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त-भैषज्य रत्नाकरः ।
[ ४४६ ]
ततः पुटानि देयानि वक्ष्यमाणैर्महौषधैः । वंशपरसैः पूर्वं पुटयेदातपे भिषक् ॥ मण्डूकपर्णी चित्रञ्च दन्तीरसपुनर्नवे । त्रिता तालपटोलं चास्थिसंहार एव च ॥ आर्द्रकं तालमूली च सूर्य्यावर्त्तञ्च शिम्बिका । केशराजो भृङ्गराजः शतमूली च मुस्तकम् ॥ ततः प्रक्षिप्य चूर्णानि हिङ्गुकर्षचतुष्टयम् । सप्तधा पेषयेद्गाढं त्रिफलाकाथवारिणा ॥ तेनैव गुटिकां कुर्यान्मापैकैकप्रमाणिकाम् । बटिकाद्वितयं भक्ष्यमम्लवानुपानतः ॥ वयोवस्थामग्निवलं व्याधिं प्रकृतिमेव च । दृष्ट्वा मात्रां प्रयुञ्जीत यथाक्षेपं प्रदीयते ।। ग्रहणीमम्लपित्तञ्च पित्तश्लेष्माणमेव च । असि वहूनिसादञ्च लीहानमरुचिन्तथा ॥ afrai निहन्त्याशु नात्र कार्या विचारणा ||
भारत
मानकन्द, अश्वकर्णपलाशकी छाल, निसोत, नागरमोथा, तुनकी छाल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आभला, भंगरा, चिरचिटा (अपामार्ग), अनारदाना, तुम्बी, कटैली, जावित्री, जायफल, सौंफ, हुरहुर और तालमूलीका चूर्ण १-१ कर्ष (१। - १| तोला), बायबिडंगका चूर्ण २ कर्ष, शुद्ध गन्धक पौन कर्म तथा गिलोयका चूर्ण ४ कर्ष लेकर सबको एकत्र मिलावें ।
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तदनन्तर ४ कर्ष शुद्ध अभ्रकके कपड़छन चूर्णको खट्टी कांजी अथवा दूध में डाल दें और पांचवें दिन निकाल लें ।
इसी प्रकार शुद्ध मण्डूरके ४ कर्ष चूर्णको तपा तपाकर (७ बार ) त्रिफलाके काथ अथवा हुरहुर स्वरस या इन दोनों में बुझावें ।
[ पकारादि
तदनन्तर उपरोक्त अभ्रक और मण्डूरको एकत्र मिलाकर उन्हें वंशपत्री, मण्डूकपर्णी, (ब्राह्मी), चीता, दन्तीमूल, पुनर्नवा, निसोत, ताड़, पटोल, अस्थिसंहार, अद्रक, तालमूली, हुरहुर, सेम, कालाभंगरा, मंगरा, शतावर और नागरमोथे में से जिनके स्वरस मिल सकें उनके स्वरसकी और शेषके काथे की धूपमें पृथक् पृथक् १ - १ भावना दें ।
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इसके बाद इसमें पूर्वोक्त ओषधियांका चूर्ण तथा ५ तोले भुनी हुई हींग मिलाकर सबको त्रिफला काथकी सात भावना देकर १-१ माशे की गोलियां बना लें ।
इनमें से २-२ गोली काञ्जी के साथ सेवन करने से ग्रहगीरोग, अम्लपित्त, शीतपित्त, अर्श, अग्निमय, तिल्ली और अरुचिका नाश होता है।
इसकी मात्राका निर्णय रोगीकी आयु, रोगकी दशा और अग्नि, बल तथा प्रकृति आदिका विचार करके करना चाहिये ।
नोट- उपरोक्त विधिसे अभ्रक कच्चा रहता है इस लिये अभ्रक और मण्डूर के चूर्ण को मिलाकर बंशपत्री आदिके रस में घोट घोटकर पृथक् पृथक् १-१ गज पुट लगा देनी चाहिये ।
(
४३३१) पानीयवटिका (१)
( र. रा. सुं.; मैं. र. । ज्वरा. ) रसमाषकचत्वारि इष्टकागुण्डके ग्रहम् । शोधयित्वा ततः शोध्यं तीक्ष्णपर्णे तथाके ॥ स्वर्णस्तूरसत्वे च वृद्धदारद्रवे तथा । कन्यकानिजसत्वे च रसशोधनमुत्तमम् ॥ गन्धकं रसतुल्यन्तु प्रक्षाल्य तण्डुलाम्बुना । कृत्वा तैलसमं दय निर्वाप्य चित्रकद्भवे ॥
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