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लेपप्रकरणम्
तृतीयो भागः।
[५९३]
मधुकं कुष्ठमित्येतच्चूर्णितं घृतभाजने। | मिर्च, पीपल, नख, बस, सुपारी, एलबालुक, यवेषु दशरात्रस्थं ग्रीष्मे, द्विः शिशिरे स्थितम् । मुलैठी और कृटका चूर्ण मिलाकर सबको चिकने पिबेत्तद्ग्रहणीपाण्डुरोगार्शःशोफगुल्मनुत् ।। मटकेमें भरकर उसका मुख बन्द करके उसे जौके मूत्रकृच्छाश्मरीकुष्ठकामलासन्निपातनुत् ॥ | ढेरमें दबा दें और ग्रीष्म ऋतुमें १० दिन पश्चात्
विजयसार १ सेर, त्रिफला १। सेर, द्राक्षा | तथा शीतकालमें २० दिन पश्चात् निकालकर ( मुनक्का) २५ तोले और लाख ३५ तोले | छान लें । लेकर सबको कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें और इसके सेवनसे ग्रहणी, पाण्डु, अर्श, शोथ, ८ सेर पानी शेष रहनेपर छानकर उसमें ६। सेर गुल्म, मूत्रकृच्छू, अश्मरी, कुष्ट, कामला और खांड, २ सेर शहद तथा १२-११ तोला सेठ, सन्निपातका नाश होता है।
इति वकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् ।
अथ बकारादिलेपप्रकरणम्। (४७०१) बदरीमूलादियोगः (४७०३) बलबीजादिलेपः (ग. नि. । शिरो.)
(यो. र. । स्नायु.) ललाटे बदरीमूलपिप्पलीनां प्रलेपनम् । बब्बूलबीजं गोमूत्रपिष्टं हन्ति प्रलेपनात् । हन्ति सर्वत्रतो लग्ना रुजो दैन्यमिव व्यथाम् ॥ स्नायुकानि समस्तानि सशोथानि सरुञ्जि च ।।
बेरीकी जड़की छाल और पीपलको पीसकर । बबूलके बीजांको गोमूत्रमें पीसकर लेप करलेप करनेसे मस्तक पीड़ा नष्ट होती है। नेसे शोथ और पीडायुक्त सर्व प्रकारके स्नायुक (४७०२) बदर्यादिलेपः
( नहरवा ) रोग नष्ट होते हैं। (वृ. नि. र. । सन्निपाता.) (४७०४) बन्लादियोगः बदरीपल्लवलेपः श्रीखण्डारिष्टकेन संयुक्तः।। (वं. से.; यो. र. । उपदंश. वृ. नि. र. । दातव्यः पादतलयोस्त्वरयारुग्दाहसन्निपातघ्नः।।
उपदंशा.) बेरीके पत्ते, सफेद चन्दन और नीमके पत्ते बब्बूलदल चूर्णेन दाडिमत्वग्रजोऽथ वा । समान भाग लेकर सबको एकत्र पीसकर पैरोंके । गुण्डनं लिङ्गदेशस्य लेपः पूगफलेन वा ॥ तलुवोंमें लेप करनेसे रुग्दाह सन्निपातमें लाभ ।
आतशक सम्बन्धी लिङ्गके घावोंपर बबूलके पहुंचता है।
१ बन्धकदलेति पाठान्तरम् ।
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