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भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
[२५८ ]
(२००५) पञ्चमूल्यादिकाथ : (१)
(वै. जी. | विला. १; बृ. नि. र. । वातज्वर.) पञ्चमुल्यभृतामुस्ता विश्व भूनिम्वसाधितः । कषायः शमत्याशु वायुमायुभवं ज्वरम् ॥
पक्षमूल (बेल, अरल, खम्भारी, पाढल और अरणीको छाल), गिलोय, मोथा, सेट और चिरायतका का वातज्वरको शीघ्र ही नष्ट कर देता है ।
(३७०६) पञ्चमूल्यादिकाथ: (२) (म.प्र.) वं. से. । अतिसा; मै. र. ग. नि; ई. मा.; च. द. । ज्वराति . ) पञ्चमूलीला बेल्वगुचीमुस्तनागरैः । पाठा भूनिम्वटी वेरकुटजत्व क्फलैः शृतम् ॥ सर्व हन्यतीसारं ज्वरञ्चापि तथा वमिम् । सोष्ट्रवस्दा कासं चापि सुदुस्तरम् ॥ पञ्चमूलीच सामान्या पित्ते योज्या कनीयसी ।
पुनर्वासे च सायोज्या महती मता ॥ पञ्चमूल, खरैटी, बेलगिरी, गिलोय, मोथा, सोंठ, पाठा, चिरायता, नेत्रबाला, कुड़ेकी छाल और इन्द्रजौ का काथ सेवन करनेसे वातज, पित्तज और कफज तथा सन्निपातज अतिसार, ज्वर, चमन, शूल, श्वास और भयंकर खांसी आदि उपद्रव नष्ट होते हैं ।
पित्तज रोगमें लघु पञ्चमूल (शालपर्णी, पृष्ठ पण, कटेली, कटेला, गोखरु ) और कफज तथा वातज रोग में वृहत्पञ्चमूल (बेल, अरल, खम्भारी, अरोकी छाल) लेना चाहिये ।
पाडल
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[ पकारादि
(३७०७) पञ्चमूल्यादिकाथः (३) (वं. से. । ज्वरा. )
समुस्तं पञ्चमूलश्च दद्याद्वातोत्तरे गदे । भृशोष्णं वा सुखोष्णं वा दृष्ट्वा दोषबलाबलम् ॥
वातप्रधान ज्वर में पञ्चमूल (बेल, अरल, खम्भारी, पाढल और अरणीको छाल) और मोथेका काथ दोष बलाबल के अनुसार अधिक उष्ण या मन्दोष्ण पिलाना चाहिये । (३७०८) पञ्चमूल्यादिकाथ : (४)
( वं. से.; वृ. नि. र.; च. द. । ज्वरा. ) पञ्चमूली किरातादिर्गणो योज्यस्त्रिदोषजे । पित्तोत्कटे च मधुना कणया वा कफोत्कटे ॥
पञ्चमूल, ( बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और अरणी की छाल ) और किरातादि गण ( चिरायता, मोथा, गिलोय, सांठ) के काथमें शहद मिलाकर पित्तप्रधान सन्निपात में और पीपलका चूर्ण मिलाकर कफप्रधान सन्निपात में पिलाना चाहिये ।
( काथ १० तोले, शहद १| तोला, पीपलका चूर्ण १ से ३ माशे तक । )
(३७०९) पञ्चमूल्यादिक्षीरम् (१) (ग. नि. । कासा . ) स्थिरादिपञ्चमूलस्य पिप्पली द्राक्षयोस्तथा । कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत्सम धुशर्करम् ॥
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शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, पीपल और मुनक्का से दूध पकाकर उसमें शहद और खांड मिलाकर पीने से खांसी नष्ट होती है ।