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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रमकरणम् ] तृतीयो भागः । [५३५ ] डालकर तिरे हुवे जलको आगसे कढ़ाइमें पूर्वकी । पिच्छावस्तिरयं सिद्धः सघृतक्षौद्रशर्करः । तरह पकाकर गाढ़ा कर इस क्षारके चार भाग, प्रवाहिकागुदभ्रंशरक्तस्रावज्वरापहः || और प्रतिसारणीय क्षारके दो भाग, ये तीनों क्षार मिलकर अत्यन्त पाचनीय होते हैं गुल्म प्लीहा आदि अनेक उदर व्याधियोंको नाश करते हैं । चाहे इनको किसी चूर्णके योग में देवे या ऐसे ही जलमें डालकर पिलावे । मात्रा इसकी चार रत्तीसे दो मासे तककी बलाबल देखकर कल्पना करे । यद्यपि इस क्षारमें बहुत गुण हैं तथापि बहुत दिन तक सेवन करनेसे नपुंसकता आदि अनेक को पैदा करता है इस लिये इस क्षारको बिना रोगके अधिक सेवन नहीं करे । (४५०३) पारावतपुरीषादियोगः ( वं. से. । विषरोगा. ) पारावतः शकृत् पथ्या तगरं विश्वभेषजम् । atryररसोपेतः परमो वृश्चिकागदः ॥ कबूतरकी बीट, हर्र, तगर और सेठ । सबके समान भाग चूर्णको बिजौरे नीबूके रसमें मिलालें । जवासामूल, कुशाकी जड़, कासकी जड़, सेंभलके फूल तथा बड़, गूलर और पीपलके अंकुर २ - २ पल ( २०-२० तोले ) लेकर सबको एकत्र कूट कर ६ सेर पानी और २ सेर दूधमें एकत्र मिलाकर पकायें । जब दूधमात्र शेत्र रह जाय तो उसे छानकर उसमें सेंभलका गोंद, मजीठ, लालचन्दन, नीलोत्पल, इन्द्रजौ, फूलप्रियङ्गु और कमलकेसरका कल्क तथा घी, शहद और खांड मिलाकर उसकी बस्ती करावें । यह बस्ती प्रवाहिका, गुदभ्रंश, रक्तस्राव और ज्वरको नष्ट करती है । (४५०५) पिच्छाबस्ति: (२) ( वृ. यो त । त. ६४ ) अल्पाल्पं बहुशो रक्तं सथूलमुपवेश्यते । यदा वायुविद्धश्च पिच्छावस्तिस्तदा हितः || शाल्मले रार्द्रपुष्पाणि पुटपाकीकृतानि च । सङ्कटघोलूखले सम्यगृह्णीयात्पयसि शृते ॥ यह बिच्छूके विषके लिये अत्युत्तम अगद है। गृहीत्वा पट्पलं तस्य त्रिपलं घृततैलयोः । (४५०४) पिच्छाबस्तिः (१) युक्तं मधुककल्केन माक्षिकत्रिपलेन च ॥ तैलाक्तवपुषो दद्यादस्तौ प्रत्यागते रहे । भोजयेत्पयसा वापि पित्तातीसारपीडितम् ॥ ( च. सं. । चि. स्था. अ. १४ अर्थ. ) यवासकुशकाशानां मूल पुष्पञ्च शाल्मलम् । न्यग्रोधोडुम्बराश्वत्थशुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः || त्रिस्थे सलिलस्यैतत् क्षीरप्रस्थे च साधयेत् । क्षीरशेषं कषायं च पूतं कल्कैर्विमिश्रयेत् ॥ कल्काः शाल्मलि निर्याससमङ्गा चन्दनोत्पलम् । पिच्छावस्तिका योग-वत्सकस्य च बीजानि प्रियङ्गुपद्मकेसरम् ॥ पित्तातिसार में जब पीड़ाके साथ बार बार थोड़ा थोड़ा रक्त निकलता हो और वायु रुका हुवा हो तो पिच्छा बस्ति देनी चाहिये । मलके ताजे फूलको बड़ आदिके पसों में For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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