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(२९०४) द्राक्षादिकल्कः (१) (बृ. नि. र. । ज्वर. )
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
द्राक्षालकयोः कल्कं सघृतं वदने क्षिपेत् । तेन घृष्ट्वा मुखस्यान्तः कुर्वीत प्रतिसारणम् ॥ जिह्वावालुगलान्तस्थः संशोषस्तेन शाम्यति । सुरसं जायते वक्रं रुचिर्भवति भोजने ॥
दाख ( मुनक्का ) और आमलेको पत्थर पर पिट्टी की तरह पीसकर उसमें थोड़ा घी मिलाकर उसे जीभ तालु आदिपर मलें ।
इससे जीभ, तालु, और गलेका शोष नष्ट होकर मुखका स्वाद ठीक हो जाता है और भोजनमें रुचि बढ़ती है ।
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[ दकारादि
(२९०७) द्राक्षादिकषाय: (१) (ग. नि. । मुख.) द्राक्षागुडूची सुमनःमत्राला
दाaarefत्रफलाकषायः । क्षौद्रेण युक्तः कवलग्रहोऽयं
मुखस्य पार्कं शमयत्युदीर्णम् ॥
दाख ( मुनक्का ), गिलोय, चमेलीकी कपल, दारूहल्दी, जवासा और त्रिफलाके काथमें शहद डालकर उससे कुल्ले (गरारे) करनेसे मुखपाक नष्ट हो जाता है ।
(२९०८) द्राक्षादिकषाय: (२) (बृ. नि. र. । गुल्म. )
(२९०५) द्राक्षादिकल्कः (२)
( यो त । त. २० )
द्राक्षाभयारसं गुल्मे पैत्तिके सगुडं पिबेत् ।
शुष्कां च स्फुटितां जिह्वां द्राक्षया मधुपिष्टया । सशर्करं वा विलिहन् त्रिफला चूर्णमुत्तमम् ॥ प्रलेपयेत्सघृतया सनिपातज्वरे गये ||
यदि सन्निपात ज्वरमें जीभ शुष्क हो जाय और फट जाय तो उसपर मुनक्का ( दाख) को शहद के साथ पीसकर उसमें थोड़ासा घी मिलाकर उसका लेप करना चाहिए । (२९०६) द्राक्षादिकल्कः (३)
(यो. र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ.) द्राक्षासितोपलाकरकं कृच्छ्रन्नं मस्तुना युतम् । पिवेद्वा कामतः क्षीरमुष्णं गुडसमन्वितम् ॥
मुनक्का ( दाख) और मिसरीको पत्थर पर चटनीकी तरह पीसकर मस्तु ( दही के तोड़) में मिलाकर पीनेसे अथवा उष्ण दूधमें गुड़ मिलाकर यथेच्छ परिमाण में पीनेसे मूत्र कृच्छ्र नष्ट होता है । ( मिसरी १ तोला, मुनक्का १ तोला, मस्तु ८ तोले )
पैत्तिक गुल्म में मुनक्का ( दाख) और हर्र के रस (शीतकाय) में गुड़ मिलाकर पिलाना या त्रिफलाके चूर्ण में खांड मिलाकर ( शहद के साथ ) चटाना चाहिये ।
(२९०९) द्राक्षादिकषायः (३) ( वैधामृत । वि. ४७ ) छिन्नाजाती पल्लवानां कषायः । द्राक्षादार्वी यासपध्याक्षघात्री क्षौद्रोदितो हन्ति गण्डूषयुक्तया पार्क वक्त्राम्भोजसंस्थं महान्तम् ॥
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दाख (मुनक्का), दारूहल्दी, धमासा, हर्र, बहेड़ा, आमला, गिलोय, और चमेली के पत्तों के काथमें शहद मिलाकर उसके कुल्ले करने से मुखपाक नष्ट होता है ।