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घृतपकरणम् ]
तृतीयो भागः।
। १८९ ]
१ सेर पीपलको २० सेर पानी में पकायें। संचूर्णितं क्षीरदधिसमेतं और ५ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । घृतं विपकं परिषेचने च । तत्पश्चात् इसमें ५ सेर घी, २ सेर गिलोयका हितं च कुष्ठक्षतदद्रुरक्त रस, ७॥ सेर आमलेका रस तथा ५-५ तोले पामाविचर्चिविनिहन्ति कण्डम् ॥ दाख ( मुनक्का), आमला, पटोल, सोंठ, कुटकी
नीम, पटोल, चिरायता, चमेलाके पत्ते, इन्द्राऔर बचका कल्क मिलाकर पकार्वे । जब पानी यन, पुनर्नवा और नागरमोथा समान भाग मिश्रित जल जाय तो घीको छान लें।।
२ सेर लेकर १६ सेर पानीमें पकावें, जब ४ सेर यह घी कष्टसाध्य अम्लपित्त, दाह और पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें ४ सेर दूध, छर्दि को शीघ्र नष्ट कर देता है ।
४ सेर दही, ४ सेर घी, ४ सेर लाक्षारस और (मात्रा-१ से २ तोले तक ।) । बासा, त्रायमाणा, बेलछाल, कूठ और मुलैठीका (३४८५) नारीक्षीराचं घृतम्
समभाग मिश्रित २० तोले चूर्ण मिलाकर पकावें ।
___ यह घृत लगानेसे कुष्ठ, क्षत, दाद, रक्तदोष, (वं. से. । हिक्का.)
पामा, विचर्चिका और कण्डूका नाश होता है। नारीक्षीरेण वा सिद्धं सर्पिर्मधुरकैरपि।
नोट-लाक्षा रस बनानेकी विधि भा. भै. र. नासा निषिक्त पति वासघा हिका नियच्छति।। प्रथम भागके ३५३ पृष्ठ पर देखिये । स्त्रीके दूध और मधुरादिगण के कल्कके
(३४८७) निम्बादितम् (२) साथ सिद्ध घृत पीने यो उसकी नस्य लेनेसे हिचकी
(भा. प्र. । ख. २. मसू.) शीघ्रही बन्द हो जाती है। ( मात्रा-१ से २ तोले तक ।)
चतुर्गुणेन निम्बोत्थपत्रकाथेन गोघृतम् । (३४८६) निम्बादिघृतम् (१)
पचेत्ततस्तु निम्बस्य कृतमालस्य पत्रजैः ॥
कल्कैर्भूयः पचेत्सिद्धं तत्पिबेत्पलसम्मितम् । (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४२)
पधिनीकण्टकाद्रोगान्मुक्तो भवति नान्यथा ॥ निम्बं पटोलं च किरातकश्च
नीमके पत्तोंका काथ ४ सेर, गोघृत १ सेर, जाती विशाला सपुनर्नवा च ।
और नीम तथा छोटे अमलतासके पत्तोंका कल्क ६ पयोदलाक्षारसमेव वासा
तोले ८ माशे लेकर एकत्र मिलाकर पकावें । जब त्रायन्तिका बिल्वककुष्ठयष्टिः॥
समस्त काथ जल जाय तो घीको छानकर उसमें १. मधुरादि गण-काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक,
उपरोक्त काथ और कल्क मिलाकर पुनः पकावें । ऋषभक, ऋद्धि,वृद्धि, मेदा, महामेवा, गिलोय, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, पद्माक, बंसलोचन, काकड़ासिंगी, पुण्डरिया,
इसे ५ तोलेकी मात्रानुसार पीनेसे पभिनीजीवन्ती, मुलेठी, और दाख (मुनका)।
कण्टक रोग दूर होता है।
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