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भारत-भैषज्य रत्लाफर
दकारादि
(२८३५) दशमूलादिकाथः (५) (२८३८) दशमूलादिकाय: (८)
(वृ. नि. र. । विस्फो.; यो. र. । मसू.; (वृ. नि. र. । मूत्रा.; यो. र. । मूत्रकृ.; यो. भा. प्र. ।खं.२ मसू.; र. र.; . मा. । मसू.; वं.से.।
त.। त. १०१) विस्फो; वृ. यो. त. । त. १२५) दशमूलीतं पीत्वा सशिलाजतुशर्करम् । द्विपञ्चमूलं राना च दाय॒शीरं दुरालभम् । वातकुण्डलिकाष्ठीलावातबस्तेः प्रमुच्यते ॥ सास्ता धान्यकं मुस्तां काथयित्वा शतं पिबेत् ॥ दशमूलके काथमें शिलाजीत और खांड मिविस्फोटं वातसम्भूतं हन्त्येतनात्र संशयः॥ । लाकर पीनेसे वातकुण्डलिका, अष्टीला और वात
दशमूल, रास्ना, दारुहल्दी, खस, धमासा, । वस्ति (वातज मूत्राघात रोग ) नष्ट होता है। गिलोय, धनिया और मोथा। इनका काथ पीनेसे (२८३९) दशमूलादिकायः (९) वातज विस्फोटक रोग अवश्य शान्त हो जाता है। (ग० नि० । उदर.) (२८३६) दशमूलादिकाथ: (६) दशमूलदारुनागरच्छिन्नरुहपुनर्नवाकाथः ।
(वृं. मा. । वाता.; च. द. । अ. २२) जयति जलोदरशोथालीपदगलगण्डवातिकान दशमूली बला रास्ना गुडूची विश्वमेषजम् ।
रोगान् ॥ पिबेदेरण्डतेलेन गृध्रसीखअपङ्गषु ॥
__ दशमूल, देवदारु, सेठ, गिलोय और पुनदशमूल, खरैटी, रास्ना, गिलोय और सेठ नवा ( साठी ) का काथ पीनेसे जलोदर, शोथ, के काथमें अरण्डीका तैल ( काष्ट्रायल) मिलाकर | श्लीपद और गलगण्ड तथा अन्य वातज रोग नष्ट पीनेसे गृध्रसी, खञ्जवात तथा पङ्गुत्व (लंगडा, होते हैं। लला हो जाना) का नाश होता है।
(२८४०) दशमूलादिकाथ: (१०) (२८३७) दशमूलादिकाथ: (७)
(यो. र.; वृ. मा.; वं. से. । हृद्रो.) (० से० । राजय. ) द्विपञ्चमूलीमगधाधान्यनागरजं जलम् ।
दशमूलकषायस्तु लवणक्षारसंयुतः। चातुर्जातकसंयुक्तं पिवेभित्य क्षयातुरः ॥
पीतो निहन्ति सहसा हुदामयमसंशयम ॥ कासज्वरादिशमनं बलपुष्टि विवर्धनम् ॥
___ दशमूलके काथमें सेंधा नमक और जवाखार क्षय से पीड़ित रोगीको नित्य प्रति दशमूल,
मिलाकर पीनेसे हृद्रोग अवश्य शीघ्र ही नष्ट हो पीपल, धनिया और सांठके काथमें चातुर्जात |
जाता है। ( दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसर) । (२८४१) दशमूलादिकाय: (११) का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए।
(भा. प्र.।म.ख. ज्व.; आ. वे. वि.। उत्त, अ. ४.) यह काथ खांसी और ज्वरादिको नष्ट करता श्रीफलः सर्वतोभद्रा कामदती च शोणकः । तथा बल और पुष्टि बढ़ाता है ।
'तारी गोक्षुरः क्षुद्रा बहती कलशी स्थिरा। १ मूत्राघातका भेद जिसमें मूत्र थोड़ा थोड़ा करक कर पीड़ा के साथ भात है
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