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चूर्णप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[ १७१ ]
विडङ्गश्च समांशानि दन्तीभागत्रयं तथा । । अतिरिक्त इसे भगन्दर, पाण्डु, खांसी, श्वास, गलत्रिद्विशाले द्विगुणे सातला स्याच्चतुर्गुणा ॥ ग्रह, हृद्रोग, ग्रहणी, कुष्ठ, अग्निमांद्य, ज्वर, दंष्ट्राएतन्नारायणं नाम चूर्ण रोगगणापहम् । विष, मूलविष और गरविषादि में भी उचित अनुएनत्माप्य निवर्तन्ते रोगा विष्णुमिवासुराः ॥ | पानके साथ देना चाहिये । तक्रेणोदरिभिः पेयो गुल्मिभिर्बदराम्बुना ।
प्रथम रोगीको स्निग्ध करके यह चूर्ण सेवन आनद्धवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया ॥
| कराया जाय तो भली भांति विरेचन हो जाता है। दधिमण्डेन विटसङ्गे दाडिमाम्बुभिरर्शसि । परिकर्तेषु वृक्षाम्लैरुष्णाम्बुभिरजीर्णके ॥
(३४३६) नारायणचूर्णम् (२) भगन्दरे पाण्डुरोगे कासे श्वासे गलग्रहे।
( भै. र.; धन्व. । अति.; वृ. नि. र. । संग्र.) हृद्रोगे ग्रहणीरोगे कुष्ठे मन्दानले ज्वरे ॥ गुडूची वृद्धदारश्च कुटजस्य फलन्तथा। दंष्टाविषे मूलविषे सगरे कृत्रिमे विषे। बिल्वञ्चातिविषाश्चैव भृङ्गराजश्च नागरम् ॥ यथाई स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम् ॥ | शक्राशनस्य चूर्णश्च सर्वमेकत्र मेलयेत् ।
अजवायन, हाऊबेर, धनिया, हर्र, बहेड़ा, चूर्णमेतत्समं ग्राह्यं कुटजस्य त्वचोपि च ॥ आमला, कलांजी, कालाजीरा, पीपलामूल, अजमोद गुडेन मधुना वापि लेहयेद्भिषजां वरः। सठी ( कचूर ), बच, सोया, जीरा, सोंठ, मिर्च, । शोथं रक्तमतीसारं चिरजं दुर्जयन्तथा ॥ पीपल, स्वर्णक्षीरी* (सत्यानाशीकी जड़-चोक), ज्वरं तृष्णाश्च कासश्च पाण्डुरोगं हलीमकम् । चीता, यवक्षार, सज्जीक्षार, पोखरमूल, कूठ, पांचो मन्दानलप्रमेहश्च गुदजश्च विनाशयेत् ॥ नमक और बायबिडंग १-१ भाग तथा दन्तीमूल एतन्नारायणं चूर्ण श्रीनारायणभाषितम् ॥ ३ भाग, निसोत+ और इन्द्रायन २-२ भाग |
गिलोय, विधारा, इन्द्रजौ, बेलगिरि, अतीस, और सातला ४ भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
भंगरा, सेठ, और भंगका चूर्ण १-१ भाग तथा ____ इसे उदर रोगों में तक्रके साथ, गुल्म में
कुड़ेकी छालका चूर्ण सबके बराबर लेकर सबको बेरके काथके साथ, वायुके निरोध में सुराके साथ,
एकत्र मिलावें । इसे गुड़ या शहद में मिलाकर वातव्याधिमें प्रसन्ना ( सुराभेद ) के साथ, मलकी
सेवन करनेसे शोथ रक्तातिसार, कष्टसाध्य पुराना कठिनता में दहीके तोड़के साथ, अर्श में अनारके
अतिसार, ज्वर, तृष्णा, खांसी, पाण्डु, हलीमक, रसके साथ, परिकर्तिका (कैंचीसे काटनेके समान
अग्निमांद्य, प्रमेह और अर्श का नाश होता है पीड़ा ) में इमलीके पानीके साथ, तथा अजीर्णमें उष्ण जलके साथ सेवन करना चाहिये । इनके ( मात्रा १ से ३ माशे तक । )
* यो. चि. म. में स्वर्णक्षीरोकी जगह कंकुष्ठ लिखा है । + शाधर में निसोत ३ भाग लिखा है।
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