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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[पकारादि
भोजनके बाद हर्र चबानेसे प्रसेक (मुंहसे । भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें और १ लार बहना ) नष्ट होता है।
| मास पश्चात् निकालकर छान लें। (४५००) पद्मिनीपत्रयोगः
यह आसव पाण्डु, गुल्म, उदर, अष्ठीला, ( वृ. नि. र.; वं. से. । क्षुद्ररो.)
कामला, हलीमक, प्लीहा, यकृत् , शोथ और विषम
ज्वरको नष्ट करता है। पबिनीकोमलं पत्रं यः खादेच्छर्करान्वितम् । एतनिश्चित्य निर्दिष्टं न तस्य गुदनिर्गमः॥
( यह प्रयोग आसवारिष्ट प्रकरणमें आनेसे कमलिनीके कोमल पत्तों को खांड मिलाकर |
छूट गया था इस लिये यहां दिया गया है।) सेवन करनेसे कांच निकलना बन्द हो जाता है।
(४५०१) पलाशवृन्तयोगः
(ग. नि. । नेत्ररो.) पर्पटाचरिष्टः
पलाशद्वन्तमाहत्य दन्ना कांस्ये निधापयेत् । ( भै. र.)
आश्च्योतनं श्लेष्महरं पक्ष्मणाश्च प्ररोहणम् ॥ पर्पटें तुलामेकां चतुर्दोणे जले पचेत् । पलाशके डंठलों ( अंकुरों ) को कांसीकी काये पादावशेषे च शीते पलशतद्वयम् ॥ थालीमें दहीके साथ घिसकर पतला पानीसा बना दद्याद गुडस्य धातक्याः पलषोडशिका मता। लें। इसकी रोजाना २-३ बूंद आंखों में डालगुडूची मुस्तकं दावी दारु व्याघ्री दुरालभा॥ | नेसे आंखेोके कफज विकार नष्ट होते और पलचव्य चित्रकमूलश्च त्रिकटु क्रिमिनाशनः । | कांके बाल जम आते है। सर्वाण्येतानि सञ्चूर्ण्य पलांशेन विनिक्षिपेत् ॥ (४५०२) पाचनीयक्षारः (रसायनसार) स्थापयित्वा ततो भाण्डे मासादय पिबेदमम। रसशालौषधीनाश्च क्षारा भागाष्टकास्तथा । पाण्डुगुल्मोदराष्ठीलाकामलाच हलीमकम् ॥ शुक्तिशम्यूकशङ्खानां गोमूत्रेषितात्मानम् ॥ प्लीहानं यकृतं शोथं सर्वश्च विषमज्वरम् ।
चत्वारः क्षारभागाश्च द्वौ भागौ प्रतिसारणात् । एषोऽरिष्टो निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यया ॥
यस्ते मिलिताः क्षाराः पाचनीयतमा मताः॥
| गुल्मप्लीहोदरख्याधीमाशयन्तीति पूजिताः । ६। सेर पित्तपापड़ेको ४ द्रोण ( १२८ सेर ) पानीमें पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह |
अनिशं सेव्यमानास्तु बहनर्थकरा नृणाम् ।। जाय तो ठण्डा करके उसमें १२॥ सेर गुड, १
पाचकक्षारसेर धायके फूलोंका चूर्ण तथा ५-५ तोले अर्थ-रसायनशालाकी औषधियोंको जला. गिलोय, नागरमोथा, दारुहल्दी, देवदारु, कटेली, कर जो मैं उनके क्षार बनानेकी विधि लिख चुका धमासा, चत्र, चीतामूल, सेांठ, मिरच, पीपल और हूं उन क्षारांके आठभाग, और सीप, सुकला (धांघा), बायबिडंगका चूर्ण मिलाकर चिकने मटके में | शंख; इनकी भस्मको चार दिन तक गोमूत्र में
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