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भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
(नकारादि
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अथ नकारादिकषायप्रकरणम्
(३३४६) नलदादिकाथ:
(३३४९) नवकार्षिककाथ: (ग. नि. । ज्वर.)
। (र. र.; . मा.; च. द.; वं. से.; यो. र.; भा. प्र.; ग. पित्तोद्भवे नलदपर्पटकाम्बुशुण्ठी
नि. । वातरक्ता.; यो. त. । त. ४१) ___ श्रीखण्डनिःकथितमेतदुशन्ति वैद्याः ॥ त्रिफलानिम्बमञ्जिष्ठावचाकटुकरोहिणी।
खस, पित्तपापड़ा, सुगन्ध बाला, सांठ, और । वत्सादनीदारुनिशाकषायो नवकार्षिकः ।। सफेद चन्दनका काथ पित्तज्वरको नष्ट करता है। वातरक्तं तथा कुष्ठं पामान रक्तमण्डलम् । (३३४७) नलमूलादिकषायः
कुष्ठं कपालिकाकुठं पानादेवापकर्षति ।। (ग. नि.; रा. मा. । ज्वरा.) | हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, मजीठ, नलवेतसयोर्मुलं मूर्वा च सुरदारु च । बच, कुटकी, गिलोय, और दारु हल्दी । हरेक कषायं विधिवत्कृत्वा पेयं सर्वज्वरापहम् ॥ १-१ कर्ष (१। तोला ) लेकर अधकुटा करके ___नल और बेतकी जड़, मूर्वा और देवदारु सबको ८ गुने पानी में पकावे जब चौथा भाग का काथ समस्त ज्वरोंको नष्ट करता है। पानी शेष रह जाय तो छानकर रोगीको पिलावें । (३३४८) नलादिकाथः
यह "नवकार्षिक कषाय " वातरक्त, कुष्ठ, (यो. र.; वंसे. । मूत्रा.; वृ. यो.त. । त. १०१) पामा, रक्तमण्डल और कपाल कुष्ठको नष्ट करता है । नलकुशकाशेक्षुशिफाकथितं
नोट-योगरत्नाकर, वृन्दमाधवादि में अन्यत्र प्रातः सुशीतलं ससितम् । इसी काथमें गिलोय के स्थान में पटोलका योग है। पिवतः प्रयाति नियतं
(३३५०) नवाङ्गकषायः मूत्राघातः सवेदनः पुंसः ॥
_(भै. र.; च. द. । ज्वर.) नल, कुश, कांस और ईखकी जड़के काथको विश्वामृताब्दभूनिम्बैः पञ्चमूलीसमन्वितैः । ठण्डा करके उसमें मिश्री मिलाकर प्रातः काल | कृतः कषायो हन्त्याशु वातपित्तोद्भवं ज्वरम् ।। पिलानेसे वेदनायुक्त मूत्राघात अवश्य नष्ट हो । सेठ, गिलोय, नागरमोथा, चिरायता, शालजाता है।
पर्णी, पृश्निपर्णा, केटली, कटेला और गोखरु । इनका (मिश्री काथका आठवां भाग मिलानी चाहिये ।) काथ वातपित्तज ज्वरको नष्ट करता है।
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