतमेकपात्रे सुरक्षित रक्खें। इसे अग्निबलोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे विपाच्य कुर्याञ्चरणाम्बुशेषम् ॥ वातज, पित्तज, कफज, द्विदोषज, सन्निपातज, तस्मिन्कषाये तनुवस्त्रपूते क्षतज और क्षयज खांसी तथा श्वास, पीनस और हरीतकीमिः सहितं गुडस्य । एकादश रूप राजयक्ष्माका नाश होता है । तुलां विनिःक्षिप्य पचेत्सुपक (४८६८) भोजनान्तेऽवलेहः मेतत्समुत्तार्य सुशीतलश्च ॥ (रसायनसार ) पलं पलञ्चापि कटुत्रयञ्च कटुत्रयोमाः सुरसेन्द्रपुष्पं तथा चतुर्जातपलं विचूर्ण्य । जीरद्वयं वाहि अकल्लकश्च । पलानि षट्पुष्परसस्य चापि समाः समे स्तः पटूनी सिता च विनिःक्षिपेत्तत्र विमिश्रयेच्च ॥ रसाधिका द्वीपभवाऽऽकश्च ।। प्रयुज्यमानो विधिनैष लेहो निमज्जनाई खलु निम्बुनीरं यथावलश्चापि यथानलन । निधाय पात्रे समुपेक्ष्य पक्षम् । वातात्मकं पित्तकृतं कफोत्थं सेव्योऽवलेहो यदि भोजनान्ते द्विदोपजातान्यपि च त्रिदोपम् ॥ मुक्तिरामेति यथाऽन्नकालम् ॥ क्षतोद्भवच क्षयजञ्च कासं __ सेट, मिर्च, पीपल, अजवायन, लांग, भुने श्वासश्च हन्यात्सहपीनसेन । हुवे दोनों जीरे, भुनी हुई हींग और अकरकरा यक्ष्माणमेकादशरूपमुग्रं १-१ भाग, सेंधा नमक और काला नमक तथा हरीतकी या भृगुणोपदिष्टा ॥ मिश्री ९-९ भाग लेकर चूर्ण बनावें और फिर ६। सेर कटेलीका पञ्चाङ्ग और १०० नग उसे एक कांचके पात्रमें डालदें तथा उसमें ९-९ हर्र लेकर हर्रोको कपड़ेकी पोटलीमें बांध लें और भाग किसमिस, छुहारा और अदरकके टुकड़े डालकर पात्र में इतना नीबूका रस भर दं कि कटेलीको अधकुटा कर ले । तत्पश्चात् दोनोंको जिसमें सब चीजें डूब जायं। तदनन्तर पात्रका मुख ३२ सेर पानीमें एकत्र पकावे और ८ सेर पानी बन्द करके रख दें। १५ दिन बाद चटनी तैयार शेष रहने पर क्वाथको छान लें । तथा हर्रोको हो जायगी। अलग निकाल लें । तदनन्तर उस काथमें वे हर इसे भोजनके बादमें खानेसे भोजन अच्छी और ६। सेर गुड़ मिलाकर पुनः पकावें । जब तरह और समय पर पच जाता है । इति भकारादिलेहप्रकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६४२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [भकारादि अथ भकारादिघृतप्रकरणम् । (४८६९) भद्रावहघृतम् विधि-१ सेर घीमें उपरोक्त काथ और (भा. प्र. म. ख.; व. से. । मूत्राधाताद्य.) कल्क मिलाकर पकावें । जब धृतमात्र शेष रह जाय अम्बष्ठा पाटला चैव वर्षाभूद्वयमेव च । तो छान लें। विदारीकन्दकाशश्च कुशमोरटगोक्षुराः॥ यह घृत उष्णवात ( सोजाक ) को नष्ट पाषाणभेदो वाराही शालिमूलं शरस्तथा। करता है। . भल्लातकं शिरीषस्य मूलमेषामथाहरेत् ॥ (४८७०) भद्रोत्कटाचं घृतम् समभागानि सर्वाणि काथयित्वा विचक्षणः । (भै. र. । स्त्रीरोगा.; र. र. । प्रसूति.; व. पादशेषकषायेण घृतपस्थं विपापयेत् ॥ . से. । स्त्रीरोगा.) कल्क दत्त्वाऽथ मातमान्गिारज मधुक तथा। । समूलपत्रशाखन्तु शतं भद्रात्कटस्य च । नीलोत्पलञ्च काकोली बीजं त्रापुसमेव च ॥ वारिद्रोणेन संसाध्यं स्थाप्यं पादावशेषितम् ॥ कूष्माण्डश्च तथैर्वारुसम्भवञ्च समं भवेत् । | घृतप्रस्थं विपक्तव्यं गर्भ दत्त्वा तु कार्षिकम् । उष्णवातं निहन्त्येतद् घृतं भद्रावहं स्मृतम् ॥ | सव्योष पिप्पलीमूलं चित्रकं जीरकं तथा ॥ काथ-पाठा, पाढल, सफेद और लाल | पञ्चमूलं कनिष्ठश्च रास्नैरण्डसमन्वितम् । पुनर्नवा, बिदारीकन्द, कासकी जड़, कुशकी | बला सिन्धु यवक्षारं सर्जिका कृष्णजीरकम् ।। जड़, ईखकी जड़, गोखरु, पखानभेद, बाराही- सिद्धमेतद् घृतं सद्यो निहन्यात्सूतिकामयान् । कन्द, शालि धानकी जड़, रामशरको जड़, ग्रहणों पाण्डुरोगश्च अर्शीसि विविधानि च।। भिलावा और सिरसकी जड़की छाल समान | अग्निश्च कुरुते दीप्तं स्त्रीणां स्तन्यविशोधनम् ।। भाग-मिश्रित २ सेर लेकर सबको अधकुटा करके काथ--मूल, पत्र और शाखा सहित प्रसा१६ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर पानी शेष रणी (खौंप ) ६। सेर लेकर उसे अधकुटा करके रहने पर छान लें। ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर पानी शेष कल्क--शिलाजीत, मुलैठी, नील कमल, रहने पर छान लें। काकोली, खीरेके बीज, पेठेके बीज और ककड़ीके कल्क---सेट, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, चीता, बीज समानभाग मिश्रित ६ तोले ८ माशे लेकर | जीरा, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, पीस लें। रास्ना, अरण्डमूल, खरैटी, सेंधा, जवाखार, सन्जी For Private And Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] तृतायो भागः [६४३] और काला जीरा १-१॥ तोला लेकर सबको | कल्क-६ तोले ८ माशे भिलावेको पीस पीस लें। कर बारीक कर लें। विधि-२ सेर घीमें उपरोक्त काथ तथा विधि-१ सेर घीमें काथ और कल्क मिलाकल्क मिलाकर काथ जलने तक पकावें और | कर काथ जलने तक पकाकर छान लें। फिर छान लें। इसमें चौथाई भाग खांड मिलाकर पीनेसे रक्त यह घृत सूतिकारोग, ग्रहणी, पाण्डु और गुल्म और शहद मिलाकर पीनेसे कफज गुल्म नष्ट अनेक प्रकारके अर्श रोगको शीघ्र ही नष्ट कर देता | होता है। है । अग्निकी वृद्धि और स्त्रीके दूधको शुद्ध करता है। (४८७३) भल्लातकघृतम् (३) (४८७१) भल्लातकघृतम् (१) (च. सं. । चि. अ. ५ गुल्म; वा. भ. । चि. (सुश्रुत संहिता । चि. अ. ९) अ. १४; च. द. । गुल्मा.; ग. नि. । घृता.; भल्लातकाभयाविडङ्गसिद्धं वा सर्वेषाम् ।। वं. से. । गुल्मा.) भिलावा, हर्र और बायबिडंगके काथ तथा भल्लातकानां द्विपलं पञ्चमूलं पलोन्मितम् । कल्कसे सिद्ध घृत समस्त प्रकारके कुष्ठोंको नष्ट | साध्यं विदारीगन्धाधमापोथ्य सलिलाढके । करता है। पादावशेषे पूते च पिप्पली नागरं वचाम् । (काथके लिये हरेक वस्तु २७ तोले लेकर विडङ्गं सैन्धवं हिहुं यावशूकं बिडं शठीम् ।। ८ सेर पानीमें पका और २ सेर पानी शेष रहने चित्रकं मधुकं रास्नां पिष्ट्वाकर्षसमान्भिषक् । पर छान लें। प्रस्थं च पयसो दत्त्वा घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ कल्क के लिये हरेक वस्तु १ तोला १ माशा एतद्भल्लातकं नाम कफगुल्महरं परम् । लेकर पीस लें । धी आधासेर । ) प्लीहपाण्ड्वामयश्वासग्रहणीकासगुल्मनुत् ॥ (४८७२) भल्लातकघृतम् (२) काथ--भिलावे १० तोले, शालपर्णी, पृष्ट (र. र. । गुल्मा.) पर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, शालपर्णी, विदारीभल्लातकान् कल्ककषायपर्क कन्द, बला, नागबला, गोखरु, मूर्वा, सतावर, सारिवा, सर्पिः पिबेच्छरया विमिश्रम् ।। काली सारिवा, जीवक, ऋषभक, मुद्गपर्णी,माषपर्णी, तद्रक्तगुल्मं विनिहन्ति पीतं छोटी कटेली,बड़ी कटेली,पुनर्नवा,अरण्डमूल, हंसपदी, बलासगुल्मं मधुना समेतम् ॥ वृश्चिकाली और कांचकी जड़ ५-५ तोले लेकर काथ-२ सेर भिलावेको कूटकर १६ सेर | सबको ८ सेर पानीमें पकावें और २ सेर पानी पानीमें पकावें और जब ४ सेर पानी शेष रह जाय शेष रहने पर छान लें । तो छान लें। कल्क--पीपल, सांठ, बच, बायबिडंग, सेंधा, For Private And Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त-भैषज्य रत्नाकरः [ ६४४ ] होंग, जवाखार, बिडलवण, राठी ( कचूर), चीतामूल मुलैठी और रास्ना ११-११ तोला लेकर सबको पीस लें। भारत विधि - २ सेर घी, २ सेर दूध तथा उपरोक्त काथ और कल्क एकत्र मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान ले 1 यह घृत कफज गुल्म, प्लीहा, पाण्डु, श्वास, ग्रहणी और खांसीको नष्ट करता है । (४८७४) भल्लातकाद्यं घृतम् ( व. से. । वातत्र्याध्य.) भल्लातकानि सिन्धूत्थमधूच्छिष्टमहौषधम् । अम्लेन पयसा वाऽपि घृतमेतद्विपाचयेत् ॥ एतेनोद्ववर्त्तनं कार्यं प्रदेहश्चैव शाम्यति । अतिप्रवृद्धां खल्लीं तु तत्क्षणादेव नाशयेत् ॥ भिलावा, सेंधानमक, मोम और साठ १०-१० तोले लेकर मोमके सिवाय अन्य तीनों ओषधियों को पीस लें । तदनन्तर ४ सेर घीमें मोम और यह चूर्ण तथा १६ सेर का अथवा दूध मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। इसकी मालिश करनेसे खल्ली शूल (बांयटे) का नाश होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि सचः शमं नयति ये च कफानिलोत्त्या भाख्यषट्पलमिदं प्रवदन्ति सज्ञाः ॥ कल्क -- पौपल, पीपलामूल, चव, सेठ, चीता और जवाखार ५-५ तोले लेकर पीस लें 1 काथ -- दशमूल की प्रत्येक वस्तु, अरण्डमूल और भारंगी समान भाग- मिश्रित १॥ सेर लेकर को अकुटा करके १२ सेर पानीमें पकावें और ३ सेर पानी शेष रहने पर छान लें 1 विधि -- २ सेर धी, उपरोक्त कल्क तथा काथ और २ सेर दूध तथा ३ सेर दही एकत्र मिलाकर पका और कृतमात्र शेष रहने पर छान लें । यह घृत गुल्म, उदररोग, अरुचि, भगन्दर, अग्रिम, खांसी, ज्वर, क्षय, शिरोरोग, ग्रहणीविकार और वातकफज रोगोंको नष्ट करता है । (४८७६) भाग्यदिनृतम् (व. से. 1 कासा. ) भाङ्गकल्कैर्धृतश्चाथ पचेद्दध्नि चतुर्गुणे । भाङ्गरसं द्विगुणितं वातकासहरं परम् ॥ भरंगीका काथ ८ सेर, घी ४ सेर, दही १६ सेर और भरंगीका कल्क आधा सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकायें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। इसे सेवन करने से वातज खांसी नष्ट होती है। (४८७७) भास्करांचं घृतम् ( व. से. । नेत्ररोगा. ) 1 1 (४८७५) भार्गीषट्पलकं घृतम् (च. द. । गुल्मा. २९; व. से. । गुल्मरोगा.) षड्भिः पलैर्मगधजाफलमूलचन्यविश्वौषधज्वलनयावजकल्कपकम् । प्रस्थं घृतस्य दशमूल्युरुबूकभाङ्ग कृष्णा सशर्करा द्राक्षा चतुर्मधुकयष्टिका । hrescort पयसि दनि च षट्पलाख्यम् ।। एकद्वित्रिचतुर्गुणाभागाः सर्वेषु कल्पिताः । गुल्मोदरारुचिभगन्दर वहिसादकासवरक्षयशिरोग्रहणी विकारान् । मिना पचेद्धीमान्बहुदर्व्या विघट्टयन् । भास्कराख्यमिदं सर्पिर्ब्रह्मणा निर्मितं पुरा ॥ For Private And Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org घृतप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ६४५ ] तिमिरं शुक्तिकं हन्ति पिल्लं वाऽध्युषितानि च । | मुठी, खरैटी, मजीठ, इलायची, मनसिल, पद्माक, refष्टं मन्ददृष्टिञ्च दिवानक्तान्ध्यमेव च ॥ अस्योपयोगादत्यन्तं संहारादति वर्त्तयेत् । वयस्तम्भनमायुष्यं वलीपलितनाशनम् ॥ मदरश्च क्षयं श्वासं शुक्रमूत्रमलार्तिनुत् ॥ तगर, महुवेका सार, कंगनी, हल्दी, अतीस, रसौत, शिलाजीत, चव और कूठ के कल्क तथा दही और आठ प्रकारके मूत्रके साथ ताजा घृत सिद्ध करें । इसे पीनेसे ग्रहोन्माद नष्ट होता है । पीपल १ भाग, खांड २ भाग, मुनका ३ भाग और मुलैठी ४ भाग लेकर सबका चूर्ण करके ८ गुने धीमें मिलायें और उसमें धीसे ४ गुना पानी मिलाकर मन्दाग्निपर पकायें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें। यह घृत तिमिर, शुक्तिक, पिल्ल, अम्लाध्युषित, अदृष्टि, मन्ददृष्टि, दिवान्ध्यता और रतौधा आदि समस्त नेत्ररोगोंको नष्ट करता है । इसके सेवन से आयु स्थिर होती और बढ़ती है तथा बलि पलित, प्रदर, क्षय, श्वास, मूत्ररोग, शुक्ररोग और मल सम्बन्धी रोग नष्ट होते हैं । (४८७८) भूतरावघृतम् (१) ( वा. भ. । उ. अ. ५; ग. नि. । उन्मादा. ) त्रिकटुकदलकुङ्कुमग्रन्थिकक्षारसिंही नि - शादारुसिद्धार्थयुग्माम्बुशुक्राव्ययैः । सितलशुनफुलत्रयोशीरतिक्तावचातुत्थयष्टीबलालोहि तैलशिलापद्मकैः दधितगरमधूकसारमियाहानिशाख्याविपाताक्ष्यशैलैः सचव्यामयैः । कल्कितैर्धृतमभिनवमशेषमूत्रांशसिद्धं मतं भूतरावाहयं पानतस्तद्ग्रहघ्नं परम् ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, तेजपात, केसर, पीपला मूल, जवाखार, कटेली, हल्दी, देवदारु, दो प्रकार की सरसों, सुगन्धवाला, इन्द्रजौ, सफेद ल्हसन, हर्र, बहेड़ा, आमला, खस, कुटकी, बच, नीलाथोथा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( कल्क - - समान भाग मिश्रित आधासेर, घी ४ सेर, दही ८ सेर और आठ मूत्र-गोमूत्र, बकरीका मूत्र, भेड़का मूत्र, भैंसका मूत्र, घोड़ीका मूत्र, हथिनीका मूत्र ऊंटनीका मूत्र और गधीका मूत्र समानभाग मिश्रित ४ सेर | ) (४८७९) भूतरावघृतम् (२) (महा) ( वा. भ. । उ. अ. ५; ग. नि. | उन्मादा. ) नतमधुकरञ्जलाक्षापटोलीसमङ्गावचापाटलीहिङ्गुसिद्धार्थसिंहीनिशायुग्लतारोहिणीबदरकटुफलत्रिकाकाण्डदारुकृमिघ्नाजगन्धामराङ्कोलुकोशातकीशिग्रनिम्बाम्बुदेन्द्राहयैः । गदशुकतरु पुष्पबीजोग्रयष्टयद्विकर्णीनिकुम्भानिवित्यैः स मैः । कल्कितैर्मूत्रवर्गेण सिद्धं घृतम् । विधिविनिहितमाशु सर्वैः क्रमै योजितं हन्ति सर्वग्रहोन्मादकुष्ठज्वरांस्तन्महाभूतरावं स्मृतम् । कूठ, मुलैठी, करञ्ज, लाख, पटोल, मजीठ, बच, पाढल, हींग, सरसो, कटेली, हल्दी, दारूहल्दी, मालनी, हर्र, बेर, कुटकी, हर्र, बहेड़ा, आमला, थूहर,देवदारु,बायबिडुंग,तुलसी, गिलोय, अंकोल, तोरी, सहजनेकी छाल, नीमकी छाल, नागरमोथा, इन्द्रजौ, कूठ, सिरसके फूल और बीज, बछनाग, मुलैठी, कोयल, दन्तीमूल, चीता और बेलकी छालका समान भाग मिश्रित कल्क आधासेर तथा घी ४ सेर और समानभाग For Private And Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६४६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि मिश्रित आठां मूत्र १६ सेर लेकर सबको एकत्र । इसे सेवन करानेसे समस्त उपदंश नष्ट हो मिलाकर पकावें और घृतमात्र शेष रहने पर छान लें। | जाते हैं । इसके सेवनसे ग्रहोन्माद, कुष्ठ और ज्वर नष्ट (४८८१) भृाराजघृतम् होता है। | (र. र.; ध. व. । स्वरभेदा.;च. द.। स्व.भेदा.१३) (४८८०) भूनिम्बाचं घृतम् भृङ्गराजामृतावल्लीवासकदशमूलकासमईरसैः । (भा. प्र.; नपुंसकामृता.; यो. र. । उपदंशा.; वृ. | यो. त. । त. ११७; धन्वन्त.; र. र.; भै. र.; सर्पिः सपिप्पलीकं सिद्धं स्वरभेदकास जिन्मधुना ॥ वं. से. । उपदंशा.) भूनिम्बनिम्बत्रिफलापटोल (भृङ्गराजप्रभृतीनां चतुर्गुणः काथः पिप्पल्याः करञ्जजाती खदिरासनानाम् । पादिकः कल्कः।) सतोयकल्कैतमाशुपकं काथ---भंगरा, गिलोय, बासा, दशमूलकी सर्वोपदंशापहरं पदिष्टम् ॥ प्रत्येक ओषधि और कसैांधी समान भाग मिश्रित काथ--चिरायता, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, | ४ सेर लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर आमला, पटोल ( परवल ), करञ्जके बीज, चमेलीके पानीमें पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर पत्ते ( पाठान्तरके अनुसार आमला ), खैरसार | छान लें। और असना वृक्षकी छाल समान भाग मिश्रित २ । कल्क--२० तोले पीपलको पत्थर पर सेर लेकर सबको भधकुटा करके १६ सेर पानीमें पीस लें। पकावें और ४ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । विधि-२ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क---उपरोक्त ओषधियां समान भाग | कल्क मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाय तो मिश्रित ६ तोले ८ माशे लेकर पीस लें। विधि--१ सेरे घीमें उपरोक्त काथ और | घीको छान लें। कल्क मिलाकर पकावें और जब काथ जल जाय | इस घृतमें शहद मिलाकर सेवन करनेसे तो धीको छान लें। __ स्वरभेद और खांसी नष्ट होती है। इति भकारादिघृतप्रकरणम् । १-धात्रीति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] तृतीयो भागः। [६४७] - - अथ भकारादितैलप्रकरणम्। (४८८२) भद्राचं तैलम् स्यान्मार्कवस्य च रसेन निहन्ति तैलं (ग. नि. । तैला.) __नाडी कफानिलकृतामपचीत्रणांश्च ।। भिलावा, आककी छाल, काली मिर्च, सेंधा भद्रश्रीदारुमरिचद्विहरिद्रात्रिधनैः । नमक, बायबिडंग, हल्दी, दारुहल्दी और चीतेका गोमूत्रपिष्टैः पलिकैविपस्यार्धपलेन तु ॥ ब्राह्मीरसार्कजक्षीरगोशकद्रससंयुतम् ।। चूर्ण समान भाग मिश्रित १० तोले, तैल २ सेर प्रस्थं सर्वपतैलस्य सिद्धमाशु व्यपोहति ॥ और भंगरेका स्वरस ८ सेर लेकर सबको एकत्र | मिलाकर पकावें । जब रस जल जाय तो तेलको पानाद्यैः शीलितं कुष्ठदुष्टनाडीव्रणापचीन् । छानलें। ___ सफेद चन्दन, देवदारु, काली मिर्च, हल्दी, यह तैल नाडीव्रण (नासूर) और कफदारुहल्दी, निसोत और नागरमोथा ५-५ तोले वातज अपची (गण्डमाला भेद) और व्रणोंको तथा शुद्ध बछनाग २॥ तोले लेकर सबको गोमू नष्ट करता है के साथ पीसकर कल्क बनावें । तदनन्तर २ सेर (४८८४) भल्लातकतैलम् (२) सरसके तैलमें यह कल्क और ब्राह्मीका रस, आकका दूध और गायके गोवरका स्वरस समान-- (यो. चि. म. । अ. ६ तैला.; हा. सं. । भाग-मिश्रित ८ सेर मिलाकर पकावें । जब स्था. ३ अ. ४२) भल्लातकं ज्युषणमक्षचूर्ण तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। कुष्ठं च गुञ्जा त्रिफला च तैलम् । ___इसे पान, मर्दनादि द्वारा सेवन करनेसे कुष्ठ | पञ्चैव लवणानि विपाचितानि और दुष्ट नाड़ी ब्रण ( नासूर ) शीघ्र ही नष्ट हो ___ अभ्यङ्गतो हन्ति च कुष्ठदद्रुन् । जाते हैं। भिलावा, सेठ, मिर्च, पीपल, बहेड़ा, कूठ, (४८८३) भल्लातकतैलम् (१) गुञ्जा ( चैटली ) हर, बहेड़ा, आमला और पांचों ( भै. र.; ध. व.; वृ. मा.; ग. नि. । नाडीव्रणा.; नमक समान भाग मिलाकर २० तोले लें और सबको पानीके साथ पत्थर पर पीस लें । तदनन्तर च. द. । नाडीव्रणा. ४५) २ सेर तैलमें यह कल्क और ८ सेर पानी मिलाभल्लातकार्कमरिचैलवणोत्तमेन कर पकावें। जब पानी जल जाय तो तैलको सिद्धं विडगरजनीद्वयचित्रकैश्च । छान लें । For Private And Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६४८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [भकारादि इसे मर्दन करनेसे कुष्ठ और दादका नाश । काञ्चनी धातकीपुष्पं मञ्जिष्ठा च शतावरी । होता है। गन्धकं पञ्चलवणं द्विनिशा वत्सनाभकम् ॥ (४८८५) भल्लातकतैलम् (३) प्रतिचा पलं योज्यं एकीकृत्य विमईयेत् । (च. सं. । चि. अ. १ पाद २) धर्मस्थः सर्वकुष्ठानि भानुतैलं निहन्त्यलम् ।। भल्लातकतैलपात्रं सपयस्कंमधुकेन कल्के- ___ आकका दूध, स्नुही ( सेंड-सेहुंड) का दूध, नाक्षमात्रेण शतपाकं कुर्यात् ; समानं पूर्वेण ॥ भंगरे और धतूरेका स्वरस, जम्बीरी नीबूका रस मिलावेका तैल ८ सेर, गायका दूध ३२ | तथा गोमूत्र २||-२॥ सेर और तिलका तैल ३॥। सेर और मुलैटी का कल्क ११ तोला लेकर सबको पौने चार सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें एकत्र मिलावें और जब दूध जल जाय तो तैलको और जब तैलमात्र शेष रह जाय तो छानकर उससे छान लें। इस तैलको पुनः उपरोक्त विधिसे पकावें। गोरोचन, धायके फूल, मजीठ, शतावर, गन्धक, इसी प्रकार १०० बार पाक करें। हल्दी, दारुहल्दो, बाँचा नमक और बछनागका ___इसे यथाविधि सेवन करनेसे जराव्याधिका २॥२॥ तोले चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटें । नाश होता, आयु बढ़ती और रसायनके समस्त इसे प्रति दिन मर्दन करके थोड़ी देर धूपमें गुण प्राप्त होते हैं। बैठनेसे समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं । (४८८६) भल्लातकतैलरसायनम् (४८८८) भिष्यन्दनतेलम् (वृ. मा. । रसायना.) (धन्वन्तरि । भगन्दरा.) तैलं भल्लातकानां तु पिबेन्मासं यथाबलम् । चित्रका त्रिवृत्पाठे मलपूहयमारको । सर्वोपद्रवनिर्मुक्तो जीवेद्वर्षशतं दृढः॥ सुधां वचा लाङ्गलिकां हरितालं सुवर्चिकाम् ।। ज्योतिष्मती च संहृत्य तैलं धीरो विपाचयेत्। १ मास तक स्वशक्त्यनुसार भिलावेका तैल पीनेसे समस्त उपद्रव रहित १०० वर्षकी आयु । एतद्भिष्यन्दनं नाम तैलं दद्याद्भगन्दरे ॥ शोधनं रोपणं चैव सावर्ण्यकरणं परम् । प्राप्त होती है। ___ चीतामूल, आककी जड़, निसोत, पाठा, कळू(४८८७) भानुतैलम् मरकी छाल, कनेरको छाल, थूहर (सेंड---सेहुंड) (र. र. । कुष्ठा.; र. का. धे. । का दूध, बच, कलियारी, हरताल, सज्जी और ____ अ. ४३ क्षुद्ररोगा.) मालकंगनी के कल्कसे तैल पकाकर रक्खें । अक्षीरं स्नुहीक्षीरं भृङ्गधनूरयोर्द्रवम् । __यह तैल भगन्दरके घावको शुद्ध करके भर द्रवं जम्बीरगोमूत्रं प्रत्येकं पलविंशतिम् ॥ | देता है तथा त्वचाके रंगको ठीक करता है। तिलतैलं पलांस्त्रिंशत्सर्वमेकत्र पाचयेत् ।। ( कल्क २० तोले । तेल २ सेर । पानी तैलावशेषमुत्तार्य तत्र चूर्ण विनिक्षिपेत् ॥ । ८ सेर । मिलाकर पकावें । ) For Private And Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलमकरणम् ] तृतीयो भागः। [६४९ ] (४८८९) भूधाच्यादितैलम् काथ-दशमूल (समान भाग-मिलित), ( वै. म. र. । पटल १६) कुलथी, सूखी मूली, सहजनेकी छाल और भरंगी भूधात्रीमूलसिद्धं पयसि तिलभवं २०-२० तोले लेकर सबको अधकुटा करके ८ लेपनेनाशु हन्या सेर पानीमें पकावें और २ सेर पानी शेष रहनेपर दुष्ट स्रावाट्यमुग्रं व्रणमणुसुषिरं छान लें। दीर्घकालानुषक्तम् ॥ __अन्य द्रव पदार्थ---भंगरेका रस २ सेर, अदरकका रस २ सेर और गोमूत्र २ सेर । भुईआमलेकी जड़का कल्क २० तोले, कलकदेवदारु. बच. कठ. सोया, सेंधा दूध ८ सेर और तिलका तेल २ सेर लेकर सबको नमक, काला नमक, विडनमक, हींग, तुम्बरु एकत्र मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह (नेपाली धनिया), सोंठ, मिर्च, पीपल, अजवायन, जाय तो उसे छान लें। सफेद जीरा, काला जीरा, चीता, पीपलामूल, हर्र, इसे लगानेसे दुष्ट, स्रावयुक्त और छोटे छिद्र | बहेड़ा, आमला, भंगरा, कायफल और चीतामूल वाले पुराने धाव नष्ट हो जाते हैं। समान भाग-मिश्रित २० तोले लेकर कल्क बनावें। विधि-२ सेर सरसे के तैलमें उपरोक्त काथ, (४८९०) भृगराजतैलम् (१) समस्त द्रव पदार्थ और कल्क मिलाकर पकावें । (व. से. । कासा.) जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें । भृङ्गराजरसपस्थं शृङ्गबेररसं तथा । ___ इसे पान और नस्य द्वारा सेवन करानेसे कटुतैलस्य च प्रस्थं गोमूत्रप्रस्थसंयुतम् ॥ वात कफज खांसी, प्रतिश्याय, पीनस, श्वास तथा दशमूलकुलित्थाश्च शुष्कमूलकशिग्रुकम् । अन्य कफज रोग नष्ट होते हैं। भाी च कुडवांशानि काथयेत्सलिलाढके । । (१८९१) भृगराजतलम् (२) पादशेषेण तेनापि कल्कं दत्वा विपाचयेत् । (हा. सं । स्था. ३ अ. २३ ) देवदारुवचाकुष्ठं शताहालवणत्रयम् ।। भृङ्गराजरसं चैव कटुतुम्बीरसं तथा । हिङ्गतुम्बुरुणी व्योषं यवानी जीरकद्वयम् । । सौवीकरसं चैव काथं वै दशमूलकम् ॥ चित्रकं पिप्पलीमूलं वरो भृङ्गरजस्तथा ॥ माषकुल्माषयूषं च तथाजं दधि मिश्रयेत् । कट्फलं चित्रकश्चैव समभागानि कारयेत । | समांशकानि सर्वाणि तैलं चाध प्रयोजयेत ॥ सम्यक् सिद्धञ्च विज्ञाय पाने नस्ये प्रयोजयेत्।। मृद्वग्निना पाचनीयं सिद्धं चैवावतारयेत् । वातश्लेष्मात्मके कासे प्रतिश्याये च पीनसे। | अभ्यङ्गे च प्रयोक्तव्यं न पाने बस्तिकर्मणि ॥ श्वासरोगेषु सर्वेषु कफवातात्मकेषु च ॥ पूरणं कर्णरोगेषु शिरःशूले च दारुणे । तैलं त्विदं भृङ्गराज कफव्याधिविनाशनम्॥ । अर्धशीर्षविकारेषु भ्रवः शङ्काक्षिशूलके ॥ For Private And Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६५०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि तस्य योगेन मनुजः सुखमापद्यते द्रुतम् । । इसे लगानेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं। हन्ति कुठं च पामां त्वग्रोगांश्वाभ्यञ्जनेन तु ॥ | (४८९३) भृगराजतैलम् (४) शीघ्रं विनाशमायान्ति हन्त्यपस्मारमुत्कटम् ॥ (रा. मा. । शिरोरोगा.) भंगरेका रस २ सेर, कड़वी तूंबीका रस २ | भृङ्गारकपकतैलं द्विपदशनामलककृतमषीमित्रम् । सेर, वस्त्रसे छनी हुई स्वच्छ सौवीरक काजी २ खलतेरपि चिकुरचयं जनयत्यभ्यङ्गयोगेन ॥ सेर, दशमूलका काथ २ सेर, उर्दका काथ २ सेर, ___भंगरेके ४ सेर स्वरसमें १ सेर तेल और ५ कुलथीका काथ २ सेर और बकरीका दही २ सेर तोले भंगरेका कल्क मिलाकर पकावें । जब स्वरस तथा तेल १ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें और तेलमात्र शेष रहनेपर जल जाय तो तेलको छान लें । इस तेलमें हाथी दांत और आमलेकी भस्म मिलाकर लगानेसे गंज छान लें। के स्थानमें भी घने बाल निकल आते हैं । इसकी मालिश करनी चाहिये तथा इसे (४८९४) भृगराजतैलम् (५) कानमें डालना चाहिये परन्तु पिलाना न चाहिये (वा. भ. । उ. अ. २४) और न ही बस्ती कर्ममें प्रयुक्त करना चाहिये । क्षीरात्सहचराङ्गरजसः सौरसादसात् । यह तैल कर्णरोग, भयङ्कर शिरशूल, आधा | प्रस्थैस्तैलस्य कुडवसिद्धो यष्टीपलान्वितः ॥ सीसी, भौंका दर्द और शंख प्रदेश (कनपटी) तथा | नस्य शैलोद्भवे भाण्डे शृझे मेषस्य वा स्थितः। आंखांकी पीड़ा, कुष्ठ, पामा, विनोग और भयङ्कर ___ दूध, पियाबांसेका क्वाथ, भंगरेका रस और अपस्मारको नष्ट करता है। धनियेका काथ २-२ सेर तथा तेल आधा सेर (४८९२) भृङ्गराजतैलम् (३) और मुलैठीका कल्क ५ तोले लेकर सबको एकत्र (ध. व. । क्षुद्ररोगा.) मिलाकर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो भृजराज लोहचूर्ण त्रिफला बीजपूरकम् । उसे छानकर पत्थरके पात्र या मेढे के सींगमें नीला च करवीरं च गुडमेतैः समैः शृतम् ॥ भरकर रख दें। पलितानि च कृष्णानि कुर्याल्लेपान्महौषधम् ।। इसकी नस्य लेनेसे सफेद बाल काले हो भंगरा, लोहचूर्ण, हर्र, बहेड़ा, आमला, बिजौ | जाते हैं। रेकी काल, नील, करवीर की छाल और गड समान । (४८९५) भृङ्गराजतैलम् (६) भाग-मिश्रित २० तोले, तिलका तेल २ सेर और (व. से. । श्वासा.) पानी ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें | तैलं दशगुणे सिद्धं भृङ्गराजरसे शुभे । और जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। पीयमानं यथान्यायं श्वासकासौ व्यपोहति ॥ For Private And Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] १ सेर तैल और १० सेर भंगरेके रसको एकत्र मिलाकर पकावें । जब रस जल जाय तो तैलको छान ले 1 इसे पीनेसे श्वास और खांसी नष्ट हो जाते हैं। तृतीयो भागः । (४८९६) भृङ्गराजतैलम् (७) (शा. ध. । खं. २ अ. ९; यो. र.; वृ. नि. र. । क्षुद्ररोगा . ) भृङ्गराजरसेनैव लोह किम् फलत्रिकम् । सारिवां च पचेत्कल्कैस्तैलं दारुणनाशनम् ॥ अकालपलितं कण्डूमिन्द्रलुप्तं च नाशयेत् ॥ भंगरेका स्वरस ८ सेर, तिलका तेल २ सेर और मण्डूर, हर्र, बहेड़ा, आमला तथा सारिवाका समानभाग - मिश्रित कल्क १० तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकायें। जब तेलमात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें 1 यह तैल दारुण, अकाल पलित ( बालोंका सफेद हो जाना); कण्डू ( खुजली ) और इन्द्र को नष्ट करता है I (४८९७) भृङ्गराजतैलम् (८) (बृ. मा. | नेत्ररोगा .; र. र. । नेत्र.; व. से.; च. द. । नेत्र. भै. र. । नेत्ररोगा; ध. व. । नेत्र. ) भृङ्गराज समस्ये यष्टीमधुपलेन च । तैलस्य कुडवं पकं सद्यो दृष्टिं प्रसादयेत् ॥ नस्याद्वलीपलितनं मासेनतन्न संशयः ॥ भंगरेका रस २ सेर, मुलैठीका कल्क ५ तोले और तेल आघ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब रस जल जाय तो तेलको छान लें। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६५१] यह तेल नेत्रों को शीघ्र ही स्वच्छ कर देता है ओर इसकी नस्य लेनेसे १ मासमें बलिपलितका अवश्य नाश हो जाता है। (४८९८) भृङ्गराजतैलम् (९) ( यो. र.; वृ. नि. र.; व. से. । नेत्ररोगा .; ग. नि. । तैला. ) भृङ्गरसस्य प्रस्थं तैलात्कुडवं पलं च मधुकस्य । क्षीरप्रस्थविपकं गतमपि चक्षुर्निवर्तयति ॥ भंगरेका रस २ सेर, तेल आधासेर और मुलैठीका कल्क ५ तोले तथा दूध २ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । इस तेल से नष्ट हुई चक्षु भी ठीक हो जाती है । (इसकी नस्य लेनी चाहिये | ) (४८९९) भृङ्गराजतैलम् (१०) (वृहद् ) (भै. र. । क्षुद्ररोगा .; ग. नि. । तैला; वृ. मा. । क्षुद्ररोगा. ) आनूपदेशजं पुष्टं गृहीत्वा मार्कवं शुभम् । प्रक्षाल्य जर्जरीकृत्य रसं तस्य प्रपीडयेत् ॥ चतुर्गुणेन तेनैव तैलप्रस्थं विपाचयेत् । क्षीरपिष्टैरिमैर्दव्यैः संयोज्य मतिमान् भिषक् ॥ मञ्जिष्ठा पद्मकं रोत्रं चन्दनं गैरिकं बलाम् । रजन्यौ केसरं दारु प्रियमधुयष्टिके || प्रपौण्डरीकं सौम्यं च पलिकान्यत्र दापयेत् । कुष्ठं तगरमाषांश्च सिद्धार्थौवागुरुं तथा ॥ मुस्तकं चाथ शैलेयं कर्पूरं परिकल्कितम् । सम्यक्पकं ततो ज्ञात्वा शुभे भाण्डे निधापयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६५२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि केशशाते शिरोदुःखे मन्यास्तम्भे हनुग्रहे । । (४९००) भृजराजतैलम (११) (स्वल्प) अकालपलिते चैव दारुणे चैव दारुणे ॥ । (भै. र.; वृ. मा. । क्षुद्ररो.; ग. नि. । तैला.; दन्तकर्णाक्षिरोगेषु नस्यमेतत्मदापयेत् । वृ. यो. त. । त. १२७; र. र. । क्षुद्र.; नस्यप्रयोगान्मासेन क्षीरानप्रतिभोजिनः ।। व. रो.; च. द. । क्षुद्ररो.) मुकुश्चिताग्रान् केशांश्च स्निग्धान्कुर्यादहूंस्तथा। अरजस्त्रिफलोत्पलशारिखालित्ये सेन्द्रलुप्ते च तेलमेतद्यथाऽमृतम् ॥ । लौहपुरीषसमन्वितकारि । जल प्रायः स्थानमें ( नदी आदिके किनारे) | तैलमिदं पच दारुणहारि उत्पन्न हुवा उत्तम पुष्ट भंगरा लाकर उसे धोकर कुश्चितकेशघनस्थिरकारि ॥ कूटकर ८ सेर रस निकालें। तदनन्तर २ सेर नैलमें यह रस और निम्न लिखित कल्क मिलाकर भंगरा, हर्र, बहेड़ा, आमला, अनन्तमूल, पकावें । जब स्वरस जल जाय तो तैलको छानलें। मण्डूर और आमकी गुठलीका कल्क २० तोले, तेल २ सेर तथा पानी ८ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकल्क-मजीठ, पद्माक, लोध, सफेद चन्दन, कर पकायें और जब पानी जल जाय तो तेलको गेरु, खरै टी, हल्दी, दारुहल्दा, केसर, देवदारु, छान लें। फूलप्रियङ्गु, मुलैठी, प्रपौण्डरीक (पुण्डरिया), कमल, कूठ, तगर, उर्द, सरसों, अगर, नागरमोथा, छार इसे शिरमें लगाने से दारुण नामक शिरो रोग छरीला और कचूर ५-५ ताले लेकर सबको नष्ट होता और बाल धुंघराले, घने और मजबूत हो दूधमें पीस लें। जाते हैं। इसकी नस्य लेनेसे बालेका गिरना, शिरशूल, (१९०१) भृङ्गादितैलम् मन्यास्तम्भ, हनुग्रह, अकाल पलित, भयंकर दारुण (वृ. नि. र. । बालरोगा.) नामक शिरोरोग, दन्तरोग, कर्णरोग और नेत्ररोग | स्वरसे भृक्षाणां तथैव हयगन्धिका । नष्ट होते हैं। तैलं वचां च संयोज्य पचेदभ्यअने शिशोः ।। ___यदि १ मास तक इसकी नस्य ली जाय । __भंगरेका स्वरस ८ सेर, तिलका तेल २ सेर और केवल दूधपर रहा जाय तो खालित्य और तथा असगन्ध और बचका कल्क ५-५ तोले लेकर इन्द्रलुप्त नष्ट होकर धने, स्निग्ध और धुंधराले बाल सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब रस जल जाय निकल आते हैं। तो तेल को छान लें। . नोट-भै. र. और वृ. मा. में देवदारु तथा । इसे बालकके शरीरपर मलने से मुखमण्डिका कूठ से लेकर कचूर तककी ओषधियां नहीं लिखीं। ' ग्रहजनित विकार नष्ट होते हैं। इति भकारादितैलपकरणम् । For Private And Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६५३] अथ भकाराद्यासवप्रकरणम्। (४९०२) भृङ्गराजासवः । मटकेमें भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें और (ग. नि. । आसवा.) १५ दिन पश्चात् छानकर उसमें १०-१० तोले भृजराजरसद्रोणं गुडस्य द्वितुलां तथा। पीपल, जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, तेजपात हरीतकीनां प्रस्थाई स्निग्ये भाण्डे निवेशयेत ॥ और नागकेसरका चूर्ण मिलाकर पुनः मटके में भरकर पक्षावं पिबेदेनं मात्रया च यथाबलम् । उसका मुख बन्द कर दें और १५ दिन बाद निकाजाते यस्मिन्पुनर्दत्वा पिप्पल्याश्च पलद्वयम् ॥ लकर छानकर बोतलोमें भरकर रखें। जातीफलं लवङ्गानि त्वगेलापत्रकेसरम् । इसके सेवनसे धातुक्षय और पांच प्रकारकी धातुक्षयं जयेत्पीतः कासं पश्चविधं तथा ॥ । कृशानां च महापुष्टिं कुरुते च महाबलम् । खांसी नष्ट होती है। तथा यह कृश मनुष्यों को कामद्धिं करोत्येव वन्ध्यानां पुत्रदो भवेत् ॥ अत्यन्त पुष्ट कर देता है । अत्यन्त बलकारक और ____ भंगरेका स्वरस ३२ सेर लेकर उसमें १२॥ | कामोद्दीपक है । इसके सेवनसे वन्ध्या स्त्रीको पुत्रकी सेर गुड़ और आधसेर हर्रका चूर्ण मिलाकर चिकने । प्राप्ति होती है। इति भकारावासवप्रकरणम् । अथ भकारादिलेपप्रकरणम् । (४९०३) भद्रादिलेपः दावर्वीहरिद्रामञ्जिष्ठाशारिवोशीरपद्मकम् । एतैरालेपनं कुर्याच्छङ्घकस्य प्रशान्तये ॥ ( यो. त. । त. ७३ ) सफेद चन्दन, सफेद कमल, मुलैठी, नीलभद्रं श्रियं पुण्डरीकं मधुकं नीलमुत्पलम् । कमल, पनाक, बेत, मूर्वा, लामज्जक (खस भेद ), पद्याख्यं वेतसं मूर्ती लामज्जकमथापि वा॥ । दारुहल्दी, मजीठ, सारिवा, खस और लालकमल For Private And Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ६५४ ] भारत - भैषज्य रत्नाकरः । समान भाग लेकर सबको पानीमें पीस कर लेप | लिङ्गं पुरीषैर्महिषस्य पश्चाकरनेसे शंखक ( कनपटीका तीव्र शूल ) नष्ट (४९०४) भल्लातकशोथान्तकलेप: (१) ( वृ. मा. | शोथा. व. से. । शोथा. ) भल्लातः श्वयथुं हन्ति ध्रुवमाश्वत्थधावनात् । महिषीक्षीरपिष्टैर्वा नवनीतसमन्वितैः ॥ भल्लातककृतः शोथस्तिलैर्लिप्तः प्रशाम्यति ॥ भिलावे के स्पर्श से उत्पन्न हुई सूजन पीपल वृक्षकी छालके काथसे धोनेसे या भैंसके दूधमें पिसे हुवे तिलेां को नवनीत ( नौनी घी ) में मिलाकर लेप करनेसे नष्ट हो जाती है । (४९०५) भल्लातकशोथान्तकलेप: (२) ( व. से. । शोथा ) भल्लातक्या जयेच्छोथं सतिलाकृष्णमृत्तिका । माहिषो नवनीतं वा लेपादग्धं तिलान्वितम् ॥ तिल और कालीमिट्टीका अथवा जले हुवे तिलांको भैंसके नवनीत (नैनी घी) में मिलाकर उसका लेप करनेसे भिलावेके स्पर्शसे उत्पन्न सून नष्ट होती है । (४९०६) भल्लातकादिलेप: (१) ( रा. मा. । कर्णरोगा .; धन्व. । वाजीकरणा . ) भल्लातकं बालकमम्बुजिन्याः पत्राणि कृष्णं लवणं च तुल्यम् । दग्ध्वा पुटान्तः स्वरसं निदध्यात्पकस्य तस्मिन्बृहतीफलस्य ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि दुद्वर्तितं तेन विलिप्तमात्रम् । पुंसो भवत्युन्मदवाजिमेदूसंकाशमातालमभिप्रमाणम् ॥ भिलावा, सुगन्धवाला, कमलिनीके पत्ते और कालानमक समान भाग लेकर सबको मिट्टी के बरतन में बन्द करके भस्म करें | लिङ्गको भैंसके गोबरसे अच्छी तरह रगड़नेके बाद कटेलीके पके हुवे फलेांके रसमें मिलाकर उपरोक्त भस्मका लेप करनेसे लिंग अत्यन्त पुष्ट और वृहद् हो जाता है । (४९०७) भल्लातकादिलेप: (२) ( रा. मा. । शिरोरोगा . ) भल्लातकै बृहतीफलैर्वा सुश्लक्ष्णपिष्टै बुतैलयुक्तैः । सम्मिश्रितैर्वै मधुना लिप्त - मल्पैर्दिनैः शाम्यति शक्रलुप्तम् ॥ भिलावे अथवा कटेलीके फलको अत्यन्त महीन पीसकर अरण्डीके तेल में मिला लें । इसमें शहद मिलाकर लेप करने से गंज ( इन्द्रलुप्त ) थोड़े दिन में ही नष्ट हो जाता है । (४९०८) भल्लातकादिलेप: (३) ( वृ. नि. र. । ग्रहण्य. ) भल्लातकास्थीनि दन्तीनिम्बकपोतविट् । गुडसौराष्ट्रयमृतजैर्लेपः श्लेष्मा साञ्जये ।। For Private And Personal Use Only भिलावा, हाथीकी हड्डी, दन्ती, नीमकी छाल, कबूतरी विष्टा (बट), गुड़, सौराष्ट्री (फटकी) Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६५५] और बछनाग विष समान भाग लेकर सबको । मिर्च, पीपल, शंख, कूठ, नीलाथोथा, पांचों नमक, अत्यन्त महीन पीसकर लेप करनेसे कफज बवा- सज्जीखार, जवाखार और कलियारी । इन सबके सीर नष्ट होती है। अत्यन्त महीन चूर्णको लोहपात्रमें सेंड और आकके (४९०९) भल्लातकादिलेपः (४) चार गुने दूधमें पकाकर गाढ़ा लेप बना लें । (वै. जी. । विलास ४; शा. ध. । ख. ३ अ. इसे किलास कुष्ठ, तिल, कालक, मस्से, ११: वृ. नि. र.; यो. र. । गण्डमाला.) | अर्शके मस्से और चर्मकील पर सलाईसे लगानेसे भल्लातकासीसहुताशदन्ती ये सब नष्ट हो जाते हैं। मूलगुडस्नुपरविदुग्धदिग्धैः। ___नोट-इसे सावधानी पूर्वक लगाना चाहिये । लेपोचितैगच्छति गण्डमाला | अन्य स्थानमें लगनेसे घाव हो जायगा । समीरवेगादिव मेघमाला ॥ (४९११) भाग्यांदिलेपः (१) भिलावा, कसीस, चीता, दन्तीमूल और (व. से. । उपदंशा.) गुड़ समान भाग लेकर सबको अत्यन्त महीन भाभँसम्भवशिखरिजमूलं पीस कर सेहुंड (सेंड---थूहर) और आकके दूधमें भद्रश्रियं च सम्पिष्टम् । मनःशिलाञ्च मधुना शमयत्युपदंशमचिरेण ॥ मिलाकर लेप बना लें। भरंगीकी जड़, चिरचिटे (अपामार्ग) की ____ इसे लगानेसे गण्डमाला इस प्रकार नष्ट हो जड़, चन्दन और मनसिलके समान भाग-मिश्रित जाती है जैसे पवनके वेगसे मेधमाला । महीन चूर्णको शहदमें मिलाकर लेप करनेसे उप(४९१०) भल्लातकादिलेपः (५) दंश ( आतशक ) के घावोंको शीघ्र ही आराम (ग. नि.; वृ. मा. । कुष्टा.; वा. भ. । चि. अ. २०) | हो जाता है। भल्लातकद्वीपिसुधार्कमूलं (४९१२) भार्या दिलेपः (२) गुअाफलं त्र्यूषणशङ्खचूर्णम् । (व. से. । अन्त्रवृद्धिरो.; रा. मा. । वृदयुपदंशा. १६) कुष्ठं सतुत्थं लवणानि पञ्च तथाम्बुना तु सम्पिष्टं मूलं भाङ्गा प्रलेपनात् । क्षारद्वयं लाङ्गलिकां च पक्त्वा ॥ कुरण्डं गण्डमालाश्च हन्त्यवश्यं न संशयः ॥ स्नुगर्कदुग्वे घनमायसस्थं भरंगीकी जड़को पानीके साथ अत्यन्त महीन ____ शलाकया तद्विदधीत लेपम् ।। पीसकर लेप करनेसे अण्डवृद्धि और गण्डमाला कुष्ठे किलासे तिलकालकेषु अवश्य नष्ट हो जाती हैं। मषेषु दुर्नामसु चर्मकीले ॥ (४९१३) भूम्यामलक्याद्यो लेपः भिलावा, चीतामूल, थूहर (सेंड---सेहुंड)की । (वै. म. र. । पटल १६) जड़, आककी जड़, चींटली (गुञ्जा--रत्ती), सोंठ, तामलकी नेत्ररुजं पिष्टा स्तन्येन ताम्राक्ता। For Private And Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि सैवाक्षिरोगमभिनवमपनयति विलेपनान्मूनि ।। (४८१७) भृाराजादिलेपः (३) भुईआमलेको स्त्रीके दूधके साथ ताम्रपात्रमें (र. र. । उपदंशा.) घोटकर शिरपर लेप करनेसे नवीन नेत्राभिष्यन्द | मार्कवस्त्रिफलादन्तीताम्रचूर्णमयोरजः। नष्ट होता है। | उपदंशं निहन्त्येतद्वामिन्द्राशनियेथा ।। (४९१४) भूस्तृणादियोनिलेपः | भंगरा, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, ताम्र(ग. नि. । वन्ध्या . ५) चूर्ण और लोहचूर्ण समान भाग लेकर सबको भूस्तृणस्य तु मूलानि वचा मुञ्जातकं तथा। अत्यन्त महीन पीस लें। समभागानि मधुना योनिलेपो निशामुखे । इसका लेप करनेसे उपदंश अत्यन्त शीघ्र शोभनं जनयेत्पुत्रं बलवीर्यसमन्वितम् ॥ नष्ट हो जाता है। गन्धतृणकी जड़, बच और मूंज समान भाग | (४९१८) भृङ्गराजादिलेपः (४) लेकर सबको अत्यन्त महीन पीसकर शहदमें मिला (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१) कर रातको योनिमें लेप करनेसे बलवीर्यवान् सुन्दर पुत्र उत्पन्न होता है। भृङ्गराजरसं गृह्य तथा च सुरसादलम् । | निष्पावकपटोलानां पत्राणि काचिकेन तु ॥ (४९१५) भृङ्गराजादिलेपः (१) पिष्ट्वा वातपीडिकानां लेपनं मेहनस्य च ॥ (भा. प्र. । म. खं. क्षुद्ररोगा.) तुलसीके पत्ते, चांटलीके पत्ते और पटोलके भृङ्गराजकमूलस्य रजन्या सहितस्य च। पत्ते १-१ भाग लेकर सबका महीन चूर्ण बनाकर चूर्णन्तु सहसा लेपाद्वाराह द्विजनाशनम् ।। उसमें १ भाग भंगरेका रस मिलावें। ___भंगरेकी जड़ और हल्दी के चूर्णका लेप करनेसे वाराहदंष्ट्र (गुदभ्रंश रोगका एक भेद) इसे कांजीमें पीसकर लेप करनेसे वातज नष्ट होता है। प्रमेहपिडिका नष्ट होती हैं। (४९१६) भृङ्गराजादिलेप: (२) (४९१९) भृङ्गविषनाशकलेपः (वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.) ( यो. त. । त. ७८) भृङ्गराजहरीतक्योर्मूलमन्तः पुटं दहेत् । नागरं गृहकपोतपुरीषं आरनालेन तल्लेपाच्छेतकुष्ठविनाशनम् ॥ बीजपूरकरसो हरितालम् । भंगरेकी जड़ और हर्रकी जड़ समान भाग | | सैन्धवं च विनिहन्ति विलेपा लेकर दोनोंको बरतनमें बन्द करके जलावें। दाशु भृङ्गजनितं विषमेतत् ।। इस भस्मको काञ्जी में पीसकर लेप करनेसे सांठ, पालतु कबूतरकी बीट, हरताल और श्वेत कुष्ट नष्ट होता है। ' सेंधा नमक समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें। For Private And Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org धूपप्रकरणम् ] इसे बिजौर नीबूके रसमें पीसकर लेप करनेसे भरेका विष तुरन्त नष्ट हो जाता है । (४९२०) भृङ्गादिलेप: ( वै. म. र. । पटल १६ ) जित्वेन्द्रलुप्तं रोमाणि जनयेद्भृङ्गजो रसः । तृतीयो भागः (४९२१) भुजङ्गादिनाशकधूपः (व. से. । कृमि . ) इति भकारादिलेपप्रकरणम् । [ ६५७ ] चिश्चामलकयोश्चापि काललोहसमन्वितः ।। भंगरे अथवा इमली और आमले के रस में कृष्ण लोहके महीन चूर्णको पीसकर लेप करनेसे इन्द्रलुप्त (गंज ) का नाश होकर बाल निकल आते हैं । अथ भकारादिधूपप्रकरणम् । -1926 लाक्षा भल्लातकथ श्रीवासः श्वेताऽपराजिता । अर्जुनस्य फलं पुष्पं विडङ्गं सर्जगुग्गुलुः || एभिः कृतेन धूपेन शाम्यन्ति नियतं गृहे । भुजङ्गमूषकादंशाघुणामशकमत्कुणाः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाख, भिलावा, तारपीनका तेल, सफेद कोयल, अर्जुन के फल और पुष्प, बायबिडंग, राल और गूगल समान भाग लेकर गूगलको तारपोनके तेल में घोट लें और अन्य ओषधियों का चूर्ण करके उसमें मिला लें । धरमें इसकी धूप देने से सांप, चूहे, डांस घुण, मशक और खटमल दूर हो जाते हैं। इति भकारादिधूपप्रकरणम् । (४९२२) भद्रमुस्तायोगः (ग. नि. । नेत्ररोगा . ) छागमूत्रेण सङ्घृष्टभद्रमुस्ताञ्जनेन हि । चिरकालोद्भवं पुष्पं रक्तत्वं चापि नश्यति ॥ अथ भकाराद्यञ्जनप्रकरणम् । बकरीके मूत्र में नागरमोथेको घिसकर आंख में आंजने से पुरानी फूली और आंखोकी लाली नष्ट हो जाती है । For Private And Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [६५८] (४९२३) भानुमतीवतः (१) (लघु) ( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ) भारत - भैषज्य रत्नाकरः । art करञ्जवृक्षस्य निस्तुषं द्विदलीकृतम् । चूर्णितं भावयेत्सम्यङ्मुख्याज्ञ्जनदशांशकम् ॥ जातीरसे सप्ताहं पिष्ट्वा तेनैव कल्पिता । वर्तर्भानुमती नाम छायायां परिशोषिता ।। तोयघृष्टाऽञ्जनाद्धन्ति तिमिरं भास्करो यथा । सुखस्वभावबोधं च कुरुते शीलिता ध्रुवम् ॥ करञ्जके बीजोंका छिलका अलग कर दें और फिर उनका बारीक चूर्ण बना लें । तदनन्तर उसमें उससे दस गुना काला सुरमा मिलाकर सबको २१ दिन तक चमेली के रसमें घोटकर वर्तियां बना लें और उन्हें छाया में सुखाकर रक्खें । इन्हें पानी में घिसकर आंख में आंजनेसे तिमिर नष्ट होता है । (४९२४) भानुमतीवर्तिः (२) (वृहत् ) ( ग..नि. | नेत्ररोगा. र. का. धे. । अ. ५३ ) शुक्लोपला जलनिधिमभवश्च फेनः शैलेयचन्दनयुता खलु शङ्खनाभिः । भागानिमान् समरिचान् समनःशिलांशान् कुर्याद्रसाञ्जनचतुर्गुणसंप्रयुक्तान् ॥ नक्तान्ध्यपिल्लतिमिरक्षतकाचकण्डू शुक्लाक्षिपाककफदोषकृतांश्च रोगान् । भानुर्यथैव तिमिराण्यपहन्ति नूनं मध्वायुता जयति भानुमतीह वर्तिः || मिश्री, समुद्रफेन, भूरिछरीला, लाल चन्दन, शंखनाभि, कालीमिर्च और मनसिल ९ - १ भाग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि तथा रसौत ४ भाग लेकर सबको अत्यन्त बारीक खरल करके बत्तियां बना कर छाया में । इन्हें आंख में लगानेसे नक्तान्ध्य सुखा लें ( रतौंधा ), पिल, तिमिर, क्षत, काच, कण्डू, फूला, नेपाक और अन्य कफज रोग नष्ट होते हैं । (४९२५) भास्करचूर्णम् ( वा. भ. । उ. अ. १३ ) निर्दग्धं बादराङ्गारैस्तुत्थं चेत्थं निषेचितम् । क्रमादजापयः सर्पिः क्षौद्रे तस्मात्पलद्वयम् ॥ कार्षिकैस्ताप्यमरिचस्रोतोजकटुकानतैः । पटुरोधशिलापथ्याकणैलाअनफेनिकैः ॥ युक्तं पलेन यष्ट्रयाच मूषान्तर्ध्यातचूर्णितम् । हन्ति काचार्मनक्तान्ध्यरक्तराजीः सुशीलितः ।। चूर्णो विशेषात्तिमिरं भास्करो भास्करो यथा ॥ नीले थोथेको बेरीके कोयले की अग्निपर तपा तपाकर क्रमशः बकरीके दूध, घी और शहद में बुझावें । तदनन्तर यह नीलाथोथा १० तोले, स्वर्णमाक्षिक भस्म तथा मिरच, स्रोतोञ्जन (सुरमा), कुटकी, तगर, सेंधानमक, लोध, कपूर, हर्र, पीपल, इलायची, रसौत और समुद्रफेनका चूर्ण १। - १। तोला तथा मुलैठीका चूर्ण ५ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर शरावसम्पुट में बन्दकरके भस्म करें और फिर अत्यन्त बारीक पीसकर सुरक्षित रक्खें । इसे आंखांमें लगानेसे काच, अर्म, नक्तान्ध्य (राधा) आंख की लाल रेखाएं और विशेषतः तिमिर नष्ट होता है । For Private And Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम् तृतीयो भागः। [६५९] (४९२६) भास्करवतिः ___ करञ्जकी छालका चूर्ण २० तोले लेकर उसे (व. से. । नेत्ररोगा.; र. का. थे. । अ. ५३) ताम्रपात्रमें कांजीके स्वच्छ जलसे अच्छी तरह खरल करें और फिर एक स्वच्छ कलशमें यह चूर्ण त्रिशभागन्तु नागस्य गन्धपाषाणपञ्चकम् । तथा २० तोले कालीमिर्चका चूर्ण और १ सेर शुल्वतालकयोझै द्वौ वङ्गस्यैकोऽअनत्रयम् ॥ लकुचके फलांका रस और ८ सेर गायका दूध अन्धमूषागतं ध्मात पकं विमलमञ्जनम् । तिमिरान्तककुल्लोके द्वितीयो भास्करो यथा।। डालकर उसका मुख बन्द करके रखदें । इसे पहिले दिन प्रातःकाल से दूसरे दिन प्रातःकाल तक इसी शुद्ध सीसा ३० भाग, शुद्ध गन्धक ५ भाग, प्रकार रहने दे और फिर उसे मथनोसे खूब अच्छी शुद्ध ताम्र और हरताल २-२ भाग, शुद्ध बंग तरह मथकर वस्त्रसे छानकर स्वच्छ रस निकालें । १ भाग और सुरमा ३ भाग लेकर धातुओंको इस रसमें थोड़ासा कपूर डालकर उसे कांसी रेतीसे रितवाकर बारीक चूर्ण करा लें और पीसने और कांस्यमाक्षिकके टुकड़े से इतना घिसें कि योग्य ओषधियोंको पिसवा लें । तत्पश्चात् सबको जिससे समस्त रस काला हो जाय । शराव सम्पुटमें बन्द करके भस्म करें और फिर इसे सायङ्कालके समय सीसेकी सलाईसे बारीक पीसकर अञ्जन बना लें। आंखों में लगानेसे तिमिर नष्ट हो जाता है । इसे आंखमें लगानेसे तिमिर नष्ट होता है । । (४९२८) भीमसेनीकर्पूर: (४९२७) भास्कराञ्जनम् (यो. र. । नेत्ररोगा.) (वै. म. र. । पटल १६) सुधांशोर्वसुभागाः स्युरेलाभागद्वयं तथा। ताम्रपात्रघृष्टमम्लकालिकाच्छवारिणा॥ चन्दनं चाब्धिफेनं च बीजं कतकसम्भवम् ॥ परिणतनक्तमालतरुवल्करजः कुडवं रसाञ्जनं भद्रमुस्तं प्रत्येकं कर्षसम्मितम् ।। कुडवमथोषणस्य लिकुचस्य फलस्वरसम्। । 'सर्व दुग्धे विमर्याथ पिण्डे गोधमपिष्टवत ॥ द्विकुडवमाढकेन पयसा च गवां सहित | कृत्वा पात्रे निधायाय क्षिपेत्पात्रं तथोपरि । दिवसमुखे विशुद्धकलशेऽथ सुसंस्क्रियताम् ॥ | अधः प्रज्वालयेद्दीपं वोऽङ्गष्ठसमानया। अन्येधुर्बहुशः खजेन मथितात्तस्माद्गृहीत्वारसं एवं प्रहरपर्यन्तं वह्नि कुर्याच्च युक्तितः। प्रक्षाल्य प्रबलेन कंसयुगलेनाकाष्यंभावं शनैः। पात्रस्योपरिभागं तु शीतलं रक्षयेद्बुधः॥ सघृष्येन्दुविमिश्रितं तिमिरजिद् स्यादनितं सदाचैलखण्डेन शीतलेन च वारिणा । स्वल्पशः | स्वाङ्गशीतं ततो ज्ञात्वा पश्चात्कर्पूरमाहरेत् ।। सायं सीसशलाकया प्रतिदिनं नाम्ना विदं स्फटिकाकारमत्यच्छं श्वेतहीरमणिप्रभम् । भास्करम् ॥ । भीमसेनाख्यकर्पूरमौषधेषु प्रयोजयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - D [६६०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि कपूर ८ भाग, छोटी इलायची के दाने २ । (१९२९) भैरवाञ्जनम् । भाग, सफेद चन्दन, समन्दर झाग, निर्मलीके फल, (वै. र. । ज्वर.; र. का. धे. । अ. १; र. रसौत और नागरमोथेका चूर्ण १-१ भाग लेकर रा. सु.। ज्वरा.) सबको गायके दूधमें घोटकर उसकी टिकिया | सततीक्ष्णकणागन्धमेकांशं जयपालकम् । बना लें और उसे कासीके पात्रमें रखकर कांसीकी | वैस्त्रियणितं जम्भवारिपिष्टं दिनाष्टकम् ॥ कटोरीसे ढक दें तथा दोनों के जोड़को उड़दके ! नेत्राञ्जनेन इन्त्याशु सर्वोपद्रवयुग्ज्वरम् ॥ आटेसे बन्द कर दें। तत्पश्चात् उसके नीचे दीपक जलावें । दीपक की बत्ती अंगूठे के समान मोटी ____ शुद्ध पारद, फौलादभस्म, पीपल का चूर्ण होनी चाहिये । ऊपर वाले बरतन पर भीगा हुवा और शुद्ध गन्धक १-१ भाग तथा शुद्ध जमाल कपड़ा रखकर उसे ठंडा रखना चाहिये। | गोटा १२ भाग लेकर सबको ८ दिन तक जम्भीरी नीबूके रसमें घोटकर अत्यन्त महीन चूर्ण बनावें। इसी प्रकार १ पहर तक दीपक जलाने के | पश्चात् पात्रके स्वांग शीतल होने पर सन्धि को इसे आंखमें लगानेसे उपद्रव सहित समस्त खोलकर. ऊपरके पात्र में लगे हुवे स्फटिक मणि ज्वर नष्ट हो जाते हैं। और सफेद होरेके समान स्वच्छ कर्पूर को (नोट--यह प्रयोग सावधानी पूर्वक बनाना निकाल लें। | और अनुभवी वैद्यके परामर्श से प्रयुक्त करना __ यही भीमसेनी कर्पूर है जो अनेक प्रयोगों में | चाहिये । जमाल गोटे में तेलका अंश बिल्कुल न पड़ता है। । रहने देना चाहिये ।) इति भकाराघानप्रकरणम्। अथ भकारादिनस्यप्रकरणम्। (४९३०) भस्मेश्वररसः (नस्य) छिकिकामेतदर्धा तु कट्फलं छिक्किकार्यकम् । (र. का. धे. । अ. १) मरिचं छिकिकातुल्यं वस्त्रपूर्त प्रकल्पयेत् ।। आरण्यगोमयं शुष्कं शुष्कं दग्ध्वा प्रकल्पयेत्। नस्येन रक्तिकामानं भक्षणेऽपि च तन्मतम् । तत्पुटेदर्कदुग्वेन शुष्कं वारत्रयेण च ॥ कफवातभवां पीडां शिरोहमासिकागताम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कल्पप्रकरणम् ] अयं भस्मेश्वरो नाम नाशयेनात्र संशयः ॥ सूखे अरण्य उपलोको भस्मको आकके दूध की ३ भावना देकर सुखा लें और फिर उसमें उससे आधा नकछिकनीका चूर्ण और उतना ही काली मिर्च का चूर्ण तथा मिर्चसे आधा कायफलका चूर्ण मिलाकर सबको अच्छी तरह घोटकर कपड़े से छान लें 1 तृतीयो भागः । (४९३३) भृङ्गराज - कल्पः [ ६६१] नाशयति पिशाचग्रहशाकिनिभूतादिरक्षांसि ॥ इन्द्रायणके पक्के फलको गोमूत्र में पीसकर नस्य देनेसे पिशाच, ग्रह, शाकिनी, भूत और राक्षस विकार नष्ट होते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसमें से १ रत्ती चूर्ण सूंघने तथा खानेसे शिर, हृदय और नासिकाकी कफवातज पीड़ा अवश्य नष्ट हो जाती है । (४९३१) भूतोन्मादनाशकनस्यम् भंगरेका रस और बकरीका दूध बराबर बराबर लेकर दोनों को एकत्र मिलाकर धूप में गर्म करके नस्य (ग.नि. । भूतोन्मादा. ) नस्येन च गोमूत्रे देवाधिपवारुणीफलं पकम् । लेनेसे सूर्यावर्स रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । इति भकारादिनस्यप्रकरणम् । (४९३२) भृङ्गराजादिनस्यम् (व. से. । शिरो.; वृ.नि. र. यो. र. । शिरोरोगा.) भृङ्गराजरसछागक्षीरतुल्यो ऽर्कतापितः । सूर्य्यावर्त्त निहन्त्याश्शु नस्येनैत्र प्रयोजितः ।। अथ भकारादिकल्पप्रकरणम् । ( र. चि. म. । स्त. ९ ) | । अथातो भृङ्गराजस्य कल्पमव्ययकारकम् । प्रवक्ष्यामि जरादुःखनाशनं जीविते हितम् ॥ गृहीत्वा भृङ्गराजस्य लघुबीजानि यानि च समादाय ततस्तानि वापयेच्च समन्ततः ॥ त्रिफलाजल सिक्तानि रोहयेदतियत्नतः । उत्पद्यते तदा तस्माद्भृङ्गराजोतिकोमलः || मृदुपल्लवसंकीर्णभूतलः प्रबल: कलः । तदर्थं प्रत्यहं नीत्वा कवलं तिलमिश्रितम् ॥ शेफालिकापत्ररसं तत्कालमनुपाययेत् । तच्चुलूकद्वयं नित्यं शीतलं शीलितं भवेत् ॥ ताम्बूलं भक्षयेत्पश्चाद्गन्धपूगादिसंस्कृतम् । एवं च प्रत्यहं कुर्यात्कल्पे श्रद्धापरो नरः ।। द्वियामाद्भुज्यते पथ्यं दुग्धं भक्तं सशर्करम् । अथ मुद्गष्घृतं नान्यद्भुज्यते पथ्यसेवने ॥ अनेन शुभमार्गेण कर्तव्यं कल्पसेवनम् । For Private And Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६६२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि कोमला निर्मला: केशा वृद्धानामपि देहिनाम् ॥ संभालुका स्वरस बिना गर्म किये हुवे ही पी जायं । जायन्ते सकले देहे कल्पकर्तुर्न संशयः। तत्पश्चात् सुपारी और इलायची आदि सुगन्धित शरीरं नूतनं कुर्यादृढा दन्ता भवन्ति च ॥ | पदार्थ युक्त पान खावें । अतिप्रभ शुभं तस्य शरीरं जायतेतराम् । इसके २ पहर बाद दूध, भात, खांड, मूंग एवं षण्मासपर्यन्तं भृङ्गराजस्य नित्यशः॥ | और घृतयुक्त भोजन करें। इनके अतिरिक्त अन्य कल्पं कुर्यात्मयत्नेन नरो देवसमो भवेत् । । | कोई चीज़ न खावें । माहात्म्यं शक्यते नास्य वक्तुं कल्पशतैरपि ।। ___भंगरेके सूक्ष्म बीजांको बो कर त्रिफलेके काथ इस प्रकार ६ मास तक भंगराज सेवन से सींचें। इससे जो भंगरा उत्पन्न होगा वह करनेसे वृद्ध मनुष्यके बाल भी कोमल और निर्मल अत्यन्त कोमल होगा। प्रति दिन प्रातः काल | हो जाते हैं । शरीर नवीन और दांत दृढ़ हो उसके कोमल कोमल पत्ते ( कॉपल) लेकर तिलेोके | जाते हैं तथा शरीर अत्यन्त कान्तिमान् देवतुल्य साथ मिलाकर चबावें और ऊपर से २ चुल्लू | हो जाता है। इति भकारादिकल्पप्रकरणम् । अथ भकारादिरसप्रकरणम्। (४९३४) भक्तपाकवटी (बृहत्) । विड्बन्धे कफजे त्रिदोषजनिते (भुक्तपाकवटी) ___ ह्यामानुबन्धेऽपि च ॥ (र. सा. सं.; र. रा. सु. । अजीर्णा.) मन्दामौ विषमज्वरे च सकले शूले अभ्रं पारदगन्धको सदरदौ ताम्रश्च तालं शिला त्रिदोषोद्भवे बङ्गश्च त्रिफला विषश्च कुनटी भाव्याश्च हन्यात्तानपि भक्तपाकवटिका भूयश्च सामं दन्त्यम्बुना। __ जयेत् ॥ शृङ्गी व्योषयमानिचित्रजलदं वे जीरके टङ्कणं एलापत्रलवाहिङ्गुकुटकीजातीफलं सैन्धवम् ।। __ अभ्रकभस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध एतान्याईकचित्रदन्तिसुरसावासानीरैबिल्वजैः शिंगरफ (हिंगुल ), ताम्र भस्म, हरताल, दन्तीके पत्रोत्यैरपि सप्तधा सुविमले खल्ले विभाव्यान्यतः। काथमें घोटा हुवा मनसिल, बंगभस्म, हरै, बहेड़ा, खादेवल्लमितं तथा च सकलव्याधी आमला, शुद्ध बछनाग, काकड़ासिंगी, सांठ, मिर्च, प्रयोज्या बुधै- । पीपल, अजवायन, चीतेकी जड़, नागरमोथा, सफेद For Private And Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६६३] - - जीरा, कालाजीरा, सुहागेकी खील, इलायची, तेज-1 स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, पात, लांग, हींग, कुटकी, जायफल और सेंधानमक | शुद्ध हरताल, शुद्ध मनसिल, अभ्रकभस्म, कान्त समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली | लोहभस्म, निसोत, दन्तीमूल, नागरमोथा, चीताबनावें और फिर उसमें भस्में तथा अन्य औषधांका | मूल, सांठ, पीपल, काली मिर्च, हरे, अजवायन, चूर्ण मिलाकर सबको अद्रक, चीता, दन्तीमूल, काला जीरा, हाँग कुटकी,पाठा, संधा नमक,अजमोद, तुलसी, बासा और बेलके पत्तेके स्वरस याकाथकी जायफल और जवाखार समान भाग लेकर प्रथम सात सात भावना देकर ३-३ रत्तीकी गोलियां | पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें बना लें। अन्य औषधांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको इनके सेवनसे मलबन्ध, कफप्रधान सन्निपात, धूपमें अद्रक, संभालु, हुलहुल और तुलसीके आम, अग्निमांद्य, विषम ज्वर तथा समस्त प्रकारके स्वरसकी १-१ भावना देकर अच्छी तरह धोटकर शूल नष्ट होते हैं। १-१ रत्तीको गोलियां बना लें। भक्तवारिगुटिका इनके सेवनसे अग्नि प्रदीप्त होती है। (व. से. । परिणाम शूला.) (गुणोंके लिये "भुक्तोत्तरीया वटी” देखिये) पानीयभक्तवटी सं. ४३२५ देखिये । (४९३५) भक्तविपाकवटी | (४९३६) भक्तोत्तरचूर्णम् (भक्तपावकगुटिका) (भै. र. । वृद्धिरोगा.) (रसे. सा. सं.। अजीर्णा.; र. र. । रसायना. | अभ्रकं गन्धकश्चैव पिप्पली लवणानि च । र. च. । अजीर्णा.) त्रिक्षारं त्रिफला चैव हरितालं मनःशिला ।। माक्षिकं रसगन्धौ च हरितालं मनःशिला। पारदं चाजमोदा च यमानी शतपुष्पिका। गगनं कान्तलौहं च सर्वमेषां समांशकम् ॥+ जीरकं हि मेथी च चित्रकं चविका वचा ॥ त्रिवृदन्तीवारिवाहं चित्रकश्च महौषधम् ।। | दन्ती च त्रिता मुस्ता शिला च मृतलौहकम् । पिप्पली मरिचं पथ्या यमानी कृष्णजीरकम् ॥ अञ्जनं निम्बबीजानि पटोलं वृद्धदारकम् ॥ रामठं कटुका पाठा सैन्धवं साजमोदकम् ।। सर्वाणि चाक्षमात्राणि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । जातीफलं यवक्षारं समभागं विचूर्णयेत् ॥ शतं कनकवीजानि शोधितानि प्रयोजयेत् ॥ आर्द्रकस्य रसेनैव निर्गुण्ड्याः स्वरसेन च। एतदनिविद्धयर्थमृषिभिः परिकीर्तितम् । सूर्यावर्त्तरसेनैव तुलस्याः स्वरसेन च ॥ | श्लीपदान्यन्त्रद्भिश्च वातद्भिश्च दारुणाम्॥ आतपे भावयेद्वैधः खल्लपात्रे च निर्मले।। अरुचिं चामवातश्च शूलं वातसमुद्भवम् । पेषयित्वा वटी खादेद्गुअाफलसमप्रभाम् ॥ गुल्मं चैवोदरव्याधीनाशयत्याशु तत्क्षणात् ॥ ___ + कई प्रन्थों में यह इलोका नहीं है । । भक्तोत्तरमिदं चूर्णमश्विभ्यां निर्मितं पुरा । For Private And Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६६४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [भकारादि अभ्रकभस्म, शुद्ध गन्धक, पीपल, सेंधानमक, । मिर्चका चूर्ण सबसे दो गुना लेकर प्रथम पारे काला नमक, बिडलवण, सामुद्र लवण, सांभर, गन्धकको कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, हरं, बहेडा, आमला, औषधे मिलाकर सबको ३ दिन चीतेके काथमें शुद्ध हरताल; शुद्ध मनसिल, शुद्ध पारा, अजमोद, / घोटकर ३-३ रत्तोकी गोलियां बना लें। अजवायन, सौंफ, जीरा, हींग, मेथी, इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे भगन्दर चीतामूल, चव, बच, दन्तीमूल, निसोत, | शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। नागरमोथा, शिलाजीत, लौहभस्म, सुरमा, (१९३८) भगन्दरोपदंशारिरसः नीमके बीज (निबौली) की गिरी, पटोल और (र. का. धे. । अ. ४८) विधारा ११-१। तोला तथा शुद्ध धतूरेके बीज | रससोरककाशीशतुवरीटङ्कणं विषम् । १०० नग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली | पकस्तु डमरूयन्त्रे रसोऽयं हि द्विगुधकः ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका महीन | भगन्दरारिः कथितो दृष्टश्वाऽयं भिषग्वरैः ।। चूर्ण मिलाकर सबको अच्छी तरह घोटकर रक्खें। शुद्ध पारा, शोरा, कसीस, फटकी, सुहागा इसके सेवनसे अग्नि दीप्त होती और श्लीपद, और शुद्ध बछनाग समान भाग लेकर सबको एकत्र अन्त्रवृद्धि, भयंकर वातवृद्धि, अरुचि, आमवात, खरल करके ( ४ पहर ) डमरुयन्त्रमें पकावें और वातज शूल, गुल्म और उदररोग नष्ट होते हैं। फिर उसके स्वांग शीतल होने पर निकालकर | सुरक्षित रखें। (मात्रा १-१॥ माशा ।) __इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार सेवन करनेसे भगन्दरहररसः भगन्दर और उपदंश नष्ट होता है। (रसे. चि. म.। अ. ९; रसे. सा. सं.; र. रा. (सेवन विधि-औषधको लांगके कल्कमें सु. । भगन्दर. र. का. धे. । अ. ४९.) लपेटकर निगलवा देना चाहिये । भोजनमें नमक न रविताण्डवरस देखिये। देना चाहिये।) (४९३७) भगन्दरारिरसः भल्लातकलौहः (र. का. धे. । अ. ४९) (च. द.। अर्श.) सूतं गन्धं मृतं ताम्रमभ्रकं दरदं समम् । । ___ " भल्लातकलेहः " प्रयोग सं. ४८५९ मरिचं द्विगुणं दत्त्वा मर्दयेचित्रकाम्बुना ॥ | देखिये। त्रिदिनं भक्षयेनित्यं मधुना रक्तिकात्रयम्। । (४९३९) भल्लातकादियोगः भगन्दरं जयेच्छीघ्र सविषं शम्भुशासनात् ॥ | (ग. नि. । गुल्मा.) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, अभ्रक- | भल्लातकं पिप्पली च लोहचूर्ण शिलाजतु । भस्म और शुद्ध हिंगुल १-१ भाग तथा काली- | लशुनं वा प्रयुञ्जीत विधिवद्गुल्मशान्तये ॥ For Private And Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] तृतीयो भागः [९६५] शुद्ध मिलावा, पीपल, लोहभस्म और शिला- मिर्च, पीपल और गन्धकका चूर्ण १-१ पल जीत समान भाग लेकर एकत्र खरल करें। । (५-५ तोले ) मिलाकर सबको १ दिन नीबूके रसमें घोटकर बेरकी गुठलीके बराबर गोलियां इसे या ल्हसनको यथोचित मात्रानुसार सेवन बनाकर रख लें। करनेसे गुल्म नष्ट होता है। __ इनके सेवनसे अजीर्ण, हृद्रोग, गुल्म, कृमि(मात्रा-४-६ रत्ती ) जन्य रोग, तिल्ली, अग्निमांद्य, आमवात, शूल, अति सार, संग्रहणी, जलोदर, अर्श और अन्य बहुतसे (४९४०) भस्मवटी वातकफज रोग नष्ट होते हैं । (र. रा. सु. । अजीर्णा.) (४९४१) भस्मसूतरसः चूर्णीकृतं पश्चपलं तुषाम्ले स्विनं शिवायुग्विषतिन्दुवीजम् । (र. का. धे. । अ. १०) हिछु कृमिघ्नं त्रिपटु त्रिदीप्यं अजाजीधान्यपथ्याभिः सक्षौद्रैः सकटुत्रिकैः। पलं पृथक् त्र्यूषणगन्धयुक्तम् ॥ एतैः सार्ध भस्मसूतः सद्यो वान्ति विनाशयेत् ॥ घूर्णीकृतं निम्बुरसेन भाव्यं ___जीरा, धनिया, हर्र और सोंठ, मिर्च तथा कोलास्थिमात्रा वटिका विधेया। पीपलका चूर्ण समान भाग लेकर उसमें पारदभस्म संसेविता हन्ति नृणामजीर्ण मलाकर शहदके साथ चाटनेसे वमन शीघ्र ही द्रोगगुल्मं कृमिजांश्च रोगान् ॥ नष्ट हो जाती है । प्लीहामिमान्यात्र्तिमथामवातं (चूर्णकी मात्रा १ से ३ माशे तक । पारद शूलातिसारं ग्रहणीरुजं च । भस्म १ से २ रत्ती तक । शहद २ तोले।) जलोदराशे कृमिजांश्च रोगा | (१९४२) भस्मामृतरसः (१) निहन्यावहून् वातकफोद्भवांश्च ॥ (रसे. चि. म. । अ. ९) ५-५ पल कुचला और हर्रको कपड़ेकी पोटलीमें बांधकर दोलायन्त्र-विधिसे १ दिन कांजीमें पलैकं मूञ्छितं सूतं मरिचं हिङ्गु जीरकम् । पकावें और फिर हरेकी गुठली निकाल दें और प्रतिकर्ष वचाशुण्ठि तत्सर्वमार्कव द्रवैः ॥ कुचलेको छील डालें तथा उसके भीतरकी पत्ती भी दिनं पिष्ट्वा लिहेन्मासं मधुना वह्निदीप्तये । निकाल दें । तदनन्तर दोनोंको पीस लें और हींग, ककं भक्षयेच्चानु दाडिमं नागरं गुडैः॥ बायबिडंग, सेंधानमक, कालानमक, सांभर, देसी । मूञ्छित पारद ( कज्जली या रससिन्दूर ) अजवायन, खुरासानी अजवायन, अजमोद, सोंठ, । ५ तोले तथा काली मिरच, हींग, जीरा, बच और For Private And Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः [ ६६६ ] सांठका चूर्ण १।- १। तोला लेकर सबको भंगरेके रसमें १ दिन घोट कर १–१ माशेकी गोलियां बना लें | भारत इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे अग्नि दीप्त | होती है । अनुपान -- औषध खानेके पश्चान् अनारदाना, सांठ और गुड़ का चूर्ण समान भाग मिश्रित १। तोला खाना चाहिये । (४९४३) भस्मामृतरस: (२) ( रसे. चि. म. । अ. ९ ) धान्याभ्रं सूतकं तुल्यं मर्दयेन्मारक द्रवैः । दिनैकं तिलकल्केन पटं लिप्त्वाथ वर्तिकाम् || कृत्वैव तस्य तैलेन विलिप्य च पुनः पुनः । प्रज्वाल्य तामधः पात्रे सतैलं पारदं पचेत् ॥ स दिनं भूधरे पको भस्मीभवति नान्यथा । योजितो रसयोगेशस्तत्तद्रोगहरो भवेत् ॥ मनं खल्वेऽस्य विशेषादनिकारकः । अत्र प्रकरणे वक्ष्ये शुद्ध मृतस्य मारिकाः ॥ औषधीर्याः समस्ता वा व्यस्ताऽव्यस्ता दशोत्तराः। योजिता घ्नन्ति देवेशि सूतं गन्धं विनापि ताः ॥ मेघनादो वज्रवल्ली देवदाली च चित्रकम्। बला शुण्ठी जयन्ती च कर्कोटी तुम्बिका तथा ॥ कटुतुम्बीकन्द रम्भाकन्दवारणशुण्डिकाः । कोषातक्यसृताकन्दं कन्यका चक्रमर्द्दकम् ॥ सूर्यावर्त्तः काकमाची गुञ्जा निर्गुण्डिका तथा । लाङ्गली सहदेवी च गोक्षुरः काकतुम्बिका || जाती लज्जालुपके हंसपादभृङ्गराजकम् । ब्रह्मवीजं च भूधात्री नागवल्ली वरी तथा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि स्नुधर्कदुग्धं तुलसी धत्तूरो गिरिकर्णिका । गोपाली पटुमेताभिर्वभूतागतं पचेत् ॥ ग्रावा दग्धास्पुषा दग्धा दग्धा वल्मीकमृत्तिकाः। लोहकिट्टं च घस्रार्द्धमाजक्षीरेण मर्दयेत् ॥ नृकेशशणसंयुक्ता वज्रभूषा च तत्कृतिः ॥ धान्याक और शुद्ध पारा बराबर बराबर लेकर दोनोंको १ दिन मारक ओषधियोंके रसमें खरल 1. करें फिर उसमें समान - भाग तिलकी पिट्टी मिलाकर १ दिन घोटें और उसका स्वच्छ वस्त्रपर लेप करके उसकी बत्ती बनावें । इसको तिलके तेलमें अच्छी तरह तर करके उसके एक सिरेमें आग लगा दें और दूसरे सिरेको चिमटे आदिसे पकड़ कर बत्तीको उलटा लटका दें तथा उसके नीचे चीनी या कांचका पात्र रख दें। इस पात्रमें जो पारदयुक्त तैल इकट्ठा हो जाय उसे मूषा में बन्द करके १ दिन भूधर यन्त्रमें पकावें । इस क्रियासे ita भस्म बन जायगी । रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करानेसे यह समस्त रोगों को नष्ट करती है । यदि इसे तप्त खल्वमें मर्दन कर लिया जाय तो इसकी जठराग्निवर्द्धक शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है । यहां प्रसंगवश पारेकी मारक ओषधियों के नाम भी लिखते हैं । इन ओषधियोंके योगसे गन्धकके बिना भी पारेकी भस्म बन जाती है । कांटे वाली चौलाई, हड़जोड़ी, विंडाल, चीता, खरैटी, सोंठ, जयन्ती (जैत), ककोड़ा, कड़वी For Private And Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६६७] तुम्बी, कड़वी तूंबीकी जड़, केलेका कन्द, हाथीसुंडी, ! भाग लेकर सबको अच्छी तरह खरल करके तुरई, गुडूचीकन्द, ग्वारपाठा, पमाड़, हुलहुल, रक्खें । मकोय, गुंजा, संभाल, कलियारी, सहदेवी, गोखरु, । इसे ५ रत्तीकी मात्रानुसार अदरकके रसके काकंनासिका, चमेली, लज्जालु, करेला, हंसपदी, | साथ देनेसे सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। भंगरा, ढाकके बीज, भुईआमला, पान, शतावर, भागोत्तरगुटिका थूहरका दूध, आकका दूध, तुलसी, धतूरा, कोयल, - (भागोत्तरवटकः ) गोपाली और सेंधा नमक । बब्बूलादिगुटिका प्र. सं. ४७३३ देखिये। इन सब या इनमें से दस या ततोधिक | (४९४५) भानुचूडामणिरसः ओषधियोंके साथ धोटकर वज्रमूषामें पकानेसे पारेको (रसे. सा. सं. । ज्वर.) भस्म हो जाती है। सुवर्ण रससिन्दूरं प्रवालं वङ्गमेव च । वज्रमूपानिर्माण विधि--चूना, जले हुवे | लौह ताम्र तेजपत्रं यमानीं विश्वभेषजम् ।। तुष, जली हुई बमीकी मिट्टी और मण्डूर समान | सैन्धवं मरिचं कुष्ठं खदिरं द्विहरिद्रकम् । भाग लेकर सबको २ पहर तक बकरीके दूधमें रसाञ्जन माक्षिकञ्च समभागश्च कारयेत् ।। खरल करके उसमें कैंची से बारीक बारीक कटे हुवे बारिणा वटिका कार्या रक्तिद्वयप्रमाणतः। मनुष्यके बाल और सन मिला दें और फिर इस | भक्षयेत्मातरुत्थाय सर्वज्वरकुलान्तकृत् ॥ मसालेकी मूषा बनावें । इसे वज्रमूषा कहते हैं। ___ सुवर्णभस्म, रससिन्दूर, मूंगा भस्म, बंगभस्म, (४९४४) भस्मेश्वरचूर्णम् लोहभस्म, ताम्रभस्म तथा तेजपात, अजवायन, (भस्मेश्वररसः ) सेठ, सेंधानमक, कालीमिरच, कूठ, खैरसार, हल्दी, ( रसे. सा. सं.; भा. प्र. । ज्वर.; रसे. चि. म. । दारुहल्दी और रसौतका चूर्ण तथा सोनामक्खी अ. ९; र. का. धे.। अ. १; र. म. । अ. ६; भस्म समान भाग लेकर सबको पानीके साथ घोट र. रा. सु. । कफवरा.; वृ. यो. त.।। कर २-२ रत्तीकी गोलियां बनावें। त. ५९) ___ इन्हें प्रातःकाल सेवन करनेसे समस्त प्रकाभस्म षोडशनिष्कं स्यादारण्योपलकोद्भवम् । रके ज्वर नष्ट होते हैं। निष्कत्रयश्च मरिचं विषनिष्कञ्च चूर्णयेत् ।। अयं भस्मेश्वरो नाम सनिपातनिकृन्तनः । । (४९४६) भास्करामृताभ्रम् पञ्चगुञ्जामितं खादेदाईकस्य रसेन तु॥ (भै. र. । अम्लपित्ता.) अरने उपलांकी भस्म १६ भाग, कालीमिर्च | वासामृताकेशराजपर्पटीनिम्बभृङ्गकम् । का चूर्ण ३ भाग, और शुद्ध बछनागका चूर्ण १ । मुस्तं वृश्वीरबहती वाटयालकशतावरी।। For Private And Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६६८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि एषां सत्त्वैः मलोन्मुक्तैर्मर्दितं विमलाभ्रकम्। । मर्दितं हि तदनु ताम्रनिर्मिते सहस्रपुटितं तत्र शतावर्या रसं क्षिपेत् ॥ धारयेच सकलं हि सम्पुटे । वारद्वादशकं दत्त्वा वटिकां कारयेद्भिषक् । मृतस्नया च परिवेष्टय सम्पुट भास्करामृतनामेदमम्लपित्तं नियच्छति ॥ पाचयेश्च सततं दृढामिना । शूलमन्नद्रवं शूलं शूलञ्च परिणामजम् ।। यामयुग्ममितमेव मात्रया छदि हल्लासमरुचिं तृष्णां कासश्च दुर्जयम् ॥ यन्त्रके हि कुरु शीतलं स्वयम् । हृद्ग्रहं कामलां रक्तपित्तं यक्ष्माणमेव च। । जायतेऽतिरुचिरो महारसो दाहं शोथं भ्रमि तन्द्रां विस्फोटं कुष्ठमेव च। पूर्ववद्भवति भास्करोदयः।। श्वासं मूच्र्छाश्च मन्दाग्निं यकृत्प्लीहोदरं तथा॥ | चित्रकाकरसेन योजितो सहस्रपुटी अभ्रकभस्मको बासा, गिलोय, राजयक्ष्मकफवातनाशनः॥ काला भंगरा, पित्तपापड़ा, नीमकी छाल, सफेद | शुद्ध हरताल, शुद्ध सोनामक्खी, शुद्ध गन्धक, भंगरा, नागरमोथा, सफेद पुनर्नवा, बनभण्टा, खरै- | शुद्ध पारा, शुद्ध मनसिल और कसीस समान भाग टीकी जड़ और शतावरीके स्वरस में १-१ दिन लेकर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और घोटकर अन्तमें शतावरके रसकी १२ भावना देकर फिर उसमें अन्य ओषधिर्या मिलाकर सबको बासा, (१-१ रत्तीकी ) गोलियां बना लें। अदक और तुलसीके रसमें एक एक दिन घोटइनके सेवनसे साधारण शूल, अन्नद्रव शूल, कर गोला बनावें और उसे ताम्रके सम्पुट में बन्द परिणाम शूल, छर्दि, जी मिचलाना, अरुचि, तृष्णा, | करके उसपर ४-५ कपडमिट्टी करके लवणयन्त्र कष्टसाध्य खांसी, हृद्ग्रह, कामला, रक्तपित्त, राज में २ पहर तक तीवाग्निपर पकावें । जब यन्त्र यक्मा, दाह, शोथ, भ्रम, तन्द्रा, बिस्फोटक, कुष्ठ, स्वांग शीतल हो जाय तो सम्पुटमें से औषधको श्वास, मूर्छा, मन्दाग्नि, यकृत्, प्लीहा और उदर निकालकर पीसकर रक्खें। रोग नष्ट होते हैं। इसे अद्रक और चीतेके रसके साथ सेवन (४९४७) भास्करो रसः (१) करनेसे राजयक्ष्मा,कफ और वायु नष्ट हो जाता है। (र. प्र. सु. । अ. ८) ( मात्रा-१-२ रत्ती) तालं ताप्यं गन्धकं सूतकं च | (४९४८) भास्करो रसः (२) शिलाई वै खेचरं चेत्समं हि । (मै. र. । अग्निमान्द्या.; र. रा. सु. । अजीर्णा.) चूर्ण कृत्वा चाटरूषेण मधु विषं मूतं फलं गन्धं त्र्यूषणं टङ्गजीरकम् । साणैवं सौरसाया रसेन ॥ J एकैकं द्विगुणं लौह शङ्खमभ्रं वराटकम् ।। For Private And Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः ६६९] सर्वतुल्यं लबङ्गश्च जम्बीरैर्भावयेद्भिषक् । । इनके सेवनसे पाचन विकारसे उत्पन्न हुवा सप्तवासरपर्यन्तं ततः स्याद्रास्करो रसः॥ | शूल नष्ट होता है तथा अपान वायु खुल जाता है। गुनाद्वयप्रमाणेन वटी कुर्याद्विचक्षणः।। । (१९५०) भिषभारसः ताम्बूलीदलयोगेन वटी सञ्चय भक्षयेत् ॥ (वृ. यो. त. । त. ५९) शूलरोगेषु सर्वेषु विमूच्याममिमान्यके। रसं गन्धकतानं च नागं वर्ष विर्ष तथा ।। सयो वहिकरो ोष चन्द्रनाथेन भाषितः ॥ | जेपाल स्वर्णबीजानि समभागानि कारयेत् । ___ शुद्ध बछनाग विष, शुद्ध पारा, हरं, बहेड़ा, आईके सप्तभाव्यानि सप्तभाव्यानि चित्रके ॥ आमला, शुद्ध गन्धक, सांठ, मिर्च, पीपल, सुहागेकी | निर्गुण्डयां सप्तभाव्यानि सिद्धोऽयं खील और जीरा एक एक भाग तथा लोहभस्म, भिषभारसः। (2) शंखभस्म, अभ्रकभस्म और कौड़ी भस्म २-२ | गुआमात्रप्रमाणेन वटकान्कारयेत्ततः॥ भाग तथा लौंग इन सबके बराबर लेकर प्रथम बटीमेकां प्रयुअात शृङ्गबेररसेन तु । पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें | सर्वज्वरहरा ज्ञेया याममात्रं तु शाम्यति ।। अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर सबको शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, सीसासात दिन तक जम्बीरी नीबूके रसमें धोटकर २-२ भस्म, बंगभस्म, शुद्ध वछनाग विष, शुद्ध जमालरत्तीकी गोलियां बना लें। गोटा और शुद्ध धतूरेके बीज समान भाग लेकर इनमेंसे १-१ गोली पानमें रखकर चबानेसे | प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना लें और फिर समस्त प्रकारके शूल, हैजा और अग्निमांद्यादि रोग | उसमें अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर नष्ट होकर शीघ्र ही अग्नि दीप्त हो जाती है।। सबको अदरक, चीता और संभालके रसकी ७-७ (४९४९) भास्ववटी भावना देकर १-१ रत्तोको गोलियां बना लें। (वै. र. । शूला.) इनमेंसे १-१ गोली अदरकके रसके साथ गरलहुतभुग्विश्वाजाजीवचोषणहिङ्गभि- सेवन करने से समस्त ज्वर १ पहरमें ही नष्ट विधिविमृदितै द्रावैगुटीहरिमन्यवत् ।। हो जाते हैं। हरति विविधं भुक्ताशूल तथानिलमूढता- (४९५१) भीमपराक्रमरस: मनलविरतिं सैषा भास्वटी भुवि विश्रुता ॥ (र. र. स. । उ. अ. १७; र. रा. सु. । प्रमेहा.) शुद्ध वछनाग विष, चीतामूल, सांउ, जीरा, | तुल्याभ्यां रसगन्धाभ्यां कृत्वा कज्जलिका बच, काली मिरच और भुनी हुइ हींग समानमाग लेकर सबका चूर्ण करके उसे १ दिन भंगरेके रसमें द्रावयित्वाऽऽयसे पात्रे मृदुमा बदरामिना ।। घोटकर चनेके बराबर गोलियां बना लें। | निरुत्यमष्टमांशेन सीसभस्म विनिक्षिपेत् । त्र्यहम् । For Private And Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६७०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि संमिश्रय कदलीपत्रे निक्षिप्य तदनन्तरम् ।। कल्कके रसमें तथा निर्मलीकी जड़के काथ और आकृष्य परिपिष्वाथ सीसभस्मप्रमाणतः। नीमके पत्तोंके स्वरसमें १-१ दिन घोटकर सुखा कान्ताभ्रसत्त्वयोर्भस्म राजावर्तकभस्म च ॥ लें । तत्पश्चात् सात भावना त्रिफलाके काथकी परिशुद्धं च गोमूत्रे शिलाजतु निधाय च । लोहपात्रमें देकर उसमें उसके बराबर भुने हुवे खल्वे निक्षिप्य तत्सर्वं यत्नेन परिमर्दयेत् ॥ अंकोल बीज और कीकरके गोंदका समान भाग तुल्यगुआङ्कलीबीजचूर्णकल्कोत्थवारिणा। मिश्रित चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर रखखें । कतकाधिकषायेण निम्बपत्ररसेन च ॥ | इसे बासी पानीके साथ ६ रत्तीकी मात्रानुततः संशोष्य सञ्चूर्ण्य क्षिप्त्वा लोहस्य भाजने। सार सेवन करनेसे समस्त प्रमेह नष्ट होते हैं । त्रिफलानां कषायेण सप्तधा परिभावयेत् ॥ (४९५२) भीममण्डूरवटक: अदालीबीजबर्बरनिर्यासो भृष्टचूर्णितो। (वृ. यो. त.। त. ९५; यो. र.व. से.; च. द.। समौ रससमौ कृत्वा रसेन सह मर्दयेत् ॥ परि गामशूला.; वृ. नि. र.; ग. नि. । शूला.; इति सिद्धरसः सोऽयं भवेभीमपराक्रमः। वृ. मा. । परिणामशूला.; र. का. धे. । नामतः सर्वमेहनो दृष्टप्रत्ययकारकः॥ अ. २१) वल्लद्वयमितो ग्राह्यो जलैः पर्युषितैः सह । यवक्षारः कणा शुण्ठी कोलग्रन्थिकचित्रकात् ॥ पथ्य मेहोचितं देयं वज्यं सर्व विवर्जयेत॥ | प्रत्येक पलमादाय प्रस्थं लोहस्य किट्टतः। शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग | शनैः पचेदयः पात्रे यावर्वीपलेपनम् ॥ लेकर दोनोंको तीन दिन तक घोटकर अत्यन्त | दत्त्वाऽष्टगुणगोमूत्रं किट्टाच्छुद्धाद्विचक्षणैः। बारीक कज्जली बनावें। ततोऽक्षमात्रान्वटकान्योजयेत्सप्तरात्रतः॥ | आदिमध्यावसानेषु भोजनस्योचितस्य वै । तदनन्तर इसे घृत लगे हुवे लोहपात्रमें बेरीकी स भीमवटको ह्येष परिणामरुगन्तकः।। मन्दाग्निपर पिधलावें और फिर उसमें कजलीका जवाखार, पीपल, सांठ, बेर, पीपलामूल और आठवां भाग सीसेकी निरुत्थ भस्म मिलाकर उसे / चीता ५-५ तोले तथा शुद्ध मण्डूर १ सेर लेकर गायके गोबर पर फैले हुवे केलेके पत्तेपर डाल दें सबका महीन चूर्ण बनाकर उसमें ८ सेर गोमूत्र और उसपर दूसरा पत्ता ढककर उसे गोबर से दबा मिलाकर लोहेकी कढ़ाई में पकावें । जब गाढ़ा हो दें जब वह स्वांग शीतल हो जाय तो पर्पटीको जाय तो ११-१। तोलेके गोले बना लें। निकालकर पीस लें और उसमें कान्तलोहभस्म, इनमेंसे १-१ गोला भोजनके आदि, मध्य अभ्रकसत्व भस्म, राजावर्तभस्म तथा गोमूत्र में शुद्ध | और अन्तमें ७ दिन तक सेवन करनेसे परिणामशिलाजीत; प्रत्येक सीसेकी भस्मके बराबर मिलावें| शूल नष्ट हो जाता है। और फिर उसे गुञ्जा तथा अंकोलके बीजेांके । (व्यवहारिक मात्रा--१॥-२ माशे।) For Private And Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम्] तृतीयो भागः। [६७१] (४९५३) भीमरुद्रोरसः (१) । शुद्ध मनसिल, शुद्ध हरताल, काली मिरच, ( रसे. सा. सं.; र. रा. सु.; र. चं.; भै. र.। शुद्ध संखिया, शुद्ध हिंगुल, अपामार्ग ( चिरचिटे) विषा; र. र.; धन्व. । विषा.) | की जड़, धतूरेकी जड़, कनेरकी जड़ और सिरसकी सूतराजस्य तोलैक गन्धकस्य तथैव च। | जड़का चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र अभ्रात्कर्ष ततो देयं तोलैकं कान्तलौहकम् ॥ | धोटकर उसे रुद्राक्ष और कोयलके रसकी १००परोक्तेनौषधेनैव भावयेच्च पृथक् पृथक् । १०० भावना देकर मूंगके बराबर गोलियां विशालाहहतीब्राह्मीसौगन्धिकमुदाडिमैः॥ | बना लें। मर्कटयाश्चात्मगुप्तायाः स्वरसेन पृथक पृथक् । सांपके काटे हुवे मनुष्यको, और जिसने एतद्रक्तिकमानेन वटिकां कारयेभिषक् ।। विष पी लिया है उसे यदि बेहोशी हो गई हो वटीमेकां भक्षयित्वा पिबेच्छीतजलन्ततः।। और इन्द्रियां अपना काम न करती हो तो ये भीमरुद्रो रसो नाम चासाध्यमपि साधयेत् ।। गोलियां खिलानेसे विष नष्ट होता और पुनः चेतना कुक्कुरस्य शृगालस्य विषं हन्ति सुदुस्तरम् ॥ | आ जाती है । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रकभरम और | (४९५५) भुक्तद्रावीरसः कान्तलोहभस्म समान भाग लेकर सबकी कज्जली (यो. र. । अजीर्णा. ) बनाकर उसे १-१ दिन इन्द्रायनमूल, बनभण्टा, द्वौ क्षारौ टङ्कणं मूतं लवङ्गं लवणत्रयम् । ब्राह्मी, कमल, अनार, चिरचिटा (अपामार्ग) और पिप्पली गन्धकं शुण्ठी मरीचं पलसम्मितम् ।। काँचके रसमें धोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां कर्षमेकं विषं दत्त्वा सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । बना लें। ___ इनमेंसे नित्य प्रति १-१ गोली शीतल अर्कदुग्धस्य दातव्या भावना सप्तवासरम् ।। | अन्तधमं गजपुटे पक्त्वा शीतं समुद्धरेत् । जलके साथ सेवन करानेसे पागल कुत्ते और गीदड़का विष नष्ट हो जाता है। ततो लवङ्गमरिचस्फटिकीनां पलं पलम् ।। सर्व सम्पर्य दृढवद् दृढभाण्डे निधापयेत् । (४९५४) भीमरुद्रो रसः (२) सायं गुञ्जाद्वयं खादेमुक्तं द्रावयति क्षणात् ॥ (भै. र. । विषा.) पुनर्भोजनवाञ्छां च जनयेत्महरोपरि ॥ मनः शिलालमरिचैर्दारुणा दरदेन च । अपामार्गस्य हेम्नश्च हयमारशिरीषयोः॥ जवाखार, सञ्जीखार, सुहागा, शुद्ध पारद, मूलै रुद्राक्षतोयेन विष्णुकान्ताम्बुना ततः। लांग, सेंधा नमक, काला नमक, सांभर, पीपल, शतधा भावितैः कुर्याद वाटिका मुद्गसम्मिताः॥ शुद्ध गन्धक, सांठ और कालीमिर्च ५-५ तोले व्यालदष्टं पीतविष निरिन्द्रियमचेतनम् । और शुद्ध बछनाग विष १। तोला लेकर प्रथम पुनः सञ्जीवयेदेष भीमरुद्राभिधो रसः॥ | पारे गन्धक की कज्जली बनावें और फिर उसमें For Private And Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ६७२ ] अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर उसे सात दिन तक आकके दूधमें घोटें और फिर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें । जब वह स्वांग शीतल हो जाय तो औषधको निकालकर पीस कर उसमें ५–५ तोले लौंग, काली मिर्च और फटकीका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोटकर रक्खे । इसमेंसे २ रत्ती औषध सायङ्कालके समय खानेसे भोजन तुरन्त पच जाता है और १ पहर बाद फिर भोजनकी इच्छा हो जाती है । (४९५६) भुक्तोत्तरीयावटी (र. रा. सु. । अजीर्णा.) भारत - भैषज्य रत्नाकरः । लगभग भक्तविपाकवटी सं. ४९३५ के समान है । केवल इतना अन्तर है कि इसमें हरिताल और अभ्रकके स्थानमें ताम्र भस्म पड़ती है तथा भावना द्रव्योंमें तुलसीको जगह ज्योतिष्मती लिखी है और गुणोंमें निम्न लिखित स्लोक अधिक लिखे हैं: विस वातकफानुबन्धे भक्षयेत्तां वटीं प्रायो लवङ्गेन नियोजिताम् ॥ भक्तोत्तरीये बहुभोजने वा आमानुबन्ध चिरमन्दवहौ । शोथोरे मेहगदेप्यजीर्णे ॥ शुले त्रिदोषे प्रभवे ज्वरे च सम्यक् वटीं भुक्तविपाकसंज्ञा । सुखं विपच्याशु नरस्य कोष्ठं मुहुर्मुहुर्वाव्छति भोजनं च ॥ अर्थात् इनमें से १-१ गोली लौंगके चूर्णके साथ सेवन करनेसे अधिक किया हुवा भोजन भी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि शीघ्र ही पच जाता है और बार बार भूख लगती है । इनके सेवनसे आमविकार, पुरानी मन्दाग्नि, कब्ज, वातकफज शोथोदर, प्रमेह, अजीर्ण, शूल और सन्निपात ज्वर नष्ट होता है । (४९५७) भूतनाथ भैरवरसः (र. का. धे. 1 अ. १) आकाशवल्लीरसतो रसं षोढा विभावयेत् । बृहतीफल द्रवैस्तालो मुनिविभावितः ॥ षद्भागप्रमितं सौम्यं धूर्तात्पञ्चदशद्रवैः । चतुरंशाष्टङ्कणस्य शिवाक्षेण विभावनाः ॥ षट्जैपालाहि फेनांशा लवङ्गमरिचानि च । शिवनेत्रपुटैस्त्रेधा वचा ब्राह्मी च बाकुची ॥ त्रित्र्यंशा भृङ्गराजस्य ददेद् द्वादश भावनाः । निम्बकाष्ठेन घृष्टोऽयं भूतनाथादिभैरवः ।। तत्तद्रोगानुपानेन सर्वज्वरहरो मतः ॥ (१) १ भाग पारेको ६ रोज तक अकास dah समें घोटें | (२) १ भाग हरतालको बनभण्टेके फलेकि समें घोटें । (३) ६ भाग संखियेको १५ दिन धतूरेके रसमें घोटें । (४) ४ भाग सुहागेको रुद्राक्षके रस में घोट लें । (५) जमाल गोटा और अफीम ६ - ६ भाग तथा viग और काली मिर्च का चूर्ण ३-३ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर उसे बच ब्राह्मी और बाबचीके रसको ३-३ भावना दें । For Private And Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसमकरणम् ] अन्त में उपरोक्त पांचों योग को एकत्र मिलाकर उसे १२ भावना भंगरेके रसकी नीमके सोटेसे घोटकर दें । तृतीयो भागः । इसे यथोचित अनुपान के साथ सेवन कराने से समस्त ज्वर नष्ट होते हैं । (४९५८) भूतभैरव चूर्णम् ( मात्रा - आधी रत्ती । ) नोट -- इस प्रयोग में ५ वां भाग संखिया पड़ता है अत एव अत्यन्त सावधानी पूर्वक सेवन कराना चाहिये । ( ज्वराङ्कुशरसः, तालाङ्को रसः ) १–—इस रसके द्रव्यांका परिमाण भिन्न भिन्न प्रन्थोंमें भिन्न भिन्न है। वै. र. और . नि. र. में हरताल १ भाग, नीला थोथा २ भाग और शुक्तिमस्म ६ भाग लिखी है तथा धतूरेके रसकी भावना देकर गोलियां बनाने के लिये लिखा है । भैषज्य रत्नावली में हरताल २ भाग, नीलाथोथा १ भाग और शुक्ति भस्म ४ भाग लिखी है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६७३ ] शुद्ध हरताल और मोतीकी सीप ९-९ तोले तथा शुद्ध नीला थोथा ( तुत्थ ) २ तोले लेकर सबको १ दिन घीकुमार ( ग्वार पाठा) के रसमें घोटकर सुखाकर शरावसम्टमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। जब पुट स्वांगशीतल हो जाय तो औषधको निकाल कर पीस लें । इसमें से प्रातः काल १ रत्ती दवा मिश्रीके साथ खिलानेसे शीत ज्वर १ ही दिनमें जाता रहता है। इससे किसी किसीको वमन हो जाती है। और किसीको नहीं भी होती । पथ्य-दोपहरको भात तथा शिखरन खानी ( र. चं. । ज्वर.; भा. प्र. म. खं. ज्वरा.; वै. र. । ज्वरा.; वृ. नि. र. । जीर्णज्वरा ; र. रा. सु.; भै. र. । ज्वरा . ) तालकं शुक्तिका चूर्ण तुल्यं तत्रोभयोरपि । नवमांशं तु तुत्थं स्यान्मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः ॥ तत् संशुष्कमुपलैर्वन्यैर्गजपुटे पचेत् । शीतं तत् पेषयेच्चूर्ण गुआमात्रं सितायुतम् ॥ प्रभाते भक्षयेत्तेन याति शीतज्वरक्षयम् । वान्तर्भवति कस्यापि कस्यापि न भवत्यपि ॥ सप्ताष्टौ नव तिन्तिडीयकफलात्काठिल्लकानां एकेन दिवसेनैव शीतज्वरहरं परम् । मध्याह्नसमये पथ्यं भक्तं शिखरिणी तथा ॥ चाहिये । (४९५९) भूतभैरवरसः (१) रसे. (र. चं.; र. सा. स.; र. रा. सु. । कुष्ठा.; चि. म. । अ. ९; र. चि. म. । स्त. २; र. का. धे. । कुष्ठा. ४०.) शुद्धं पंचदशात्र तालक मितं शुद्धं च षट् For Private And Personal Use Only गन्धकः । दश ॥ हुण्डार्कपयोभिरेव सततं सञ्चर्यं तद्भावयेत् । रोहीतस्य जटारसेन मृदितं श्लक्ष्णं ततः खलितम् ॥ एकीकृत्य समस्तमेतदपि तट्टङ्केकमेतज्जयेत् । पश्चाद्वासविशुद्धवारिसहितं किञ्चिच्च तत्पीयते ।। ताम्बूलं शशिखण्डमण्डितवटीमिश्रं ततः स्वापयेत् । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - [९७४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [भकारादि शय्यायां मृगलोचनापरिभृतौ कर्माणि .. इनमें से १ गोली खाकर ऊपरसे थोड़ा स्वच्छ सम्पादयेत् ।। । शीतल जल पीना चाहिये और उसके पश्चात् कपूर देह वीक्ष्य सुखं मुखं न विरसं विज्ञाय. युक्त पान खाकर सो रहना चाहिये । उठने पर सम्यक सुधीः। | यदि शरीर स्वस्थ हो और मुख विरस न हो तो छागीदुग्धमिहापि तं ननु दिनं सुप्त बकरीका दूध पीना चाहिये । च तत्पाययेत् ।। इसी प्रकार नित्य प्रति कुछ दिनों तक यह नित्यं नित्यमिदं करोति नियतं सर्वोषधैर्वर्जितम् । औषध सेवन का जाय तो नीला, पीला, लाल, सफेद, सामग्रामसमग्रमग्रिमतरं नीलं च पीतारुणम् ॥ अत्यन्त. प्रबद्ध आर कमियों से परिपूर्ण आदि श्वेतं स्फीतमनल्पकं भृशमति प्रायः समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं। क्रिमिव्याकुलम् । यह रस समस्त वातव्याधियों को और गन्धालिप्रमितं खटीकसदृशं कुष्ठं च चोत्साधनम् ।। विशेषतः कफज कुष्ठको नष्ट करता है । अष्टाष्टादशभूतभैरव इति ख्यातः क्षिता हन्ति च ।। वातव्याधिनिकृन्तनः कफकृतान् इसके अतिरिक्त यह भयङ्कर सन्ताप युक्त कुष्ठान्विशेषानयम् ॥ ज्वरको भी नष्ट करता है। हन्तीति ज्वरमुग्ररूपमधिकं दाहाभिधानामयम् । इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ नष्ट होकर शरीर कुर्याद्रपमनारजगुणभृद् भंगास्पदं विग्रहम् ॥ अत्यन्त स्वरूपवान हो जाता है। एवं समासात्कुरुते समान पथ्यं च तथ्यं पथ्य--घृत, भात और दूध अथवा केवल ___सकलं करोति । दूध । भुञ्जीत भक्तं सततं प्रयुक्तं घृतं शृतं वा, भूतभैरवरसः (२) विकृतं तदेव ॥ (र. का. धे. । अपस्मारा. ५; धन्व. । अपस्मारा. स्वच्छन्ददुग्धेन मुखेन जग्धं पथ्य भा. प्र. म. खं.; र. रा. सु.; रसे. सा. सं.; र. __ तदेतत्प्रवदन्ति सन्तः। र.; यो. र. । अपस्मारा.; वृ. यो. त. ।त. कुष्ठं तु दुष्टं च निराकरोति गात्रं च ___कुर्याच्छुभगन्धयुक्तम् ॥ ८८; वृ. नि. र. ! उन्मादा.; यो. शुद्ध हरताल १५ भाग, शुद्ध गन्धक ६ भाग त.। त. ३९) नवीन इमली ७ या ८ भाग और करेला १० भाग | चण्डभैरवरस प्रयोग संख्या १८७२ देखिये। लेकर सबको एकत्र खरल करके सेहुण्ड (थूहर- कुछ ग्रन्थों में तो इस भूतभैरवका पाठ बिलकुल सेंड) और आकके दूध तथा रुहेड़ेकी जड़के काथ उसके समान ही है और कुछ में रसाञ्जनके स्थान की १-१ भावना देकर १-१ टङ्ककी गोलियां में स्रोतोऽजन और गोमूत्रके स्थानमें मनुष्यका बना लें। मूत्र लिखा है तथा सेवन-विधि इस प्रकार लिखी For Private And Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] है:-इसमें से १ माशा रस घीके साथ खिलाकर | ऊपरसे सांठ, मिर्च, पीपल, हींग, घी, मनुष्य का मूत्र और काला नमक मिलाकर पिलावें । इसे भूतो न्माद में धतूरे के ५ नग बीजेोंको धीमें मिलाकर उसके साथ खिलाना चाहिये । (४९६०) भूताङ्कुशरस: (१) (र. र. र. रा. सु. १ । कासा ; यो. चि. म. । अ. ७; र. र. स. उ. अ. १३; २. का. धे. २ | कासा. ) तृतीयो भागः । शुद्धसूतस्य भागैकं द्वि भागं शुद्धगन्धकम् । भागद्वयं मृतं ताम्रं मरिचं दशभागकम् ॥ मृताभ्रस्य चतुर्भागं भागमेकं विषं क्षिपेत् । भूताङ्कुशस्य भागैकं सर्वमम्लेन भावयेत् ॥ सोयं भूताङ्कुशो नाम यामैकं बातकास जित् । अनुपानं लिहेत्क्षौद्रैर्विभीतकफलत्वचम् ॥ इनमेंसे ३–४ गोली खाकर ऊपरसे छालका चूर्ण शहद में मिलाकर चाटने से खांसी १ पहर में ही नष्ट हो जाती है । शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, ताम्रभस्म २ भाग, काली मिर्चका चूर्ण १० भाग, अभ्रक भस्म ४ भाग. और शुद्ध बछनाग तथा धतूरे के बीजोंका चूर्ण १- १ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधांका चूर्ण मिलाकर सबको नीबू के रसमें घोटकर १-१ रती की गोलियां बना लें । बहेड़े की | वातज १२. रा. सु. और र. र. स. में गंधक १ भाग, ताम्र भस्म ३ भाग और कालीमिर्च ५ भाग लिखी हैं। २ - रसकामधेनु में गन्धक १ भाग और ताम्र ३ भाग लिखा है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६७५ ] ( ४९६१) भूताङ्कुशरस: (२) ( र. र. र. सा. सं.; र. रा. सु. भै.र.; १ . च.; धन्व. | उन्मादा.) सूतायस्ताभ्रमभ्रञ्च मुक्तां चापि समं समम् । सुतपादोत्तमं वज्रं शिलागन्धकतालकम् ॥ तुत्थं रसाञ्जनं शुद्धमब्धिफेनं शिलाञ्जनम् । पञ्चानां लवणानाञ्च प्रतिभागं रसोन्मितम् ॥ भृङ्गराजचित्रवीदुग्धेनापि विमर्द्दयेत् । दिनान्ते पिण्डिकां कृत्वा रुद्ध। गजपुटे पचेत् ॥ भूताङ्कुशो रसो नाम नित्थं गुञ्जाद्वयं लिहेत् । आर्द्रकस्य रसेनापि भूतोन्मादनिवारणम् ॥ पिप्पल्याक्तं पिबेच्चानु दशमूलकषायकम् । स्वेदयेत्कटुतुम्ब्या च तीक्ष्णं रूक्षञ्च वर्जयेत् ॥ माहिषञ्च घृतं क्षीरं गुर्वन्नमपि भक्षयेत् । अभ्यङ्गः कटुतैलेन हितो भूताङ्कुशे रसे ॥ शुद्ध पारद, लोहभस्म, ताम्र भस्म, अभ्रकभस्म और मोती भस्म १ - १ तोला, हीराभस्म ३ माशेऔर शुद्ध मनसिल, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, शुद्ध तूतिया, रसौत, समुद्रझाग, काला सुरमा, सेंधानमक, सचल (काला नमक), बिडलवण, समुद्र नमक, औरसांभरनमक १ - १ तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको १-१ दिन भंगरेके रस, चीते काथ और थूहर ( सेंड--सेहुंड ) के दूधमें घोटकर गोला बनावें और उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। जब स्वांग शीतल हो जाय तो औषधको निकालकर पीसलें । १ - मे. र. में. अभ्रकके स्थानमें चांदी भस्म लिखी है । For Private And Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६७६ ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि - इसमेंसे २ रत्ती औषध अद्रकके रसके साथ । इसमें से १ माशा औषध शहदके साथ चटाकर ऊपरसे पीपलका चूर्ण मिलाकर दशमूलका | चाटकर ऊपरसे हींग, सश्चल (काला नमक), सेठ काथ पिलानेसे उन्मादरोग नष्ट हो जाता है। और बहेडाका चूर्ण गर्म पानीके साथ पीनेसे वातज इस रसके सेवनकालमें रोगीको कड़वी शूल नष्ट होता है। तूंबीके काथकी भाप देनी चाहिये। (४९६३) भूनिम्बादिगुटी पथ्य-भैंसका धी और दूध तथा भारी (पृ. नि. र. । पाण्डु.) पदार्थ खाने चाहिये और शरीरपर सरसे के तैलकी भूनिम्बाब्दपटोलनिम्बकटुकादा/विडापतामालिश करनी चाहिये। वासाक्षामलकामयामरकणाविश्वौषधैश्चूर्णितः । अपथ्य-तीक्ष्ण और रूक्ष पदार्थों का त्याग तुल्यैः पर्पटचूर्णितः सदहनैः सल्लोहचूर्णाकैः करना चाहिये। कर्तव्या मधुसंयुता च गुटिकापाण्डवामयग्राहहा॥ (१९६२) भूदारो रसः चिरायता, नागरमोथा, पटोल ( परवल ), (र. र. । शूला ) नीमकी छाल, कुटकी, दारुहल्दी, बायबिडंग, शुद्धसूतं समं गन्धं मृतार्कारो मनःशिला। गिलोय, वासा, बहेड़ा, आमला, हर्र, देवदारु, पीपल सैन्धवं माक्षिकं तालं धत्तूरं हिङ्गु सूरणम् ॥ सेठ, पित्तपापड़ा, और चीतेकी जड़का, चूर्ण तथा महाराष्ट्रयर्क निर्गुण्डीवासैरण्डवैदिनम् । लोहभस्म समान भाग लेकर सबको अदरकके रसमें मधु रुद्धा पुटे पच्यात् कुक्कुटाख्ये समुद्धरेत् ॥ घोटकर (२-२ माशेकी) गोलियां बना लें। अष्टगुजां लिहेत्तौदै दारो वातशूलजित् । इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे पाण्डुरोग हिङ्गु सौवर्चलं शुण्ठीमक्षमुष्णाम्बुनाप्यनु ॥ | नष्ट होता है। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, मुण्डलो- (४९६४) भेकराजरसादिमोदकः हभस्म, शुद्ध मनसिल, सेंधा नमक, स्वर्णमाक्षिक (वै. म. र. । पटल ९) भस्म, शुद्ध हरताल, धतूरेके शुद्ध बीज, भुनी हुई | भेकराजरसैः सुभावितलोहयुक्तवरारजहींग और जिमीकन्द समान भाग लेकर प्रथम पारे स्तुल्यभागवटच्छदोद्भवभस्म चाप्यभया पुनः॥ गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष- | षट्पदोत्थरसेन पेषितमक्षमात्रविनिर्मितम् । धियोंका महीन चूर्ण मिलाकर सबको १-१ दिन पिण्डमस्यति पाण्डुरोगमुदश्चिता सह सेवितम्॥ जलपीपल, आक, संभाल, वासा और अरण्ड के लोहभस्म और त्रिफलेका चूर्ण समान भाग रसमें घोटकर गोला बनावें और उसे शरावसम्पुट लेकर दोनोंको भंगरेके रसमें घोटकर उसमें दोनेांक में बन्द करके कुक्कुटपुटमें फूंक दें एवं उसके बराबर बड़के पत्तोंकी भस्म और उतना ही हर्रका स्वांगशीतल होनेपर औषधको निकालकर पीसकर चूर्ण मिलाकर पुनः भंगरेके रसमें घोटकर ११-१॥ सुरक्षित रक्खें। तोलेके गोले बनावें। For Private And Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [६७७] इन्हें उदश्वित ( दहीमें बराबर भाग पानी । श्रमाध्वमाराध्ययनस्वमानस्माद्विवर्जयेत् । मिलाकर बनाये हुवे तक्र ) के साथ सेवन करनेसे | ताम्बूलं भक्षयेन्नित्यं कर्पूरादिसुवासितम् ।। पाण्डुरोग नष्ट होता है। क्रिया श्लेष्महरी युक्ता वातपित्ताविरोधिनी। ( व्यवहारिक मात्रा ३-४ माशे) लवणं वर्जयेदम्लं दिवानिद्रां तथैव च।। भैरवनाथी पञ्चामृतपपेटी रात्रौ जागरणश्चैव स्त्रीमुखालोकनं तथा। (र. रा. सु.; र. र. स.) सप्ताहद्वयमुत्क्रम्य स्नानमुष्णाम्बुना चरेत् ॥ . पञ्चामृतपर्पटी प्रयोग संख्या ४२८२ देखिये। | व्यायामाचं वर्जनीयं यावन्न प्रकृतिर्भवेत् । (४९६५) भैरवरसः (१) एवं कृतविधानस्तु यः करोत्येतदौषधम् ॥ (भै. र. । उपदंशा.) स एव पापरोगस्य पारं याति जितेन्द्रियः । शुद्धसूतं ग्रहीतव्यं दशगुञ्जकमात्रकम् । पिडका विलयं यान्ति बलं तेजश्च वर्द्धते ॥ त्रिगुणां शर्करां लौहे निम्बदण्डेन मर्दयेत् ॥ रुजा च प्रशमं याति ग्रन्थिशोथश्च शाम्यति । याममात्रं तत्र दद्याच्छ्रेत खदिरचूर्णकम् ।। अस्थां भवति दाढर्यश्च आमवातश्च शाम्यति॥ भैरवेण समाख्यातो रसोऽयं भैरवः स्वयम् ।। सूततुल्यं ततः कुर्यान्मर्दनात् कज्जलोपमम् ॥ विंशतिर्वटिकाः कार्याः स्थाप्याः गोधूमचूर्णके। . शुद्ध शुद्ध पारा १० रत्ती और खांड ३० रत्ती; निःशेष निःसृता ज्ञात्वा पिडकास्ताः कलेवरे। इन्हें एकत्र लोहपात्र में नीम के डण्डे से १ प्रहर भैरवं देवमभ्यर्च्य बलिं तस्मै प्रदाय च। | घोटें । जब पारद के कण न दिखाई दें तब उसमें विधाय योगिनीपूजां दुर्गामभ्यर्च्य यत्नतः॥ १० रत्ती श्वेत कत्थे का चूर्ण मिलाकर मर्दन करें। वटिकास्ताःप्रयोक्तव्या भिषजा जानता क्रियाम। मर्दन करते २ जब कज्जल के समान होजाय दिवसत्रितयं दद्यात्तिस्रस्तिस्रो विजानता ॥ तब उस सबकी बीस गोली बनावें । इन गोलियों चतर्थाद्व कामपयोजना को गेहूं के आटे में रखदें । जब यह देखें कि एवं चतुर्दशदिनैर्नीरोगो जायते नरः॥ उपदंशज विष के कारण शरीर पर सम्पूर्ण पिडपथ्यं शर्करया सार्द्धमुष्णान्नं घृतगन्धि च। कायें निकल आई हैं तब भैरव की पूजा करें तथा कुर्यात्साकांक्षमुत्यानं सकृद्भोजनमिष्यते ।। बलि दें । इसी प्रकार योगिनी तथा दुर्गाकी पूजा जलपानं जलस्पर्श न कदा च न कारयेत् । | करके तत्काल इन गोलियों का यथाविधि प्रयोग दुःसहायान्तु तृष्णायामिक्षुदाडिमकादिकम् ॥ करावें । प्रथम तीन दिन तक प्रतिदिन तीन तीन शौचकार्येऽप्युष्णवारि वाससा प्रोञ्छनं द्रुतम् । गोलियां सेवन करावें । चौथे दिन से प्रतिदिन वातातपाग्निसम्पर्क दूरतः परिवर्जयेत् ॥ एक २ गोली खिलावें । इस प्रकार १४ दिन मेघागमे वा शीते वा कार्यमेतद्विजानता। | करने से मनुष्य नीरोग हो जाता है । पथ्य-खांड मुखरोगे तु संजाते मुखरोगहरी क्रिया ॥ | तथा अल्प घृतयुक्त उष्ण अन्न । यह भोजन भी For Private And Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [६७८ ] भारत - भैषज्य रत्नाकरः । | १ बार करना चाहिये । रोगी इस औषध के सेवन करते हुए कभी जलपान तथा जल को स्पर्श भी न करे। अत्यन्त असह्य प्यास लगनेपर गन्ने का रस अथवा मीठे अनार का रस पीने को देना चाहिये । उष्णजल द्वारा शौच क्रिया करके तत्क्षण वस्त्र द्वारा गुदा को शुष्क कर देना चाहिये । वातसेवा, आतप ( धूप) सेवा तथा अग्नि सेवा ( आग सेंकना ); अत्यन्त निषिद्ध हैं । वर्षाऋतु या शीतंऋतु में इस औषध का सेवन कराना उत्तम है । इसके सेवन से यदि मुखरोग होजाय तो तन्नाशक क्रिया करनी चाहिये । परिश्रम, अधिक चलना, भार उठाना, पढ़ना तथा दिन में सोना वर्जित है । सदा कपूर आदि से सुगन्धित ताम्बूलपत्र पान ) को चबाना चाहिये । इसमें श्लेष्म को हरने वाली परन्तु वातपित्तकी अविरोधिनी चिकित्सा करनी चाहिये। नमक, अम्लद्रव्य, दिन में सोना, रात्रिजागरण तथा मैथुन आदिका परित्याग करना उचित है । चौदह दिन औषध के अनन्तर रोगी गरम जल से स्नान करे । मात्रा में हितकर भोजन करे । परन्तु जब तक रोगी प्रकृतिस्थित ( पूर्ण निरोग ) न हो तब तक व्यायाम आदि निषिद्ध है । इस प्रकार नियमानुसार जो जितेन्द्रिय औषध सेवन करता है उसके उपदंश तथा तज्जनित पिड़का, वेदना, ग्रन्थिशोथ तथा आमवात आदि रोग नष्ट होते हैं । अस्थियां दृढ़ जाती हैं और बल एवं तेज की वृद्धि होती है । (४९६६) भैरवरस: ( २ ) ( र. र. रसा. ख. । उपदे. १ ) सुवर्ण चारदं कान्तं मृतं सर्वं समं भवेत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि शतावर्याः शिफाद्रावैर्भावयेद्दिवसत्रयम् ॥ त्रिदिनं त्रिफलाकाथैर्मृङ्गद्रावैर्दिनत्रयम् । भावितं मधुसर्पिभ्र्भ्यां भक्षयेदुभैरवं रसम् ॥ माषैकैकं वर्षमात्रं जीवेच्चन्द्रार्कतारकम् । मूलचूर्ण शतावर्याः कृष्णाजपयसा युतम् ॥ पलैकैकं पिबेचानु क्रामकं परमं हितम् || | सुवर्णभस्म, पारदभस्म और कान्तलोहभस्म बराबर बराबर लेकर सबको ३ - ३ दिन शतावर, त्रिफला और भंगरेके रसमें घोटकर सुखाकर सुरक्षित रखे । इसमें से नित्य प्रति १ माषा रस शहद और धीके साथ १ वर्ष तक सेवन करनेसे दीर्घायु प्राप्त होती है 1 औषध खानेके बाद ५ तोले शतावर का चूर्ण काली बकरी के दूध के साथ सेवन करना चाहिये । ( व्यवहारिक मात्रा -- २ - ३ रत्ती । शतावरीके चूर्णकी मात्रा ३ माशे । ) (४९६७) भैरवरसः (३) ( र. चि. म. । स्तव. ७ ) शुद्धं रसं समाहृत्य वेदमात्रपलं शुभम् । अभ्रकं गन्धकं चैव तावन्मात्रं प्रदापयेत् ॥ श्वेतं सौवीरकं चापि चतुर्भागं च सैन्धवम् । जम्बीरस्य च नीरेण मर्दयेत्सर्वमेकतः ॥ निक्षिप्य काचकूप्यां तन्निरुध्य चाति यत्नतः । वालुकाभिः समापूर्य याममात्रं ततः परम् ॥ अग्नि च कुरुते मध्यं ततः शीतं समुद्धरेत् । कनकस्य पलं पश्चात्पत्रं सूक्ष्म विधाय तत् ॥ माक्षिकस्य पलं चात्र गन्धकस्य चतुष्टयम् । द्वयमेकत्र तत्कृत्वा गन्धकं माक्षिक तथा For Private And Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६७९] हेम्नः पत्रं च तन्मध्ये धृत्वा रुद्धा शरावके। । (२० तोले ) गन्धकका बारीक चूर्ण करके उसके उपर्यपि भवेच्चान्यः शरावः सन्धिमुद्रितः ॥ | बीच में ५ तोले सोनेके अत्यन्त बारीक वर्क रखकुअराख्यः पुटो मुख्यस्तत्र देयः सुसंयतः। | कर शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटमें फूंक स्वामी तटाटा भी कान दें। जब पुट स्वांग शीतल हो जाय तो सोनेकी सूक्ष्म तचापि सञ्चूर्ण्य पूर्वमतेन मेलपेत। भस्मको निकाल लें। ज्वालामुखीरसैः सूतं मर्दयेदेकतः कृतम् ॥ (३) उपरोक्त दोनों औषधों अर्थात पारदततो गव्येन हविषा रसं च मर्दयेदृढम् । वाले योग और स्वर्ण भस्मको पृथक् पृथक् खरल कृत्वा तद्गोलकं सर्वं मृन्मृषान्तर्गतं च तत् ॥ करके एकत्र मिलायें और फिर उसे हुलहुल तथा विमुद्रय सकलं भाण्डे मृन्मये तत्र दीयते। गायके घीमें १-१ दिन घोटकर गोला बनाकर अग्निं हि वालुकाभिस्तं दिनसप्तावधिर्यथा ॥ मिट्टीकी मूषामें बन्द करें और उसे बालुकायन्त्र अग्नि तत्र शनैः कुर्याच्छीतमादाय पारदम् । | में रखकर उसके नीचे ७ दिन तक मन्दाग्नि विचूर्ण्य रक्ष्यते भाण्डे राजते वाथ काश्चने॥ जलावें । तदनन्तर यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर गुञ्जामेकामतो दद्यात्मतिवासरमुत्तमम् ।। औषधको निकालकर पीसकर सोने या चांदीके कासे श्वासे ज्वरे मेहे गुल्मे दुष्टक्षये तथा । | पात्रमें भरकर सुरक्षित रक्खें । व्योषेण मधुना साकं रसं गुग्गुलुनाऽथवा। घृतेन सह दातव्यः कुष्ठे काथं वराभवम् ॥ इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार त्रिकुटेके चूर्ण अग्निमान्ये च दातव्यो रक्तरोगे महारसः ॥ और शहदके साथ अथवा शुद्ध गूगलके साथ सेवन करनेसे खांसी, श्वास, ज्वर, प्रमेह, गुल्म (१) २० तोले शुद्ध पारा, २० तोले | और दुष्ट क्षय तथा अग्निमांद्यका नाश होता है। अभ्रकभस्म, २० तोले शुद्ध गन्धक, २० तोले सफेद सुरमा और २० तोले सेंधा नमक लेकर इसे घृतके साथ खिलाकर ऊपरसे त्रिफलाका प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर | काथ पिलानेसे कुष्ट और रक्तविकार नष्ट होते हैं। उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको १ दिन । (१९६८) भैरवरसः (४) जम्भीरी नीबूके रसमें घोटकर कपडमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरकर उसका मुख बन्द कर दें (र. रा. सु.; ध (र. रा. सु.; धन्व.; र. चं.; रसे. सा. सं.: और उसे बालुका यन्त्रमें रखकर १ पहरकी मध्यम भै. र. । स्वरभेदा.) अग्नि दें । तत्पश्चाद् शीशीके स्वांग शीतल होने रसं गन्ध विषं टकं मरिचं चव्यचित्रकम् । पर उसमें से औषधको निकाल लें। | आर्द्रकस्य रसेनैव सम्मर्घ वटिकां ततः ॥ (२) १ पल सोनामक्खी और ४ पल ' गुञ्जात्रयप्रमाणेन खादेत्तोयानुपानतः । For Private And Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [६८०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [ भकारादि स्वरभेद निहन्त्याशु श्वासं कासं सुदुस्तरम् ॥* | खल्वे क्षिप्त्वा भावयेत्तु कुर्यान्मुद्गनिभा वटीम् । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग विष, भैरवाख्या वटी ख्याता रसशङ्करसज्ञिता ॥ सुहागेकी खील, काली मिर्च तथा चव और चीतेका | कासवासौ निहन्त्येषा सर्वव्याधिविनाशिनी ॥ चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी पीपल, काली मिर्च, सुहागेकी खील, शुद्ध कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधेका शंगरफ, शुद्ध मनसिल, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, चूर्ण मिलाकर सबको अद्रकके रसमें घोटकर ३-३ शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग, चांदीभस्म और अभ्रक रत्तीकी गोलियां बना लें। भस्म ५-५ तोले लेकर प्रथम पारे गन्धककी इन्हें पानीके साथ सेवन करनेसे कष्टसाध्य | कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों स्वरभेद तथा श्वास और खांसीका नाश होता है। का बारीक चूर्ण मिलावें । तत्पश्चात् ५-५ तोले भैरवरसः (५) केलेको जड़, चीतामूल और धतूरेकी जड़को पृथक् (र. रा. सु. । ज्वरा.) पृथ कूटकर सबको ३ सेर पानीमें पकावें और ___ "त्रिपुरभैरव रस" प्र. सं. २७३६ देखिये। | ३ पाव पानी शेष रहने पर छानकर उसमें उपरोक्त रसको घोटकर मूंगके बराबर गोलियां बना लें। (१९६९) भैरवरसः (६) (भैरवी वटी) ____ इनके सेवनसे खांसी और श्वास तथा अन्य (र. रा. सु. । श्वासा.) पिप्पली मरिचं चैव टङ्कणं दरदं तथा।। | बहुतसे रोग नष्ट होते हैं। शुद्ध मनाशिला गन्धं हरितालं तथैव च ॥ ! (४९७०) भैरवसिद्धिरसः विशुद्ध पारदं प्रोक्तं तथा शुद्धं विषं स्मृतम् ।। (र. का. धे. । ज्वर. अ. १) रौप्यभस्म चाभ्रकश्च पलमान पृथक पृथक् ॥ आदौ नागरसस्य योगविधया गद्माणको चूर्ण सूक्ष्म विधायाथ भावयेत्तु रसैः पुनः। निक्षिपेकदलीमूलकं चित्रं धत्तूरस्य च मूलकम् ॥ देकैकं विपशुल्वलोहगगनादीनां च गवाणकम् । पृथक् पृथक् पलमितं कुट्टयित्वा जले क्षिपेत् । एमिर्जातिदलस्य वासकरसङ्गः कृतं सप्तधा शोडषांशे काथयित्वा वस्त्रपूतं समाचरेत् ॥ सिद्धः सिद्धिधरस्त्रिदोषशमनः स्वामी * र. रा. सु. तथा र. चं. में कर्णरोगमें कथित रसो भैरवः॥ इसी नामके दूसरे रसमें चव्य चित्रकके स्थानमें कौड़ी | अस्य वल्लद्वयं जातीफलेन सलिलेन च । भस्म लिखी है तथा गुण इस प्रकार लिखे हैं: . दत्त्वा स्नानं सितायुक्तं दधिभक्तं हितं भवेत् ।। वहिमांध चामरोगं श्लेष्माणं ग्रहणीगदम् । । सबिपात तथा शोथं हन्ति श्रोत्रोदभवं गदम् ॥ सीसाभस्म २ भाग तथा शुद्ध बछनाग, __ अर्थात् इसके सेवनसे अग्निमांद्य, आमरोग, कफ, ताम्रभस्म, लोहभस्म और अभ्रकभस्म १-१ भाग प्रहणी, सभिपात, शोथ ओर कर्णरोगांका नाश होता है। लेकर सबको चमेलीके पत्ते, बासा और भंगरेके For Private And Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ६८१ ] रसकी सात सात भावना देकर सुखाकर सुरक्षित ताम्रका आठवां भाग शुद्ध बछनाग तथा पीपल, रक्खें । मिसरी, बायबिडंग, काला जीरा, असनावृक्षकी छाल और खरैटी में से प्रत्येकका चूर्ण ताम्रसे आधा मिलाकर सबको १ पहर भंगरे के रस में घोटकर पिट्टीसी बना लें और फिर उसे चिकने पात्र में रखकर मन्दाग्निपर इतना गर्म करें कि गोली बनाने लायक हो जाय । तब चनेके बराबर गोलियां बनाकर सुखा लें । इसमें से ६ रत्ती दवा जायफलको पानी में घिसकर उसके साथ देनेसे भयङ्कर सन्निपात ज्वर होता है। ज्वर छूटनेके पश्चात् रोगीको स्नान कराके दहीभात खांड मिलाकर खिलावें । (४९७१) भैरवी गुटिका (र. रा. सु. । ज्वरा. र. का. धे. । आगन्तुक ज्वरा.; वृ. नि. | सन्निपाता. ) शुद्धं स्रुतं द्विधा गन्धं मर्दयेद् भिक्षुकद्रवैः । दिनं भाव्यं च म च शोषयित्वा तु भृङ्गिजैः ।। चतुर्धा भावयेद्रावैस्तिलपर्ण्या द्रवैश्व तत् । भावनाभिश्च शोष्याथ चूर्णयेद्वस्त्रगालितम् ॥ चूर्णतुल्यं मृतं ताम्रं ताम्रादष्टांशकं विषम् । कृष्णा सिताविडङ्गानि कृष्णजीराशनं वला ॥ ताम्रार्द्धं प्रतिचूर्ण स्यात् सर्वमेकत्र कारयेत् । यामैकं भृङ्गिजेद्रवैर्मर्दयेत्कल्कतां गतम् ॥ स्निग्धभाण्डगत पाचयं पिण्डं यावत् कृशाग्निना । चणकाभा वटी योज्या चित्रकार्द्रक सैन्धवैः ॥ सम्यक् त्रिदोषजं हन्ति सन्निपातं सुदारुणम् । भैरव गुटिका ख्याता दध्यन्नं पथ्यमाचरेत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्हें चीता आर सेंधा नमक के चूर्ण तथा अदरक के रस के साथ खिलानेसे भयङ्कर सन्निपात वर नष्ट होता है । पथ्य - दही भात | (४९७२) भैरवी वटी (र. रा. सु. । अजीर्णा . ) तिन्तिडीकं विषं शुद्धं दग्वशङ्खं नियोजितम् । जातीफलं त्रुटितं सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ रसगन्धं समरिचं निम्बूरसविमर्दितम् । चित्रकेन तु वारैकं वटिका माषमात्रका | देया यत्नेन सततं नाम्ना मन्दाग्निभैरवी । कासे श्वासे प्रतिश्याये विषरोगादिके ज्वरे ॥ सर्वरोगेषु विख्याता वटी भैरव सञ्ज्ञिता ।। शुद्ध पारा १ भाग तथा शुद्ध गन्धक २ भाग लेकर दोनों की कज्जली बनाकर उसे १ दिन तालमखानेके रस में घोटकर सुखा लें और फिर भंगरे तथा हुलहुलके रसकी ४-४ भावना देकर सुखा कर अच्छी तरह खरल करके कपड़छन चूर्ण बनावें । | नीबूके रस तथा चीतामूलके काथकी १-१ भावना तदनन्तर उसमें उसके बराबर ताम्र भस्म और | देकर १-१ माशेकी गोलियां बना लें । तिन्तडीक, शुद्ध वछनाग विष, शंखभस्म, जायफल, छोटी इलायचीके बीज, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और काली मिर्च समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको For Private And Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६८२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [भकारादि - इनके सेवनसे अग्निमांद्य, खांसी, श्वास, प्रति | शुद्ध हिंगुल, दालचीनी, तेजपात, इलायची, श्याय, विष और ज्वरादि अनेक रोग नष्ट होते हैं। नागकेसर, लांग, सेठ, सफेद चन्दन, जायफल, (४९७३) भोगपुरन्दरी गुाटका केसर, पीपल, अकरकरा, अफीम, कस्तुरी और कपूर १-१ भाग, मिश्री ७॥ भाग और भंग ७|| (र. सं. क.। उल्लास ५; वृ. यो. त. । त. १४७) | भाग लेकर सबका महीन चूर्ण करके उसे शहदमें हिङ्गुलं च चतुर्जात लवापधचन्दनम् ।। धोटकर बेरकी गुठलीके बराबर गोलियां बना लें । जातिजं केसरं कृष्णा त्वाकल्लमहिफेनकम् ।। कस्तूरीन्दु समं सर्व तत्समे विजयासिते। ये गोलियां शुक्रस्तम्भक, बलमांस वर्द्धक क्षौद्रात्कोलमिता कार्या गुटी भोगपुरन्दरी॥ | और अत्यन्त वाजीकरण हैं। इनके सेवनसे मनुष्य शुक्रस्तम्भकरी ह्येषा बलमांसविवर्धिनी। चिड़ेके समान एक ही समयमें अनेकबार स्त्री समानरश्चटकवद्गच्छेच्छतवारं स्थिरेन्द्रियः ॥ गम कर सकता है। इति भकारादिरसप्रकरणम् । अथ भकारादिमिश्रप्रकरणम् । (४९७४) भल्लातकामृतम् __ शुद्ध भिलावे ६४ पल ( ४ सेर ), दूध ८ (वृ. नि. र. । ग्रहणी.) सेर और पानी ३२ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाभल्लातकचतुःषष्टिपलं दुग्धं च तत्समम् ।। कर पकावें । जब दूधमात्र शेष रह जाय तो उसे दुग्धाश्चतुर्गुणं वारि पाच्य दुग्धावशेषकम् ॥ छानकर उसमें ८ सेर घी और १ सेर मिश्री दुग्धतुल्यं घृतं योज्यं घृतपादं सितां क्षिपेत् । | मिलाकर पुनः पकावे और जब वह गाढ़ा मधुधात्री सितातुल्यं सितार्धमभयारजः॥ हो जाय तो उसमें १ सेर शहद, १ सेर आमलेका मृतलोहं गुडूची च प्रत्येकमभयार्धकम् । चूर्ण, आधासेर हर्रका चूर्ण तथा पाव पाव सेर सिपेस्निग्धघटे सर्व धान्यराशौ निवेशयेत् ।। ( २०-२० तोले ) लोहभस्म और गिलोयका सप्ताहादुद्धृतं तत्तु खादेनिष्कत्रयं त्रयम्। सत मिलाकर सबको चिकने घड़ेमें भरकर उसका भल्लातकामृतं नाम इन्ति रक्तार्शसां किल । मुख बन्द करके अनाजके ढेरमें दबा दें और सात क्षारं तीक्ष्णं न भोक्तव्यं तैलाभ्यङ्गं च वर्जयेत् ।। दिन पश्चात् निकालकर काममें लावें । इसे १। For Private And Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिपकरणम] तृतीयो भागः। [६८३] तोलेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे रक्तार्श अवश्य | मधूकसारं तुल्यांशं बस्तमूत्रेण मर्दयेत् । नष्ट हो जाती है। सत्रिपात प्रशमयेटैरवोक्तं रसायनम् ॥ इसके सेवनकालमें क्षार और तीक्ष्ण पदार्थों से परहेज करना चाहिये तथा शरीरपर तैलमर्दन समुद्रफल, रुद्राक्ष, कालीमिर्च, सोंठ, पीपल, न करना चाहिये। बच, कटेलीके बीज, सेंधा नमक, ल्हसन तथा | महुवेका सार समान भाग लेकर सबका महीन (१९७५) भैरवरसायनम् चूर्ण करके उसे बकरेके मूत्रमें घोटकर ( ३-३ (र. का. धे. । ज्वर. अ. १; वृ. नि. माशेकी ) गोलियां बना लें। यो. र. । अपस्मारा.) समुद्रफलरुद्राक्षमरिचं नागरं कणा। इनके सेवनसे सन्निपात और अपस्मार न गोलोमी बृहतीबीजं सैन्धवं लशुनं तथा॥ होता है। इति भकारादिमिश्रमकरणम् । इत्यो३म् For Private And Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाप्तोऽयं तृतीयो भागः कारतक शु. १५ सं. १९८७ For Private And Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MARATHIHARITHI HAIJHANTHRINHIHETHILIBHITEHITTHARTHATITLE चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी अर्थात् भारत-भैषज्य-रत्नाकर (तृतीय भागकी) रोगानुसारिणी सूची TVARJATIGUALADALAH LALABALALARIAL PARECERINTEISELLA GIUL OLMAQUITA For Private And Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप इस पथ-प्रदर्शिनी की सहायतासे कमसे कम निम्न लिखित लाभ अवश्य उठा सकते हैं। (१) इसकी सहायतासे आप मालूम कर सकते हैं कि शास्त्रोंमें जो एक एक रोगके बहुतसे प्रयोग लिखे हैं उनमेंसे हरेकमें क्या विशेषता है । (२) यह आपको बतलाएगी कि किस रोगकी किस अवस्था और किन लक्षणोंमें कौन प्रयोग अधिक उपयोगी है। (३) यदि समय पर आपको किसी रोगके किसी प्रयोगका नाम विस्मृत हो जाय तो वह इसके पृष्ठों पर दृष्टि डालतेही तत्काल याद आ जायगा क्यों कि इसमें एक एक रोगके समस्त प्रयोगों के नाम एकही स्थान पर संग्रहीत हैं। (४) इसमें काथ चूर्ण, अवलेह, रसादि के प्रकरण पृथक् पृथक् होनेके कारण आप हरेक रोगीकी परिस्थितिके अनुसार इसकी सहायतासे आसानीसे औषध व्यवस्था कर सकते हैं । (५) किसी रोगीके लिये औषध व्यवस्था करनेके लिये अन्य किसी पुस्तक के एक पूरे अध्यायको पढ़नेसे जो लाभ होना सम्भव है वह इसके एक दो पृष्ठापर केवल १ दृष्टि डाल लेने से ही हो सकता है। For Private And Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विषय (१) अजीर्ण तथा अग्निमांद्य (२) अतिसार (३) अपस्मार ( ४ ) अम्लपित्त ( ५ ) अरुचि ( ६ ) अर्श (७) अश्मरि (८) आमवात उदररोग ( ९ ) (१०) उदावर्त (११) उन्माद (१२) उपदंश (१३) कर्णरोग (१४) कास (१५) कुष्ट (१६) कृमिरोग (१७) क्षुद्ररोग (१८) गलरोग (१९) गुल्म (२०) ग्रहणी (२१) छर्दि (२२) ज्वरातिसार (२३) ज्वर (२४) तृष्णा (२५) दन्तरोग (२६) दाह www.kobatirth.org अनुक्रमणिका विषय (२७) नासारोग ६९१ (२८) नेत्ररोग ६९३ (२९) पाण्डु ६९४ (३०) पित्तरोग ६९५ (३१) प्रमेह पृष्ठ ६८९ " ६९८ 37 ६९९ ७०१ 99 ७०७ ७१० ७११ "3 ७०२ (३८) मेदरोग ७०३ (३९) रक्तदोष ७०४ (४०) रक्तपित्त ( ४१ ) रसायन बाजीकरण ور (३२) बालरोग (३३) ब्रन (३४) भगन्दर (३५) सुखरोग "1 ७२७ (३६) मूत्रकृच्छ्र मूत्राघात (३७) मूर्च्छा मदात्यय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२) राजयक्ष्मा (४३) वातरक्त (४४) वात व्याधि (४५) विद्रधि, गलगण्ड, गण्डमाला ७१३ ७१५ (४६) विष ७१६ (४७) विसर्प ७१७ (४८) विस्फोटक मसूरिका ७२६ (४९) वृद्धि (५०) व्रण (५१) शिरोरोग For Private And Personal Use Only पृष्ठ ७२८ ७२८ ७३२ ७३४ ७३५ ७३७ ७३९ " ७४० ७४१ ७४२ 99 ७४३ 19 ७४४ ७४७ ७५० ७५१ तथा ग्रन्थि ७५३ ७५४ ७५५ ७५६ ७५७ ७५८ ७५९ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६८८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। ७७० ५२ शीत पित्ताधिकारः ५३ शूलाधिकारः ५४ शोथाधिकारः ५५ श्लीपदाधिकारः ५६ स्त्रीरोगाधिकारः ५७ स्नायुक रोगाधिकारः ७६१ ५८ स्वरभेदाधिकारः ५९ हिक्काश्वासाधिकारः ७७१ ७६३ । ६० हृद्रोगाधिकारः ७७२ ७६५ धातु शोधन मारण तथा पारद प्रकरणम् ७७३ ७६६ ओषधि कल्पाधिकारः ७७४ ७७० मिश्राधिकारः ७७४ For Private And Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी -uniora (१) अजीर्ण तथा अग्निमान्द्याधिकारः संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरण ३९०७ पथ्याधं चूर्णम् ४ प्रकारका अजीर्ण, २८१८ दन्त्यादि कल्कः विसूचिका। अग्निमांद्य, अफारा, २८७५ दीपनीय महाकषायः दीपन अरुचि, शूल। (चरक) ४६२३ बिडलवणादिचूर्णम् अत्यन्त पाचक । ३२३६ धवादि काथः विषूचिकाका शूल, | ४८२७ भस्मार्क चूर्णम् आढयवात, अजीर्ण, आम । विसूचिका, आनाह, ३३९८ निम्बुरसादिप्रयोगः विसूचिका, वमन, ‘पाण्डु आदि । तृषा । ४८३३ भास्करलवणचूर्णम् तिल्ली, उदर, अह१५८१ बिल्यादि काथः छर्दि, विसूचिका । णी, शूल, आम, अग्निमांद्य आदि । चूर्ण-प्रकरणम् २९५७ दाडिमाचं चूर्णम् अग्निमांद्य, गुल्म, गुटिका-प्रकरणम् ग्रहणी, अफारा, पा- | ३२८१ धनञ्जय वटी अजीर्ण, शूल तथा व शूल । आध्मान नाशक,रो३८८० पञ्चकोलचूर्णयोगः मन्दाग्नि, आम, अ चक, दीपक | रुचि । ३८८३ पञ्चमूल चूर्णम् अग्निमांद्य, शूल, अ अवलेह-प्रकरणम् रुचि । ३८८८ पञ्चाग्नि चूर्णम् अग्निको दीप्त करता ३०२८ द्राक्षादि प्रयोगः विदग्धाजीर्ण । ४८६८ भोजनान्तेऽवलेहः पाचक, स्वादिष्ट। ३८९९ पथ्यादि , अजीर्ण, शूल, विसूचिका। घृतप्रकरणम् ३९०१ , अग्निको दीप्त करता ३०४४ दशमूलादिघृतम् अग्निमांद्य, प्रहणी, विष्टम्भ, आम | For Private And Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [६९०] चिकित्सा-पय-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३२९५ धान्यक घृतम् अग्निवर्द्धक तथा | ४३९५ पाशुपतो रसः दीपन, पाचन, विकफ, आमशूल, सूचिकानाशक । गुदरल, योनिशूल, | ४४५४ प्रभावतीगुटिका आम, अजीर्ण, प्रउदावर्तादि नाशक। हणी। ३२९८ , , समस्त प्रकारके | ४७४८ बुभुक्षुबल्लभोरसः पाचक । अजीर्ण । ४७४९ , , , ३२९९ घान्यादि , अग्निवर्द्धक,रोचक। ४७५० " " " १६६५ विडलवणादि, अग्निमांद्य । ४९३४ भक्तपाक वटी मलावरोध, आम, अग्निमांद्य, शूल। ४९३५ भक्तविपाकवटी पुरानी मन्दामि, छेप-प्रकरणम् आम, मलावरोध, ३१४२ दारुषटकादिलेपः आनाह । वायु। १७१६ वृहत्यायो योगः विसूचिका । ४९४० भस्म वटी अजीर्ण,गुल्म आदि ४९४२ भस्मामृत रसः अग्निदीपक । रस-प्रकरणम् ४९४३ " " ३६५९ नीलकण्ठ रसः अग्निमांथ, शूल ।। ४९४८ भास्करो , विसूचिका, अग्नि४२८० पञ्चामृत चूर्णम् मांद्य । ५३०१ ॥ वटी ४९४९ भास्वद वटी पाचनविकार,अपा४३२३ पानीयभक्त , दीपन,आमनाशक ।। नवायुका रुकना। १३२६ , , , अग्निमांध । । ४९५५ मुक्तदावी रसः अत्यन्त पाचक, ४३२८ , , , कफज अग्निमांध रोचक । में अत्युपयोगी। १९५६ भुक्तोत्तरीयावटी पुरानी मन्दाग्नि, शूल नाशक। आम, मलावरोध । १३२९ " " " वातकफज रोग, | १९७२ भैरवी वटी अग्निमांथ,प्रतिश्याय अग्निमांध, परिणाम शूल । मिश्र-प्रकरणम् ४३३० , , , ग्रहणी, अम्लपित्त, | ३२२७ दन्त्यादि वर्तिः आनाह, उदरशूल । अग्निमांद्य,अरुचि । । ४५०२ पाचनीय क्षारः पाचक । For Private And Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [११] (२) अतिसाराधिकारः संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् | ३८२४ पिप्पली कल्कः । पुरानी प्रवाहिकाको २८५५ दाडिम पुटपाकः सर्वातिसार । भी. ३ दिनमें नष्ट २८५९ दाडिमादि कल्क: अतिसार । कर देता है। २८६० , , रक्तातिसार । | ३८६६ पूतिकादि , कफातिसार । २८६१ , काथः कष्ट साध्य रकातिसार ३८६७ , काथः वातातिसार। २८९७ देवदादि , शोकातिसार । | ३८६८ पूतिदादिकषायः वातकफातिसार । २९०१ , , अजीर्ण, अतिसार । ३८६९ पृश्निपादिकाभः शोकातिसार । ३२४० धातक्यादि , सर्वातिसार, बालाति- ३८७७ प्रियङ्वादिगणः पकातिसार । सार। ४५४२ बदरीपल्लवरसयोगः ३ दिनमें रक्ताति३२४२ , योगः प्रवाहिका। सारको नष्ट करता ३२६४ धान्य पश्चकम् । आम, शूल, विबन्ध। ३२६५ धान्यादिकाथः पुराना अतिसार,आम ४५४३ बदरी मूल कल्कः रक्तातिसार । शूल, रक्तातिसार, ४५४४ बब्बूलपल्लवयोगः अतिसार । ज्वर । दीपन, पाचन । ४५४६ बब्बूल्यादिस्वरस ३२६६ समस्त प्रकारके प्रयोगः ३२६७ , जलम् अतिसार। तृष्णा, दाह, अतिसार। ४५५७ बलादि क्षीरम अतीसारमें मल क्षय ३३५७ नागरादि काथः तृष्णा, शूल, अतिसार। होनेकी दशामें उप३७५८ पटोलादि , अतिसार, छर्दि। योगी है। ३७६८ पटोलादि सेकः । गुददाह, गुदपाक। ४५७१ बिल्वादि कषायः आमयुक्त पित्ताति३७७३ पथ्यादि काथः पक्कातिसार । सार। ३७७४ , , आमातिसार. शूल । ४५७२ , काथः वातकफज अतिसार ३७८० " " कफातिसार । ३८०१ पाठादि शोथ, अतिसार । नाशक तथा पाचक ३८०७ " , कफ, शूल युक्त आ- | ४५७५ ॥ " कफातिसार नाशक __ मातिसार । तथा अग्नि और बल ३८०८ , , पित्तकफज अतिसार, वर्द्धक । प्रहणी,शुल । । १५८० " " अतिसार और छर्दि For Private And Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६९२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - अरुचि । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण को तुरन्त नष्ट क- ३९४६ पिप्पल्यादि चूर्णम् वमन विरेचनके मि ध्यायोगसे उत्पन्न ४५४२ बिल्बादिकाथः ज्वरातिसार, शूल। हुई प्रवाहिका, अ४५८७ बिल्वादियोगः रक्तातिसार । तिसार, शूल, परि कार्तिका । चूर्ण-प्रकरणम् ३९६५ पिप्पल्यायं , आमातिसार; कहा२९५८ दाडिमाष्टकचूर्णम् अतिसार, ग्रहणी, तिसार, पिसातिसार अग्निमांथ । ३९९२ प्रियङ्ग्याचं , अतिसार, तृष्णा, २९५९ , , आमातिसार,अरुचि, छर्दि। ग्रहणी, अग्निमांद्य । | ४६१३ बम्बूलादियोगः कफातिसार । २९६० , " अतिसार, ग्रहणी, ४६२५ बिभीतकफलचूर्णम् प्रवृद्ध अतिसार । ४६२९ बिल्वगुडादिप्रयोगः शूलयुक्त प्रवाहिका । २९६२ दादि , वातपित्तातिसार। ४६३० बिल्वगुडादि प्रयोगः प्रवाहिका। ३२७१ धातक्यादि , प्रबल अतिसार । ४६३६ बिल्वादि चूर्णम् कष्ट साध्य अति३४२८ नागरादि प्रयोगः आमातिसार,शूल। सार। ३५३६ नारायण चूर्णम् रक्तातिसार, शोथ, १८२० भल्लातकादिचूर्णम् समस्त प्रकारके अकष्टसाध्य पुराना तिसार अतिसार,ज्वर, खांसी ३८९७ पथ्यादि कफातिसार। गुटिका-प्रकरणम् ३९०३ , , आमातिसार, कफा- ३००३ दाडिमीवटी पकातिसार । तिसार। ३००४ , " " ३९१२ पभकादि , पक्कातिसार । | ३२८२ धातक्यादि मोदकः समस्त अतिसार । ३९१७ पाठादि , दाह और पीडायुक्त ३४५३ नागरायो मोदकः कफज अतिसार अतिसार। ग्रहणी,पाण्ड, शोथ, ३९१९ , , कष्टसासाध्य अति . कृमि, अर्श। सार। ३९२१ पाठाचं , कफातिसार । ३९२२ , , पीडायुक्त आमा अवलेह-प्रकरणम् तिसार। | ३४७३ नवनीतावलेह रक्तातिसार । For Private And Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [६९३] - - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम घृत-प्रकरणम् | ४२८४ पञ्चामृता पर्पटी पुराना अतिसार, ३०४७ दशमूलादिघृतम् अतिसार, संग्रहणी, ग्रहणी, अरुचि, छर्दि पाण्डु। अग्निमांध, ज्वर । ३०६० दारुहरिद्रादि " त्रिदोषज अतिसार। ४४२९ पूर्णचन्द्रोदयरसः अनेक प्रकारका अ३२९६ धान्यक , पित्तातिसार । तिसार, शूल, संग्र३४७७ नागरादि , कफ, ग्रहणी, प्रवा हणी । हिका, गुदभ्रंश, आनाह । ४०७५ पाठाचं , प्रवाहिका, गुदभ्रंश, मिश्र-प्रकरणम् ग्रहणी, अफारा, ३६७० नागरादि पेया स्तातिसार । वायु। ४५०४ पिच्छा बस्तिः प्रवाहिका, रक्तस्राव, गुदभ्रंश ज्वर । ४६९१ बिल्वतैलम् अतिसार, संग्रहणी, पित्तातिसार, बारअर्श। बार पीड़ाके साथ रस-प्रकरणम् थोड़ा थोड़ा रक्त ३१९७ दर्दुर रसः अतिसार । ३६३० नामसुन्दर, अनेक प्रकारका आना, अपानवायुअतिसार, गुदभ्रंश। का रुकना। तैल-प्रकरणम् (३) अपस्माराधिकारः अवलेह-प्रकरणम् । ४०५० पश्चगव्यं धृतम् अपस्मार, भूतोन्मा३०३१ द्राक्षाधवलेहः भयङ्कर अपस्मार, द, श्वास। खांसी, क्षय । । ४०५१ , , , अपस्मार, ज्वर, खां सी, चातुर्थिक । घृत-प्रकरणम् ४६७९ ब्राह्मी , समस्त प्रकारके अ३०५७ दाधिकं घृतम् कष्टसाध्य अपस्मार, पस्मार। उन्माद, वातव्याधि तैल-प्रकरणम् ४०४८ पश्च गव्यं , अपस्मार, उन्माद, चातुर्थिक । ४११८ पलङ्कषाचं तैलम् अपस्मार । For Private And Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६९४] चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी - संख्या प्रयोगगाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण धूप-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ४७२१ ब्रमसहो धूपः अपस्मार, उन्माद। | ४४३६ प्रचण्ड भैरव रसः अपस्मार, उन्माद, . . नस्य-प्रकरणम् वातव्याधि, खांसी, ३३९७ निर्गुण्ड्यादि नस्यम् अपस्मार । छर्दि। (४) अम्लपित्ताधिकारः कषाय-प्रकरणम् ३२८८ धान्यकादिप्रयोगः , अरुचि, ज्वर २८५२ दशाङ्गकाथः अम्लपित्त । ४०२५ पिप्पली खण्डः अम्लपित्त, उत्क्लेश, ३७२४ पटोलादि काथः पित्त, कफप्रधान (बृहद् ) वमन, श्वास, अग्निअम्लपित्त, दाह, -- .......... मांग। ज्वर, वमन, शूल,। ३७५७ , घृत-प्रकरणम् शूल, कफ, पित्त, , अग्निमांद्य । ३०७० द्राक्षादि घृतम् अम्लपित्त, खांसी, ३८०५ पाठादि , कफप्रधान अम्ल अग्निमांध, ज्वर । पित्त । ३४८४ नारायण , कष्टसाध्य अम्लपि४८०२ भूनिम्बादि , अम्लपित्त । त्त, दाह, छार्द। | ४०६२ पटोल शुण्ठि , अम्लपित्त । चूर्ण-प्रकरणम् ३८८२ पंचनिम्ब चूर्णम् भयंकर अम्लपित्त । रस-प्रकरणम् | ४२७१ पश्चानन वटी गुटिको-प्रकरणम् अम्लपित्त, अफारा, ३००७ द्राक्षादि गुटी अम्लपित्त; कण्ठ और हृदयकी दाह, तृष्णा, | ४३२५ पानीयभक्त , अम्लपित्त, वमन, अग्निमांद्य । विष्टम्भ । ४७३४ बलादि मण्ड्रम् असाध्य अम्लपित, अवलेह-प्रकरणम् तीन शूल। ३२८५ पात्री चनुस्समा ४९४६ भास्करामृतानम् अम्लपित्त, छर्दि,पअम्लपित्त । रिणाम शूल। For Private And Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्षिनी [६९५] कवलप्रह (५) अरुचि रोगाधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् ३९४४ पिप्पल्यादिचूर्णम् पित्तज अरुचि । २८५७ दाडिम रसः ___ असाध्य अरुचि ।। ३९६१ पिप्पल्या , कफज अरुचि । २८५८ दाडिम रसादि ३९६७ , , अत्यन्त रोचक, इप, अरुचि। दीपन, वमन.नाश क, कण्ठशोधक। चूर्ण-प्रकरणम् | ४६२२ बिडलवण योगः असाध्य अरुचि । २९५२ दाडिमादिचूर्णम् रोचक, हृय, कास नाशक । २९९५ द्राक्षापाडवः हर प्रकारकी अरु मिश्र-प्रकरणम् चिको नष्ट और मु- | ३६८३ निम्बुपानकः रोचक, पाचक, खको शुद्ध करता है। दीपक । (६) अर्शोधिकारः कषाय-प्रकरणम् | ३९३४ पारिभद्रादि क्षारः कफज अर्श, रक्ताई, २९०२ देवदाली योगः मस्सों का नाश कर शोथ, पाण्डु। ने वाला शौच क्रि- | ३९८६ पूतिकाचं चूर्णम् १ मासमें अर्शके याके लिये उपयोगी मस्सोको गिरा देता जल तथा धूनी। २९२९ द्राक्षादि योगः रतार्थ । ४८२१ भल्लातकादिचूर्णम् अर्श, अग्निमांय, कुष्ठ । ३३५४ नागरादि कल्कः अर्श। ४८२३ , " अर्श, खांसी, श्वास, ३७६९ पत्रकादि काथः ज्वर । ४५६२ बालकादि कल्कः पित्तज अर्श। ४८२६ भल्लातकामृतम् पित्तज अर्श । चूर्ण-प्रकरणम् २९७५ देवदाली प्रयोगः अर्श। ३२६९ धत्तूरादि चूर्णम् पित्तज अर्श। गुटिका-प्रकरणम् । ३००५ दुर्नामकुठारमोदकः वातारी। । ३४५४ नागरायो मोदकः हर प्रकारकी अर्श। For Private And Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [६९६] संख्या प्रयोगनाम ३९९५ पथ्यादि गुटिका ३९९६ मोदकः 17 ४००५ प्राणदा गुटिका ४६४३ वृद्धदारु मोदकः ४८४९ भल्लातक वटकः ४८५० हरीतकी ४८५२ भीमसेन वटकः 66 ज्वर । ४००६ प्राणप्रदो मोदक: अर्श, कास, श्वास, अग्निमान्ध | ६ प्रकारका अर्श । अर्श, उदर, शूल, अग्निमांद्य । ३०१६ दशमूल गुडः ३०१७ ३४६४ नागकेसराद्य वलेहिका ४०१६ पटोलावलेह : ४०१७ पथ्यादि गुडः 13 अवलेह-प्रकरणम् ४०१९ पथ्यावहः www.kobatirth.org " मुख्य गुण अर्श, पाण्डु, खांसी, ज्वर । चिकित्सा - पथ-प्रदर्शनी संख्या प्रयोगनाम ४०२१ पद्मकेसर योगः ४६४९ बाहुशाल गुडः ४८५७ भल्लातक गुडः अर्श । सर्व दोषज अर्श, रक्तार्श, सहजार्श, कफा । अर्श, पाण्डु, आ नाह, विबन्ध | अर्श, गुल्म, अग्निमांध ४८५८ अर्श अर्श, पाण्डु, अफारा अरुचि, विबन्ध | अर्श, ग्रहणी, पाण्डु, शोथ, अग्निमांद्य । अर्श, हिचकी, खास, खांसी, अग्निमांद्य, शोष, शूल, रक्तस्राव ग्रहणी । ४८५९ ४८६० 39 " 33 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 37 For Private And Personal Use Only ३४७३ नवनीतादि योग: अर्श, अजीर्ण, पाण्डु || ४०७२ पलाशादि घृतम् ४०९५ पिप्पल्या "" ४५३२ फलवर्ति कामला । लेहः अर्श, पाण्डु, ग्रहणी, शूल और अरुचि 39 ३०८० दन्त्याद्यं तैलम् ४१२६ पिप्पल्याचं घृत-प्रकरणम् मुख्य गुण रक्तार्थ । अर्श, पाण्डु, ग्रहणी अर्श, खांसी, उदा वर्त, पाण्डु, शोध, अग्निमांद्य | अर्शादि गुद रोग, कास, अग्निमांध, 29 नाशक तथा बल वर्द्धक " अर्श, ग्रहणी, ज्वर, उदर, अग्निमांद्य, खांसी । तैल-प्रकरणम् रक्तार्श । अर्श 1 अर्श, शोथ, अफारा, ज्वर, अग्निमांद्य । अर्शके मस्से । अर्श, गुदशोथ, गु दभ्रंश, कब्ज, अ फारा, प्रवाहिका । अर्श । Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [६९७] ४१९५ " " संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण आसवारिष्ट-प्रकरणम् । ४१५५ पील्वासवः अर्श, अग्निमांद्य, प्लीहा, ३११८ दन्त्यरिष्टः अर्श, उदावर्त, कृमि, उदर व्याधि । ग्रहणी। ३११९ , अर्श, अरुचि, ग्रह लेप-प्रकरणम् णी, पाण्डु । मल ३५४४ निशादि लेपः अर्श । और वायुकी गतिको | ३५४९ , , अनुलोम करता है। ३१२१ दशमूलारिष्टः अर्श, अरुचि, ग्रह ४१९३ पिप्पल्यादि , अर्शके मस्से । णी,उदावर्त, पाण्डु। ३१२४ दुरालभारिष्टः अर्श, ग्रहणी, उदा. ४९०८ भल्लातकादि, कफार्श। वर्त, अरुचि, तथा मलमूत्र, अपान वायु रस-प्रकरणम् और डकारका रु ३६५६ नित्योदित रसः अर्श । कना। ४४०९ पित्ताशेहर , पित्तार्श । ३१२५ " " अर्श, ग्रहणी, उदर | ४४१८ पीयूषसिन्धु , भयङ्कर अर्श, ग्रहरोग, शोथ, गुल्म, णी, शूल, पाण्डु । अग्निमांद्य । ४७५३ बोलबद्धो , रक्तार्श, पित्तार्श । ३१२६ दुरालभासवः अर्श, ग्रहणी, पाण्डु। ३१३० द्राक्षासवः अर्श, ग्रहणी, उदा. वर्त, ज्वर, पाण्डु, मिश्र-प्रकरणम् अग्निमांद्य । ३२३३ देवदाल्यादिगुटिका अर्शके मस्से । ३१३१ , अर्श, शोथ, अरुचि, ३६६८ नवनीतादि योगः रक्तार्श । ज्वर, उदर रोग, | ४५०८ पिप्पल्यादि पेया अर्श । पाण्ड। ४७७२ बिल्वशलाटु ४१५४ पील्वासवः अर्श, अग्निमांद्य, प्रयोगः गुल्म । भल्लातकामृतम् पी रक्तार्श। For Private And Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६९८] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - D - (७) अश्मयधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ३३५८ नागरादि काथः उग्र अश्मरी। ४०८२ पाषाणभेदाचंघृतम् वातज अश्मरी । ३८१६ पाषाणभेदकाथः पित्तज अश्मरी।। ३८१८ पाषाणभेदादि , दुर्मेध अश्मरी । तैल-प्रकरणम् ४५९२ बीजपूरमूलयोगः शर्करा । ४१३० पुणनवायं तैलम् शर्करा, अश्मरि:शूल, चूर्ण-प्रकरणम् मूत्रकृच्छू तथा ब स्ति और लिङ्गकी ३९३६ पाषाणभेदाचं चूर्णम् अश्मरी । ३९८८ प्रसारणी चूर्णम् , मूत्रकृच्छ्र । रस-प्रकरणम् अवलेह-प्रकरणम् ४३९६ पाषाण भिन्नः अश्मरी। ४०२४ पाषाणभेद पाकः ५ प्रकारकी अश्मरी | ४३९७ पाषाणभेदी रसः मूत्रकृच्छ्, मूत्राघात, | ४३९८ , , पथरीको तोडकर प्रमेह । निकाल देता है। ४३९९ , , अश्मरी । (८) आमवाताधिकारः कषाय-प्रकरणम् २८४९ दशमूलीयोगः गठिया । ३८२२ पिचुमन्दमूलयोगः ॥ ३९०८ पथ्याचं चूर्णम् ३९४९ पिप्पल्यादि , चूर्ण-प्रकरणम् | ३९७६ पुनर्नवादि , ३४२० नागर चूर्णम् आमवात, कफवा तज रोग। ३८८७ पञ्चसमं चूर्णम् आमवातमें विशेष उपयोगी है। अग्रिमांध, आध्मान। आमवात, शोथ, मन्दाग्नि । आमशोथ, ग्रहणी। आमवात, आमाशय गतवायु, कष्टसाध्य गृध्रसि । For Private And Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथनमवर्षिनी [६९९] संबरा प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण गुग्गुलु-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ३४५८ नवक गुग्गुलुः आमवात,कफजरोग, | ३११४ द्विपञ्चमूलायतैलम् आमवात, कफवामेदज रोग। तजरोग, कमर जंघा पार्श्वकी पीड़ा । अवलेह-प्रकरणम् ४०४३ प्रसारिणी लेहः आमवात । रस-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् सन्धिवात,आमवात, ३४७६. नागर घृतम् आमवात नाशक कुक्षिशूल, जङ्घा. तथा अग्निवर्द्धक । शूल,पादाङ्गुलीशूल। - - - - (९) उदररोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् कफवातज समस्त २८१९ दन्त्यादि कल्कः उदररोग । उदररोग । उदररोग, गुल्म,वा. २८३९ दशमूलादि काथः. जलोदर,शोथ, श्ली. ३४३५ नारायणं चूर्णम् पद। युका रुकना, मल की कठिनता, परि२८४६ दशमूली योगः वातोदर । वर्तिका आदि। ३७८२ पथ्यादि , जलोदर । | ३८८९ पटोलाधं , जलोदर, शोथ, ३८४६ पुनर्नवादि काथः शोथ, आम, शूल, कामला। अजीर्ण। ३८४७ ३८४० पिप्पलीचूर्णयोगः समस्त उदररोग । , , शोथोदर । ३८७० पृश्निपादिक्षीरम् पित्तोदर । ३९४२ पिप्पली योगः गुल्म, तिल्ली, अ ग्निमांध । ४५४५ बब्बूल रस क्रिया जलोदर । ३९६८ पिप्पल्यावंचूर्णम् प्लीहा । चूर्ण प्रकरणम् ३९७८ पुनर्नवादि , तिल्ली, शोथोदर, ३४३२ नाराचकं चूर्णम् आनाह, गुल्म, एल, अर्श। उदावर्त इत्यादि । । ३९७९ , योगः गुल्म, जलोदर । For Private And Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७००] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी गुटिका-प्रकरणम् । ४०८५ पिप्पलीचित्रकघृतम् प्लीहा, यकृत् । ४००७ प्लीहारि वटिका तिल्ली, कष्टसाध्य . ४०९१ पिप्पल्याचं , शूल, गुल्म, उदर रोग, अफारा, तिगुल्म। ल्ली। ४८४८ भल्लातक मोदकः ७ दिनमें भयंकर ४६६९ बिल्वाधं, प्लीहा, आम, मलाव तिल्लीको नष्ट कर रोध, वातज शूल, देता है। अपान वायुका रु४८५४ भेदिनी वटी रेचक, उदररोग कना, गुदभ्रंश । नाशक। ४६७३ ब्रह्म धृतम् प्लीहा तथा अन्य समस्त उदररोग। घृत-प्रकरणम् ३०४२ दशमूलपट्पलवृतम् उदरव्याधि, शोथ, तैल-प्रकरणम् अपानवायुका रुक- ३०७९ दम्यादि तैलम् वातोदर । ना, गुल्म, अर्श । ३०१९ दशमूलादि , बातोदर । आसवारिष्ट-प्रकरणम् ३०७८ द्विपञ्चमूलाधं , समस्त उदररोग। | ४१४७ पञ्चमूत्रासवः प्लीहा, वातव्याधि ३४७९ नागराधं यमकम् कफवातज गुल्म तथा समस्त उदर लेप-प्रकरणम् रोग। | ४१५१ देवदार्वादि लेपः उदररोग ३४८३ नाराच घृतम् उदर रोग, आमवात, प्लीहा, गुल्म, रस-प्रकरणम् भगन्दर । ३४९३ नीलिन्यादि , गुल्म, उदररोग,शो- ४४१० पिप्पलीलोह योगः तिल्ली। थ, प्लीहा। ४४१२ पिप्पल्यादि लोहम् सर्व प्रकारके उदर ४०४५ पञ्चकोल घृतम् उदर, शोथ, विष्ट म्भ, वायु गुल्म,। ४४२७ पूतिकरञ्जाथं चूर्णम् जलोदर । ४०८३ पिप्पली , तिल्ली, अग्निमांद्य, ४४५३ प्रभावती गुटिका उदररोग, गुल्म, यकृद्रोग । प्लीहा, (यह गुटिका रोग। For Private And Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७०१] - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम पत्थर के समान कठिन मलको भी तोड़कर निकाल दे- ४४८६ प्लीहारि रसः ती है। ४४८७ , , ४४८१ प्राणेश्वरो रसः ८ प्रकारके गुल्म, वायु, प्लीहा, पाण्डु। | ४४८८ , , ४४८४ प्लीहशार्दूलो रसः प्लीहा, अग्रमांस, य ४४८९ प्लीहारि वटिका कृत्, गुल्म, शोथ, ज्वर । ४४८५ प्लीहान्तको , ८ प्रकारके उदर ४४९० प्लीहार्णवो रसः रोग, आनाह, विषम | ४७५७ ब्रह्म वटी ज्वर, आम शूल, मुख्य गुण शोथ और विशेषतः तिल्ली। यकृत् , पाण्डु, प्लीहा प्लीहा, ज्वर, शूल, अर्श । प्लीहा, यकृत् गुल्म। प्लीहा, यकृत, गुल्म, अग्निमांद्य, शोथ। प्लीहा, ज्वर । ६४ प्रकारके उदर रोग। (१०) उदावर्ताधिकारः कषाय-प्रकरणम् ३४३४ नाराच चूर्णम् मलकी कठिनता, २८९१ दुःस्पर्शादिस्वरस मूत्रावरोध-जन्य उ उदावर्त । प्रयोगः दावर्त । ४८१६ भद्रदार्वादि , अफारा, उदावर्त । रस-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ३६४७ नाराच रसः उदावर्त, शूल, गु२९९९ द्विरुत्तर चूर्णम् उदावर्त । ल्म, जीर्णज्वर । (११) उन्मादरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ४६०८ ब्राह्मयादिस्वरस २९९१ द्राक्षादि प्रयोगः उन्माद प्रयोगः घृत-प्रकरणम् | ३४९१ निशादि घृतम् उन्माद उन्माद For Private And Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०२] चिकित्सा पथ-प्रदर्शिनी - अञ्जन कर संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण ४१०४ पुराण घृत प्रयोगः उन्माद अञ्जन-प्रकरणम् ४१०५ पैशाचकं घृतम् उन्माद, ग्रह, अप- ४२१४ प्रचेतानाम गुटिका भूतोन्माद । (महा) स्मार, ४७३२ ब्राह्मयाद्या वर्तिः उन्माद । ४६६२ बलाचं घृतम् उन्माद, अपस्मार, प्रवृद्ध पित्त, दाह, तृष्णा । नस्य-प्रकरणम् १६७४ ब्राह्मी , उन्माद तथा अप-४२५२ पिप्ल्यादि प्रधमन स्मार नाशक और नस्यम् उन्माद, अपस्मार, वाणी, स्वर एवं चित्तविकृति । स्मृति वर्द्धक । ४२५४ पुण्डरेक्वादिनस्यम् उन्माद । ४६७६ , " उन्माद, अपस्मार। ४९३१ भूतोन्मादनाशक , , १८७८ भूतराव , प्रहोन्माद । १८७९ , , , ज्वर ।। रस-प्रकरणम् धूप-प्रकरणम् ४७५८ ब्राह्मीरसादि योगः उन्माद, अपस्मार । ३५६५ निम्बादि धूपः भूतोन्माद । । ४९६१ भूताङ्कुश रसः उन्माद । (१२) उपदंशाधिकारः कषाय-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ३२३८ धवादि काथः लिङ्गके घाव धानेका | ३१०३ दादि तैलम् उपदंश । प्रयोग। ३७२५ पटोलादि काथः समस्त उपदंश । लेप-प्रकरणम् ३१४३ दाादि लेपः उपदंशके घाव, सूघृत-प्रकरणम् जन, दाह ४०५९ पश्चारविन्द घृतम् उपदंश। ३५५४ नीलोत्पलादि , उपदंश । ४८८० मूनिम्बाचं, समस्त उपदंश । । ४१७५ पमोत्पलादि , पित्तज उपदंश । | ११८८ पारदादि , उपदंशके व्रण । For Private And Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७०३] संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण ४१८९ पारदादि सर्पिः उपदंश, खुजली । रस-प्रकरणम् ४२०० पूगादि लेपः उपदंशके ब्रोंको | ३२१७ देवकुसुमादि ३ दिनमें नष्ट कर उपदंश। ३६१७ नागभस्म योगः ४२०८ प्रपौण्डरीकादि , वातज उपदंश । ४५३५ फिरङ्गवातकेसरी आतशकको ७ दि४३८४ पारदादिमलहरम् उपदंशके व्रण । ममें नष्ट कर देता ४७०४ बब्बूलादि योगः उपदंशके व्रण । | १५३६ फिरङ्गशमनी वटी ४९११ भाादि लेपः , " ४५३७ फिरङ्गारि रसः उपदंशके व्रण तथा ४९१७ भृङ्गराजादि, उपदंश । अन्य बड़े बड़े और पुराने व्रण । (इससे धूप-प्रकरणम् मुखमें शाथ नहीं ३१५८ दरदादि प्रयोगः उपदंश । होता) ४३८५ पारदादि धूपः उपदंशके व्रण, पि- | ४७४४ बालहरितक्यादि उपदंश । डिका, शोथ। योगः ४५३४ फिरंगशमनीवटी ४९६५ भैरव रसः उपदंश, उपदंशकी (धूपः) फिरंग । 'पिडिका, शोथ और पीड़ा । धूम्र-प्रकरणम् ३१६२ दरदादि प्रयोगः फिरंग । मिश्र-प्रकरणम् ३६८१ निम्बादि प्रयोगः उपदंश । (१३) कर्णरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् चूर्णप्रकरणम् २८२८ दशमूलादिकषायः बधिरता। ३८७८ पश्चकषायचूर्णयोगः कर्णस्राव । ४५८९ बिल्वादि स्वेदः कफवातज कर्णशूल। तैल-प्रकरणम् ४५९३ बीजपूर रसयोगः कर्णस्राव, कर्णपीड़ा। ३०९० दशमूलादि तैलम् बधिरतामें अत्युप योगी। For Private And Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - रता। संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३१०६ दीपिका तैलम् वर्ण पीड़ा। ४१२७ पिप्पल्याचं तैलम् दारुण कर्ण शूलको ३१११ देवदादि , , तुरन्त नष्ट करता ३३०८ धुस्तूर , कर्ण नाडी । ३५०० नागरादि , कर्ण पीड़ा, वधि- ४६८९ बाधिर्यनाशक , बधिरता । | ४६९२ बिल्व " " ३५११ निर्गुण्डी , पूतिकर्ण रोग। ४६९३ , , कफवातज ३५१४ निर्गुण्ड्यादि , कर्णपीड़ा, कर्णस्राव, | कर्ण रोग। कर्णनाद, बधिरता, कृमि । ३५१८ निशाई , कर्णनाड़ी। मिश्र-प्रकरणम् ४११० पञ्चवल्कल , कानोका बन्द होना, ४७६६ बस्तमूत्रयोगः तीव्र कर्णशूल, ककर्णपाक। र्णस्राव, कर्णनाद । -> u (१४) कासाधिकारः कषाय-प्रकरणम् २९६९ दुःस्पर्शादिचूर्णम् वातजखांसी ३२३७ धवादि काथः क्षतज कास। । २९७० देवदादि , हर प्रकारकी खांसी । ३७०९ पञ्चमूल्यादि क्षीरम् खांसी । | २९७२ , , प्रवृद्ध कफज खांसी। ३८२९ पिप्पल्यादि कल्कः कफज खांसी, २९८५ द्राक्षादि , पित्तज खांसी। ३८६२ पुष्करादि काथः कफ प्रधान खांसी, २९८६ द्राक्षादि , तमक श्वास, खांसी। स्वास, हृद्रोग। | २९९८ द्विक्षारादि , हर प्रकारकी खांसी। ४५४८ बलादि कल्कः पित्तकफज खांसी। ३८९८ पथ्यादि , कफज खांसी। ४५५२ , काथः पिसज खांसी। ३९१० पमबीज-योगः पित्तज खांसी। ४५६३ बिभीतक पुटपाकः खांसी ३९१३ पलाशफलाद , रात्रिमें कष्ट देनेवा४७८९ भार्यादि काथः खांसी, श्वास । ली खांसी । ३९१८ पाठादि चूर्णम् कफज खांसी । चूर्ण-प्रकरणम् ३९४५ पिप्पल्यादि , पित्तज , २९६८ दुरालभाषं चूर्णम् वातज खांसी।। ३९९२ पिप्पल्याचं चूर्णम् खांसी । For Private And Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी [७०५] - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३९८० पुनर्नवादि योगः रक्त युक्त खांसी।। ४०२८ पिप्पल्यादिलेहः पित्तज क्षतज खांसी। ४६२४ विभीतक चूर्णम् खांसी । ४०३० पिप्पल्यायवलेहः खांसी, श्वास, क्षय, ४६२६ बिभीतकफल हृद्रोग चूर्णम् खांसी, श्वास ।। ४०३१ , , क्षतज खांसी। ४६२७ बिभीतकााद , खांसी। ४६५१ बिभीतकावलेहः खांसी, श्वास, कफ ४८१७ भद्रमुस्ताद , कफज खांसी। ४८६५ भाद वातज खांसी। ४८२८ भार्यादि , हर प्रकारकी खांसी, ४८६६ भार्याचवलेहः ५ प्रकारकी भय कर खांसी। श्वास । ४८६७ भृगु हरीतकी हर प्रकारकी खांसी। गुटिका-प्रकरणम् ३००२ दाडिमादि गुटिका खांसी, श्वास, पी घृत-प्रकरणम् नस नाशक तथा ३०४३ दशमूल षट्पल- खांसी, पसलीशूल, रेचक, दीपन और घृतम् हिचकी, श्वास । स्वर शोधक। ३०४६ दशमूलादि घृतम् वात कफज खांसी, ३२८० धनञ्जय वटी कास। श्वास । ३९९४ पथ्यादि गुटिका खांसी, श्वास । ३०५४ दाडिमायं , खांसी, श्वास, रक्त४००१ पिप्पल्यादिक्षार- खांसी, श्वास, गल पित्त । गुटीका रोग। ३०७७ द्विपञ्चमूलाचं , क्षयकी खांसी । ४००२ पिप्पल्यादि गुटिका खांसी, प्रबल श्वास । ३४८९ निर्गुण्डी , कफज , | ३४९६ न्यग्रोधादि , उरःक्षत, खांसी। अवलेह-प्रकरणम् | ४०८६ पिप्पल्यादि , खांसी, श्वास संग्र३०२५ दुरालभादि लेहः वातज खांसी। हणी। ३०२६ , " " " ४६५५ बदरीफलादि , कास । ३०२७ देवदार्वाद्यवलेहः वातकफज ,, ३०३३ द्विमेदादि लेहः पित्तज खांसी। ४८७६ भार्यादि , वातज खांसी। ४०२० पद्मकादि लेहः समस्त कास ।। ४८८१ भृङ्गराज , खांसी, स्वरभेद । ४०२७ पिप्पल्यादि लेहः खांसी । For Private And Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७०६] संख्या प्रयोगनाम तैल-प्रकरणम् ३५०९ निर्गुण्डी तैलम् ४८९० भृङ्गराज " धूम्र-प्रकरणम् ३१६१ दन्तीधूमः ३३२१ धत्तूरादि धूमः ४२१९ प्रपौण्डरीकादि धूमः ३१९४ दरदादि वटी ३६२२ नाग रसः रस-प्रकरणम् ३६२६ नागबल्लभ रसः ३६५५ नित्योदय रसः www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी खांसी, श्वास, क्षय वातकफज खांसी, प्रतिश्याय, पीनस । मुख्य गुण कफज खांसीको तु रन्त नष्ट करता है । कास । कास । खांसी वेगको तुरन्त शान्त करती है । खांसी, श्वास, क्षंय, कफ । खांसी, क्षय । ५ प्रकारकी पुरानी संख्या प्रयोगनाम ३६६३ नीलकण्ठ रसः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२९० पञ्चामृतरस: ४२९४ ४३९१ पारदादि वटी ४४२३ पुरन्दर वटी " 97 ४७३३ बम्बूलादि गुटिका ४७५४ बोलबद्धो रसः ४९६० भूताङ्कुश रसः ४९६९ भैरव रसः For Private And Personal Use Only ३६६९ नवाङ्ग यूषः मुख्य गुण खांसी, राजयक्ष्मा, जीर्णज्वर, विषम ज्वर । वास, खांसी, विष मज्वर । वातज खांसी । खांसी, श्वास । खांसी, श्वास, कफ । खांसी, श्वास, अ निमांद्य | खांसी, ऊर्ध्व श्वास । कफज खांसी, श्वास, पाण्डु | वातज कासको अ त्यन्त शीघ्र नष्ट करता है । खांसी, श्वास । मिश्र-प्रकरणम् कफज खांसी । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७०७] (१५) कुष्ठाधिकारः संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् २८६८ दादिकषायाष्टकम् कुष्ठ नाशक लेप, | २९७७ देवदाली प्रयोगः कुष्ठ । पान स्नानादिके योग। २९७८ , , पुराने कुष्ठको १ ३२५० धात्र्यादि काथः श्वित्र । मासमें नष्ट कर देता ३२५७ , स्वरसः कुष्ठको १५ दिनमें ___ नष्ट कर देता है। | २९७९ , , गलित कुष्ठको ३ ३३८३ निम्ब स्वरस मासमें नष्ट कर प्रयोगः कुष्ठ, शरीरकी क्षीणता। देता है। ३३८४ निम्बादि काथः कुष्ठ । २९९४ द्राक्षाचं चूर्णम् कुष्ठ । ३३९७ , महाकषायः कण्डू, उदुम्बर, पु ३४३८ निम्बपञ्चक चूर्णम् कुष्ठ, खांसी विष । ण्डरीक, अलसक ३४४२ निम्बादि चूर्णम् कण्डु, कुष्ठ, पिडिका। आदि कुष्ठ शीघ्र ३८८१ पञ्चनिम्बकं , कुष्ठ । नष्ट कर देता है। ३९०९ पथ्यायोगः कच्छू, पामा, शोथ। ३७१८ पटोलमूलादि योगः कुष्ठ, शोथ, विषम ३९२४ पाठायं 'चूर्णम् कुष्ठ, शोथ, कृमि, ज्वर। अर्श । ३७४५ पटोलादि काथः कुष्ठ। ४६२० बाकुचिकाद्यं चूर्णम् समस्त प्रकारके कुष्ठ। ३७६४ , गणः कुष्ठ, ज्वर, विष, ४८२५ भल्लातकाद्य , कुष्ठ । ४८३६ भूनिम्बादि , कुष्ठ, सुप्ति । ४५६० बाकुचिका प्रयोगः श्वेत कुष्ठ । ४५६१ बाकुची बीज योगः श्वेत कुष्ठ, पुण्डरीक | गुटिका-प्रकरणम् कुष्ठ। ३९९७ पथ्या वटकः गलितकुष्ठ; दुर्ग४७७८ भद्रोदुम्बरिकादियोगः , , न्धित राधवाला और १८०१ भूनिम्बादि कोथः समस्त धातुगत कु कृमियुक्त कुष्ठ । ष्ठ, वातरक्त, आम गुग्गुलु-प्रकरणम् वात,पिडिका, शोथ। | ३४५९ नवकषायगुग्गुलुः विसर्प, विष । वमन । For Private And Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७०८] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ४००९ पञ्चतिक्तघृतगुग्गुलु सन्धि, अस्थि, मज्जा तैल-प्रकरणम् गत वायु; कुष्ठ, ३१०४ दायिं सूर्यपाक- दाद, वातरक्त । तैलम् खुजली, पामा । ३१०७ दूर्वा , कच्छू, पामा, विअवलेह-प्रकरणम् चर्चिका । ४८६२ भल्लातकावलेहः श्वित्र, औदुम्बर, ३३०२ धन्तूर विपादिका । दाद, ऋष्याज, ३५०५ निम्ब पामा। कांकण, चमें कुष्ठ, ४१३३ पृथ्वि सार , कुष्ठ, रक्तविकार । रक्तमण्डल । ४८८२ भद्राचं , कुष्ठ, दुष्ट नाडीव्रण। ४८८४ भल्लातक घृत-प्रकरणम् कुष्ठ, दाद । कुष्ठ, (वामकरेचक ४८८७ भानु , ३०३५ दन्त्यादि वृतम् कुष्ठ। ३०३६ , , कुष्ठ, किलास, अपची। ३४८६ निम्बादि , कुष्ठ, दाद, रक्तदोष, लेप-प्रकरणम् पामा, विचर्चिका, | ३१४० दरदादि लेपः । दादकी खाज, विकण्डू। सर्प, मण्डल कुष्ठ, ३४८८ " , सन्धि अस्थि तथा लूताविष । मज्जागत कुष्ठ, ना- ३१४७ दूर्वादि लेप पुराना दाद और डी ब्रण, अर्बुद, खुजली ३ बार लेप भगन्दर, वात रक्त, करनेसे नष्ट हो जाते गण्डमाला। ३४९२ नीली , धातुगत एवं त्वचा- ३३१६ धात्री रसादि लेपः सिध्म । गत कुष्ठ । | ३३१८ धात्र्यादि , कच्छू, खुजली,दाद। ३४९४ श्वेत कुष्ठ, पामा, ३३२० , , समस्त प्रकारके कुष्ठ। विचर्चिका, सिध्म, ३५५१ निशादि , पामा । किटिभ । । ४१६६ पत्रकादि , सिध्म, श्वेत कुष्ठ । ४०५४ पश्चतिक्तकं , कुष्ठ, व्रण, कृमि । । ४१६९ पथ्यादि , कुष्ठ । ४८७१ भल्लातक , समस्त प्रकारके कुष्ठ ४१८४ पामाददु हरोरसः(.) पामा, दाद, विच र्चिका। For Private And Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७०९] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ४२०१ पूतिकादि लेपः श्वेत कुष्ठ, दाद। ३६४५ नाराच रसः ऋष्य जिह्वक कुष्ठ । ४२०२ पूर्ण चन्द्र , समस्त प्रकारके कुष्ठ। ३६५८ निशादि वटी भयंकर कुष्ठ । ४२०३ प्रपुन्नाटादि, दाद ४२५९ पञ्चनिम्बादिचूर्णम् १८ प्रकारके कुष्ठ, ४२०४ " त्वग्दोष, व्यङ्ग, नी४२०५ , " समस्त प्रकारके कुष्ठ, लिका। सुप्ति, विवर्णता ।। ४२६० , " विचर्चिका, उदुम्ब४७०८ बलादि , श्वेत कुष्ठ । र, पुण्डरीक, दद्रू, ४७०९ बाकुच्यादि, कपालकुष्ठ, वातर४७१० बाणदलादि, दुष्ट कुष्ठ । क्तादि। ४७१७ बोल्ल जलम् दाद । इसे अधिक समय ४९१० भल्लातकादिलेपः किलास, तिल, का तक सेवन करने लक, मस्से, चर्म वाले पर सर्प विकील । घका प्रभाव नहीं ४९१६ भृङ्गराजादि , श्वेत कुष्ठ । होता। ४२७० पञ्चाननो रसः गजचर्म कुष्ठको १ मास में नष्ट कर नस्य-प्रकरणम् देता है। ३१८० दन्त्यादि नस्यम् कुष्ठ, कृमि ।। ४३०८ परहित रसः समस्त प्रकारके कु रस-प्रकरणम् , ४३९३ पारिभद्रो रसः दाद, कुष्ठ। ३१९८ दशसार सूतरसः कुष्ठ, अर्श, श्वास, | ४४०० पिङ्गलेश्वर रसः समस्त प्रकारके खांसी। कुष्ठ, पलित । ३३२५ धन्वन्तरि रसः समस्त कुष्ठ । ४४०५ पित्तलरसायनम् । समस्त कुष्ठ, विशे३६२५ नागराज रसः कष्टसाध्य कुष्ठको भी षतः श्वेत कुष्ठ, अवश्य नष्ट कर देता कृमि । ४४४० प्रतापलकेश्वररसः विपादिका । ३६३३ नागादि वटी कुष्ठ, विचर्चिका, ४७३८ बाकुच्यादि लेहः समस्त प्रकारके दाद । For Private And Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७१०] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण ४७४० बाकुच्या चूर्णम् श्वित्र, चित्र आदि विशेषतः कफज अनेक प्रकारके कुष्ठ। कुष्ठ। मिश्र-प्रकरणम् ४७५१ बृहत्यादि लोहम् कुष्ठ । ४७६८ बाकुचिका प्रयोगः श्वेत कुष्ठ । २०५५ ब्रह्मरसः प्रसुप्ति । ४७६९ बांकुचि योगः खुजली, किटिभ, ४९५९ भूतभैरवरसः समस्त वातव्याधि, | पामा, शोथ । (१६) कृमिरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् २८५४ दाडिमत्वक् काथः ३ दिनमें कोष्ठके ३९३१ पारसीय यमानीयोगः पेटके कृमि शीघ्र कृमि निकाल देता निकाल देता है। है। ४८२२ भल्लातकादि चूर्णम् कृमि । ३४०० निर्गुण्डयादिकषायः कृमि और कृमि अवलेह-प्रकरणम् जन्य रोग । ३८०२ पलाश बीज योगः कृमि । | ४८६१ भल्लातकादि योगः कृमि । ३८१५ पारिभद्ररसादि प्रयोगः " घृत-प्रकरणम् । ४६६७ बिम्बी घृतम् पक्काशय तथा आ४५२२ फञ्जयादि कषायः ॥ माशयगत कृमि । ४८०३ भूनिम्बादि काथः कफ, कृमि, छर्दि, मिश्र-प्रकरणम् वायु । | ४५१४ पूपकयोगः कृमि । For Private And Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी [७११] (१७) क्षुद्ररोगाधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण चूर्ण-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् २९४९ दाडिम कुसुमादि ३१३८ दन्त्यादि लेपः पिडिका । योगः नखपीड़ा । ३१५२ देवदादि , ठोडीकी सन्धिकी सूजन। घृत-प्रकरणम् ३५२८ नलिनी योगः बिन्दुल नामक की३४८७ निम्बादि घृतम् पद्मिनी कण्टक । टके स्पर्श होजानेसे ४०६० पटोल घृतम् अहिपूतना उत्पन्न पिडिकाएं। ३५५३ नीली लेपः जाल गर्दभ । । ४७१३ बिल्वाद्यौ योगौ बगलकी दुर्गन्ध । ३५०६ निम्ब तैलम् अनेक छिद्र और ४९१५ भृङ्गराजादि लेपः बाराहदंष्ट्र । अत्यधिक स्राव युक्त बलमीक। रस-प्रकरणम् ४६९७ बृहत्यादि , अलस (खारवा) ४४४६ प्रतिमेष रसः कृमियुक्त बल्मीक। तैल-प्रकरणम् (१८) गलरोगाधिकारः लेप-प्रकरणम् ३५३५ निचुलादि लेपः गलेको अत्यधिक प्रवृद्ध सूजन। (१९) गुल्माधिकारः कषाय-प्रकरणम् ३८६३ पुष्करादि काथः कोष्ठकी दाह, पीड़ा २९०८ द्राक्षादिकषायः पैत्तिकगल्म । ४५९३ बीजपूर रसादि योगः वातज गुल्म। ३२४५ धात्रीरसयोगः रक्त गुल्म । ३७०२ पञ्चमूली काथः कफज गुल्म । चूर्ण-प्रकरणम् ३७८१ पथ्यादिपाचन , गुल्मको पकाता है। ) २९९० द्राक्षादि प्रयोगः पित्तज गुल्म । For Private And Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७१२] प्रयोगनाम संख्या ३४११ नवसादर प्रयोगः ३४१२ नवसारभस्म ३४२७ नागरादि प्रयोगः ३४३० नादेयी क्षारः ३४४७ नीलिन्यादि चूर्णम् ३८९१ पत्रलवणम् ३९२७ पाठाचं चूर्णम् ३९४७ पिप्पल्यादि ४८३० भाग्यदि " "7 ३००० दन्त्यादि गुटिका ३००६ द्रवन्ती नागवटी गुटिका-प्रकरणम् मुख्य गुण गुल्म, अग्निमांद्य । " www.kobatirth.org गुल्म, समस्त उदर रोग । ३०५२ दशमूली - घृतम् ३०५३ दशाङ्ग चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी वातज गुल्म, उदावर्त, योनिशूल । गुल्म, अष्ठीला | गुल्म । गुल्म, शोथ, अर्श । गुल्म, शूल । दुस्साध्य गुल्म | रक्तगुल्म | गुग्गुलु-प्रकरणम् ३००९ दन्तीगुग्गुलुः गुल्म । · अवलेह - प्रकरणम् ३४५५ निकुम्भाद्या गुटिका गुल्म, अग्निमांद्य, प्लीहा, पांडु । ३९९९ पिण्याकादिगुटिका गुल्म, शूल, अरुचि, अग्निमांद्य । रक्त गुल्म । गुल्म, तिल्ली, यकृत्, अग्निमांद्य । घृत प्रकरणम् ३०१४ दन्ती हरीतक्यवलेहः गुल्म, सूजन, अरु चि, अफारा । कफज गुल्म । वातज गुल्म, कृमि, संख्या प्रयोगनाम ३०५९ दाधिकं घृतम् ३०७१ द्राक्षादि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२९२ धात्रीषट्पलकं ३४८२ नाराचकं ४०४६ पञ्चकोलाचं ४०५६ पञ्चपलं ४०६४ पथ्या ४०७० पलाशक्षार ४८७२ भल्लातक ४८७३ " "" ३६४१ नाराच " For Private And Personal Use Only 31 "" ܕܕ ४८७५ भार्गीपट्पलकं, 39 " 29 77 12 "" ३२११ दीप्तामर रसः ३६४० नागेश्वर "" मुख्य गुण प्लीहा, ज्वर, खांसी हृद्रोग, गुल्म, प्लीहा । पित्तज गुल्म, तथा अन्य पित्तज रोग । गुल्म | वातगुल्म तथा उदावर्त नाशक और अग्निदीपक | तैल-प्रकरणम् ३०९१ दशमूलादि तैलम् कफज गुल्म । कफज, गुल्म, खांसी, ज्वर, प्लीहा । वातज गुल्म, शिर पीड़ा, विषमज्वर । गुल्म, पाण्डु । रक्तगुल्म | कफजगुल्म कफज, गुल्म, प्लीहा, पाण्डु, खांसी । 99 "} रस-प्रकरणम् गुल्म, उदर, अरुचि, अग्निमांद्य । पित्तज गुल्म । आध्मान, गुल्म, प्लीहा, शोथ । गुल्म । ( रेचक ) Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७१३] - - - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३६४२ नाराच रसः गुल्म, उदावते, अ- ४४६८ प्रवालपञ्चामृत गुल्म, प्लीहा, उदर, फारा । (रेचक ।) आनाह, अजीर्ण, ३६४३ , , गुल्म, प्लीहा, उदर डकारआना, खांसी, रोग। (रेचक ।) श्वास । ३६४४ , , | ४९३९ भल्लातकादियोगः गुल्म । ३६४८ " , गुल्म, आध्मान, शूल, उदररोग, उदावर्त । (रेचक) मिश्र-प्रकरणम् ४२७९ पश्चाननो , रक्तगुल्म । । ४५१३ पूतीकपत्रादियोगः गुल्म, अम्लपित्त । (२०) ग्रहण्यधिकारः कषाय-प्रकरणम् । २९९६ द्विक्षार चूर्णम् । कफवातज ग्रहणी, ३२५९ धान्यकादि कषायः वातज ग्रहणी। अर्श, आग्नमांध । ३८४८ पुनर्नवादि काथः ग्रहणी, गुल्म, अर्श। ३४२५ नागरादि चूर्णम् अग्निमांद्य, कोष्ठकी वायु। ४५७० बिल्व शलाटु योगः भयङ्कर ग्रहणी । ३४२९ नागराचं पितज ग्रहणी, रक्त ४५.८८ बिल्वादिसिद्धपयः अत्यन्त प्रवृद्ध रक्त स्राव, अश,गुदशूल, युक्त पुरानी ग्रहणी प्रवाहिका । ३ दिनमें नष्ट हो ३९२६ पाठाचं , अग्निदीपक है। जाती है। ३९२८ , " ग्रहणी, अतिसार, शूल, ज्वर, अरुचि, चूर्ण-प्रकरणम् हृदयकी दाह । २९६१ दाडिमाष्टक चूर्णम् ग्रहणी, अग्निमांय, ३९४३ पिप्पल्यादिक्षारम् वातकफज रोग । अरुचि । । ३९६० पिप्पल्याचं चूर्णम् कफज ग्रहणी नाशक २९६७ दुरालभादि क्षारः अग्नि, बल, वर्ण तथा अग्नि, बल वर्द्धक। और मांसवर्द्धक । For Private And Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७१४] संख्या प्रयोगनाम ८९६४ पिप्पल्याचं चूर्णम् ४८२४ भल्लातकाचः क्षारः ४८३५ भूनिम्बादि क्षारः ४८३७ भूनिम्बाधं चूर्णम् ४६३२ बिल्वफलादि चूर्णम् साम और रक्त ग्रहणी | ४८१९ भर्जितहरीतकीयोगः ग्रहणीको नष्ट और वायुको अनुलोम करता है । ग्रहणी, शूल, गुल्म । अग्नि दीपक । ३००८ द्राक्षादि गुटिका गुटिका-प्रकरणम् ३०१५ दशमूल गुडः www.kobatirth.org वातज संग्रहणी, अग्निमांद्य ३०२३ दासलोहरसायनम् ४६४८ बाहुशाल गुडः चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी मुख्य गुण संख्या अवलेह - प्रकरणम् ग्रहणी, अरुचि, अतिसार, ज्वर । उदावर्त, पित्तज ग्रहणी, पाण्डु कामला, तृषा, भ्रम, हिचकी । सूजन, सामग्रहणी, शूल, कब्ज, अर्श, अग्निमांद्य । कफपित्तज ग्रहणी । समस्त ग्रहणी, कामला, पाण्डु, शोथ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयोगनाम ४६६८ बिल्वाद्यं ३०७६ द्विपञ्चमूल्यादिघृतम् ४०५८ पञ्चमूलाद्यं घृतम् घृत-प्रकरणम् ४६७२ बृहतीचित्रक क्षार For Private And Personal Use Only "" ३०९९ दाडिमाद्यं तैलम् ४६९० बिल्व तैलम् " ३१२३ दशमूलासवः ४१५१ पिण्डासवः ४५३३ फलारिष्टः तैल-प्रकरणम् मुख्य गुण अग्निवर्द्धक, पाचक | अग्निवर्द्धक तथा शू अफारा और ल, ग्रहणी नाशक । संग्रहणी, शोथ, अनिमांद्य, अरुचि । अग्निदीपक, ग्रहणीनाशक । भयङ्कर संग्रहणी, अर्श । आसवारिष्ट-प्रकरणम् ग्रहणी, मन्दाग्नि, अ रुचि, अतिसार, अ र्श, शोथ, ज्वर, खांसी, सूतिका रोग । आध्मान, पाण्डु, शरीरको पीड़ा, अग्निमांध | अग्निदीपक । ग्रहणी, अर्श, पाण्डु, विषमज्वर । Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम रस-प्रकरणम् ३६६४ नृपतिवल्लभ रस: ४३०० पश्चामृतलोह - मण्डूरम् ४६२४ पानीयभक्तवटी (मध्यम) २८९३ दूर्वादियोगः ३२५५ धात्र्यादि योगः ३३९६ निम्बादि प्रयोगः ३७९२ परूषकादि योगः ३७९४ पर्पटादि काथः ४५७७ बिल्वादि 33 मुख्य गुण www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-- प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम ४३८८ पारदादि वटी ४३८९ ग्रहणी, अतिसार, आम, अग्निमांद्य,शू ल, अफारा, विसूचिका आदि । कषाय-प्रकरणम् शोथयुक्त पुरानी संग्रहणी, पाण्डु, जीर्णज्वर । कष्टसाध्य संग्रहणी, अग्निमांद्य, शोथ, अरुचि । पित्तज छर्दि । त्रिदोषज 39 (२१) छधिकारः वमन । छर्दि, तृषा । छार्द, पित्तज्वर । त्रिदोषज और पित्तछर्दि । ४५९१ बीजपूरादिपुटपाकः सर्व दोषज भयङ्कर छर्दि । ४८१३ भृष्टमुद्गादिकषायः छर्दि, अतिसार, दाह, ज्वर । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४१७ पीयूषवल्ली रसः ४४२८ पूर्ण कला वटी 19 39 ४४३५ पोटली रसः ४७७१ बिल्वयोगः ४७७३ बिल्वादि योग: 19 ३८९४ पथ्यादि चूर्णम् ३८९६ For Private And Personal Use Only मिश्र-प्रकरणम् 39 " संग्रहणी | चूर्ण-प्रकरणम् ४०६८ पद्मकाद्यं घृतम् ग्रहणी, शूल, अतिसार । मुख्य गुण पुरानी संग्रहणी, स मस्त अतिसार, आम ग्रहणी, दाह, शूल, ज्वर । त्रिदोषज संग्रहणी । ग्रहणी "9 [ ७१५] अवलेह-प्रकरणम् ३०१३ दधित्थ रसादिलेहः छर्दि । ३२८६ धात्रीरसादि योग: ३२८९ धान्यकादि लेहः ४६५२ बीजपूरकादि घृत-प्रकरणम् त्रिदोषज छर्दि । छर्दि । शोथ, " वातज छर्दि । 21 " छर्दि, तृष्णा, अरुचि, दाह । Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७१६] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम ४९४१ भस्मसूत रसः मुख्य गुण छर्दि संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण रस-प्रकरणम् ३६६१ नीलकण्ठ रसः छर्दि । ४३८२ पारदादि चूर्णम् ॥ मिश्र-प्रकरणम् J३३४५ धात्र्यादि प्रयोगः त्रिदोषज छर्दि (२२) ज्वरातिसाराधिकारः कषाय-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ३२६२ धान्यकादि काथः आम, वातकफ ज्व | ३१९३ वरदादि पुटपाकः ज्वरातिसार, अमिर, शूल, अतिसार। मांध, निद्रानाश, ३३५९ नागरादि काथः ज्वरातिसार।। अरुचि। ३३६० , , शोथ, ज्वरातिसार । ३८११ पाठादि , भयङ्कर ज्वरातिसार।। ३३६५ नृसिंहपोटलीरसः दुस्साध्य ज्वरातिसार ३८१२ पाठासप्तक , आमातिसार, ज्वर । ग्रहणी, जीर्णज्वर । ४२८३ पञ्चामृतपर्पटी रसः ज्वरातिसार, संग्रचूर्ण-प्रकरणम् हणी, क्षय, अग्नि३४२३ नागरादि चूर्णम् ज्वरातिसार । मांध। ४२८५ पञ्चामृत पोटली, ज्वरातिसार, शूल, अवलेह-प्रकरणम् अग्निमांध, बलद्रास ३०२० दाडिमावलेहः ज्वरातिसार, आम- | ४४८३ प्राणेश्वरो , ज्वरातिसार । शूल, आमरक्त, शोथ, धातुगत ज्वर। मिश्र-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ४०७७ पाठाचं धृतम् ज्वरातिसार, संग्रह- ३३३७ धातक्यादि पेया शूलयुक्त उवरातिसार णी, अलसक। '४५१६ पृश्निपादि , वरातिसार । For Private And Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चिकित्सा-पय-प्रदर्शिनी [७१७] (२३) ज्वराधिकार संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् २८८ दि कषायः वातपित्तज ज्वर। २८२० दन्त्यादि काथः अभिन्यास सन्निपात, २८८१ , , वातज्वर पर अत्यन्त मलकी अधिकता । सरल योग । २८२२ दर्भमूलादिकाथः वातज्वर । २८८३ , , समस्त ज्वरनाशक, २८२३ दशमूलम् उपद्रवसहित सन्नि अग्निवर्द्धक । पात, खांसी, तन्द्रा, २८८४ , , ज्वर । पार्श्वशूल, कण्ठग्रह। | २८८५ , काथः ज्वर, दाह, तृष्णा, २८३१ दशमूलादि काथः कर्णक सन्निपात । रक्तपित्त । २८४१ उपद्रव सहित वात- | २८९० दुःस्पर्शादि , दाह, स्वेद, तृष्णा, ज्वर। चित्तभ्रान्ति और २८४४ दशमूलादि पश्चद श्वासयुक्त ज्वर । शाङ्ग काथः सन्निपात । २८९५ देवदार्यादि कषायः चातुर्थिक ज्वर। २८४८ दशमूली कषायः सन्निपात, श्वास, | २८९८ , काथः वातकफज्वर, खांसी खांसी, तृषा । गलग्रह। २८५० दशमूलीरसप्रयोगः कफवातज्वर, अति- २८९९ , " सन्धिगत सतत निद्रा, पार्श्वशूल, ज्वर। श्वास, खांसी। २९०४ द्राक्षादि कल्कः । मुखशोष, अरुचि। २८५३ दशाष्टाङ्ग काथः जीर्णज्वर, शोथ, ( मुखमें मलनेकी श्वास, खांसी। औषध है।) २८६५ दार्वादि काथः कफवातज्वर, हिका, । २९०५ । " सन्निपातमें जीभका श्वास, खांसी। फटना और शुष्क २८६७ दाय॑म्बुदादि काथः सन्निपातञ्चरकी होना । (जीभ पर मूर्छा। मलनेका योग है) २८७३ दास्यादि काथः धातुस्थ विषमज्वर, । २९१० द्राक्षादि काथः । एकाहिक ज्वर। बारीके समस्त ज्वर, २९१२ , , वातपित्त ज्वर। कामज्वर, शोकज्वर, | २९१३ , , भूसञ्चर, छदि। दीपन, पाचन। For Private And Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७१८] चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण २९१४ द्राक्षादिकाथः पित्तकफज्वर, शूल, और कफ ज्वर ३ उदावर्त। दिनमें नष्ट करताहै। २९१६ , , प्रलाप, दाह, मूर्छा, | ३२३९ घातक्यादि काथः विषम ज्वर । शोष और तृष्णा- ३२५८ धान्यक हिमः अन्तर्दाह । युक्त पित्तज्वर। । ३२६१ धान्यकादि काथः दीपन, पाचन, कफ२९१७ , , तृष्णा और मूर्छा. नाशक, पित्तवातानुयुक्त पित्तज्वर । लोमक, भेदी, ज्व२९१८ पित्तकफ ज्वर। रनाशक । २९१९ , " द्वन्द्वज ज्वर। । ३३४६ नलदादि काथः पित्तज्वर । २९२० तृष्णा, दाह, मूर्छा, ३३४७ नलमूलादिकषायः सर्वज्वर । छर्दि, मुखशोथ, ३३५० नवाङ्ग कषायः वातपित्तज्वर । श्वास, खांसी, पि- | ३३५२ नागरसप्तकः पित्तज्वर । त्तज्वर । ३३५६ नागरादि काथः खांसी, श्वास, पार्श्व २९२१ , , तृतीयक ज्वर । पीड़ा वातकफज्वर। २९२६ , क्षीरम् । सन्निपात ज्वर ३३६२ , " पित्तकफज्वर, भ्रम, २९२७ , पाचनम् हारिद्रज्वरमें दोषोंको मूच्छी। पचाता है। ३३६४ पित्तकफज्वर नाशक २९३० , शीतकषायः पित्तज्वर ।। ग्राही। २९३५ द्वात्रिंशदाख्यकाथः सन्निपात,शूल,खां ३३६६ तृतीयकज्वर । सी, हिक्का और आ- । ३३६७ भयङ्कर सन्निपात। ध्मान आदि ज्वरके | ३३६८ , सर्वज्वर,सर्वातिसार। उपद्रव । वातव्याधि। | ३३७० नागरादिपाचन २९३७ द्वादशाङ्ग काथः । साम पित्तकफज्वर। कषायः ज्वरमें दोपको प२९३९ द्विपञ्चमूल्यादि चाता है। कल्कः वातपित्तज्वर । । ३३७१ नागरादिपाचन २९४० द्विवार्ताकी फल काथः पित्तज्वर, कफ,रक्तरसादिप्रयोगः वातज्वर १ दिनमें, शोष । पित्तज्वर २ दिनमें | ३३७४ निदिग्धिकादिकषायः वातपित्तज्वर । For Private And Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७१९] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३३७५ निदिग्धिकादि काथः जीर्णज्वर, अरुचि, ३७०० पश्चमूली कषायः कफज जीर्णज्वर । खासा.