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[५३६]
भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
[पकारादि
लपेट कर उस पर कपड़मिट्टी करके कण्डोकी । (४५०८) पिप्पल्यादिपेया निघूम अग्निमें पकावें | जब ऊपर वाली मिट्टीका
(च. स. । चि. अ. १४ अर्श.) रंग लाल हो जाय तो फूलांको कूटकर आठ गुने
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्लीम् । दूध और ३२ गुने पानीमें पानी जलने तक पका
भृङ्गवेरमजाजीच कारवीं धान्यतुम्बुरुम् ॥ कर छान लें फिर ६० तोले यह दूध, १५-१५ तोले घी और तेल, १५ तोले मुलैठीका कल्क
बिल्वं कर्कटकं पाठां पिष्ट्वा पेयां विपाचयेत् । और १५ तोले शहद लेकर सब को एकत्र मिला
फलाम्लां यमकैर्भृष्टां तां दद्याद्गुदनापहाम् ॥ कर बस्ति दें।
एतैश्चैव खडं कुर्यादेतैश्चैव पाचयेज्जलम् । (४५०६) पिप्पलदलादियोगः
एतैश्चैव घृतं साध्यमर्शसां विनिवृत्तये ॥ (वै. म. र. । पट. १६)
पीपल, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, अद्रक,
जीरा, कालाजीरा, धनिया, तुम्बरु, बेलगिरी, पिप्पलदलकुवलयदल
काकड़ासिंगी और पाठाको पीसकर ३२ गुने मास्येन चर्बणं चिरं कृत्वा ।
पानीमें पकावें जब आधा पानी शेष रह जाय तो दृढधवलाम्बरनिहितं
छान कर उसमें चावलांकी पेया ( कणयुक्त मांड) सिञ्चेशि तिमिरनाशाय ॥
| बनाकर उसमें रुचि अनुसार बिजौ रेका रस पीपल और नीलकमलके पत्तोंको बहुत देर
मिलाकर और उसे घी तैलसे बधार कर पिलाने से तक मुखमें चबाकर स्वच्छ और मजबूत सफेद
अर्श नष्ट होती है। कपड़ेमें बांधकर आंखोंमें निचोड़नेसे तिमिर रोग
___ अर्श में इन्हीं ओषधियोंसे बनाया हुवा नष्ट होता है।
खडयूष, इन्हीसे पकाया हुवा जल और इन्हीं से (नोट---जिनके दांत मैले हो या दांतों,
| सिद्ध घृत देना चाहिये । मसूढों अथवा मुंहमें कोई रोग हो उन्हें यह क्रिया न करनी चाहिये ।)
(४५०९) पिप्पल्यादिवतिः । (४५०७) पिप्पलीशोधनम्
(व. मा.; वं. से.; भा. प्र.; यो. र. । योनिरो.) ( यो. र. । भाग. १) पिप्पल्या मरिचर्मावः शताहाकुष्ठसैन्धवैः। वैदेही चित्रकरसैरातपे भावयेत् पुटे ।
वर्तिस्तुल्या प्रदेशिन्या धार्या योनिविशोधिनी ॥ सम्यक शुद्धा भवत्यत्र रसयोगेषु योजयेत् ।।
पीपल, कालीमिरच, उडद, सौंफ, कूठ और पिपलियों में चीतेका काथ डालकर उसे | सेंधा नमकके महीन चूर्णको पानीके साथ पीस धूपमें सुखा देने से वे शुद्ध हो जाती हैं । रसांमें | कर प्रदेशिनी ( तर्जनी ) अंगुलीके बराबर मोटी यही शुद्ध पीपल डालनी चाहिये ।
। बत्ती बना लें।
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