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लेहमकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[३३१]
जीर्णज्वर, छर्दि (वमन ), तृषा, अरुचि, श्वास, | आटा आधा सेर लेकर सबको पृथक् पृथक् समान शोष, हिचकी, कामला, हृद्रोग, पाण्डु, गुल्म, ! भाग धीमें भूनें । तत्पश्चात् ३ सेर खांडकी त्रिदोषज प्रदर, वातरक्त, कृशता और रक्तपित्तका चाशनी बनाकर उसमें ये तीनों भुनी हुई चीजें नाश होता है।
अच्छी तरह मिलाकर निम्न लिखित ओषधियोंका यह बल वीर्य वर्द्धक, हृदयके लिये हितकारी, चूर्ण मिला दें। धातुपुष्टिकर और स्त्रियोंके लिये वृंहण है । दोनों मूसली, तालमखाना, असगंध, शता
इसके निरन्तर अभ्याससे मनुष्य बलीपलित वर, विधारा और कौंचके बीज ५-५ तोले । रहित हो जाता है।
जायफल, जावत्री, अकरकरा, दारचीनी, लैांग, ( मात्रा-२ तोले । अनुपान-दूध ।)
केसर, नागकेसर, बंगभस्म तथा अभ्रकभस्म ११,
१। तोला। (४०३३) पिष्टिपाक:
समस्त चीजें अच्छी तरह मिलाकर १०(नपुं. मृता. । त. ४) १० तोलेके लडु बनाकर रक्खें । पस्यैकं माषजां पिष्टिं प्रस्थाई मुद्गजां तथा।
इन्हें नित्य प्रति प्रातःकाल सेवन करनेसे गोधूमानां च वै चूर्णमर्द्धप्रस्थप्रमाणत्ः॥ धृते समे विभज्याथ सर्वाश्चैव पृथक पृथक् ।।
| कमरका दर्द और कृशता नष्ट होकर पलवृद्धि
होती है। पाकं चैव विधायाथ शर्करामस्थकत्रयम् ॥ पाकं कृत्वा विधानेन पश्चाच्चूणीश्च मेलयेत्।। | यह उत्तम वाजीकरण भी है । मुशलीद्वयमिद्धं च अश्वगन्धां शतावरीम् ॥ वृद्धदारं कपीकच्छ पलैकांचूर्णयेत्पृथक् ।
| (४०३४) पुनर्नवहरीतक्यवलेहः जातीफलं जातिको आकारकरभ त्वचम् ॥
(ग. नि. । लेहा. ५) लवङ्गं चैव काश्मीरं तथैव नागकेशरम् । पुनर्नवायाः प्रस्थं तु चित्रकस्य तथैव च । वङ्गमभ्रं च सम्मेल्य कर्पकर्षप्रमाणतः ॥
पाठानागरदन्तीनां भागान्दशपलोन्मितान् ।। कारयित्वा विधानेन द्विपलिकांश्च मोदकान् ।।
दशमूलतुलार्द्धन्तु पथ्यानां शतमेव च। मातनित्यं भक्षणीयं पाकोयं पिष्टिसम्भवः ॥
चतुर्गुणेऽम्भसः पक्त्वा पूर्त पादावशेषितम्।। कटीशूलं च काय च नाशयेनात्र संशयः।
गुडस्यैकां तुलां क्षिप्त्वा लेहवत्साधु साधयेत् । बलवृद्धिकरं शश्वद्वाजीकरणमुत्तमम् ।।
क्षिपेच्चूर्णीकृतं तत्र त्रिजातं त्रिकटुं तथा ॥ उर्दकी छिलके रहित दालकी बारीक पिट्ठी नागकेसरसंयुक्तं पलांशमुपकल्पितम् । १ सेर, मुंगकी दालकी पिट्ठी आधासेर तथा गेहूंका ! शीते भूते ततो दद्यात्कुडवं माक्षिकस्य च ॥
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