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कपायप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
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सवत्सक क्वाय उदाहृतोऽसौ शोकातिसारा. देवदारुवचाभागी विश्वपौष्करफट्फलैः।
म्बुधिकुम्भजन्मा ॥ कृत्वा काथो जयत्याशु श्वासकासानशेषतः॥ देवदारु, अतीस, पाठा, बायबिडंग, नागर- देवदारु, बच, भरंगी, सेठ, पोखरमूल, और मोथा, कालीमिर्च, और इन्द्रजौका काथ पीनेसे कायफलका काथ पीनेसे श्वास, खांसी शीघ्र ही शोकातिसार नष्ट होता है।
नष्ट हो जाते हैं। (२८९८) देवदा दिकाथः (३) । (२९०१) देवदा दिक्काथ: (६) (वं. से.; ग. नि.। ज्वर.)
(वं. से.; यो. र. । अतिसा.) दारु पर्पटकं मुस्तमभया विश्वमेषजम् ।
देवदारुवचामुस्तं नागरातिविषाभयाः। प्रतीक कट्फलं भार्गी कुस्तुम्बरिवचे समम् ॥ सर्वाजीप्रशमनं पेयमेतैः शतं जलम् ।। पत्तवा क्वार्थ पिवेदिमधुयुक्तं ज्वरापहम् । देवदारु, बच, मोथा, सोंठ, अतीस और वातष्लेष्मणि कासे च कुष्ठरोगे गलग्रहे ॥ हर्रका काथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारके अजीर्ण
देवदारु, पित्तपापड़ा, मोथा, हरे, साठ, कर- नष्ट होते हैं। अकी छाल, कायफल, भारंगी, कस्तुम्बरु और बच। (२९०२) देवदालीयोगः (वृ. नि. र.। अर्श.) इनके काथमें हींग और शहद मिलाकर पीनेसे | देवदालीकषायेण शौचमाचरतां नृणाम् ।। वातकफज ज्वर, खांसी, गलग्रह और कुष्ठरोग नष्ट ! किम्बामसेवाभिः कुतः स्यगंदजाङ्कराः ।। होता है।
' देवदालीके काथसे शौच करनेसे या देवदा(२८९९) देवदाादिक्वाथः (४) लीकी धूनी लेनेसे मस्से नष्ट हो जाते हैं। (वृ. नि. र. । सन्नि.; मा. प्र. । म. ख.)
(२९०३) देवगुमादियोगः सुरदारुसठीसुधालतासुवहाशुण्ठ्यमृताः शृता (च. द.; ग. नि.; वृ. नि. र. । उद.; यो. र.। शोफ.
जलेन ।
| देवद्रुमं शिग्रु मसूरकञ्च सपुराः शमयन्ति सेविताः सततं सन्धिगतं ।
___ गोमूत्रपिष्टामथवाऽश्वगन्धाम् । .. सदागतिम् ॥ देवदारु, कचूर, रासना और सेठ १-१
पीत्वाऽऽशु हन्यादुदरं प्रद
कृमीन्सशोफानुदरं च दृष्यम् ॥ भाग तथा गिलोय २ भाग लेकर यथाविधि काथ बनाकर उसमें गूगल मिलाकर पीनेसे सन्धिगत
देवदारु, सहजनेकी छाल और मसूरको सतत ज्वर नष्ट होता है।
समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर गोमूत्र में पीस(गूगल २ माशा मिलाना चाहिए ।)
कर पिलानेसे अथवा असगन्धको गोमूत्रमें पीसकर (२९००) देवदा दिक्काथः (५)
पिलानेसे शोथोदर और उदरके कृमि आदि नष्ट (वं. से. । श्वास.; वृ. यो. त. । त. ८०) होते हैं।
१ कुष्टमिति पाठान्तरम् । २ मयूरकोदि पाठान्तरम् ।
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