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गुटिकापफरणम् ]
तृतीयो भागः।
[१७७]
यह मोदक हर प्रकारके अर्श रोगको नष्ट (३४५५) निकुम्भाचा गुटिका करते हैं। इनके सेवनसे वृद्ध पुरुषमें भी बल
(ग. नि. । गुरि.) आ जाता है।
निकुम्भरजनीपाठात्रिकटुत्रिफलामिकाः। ( मात्रा-~~-आधा तोला । अनुपान-उष्ण जल) | बाला वृक्षकवीजं च चूर्ण स्यादनवो गुडः ॥
नोट-चूर्ण बनाना हो तो उसमें अन्य सब पथ्याभिसहितं चूर्ण गवां मूत्रयुतं पचेत् । चीजोंके समान गुड डालना चाहिये और मोदक घनीभूतं तु गुटिकां कृत्वा खादेदभुक्तवान् ।। बनानेके लिये चूर्णसे दोगुना गुड़ मिलाना चाहिये। गुल्मप्लीहाग्निसादास्ता नाशयेयुरशेषतः । नागादिवटिका
हृद्रोग ग्रहणीदोष पाण्डुरोगं च दारुणम् ।। रसप्रकरणमें देखिये।
दन्तीमूल, हल्दी, पाठा, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागार्जुनयोगः
हरे, बहेड़ा, आमला, चीता, सुगाध बाला, इन्द्रजौ, (च. द.; वै. र. । अर्श.)
और हर्रका चूर्ण तथा पुराना गुड़ समान भाग (प्र. सं. २४०३ त्रिफलादिगुटिका देखिये) लेकर ( चार गुने ) गोमूत्र में पकावें जब गोलियां नागार्जुनवटी
बनाने योग्य हो जाय तो गोलियां बनाकर सुखा(र. र. सं.)
कर सुरक्षित रक्खें । रसप्रकरणमें देखिये।
इन्हें प्रातःकाल खाली पेट सेवन करनेसे नागार्जुनी गुटिका गुल्म, प्लीहा, अग्निमांद्य, हृद्रोग, पाण्डु और ग्रहणी (र. स. क.; र. का. धे.) विकार नष्ट होते हैं । रसप्रकरणमें देखिये।
( मात्रा-३ माशे । अनुपान-उष्णजल ।) नागार्जुमी गुटिका
(३४५६) निम्बादिगुटिका (ग. नि. । नेत्रा.) अञ्जनप्रकरणमें देखिये
(र. का. धे. । पाण्डु.) नागार्जुनी वर्तिः
| निम्बं पटोलं कुटजं त्रिफला मुस्तनागरम् । रसप्रकरणमें देखिये।
पचेजलाढके शेषे दद्यादेतत्सुशीतले ॥ नागेन्द्रगुटिका शिलाजतु पलान्यष्टौ मासं च स्थापयेच्च तत् । रसप्रकरणमें देखिये।
उद्धृत्य तं शिलातुल्यमेतांश्चापि पलोन्मितान् ।। नेत्रवर्तिः
मोचा धात्रीफलतुगाकर्कटश्च निदिग्धिका । अञ्जनप्रकरणमें देखिये।
त्रिता पादसंयुतं क्षौद्रं त्रिपसम्मितम् ।। नेपालादिवतिः पयोऽनुपानां गुटिकां कृत्वा खादेघथा बलम् । अञ्जनप्रकरणमें देखिये।
कामलापाण्डुरोगेण शोषितों वरपीडितः ॥
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