________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
तृतीयो भागः ।
आसवारिष्टप्रकरणम् ]
१ ।
दालचीनी, केसर और लौंग ५-५ तोले लेकर चूर्ण बनावें । तदनन्तर ६४ सेर पानी में सेर मुनक्का, १ सेर धायके फूलोंका चूर्ण, ६ सेर स्वांड, ३ सेर १० तोले शहद और उपरोक्त चूर्ण अच्छी तरह घोलकर उसे चिकने मटके में भरकर उसका मुख बन्द कर दें । और एक मास पश्चात् आसवको छान लें ।
|
यह आसव पीड़ायुक्त सफेद, लाल इत्यादि हर प्रकारके प्रदरको एवं ज्वर, पाण्डु, शोथ, मन्दान और अरुचिको नष्ट करता है। (४१५०) पार्थाचरिष्टः
(भै. र. । हृद्रो. )
पार्यत्वचन्तुलामेकां मृद्वीकार्द्धतुलां तथा । भागं मधूकपुष्पस्य पलविंशति सम्मितम् ॥ चतुर्द्रोणेऽम्भसः पक्त्वा द्रोणमेवावशेषयेत् । धातक्या विंशतिपलं गुडस्य च तुलां क्षिपेत् ॥ मासमात्रं स्थितो भाण्डे भवेत्पार्थाधरिष्टकः । इत्फुप्फुसगदान्सर्वान् हन्त्ययं बलवीर्यकृत् ॥
अर्जुनकी छाल ६ । सेर, मुनक्का ३ सेर १० तोले तथा महुवेके फूल १ सेर लेकर सबको १२८ सेर पानी में पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें २० पल ( १ | सेर ) धायके फूलोंका चूर्ण और ६ | सेर गुड़ मिलाकर उसे मिट्टी के चिकने मटके में भरकर उसका मुख बन्द कर दें, और एक मास पश्चात् निकालकर छान लें 1
यह आसव हृदय और फुप्फुस के समस्त रोगोंको नष्ट करता और बल वीर्यको बढ़ाता है ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ ३८१]
(४१५१) पिण्डासवः
( च. स. । चि. अ. १९; वं. से. | ग्रहण्य. ) प्रास्थिकी पिप्पली मस्यं गुडं प्रस्थं विभीतकम् । उदकप्रस्थसंयुक्तं यवपल्ले निधापयेत् ॥ तस्मात्सुजातात्तु पलं. सलिलाञ्जलिसंयुतम् । पिवेत्पिण्डासवो हयेष रोगानीकविनाशनः ॥ स्वस्थोऽपि यः पिबेन्मासं नरः स्निग्धरसाशनः । तस्याग्निं दीपयत्येष आरोग्याय प्रकीर्तितः ॥
पीपलका चूर्ण १ सेर, गुड़ १ सेर, बहेड़ेका चूर्ण १ सेर । सबको १ सेर पानी में मिलाकर मिट्टीके चिकने पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके उसे जौके ढेरमें दबा दें। और ( १ मास ) पश्चात् निकाल लें ।
इसमें से ५ तोले आसवको २० तोले पानी में मिलाकर पीना चाहिये ।
यह समस्त रोगोंको नष्ट करता है ।
यदि स्वस्थ मनुष्य भी इसे १ मास तक सेवन करे और स्निग्ध आहार करता रहे तो उसकी अग्नि दीप्त होती और उसका स्वास्थ्य स्थिर रहता है ।
( व्यवहारिक मात्रा ६ माशे । )
नोट- यह आसव गाढ़ा कीचड़ सा बनता है 1
For Private And Personal Use Only
(४१५२) पिप्पलीमूलाद्यारिष्टः
( ग. नि. । राजय . ) समूला पिप्पली शृङ्गी बृहती हयश्मभेदकः । पाटला देवकाष्ठञ्च श्वदंष्ट्रा हयभया तथा ॥