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[५५८]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[सकारादि
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(४५८८) विस्वादिसिद्धपयः (४५९०) बिल्वाधाइच्योतनम् (ब. से. । प्रह.; यो. र. । प्रहण्य.)
(यो. र.) बिल्बाब्दशक्रयवबालकमोचसिद्ध- विल्वादिपञ्चमूलेन बृहत्येरण्डशिशुभिः । ___माजं पयः पिबति यो दिवसाया। कायश्चाऽऽइच्योतन कोष्णो वाताभिष्यन्दनाशनः॥ सोऽतिमद्धचिरज ब्रहणीविकार
बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और अरणीकी शोष सशोणितमसाध्यमपि क्षिणोति ।। | छाल तथा कटेली, अरण्डमूल और सहजनेकी
बेलगिरी, नागरमोथा, इन्द्रजौ, सुगन्धवाला | छालके काथको अत्यन्त स्वच्छ वस्त्रसे छानकर और मोचरस से सिद्ध बकरीका दूध तोन दिन उसके मन्दोष्ण रहते हुवे उसकी बूंदें आंखमें तक पीनेसे अत्यन्त प्रवृद्ध और रक्तयुक्त पुरानी टपकावें। ग्रहणी भी नष्ट हो जाती है।
__इससे वाताभिस्यन्द नष्ट होता है। ( प्रत्येक ओषधि १ तोला । दूध १ सेर । (४५९१) बीजपूरकादिकषायः पानी ४ सेर । सबको मिलाकर पानी जलने तक (ग. नि. । ज्वरा.; वृ. नि. र. । सन्निपात.) पकावें)
बीजपूरकविल्वाश्मभेदकं बृहतीद्वयम् । (४५८९) पिल्वादिस्वेदः
एकैकांशमयेरण्डमूल चाष्टगुणीकृतम् ॥ (व. से. । कर्ण.)
कायो गोमूत्रसंयुक्तो विडसौवर्चलान्वितः। बिल्वैरण्डार्कवर्षाभूदधियोन्मत्तशिभिः। हस्तिशूले सानाहे त्वभिन्यासज्वरे तथा ॥ वस्तगन्धाश्वगन्धाभ्यां सर्कारीयवरेणुभिः॥ बिजौ रेकी जड़की छाल, बेलछाल, पखान भेद, आरनालभृतेरभिर्नाडीस्वेदः प्रयोजितः। और दोनों प्रकारकी कंटेली १-१ भाग तथा कफवातसमुत्यानं कर्णशूलं निवारयेत् ॥ अरण्डमूल ८ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर
बेलछाल, अरण्डकी जड़, अर्कमूल, पुनर्नवा | कूट ले । ( साठी ), कैथ, धतूरा, सहजनेकी छाल, अज- इनके काथमें गोमूत्र और विडनमक तथा मोद, असगन्ध, अरणी, इन्द्रजौ और रेणुका सञ्चल ( काला नमक ) मिलाकर पिलानेसे हृदय और समान भाग लेकर कूटकर सबको ८ गुनी कांजी बस्तीकी पीड़ा, अफारा और अभिन्यास ज्वर नष्ट में पकावें । जब आधा भाग कांजी शेष रहे तो | होता है । उसे छानकर उससे कानको नाडी स्वंद दे।। (४५९२) योजपूरमूलयोगः ( कानमें रखर आदिकी नलीकी सहायता से उसकी । (ग. नि. । मूत्रा.) भाप पहुंचावें ।)
| शीतेन वारिणा घृष्टा बीजपूरस्य मूलिका । इससे कफवातज कर्णशूल नष्ट हो जाता है। पीता पातयते वेगान्मेहनान्मूत्रशर्कराम् ।।
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