शूल,वासादि। ३७०५ पञ्चमूल्यादिक्काथः वातञ्चर । ३३७७ निदिग्धिकादिक्वाथः ज्वर । ३७०७ " " " ३३७८ , , कफवातज्वर, श्वास, खांसी, अरुचि । २७०८ . " " पित्त तथा कफ प्र धान सन्निपात। ३३८६ निम्बादि काधः वातश्लेष्म ज्वर,पर्व. भेद, शिरशूल,खांसी।। ३७१५ पटोल चतुष्कः कफपित्तज्वर । ३३८८ कफज्वर। ३७१९ पटोलादि कषायः सर्वज्वर । ३३८९ ३७२० , काथः विषमज्वर । ३३९० ३७२३ , , पित्तकफज्वर, वात३३९३ सन्निपात । कफज्वर, तथा रक्त३४०३ नीरदादि कफन्वर, श्वास,खां पित्त ज्वरको नष्ट सी, शूल। करता और मलको ३४०५ नीलोत्पलादि तोड़ कर निकालता कषायः वातपित्तज्वर,प्रलाप, मोह। ३७२७ , , अन्तस्ताप,पिपासा, ३४०८ , हिमः वातपित्तज्वर, प्रलाप, सन्निपात, विषमछर्दि, भ्रम, मूर्छा, ज्वर । तृषा। ३७२९ , , समस्त ज्वर । ३६८९ पञ्चकोल कषायः कफवातज्वर, गुल्म, | ३७३० , , वातकफज्वर, तृष्णा, प्लीहा, शूल । शूल, बेचैनी, श्वास, ३६९१ पञ्चतिक्त काथः ८ प्रकारके ज्वर । खांसी, कञ्ज । ३६९३ पञ्चभद्रकम् वातपित्तज्वर । कफज्वर। ३६९४ पञ्चमुष्टिक यूषः शूल, गुल्म, खांसी, | ३७३३ एकाहिक ज्वर। श्वास, क्षय, ज्वर ।। ३७३४ , ३६९८ पञ्चमूलादिकाथः वातज्वर, शिरका- ३७३५ कांपना, पर्वभेद ।। ३७३६ , , सतत ज्वर, विषम ३६९९ पञ्चमूली कषायः वातज्वर । ज्वर। ३७३१ सन्तत " For Private And Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७२०] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - संख्या प्रयोगनाम ३७३७ पटोलादिकाथः ३७३९ , " ३७४० ३७४८ ३७४९ ३७५० ३७५२ ३७५३ मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण दुर्जलदोष जनित ३७८७ पद्मकादिकाथः रक्तष्ठीवी सन्निपात । ज्वर । ३७९० परूषकादि, पित्तप्रधान , कासादियुक्त सतत | ३७९३ , हिमः पित्तज्वर । ज्वर। ३७९५ पर्पटादि काथः पित्तज्वर, रक्तपित्त । पित्तकफ ज्वर। ३७९६ , , तृणा, छर्दि, पित्तवातज्वर। ज्वर। पत्तज्वर, दाह, ३७९७ , " तृष्णा, दाह, पित्ततृष्णा । कफज्वर । भयङ्कर पित्तज्वर, । ३७९८ " " पित्तज्वर । तृषा। ३८०६ पाठादि , दोषांको पचाता है। अभिन्यास ज्वर। ३८१३ पाठा सिद्ध पयः कम्पयुक्त शीत । पित्तकफवर, छर्दि, | ३८२३ पिचुमन्दादिकाथः कफज्वर । दाह, कण्डू । ३८२५ पिप्पली , ज्वर, प्लीहा । कफपित्तज्वर, तृषा, ३८२७ पिप्पलीमूलादि , तृषा, मूर्छा, पित्तदाह, छर्दि। ज्वर, दाह, मुंहका तृतीयक, चातुर्थिक कड़वापन । अन्येयुः ओर विषम | ३८२८ पिप्पलीवर्द्धमानम् ज्वर, खांसी, श्वास, ज्वर, दाहपूर्वज्वर । पाण्डु, उदररोग। विषमज्वर । ३८३२ पिप्पल्यादि कषायः ज्वर, श्वास, खांसी। ज्वर, छर्दि, अरुचि, | ३८३७ , काथः वातज्वर । विष । ३८३९ , गणः कफ, वात, प्रतिचित्तभ्रम सन्निपात। श्याय, शूल । दीपन उदरपीड़ा, श्वास, पाचन है। खांसी, अरुचि और ३८४१ , योगः विषम ज्वर । मुखशोषयुक्त ज्वर ।। ३८४४ पुनर्नवादि कषायः अभिन्यास सन्निपात अन्तक सन्निपात। । ३८५९ पुष्करमूलादि काथः खांसी, श्वास, कफ, वातपित्त ज्वर, मोह, सन्निपात । प्रलाप । ४५१८ फलत्रिकादि कोथः कण्ठकुब्ज सन्निपित्तज्वर। पात। ३७६० " " ३७६१ ३७६६ " " , गणः ३७७२ पथ्यादि काथः ३७७६ ॥ ॥ ३७७७ " " ३७८४ पनकादि , ३७८५ For Private And Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७२१] - की पीड़ा, अफारा, ४७९४ " " संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण १५५३ बलादि काथः पर्वमेद, शिरः क- ४७८८ भाादि काथः विषम ज्वर, स-िनम्पन, वातपित्त पात, जीर्ण ज्वर, ज्वर। शोथ। पित्तकफज ज्वर । । ४७९० , , जीर्णज्वर, धातुगत ४५६४ बिभीतकादि , तृषा, दाह, विषम ज्वर और विषम ज्वर। ज्वर । ४५६६ बिल्वपश्चक , प्रतिश्याय, ज्वर, ४० | ४७९१ , जीर्ण ज्वर; सतत, , छर्दि। सन्तत, अन्येयुः, तृतीयक और चा४५८३ बिल्वादि , वातज्वर । तुर्थिक ज्वर। ४५८६ , क्षीरम् जीर्णज्वर । | ४७९२ , " तन्द्रिक सन्निपात । ४५९१ बीजपूरकादिकषायः हृदय तथा बस्ति- । ४७९३ " " कर्णक सन्निपात। सन्निपात, हृदय अभिन्यास ज्वर । और पसली शूल, ४५९७ बीजपूरादिपाचन आनाह, तन्द्रा खांसी कषायः कफज्वर। | ४७९५ भार्यादि काथः । कफ, खांसी, प्रति४६०३ बृहत्यादि काथः । सन्निपात चर। श्याय, श्वास, हृ४६०४ , , कफ, ज्वर । द्रोग। ४६०५ , गणः कफ प्रधान सन्नि ४७९६ " गणः __ पित्तकफ ज्वर, हृपात तथा श्वासादि ल्लास, अरुचि, छर्दि उपद्रव । तृष्णा, दाह। ४६०७ ब्राह्मचादि काथः चित्तभ्रम तथा रु. १. ४७९८ भूनिम्बादि कषायः वातञ्चर । ग्दाह सन्निपात । ४७७७ भद्रादि , समस्त प्रकारके ४८०० " " द्वन्द्वज ज्वर । शीत ज्वर। ४८०५ , काथः अतिसार, ज्वर, रक्त ४७८६ भाादि , पित्तकफज ज्वर। पित्त, खांसी, श्वास " ज्वर, श्वास, अग्नि- ४८०६ कफज ज्वर । मांध । ' ४८०७ , , वातकफज ज्वर । For Private And Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७२२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण ४८११ भूनिम्बाद्यष्टादशाङ्ग | ४८२९ भाादि चूर्णम् ८ पकारका ज्वर, काथः तन्द्रा, प्रलाप, खांसी भयङ्कर खांसी, शोथ दाह, मोह, श्वा आध्मान । | ४८३८ भूनिम्बाचं , सन्निपात ज्वर । समस्त ज्वर । | ४८४० भूनिम्बाधोभूलनम् अधिक पसीना आना चूर्ण-प्रकरणम् गुटिका-प्रकरणम् २९७६ देवदाली प्रयोगः तीब्र ज्वर । ४००० पिप्पली मादकः धातुगत ज्वर, श्वास, २९८३ द्राक्षादि चूर्णम् वातज्वर । खांसी, अग्निमांद्य, ३२७६ धान्यादि प्रयोगः मलावरोध, अग्निमांद्य धातुक्षय । अरुचि, अजीर्ण- | ४५२७ फलत्रिकाधोमोदकः वातज ज्वर, अरुचि, जीर्णज्वर । खांसी, पार्श्वशूल। ३२७८ धान्यादि चूर्णम् विषमज्वर, श्वास अवलेह-प्रकरणम् अग्निमांद्य, वायु । ३४३९ निम्बपल्लवरजः शरत्कालीन ज्वर । ४०१८ पथ्यावलेहः दाह, ज्वर, खांसी, रक्तपित्त, श्वास, ३४४१ निम्बादि चूर्णम् दैनिक, तिजारी, चा वमन । तुर्थिक, सन्तत, ४०२३ पाचकावलेहः ज्वरमें मुंहका स्वासतत और धातुगत द बिगड़ना,अरुचि, ज्वर । कब्ज । ३८७९ पञ्चकोल चूर्णम् रोचक, पाचक।। ४०३२ पिप्पल्याचवलेहः । जीर्णज्वर,छर्दि,तृषा, प्लीहा, ज्वर, कफ। अरुचि, शोष, रक्त पित्त । ३९०६ पथ्यादि योगः दाह, ज्वर, खांसी ४०३६ पुष्करमूलादि लेहः ज्वर, खांसी, कफ । छर्दि। ३९३९। खांसी, ज्वर, हिक्का घृत-प्रकरणम् श्वास, प्लीहा। | ३०३८ दशमूलक्षीरपट्पल ४६११ बन्दाक योगः विषम ज्वरके कष्ट घृतम् ज्वर, खांसी, असाध्य उपद्रव । ग्निमांद्य, तिल्ली। For Private And Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदाशनी [७२३] - - - लेप-प्रकरणम् " विसर्प ।” पर बेचैनी। संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३०६२ दुरालभाचं घृतम् ज्वर, दाह, भ्रम, आसवारिष्ट-प्रकरणम् खांसी, पसली शूल, । ३३१० धान्यकाचरिष्टः समस्त प्रकारके तृष्णा, छर्दि, अति ज्वर। सार । ४०४९ पञ्चगव्यं घृतम् विषम ज्वर । ४०५२ पञ्चतिक्तकं , , , पाण्डु, ३१३५ दध्यादि लेपः सन्निपातकी दाह । ३५३१ नागरादि , सन्निपातमें होने ४०७८ पानीयकल्याणक , ज्वर, खांसी, अग्नि वाली गलेको सूजन। मांद्य, क्षय, प्रति- ३५४८ निशादि ,, कर्णमूल । श्याय, तिजारो, चौ- ४१८१ पलाशादि , पित्तञ्चर, तृषा, दाह, थिया,वमन इत्यादि ४०८७ पिप्पल्याचं , जीर्णज्वर,क्षय,खांसी, ४७०२ बदर्यादि , रुग्दाह सन्निपात । शिरशूल,पार्श्वशूल। ४७१४ बीजपूरकमूलादि ४१०२ पुनर्नवाचं , विषमज्वर, खांसी, लेपः गलेकी सूजन । क्षय। धूप-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ३५६४ निम्बादि धूपः विषमज्वर । ३०८५ दशमूल तैलम् सन्निपात, श्वास, | ३५६८ निर्गुण्ड्यादि , सन्धिगत ज्वर । भयङ्कर खांसी। ३५६९ , , ग्रह और सन्निपात ४१११ पटोलादि , ज्वर, खांसी वातज ज्वर। रोग। ४२१४ पलङ्कषादि , ज्वर । ४११२ , स्नेहः ज्वर । ४११४ पाक तैलम् ज्वर, तृष्णा, दाह। अञ्जन-प्रकरणम् ४१४६ प्रह्लादन , ज्वर, दाह । । ३५८६ निशाद्यञ्जनम् विषमज्वर । ४६८२ बला , खांसी, श्वास, ज्वर, ४२३५ पिप्पल्याद्यञ्जनम् भूतज्वर । छर्दि, शूल, हिक्का, ४२४५ प्रचेतानामगुटिका ज्वरकी मूर्छा । क्षय, प्लीहा, शोष । ४९२९ भैरवाञ्जनम् उपद्रव सहित स४६८६ बलायं , वातपित्तज जीर्णज्वर मस्त ज्वर। - - For Private And Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७२४] चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी - - - - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण नस्य-भकरणम् ३३३५ धूम्रकेतु रसः नवीन ज्वर । ३५९३ नस्य भैरवः सन्निपात। ३६०१ नवज्वरमुरारि रसः नवीन ज्वर । ४७३० बृहत्याचं नस्यम् बेहोशी । ३६०२ नवज्वर रिपु ४७३१ ब्रह्मदण्डी , एकाहिक ज्वर। ३६०३ नवज्वरहरी वटी , , | ३६०४ नवज्वरहरो रसः नवीन ज्वरको १ ४९३० भस्मेश्वर रसः शिर, हृदय और पहरमें नष्ट कर नासिकाकी कफ देता है। वातज पीड़ा । ३६०५ नवज्वराङ्कुश , नवीन ज्वरको १ दिन में नष्ट कर रस-प्रकरणम् देता है। ३२०२ दाादि वटिका तरुणज्वर, जीर्ण- ३६०६ नवज्वरारि , नवीन ज्वर। ज्वर, विषमज्वर । । ३६०७ नवज्वरेभसिंह , घोर नवीन उधर, ३२०३ दाहज्वरघ्न वटी दाह, ज्वर । धातुगत ज्वर, ग्रहणी ३२०५ दिनज्वरप्रशमनीवटी दिनके समय आने । ३६१२ नव्यचन्द्र , नवीन ज्वरको १ वाला ञ्चर, सन्ताप, पहरमें नष्ट कर अग्निमांध । देता है। ३२१० दीपिका रसः समस्त ज्वर । ३६२३ नाग शीताङ्ग सन्निपात। ३२१५ दुर्जलजेता रसः दुर्जलदोष जनित १९ नारायणज्वरा शीतज्वर, सन्निपात, ज्वर, अजीर्ण, म. विषमज्वर । लावरोध, अफारा, ३६६२ नीलकण्ठ रसः ज्वर, श्वास, हिखांसी शूल। चकी, खांसी। ३२१८ देवभूति रसः भयङ्कर सन्निपात, (वामक है।) खांसी, श्वास, अ- | ४२६४ पश्चवक्त्र रंसः । सन्निपात । ग्निमांद्य, पाण्डु। । ४२६५ " " घोर सन्निपात, ३२२२ द्विभुजो रसः नवीन ज्वर। ( मृत्युञ्जय) कफ, विषमज्वर, ३३२६ धातुज्वराङ्कुशरसः धातुगत ज्वर, अ नवीनज्वर, अजीर्णजीर्ण, वातज खांसी, ज्वर, अग्निमांध । अरुचि । ! ४२७५ पश्चाननो रसः सर्व प्रकारके ज्वर । For Private And Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पय-मदर्शिनी [७२५] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुम ४२८१ पश्चामृत पर्पटी समस्त प्रकारके | ४४३९ प्रतापमार्तण्डोरसः ज्वर ज्वर, खांसी, क्षय, । ४४४१ प्रतापलद्देश्वररसः सन्निपातकी बेहोशी, संग्रहणी, अशे । क्षय, पाण्डु । ४३०९ पर्णखण्डेश्वरः वातकफज ज्वर । ४४४४ प्रतापाग्निकुमाररसः सन्निपात । १३१० पर्पटी रसः ज्वर, ग्रहणी, क्षय, ४४४५ प्रतिज्ञावाचकोरसः समस्त ज्वर । श्वास, कफ, स्वर ४४८० प्राणेश्वरो रसः भंग , (बच्चोंके शीतज्वर । लिये. विशेष उप ४४८२ योगी तथा अनुपान " नवीन तीब्रज्वर, स" न्निपात,दाहपूर्वञ्चभेदसे अनेक रोग र, ज्वरका प्रचण्ड नाशक है।) ताप, शूल। ४३११ पर्पटी रसः कफ, वायु, मति- ४७४५ बालार्क रसः ज्वरको १ ही दि( मल्लपर्पटी) भ्रम । ( ज्वरके नमें नष्ट कर देता वेगको रोकती है) ४३३१ पानीय वटिका सन्निपात ज्वरकी ४७५६ ब्रह्मवटी समस्त प्रकारके समूर्छा, जीर्णज्वर, न्निपात । खांसी, श्वास। ४९४४ भस्मेश्वर चूर्णम् सन्निपात । ४३३२ पानीय वटिका भयङ्कर सन्निपात, ४९४५ भानुचूडामणिरसः । समस्त ज्वर । ( सिद्धफला ) दाह, खांसी, श्वास, ४९५० भिषमा रसः ॥ " मलावरोघ । (स्वेद | ४९५७ भूतनाथ भैरव रसः , " जनक है।) | ४९५८ भूतभैरव चूर्णम् शीत ज्वरको १ दि४४१५ पीयूषपन रसः समस्त ज्वर । नमें ही नष्ट कर ४४११ , , शीतज्वर, उष्ण देता है। ज्वर, एकाहिक, १९६७ भैरव रसः ज्वर, क्षय, खांसी, चातुर्थिक, शूल, श्वास, अग्निमांध । अग्निमांद्य । ४९७० भैरवसिद्धि रसः भयङ्कर सन्निपात । ५५३७ प्रचण्ड रसः नवीन ज्वर । | ४९७१ भैरवी गुटिका १४३८ प्रतापतपनो रसः सन्निपात । । For Private And Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७२६] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण मिश्र-प्रकरणम् ३६७८ नारीक्षीर-प्रयोगः ज्वर | ४४९८ पटोलादिबस्तिः । विषमज्वर । ४४९६ पञ्चसारम् विषमज्वर, खांसी, ४९७५ भैरव रसायनम् सन्निपात,अपस्मार। श्वास, क्षय, हृद्रोग । - (२४) तृष्णाधिकारः कषाय-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् २८५६ दाडिमबीजादि तृष्णा ३१३४ दधित्थादिशिरोलेपः तृष्णा, दाह । ४१६४ पश्चाम्लको लेपः तृषा । २९१४ द्राक्षादि काथः ३७१३ पश्चाम्ल योगः , ( मुखमें लेप नस्य-प्रकरणम् करनेका योग ।) ३१८८ द्राक्षादि नस्यम् तृष्णा । ३७९१ परूषकादि गणः वायु, तृषा, मूत्रदोष । रस-प्रकरणम् १५७९ बिल्वादि काथः कफज तृषा । ४३८३ पारदादि चूर्णम् प्रवृद्ध तृषा । (२५) वन्तरोगाधिकारः कपाय-प्रकरणम् २९४२ दन्तरोगाशनि चूर्णम् दन्तकृमि, दन्तशूल, ३३६९ नागरादि गण्डूषः शीताद । मुखकी दुर्गन्ध । ४५४० बकुल प्रयोगः ३ दिनके प्रयोगसे २९४३ दन्तशूलनाशकयोगः दन्तशूल । दांत दृढ़ हो जाते २९४४ दन्त्यादि चूर्णम् दन्तकृमि । २९४६ दशन संस्कार चूर्णम् दांतोंका मैल, स मस्त दन्त रोग। ३४५० नील्यादि प्रयोगः दन्तकृमि । चूर्ण-प्रकरणम् ३९२३ पाठाचं चूर्णम् मसूढ़े की पीड़ा, खु २९४१ दन्तमसी ( दांतोकी जली, पाक, नाव, मिस्सी) दन्तशूल। पाइरिया। For Private And Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७२७] - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३९७३ पीतक चूर्णम् मसूढ़ों के समस्त तैल-प्रकरणम् रोग, कण्ठरोग, मुख | ३०९२ दशमूलादि तैलम् दातांका हिलना, करोग, जिहारोग, ता राल, दन्तहर्ष, कपालरोग। ली, सौषिर। ३५१९ नीलसहचराद्यं , दांतांका हिलना । ४६८० बकुलाचं , " " गुटिका-प्रकरणम् ४८४७ भद्रमुस्तादि वटिका दांतोंका हिलना। रस-प्रकरणम् ३२२१ द्विजरोपणी वटी समस्त दन्तरोगोंको अवलेह-प्रकरणम् नष्ट और दांतोंको ३०२२ दाळवलेहः दांतोंकी निर्बलता, दृढ़ करती है। मसूढोके व्रण। मिश्र-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् | ४७६० बकुल-प्रयोगः दांतोंका हिलना । ४१०७ प्रपौण्डरीकाचं घृतम् शीताद । ४७६१ बकुलबीज चर्बणम् , " (२६) दाहाधिकारः कषाय-प्रकरण रस-प्रकरणम् २८७४ दाहप्रशमन महाक | ३२०४ दाहान्तको रसः दाह, सन्ताप, मूर्छा पायः दाह (चरकोक्तयोग) या४३८१ पारदादि गुटिका दाह ३७१४ पटीरादि काथः प्रबल दाह। - लेप-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ३५४२ निम्बकेन लेपः दाह, तृषा, मोह। । ३३४५ धान्याम्ल सेकः अङ्गदाह For Private And Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७९८] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - (२७) नासारोगाधिकारः प्रयोगनाम संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण तैल-प्रकरणम् . नस्य-प्रकरणम् ३३०४ धवत्वगादि तैलम् पित्तज तथा रक्तज ३५९४ निम्बादि नस्यम् दीप्त नामक नासा रोग । प्रतिश्याय । ४२५० पिप्पल्यादि , प्रतिश्याय । ४१२१ पाठादि पक पीनस। ४१२५ पिप्पली , क्षवथु । रस-प्रकरणम् ४६८८ बलाहयाचं , कफज प्रतिश्याय । ४४४७ प्रतिश्यायहरो रसः प्रतिश्याय । (२८) नेत्ररोगाधिकारः काय-प्रकरणम् । ४५६५ बिभीतकादि काथः शोथ और शूलयुक्त २८६६ दावीसेकः नेत्राभिष्यन्दके लिये नेत्रपाक । आंख धोनेका योग | ४५९० बिल्वाथाश्च्योतनम् वाताभिष्यन्द । २८७२ दााद्याश्च्योतनम् पित्तज, वातज और रक्तज नेत्राभिष्यन्द। चूर्ण-प्रकरणम् २९३२ द्राक्षायाश्च्योतनम् आंखोकी खड़क, | ३९७४ पुण्डरीक योगः आंखोकी लाली, अ श्रुस्राव, पीड़ा, क्षत सूजन । ३२४३ धात्रीफलरसादि सेचन । गुटिका-प्रकरणम् कषायः नेत्रशुक्ल । ३३७२ नागराद्याश्च्योतनम् कफजनेत्राभिष्यन्द। ३४५२ नागरादि गुटिका नेत्रपीड़ाको तुरन्त ३७११ पञ्चमूलाधारच्योतनम् वातज , नष्ट करती है। ३७५९ पटोलादि काथः पिल्लरोग । ३७६५ , गणः नेत्रस्राव, रक्तप्रकोप घृत-प्रकरणम् ३८७४ प्रपौण्डरीकायाश्च्यो ३०३९ दशमूल घृतम् वातज तिमिर । पित्तज वातज नेत्र ३०४८ दशमूलादि घृतम् वातज तिमिर । पीड़ा। । ३०७५ द्राक्षायं , आंखोका फूला, तनम् For Private And Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७२९] - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण तिमिर, लाल रेखाएं, लेप-प्रकरणम् शिरपीड़ा । ३१४८ दूर्वारसादिलेपः नेत्रपीड़ा । ४०६३ पटोलाचं घृतम् समस्त नेत्ररोग। ३५४५ निम्बुफलोभ४६५९ बलादि , तिमिर । वादि योगः नेत्ररोग। ४६६६ बिभीतकादि , समस्त नेत्ररोग। ४१७० पथ्यादि लेपः अभिष्यन्द आदि । ४८७७ भास्कराचं , तिमिर, शुक्तिक, पि ४१७१ नेत्रपीड़ा । , योगः ४१७६ पयस्यादि लेपः नेत्रपीड़ा, आंखोंकी ल्ल, अम्लाध्युषित, लाली। दृष्टिकी मन्दता, न ४१९० पारिजातादिकल्कः कफज नेत्रशूल । तान्ध्य, दिवान्थ्य। ४९१३ भूम्यामलक्यायो लेपः नवीन नेत्राभिष्यन्द। तैल-प्रकरणम् ३५२२ नीलोत्पलाचं तैसम् तिमिर, काच, न धूप-प्रकरणम् तान्थ्य, पटल, अर्जुन, पिल्ल, रुधि ३५६७ निम्बादि धूपः कफज नेत्राभिष्यन्द। रस्राव, पलकांकी खाज । अञ्जन-प्रकरणम् ३५२४ नृपवल्लभ , तिमिर, पटल, काच, ३१६४ दक्षाण्डत्वकाद्यञ्जनम् फूला, अर्म । नक्तान्ध्य आदि । | ३१६५ दन्तवर्तिः नेत्रबण, शुक्र। ४६९५ बिभीतकाचं , तिमिर । | ३१६६ दावीं रस किया दाह, अश्रुस्राव, ४८९७ भृङ्गराज , नेत्रांको स्वच्छ और पित्तज नेत्ररोग। १ मासमें बलि | ३१६७ दार्वाद्यञ्जनम् पित्तज तिमिर, नेत्र पलितको अवश्य वण। नष्ट कर देता है। ३१६८ दिव्यदृष्टिकरो रसः ४८९८ भृङ्गराज , नष्ट चक्षु को ठीक ३१६९ दृकप्रसादनी वर्तिः समस्त नेत्ररोगोंको करता है। नष्ट आर नेत्रोंको स्वच्छ करती है। For Private And Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७३०] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी कण्डू। संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम ३१७० दृष्टिप्रदमञ्जनम् समस्त नेत्ररोग। ३५७९ नयनामृताञ्जनम् नेत्ररोग। ३१७१ दृष्टिप्रदा वतिः इसके सेवनसे अ- | ३५८० नवनेत्रदात्री वातः अभिष्यन्द, अधिन्धेको भी दीखने मन्थ, सव्रण शुक्र, लगता है। कुणक, तिमिर, ३१७२ , , आंखोंको खाज, पटल, विशेषतः तिमिर । ३१७३ , , पटल, तिमिर, फूला, | ३५८१ नवाङ्गी वतिः । क्लेद, उपदेह, कण्डू अजकाजात । तथा कफज नेत्र३१७४ दृष्टिप्रसादनाञ्जनम् नेत्रोंको स्वच्छ करता रोग। ३५८२ नागावचनम् तिमिर, अन्धता। ३१७६ देवदारुरसक्रिया अश्रुस्राव, रतौंधा, . ३५८३ नागार्जुनी गाटका तिमिर, पटल, रफूला, पिल्ल, तिमिर। तौंधा, फूला, ३१७७ देवदार्वञ्जनम् पटल, रतौंधा । पिटिका । ३१७८ द्वादशामृताञ्जनम् समस्त नेत्ररोग । | ३५८४ नागार्जुनी वर्तिः तिमिर पटल। ३१७९ द्विनिशादि वर्तिः कुकूणक । ३५८५ नारायणाञ्जनम् नेत्रपाक, नेत्रशूल । ३३२२ धात्रीरस योगः नेत्रपीड़ा । ३५८८ नीलोत्पलादि दिवान्धता, नक्ता३३२३ धान्याधजनम आंखसे पानी जाना, गुटिकाञ्जनम् न्ध्य । वातरक्तज नेत्रपीड़ा। ३५८९ नीलोत्पलाद्यञ्जनम् तिमिर । ३५७३ नक्तान्ध्यकेतुः नक्तान्ध्य । ३५९० नेत्रवर्तिः नेत्रपीड़ा । ३५७४ नतान्ध्य हरि वर्तिः । ३५९१ नेपालादि वर्तिः कफज तिमिर रोग। ३५७५ नयन शाणाञ्जनम् तिमिर पटल, पुष्प। ४२२० पञ्चशतावर्तिः तिमिर । ३५७६ नयनसुखा वर्तिः तिमिर, अर्म, पटल, ४२२१ पटलहराञ्जनम् पटल । काच, अश्रुस्राव । ४२२२ पत्राधानम् तिमिर । ३५७७ नयनामृतवटी तिमिर, पुष्प, पटल, ४२२३ पथ्यायानम् अत्यन्त प्रवृद्ध नेत्रस्राव, रतांधा, अश्रुस्राव, कष्ट साध्य मांसवृद्धि, चिपिट। नेत्र प्रकोप । ३५७८ नयनामृताञ्जनम् तिमिर, पटल, काच, ४२२४ पलाशरसयोगः नक्तान्ध्यको नष्ट शुक्र। करता है। इससे For Private And Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७३१) संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण चन्द्रमाके चांदनेमें ४२३९ पुष्पकासीसाद्यञ्जनम् पिल्लादि पक्ष्मरोग । पुस्तक पढ़नेकी ४२४० पुष्पहरीवर्तिः फूला । शक्ति प्राप्त होती है।। ४२४१ पुष्पाक्षादिरसक्रिया अर्म, काच, तिमिर, ४२२५ पारदाधानम् समस्त नेत्ररोग ना अर्जुन। शक तथा दृष्टि- ४२४२ पोत्रीदन्तादिवतिः फूला। वर्धक। ४२४३ प्रकाशिका गुटिका नक्तान्ध्य, दिवान्ध्यता ४२२६ पारिजातादि योगः कफज नेत्र पीड़ा । ४२४६ प्रभावती आंखकी खाज, ति४२२७ पालङ्कृयादि गुठिका तिमिर ।। मिर, शुक्र, अर्म ४२२८ पाशुपतयोगः समस्त नेत्राभिष्यन्द, और लाल रेखाएं। लालिमा, पीड़ा ४२४७ प्रवालाबञ्जनम् शुक्तिका। ४२२९ पिण्डानम् दृष्टिको स्वच्छ तथा ४२४८ प्रसादनाञ्जनम् नेत्रांको स्वच्छ कर बलवती करता है। ४२३१ पिप्पल्यादि गुटिका अर्म, तिमिर, काच, ४७२२ बिभीतकादि वर्तिः पित्तज पटल रोग । कण्डू, शुक्र, अर्जुन, ४७२३ बिभीतमजादियोगः फूला अजकाजात । ४७२४ बिल्वाञ्जनम् नेत्रोंकी सूजन, पीड़ा ४२३२ पिप्पल्यायञ्जवम् फूला। अभिष्यन्द, अधि मन्थ, सुर्थी। ४२३३ , , दृष्टिको गरुडके ४७२५ , , नेत्रस्राव इत्यादि। समान तीक्ष्ण करता ४७२७ बृहत्यादि वर्तिः वातज नेत्ररोग। ४७२८ बृहत्याधञ्जनम् ४२३४ " " पिष्टक। ४९२२ मद्रमुस्ता योगः पुराना फूला, आं. ४२३६ , , रतौंधा, तिमिर, खोकी लाली। आंखांकी खाज। ४९२३ भानुमति वर्तिः । तिमिर। ४२३७ पुण्डरीक योगः नेत्रशूल, नेत्रक्षत, | ४९२४ , " नक्तान्ध्य, पिल्ल, पाकात्यय, अजका तिमिर, नेत्रक्षत, ने जात। त्रकण्डू। ४२३८ पुनर्नवा , आंखांकी खाज, | ४९२५ भास्कर चूर्णम् काच, नक्तान्ध्य, नेत्रस्राव, फूला, तिमिर, आंखोकी तिमिर रतांधा। लाल रेखा। है। For Private And Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७३२] संख्या प्रयोगनाम ४९२६ भास्कर वर्तिः ४९२७ भास्कराञ्जनम् ४९२८ भीमसेनी कर्पूर नस्य-प्रकरणम् ४७२९ बृहत्यादि नस्यम् ३६०० नयनचन्द्र लोहम् ३६६६ नेत्राशनि रसः रस-प्रकरणम् ३३३९ धात्रीपिण्डी तिमिर । २८३३ दशमूलादि काथः मिश्र-प्रकरणम् ४५२१ फलत्रिकादि काथः " चिकित्सा - - पथ-प्रदर्शिनी अत्यधिक निद्रा । www.kobatirth.org मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् समस्त नेत्ररोग | आंखोंसे रक्तस्राव होना, नक्तान्ध्य, ति मिर, काच, पुराना पिष्टक । आंखकी पीड़ा । पित्तज कफज पाण्डु, ज्वर अतिसार, शोथ, खांसी । कामला संख्या प्रयोगनाम ३३४१ धात्री रसक्रिया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४२ "" "" ३६७२ नागादि शलाका (२९) पाण्डुरोगाधिकारः ३६७३ नागुर्जुनी शलाका ३६७९ निम्बपत्रादि योग: ३६८० निम्बादि पिण्डी ३६८७ निशादि प्रयोगः ४५०१ पलाशवृन्त योगः ४५०६ पिप्पलदलादि योग: ४७७० बाष्प स्वेदः ४७७४ बिसादि परिसेकः ३४२६ नागरादि चूर्णम् For Private And Personal Use Only चूर्ण-प्रकरणम् ――― मुख्य गुण आंख के पित्तज वा तज रोग, तिमिर, पटल | पटल | नेत्राको चिपचिपा - हट, कण्डू, पिल्ल, तिमिर । नेत्रज्योति-वर्द्धक । अक्षिपाक । नेत्राभिष्यन्द | पीड़ा । पलके के बाल ज माता और नेत्रा कफज विकारों को करता है। ३४५६ निम्बादि गुटिका तिमिर । नेत्रीड़ा नेत्राभिष्यन्द | कफजपाण्डु । गुटिका-प्रकरणम् पाण्डु, कामला, ज्वर। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७३३] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण __ अवलेह-प्रकरणम् नस्य-प्रकरणम् ३०२१ दावीत्वगायवलेहः कामला । | ३१८६ देवदाली फलरस३२८१ धात्र्यवलेहः पाण्डु, कामला, ह. नस्यम् कामला लीमक, खांसी, पित्त। ३१८७ देवदाली योगः पुरानी कामला । घृत-प्रकरणम् ३०३७ दन्त्याचं धृतम् पाण्ड, तिल्ली, गुल्म। रस-प्रकरणम् ३०६७ देवदायि , पाण्डु, हृद्रोग, ग्रह- | ३२०० दाादि मण्डूरवटकः पाण्डुमें अत्युपयोगी ___णी, अर्श । तथा कुष्ठ, कामला ३०६८ द्राक्षा पाण्डु, कामला, गु. और शोथनाशक । ल्म, ज्वर, उदर | ३२०१ दाादि लोहम् कामला, पाण्डु । रोग । ३२२३ द्विहरिद्राचं लोहम् कामला। ४०४४ पञ्चकोल , पाण्डु, हलीमक, ३३३२ धात्री , कष्टसाध्य कामला। क्षय । | ३६०८ नवायस चूर्णम् पाण्डु, शोथ, उदर ४६५६ बला पाण्डु, कामला, दाह रोग, अग्निमांद्य, अ४६५८ बलादि मिट्टी खानेसे उत्पन्न श, अरुचि । हुवा पाण्डु । । ३६१० " , पाण्डु, हलीमक, प्र हणी, शोथ, श्वास, तैल-प्रकरणम् खांसी। ३५१२ निर्गुण्डी तैलम् कष्ट साध्य कामला। | ३६११ नवायस लोहम् पाण्डु, कामला, ह लीमक, अर्श। आसवारिष्ट-प्रकरणम् ३६५७ निशादि , कामला, पाण्डु । ३३०९ धात्र्यरिष्टः पाण्डु, कामला, वि | ४२७२ पञ्चानन वटी शोथ, पाण्डु। षमज्वर, श्वास, अ ४२७३ पश्चाननो रसः पाण्डु, हलीमक, मरुचि, हिचकी । लावरोध । १७०० बीजकासवः पाण्डु, कामला, अर्श | ४३०२ पश्चास्य रसः कामला। शोष । ४३१२ पाण्डुकथाशेषरसः पाण्डु, हलीमक । ४३१३ पाण्डुकुठार रसः पाण्डु, शोथ, प्लोहा। For Private And Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७३४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - - - - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ४३१४ पाण्डुगजकेसरी रसः पाण्ड, हलीमक, शो लीमक, ज्वर, शोथ, ___थ, अग्निमांद्य । खांसी, श्वास। ४३१५ पाण्डुनाशन रसः समस्त प्रकारके पा ४४२१ पुनर्नवामण्डूरम् पाण्डु, शोष, उदर रोग, शूल। ४३१६ पाण्डुनाशन रसः पाण्डु, शोथ, कफ, ४४४३ प्रतापलकेश्वर रसः सर्वदोषज पाण्डु । वायु। | ४४७० प्रवाल प्रयोगः पाण्डु। ४३१७ पाण्डुपङ्कशोषणरसः पाण्डु, शोथ । ४४७८ प्राणवल्लभो रसः कामला, पाण्ड, ह. ४३१८ पाण्डुपश्चानन रसः हलीमक, पाण्डु, शो. लीमक और आनाह थ, अग्निमांद्य । नाशक (कामलामें ४३१९ पाण्डुसूदन रसः पाण्डु। विशेष उपयोगी)। ४७४६ बिभीतकाख्य ४३२० , , पाण्डु, शोथ। ४३२१ पाण्डुहारी हरीतकी शोष, पाण्डु । लवणम् पाण्डु। ४७४७ बिभीतकाथो वटकः भयङ्कर पाण्डु । ४३२२ पाण्ड्वरि रसः पाण्डु, कामला । ४९६३ भूनिम्बादि गुटी पाण्डु । ४४०२ पित्तपाण्ड्डरि रसः पित्तज पाण्डु । | ४९६४ भेकराज रसादि ४४२० पुनर्नवा मण्डूरम् पाण्ड, कामला, ह- मोदकः पाण्डु। (३०) पित्तरोगाधिकारः रस-प्रकरणम् ४४०१ पित्तकृन्तनो रसः पित्त रोग । ४४०३ पित्तप्रभजनो रसः वात पित्तज रोग। ४४०८ , . , ४४०७ पित्तान्तक रसः कोष्ठ तथा शाखा- । श्रित पित्त, अम्ल पित्त, पाण्डु, हलामक, भ्रान्ति, वमन पित्त, पित्तज्वर, दाह तृषा, शोथ, क्षय । For Private And Personal Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७३६] (३१) प्रमेहाधिकारः संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण - कषाय-प्रकरणम् पिडिका नहीं नि २८६९ दाादि काथः प्रमेह । कलने पाती । ४८३४ भूधात्र्यादि योगः असाध्य प्रमेह । २८९२ दुर्वादि , शुक्रमेह । २९३८ द्विनिशादिशीत अवलेह-प्रकरणम् कषायः प्रमेह । ३०३२ द्राक्षापाकः प्रमेह, मूत्राघात, ३२५५ धात्र्यादि काथः प्रमेह । मूत्रकृच्छ, हाथपैरां ३४०६. नीलोत्पलादि , पित्त प्रमेह । की दाह । ३४०७ " ३२८५ धात्रीपाकः " प्रमेह, मूत्रकृच्छू, ३७७१ पथ्यादि कषायः " " पित्त। प्रमेह, जीर्णज्वर। ३८०० पलाश पुष्प काथः अनेक प्रकारका प्र- ४०४१ पूगपांसुर योगः ४०४२ पूगीपाकः प्रमेह, वायु, क्षीणता अग्निमांद्य, वृद्धावस्था ३८१० पाठादि , हस्ति मेह । ३८१४ पारिजातादिकाथा ष्टकम् उदकमेह, इक्षुमेह, घृत-प्रकरणम् सुरामेह, सिकतामेह ३०४१ दशमूल धृतम् प्रमेह पिडिका, प्रशनैमेह, लवणमेह, मेह के समस्त उपपिष्टमेह, सान्द्रमेह। द्रव। ३०५६ दाडिमाचं २० प्रकारके प्रमेह ४५१९ फलत्रिकादि काथः समस्त प्रमेह । मूत्राघात, अश्मरि, भयंकर मूत्रकृच्छू, चूर्ण-प्रकरणम् अफारा। ३४४५ निशादि चूर्णम् समस्त प्रमेह । | ३३०० धान्वन्तर , प्रमेह, शोथ, अर्श, ३४५१ न्यग्रोधादि , २० प्रकारके प्रमेह, प्रमेहपिडिका। मूत्रदोष । ३३०१ " " इसके सेवनसे प्रमेह । मेह । - For Private And Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७३६] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिना - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण तेल-प्रकरणम् ४४५६ प्रमदानन्दो रसः भयंकर प्रमेह, प्र४१३६ प्रमेह मिहिर तैलम ध्वजभंग, दाह, प्र हणी, कफ, वात मेह । शूल, मधुमेहनाशक वीर्य तथा कामश क्ति वर्द्धक। आसव प्रकरणम् । ३१२७ देवदासिवः ४४५९ प्रमेहकुआरकेसरीरसः रसायन है। १८ प्रमेह, मूत्रकृच्छ्, प्रकारके प्रमेहको वातव्याधि । १ मासमें नष्ट कलेप-प्रकरणम् रता है। उत्साह, ४९१८ मृङ्गराजादि लेपः वातज प्रमेह पिडिका। शुक्र अग्निवर्द्धक । ४४६० प्रमेहकुलान्तको रसः वसामेह । रस-प्रकरणम् ४४६१ , २० प्रकारके प्रमेह, ३६१४ नागभक्त्यादि रसः सुरामेह । मूत्रकृच्छू, अश्मरी, ३६१६ नागभस्म योगः समस्त प्रमेह । मूत्राघात, अरुचि। ३६३६ नागेन्द्र गुटिका सिकतामेह । ४४६२ प्रमेहकेतु रसः प्रमेह । ३६३७ नागेन्द्र रसः प्रमेह ४४६३ प्रमेहगजसिंहो रसः समस्त प्रमेह । ३६५४ नित्यारोग्येश्वरो रसः दुस्साध्य लालामेह । | ४४६४ प्रमेहबद्धरसः , " ४२६३ पश्चलोह रसायनम् समस्त प्रमेह, मूत्र- ४४६५ प्रमेहसिन्धुतारक रसः , , कृच्छू, अश्मरी, अप- | ४४६६ प्रमेहहरो रसः प्रमेह । । स्मार, क्षय। ४४६७ प्रमेहाङ्कुश रसः , ४२७४ पश्चाननो रसः शोष, प्रमेह । ४७३५ बहुमूत्रान्तको रसः बहुमूत्र । ४२७६ ॥ २० प्रकारके प्रमेह, ४७३६ , , बहुमूत्र और बहुअश्मरी, मूत्राघात, मूत्रके उपद्रव । उग्र मूत्रकृच्छ्र । ४७३७ बहुमूत्रान्तक लोहम् बहुमूत्र । ४३०५ पथ्यादि चूर्णम् बहुमूत्र रोग ४९५१ भीमपराक्रम रसः समस्त प्रमेह । For Private And Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७३७] (३२) बालरोगाधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् | ३२७२ धातक्यादि प्रयोगः इसके उपयोगसे ३२६८ धान्यादि योगः खांसी, श्वास । दांत आसानी से ३३५५ नागरादि काथः सर्वविध बालातिसार । निकल आते हैं। ३६९० पश्चतिक्तक गणः विसर्प, कुष्ठ। । ३२७९ धान्यादि चूर्णम् अतिसार, छर्दि। ३७०४ पञ्चमूली क्षीरम् हिक्का । ३४२४ नागरादि , कफज ग्रहणी। ३७१७ पटोलमूलादिप्रयोगः आमातिसार ।। ३९०० पथ्यादि तालुकण्टक नष्ट ३७४७ पटोलादि काथः विसर्प और विस्फो होता तथा गर्दन टक ज्वर । दृढ़ होती है। ३८३५ पिप्पल्यादि काथः हिक्का । ३९३३ पारशीयादि , खांसी, ज्वर, अति३८७६ प्रियङ्ग्वादि कल्कः तृषा, छर्दि, अति. सार, छर्दि, विशेषतः सार। उदरके कृमि । ४५६९ बिल्वमूलादि काथः छर्दि, अतिसार । ३९५० पिप्पल्यादि चूर्णम् तृषा। ४५७३ बिल्वादि काथः उत्फुल्लिका । ३९५१ भयङ्कर ग्रहणी। ४५७६ , , अतिसार । ३९५३ अधिक रोना। ४७७६ भद्रमुस्तादि काथः समस्त प्रकार के ३९५६ डब्बा । ज्वर । ३९५७ हिक्का, वमन । ३९५८ हर प्रकारका अजीर्ण चूर्ण-प्रकरणम् शूल, अफरा, अ. ग्निमांद्य । २९५० दाडिमचतुःसम ३९८४ पुष्करादि , खांसी। चूर्णम् अतिसार। ३९८९ प्रियङ्ग्वादि , दुग्धदोष-जनित २९५१ दाडिमबीजादि विकार । प्रयोगः तृष्णा । ४५२५ फलिन्यादि चूर्णम् तृष्णा, छर्दि, २९६५ दाादि चूर्णम् कर्णपाक, कर्णस्राव, अतिसार । मुखपाक । ४६३४ बिल्वादि चूर्णम् रक्तातिसार । २९८७ द्राक्षादि , खांसी, तमक श्वास। ४८३१ भाग्र्यादि योगः खांसी, वास । २९९३ , योगः खांसी। For Private And Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७३८] चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण गुटिका-प्रकरणम् ४००३ पियालादि मोदकः पौष्टिक । संख्या प्रयोगनाम | ४६६४ बालचाङ्गेरी घृतम् मुख्य गुण अतिसार, कष्टसाध्य संग्रहणी। अवलेह-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ३२८३ धातक्याघवलेहः ज्यरातिसार, छाद।। ३०८१ दशनफलादि तैलम् बालकांके शिरारोग चरातिसार, छर्दि। ३४६५ नागरादि लेहः खांसी, कफज | ३०९४ दशमलाचं उन्माद, अपस्मार, छर्दि। ग्रह । ३४६८ निशाधवलेहः खांसी, छर्दि।। । निशादि नाभिपाक। ४६४७ बालकुटजावलेहः रक्तातिसार, आमशूल ४११७ पयस्याद , पूतनाग्रह । | ४६९४ बिभीतकाचं , पूतिकर्णरोग । घृत-प्रकरणम् ४९०१ भृङ्गादि , मुखमण्डिका । ३४७८ नागराधं धृतम् खांसी, श्वास, अपतन्त्रक। लेप-प्रकरणम् ४०६६ पथ्याचं , गुल्म, अफारा, | ३५२६ नरास्थि लेपः कुकणक । गुदभ्रंश, श्वास, ३५५७ न्यग्रोधादि , दाह लाली और खांसी, विलम्बिका। वेदना युक्त विसर्प। ४०७३ पाठायं घृतम् बुद्धि, स्मृति, रूप ४२०६ प्रपौण्डरीकादि , विसर्प । और बल वर्द्धक। ४२१३ प्लक्षाधो , त्वग्दोष, रक्तविकार, ४०७४ , , अग्निमांद्य, कृमि, चकते, विस्फोटक। अतिसार, पाण्डु, गुल्म, शोथ। धूप-प्रकरणम् ४०७६ , , मिट्टी भक्षणसे उ. | ३१५९ दशाङ्ग धूपः ग्रहदोष । त्पन्न हुवे विकार ।। ४२१५ पलङ्कषादि धूपः ज्वरके वेगको घ. ४०८९ पिप्पल्याचं , दूध पीकर वमन टाती है। कर देना तथा अ. ४२१६ पारिभद्रादि धूपः समस्त ग्रहदोष । पानवायुके साथ ४२१७ पुरीषादि , पूतनाग्रह । दस्त आना। ४२१८ पूतिकरादि, समस्त ग्रहदोष । ४०९३ " " दन्तोद्भदरोग। For Private And Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७३९] . संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण रस-प्रकरणम् ज्वर, प्लीहा, शोथ, ३१९१ दन्तोद्भेदगदान्तक दांत निकलनेके पाण्डु, खांसी। समयके रोग, ज्वर, ४७४३ बालरसः ज्वर, सन्निपात, खांसी। आक्षेपक, अतिसार। ३६३१ नागादि वटिका महा श्वास। ३६३२ नागादि चूर्णम् दूध पीने वाले मिश्र-प्रकरणम् बच्चेक ग्रहदोष, । ३२२५ दन्तोद्भेदकः दांत निकलनेके स. उदर विकार, अ मयके समस्त रोग। जीर्ण, कब्ज और | ३२२६ दन्तोद्भेदगदान्तक कृशता नाशक । क्रिया पौष्टिक, पाचक । । ३६८६ निर्गुण्डी मूल दन्तोदभेद पीड़ा । ४७४१ बालज्वराङ्कुशरसः गर्भिणी और बाल बन्धनम् केकि समस्त ज्वर। । ४५०० पद्मिनी पत्रयोगः काच निकलना । ४७४२ बालयकृदरि लोहम् कष्टसाध्य यकृत्, ४७६५ बलामूलचूर्णप्रक्षेपः शिरोबणके कृमि । (३३) बन रोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ३७८३ पथ्या योगः ब्रन । ४६३३ बिल्वमूलाचं चूर्णम् बध्न । (३४) भगन्दराधिकारः गुग्गुलु-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ३४६० नवकार्षिक गुग्गुलुः भगन्दर, कुष्ठ, नाड़ी- ३५१६ निशादि तैलम् भगन्दर । व्रण। | ४८८८ भिष्यन्दन , भगन्दरका व्रण । For Private And Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७४०] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - - संख्या प्रयोगनाम मख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण लेप-प्रकरणम् ३६५१ नारायण रसः भगंदर, गुल्म, शूल । ३१३९ दन्त्यादि लेपः दुस्साध्य भगन्दर । ४९३७ भगन्दरारि रसः भगन्दर । ४७११ बिडालास्थि लेपः भगन्दर, दुष्ट व्रण। ४९३८ भगन्दरापदश रसः भगंदर, उपदंश। रस-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ३६५० नारायण रसः भगन्दर, नाड़ी व्रण।। ३६८८ निशादि वर्तिः भगंदर और मासूर। (३५) मुखरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् गुटिका-प्रकरणम् २९०७ द्राक्षादि कषायः मुखपाक नाशक ३९९३ पञ्चकोलाद्या कवलग्रह । गुटिका कण्ठरोग २९०९ " " मुखपाक नाशक तैल-प्रकरणम् गण्डूष । ३११० देवदारु तैलम् गलरोग । ३६९२ पश्चपल्लव काथः मुखपाक। ३७१२ पञ्चवल्कलादिकाथः ।, लेप-प्रकरणम् ३७२१ पटोलादि काथः समस्त मुखरोग। | ३५६२ न्यग्रोधाद्युद्वर्तनम् मुखकी झाई । ३७३२ , , मुखपाक । ४१६७ पत्राङ्गादि लेपः रंग गोरा करता है। ३८३० पिप्पल्यादिकवलः उपकुशादि मुखरोग। ।। ४२११ प्रियवादि , अत्यन्त सौन्दर्य ३८३१ , , समस्त मुखरोग । वर्द्धक। ४६०० बृहत्यादि काथः कृमिदन्तकी पीड़ा । रस-प्रकरणम् चूर्ण-मकरणम् ४३९४ पार्वती रसः मुखरोग, तृष्णा । २९८१ द्राक्षादि चूर्णम् गलरोग । ३९१२ पीतक , मुखरोग, कण्ठरोग । मिश्र-प्रकरणम् । ३२२४ दन्तधावन योगः मुखकी गन्ध । For Private And Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संपा प्रयोगनाम ३२३० दार्वीरसक्रिया ३२३१ दार्व्यादि गण्डूषः ३२३२ दार्व्यादि घनः २८६२ दाडिमाम्बु योगः २८७९ दुरालभादिकषायः २९०६ द्राक्षादि कल्कः ३२४७ धात्र्यादि काथः ३२४८ 97 कषाय-प्रकरणम् २८३८ दशमूलादि काथः अष्टीला, वातकुण्ड लिका, वातज मूत्रा घात । 39 " " www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी "1 मुख्य गुण मुखका नाड़ी व्रण, रक्तदोष | मुखपाक । मुखपाक, मुखका नाड़ी व्रण । मूत्राघात । मूत्रकृच्छू, दाह, शूल । मूत्रकृच्छ । सैंकड़ों योग से आ राम न होनेवाला (३६) मूत्रकृच्छ्रमूत्राघाताधिकारः मूत्रकृच्छ्र । मूत्रकृच्छ्र, पीडा, दाह । वेदना युक्त मूत्रा घात । संख्या प्रयोगनाम ३६८४ निर्गुण्डी प्रयोगः ३६८५ निर्गुण्डीमूलचर्वणम् ४४९९ पथ्या योगः ४७७५ बीजपूर योगः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " ३८२१ ४५६८ निल्वमूलादिकषायः 97 "" ४६०२ बृहत्यादि काथः ४६०६ गणः ३८२० पाषाणभेदादि काथः मूत्रावरोध, शुक्राश्मरी, शर्करा । ४८१४ भृष्ठेक्षुरसपानम् ३३४८ नलादि ३३८० निदिग्धिकादि स्वरसः मूत्रकृच्छ्र । ३३८१ निदिग्धिकास्वरस प्रयोगः सशोणित ऊष्णवात | ३८१७ पाषाणभेदादिकषाय भयङ्कर मूत्रकृच्छ्र । ३८१९ काथः पीड़ा, दाह, मूत्रा वरोध, मूत्रकृच्छ । ४८६९ भद्रावह " २९५५ दाडिमादि योग: For Private And Personal Use Only ३२९७ धान्यगोक्षुरघृतम् मुख्य गुण उपजिह्वा । कण्ठशालक, उप पूर्ण-प्रकरणम् जिह्वा । प्रसेक | 37 [ ७४१ ] मूत्रकृच्छ नाशक, हथ । १९७३ देवदार्वादि चूर्णम् मूत्राघात । ३९१६ पाटलाभस्म योगः ४८१८ भद्रादि चूर्णम् घृत-प्रकरणम् की दुर्गन्ध । मूत्रावरोध | मूत्रकृच्छ्रको ३ दि में नष्ट करता है। त्रिदोषज मूत्रकृच्छ्र । अरुचि, हल्लास, मू त्रकृच्छ । मूत्रकृच्छ्र । "" " मूत्राघात, मूत्रकृच्छ्र, भयङ्कर शुक्र दोष । उष्णवात । Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७४२) चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण लेप-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ४१५९ पङ्कलेपः मूत्रकृच्छ्र । ३६७४ नारिकेलजलादि रस-प्रकरणम् मूत्रकृच्छ्रे । ४४७१ प्रवाल प्रयोगः कफज मूत्रकृच्छू । । ३६७६ नारिकेलादिपेयम् । पेयम् (३७) मूर्छामदात्ययाधिकारः कषाय-प्रकरणम् मूर्छा,श्वास, खांसी २८८५ दुरालभादि कषायः भ्रम, मूर्छा । २९२३ द्राक्षादि काथः मूर्छा । घृत-प्रकरणम् २९२८ , प्रयोगः मूर्छा, भ्रम ।। | ४०६५ पथ्याधं घृतम् मद, मूर्छ । ३६९५ पञ्चमूल कषायः मदात्यय, मूर्छा ।। ४०९७ पुनर्नवादि , मद्यपानसे हुवा ओगुटिका-प्रकरणम् जक्षय। ४८५५ भ्रमनाशिनी गुटी भ्रम | अवलेह-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ३०२९ द्राक्षाचवलेहः अरुचि, मदात्यय, , ३६७७ नारिकेलादि योगः तृषा, मूर्छा, भ्रम। (३८) मेदरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् गुग्गुलु-प्रकरणम् ४५७८ बिल्वादि काथः मेद । ३०११ दशाङ्ग गुग्गुलुः मेद, आमवात, क फरोग । चूर्ण-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ४४२४ फलत्रिकादिचूर्णम् मेद, कफ, वायु । ४७६४ बब्बूलादि योगः अधिक पसीना आना। For Private And Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम कषाय-प्रकरणम् कषाय-प्रकरणम् २९११ द्राक्षादि काथः ܕܪ २९२५ क्षीरम् २९३४ द्राक्षाहरीतकीयोगः ३२६३ धान्यकादिहिमः ३७२८ पटोलादि काथः ३७८६ पद्मकादि ३७८९ पद्मोत्पलादिकाथः " २९८२ द्राक्षादि चूर्णम् चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी मुख्य गुण | संख्या प्रयोगनाम (३९) रक्तदोषाधिकारः ३४४९ नीलोत्पलादि योग: ३८९२ पत्रादि चूर्णम् रक्तपित्त, खांसी | (४०) रक्तपित्ताधिकारः www.kobatirth.org ३८७५ प्रियङ्गुकादिकषायः रक्तपित्त । ४५५८ बलासिद्ध क्षीरम् रक्तपित्त । रक्तपित्त, जीर्णज्वर । चूर्ण-प्रकरणम् रक्तपित्त, ज्वर, दाह, तृष्णा, शोष । रक्तपित्त । श्वास, "" भयङ्कर रक्तपित्त । 17 नाक, मुंह, गुदा, योनि, लिंग आदिसे होनेवाला रक्त स्राव; रक्तातिसार, रक्तप्रदर, रक्ता । रक्तपित्त । रक्तपित्त, दाह, ज्वर, खांसी, क्षय; मुंह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | ३३८२ निम्बस्वरसपानम् सर्वदोषजरक्तविकार । ३८९३ पथ्याचूर्ण योगः ३९८७ पृथ्वीका योगः ४०२२ पलाशवृन्त योगः गन्ध आना । ३९९० प्रियवादिचूर्णम् हरप्रकारका रक्तपित्त, शस्त्राघातका रक्त स्राव । ३०६५ दूर्वाचं घृतम् ३०७३ द्राक्षादि ४०७१ पलाश For Private And Personal Use Only अवलेह -प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् [ ७४३] मुख्य गुण " या मूत्रमार्ग अत्य धिक रक्तस्राव होना। 37 रक्तपित्त । स्वासमें लोहको और उद्गारमें धुर्वेकी रक्तपित्त । हर रक्तपित्त, वमन । प्रकारका रक्तकी रक्तपित्त, ज्वर, रक्त प्रमेह | रक्तपित्त । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७४४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण तैल-प्रकरणम् ३१०९ दूर्वा तैलम् रक्तपित्त, वायु । लेप-प्रकरणम् ३३१७ धात्री लेपः नकसीर । । संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण ३१८४ दाडिमादि नस्यम् नकसीर ३१८५ " ४२५६ प्रियङ्वादि , रक्तपित्त । ४२५७ प्लाण्ड्वादि , नकसीर । नस्य-प्रकरणम् १९८२ दाडिमकुमुमरस प्रयोगः नकसीर । मिश्र-प्रकरणम् ४४९४ पञ्चमूल्यादि पेया रक्तातिसार, अधो गत रक्तपित्त । (४१) रसायनवाजीकरणाधिकारः कराय-प्रकरणम् और इन्द्रियां विकार ३२५६ धान्यादि योगः वृद्धावस्था रहित रहती हैं। ४१५९ बल्यमहाकषायः ३४१८ नागवल्याचं चूर्णम् वीर्यवर्द्धक, स्तम्भक, ४५९९ बहणीय महाकषायः रसायन। ४७७९ भल्लातक क्षीरम् रसायन ३४३१ नारसिंह चूर्णम् जरा, व्याधि, बलि, ४७८० , क्षोद्रम् ॥ पलित, खालित्य, ४७८१ , रसायनम् शुक्रशोधक, बलि प्रमेह आदि । पलितनाशक, कुष्ठ- ३९१४ पलाशबीजादियोगः १ मास तक सेवन कृमि नाशक। करनेसे वृद्धभी तरु४७८४ भल्लातकादि योगः अत्यन्तवाजीकरण । णके समान हो ४८१२ भृङ्गराज रसायनम् रसायन जाता है। ३९८१ पुनर्नवा योगः वृद्ध भी नवीन शचूर्ण-प्रकरणम् रीर प्राप्त करता है। २९९२ द्राक्षादि प्रयोगः धातुक्षीणता, बल- ४६१२ बब्बूरादि प्रयोगः कृशपुरुषको स्थूल करता है । देहक३२७५ धान्यादि चूर्णम् इसके सेवनसे आयु म्प और शोषमें हिपर्यन्त बाल काले । तकारी है। हास। For Private And Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७४५] - संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ४६१६ बलादि चूर्णम् वाजीकरण । सर्प काट खाय तो ४८४३ भृङ्गराज रसायनम् पलित । वह स्वयं ही मर ४८४४ , , जाता है। ४८४५ भृङ्गराजादि चूर्णम् रसायन । रोगों से बचाता है। घृत-प्रकरणम् ४८४६ , रसायन । ३४८० नारसिंहघृतम् अत्यन्त बल तथा सौन्दर्य वर्द्धक । ३४८१ , , अवलेह-प्रकरणम् अत्यन्त वाजीकरण। ४६७७ ब्राह्मी ३०२४ दासरसायन लौहम् रसायन । (सारस्वत) , स्वर, कान्ति, स्मृति ३४६६ नागरायोवलेहः मेधा और शुक्र २४७१ नारिकेल पाकः नपुंसकता नाशक, वर्द्धक । वीर्यवर्द्धक । ४६७८ ब्राह्मी घृतम् समस्त इन्द्रियों के ४०३३ पिष्टीपाकः कमरके दर्द तथा बल और आयुकी कृशता को नष्ट क वृद्धि तथा अपस्मारता है । उत्तम र, उन्माद और वाजीकरण है। ज्वरका नाश क४०३९ पूग खण्डः प्रमेह, बन्ध्यत्व आ रता है। दि नाशक; उत्तम वाजीकरण । तैल-प्रकरणम् ४०४० पूगपाकः (बृहद्) नपुंसकता, प्रमेह, ३१०१ दाडिमाचं तैलम् लिङ्ग वर्द्धक । हाथ पैरांकी दाह, का दाह, ४११९ पलाशवीज , १९ नपुंसकता, हस्तक्रिअग्निमांध । याके दोष । (तिला ४६४६ बादाम पाक उत्तम वाजीकरण । ४६५३ ब्राह्मी रसायन रसायन । ४१२२ पानीनाशक , इन्द्रीकी नसांका इसके सेवनसे शरी पानी निकाल कर रपर विषका प्रभाव नपुंसकता दूर कर नहीं होता; यदि देता है। For Private And Personal Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७४६] संख्या प्रयागनाम ४६९६ बृहती तैलम् "3 ४८८५ भल्लातक ४८८६ भल्लातक तैल- रसायनम् ३१२० दशमूलारिष्टः ३१२९ द्राक्षासवः ३१३२ ३५२५ नारिकेलासवः 23 आसवारिष्ट-प्रकरणम् (महा) ३५३२ नागरादि लेपः ३५४६ निर्गुण्ड्यादिप्रयोगः ४९०६ भल्लातकादि लेप: नपुंसकता । रसायन । मुख्य गुण 79 लेप-प्रकरणम् दुबले मनुष्यों को पुष्ट करता तथा वीर्य और तेज चिकित्सा - पथ की वृद्धि करता है। अत्यन्त वाजीकरण | अत्यन्त वीर्यवर्द्धक । कामशक्ति तथा सौ न्दर्य वर्द्धक, बलि पलित नाशक www.kobatirth.org नपुंसकता । शरीरकी झुर्रियां । लिङ्गको पुष्ट और वृहद् करता है । रस-प्रकरणम् ३२०६ दिव्यखेचरी गुटिका रसायन । ३२०७ दिव्यखेचरी वटिका ३२०९ दिव्यामृत रस: ३३२७ धातुबद्ध रसः 17 19 19 - प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम ३३२९ धात्री लोहम् ३३३३ धात्र्यादि प्रयोगः ३६३९ नागेश्वर विधिः ३६५२ नारीमत्तगजाङ्कुशरसः ४२६१ पश्चबाणो रसः ४२६६ पञ्चशरो रसः ४२६७ पञ्चसायकः ४२८७ पञ्चामृत रसः ४२८९ ४२९५ ४२९६ " " " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 19 }} For Private And Personal Use Only 17 ४२९८ ४३०३ पतङ्गयोगः ४३०४ पथ्यादि चूर्णम् ४३०६ पथ्यादि योग: ४३३३ पारद गुटिका "" " ४३८६ पारदादि योग: मुख्य गुण वाजीकरण | रसायन । अत्यन्त वाजीकरण | 19 " "7 "7 लिङ्गवर्द्धक | अत्यन्त वाजीकरण समस्त रोग । रसायन । 99 19 31 सप्तधातु, बल, बुद्धि कान्ति रुचि और अग्नि वर्द्धक, तथा कफरोग, बन्ध्यत्व और नपुंसकता नाशक एवं रसायन । समस्त रोग । अत्युत्तम शुक्रस्तम्भ है। वृद्धावस्थाको नहीं आने देता । वृद्धावस्था । कमर में बांधने से वीर्य स्तम्भन होता है । वीर्यस्तम्भ | Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७४७]] - - - संख्या प्रयोगनाम ४४२४ पुष्पधन्वा रसः ४४२५ , , ४४२६ , " ४४३१ पूर्णचन्द्रो , मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण वाजीकरण । ४४५७ प्रमदेभाङ्कुश रसः कामिनीमद भनक, बल तथा आयु अत्यन्त स्तम्गक, वर्द्धक, अत्यन्त वा नपुंसकता नाशक । जीकरण । ४७३९ बाकुच्यादि लोहम् जरा, मृत्यु, विष । अत्यन्त वाजीकरण। ४९६६ भैरव रसः रसायन । पुष्टि, वीर्य तथा ४९७३ भोगपुरन्दरीगुटिका शुक्र स्तम्भक, अअग्नि वर्द्धक एवं त्यन्त वाजीकरण पित्तरोग और कृ तथा बलमांस वर्द्धक शता नाशक । मिश्र-प्रकरणम् दुर्बल मनुष्यको १ | ३३४० धात्री योगः रसायन । मासमें ही बलवान : ४५११ पीलु रसायनम् । अर्श, ग्रहणी, गुल्म, बना देता है। आदिमें अमृतोपमा बल्य, रसायन, वा- ४५३८ फलद्रावः वाजीकरण । जीकर ४४३२ , , ४४३३ , " ४५३९ ॥ (४२) राजयक्ष्माधिकारः कषाय-प्रकरणम् ३२६० धान्यकादि काथः पार्श्व पीड़ा, ज्वर, श्वास । २८३७ दशमूलादि काथः खांसी, ज्वर, क्षय, ३८३३ पिप्पल्यादि कषायः पसली शूल, ज्वर, निर्बलता। श्वास। २८४३ दशमूलादिपञ्च | ४५४९ बलादि कल्कः क्षतक्षय । दशाङ्गः क्षय, खांसी; पसली, चूर्ण-प्रकरणम् कन्धे और शिरकी २९८४ द्राक्षादि चूर्णम् ज्वर, खांसी, शोथ। पीड़ा। २९८८ , , कृशता, शोष, क्षय, २९३३ द्राक्षा रसादियोगः रक्तपित, क्षतक्षय, रक्तपित्त, अग्निखांसी। मांध । For Private And Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७४८] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी थकान। संख्या प्रयोगनाम मुख्यगुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण २९८९ द्राक्षादिचूर्णम् दाह, पित्त, छर्दि, वातपित्त ज्वर, रक्त मूर्छा, अरुचि, क्षय पित्त, राजयक्ष्मा । तृष्णा, श्वास । ३२९३ धात्र्यादि घृतम् राजयक्ष्मा, रक्तपित्त ३४१७ नागबला योगः क्षय। खांसी, अपस्मार । ४६१९ बलादि चूर्णम् क्षय, जीर्णज्वर, शि | ३४९० निर्गुण्डी , क्षतक्षय, शोष। रशूल, पित्तविकार, ४०६७ पध्याय , क्षतक्षय । रुधिर क्षय, श्वास, इन्द्रियोंकी क्षीणता, ४०७९ पाराशरं , उपद्रव युक्त राज मार्गचलने या अ यक्ष्मा । धिक श्रमसे उत्पन्न ४०८० , राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, पाण्डु, अर्श। ४०८८ पिप्पल्याचं , क्षय, खांसी। ४१०१ पुनर्नवाचं , शोष । अवलेह-प्रकरणम् ४६६० बलाचं , उरःक्षत । खांसी, ३०१८ दशमूल हरीतकी बलि, पलित, खांसी, हृद्रोग। क्षय, ज्वर, हिचकी, ४६६१ , " राजयक्ष्मा, स्वरभंगा ग्रहणी, अरुचि। | ४६६३ , , क्षय, खांसी, ज्वर, ३०३० द्राक्षाधवलेहः पित्तज खांसी, क्षय, शिरशूल, पार्श्व शूल । ३४६२ नवनीतावलेहः क्षयके रोगीको पुष्ट करता है। आसवारिष्ट-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ३१२२ दशमूलासवः धातुक्षय, खांसी, ३०५० दशमूलाचं घृतम् शिर, पसली और श्वास, अरुचि,शूल, शरीरकी पीड़ा, खां शोथ, वमन । सी, श्वास, ज्वर, ३१२८ द्राक्षारिष्टः राजयक्ष्मा, खांसी, स्वरभेद, क्षय । श्वास, उरःक्षत । ३०६९ द्राक्षा , क्षीणता, श्वास, | ४१४८ पञ्चसायकः हर प्रकारका क्षया For Private And Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४१५३ पिप्पल्यरिष्टः ४१५८ पुष्करमूलासवः ४६९८ बब्बूल्यासवः भृङ्गराजासवः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ४१५२ पिप्पलीमूलाद्योऽरिष्टः क्षय, खांसी, ज्वर, तिल्ली, अग्निमांद्य । ४७०७ बल्यादि लेपः लेप-प्रकरणम् ३१९६ दरदेश्वरो रसः ३२०८ दिव्यामृत रसः ३६०९ नवायस चूर्णम् (वृहत् ) www.kobatirth.org चिकित्सा - क्षय, ज्वर, खांसी, अरुचि । क्षय, खांसी, शोथ । रस-प्रकरणम् - पथ-प्रदर्शिनी क्षय, खांसी, श्वास । क्षय, खांसी और कृ तथा शतानाशक अत्यन्त बलवर्द्धक | राजयक्ष्मा में होने वाला शिरशूल, पार्श्वशूल, अंशशूल । क्षय, खांसी आदि श्वास, खांसी, क्षय, ज्वरादि । अग्निमांध, ग्रहणी | राजयक्ष्मा । क्षय, खांसी, श्वास, ज्वर, शोथ, संख्या प्रयोगनाम ३६६० नीलकण्ठ रसः ४२८२ पञ्चामृत पर्पटी ( भैरव नाथी ) ४२८६ पञ्चामृत रसः ४२८८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " " 39 "" ४२९२ ४४३० पूर्णचन्द्रो रसः ४४७५ प्राणदा पर्पटी ४४७६ प्राणनाथ रसः ४४७७ प्राणनाथ रसः For Private And Personal Use Only ४४७९ प्राणी कल्पद्रुम गोल रसः ४९४७ भास्करो रसः [ ७४९ ] मुख्य गुण राजयक्ष्मा । सम्पूर्णलक्षणयुक्त क्षय, श्वास, खांसी, छर्दि, प्रसेक, अरुचि । राजयक्ष्मा, खांसी, श्वास, अग्निमांद्य, शिरोरोग | त्रिदोषज, क्षय, खांसी, ज्वर । राजयक्ष्मा । राजयक्ष्मा, पित्तज्वर, शोष, पाण्डु । अतिसार, ज्वर, खांसी, यक्ष्मा, अग्निमांध | दुस्साध्य राजयक्ष्मा, शोथ, ग्रहणी, ज्वर । राजयक्ष्मा, शोष, ज्वर, ग्रहणी आदि । क्षय, शोष, पित्तरोग, खांसी, श्वा सादि । राजयक्ष्मा, कफ, वायु । Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५० ] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी (४३) वातरक्ताधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् २८२६ दशमूलक्षीरयोगः वातरक्तकी पीड़ा । ३०८२ दशपाकबलातैलम् वातरक्त, वातपित्त । ३२४९ धान्यादि क्वाथः वातरक्त । ३३०३ धतूराचं ॥ ३४४९ नवकार्षिक , वातरक्त, कुष्ठ, पामा, ३४९९ नागबला , लाल चाठे, कपा | ४११५ पद्मक तैलम् लिका कुष्ठ । (खुड्डाक) वातरक्त। ३७५५ पटोलादि काथः पित्ताधिक वातरक्ता ४११६ पनकतैलम् वातरक्त, ज्वर। चूर्ण-प्रकरणम् ४१२३ पिण्ड तैलम् २९७४ देवदाली प्रयोगः वातरक्त, कुष्ठ, भ- (महा) गलित स्फुटित भगन्दर । यङ्कर वातरक्त, कुष्ठ, ३४१० नवक्षारकं चूर्णम् वातरक्त, अरुचि । । विसर्प । ३४४३ निम्बादि , भयङ्कर वातरक्त, ४१२४ " , वातरक्त। (महा) लेप-प्रकरणम् | ३५२९ नवनीतादि लेपः शरीरका फूटना । गुग्गुलु-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ४०१२ पुनर्नवा गुग्गुलुः वातरक्त, वृद्धि ३२२० द्वादशायसः वातरक्त, गलत्कुष्ठ, घृत-प्रकरणम् शोथ,कण्डू, अग्निमां. ३०७४ द्राक्षादि घृतम् वातरक्त । । ४२९१ पश्चामृत रसः वातरक्त । ४०८१ पारूषकं , वातरक्त,ज्वर,विसर्प। For Private And Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेह । चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७५१] (४४) वातव्याध्याधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोग नाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् गुटिका-प्रकरणम् २८१७ दध्यम्ल प्रयोगः अपतानक । | ३००१ दशसार वटी समस्त वातज रोग। २८२१ दन्त्यादि योगः ऊरुस्तम्भ । ४००४ प्रभावती वटिका हर्षवात, गुल्म, प्र२८२९ दशमूलादिकषायः विश्वाची, अपबाहुक २८३६ , काथः गृध्रसी, खञ्जवात, . ४६४० बल्लितर्वादिगुटिका सर्वाङ्ग वायु । पछुता। ४८५३ भुजङ्गी गुटिका समस्त वातजरोग। २८५१ दशमूल्यादि , मिन्मिन्वात । ३७०१ पञ्चमूली कषायः गृध्रसी, शूल, गुल्म। गुग्गुलु-प्रकरणम् ३७०३ , काथः मन्यास्तम्भ । ३०१२ द्वात्रिंशको गुग्गुलुः गृध्रसी, पक्षाघात, ३०१२ । ३७१० पश्चमूल्यादिक्षीरम् वातव्याधि ।। आम, उदावर्त, ३८३८ पिप्पल्यादि काथः ऊरुस्तम्भ । अन्त्रवृद्धि । ३८५१ पुनर्नवादि , | ४००८ पक्षाघातारि गुग्गुलः वातव्याधि, पक्षा४५५१ बलादि काथः बाहुशोष, मन्यास्त घात । म्भ । ४०११ पथ्यादि गुग्गुलुः गृध्रसी, नवीन खज४५५५ , , बाहुशोष नाशक वात, कष्टसाध्य नस्य । प्लीहा । ४७८३ भल्लातकादिकाथः कष्ट साध्य ऊरु-४६४५ बिल्वाद्यो गुग्गुलुः वातकफज रोग । स्तम्भ । ४७८५ भल्लातकादि योगः ऊरुस्तम्भ । घृत-प्रकरणम् ३०४० दशमूल घृतम् वातव्याधि । चूर्ण-प्रकरणम् ३०४५ दशमूलादि , ३४२१ नागरादि चूर्णम् २१ दिनमें समस्त | वातज रोग नष्ट ३४७५ नागर , वातकफ, कटिशूल, होते हैं। आमशूल । ३८९० पत्रलवणम् वातव्याधि । । ४०५३ पश्चतिक्तकं, ऊर्ध्वजत्रुगत वात. ३९३७ पिचुमन्दायुद्वर्तनम् ऊरुस्तम्भ । रोग, सन्धि अस्थि, मज्जागत वायु । For Private And Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५२] चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ४०९२ पिप्पल्यायं घृतम् पार्श्वशूल, कटिशूल, । ४१२८ पीलुपाचं तैलम् ऊरुस्तम्भ । ठोडीका रह जाना। ४१३२ पुष्पराजप्रसारणी ,, भग्न, अस्थि, ख४८७४ भल्लातकाचं , खल्ली शूल । . अता, पङ्गुता, हनु ग्रह । तैल-प्रकरणम् ४१३७ प्रसारणि समस्त वातव्याधि। ३०९३ दशमूलादि तैलम् वातव्याधि । । ३०९५ दशमूलाधं , अर्दित । , कफरोग, समस्त ३०९६ दशमूलाचं , समस्त वातव्याधि । वातव्याधि । ३०९७ दशाङ्ग . , आक्षेपक, हनुस्तम्भ, ४१२९ " एकाङ्ग तथा सर्वाङ्ग अपतन्त्रक, अर्दित, ग्रह, त्वचागत वायु अपबाहुक, पक्षा और अन्य समस्त घातादि । वातव्याधि। ३०९८ दशाङ्ग , समस्त वातव्याधि, | ४१४० " समस्त वातव्याधि, विशेषतः अपस्मार, विशेषतः हनुस्तम्भ, उन्माद, गूंगापन, जिहास्तम्भ, अर्दित, गद्गदतो। मन्यास्तम्भ । ३११६ द्विपश्चमूलाधं तैलम् पुराना ऊरुस्तम्भ, खुडवातादि । हृदय और शिरके ३५०१ नारायण तैलम् वातव्याधि, अपस्मा रोग, पक्षाघात, रादि अनेक रोग। अङ्गेका सूख जाना ३५०२ , " इत्यादि । (मध्यम) गृध्रसि, अस्थिभन्न, मन्यास्तम्भ इत्यादि। त्वचा, शिरा और ३५०३ , " " समस्त भयङ्कर सन्धिगतवायु; अपवातव्याधि । स्मार, उन्माद। ३५०४ " " __ (महा) मनुष्य और पशु- ४१४३ ॥ समस्त वातव्याधि, ओंके समस्त वातज वातकफजरोग, कुरोग। ब्जता, अङ्गका ३५१० निर्गुण्डी तैलम् वातव्याधि । सङ्कुचित हो जाना ४१०८ पञ्चमूलाचं , कफान्वित वात । आदि। पक्षाघात, हनुस्तम्भ, ४१४२ " For Private And Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - रस चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७५३] प्रयोगनाम मुख्य गुण । संस्था प्रयोगमाम मुख्य गुण ४१४४ प्रसारणी तैलम् सन्धि शिरागत वायु रस-प्रकरणम् ४६८१ बला , समस्त वातव्याधि। ४६८३ धातुगत वायु। ३१९५ दरदादिवटी समस्त वातव्याधि। ४६८५ , , समस्त वातव्याधि, । ३६२४ नागरसायनम् ८८० प्रकारके वातधातुक्षीणता, भग्न रोग, विशेषतः आदि । ४६८५ बलादि , समस्त वातजरोग । धनुर्वात । ४२७० पञ्चाननवटी आमवात, वात. ___ आसवारिष्ट-प्रकरणम् व्याधि । ४६९९ बलारिष्टः प्रबल वातव्याधि नाशक तथा बल | ४२९९ पञ्चामृतलोह पुष्टि और अग्नि गुग्गुलुः वातव्याधि, स्नायुवर्द्धक। रोग, मस्तिष्क रोग लेप-प्रकरणम् ४४१३ पिष्टी रसः अर्दित, कम्पवात, ३५३३ नारीपयसादिप्रयोगः जानु और बाहुगत दाह, सन्ताप, पिवायु। तज मूर्छा । . (४५) विद्रधि गलगण्ड गण्डमाला तथा ग्रन्थ्यधिकारः कराय-प्रकरणम् तेल-प्रकरणम् ३८५५ पुनर्नवादि काथः वातज चिद्रधि । ३११५ द्विपश्चमूली तैलम् विद्रधि, गुल्म । __ चूर्ण-प्रकरणम् ३५२३ नील्यादि , कक्षाग्रन्थि, विधि । ३४४४ निर्गुण्ड्याचे ४१४५ प्रियङ्ग्वार्थ , विद्रधि, व्रण । वमनम् अपची। ४५३१ फणिज्जका , कण्ठमाला, गल४९३० पाठामूल योगः भयङ्कर अन्तरविद्रधिा " गण्ड, गलग्रन्थि । ४८३९ भूनिम्बाय चूर्णम् विदधि । For Private And Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण लेप-प्रकरणम् | ४७१८ ब्रह्मदण्डी योगः स्फुटित गण्डमाला । ३१३६ दन्तीमूलादि लेपः प्रन्थिको फाडता ४९०९ भल्लातकादि लेपः गण्डमाला । ३१३७ दन्त्यादि , ३१५० देवदादि , ३५३४ निचुलादि , ४१८२ पलाशादि " पक्व और शोथ नस्य-प्रकरणम् युक्त अन्तर विद्रधि । ३५९६ निर्गुण्डीमूलनस्यम् गण्डमाला । कफज गलगण्ड । गलगण्ड । । मिश्र-प्रकरणम् " ४५१५ पूपलिका योगः अपची । (४६) विषाधिकारः कषाय-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ३२३५ धत्तूरयोगः उन्मत्त कुत्तेका | ३४७४ नागदन्त्याचं घृतम् कीटविष, मूलविष, गरविष । विष । ३४०४ नीलनीमूल कल्कः मण्डलीक सर्पका विष । तैल-प्रकरणम् ३८५५ पुनर्नवा योगः एकबार सेवन कर- ३१०५ दीपतैलाभ्यङ्गः कानखजूरेका विष। नेसे १ वर्ष तक सर्प और बिच्छू लेप-प्रकरणम् नहीं काटता। ३१५७ द्विनिशादि लेपः दन्त और नखविष । ३५३० नवसादरादि , बिच्छूका विष । चूर्ण-प्रकरणम् ४१६३ पश्चशिरीष , समस्त प्रकारके ३९७० पिप्पल्यायोऽगदः दूषी विष। विष । ३९७५ पुत्रजीवमज्जायोगः उग्र दूषी विष । ४१८० पलाशबीजादि , बिच्छूका विष । ४६३१ बिल्व प्रयोगः मूषक-विष । ४१९१ पिण्डीतगरमूल योगः . सर्पदंशपर लेप - For Private And Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संख्या प्रयोगनाम धूप-प्रकरणम् ३१६० दशाङ्ग धूपः ४९१९ भृङ्गविषनाशकलेपः भरेका विष । ३५७२ नक्तमालाद्यञ्जनम् ३५८३ नागार्जुनी गुटिका ४२३० पिण्डीतगराञ्जनम् www.kobatirth.org मुख्य गुण करने से मृत्प्रायः रोगी को भी चेत आ है । अञ्जन-प्रकरणम् ४७२६ बिल्वादि योग: चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी संख्या समस्त प्रकारके विष । विषकी बेहोशी । बिच्छूका विष । सर्पदंशसे • मृत्प्रायः रोगीको भी सचेत कर देता है। कषाय-प्रकरणम् २८८२ दुरालभादिकषायः तृष्णा, विसर्प । २९३१ द्राक्षादिशोधन योगः विसर्प (रेचक योग है । ) " प्रयोगनाम नस्य-प्रकरणम् ३५९२ नवसादरचूर्णयोगः बिच्छूका विष । ४९५३ भीमरुद्रो रसः ४९५४ (४७) विसर्पाधिकारः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४९५ पञ्चशिरीषोऽगदः सर्प, बिच्छू, चूहे और मकड़ीका विष । ४५०३ पारावत पुरीषादि रस-प्रकरणम् ३२२९ दशाङ्गागदः ३२३४ द्राक्षाद्यगदः 19 ܙܕ " For Private And Personal Use Only मिश्र-प्रकरणम् ३७२२ पटोलादि काथः ३७४१ पटोलादि काथः ३७४२ ३७५१ 27 " मुख्य गुण अलर्क विष । सर्पदंश तथा विष भक्षण से उत्पन्न मूर्च्छा । चर [ ७६५ ] समस्त कीट वष । सर्व प्रकार के विष, विशेषतः मण्डलीक सर्पका विष । योगः बिच्छूका विष । विष । "" तथा अचर पित्तज, कफज और विषजन्य विसर्प, विस्फोटक । विसर्प | 27 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [७५६] ख्वा ३७६७ पटोलादि वमन प्रयोग नाम ३०६४ दूर्वादि घृतम् घृत-मकरणम् ४०६९ पद्मकाचं ३१४१ दशाङ्ग लेपः ३५२७ नलादि "" लेप-प्रकरणम् " काथः २८३५ २८८८ दुरालभादिकाथः विसर्प | " " २८८९ १९२२ द्राक्षादि काथः कषाय-प्रकरणम् २९३६ द्वादशाङ्ग काथः www.kobatirth.org चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी मुख्य गुण शोफयुक्त विसर्प, ज्वर, दाह, पाक, विस्फोटक | विसर्प, विषैले जन्तुओंका दंश, मकड़ीका विष २८३० दशमूलादिकषायः त्रिदोषज विस्फो टक। वातज पित्तकफज मसू रिका | विस्फोटक । विसर्प, व्रणशोथ । विसर्प । 39 उपद्रव सहित पि तज विस्फोटक | द्वन्द्वज, त्रिदोषज और रक्तज विस्फोटक | संख्या प्रयोगनाम ३५५८ न्यग्रोधादि लेपः ३५६० 99 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१६२ पश्चवल्कलादिलेपः ४१७२ पद्मकादि ४१७४ पद्मिनी पङ्कादि ४२०७ प्रपौण्डरीकादि" (४८) विस्फोटक मसूरिका धिकारः ३३६३ नागरादि काथः ३३८५ निम्बादि ३३८७ ४२०९ प्रपौण्डरीकादि ४२१० 97 ४७०६ बलादि 17 " "" ३३९१ ३४०२ निशादि For Private And Personal Use Only " "" 39 "3 " " 39 " "" " ३६९७ पश्चमूलादि काथः ३७१६ पटोल मूलादि " मुख्य गुण प्रन्थिविसर्प । दाह, पाक, पीड़ा, tara और शोथ युक्त आगन्तुक तथा रक्त विसर्प । अत्यन्त दाह युक्त अग्निविसर्प । विसर्प, दाह पित्त विसर्प | दाहयुक्त विसर्प, शोथ, विस्फोटक । पित्तज विसर्प । 77 ग्रन्थि " 37 वातकफज मसूरिका पीपयुक्त मसूरिकाको धोनेका योग । पित्तज तथा रक्तज मसूरी । अपक विस्फोटक | मसूरिका, विस्फ़ो. टक, रोमान्तिका, वमन, ज्वर । कफज मसूरिका । मसूरिका । Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकिस्सा-पय-प्रदर्शिनी [७५७] संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण ३७२६ पटोलादि काथः अपक मसूरिका को ४६२१ बादरचूर्ण सोगः मसूरिकाको शीघ्र शान्त और पक्कको पकाता है। शुद्ध करता है। विस्फोटक ज्वर में घृत-प्रकरणम् अत्यन्त उपयोगी। | ४.५५, पञ्चतिक्तकं घृतम् त्रिदोषज विस्फोटक ३७६२ , , विस्फोटकवर । विसर्प, खुजली। ३७६३ , , विस्फोटक, दुष्टत्रण विसर्प। लेप-प्रकरणम् ४७९९ भूनिम्बादिकषायः सर्व प्रकारके विस्फो |३५५० निशादि लेपः रोमान्तिका, विस्फो टक । टक। ४८०० , काथः विस्फोटक, दाह, ३५५९ न्यग्रोधादि , वातज मसूरिका । ज्वर, मुखशाष, वमन, तृषा । रस-प्रकरणम् ४८०८ , , कफज .