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लेपप्रकरणम् ]
सरफेांका' स्वरस, कटहलका स्वरस और तेल एकत्र मिलाकर लेप करनेसे दुष्ट कुट नष्ट होते हैं ।
तृतीयो भागः ।
(४७११) बिडालास्थिलेपः
( वृ. यो. त. । त. ११६; यो. र । भगन्द. ) त्रिफलारससंयुक्तं बिडालास्थिप्रलेपनात् । भगन्दरं निहन्त्याशु दुष्टत्रणहरं परम् ॥
बिल्ली की हड्डीको त्रिफला काथमें घिसकर लेप करनेसे भगन्दर और दुष्ट व्रण नष्ट होते हैं । (४७१२) बिभीतकादिलेपः
( शा. ध. । उ. अ. ११; व. से.; यो. र. । शोथा. ) बिभीतकफलमज्जाया लेपो दाहार्तिनाशनः । बहेड़े की गिरी (मींग ) का लेप करनेसे शोक दाह और पीडा नष्ट होती है । (४७१३) बिल्वाद्य योगो
( वृ. यो त । त. १०४ ) बिल्वशिवे समभागे लेपाद्द्भुजमूलगन्धम
पहरतः ।
परिणततित्तिडीकान्वितपूतिकरञ्जोत्थबीजं वा ।।
बेलगिरी और हर्र समान भाग लेकर दोनों को पानीमें पीसकर लेप करनेसे या पक्की इमली और कण्टक करञ्जके बीजों का लेप करनेसे बगलकी दुर्गन्ध नष्ट होती है । (४७१४) बीजपूरक मूलादिलेपः
( ग. नि. व. मा. । ज्वर. यो. र. १; भा. प्र. । वातजशोथा. शा. ध. । ख. ३ अ. ११ ) योगरत्नाकर, शारङ्कधर और भावप्रकाशमें चीतेके स्थान पर जटामांसी लिखी हैं ।
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[ ५९५ ]
बीजपूरकमूलानि वह्निमन्थस्तथैव च । सनागरं देवदारु रास्नाचित्रकपेषितम् ॥ प्रलेपनमिदं श्रेष्ठं गलशोफविनाशनम् ॥
बिजौरे की जड़, अरणी, सांठ, देवदारु, रास्ना और चीतेको पीसकर लेप करनेसे गलेकी सूजन नष्ट होती है ।
बृहतीन्यग्रोधादिलेप: (बृ. यो. त. व. से. ) प्र. सं. ३५६० देखिये । (४७१५) बृहत्यादिलेपः
( व. से. । क्षुद्ररोगा. शा. ध. । उ.ख. अ. ११) इन्द्रलुप्ता हो लेपान्मधुना बृहतीरसः । गुञ्जामूलफलं वापि भल्लातकरसोऽपि वा ॥
बड़ी कटेली (बनभण्टे ) के रसको शहद में मिलाकर लेप करने से अथवा चौटालीकी जड़ या फल या भिलावेके रसका लेप करनेसे इन्द्रलुप्त रोग नष्ट होता है ।
(४७१६) बृहत्याद्यो योगः
(ग. नि. । अजीर्णा ) बृहत्थौ कट्फलं चैव मुस्तं पत्रमथोऽगुरुः । गुग्गुल्वतिविषा रास्ना मुस्तं व्याघ्रनखं वचा ।। एतैरुत्सादनं कुर्यात् प्रदेहश्चैव शस्यते । नस्यं प्रथमनं चैव विषूची तेन शाम्यति ॥
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छोटी और बड़ी कटेली, कायफल, नागरमोथा, तेजपात, अगर, गूगल, अतीस, रास्ना, केवटीमोथा, नख और बच समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।