________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[६००]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[वकारादि
पीपल, हींग, जटामांसी, मुरामांसी,रास्ना, कलिहारी, | के मूत्रमें अच्छी तरह घोटकर बत्तियां बनाकर लहसन, देवदाली (बिंडाल),तुलसी, बच, मालकंगनी, | उन्हें छायामें सुखा लें। नागदन्ती, धमासा, हर्र और फटकीका समान | इनकी नस्य लेने, धूप देने और इनका भाग मिश्रित अत्यन्त महीन चूर्ण लेकर उसे बकरे- । अञ्जन तथा लेप करनेसे उन्माद रोग नष्ट होता है।
इति वकारादिनस्यप्रकरणम् ।
अथ बकारादिरसप्रकरणम्।
(४७३३) बबूलादिगुटिका | कार्या विभीतकमिता गुटिका मधुना सह ॥
कासं पञ्चविधं हन्यादूर्ध्वश्वासं कर्फ जयेत् ॥ ( भागोत्तर गुटिका, भागोत्तरवटी, रसगुटिका,
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, कासकर्तरिवटी, सप्तोत्तरावटी, सप्तामृतवटी. )
पीपल ३ भाग, हर्र ४ भाग, बहेड़ा ५ भाग, ( यो. चि. अ. ३; मै. र.; यो. र.; र. का.धे.;
बासा ( अडूसा ) ६ भाग और भरंगी ७ भाग र.सा.स.; धन्व. वै. मृ.; वै. र. । कासा.; यो.
लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बना और त. । त. २८; र. र. स. । अ. १३; र. रा.
फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सु.; र. चं. । श्वासा.)
सबको बबूलके रसकी २१ भावना देकर सुखा रसभागो भवेदको गन्धको द्विगुणो मतः।। लें और फिर शहदके साथ घोटकर बहेड़ेके फलके त्रिभागा पिप्पली ग्राह्या चतुर्भागा हरीतकी॥ | समान गोलियां बना लें। विभीतकं पञ्चभागं आटरूषश्च षट्गुणः ।। इनके सेवनसे ५ प्रकारकी खांसी और ऊर्ध्वभार्गी सप्तगुणा ग्राह्या सर्व चूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ | श्वास नष्ट होता है । बबूलकायमादाय भावना एकविंशतिः। । ( व्यवहारिक मात्रा १-१॥ माशा ।)
-इसको भै. र. व. में भागोत्तर गुटिका, यो. । (४७३४) बलादिमण्डरम् र. में भागोत्तरवटी, र. रा. सु. में सप्तोत्तरा वटी, | (र. का. धे. । अम्लपित्त. अ. ११) र. सा. सं. तथा धन्वन्तरिमें रस गुटिका, यो. त. और | बला शतावरीमूलं यवैरण्डपलद्वयम् । र.का. थे. में भागोत्तरो वटकः, र. च. तथा र. र. स. में सप्तामृत घटी और वै. र. में कासकर्तरी रस
| गुडस्य द्विपलं दत्त्वा पचेत्सान्द्रत्वमागतम् ॥ नामसे लिखा है । धन्वन्तरि और रसेन्द्रसारसंग्रहमें | जीरकस्य पलं चैव पिप्पल्याश्च पलं तथा । वासाके स्थानमें आमला लिखा है ।
चातुर्जातकचूर्णन्तु प्रत्येकं द्रङ्क्षणं क्षिपेत् ॥
For Private And Personal Use Only