विस्फोटक ३२१६ दुर्लभो रसः मसूरिका । ४८०९ , , मसूरिका । ४८१० , सप्तकः दुःखदायी शीतला । मिश्र-प्रकरणम् | ३३४३ धात्र्यादि गण्डूषः मसूरिकामें होनेवाले चूर्ण-प्रकरणम् मुख तथा कण्ठ के ३८८५ पश्चवल्कल चूर्णम् पीपयुक्त मसूरिका । । घाव। (१९) वृद्धयधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् २९६४ दार्वी चूर्णम् अण्डवृद्धि । ४१६१ पञ्चवल्कलादिलेपः पित्तज अण्डवृद्धि। ३९०५ पथ्यादि चूर्णम् वृद्धि । ४१९४ पिप्पल्यादि , अन्त्रवृद्धि । ४१९८ पुनर्नवादि , वृद्धि, शूल । तैल-प्रकरणम् ४७१९ ब्राह्मणयष्टिकादि, कुरण्ड रोग । ३११३ द्विजीरका तैलम् अण्डवृद्धि । ४९१२ भार्यादि अण्डवृद्धि गण्ड माला। For Private And Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५८ ] चिकित्सा-पथ-प्रदविनी संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण । संख्या प्रयागनाम रस-प्रकरणम् ४९३६ भक्तोत्तर चूर्णम् अन्त्रवृद्धि, भयंकर वातज वृद्धि, उदर रोग, शूल। (५०) प्रणाधिकारः कषाय-प्रकरणम् | ३५१३ निर्गुण्डी तैलम् दुष्ट नाडी व्रण, अ. २८१२ दण्डोत्पला स्वरसः शस्त्रका घाव ।। पची, विस्फोटका २८४७ दशमूलावसेचनम् ब्रणप्रक्षाला योग है। ४११३ पटोली , अग्निदग्ध व्रणकी ३४०९ न्यग्रोधादि गणः वण, भग्न, दाह । पीड़ा, स्राव, दाह । ३७४४ पटोलादि काथः धावको शुद्ध करता | ४१३४ प्रपौण्डरीकाचं तैलम् व्रण रोपण । और भरता है। ४८८३ भल्लातक तैलम् ब्रण, नाडीप्रण; क फवातज अपची। चूर्ण-प्रकरणम् | ४८८९ भूधात्र्यादि , दुष्ट, स्रावयुक्त और ३८८६ पश्चवल्कलादिचूर्णम् घावको भरता है। छोटे छिद्र वाले पु३९९१ प्रियङ्ग्यादि " , " राने घाव । गुग्गुलु-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् ३०१० दशक गुग्गुलुः अण,वातरक्त,सूजन ।। जन ३१३३ दग्धयवादि लेपः अग्निदग्ध व्रण । ३१४६ दूर्वादि , घावोंका पित्तन घृत-प्रकरणम् शोथ । ३०६१ दाादि घृतम् अण रोपण । ३१५४ द्राक्षादि , व्रणशोधक | ३०६३ दूर्वादि , " " ४१०६ प्रपौण्डरीकार्य घृतम् , , ३३११ धत्तूरपत्रादि । व्रणशोथ । ३३१३ धातकी चूर्ण , अग्निदग्ध व्रण, मर्मतैल-प्रकरणम् स्थानोंका दुष्ट नाड़ी ३१०८ दूर्वादि तैलम् अण रोपण। व्रण, विसर्प, खता ३११२ द्रवन्त्यादि , व्रण शोधक । विष । For Private And Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७५९] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३५३७ निम्बदलादि लेपः व्रण शोधक,रोपण । धूप-प्रकरणम् ३५३८ निम्बपत्र प्रयोगः ३५६६ निम्बादि धूपः व्रणके कृमि, कण्डू, ३५३९ निम्बपत्रादि योगः पीडा ॥ ॥ | ३५७० निर्गुण्ड्यादि धूपः दुष्ट पीडायुक्त ३५४० " " " " विषमव्रण, भगन्दर। ३५४१ , , , " ३५४३ निम्बादि लेपः व्रणके कृमि । रस-प्रकरणम् ३५६१ न्यग्रोधादि , व्रणशोथ। ३१९२ दरद गुटिका नाडीव्रण, धावसे रक्त ४१८६ पारदादिमलहरम् व्रणरोपण। या मवाद आना, घाव के कृमि, विच४१८७ , , व्रण शोधक, रोपण, र्चिका, पुराना घाव नाडीव्रणनाशक । इत्यादि। ४१९६ पुत्रजीवकादि लेपः वेदनायुक्त काले फोड़े, विषैले फोड़े, कक्षा मिश्र-प्रकरणम् प्रन्थि, गलेकी गांठ। ३६८२ निम्बादि वर्ति : शोधन रोपण। ४७२० ब्राह्मयादि लेपः व्रणके स्थानपर बाल । ४५१७ प्रतिसारणीय क्षार : व्रणको फोड़ता है। उगाता है। ४७६२ बदरीफल त्वगादि नाड़ी व्रण । वर्तिः (५१) शिरोरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् गुग्गुलु-प्रकरणम् ३२५१ धात्र्यादि काथः भूशूल, शाकशूल, २४ | ३४६१ निम्बादि गुग्गुलः वातकफज भयङ्कर शिरपीड़ा । अविभेदक, सूर्यावर्त तथा नेत्ररोग। घृत-मकरणम् | ३०६६ देवदादि घृतम् शिर, भू, ललाट For Private And Personal Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७६०] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण और शंख प्रदेशकी | ३५२१ नीलोत्पलादि तैलम् शिरपीड़ा, पलित । पीड़ा; आधासीसी। ४१३५ प्रपौण्डरीकार्य , समस्त शिरोरोग । ४६८७ बलाचं यमकम् समस्त ऊर्ध्व जनतैल-प्रकरणम् गत रोग (नस्य)। ४८९१ भृङ्गराज तैलम् भयङ्कर शिरशल, ३०८३ दशमूल तैलम् कफज, सन्निपातज शंखक, आधाशीतथा वातकफज भ शी, भौंका बर्द। यहर शिरशूल, मे- ४८९२ , पलित। ऋशूल। ४८९३ इन्द्रलुप्त । ३०८४ , " कफवातज शरोरोग ४८९४ पलित। ३.८७ सन्निपातज , ४८९६ दारुण, पलित, ३०८८ पातकफज शिरोरो इन्द्रलप्त, कण्डू। ग, शोथ, मन्या- ४८९९ बालोंका गिरना,शिस्तम्भ । रशूल, मन्यास्तम्भ, वातज, पित्तज तथा खालिस्य, दारुण। कफज शिरशूल, ४९०० , " दारुणको नष्ट और सूर्यावर्त, जलदोषज बालों को काले, घने शिरोरोग। आर धुंघराले कर३११७ द्विहरिद्रायं तैलम् अरुषिका । ३३०७ धुस्तूर , शिरशूल, दाह, स लेप-प्रकरणम् न्निपातज्वर । ३५०७ निम्बतैलप्रयोगः इसकी नस्यसे बहुत ३१४४ दाादि लेपः शंखक । पुराना पलित रोग ३१७९ देव दादि , शिरपीड़ा । नष्ट हो जाता है। ३३१४ धात्री कसेरवादि, पित्तज शिरपीड़ा, नकसीर । ३५०८ निम्बबीजतैलम् पलित रोगको समूल ३३१५ धात्रों फलायो , दारुण। नष्ट करता है (नस्य) ३३१९ धाश्यादि लेपः पलित । ३५१५ निर्गुण्ड्यादि , समस्त शिरशूल। ३५३६ निम्ब जलादि , अरूंषिका । ३५२० नोली तैलम् पलित । । ३५५२ नीलाब्ज केसरादि, दारण। For Private And Personal Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७६१] - - - संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण ३५५५ नीलोत्पलायो लेपः खालित्य । नस्य-प्रकरणम् ३५५६ नील्यादि , पलित । (खिजाब) ३१८१ दशमूल्यादिनस्यम् आधासीसी, शिर४१६८ पथ्यादि , शूल, सूर्यावर्त । ४१८५ पारद , शिरकी जू (यूका), | ३१८३ दाडिमादि , शिरशूल । लिक्षा। ३५९२ नवसादरचूर्णयोगः वातकफज शिरशूल । ४१९२ पिण्याकादि ,, अरुषिका। ३५९४ नागरादि नस्यम् तीव्रतर शिर पीड़ा। ४२१२ प्रियालादि , दारुण । | ४२४९ पलितनाशकनस्यम् सैकड़ों औषधेसे न ४७०१ बदरीमूलादियागः शिरपीड़ा । आराम होने वाला ४७०५ बलादि लेपः । शंखक, अनन्तवात। पलित । ४७१५ बृहत्यादि । इन्द्र लुप्त । ४२५१ पिप्पल्यादिनस्यम् शिरशूल ४९०३ भद्रादि , शंखक । ४२५३ पिप्पल्याचं , , १९०७ भल्लातकादि , इन्द्रलुप्त । ४२५५ पूतिकरायोऽवपीडः कृमि । ४९२० भृङ्गादि ४९३२ भृङ्गराजादिनस्यम् सूर्यावर्त । (५२) शीतपित्ताधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् ३४४० निम्बयोगः शीत पित्त, कोठ, ३१४५ दूर्वादि लेपः शीत पित्त, पामा, कण्डू। कृमि। तैल-प्रकरणम् ३१०२ दादि तैलम् शीत पित्त । For Private And Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७६२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी (५३) शूलाधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगमाम मुरुग गुण कषाय-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् २८६४ दादि काथः वातकफशूल, आम, २९४५ दन्त्यादि चूर्णम् विरेचन होकर परिमलावरोध । णाम शूल नष्ट होता २८७८ दुरालभादि कल्कः वातपित्तज शूल । २९२४ द्राक्षादि काथः पित्तकफज , | २९५४ दाडिमादि , पित्तज शूल । ३२५४ धात्र्यादि प्रयोगः पित्तशूल । २९६६ दीप्यकादि , शूल, मन्दाग्नि । ३३५३ नागरादि कल्कः परिणाम शूल । ३२७३ धात्री चूर्णम् पित्तज शूल। ३३६१ नागरादि काथः शूलको ३ दिनमें न ३८९५ पथ्यादि चूर्णम् कफज शूल। ष्ट करता है। ३९०२ , , वातज, कफज और ३३६५ , , वातज शूल ।। आम जन्य शूल। ३३७६ निदिग्धिकादि , शूल। ३९०४ , " वातज शूल। ३७५४ पटोलादि , पित्तकफज शूल। । ३९४१ पिप्पलीमूलादि ३७७५ पथ्यादि , आम, कफज शूल । प्रयोगः | ४६३५ बिल्वादि चूर्णम् शूलको तुरन्त नष्ट ३८५४ पुनर्नवादि स्वेदः वातज शूल। करता है ४५५४ बलादि काथः " " . ४६३७ बीजपूर , वातज शूल । ४५७४ बिल्वादि , . कफज , ४५९४ बीजपूररसयोगः दारुणहृच्छूल । गुटिका-प्रकरणम् ४५९६ बीजपूरस्वरसयोगः पसली, बस्ति और । ४६४१ बिल्वादि गुटिका वातज शूल । हृदय का शूल, को. ष्ठकी वायु । अवलेह-मकरणम् ४६०१ बृहत्यादि काथः भयङ्कर पित्तज श ३४६९ नारिकेल खण्डः शूल, वमन, अम्ललको तुरन्त नष्ट करता है। पित्त, अरुचि, ३४७० नारिकेलखण्डपाकः परिणाम शूल । शूल। For Private And Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पय-प्रदशिनी [७६३] - - संख्या प्रयोगनाम संख्या प्रयोगनाम ३४७२ नारिकेलामृतम् मयंकर शूल, अम्लपित्त, परिणाम शूल, अन्नद्रव शूल। शूल, अजीर्ण, अम्लपित्त,तृषा,कब्ज। ३३३१ धात्री लोहम् मुख्य गुण शूल, परिणाम शूल, अम्लपित्त । कष्ट साध्य शूल, अम्लपित्त। वातज शूल। त्रिदोषज परिणाम १०३८ पूग खण्डः ४२६९ पश्चात्मको रसः ४३०७ पथ्यादि लोहम् घृत-प्रकरणम् शूल, ग्रहणी, गुल्म। ३०५८ दाधिकं घृतम् ४३२७ पानीयभक्तवटी हृदय शूल, पार्श्व ४३३४ पारद द्रुतिः . शूल, गुल्म । शूल, योनिशूल, ४४१४ पीडाभञ्जी रसः आमशूल, विशेषतः गुल्म । कृमिशूल । १०८४ पिप्पली , परिणाम शूल। ४४२२ पुनर्नवादिमण्डूरम् परिणाम शूल । ४६७१ बीजपूरा , शूल, यकृष्छूल, पा १९५२ भीममण्डूर वटकः ॥ " वशूल, गुल्म। ४९६२ भूदारो रसः वातज शूल । रस-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ३३२८ धात्रीफलाविचूर्णम् पित्तज शूल। ३६७५ नारिकेल योगः परिणाम शूल । ३३३० धात्री लोहम् समस्त प्रकार के | ४४९१ पञ्चकोलसिद्धपेया कफज शूल । (५४) शोथाधिकारः कषाय-प्रकरणम् पैरोका रक्ताश्रित शोथ । २८६३ दादि कल्कः सर्व शोथ । २८९४ देवदारु-क्षीरम् शोथ। | ३८२६ पिप्पली मूलादि २९०३ देवद्रुमादियोगः शोथोदर, उदर के काथः कफज शोथ । कृमि । ३८४३ पुनर्नवादि कल्कः ३७५६ पटोलादि काथः पित्तजशोथ, तृष्णा, . ३८४९ , काथः शोथ । ज्वर। ३८५० , " शोथोदर, पाण्ड, ३७७० पथ्यादि कषायः उदर और हाथ । स्थूलता। For Private And Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - [७६४] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३८५२ पुनर्नवादि काथः सर्वाङ्ग शोथ, उदर, ४०३५ पुनर्नवादि लेहः कफज शोथ, श्वास, खांसी, शूल । खांसी, अरुचि। ३८५३ , स्वेदः शोथ । ३८५६ पुनर्नवाष्टकम् सर्वाङ्ग शोथ, उदर, घृत-प्रकरणम् पाण्डु । ३८६४ पूतिकरअरसयोगः कफपित्तज शोथ ।। ४०४७ पञ्चकोलायं धृतम् शोथ । ३८७२ पृश्निपादिश्रुतम् पित्तज शोथ ।। ४०६१ पटोलमूलादि , शोथ, दाह, विसर्प ४५६७ बिल्वपत्ररसादि विष । योगः त्रिदोषज शाथ, ४०९६ पुणर्नवा , शोथ । मलावरोध । ४०९८ पुनर्नवादि , ४७९७ भूनिम्बादि कल्कः सर्वाङ्गशोथ । । ४०९९ , , वातज शोथ । ४१०० पुनर्नवायं , कष्टसाध्य शोथ । चूर्ण-प्रकरणम् भयङ्कर शोथ,प्लीहा, २९४७ दशमूलादि चूर्णम् शोथ। गुल्म । २९६३ दादि योगः समस्त शोथ । २९७१ देवदादि चूर्णम् शोथ । तैल-प्रकरणम् ३९२५ पाठाचं , त्रिदोषज पुराना | शोथ। ३०८६ दशमूल तैलम् भयङ्कर शोथ, श्वास, ज्वर खांसी ३९६६ पिप्पल्या , शोथ । ३९७७ पुनर्नवादि , सर्वाङ्ग शोथ । आठ ४१०९ पञ्चमूलाधं , भयङ्कर वातकफज शोथको ३ दिनमें प्रकारके उदररोग। नष्ट करता है। गुग्गुलु-प्रकरणम् ४१२९ पुनर्णवादि, शोथोदर, जीर्णज्वर ४०१३ पुनर्नवादि गुग्गुलुः त्यग्दोष, शोथोदर, स्थौल्य, कफप्रसेका आसवारिष्ट-प्रकरणम् अवलेह-प्रकरणम् ४१५६ पुनर्नवासवः प्रवृद्ध शोथ, पाण्डु ३०१९ दशमूल हरीतकी भयङ्कर शोथ । उदर, संग्रहणी। ४०३४ पुनर्नवहरीतक्य ४१५७ ॥ शोथोदर, प्लीहा, वलेहः शोथ, गुल्म, उदर।। यकृत् । For Private And Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७६५] संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण लेप-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ३१५३ दोषघ्न लेपः हर प्रकारका शोथ। ३२१२ दुग्ध वटी अनेक प्रकारका शोथ, पाण्डु का३१५६ द्विनिशादि लेपः आगन्तुक तथा र मला। क्तज शोथ । | ३२१३ ॥ अनेक प्रकारका ४१६५ पटोलादि , पित्तज शोथ । शोथ, ग्रहणी, वि४१९७ पुनर्नवादि , कफवातज शोथ । षम ज्वर, मन्दाग्नि, सर्व प्रकारके शोथ। पाण्डु। ४७१२ बिभीतकादि, शोथकी दाह, पीड़ा। ३२१४ , , शोथ, संग्रहणी, जीर्णज्वर,अतिसार। ४९०४ भल्लातकशोथान्तक ४२९३ पश्चामृत रसः जलदोष जन्य भयलेपः भिलावेकी सूजन। । कर शोथ, जलोद४९०५ , " " " र तथा ज्वरातिसार युक्त शोथ। गुग्गुलुः . (५५) श्लीपदाधिकारः कषाय-मकरणम् घृत-प्रकरणम् ३८०१ पलाशमूल स्वरसः श्लीपद ३०३४ दन्ती घृतम् . दुस्साध्य श्लीपद। ३८६५ प्रतिकरारस योगः ॥ ३२९४ धात्र्यादि घृत चूर्ण-प्रकरणम् कठोर श्लीपद, स३९३८ पिण्डारक बन्धूक निपातज गण्डमाला, भयकर श्लीपद । पुराना शोथ । ३९५२ पिप्पल्यादिचूर्णम् श्लीपद, वातव्याधि ४६१४ बलादि , असाध्य श्लीपद । ३३१२ धत्तूरादि लेपः दुस्साध्य पुराना गुग्गुलु-प्रकरणम् स्लीपद १०१० पथ्यादि गुग्गुलः श्लीपद योगः भय लेप-प्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - - - प्रयोगमाम संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या रस-प्रकरणम् ३६५१ नित्यानन्द रसः कफ वातज तथा रक्त, मांस और मुख्य गुण मेदगत श्लीपद, अत्रवृद्धि (५६) श्रीरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् । ३३७३ नारिकेल पुष्पादि काथः गर्भस्राव । २८२१ दशमूल काथः सूतिका रोग। ३३९४ निम्बादि प्रयोगः कफज प्रदर। २८२५ , " " " ३३९५ , सूतिका रोगको २८२७ , दुग्धप्रयोग " " शीघ्र नष्ट करता है। २८३४ दशमूलादि काथः गर्भाशय शोधक । ३४०१ निर्गुण्ड्यादिकाथः कफवातज कष्ट २८७० दाादि , पीडायुक्त श्वेत, साध्य सूतिका रोगा लाल, पीला और ३६९६ पश्चमूल काथः सूतिका रोग। काला प्रदर। ३७३८ पटोलादि काथः अण्डाधार रोग। २८७१ , , पीडायुक्त लाल तथा दुग्धशोधक है। सफेद प्रदर। ३७७९ पथ्यादि काथः २८७६ दुग्धशोधक तथा सर्वदोषज प्रदर। वर्द्धक प्रयोगाः दुग्ध शोधक तथा ३७८८ पमकादि गण दुग्धवर्द्धक, वृष्य, वर्द्धक । वृंहण । ३७९९ पलाशपत्र योगः। इसके सेवनसे पुत्रो२८९६ देवदार्वादि काथः प्रसूताका शूल, त्पत्ति होती है। खांसी, ज्वर, तन्द्रा, मुर्छा, तृष्णा, अ ३८०३ पलाशादि काथः पीला, सफेद प्रदर, तिसार आदि अनेक पाण्ड उपद्रव। । ३८०९ पाठादि , दुग्ध शोधक। ३२४१ धातक्यादि काथः प्रदरको ३ दिनमें ३८३६ पिप्पल्यादि , वातज, पित्तज, नष्ट करता है। . कफज तथा सन्नि३२४१ धात्री रस प्रयोगः बहुमूत्र । पातज सूतिकारोग। ३२४६ धात्रीरसादिप्रयोगः योनिदाह । । ३८४० , यूषः वातज, पित्तज, कफज For Private And Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी [७६७] - - प्रात संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगनाम मुख्य भुज तथा सन्निपातज ३९१५ पलाशादिचूर्णम् योनिकी दुर्गन्ध, सूतिका रोग। पिच्छिलता, क्लेद। ३८४२ पुत्रकमारी योगः इसके सेवनसे पुत्र | ३९३२ पारायत पुरीष योगः गर्भवतीका रक्तस्राव। प्राप्ति होती है। ३९३५ पार्श्वपिप्पलादियोगः पुत्रोत्पादक। ३८७१ पृश्निपर्ष्यादिनियूहः गर्भिणीका रक्तपित्त । ३९५५ पिप्पल्यादिचूर्णम् गर्भरोधक । कामला, शोथ, | ३९५९ , , बन्ध्यत्व श्वास, खांसी, ज्वर । ३९८५ पुष्यानुग चूर्णम् । रक्तप्रदर, योनिदोष, १५२० फलत्रिकादि काथः सन्निपातज रक्त रजोदोष, प्रसूतरोग, प्रदर। योनिस्राव । ४५४७ बलादि कल्कः रक्तप्रदर । ४६०९ बदस्चूर्ण योगः । प्रदर । ४५५० , , पित्तज प्रदर। ४६१५ बलादि चूर्णम् रक्त प्रदर । ४५८४ बिल्वादि काथः योनिशूलको तुरन्त ४६१७ , , इसके प्रभावसे पुत्र नष्ट करता है। प्राप्त होता है। ४५८५ , गर्भिणीके वातज रोगा ४६१८ , , बन्ध्यत्व निवारक । ४८४१ भूमिकुष्माण्डादि चूर्ण-प्रकरणम् योगः स्तन्यवर्द्धक,पौष्टिका ३२७० धातकीपुष्पादियोगः बन्ध्यत्व । ४८४२ भूम्यामलक्यादि ३२७४ धात्रीयोगः रक्तप्रदर । चूर्णम् २-३ दिनमें ३२७७ धात्र्यादियोगः पुराना बन्ध्यत्व । भयङ्करप्रदर नष्ट हो ३४१३ नागकेसर योगः इसके सेवनसे स्त्री जाताहै। वीर पुत्रको जन्म देती है। गुटिका-प्रकरणम् ३४१४ , , श्वेत प्रदर । ३४१५ नागकेसरादियोगः गर्भस्थापकः । ४६४४ बोलवटिका क्षय, पाण्डु, प्रसूत ३४४६ नीलाब्जकन्द योगः गर्भपातजनित विकार ३४४८ नीलोत्पलादिचूर्णम् प्रदर । अवलेह-प्रकरणम् ३९११ पद्मबीजााद योगः स्तनोंको दृढ़ करता ४०१४ पश्चजीरकगुडः प्रसूतरोग,योनिरोग, शरीरकी दुर्गन्धि For Private And Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७६८] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी - इत्यादि। संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण और वातव्याधि ना- ४५३० फल घृतम् योनिशुल, योनिविशक; तथा गर्मि भ्रंश, योनिका बाणीके लिये हित हर आ जाना कारी। ४०१५ पञ्चजीरक पाकः प्रसूत रोग, योनि । ४६५७ बलादि , इसके प्रभावसे खी रोग, कृशता। गर्भ धारण कर ४०३७ पुष्करलेहः सर्व उपद्रव युक्त लेती है। पुराना प्रदर । ४८७० मदोत्कटार्य , सूतिका रोग, ग्रहणी ४८५६ भद्रोत्कटापवलेहः सूतिका रोग, भौर पाण्डका नाश अफारा। तथा दूधको शुद्ध करता है। घृत-प्रकरणम् तेल-प्रकरणम् ३२९० धात्री घृतम् सोमरोग, तृष्णा, ३१०० दाडिमाथं तैलम् स्तनांको उन्नत क. दाह, मूत्ररोग।। ३२९१ , " " | ३३०५ धातक्यादि, सूतिका रोग । ३४९५ नीलोत्पलादि, रक्तप्रदर, पित्तज । ३३०६ , , गुल्म। सूजन युक्त, ऊप रको उभरी हुई ३४९७ न्यग्रोधाचं , नीला, लाल, श्वेत, तथा विप्लुता, उकाला और अन्य हर पप्लुता शूल युक्त प्रकारका कष्ट साध्य प्रदर । योनिशुल, | ५४९८ नतार्थ तैलम् योनि शूल, विप्लुता योनिदाह । योनि । ४०५७ पश्चपल्लवार्य , योनिकी दुर्गन्ध, आविविकार। आसवारिष्ट-प्रकरणम् १०९४ पिप्पल्या , सूतिका रोग। ४१४९ पत्राङ्गासवः सफेद तथा लाल ४५२८ फल योनिदोष, रजोदोष, • पीड़ा युक्त प्रदर, गर्मस्राव, बन्ध्यत्व । ज्वर, शोथ। १५२९ , " " योनि । For Private And Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदशिनी [७६९] - संध्या प्रयोगनाम मुरुप गुण । संख्या प्रयोगनाम लेप-प्रकरणम् ३५४७ निशादि लेपः स्तनमूलकी तीव्र पीड़ा । | ४४४८ प्रदरान्तक लोहम् ४१६० पश्चकोलादि ,, स्तन्य शोधक । ४१७३ पत्रकादि , रक्त प्रदर, योनि दाह । ४४४९ प्रदरान्तको रसः ४१७७ परूषकादि , मूढगर्भ। ४४५० प्रदरारि , ४१७८ पलाशफलादि , योनिकी शिथिलता। ४४५१ , लोहम् ४१७९ पलाशबीज , गर्भरोधक । ४१८३ पाठादि , सुखपूर्वक, प्रसव करा देता है। ४४५५ प्रमदानन्दा रसः ४९१४ भूस्तृणादियोनि ,, बल वीर्यवान सुन्दर पुत्रोत्पादक। | ४७५२ बोलपर्पटी , मुख्य गुण न्ध, भयङ्कर सन्निपात, अतिसार । लाल, सफेद, पीला तथा काला दुस्साध्य प्रदर, योनिशूल कटिशूल। असाध्य प्रदर । दुस्साध्य प्रदर। श्वेत, लाल, काला और पीला दुस्साध्य प्रदर, कटिशूला समस्त जरायुरोग । रक्तप्रदर, रक्तार्श । मिश्र-प्रकरणम् धूप-प्रकरणम् ३५६३ निम्बकाष्ठ धूपः गर्भरोधक । ३३३७ धत्तूरमूल योगः गर्भरोधक । रस-प्रकरणम् ३६७१ नागरादि , वातज प्रदर । ३२१९ द्रुतिसार रसः बन्ध्यत्व, सूतिका ४५०९ पिप्पल्यादि वर्तिः योनिस्राव नाशक रोग। तथा योनि शोधक। ३६१३ नष्ट पुष्पान्तक रसः नष्टार्तव, योनिदाह, । ४५१० पुनर्नवामूलधारणम मूढगर्भ । ४७६३ बदरीमूल योगः स्तन्य वर्द्धक, स्तयोनिक्लेद । न्यकृमि नाशका ४४१९ पुत्रप्रदो रसः ४७६७ बस्त मूत्रादि , बन्ध्यत्व । ४४४२ प्रतापलकेश्वर रसः प्रसूतिवात, दन्तब- | For Private And Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७७० चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी (५७) स्नायुक रोगाधिकारः संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् ३३९९ निर्गुण्डोस्वरस | ४७०३ बब्बूलबीजादि लेपः शोथ और पीडाप्रयोगः कष्ट साध्य स्नायुक (नहरुवे ) को ६ युक्त हर प्रकारका दिनमें नष्ट कर स्नायुक। देता है। (५८) स्वरभेदाधिकारः कषाय-प्रकरणम् अवलेह-प्रकरणम् २८७७ दुग्धामलकयोगः स्वरशोधक। ३४६७ निदिग्धिकायो ३३७९ निदिग्धिकादिप्रयोगः स्वरभेद । ऽवलेहः स्वरभंग, प्रति४५५१ बदरीपत्रयोगः स्वरभंग, खांसी । श्याय, खांसी। | ४६५० बिभीतकावलेहः स्वरभेद । चूर्ण-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ३९५४ पिप्पल्यादि चूर्णम् कफज स्वरभंग । | ४०९० पिप्पल्याचं घृतम् कफज स्वरभंग। ४५२३ फलत्रिकादि चूर्णम् स्वरभंग । रस-प्रकरणम् ४६३८ ब्राहयादि , स्वर शोधक तथा । ४३९२ पारिजातटकणम् स्वरभंग, क्षय इत्यावर्द्धक । दि समस्त रोग। ४६३९ , , , , ४९६८ भैरवरसः कष्टसाध्य स्वरभेद, श्वास, खांसी। For Private And Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७७१] (५९) हिका श्वासाधिकारः संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण कषाय-प्रकरणम् गुटिका प्रकरणम् २८३२ दशमूलादि काथः श्वास, खांसी, पार्श्व | ४५२६ फलत्रय गुटी श्वास, खांसी। | ४८५१ भाादि गुटिका ,, अरुचि २८४२ , जलम् हिचकी, श्वास । २८४५ , यवागूः पार्श्वपीडा, श्वास, अवलेह-प्रकरणम् हिचकी। ४०२६ पिप्पली मूलाधवलेहः हिचकी, खांसी। २८८७ दुरालभादि काथः वातज श्वास, खांसी, ४०२९ पिप्पल्यादि लेहः अत्यन्त बढ़े हुवे श्वासको व्यवस्थित ज्वर । करता है। २९०० देवदादि , समस्त श्वास, खांसी, ४८६३ भार्गीगुडावलेहः भयङ्कर श्वास,खांसी। ३२५३ धात्र्यादि , भयङ्कर हिक्का।। | ४८६४ भार्यादि लेहः श्वास । ४७८२ भल्लातकादि , कफ प्रधान तमक श्वास तथा वातज घृत-प्रकरणम् ३०५१ दशमूलाधं घृतम् हिक्का, श्वास । चूर्ण-प्रकरणम् ३४८५ नारीक्षीराद्यं , हिचकी । २९५६ वाडिमा चूर्णम् खांसी, श्वास । ४६७० बीजपूरकार्य , , श्वास, स्वर भंग,पसलीकी पीडा। २९८० द्राक्षादि , भयङ्कर श्वास । । ४६७५ ब्राह्मी , स्वास, खांसी । २९९७ द्विक्षारादि , हिक्का, श्वास । ३४२२ नागरादि , खांसी, श्वास । तैल प्रकरणम् ३४३७ निदिग्धिकादि ४८९५ भृङ्गराज तैलम् श्वास, खांसी । योगः ३ दिनमें श्वासको नष्ट कर देता है। धूम्र-प्रकरणम् ४६२८ बिभीतकाचं चूर्णम् श्वास, खांसी। | ३१६३ देवदार्वादिधूम्रप्रयोगः भयङ्कर श्वास । ४८३२ भार्यादि योगः हिक्का, श्वास । ३५७१ नेपालिकादि ,, , हिक्का श्वास। For Private And Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७७२] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण | संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण रस-प्रकरणम् ४४११ पिप्पल्यादि लोहम भयंकर हिचकी, छ दि तथा तृष्णा ३ ४३८७ पारदादि रसः खांसी,श्वास, शूल । दिनमें अवश्य शान्त ४३९० पारदादि वटी हो जाती है। मंदाग्नि, अफारा । । ४४६९ प्रवाल प्रयोगः हिक्का । __ (६०) हृद्रोगाधिकारः कषाय प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् २८४० दशमूलादि काथः हृद्रोगनाशक | ३०५५ दाडिमाद्यं घृतम् हृद्रोग, पाण्डु, शूल। ३३५१ नागर काथः अग्निमांद्य, शूल, । ३०७२ द्राक्षादि , पित्तज हृद्रोग । हृदोग, वायु । ३८६० पुष्करादि कल्कः वातज हृद्रोग । तैल-प्रकरणम् ३८६१ , काथः हृदोग । | ४१३१ पुनर्नवाथं तैलम् वातज हृद्रोग । चूर्ण-प्रकरणम् __ आसवारिष्ट-प्रकरणम् २९५३ दाडिमादि चूर्णम् हृद्रोग, श्वास, अ- ४१५० पार्थावरिष्टः हृदय और फेफड़े के पतन्त्रक। समस्त रोग । ३४१६ नागबला , " " " ३९२० पाठादि , हृद्रोग, गुल्म, शूल। रस-प्रकरणम् ३९६९ पिप्पल्या , वातज हृद्रोग। ३६३४ नागार्जुनाभ्र रसः द्रोग, छर्दि, अरु३९७१ पिप्पल्यायो योगः हृच्छूल, कष्ट साध्य चि, हल्लास, ज्वर। हृद्रोग ४२६८ पञ्चसारो रसः पित्तज हृद्रोग । ३९८२ पुष्कर मूलचूर्णम् हृच्छूल, श्वास,हिक्का। | ४४५२ प्रभाकर वटी हृदोग । - For Private And Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पय-प्रदर्शिनी [७७३] परिशिष्ट (९) धातु शोधन मारण तथा पारद-प्रकरणम् संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण । संख्या प्रयोगनाम मुख्य गुण ३३३४ धान्याभ्रकम ४३३९ पारद भस्म विधि ४ पुटी भस्म । ३५८७ नीलाखन शोधनम् ४३४० , , , १ दिनमें बनने ३६१५ मागभस्म योगः कृमि,श्वास, खांसी, वाली भस्म । हृद्रोग। ४३४१ , , , कढ़ाईमें बनने वाली ३६१८ , विधिः ३२ पुटी भस्म । भस्म । ३६१९ , , ६० पुटी भस्म । | ४३४२ , १ पुटी भस्म । ३६२० , कढ़ाई में बनने वाली ४३४३ , , , श्वेत भस्म । ४३४४ " " " ३६२१ नाग मारणम् ४३४५ , , , योगवाही । लाल भस्म । ४३४६ पारद--भस्मविधिः १ दिन में होनेवाली ३६२७ , शोधनम् भस्म । ३६२८ , ॥ ४३४७ " " " डमरुयन्त्र द्वारा ८ ३६२९ " , पहरमें होने वाली ३६३८ नागेश्वरः कुष्ठ अत्यन्त क्षुधा-व४२६२ पश्चलोहमारणम् ५ पुटी योगवाही र्द्धक, पौष्टिक और भस्म । कामोत्तेजक भस्म । ४३३५ पारद बुभुक्षा विधिः ४३४८ , , , कढ़ाई में बनने वाली ४३३६ , भस्म। , ४३३७ ४३४९ " " " ४३३८ , भस्म विधिः १ दिनमें बनने ४३५० ,, , कृष्ण-भस्म । वाली भस्म। । ४३५१ , , , For Private And Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ७७४ ] संख्या ४३५२ 19 ४३५३ " ४३५४ "" ४३५५ 19 ४३५६ ४३५९ पारद शोधनम् ४३६० 17 ४३६१ 19 ४३६२ 17 ४३६३ ४३६४ ४३६५ ४३६६ ४३६७ ४४६८ " 37 34 प्रयोगनाम 4 "" "" 19 " " "" " 77 " 77 וי "} 17 " 19 "" "1 39 "" 35 स्वेदनम् 39 " 22 ४३६९ ४३७० " ४३७१ पारदोत्थापन ४३७२ पारदाधः पातनम् ४३७३ पारदोर्ध्व पातनम् 19 मर्दनम् मूर्च्छनम् "} तलभस्म । "" पीतभरुष ! ४३७४ 27 ४३७५ पारदस्य तिर्यक पातनम् ४३७६ पारदस्य रोधन संस्कारः ] ६ ४३७७ नियमन संस्कारः " ४३७८ "" ४३७९ दीपन 33 " ४३८० अस्थायीकरणम् ४४०४ पित्तल - भस्मविधिः ४४०६ पित्तल शोधनम् ४४७२ प्रवाल मारणम् ४४७३ 39 ४४७४ लक्षणगुणाः 25 " "" श्वेतभस्म । "" मुख्य गुण ] २ 15 चिकित्सा-पथ-: www.kobatirth.org ७ पारदस्याष्टसंस्काराः - प्रदर्शिनी }< ८ पुटी भस्म । २ पहरी भस्म । (२) ओषधि कल्पाधिकारः श्वेत कुष्ठ । रसायन । ३१९९ देवदाली कल्पः ३२०० 39 ३३२४ धामार्गव ३५९८ निर्गुण्डी ३५९९ " ४२५८ पिप्पली ४७५९ बीजपुर ४९३३ भृङ्गराज २८१४ २८१५ २८१६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 39 19 "" २८१३ दधिदुग्धकृतिः 19 For Private And Personal Use Only " 19 97 " "7 17 " (३) मिश्राधिकारः कषाय-प्रकरणम् 33 39 "" " " रसायन वाजीकरण | " रसायन है। खांसी २९४८ दशसार चूर्णम् श्वास, गलग्रह, प्र हणी, पाण्डु, विषमज्वर, शोथ, हिक्का, प्लीहा आदि । ४८१५ भेदनीयकषायदशकः रसायन तत्काल दूध से दही ता है। 99 गन्ने के रससे दूध बनाता है तकसे दही बनाता है । चूर्ण-प्रकरणम् समस्स पित्तविकार प्रमेह, तृष्णा, दाह Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी [७७५] - - - - संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण संख्या प्रयोगमाम मुख्य गुण ३४१९ नागरङ्गफलादि रस-प्रकरणम् चूर्णम् परदेशका पानी न। ३६४६ नाराच रसः रेचक हां लगता। ४३५७ पारदभस्मानुपानानि ३८८४ पश्चलवणम् ३९८३ पुष्करमूल चूर्णम् शरीरकी दुर्गन्ध । | ४३५८ पारदविकार हरो योगः गुटिका-प्रकरणम् मित्र-मकरणम् ४६४२ बीजपूरादि गुटिका कफज रोग । | ३३३६ धत्तूरबीज शुद्धिः लेप-प्रकरणम् ३६६७ मखद्रव्य शुद्धिः ३१५५ द्विनिशादि योगः सौन्दर्य वर्द्धक त- ४४९२ पञ्चगव्यम् था शरीरको सुग ४४९३ पञ्चमित्रम् न्धित करनेवाला। ४४९७ पश्चाग्लम् धूप-प्रकरणम् ४५०७ पिप्पली शोधनम् ४९२१ भुजङ्गादि नाशक धूपः १४५१२ पुष्परेचनो गुटिका आमको निकालती है - UmmumtathmALMAINTAINMIRMIRE SummiummusalmIONumraptunamang WhutimONT इत्यो३म् EmmanuelimEE PAHEARTHIRDIgnsumers Bhuminantoim mmythamamayana Murarunaiduenunniliumunlimmunline For Private And Personal Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन अष्टांगहृदयम् (वाग्भट कृत, हिन्दी अनु० सहित)-लालचन्द्र वैद्य (सजिल्द) ५५ (अजिल्द) ४५ क्लीनीकल मेडिसिन (दो भागों में) -अनिदेव शीघ्र कायचिकित्सा-धर्मदत्त वैद्य १६ चरकसंहिता-श्री जयदेव विद्यालंकार (हिन्दी अनुवाद सहित) भाग १ (सजिल्द) ४५ (अजिल्द) ३० भाग २ (अजिल्द) ३०; (सजिल्द) ४५ देहधात्वग्निविज्ञानम्-हरिदत्त शास्त्री भावप्रकाशनिघंटु-विश्वनाथ द्विवेदी कृत हिन्दी टीका सहित भैषज्यरत्नावली-श्री जयदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी टीका सहित, आठवां संस्करण (अजिल्द) ६०; (सजिल्द) १३५ माधवनिदान (मधुकोश संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद सहित)-नरेन्द्रदेव शास्त्री (अजिल्द) ३५; (सजिल्द) ५५ रसतरंगिणी (सदानन्द कृत हिन्दी टीका) -काशीनाथ शास्त्री (सजिल्द) ६० (अजिल्द) ३५ रसरत्नसमुच्चय (धर्मानन्द शर्मा कृत हिन्दी व्याख्या)-अत्रिदेव विद्यालंकार (अजिल्द) ३०; (सजिल्द) ४५ रसेन्द्रसारसंग्रह-नरेन्द्रनाथ (सजिल्द) २५ (अजिल्द) २० व्याधिविज्ञान-आशानन्द पञ्चरत्न, प्रथम भाग १५, द्वितीय भाग (सजिल्द) ४५ (अजिल्द) ३० सुश्रुतसंहिता (सम्पूर्ण) अनिदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी टीका सहित (सजिल्द) १२० (अजिल्द) ६० मोती लाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधुनिक चिकित्साशास्त्र धर्मदत्त वैद्य / इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें आधुनिक काय-चिकित्सा के वर्णन के साथ-साथ आयुर्वेदिक काय-चिकित्सा का भी उल्लेख है। ये दोनों एक-दूसरे के सहायक सिद्ध हुए हैं। जहां आधुनिक काय-चिकित्सा How के प्रश्न का समाधान करती है वहां आयुर्वेदिक काय-चिकित्सा Why के प्रश्न का समाधान करती है, अर्थात् रोग का मूल कारण बताती है, जिसके फलस्वरूप चिकित्सा सुगम और ठीक होती है। यह स्पष्ट बताती है कि शरीर के तीन मूल तत्त्व देहाग्नि, देहप्राण, तथा देहवृद्धि हैं। इनके किसी अंग में मन्दता आ जाने से रोगोत्पत्ति होती है। आयुर्वेद का एक विशेष दृष्टिकोण है जिससे दोषिक या त्रैधातुक चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया जाता है और रोगों में औषध. आहारविहार आदि उपचारों का विधान किया जाता है। आयुर्वेद का मूल दोषिक दृष्टिकोण कभी नहीं बदला चाहे औषधियाँ भले ही बदलती रहें। अतः आयुर्वेद उपचारों के प्रयोग में स्वतन्त्रता देता है। इस प्रकार आयुर्वेद-चिकित्साशास्त्र का छात्र वैधातुक या दोषिक दृष्टिकोण को कभी दृष्टि से ओझल नहीं होने देता। इसलिए इन दोनों चिकित्साओं के अध्ययन से अवश्यमेव लाभ ही होगा क्योंकि दोनों का लक्ष्य रोगी को रोगमुक्त करना ही है। (सजिल्द) रु० 140 (अजिल्द) रु०१५ मानव-शरीर-रचना (दो भागों में) - मुकुन्दस्वरूप वर्मा सम्पूर्ण चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद के जिन तीन मूल आधारों पर आश्रित है उन्हें शरीररचनाविज्ञान, शरीरक्रियाविज्ञान और विकृतिविज्ञान कहते हैं उनमें शरीररचनाविज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है / इसके बिना अन्य आयुर्वेदशाखाओं का ज्ञान होना सम्भव ही नहीं। इस विषय में पाश्चात्य वैज्ञानिकों के ही अनुसंधान उपयोगिता की दृष्टि से अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध हुए हैं। पाश्चात्य भाषाओं से अपरिचित चिकित्सक इन अनुसंधानों से लाभ नहीं उठा सकते / इस अभाव की पूर्ति के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गई है / दुरूहता को हटाने के लिए अंग्रेजी पारिभाषिक शब्दों के अनुवाद में स्वीकृत वैज्ञानिक-तकनीकी-शब्दावली का प्रयोग किया गया है और सैकड़ों चित्रों से समझाया गया है। ___प्रथम भाग में ऊतकविज्ञान (Histology), भ्रूणविज्ञान (Embryology) और अस्थिविज्ञान (Osteology) विषयों का वर्णन है और द्वितीय भाग में सन्धिविज्ञान (Syndesmology), मांसपेशीविज्ञान (Myology) और वाहिकाविज्ञान (Angiology) विषयों का विवेचन हुआ है। यह कृति शरीर-रचना के जिज्ञासुनों के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगी। प्रथम भागः रु०५० द्वितीय भागः (अजिल्द) रु० 75; (सजिल्द) रु. 100 मोतीलाल बनारसी दास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only